हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 224 ⇒ डाॅ अनोख सिंग… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डाॅ अनोख सिंग।)

?अभी अभी # 224 ⇒ डाॅ अनोख सिंग… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ लोग अनोखे होते हैं तो कुछ लोगों के नाम में कुछ अनोखापन होता है, लेकिन डाॅ अनोख सिंग तो यथा नाम तथा गुण थे यानी एक अनोखे दिलचस्प इंसान। किसी व्यक्ति के आगे डॉक्टर लगते ही यह भ्रम हो जाता है कि जरूर वह कोई डॉक्टर होगा, और वाकई अनोख सिंग एक डॉक्टर ही थे।

भले ही जात न पूछो साधु की, लेकिन किसी डॉक्टर की डिग्री तो परख ही लेनी चाहिए। चिकित्सा एक व्यवसाय है और आजकल जितने रोग उतने डॉक्टर ! एलोपैथी की तरह ही कई समानांतर चिकित्सा आज उपल्ब्ध है, जिनमें एक्यूप्रेशर और एक्यूपंक्चर प्रमुख हैं। डा अनोख सिंग एक्यूपंक्चर चिकित्सा में पारंगत थे और दमा यानी अस्थमा का इलाज करने माह में एक बार भटिंडा से इंदौर आते थे। वे नियमित रूप से माह के हर पहले रविवार और सोमवार को आते मरीजों का इलाज करते थे। ।

उनके पास कोई जादू की छड़ी अथवा भभूत नहीं थी, लेकिन हां एक झोला जरूर था जिसमें कुछ सुइयां थीं, जो मरीजों को चुभाई जाती थी। डॉक्टर तो वैसे भी कसाई ही होते हैं, जब कि यह तो सिर्फ सुई ही चुभाता था। हमारे शरीर में हर बीमारी के कुछ पॉइंट्स होते हैं, जिनमें कहीं एक्यूप्रेशर काम करता है तो कहीं एक्यूपंक्चर।

सर्दी जुकाम, नजला और खांसी जब बेइलाज हो जाती है, तो वह सांस का रोग बन जाती है। कई इलाज हैं अस्थमा के एलोपैथी में ! गोली, इंजेक्शन, और सबसे अधिक कारगर इन्हेलर। बस मुंह खोलें और फुस फुस करते हुए दवा मुंह के अंदर। मछली की तरह तड़फता है एक दमे का रोगी, जब उसकी सांस उखड़ जाती है। एलर्जी टेस्ट से निदान में सहायता अवश्य मिलती है। कुछ लोग तो साउथ जाकर मछली का सेवन भी करने को तैयार हो जाते हैं तो कुछ आयुर्वेद पर भरोसा करते हैं। ।

अगर मैं भी सांस का शिकार ना होता तो शायद इस अनोखे इंसान से मिल भी नहीं पाता। किसी भुक्तभोगी सज्जन ने मुझे ना केवल इनकी जानकारी ही दी, एक दिन इनसे मेरा एक मरीज के रूप में परिचय भी करा दिया। छः फिट का एक आकर्षक खुशमिजाज सरदार, मानो अभी फौज से ही लौटकर आया हो।

नाम बताइए ? मैने अपना नाम बताया, पी के शर्मा !

उन्होंने मुझे घूरा अथवा निहारा, फिर बोले, महाराष्ट्र में हमें एक पी के झगड़े मिले थे, और हंस दिए।

हमारा उपचार शुरू हुआ, हमें भी छाती सहित कुछ जगह सुइयां चुभाई गई। खटमल मच्छर के काटने से थोड़ा अधिक दर्द भी महसूस हुआ, लेकिन असहनीय नहीं। केवल बीस मिनिट का खेल था सुइयां चुभाने का। हिदायतों का पिटारा लिए हमने उनसे विदा ली। ।

हम जहां भी गए हैं, अंध श्रद्धा नहीं, कुछ शंका लेकर ही गए हैं। सोचा अगर तत्काल असर ना भी हुआ तो अपनी दर्द निवारक सांस की गोली तो पास है ही। कुछ दिन तक हम अपनी सांस ढूंढते रहे लेकिन सांस ने उखड़ने से साफ इंकार कर दिया। हमें लगा डॉक्टर तेरा जादू चल गया।

अगले माह डॉक्टर ने फिर बुलाया था। मरीजों की भीड़ कहां नहीं, कितनी बीमारियां कितने रोग ! मुझे देखकर मुस्कुराए, कैसे हो झगड़े साहब ? यानी यहां मेरा नामकरण भी हो चुका था। अब मैं उनसे झगड़ा करने से तो रहा, क्योंकि उन्होंने मुझे पी.के.झगड़े के इतिहास के बारे में पहले ही बता दिया था। वे जितने आत्मीय थे, उतने ही मजाकिया भी।

हंसते हंसते सुइयां चुभाना कोई उनसे सीखे। ।

हर मरीज से उनका वार्तालाप बड़ा रोचक होता था। एक रिश्ता जो मन को भी मजबूत करे और रोगी में विश्वास का संचार करे। कई क्रॉनिक पेशेंट्स को स्ट्रेचर पर लाया जाता था, दूर दूर से रोगी इसी आस से आते थे, कि सांस में कुछ फायदा हो। लेकिन अगर हर डॉक्टर मसीहा ही होता तो शायद इस संसार में कोई रोगी ही नहीं होता।

हर व्यक्ति के जीवन में उतार चढ़ाव आते है, डाॅ अनोख सिंग भी आखिर थे तो एक इंसान ही। एक बार उन्हें लकवा मारा, फिर उठ खड़े हुए, बेटे की मौत का सदमा भी हंसते हंसते झेला, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारी। जब भी वापस आते, उसी उत्साह और उमंग के साथ। जिस माह नहीं आते, मरीज निराश हो जाते। ।

मैं हमेशा उनके लिए मिस्टर पी.के.झगड़े ही रहा। हमेशा सबसे मेरा परिचय यही कहकर कराते, ये झगड़े साहब हैं, लेकिन कभी हमसे नहीं झगड़ते। कोरोना काल में उनका आना जो एक बार बंद हुआ तो हमेशा के लिए ही हो गया। कोरोना ने उनको भी नहीं छोड़ा।

आज जब भी कभी थोड़ी सांस उखड़ती है अथवा किसी अस्थमा के मरीज को देखता हूं, तो अनायास ही इस अनोखे इंसान की याद आ जाती है। कुछ सुइयां रिश्तों की भी होती हैं, जब याद आती है, बहुत चुभती है। एक ऐसा दर्द जो मर्ज को ही गायब कर दे। क्या इसे ही रिश्तों का मीठा दर्द कहते हैं, सुइयां चुभाने वाले डाॅ अनोख सिंग अगर आज होते, तो जरूर जवाब देते।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #210 ☆ सार्थक चिंतन : सार्थक कार्य-व्यवहार ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सार्थक चिंतन : सार्थक कार्य-व्यवहार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 210 ☆

☆ सार्थक चिंतन : सार्थक कार्य-व्यवहार ☆

‘आपका हर विचार, हर कथन व हर कार्य आपके  हस्ताक्षर होते हैं और जब तक आप अपनी सोच नहीं बदलते, अपने अनुभवों की गिरफ़्त में रहते हैं।’ यह वाक्य कोटिश: सत्य है, जिसमें ज़िंदगी का सार निहित है। मानव अपनी सोच व विचारों के लिए स्वयं उत्तरदायी है, क्योंकि वे ही कार्यों के रूप में प्रतिफलित होते हैं और आपके हस्ताक्षर बनते हैं। हम ही उन परिणामों के लिए उत्तरदायी भी होते हैं। गीता के कर्मफल का सिद्धांत, इसका अकाट्य प्रमाण है… ‘जैसा कर्म करेगा, वैसा ही फल देगा भगवान…वैसा ही भोगेगा इंसान।’ सो! मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहियें और वह शुभ कर्म तभी कर पाएगा, जब उसकी सोच सकारात्मक होगी… सोच तभी सकारात्मक होगी, जब वह नकारात्मकता के व्यूह से मुक्त होगा। ब्रह्मांड में दैवीय व राक्षसी शक्तियां अपने-अपने कार्य में लीन हैं अथवा संघर्षरत हैं… एक-दूसरे पर विजय प्राप्त कर लेना चाहती हैं। यह मानव की प्रकृति व सोच पर निर्भर करता है कि वह शुभ-अशुभ में से किस ओर प्रवृत्त होता है। हम आधे भरे हुए गिलास को देख कर, उसके खाली होने पर चिंतित व निराश हो सकते हैं और सकारात्मक सोच के लोग उसे आधा भरा जान कर संतोष प्राप्त कर सकते हैं; अपने भाग्य की सराहना कर सकते हैं और प्रभु के शुक्रगुज़ार हो सकते हैं। सुखी व दु:खी होना तो हमारे जीवन के प्रति दृष्टिकोण और नज़रिये पर निर्भर करता है।

प्रकृति बहुत विशाल है और पल-पल रंग बदलती है।  हम गुलाब के मनोहारी सौंदर्य व उसकी खुशबू का आनंद ले सकते हैं, परंतु उसे कांटो से घिरा हुआ देखकर, नियति पर कटाक्ष भी कर सकते हैं। ओस पर पड़ी जल की बूंदों को, मोतियों के रूप में निहार कर, हम उस नियंता की कारीगरी की सराहना कर सकते हैं, दूसरी ओर संसार को दु:खालय समझ, ओस की बूंदों को प्रकृति के अश्रु-प्रवाह के रूप में अंकित कर सकते हैं। यह जीवन है… जहां सुख व दु:ख दोनों मेहमान हैं, बारी-बारी आते हैं और लौट जाते हैं, क्योंकि लंबे समय तक यहां कोई नहीं ठहर पाया। सो! मानव को सुख-दु:ख के आने पर खुशी व जाने का शोक नहीं मनाना चाहिए। प्रकृति का नियम अटल है और उसकी व्यवस्था निरंतर चलती रहती है। दिन-रात, अमावस-पूनम, पतझड़-वसंत सबका समय निश्चित है, निर्धारित है…जो आया है,  अवश्य जाएगा। ‘जब सुख नहीं रहा, तो दु:ख की औक़ात क्या’ जो वह सदैव बना रहेगा। हमें यह सोचकर अपने मन में मलिनता नहीं आने देनी चाहिए, क्योंकि यही सोच हमारी ज़िंदगी का आईना होती है और आईना कभी झूठ नहीं बोलता। शायद! इसीलिये चेहरे को मन का दर्पण कहा गया है, जो मन के भावों को उजागर कर देता है, उसकी हक़ीक़त बयान कर देता है तथा उसके अंतर्मन में वे भाव उसी रूप में परिलक्षित होने लगते हैं। यदि आप लाख परदों के पीछे छिप कर कोई ग़ुनाह करते हैं, तो वह भी परमात्मा के संज्ञान में होता है अर्थात् वह  सब जानता है। यह कोटिश: सत्य है कि उससे कोई भी बात छुपी नहीं रह सकती।

शायद! इसीलिए मानव को भाग्य-निर्माता की संज्ञा दी गई है, क्योंकि वह अपनी तक़दीर को किसी भी दिशा की ओर अग्रसर कर सकता है और वह उसके अथक परिश्रम व दृढ़-संकल्प पर निर्भर करता है। अब्दुल कलाम जी के शब्द इस भाव को पुष्ट करते हैं कि ‘जो कठिन परिश्रम करते हैं, उन्हें मनचाहा फल शीघ्रता से प्राप्त हो जाता है और जो भाग्य के सहारे, हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहते हैं, उन्हें तो जो भाग्य में लिखा हुआ है अर्थात् शेष बचा हुआ ही प्राप्त होता है।’ सो! मानव को उस समय तक निरंतर कर्म-रत  रहना चाहिए, जब तक उसे इच्छित लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। इसके साथ ही मानव को खुली आंख से सपने देखने चाहियें और जब तक आप उन्हें साकार करने में सफल नहीं हो जाते, पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए। सो! वे सपने एक दिन अवश्य फलित होंगे, क्योंकि साहसी लोगों की ज़िंदगी में कभी हार नहीं होती, वे सदैव विजयी होते हैं।

‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’ इस संसार में असंभव कुछ है ही नहीं, क्योंकि असंभव शब्द मूर्खों के शब्दकोश में होता है। परंतु अपनी मंज़िल को प्राप्त करने हेतु मानव की दृष्टि सदा आकाश की ओर तथा कदम धरती पर टिके रहने चाहिएं, क्योंकि जब तक हमारी जड़ें ज़मीन से जुड़ी रहेंगी, मन में दैवीय गुण स्नेह, सौहार्द, करुणा, त्याग, सहानुभूति, सहनशीलता आदि विद्यमान रहेंगे और हम मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेंगे…मानव-मूल्यों के प्रति सदैव समर्पित रहेंगे। सो! समाज में आपका मान-सम्मान बना रहेगा। इस स्थिति में सब आपको नमन करेंगे और आपका अनुसरण करेंगे। मानव के आचार- विचार, उसकी शौहरत, कार्य-व्यवहार व व्यक्तित्व के गुण… व्यक्ति के पहुंचने से पहले उस स्थान पर पहुंच जाते हैं…यह शाश्वत सत्य है।

आइए! इस विषय पर चिंतन-मनन करें कि ‘जब तक आप अपनी सोच नहीं बदलते, अनुभवों की गिरफ़्त में रहते हैं।’ वास्तव में जब तक हमारे अंतर्मन में नकारात्मक भाव विद्यमान रहते हैं; हम उनके शिकंजे से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते। सो! उस स्थिति में हमारी दशा जहाज़ के उस पक्षी की भांति होती है, जिसे दूर-दराज़ तक केवल जल ही जल दिखाई देता है और असहाय दशा में वह बार-बार उसी जहाज़ पर लौट आता है। इसी प्रकार नकारात्मक विचार हमारे मन के भीतर चक्कर लगाते रहते हैं और उससे अलग हम कुछ भी अनुभव नहीं कर पाते… अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति व संकुचित दृष्टि से इतर कुछ भी देख नहीं पाते। मानव अपनी सोच के अनुसार स्वयं को, कोल्हू के बैल की भांति उसके आसपास चक्कर लगाता हुआ अर्थात् उस व्यूह के आसपास घूमता हुआ पाता है। हां! वह अनुभव तो करता है, परंतु उससे बाहर नहीं झांकता और वह स्थिति मानव की नियति बन जाती है। जब तक हम दूरदर्शिता नहीं रखेंगे, हमारा दृष्टिकोण विशाल नहीं हो पाएगा और हम उसी स्थिति में अर्थात् कूप-मंडूक बने रहेंगे। यदि हम जीवन में कुछ करना चाहते हैं, तो हमें अपना लक्ष्य निर्धारित करना होगा। उसके लिए हमें दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी होगी, बल्कि स्वयं पर भरोसा कर, लक्ष्य-प्राप्ति का हर संभव प्रयास करना होगा।

यह है आत्मविश्वास का दूसरा रूप…यदि हमारा निश्चय दृढ़ है, इरादा अटल है और हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर विश्वास है, तो दुनिया की कोई ताकत हमारे पथ की बाधा नहीं बन सकती… अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती। सो! आत्मविश्वास के साथ आवश्यकता है…दृढ़ निश्चय व अथक परिश्रम की, क्योंकि किस्मत व हौसलों की जंग में, विजय सदैव हौसलों की होती है और उस स्थिति में भाग्य भी उनके सम्मुख घुटने टेक देता है। यदि आप में साहस है, तो आप यथाशक्ति निर्देश देकर स्वयं को भी नियंत्रित कर सकते हैं और अपने भाग्य को जैसा चाहें, निर्मित कर सकते हैं । व्यवहार हमारे मस्तिष्क का आईना होता है। आईना सत्य का प्रतीक है, जिसमें सत्य-असत्य, शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, सब उसके यथार्थ  रूप में झलकता है तथा वह स्वयं से मुलाक़ात अथवा साक्षात्कार कराता है।

अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि ‘मानव को अपनी तुलना कभी भी दूसरों से नहीं करनी चाहिए, क्योंकि परमात्मा ने पृथ्वी पर आप जैसा दूसरा इंसान बनाया ही नहीं।’ इसलिए खुद पर विश्वास कर, दूसरों से उम्मीद मत रखिए, क्योंकि आप स्वयं ही अपने भाग्य-विधाता हैं, भाग्य-निर्माता हैं। आपकी सोच आपके मस्तिष्क की उपज होती है, जो आपके कार्य -व्यवहार में झलकती है और आपके विचार, कथन व कार्य आपके हस्ताक्षर होते हैं, जिसके उत्तरदायी आप स्वयं होते हैं। इसलिए सदैव सकारात्मक सोच को जीवन में धारण कर, अपने जीवन को श्रेष्ठ व अनुकरणीय बनाइए, क्योंकि मानव जीवन के समान समय भी अत्यंत अनमोल व दुर्लभ है। आप सारे जहान की दौलत की एवज़ में, समय की एक घड़ी भी नहीं खरीद सकते। सो! हर पल का सदुपयोग कीजिए, अपने मालिक स्वयं बनिये, अपने निर्णय लेने का अधिकार, दूसरों को मत सौंपिये और स्वतंत्रता व आनंद से अपना जीवन बसर कीजिए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 223 ⇒ लिफाफा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लिफाफा…।)

?अभी अभी # 223 ⇒ लिफाफा… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Enve..lope*

खत का मजमून भांप लेते थे जो कभी लिफाफा देखकर, उन्हें आजकल कोई खत ही नहीं लिखता ! वैसे तो खाली लिफाफे का कोई वजूद नहीं, फिर भी लिफाफा आखिर लिफाफा ही होता है।

चिट्ठी वह, जिसमें मजमून हो, लिफाफा वह जिसमें कुछ शगुन हो। नकद को नजर जल्द लग जाती है, लिफाफे में इज्जत रह जाती है। लिफाफे की साइज नहीं, वजन देखा जाता है। कुछ बड़े बड़े नोटों ने जरूर बीच में लिफाफे की साइज बढ़ाने पर मजबूर कर दिया था, लेकिन नोटबंदी ने सब कुछ संभाल लिया।।

याद आते हैं, बाबा आदम के जमाने के दस दस और सौ सौ रुपए के बड़े बड़े नोट, जो लिफाफों में फूले न समाए फिरते थे और आम आदमी बेचारा सवा, दो, पांच और ग्यारह रुपए के शगुन से ही शादियां निपटाया करता था।

दो और पांच रुपया आज सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन हमारे जमाने तक तो सरकार ने बीस और पचास रुपए के नोट छापकर हमें भी इस धर्मसंकट से मुक्त कर दिया था। शादी का निमंत्रण आने के पहले से ही ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन और एक सौ एक, के कड़क नोट लिफाफे में तैयार रख लिए जाते थे। अब किसको क्या मिला, यह मुकद्दर की नहीं, उसके और हमारे स्टेटस की बात है।।

अगर शादियों में जाना है, तो स्टेज पर तो जाना ही पड़ता है। खाली हाथ भी कभी कोई दूल्हा दुल्हन को आशीर्वाद देता है, ससुरे वीडियो तक बना लेते हैं आजकल। आपका आशीर्वाद ही उपहार है, और वे भी जानते हैं आशीर्वाद खाली हाथ नहीं दिया जाता। गुलदस्ता भी हार फूल ही तो है, उपहार तो बनता ही है आखिर।

सामने वाला तो आजकल दिल खोलकर शादी में खर्च करता है, लेकिन हमें भी तो कई शादियां निपटानी हैं। सोच समझकर लिफाफा बनाना पड़ता है। कब इक्कावन एक सौ एक हो गया और कब एक सौ एक, पांच सौ, कुछ पता ही नहीं चला। बीच में कोई सम्मानजनक आंकड़ा भी नहीं, जहां थोड़ा सुस्ता लिया जाय, भैया वाजबी लगा लो। २५१ के भी कुछ लिफाफे बने, लेकिन बात नहीं बनी। सामने वाला भी सोचने लगे, यहां भी फिफ्टी फिफ्टी। चार लोग आए, चार चार सौ की चार प्लेट खाकर चले गए।।

दर्पण भले ही झूठ ना बोले, लेकिन लिफाफा कभी मुंह ना खोले। दूल्हा दुल्हन के साथ स्टेज पर आशीर्वाद स्वरूप उपहार संग्रह करने वाली अक्सर बहन अथवा सहेली ही हुआ करती है। उपहारों और लिफाफों का ढेर लग जाता है, जिसे बाद में पारखी नजरों से पहले टटोला जाता है। और सबसे आखिर में लिफाफों की जांच पड़ताल होती है।

खुल जा सिम सिम! नाम नोट करो भाई, किसने क्या दिया है, वापस लौटाते वक्त खयाल रखना पड़ता है। तेरा तुझको अर्पण। लिफाफे नहीं हुए, कच्चे चिट्ठे हो गए। शर्मा जी और इक्यावन ? शर्म नहीं आई, महंगी आइसक्रीम खाते और पान चबाते। बस चले तो इनकी लड़की की शादी में खाली लिफाफा ही टिका दें। बड़े, बड़े बाबू बने फिरते हैं दफ्तर में।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 223 ⇒ अच्छा बनना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अच्छा बनना।)

?अभी अभी # 223 अच्छा बनना? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक कप अच्छी चाय बनाना ! चाय अच्छी बननी चाहिए। हर इंसान भी चाय की तरह अच्छा बनना चाहता है। मैंने लोगों को बुरी चाय को फेंकते भी देखा है। ऐसे लोग बुरे इंसानों को भी अपने जीवन से निकाल फेंकते हैं। क्या ऐसे लोग खुद अच्छे हैं, इसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं।

कोई यह कहने को तैयार नहीं कि वह बुरा है। इसका तो यही मतलब हुआ कि सभी अच्छे हैं, जगत में कोई बुरा नहीं। फिर ये बुरे लोग और बुराई कहां है। मत पूछो बुराई कहां नहीं। लोग बहुत बुरे हैं, ज़माना बहुत बुरा है। हमारे जैसे अच्छे लोगों के रहने लायक बिल्कुल नहीं। क्या आपको किसी में बुराई नजर नहीं आती। कैसे आदमी हो। ।

‌लगता है, हमारा जन्म ही एक अच्छे इंसान बनने के लिए हुआ है। बड़े भाग मानुष तन पाया। बच्चे कितने अच्छे होते हैं। उन्हें अच्छा बनना नहीं पड़ता। लेकिन जैसे जैसे वे बड़े होते जाते हैं, हम उन्हें अच्छा बनाने में लग जाते हैं। पढ़ोगे लिखोगे, बनोगे नवाब ! खेलने कूदने से बच्चे खराब हो जाते हैं, अब विराट और धोनी को इस उम्र में कौन समझाए। वे तो खेल कूदकर ही नवाब बने हैं।

एक अच्छा आदमी बनने के लिए शिक्षा दीक्षा ज़रूरी है। जिन बच्चों में अच्छे संस्कार होते हैं, वे अच्छे इंसान बनते हैं और बुरे संस्कार वाले बुरे आदमी। हमारे संस्कार देखो, हम कितने अच्छे आदमी है। अब और कितना अच्छा बनें। अच्छा होना ज़रूरी नहीं, अच्छा बनना ज़रूरी है। वैसे भी आजकल ज़्यादा अच्छाई का ज़माना नहीं है भाई साहब। ।

केवल कबीर जैसे संत ही यह कहते पाए गए हैं, बुरा जो देखन मैं चला, मुझसे बुरा न कोय। और हमारा आलम यह है कि अच्छा जो देखन मैं चला, मुझसे भला न कोय। पर्सनालिटी डेवलपमेंट वाले ने समझाया है, मन में हमेशा यह कहते रहो, I am the best. I am the best. मुझसे अच्छा कौन है।

अपने आसपास देखिए, स्कूल कॉलेज, मंदिर मस्जिद, गुरुद्वारा, संत महात्मा, अदालत, पुलिस, कानून, कथा कीर्तन, समाज सेवी और राजनेता, प्रवचनकार, सभी हमें अच्छा बनाने पर तुले हैं, क्या हम इतने बुरे है। हम तो अच्छे हैं, फिर क्यों ये हमारे पीछे पड़े है। जो सबक बचपन में मास्टरजी देते थे, वह आज भी याद है। सदा सत्य का आचरण करो। कभी झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, एक अच्छे इंसान बनो। और लो जी, हम एक अच्छे इंसान बन गए। ।

आज जिसे हम बायो डाटा अथवा रिज्यूम कहते हैं, पहले नौकरियों के लिए टेस्टीमोनियल्स लगते थे। मार्क शीट और डिग्री की कॉपी और अन्य उपलब्धियों के साथ एक चरित्र प्रमाण – पत्र भी नत्थी किया जाता था। जिसका मजमून कुछ इस प्रकार का होता था। मैं इन्हें पिछले दस वर्षों से जानता हूं। आप एक मेहनती और ईमानदार इंसान हैं। और अंत में शुद्ध हिन्दी में ; He bears a good moral character.

क्या बनने में और होने में कोई फ़र्क होता है। क्या हम एक अच्छे इंसान नहीं, केवल बनते हैं इसका जवाब सिर्फ हमारे पास है। इस संसार में ऐसी कोई कसौटी नहीं, जो आपको अच्छा या बुरा इंसान साबित कर सके। बस अपने अंदर झांकिए, आपको जवाब मिल जाएगा। जब आप पर झूठे आरोप लगते हैं, आप लोगों की निगाह में बुरे साबित हो जाते हैं। कुछ अपराधी भी अदालत द्वारा निर्दोष बताए जाने पर छूट जाते हैं। किसी के चेहरे पर कुछ लिखा नहीं। फिर भी किसी का नाम है, और कोई बदनाम है।

अगर आप अच्छे हैं, तो बनने की कोशिश मत कीजिए। अगर नहीं हैं तो बन जाइए। बुरा इंसान किसी को अच्छा नहीं लगता। अब इस उम्र में तो सुधरने से रहे। साफ सुथरे कपड़े पहनिए, लोगों से प्रेम से व्यवहार कीजिए। लेकिन अगर कोई आपके साथ बेईमानी करे, आपको धोखा दे, आपकी बदनामी करे, तो उसे सबक सिखाइए। ज़्यादा अच्छा बनने की भी ज़रूरत नहीं है। तुमने मेरी अच्छाई ही देखी है, अब मेरा असली रूप भी देख लो।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #158 – “परीक्षा देने के महत्वपूर्ण सूत्र” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका विद्यार्थियों  के लिए एक विचारणीय आलेख – “परीक्षा देने के महत्वपूर्ण सूत्र)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 158 ☆

 ☆ परीक्षा देने के महत्वपूर्ण सूत्र ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

परीक्षा में अधिकतम अंक प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों को लिखते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:

साफ-सुथरा और सुव्यवस्थित लिखावट: परीक्षा में लिखावट का विशेष ध्यान रखना चाहिए। लिखावट साफ-सुथरी और सुव्यवस्थित होनी चाहिए ताकि परीक्षक को उत्तर पढ़ने में आसानी हो।

उत्तर की संरचना: उत्तर की संरचना स्पष्ट और सुसंगत होनी चाहिए। उत्तर को प्रस्तावना, मुख्य विचार और निष्कर्ष में बांटकर लिखना चाहिए।

उत्तर की सटीकता: उत्तर सटीक और पूर्ण होना चाहिए। उत्तर में किसी भी प्रकार की गलती नहीं होनी चाहिए।

उत्तर की भाषा: उत्तर की भाषा सरल और स्पष्ट होनी चाहिए। उत्तर में किसी भी प्रकार की जटिल या अस्पष्ट भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

उत्तर की मौलिकता: उत्तर मौलिक और रचनात्मक होना चाहिए। उत्तर में किसी भी प्रकार की नकल या कॉपी-पेस्ट नहीं होनी चाहिए।

इसके अलावा, विद्यार्थियों को परीक्षा में लिखते समय निम्नलिखित बातों का भी ध्यान रखना चाहिए:

  • परीक्षा से पहले प्रश्न पत्र का ध्यानपूर्वक अध्ययन करें। प्रश्नों के प्रकार, उत्तर देने के लिए दिए गए समय और अंकों की जानकारी प्राप्त करें।
  • प्रश्नों को ध्यान से पढ़ें और समझें। प्रश्नों के अनुरूप उत्तर दें।
  • यदि कोई प्रश्न समझ में न आए तो उसे छोड़ दें और बाद में उस पर विचार करें।
  • उत्तर देने के लिए दिए गए समय का सदुपयोग करें।
  • परीक्षा के दौरान धैर्य रखें और तनाव से बचें।
  • इन बातों का ध्यान रखकर विद्यार्थी परीक्षा में अधिकतम अंक प्राप्त कर सकते हैं।

 यहां कुछ अतिरिक्त सुझाव दिए गए हैं जो विद्यार्थियों के लिए उपयोगी हो सकते हैं:

  •  नियमित रूप से अभ्यास करें। परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए नियमित रूप से अभ्यास करना आवश्यक है।
  • प्रश्न पत्रों का हल करें। पुराने प्रश्न पत्रों का हल करके परीक्षा के पैटर्न और प्रश्नों के प्रकार के बारे में जानकारी प्राप्त करें।
  • समय प्रबंधन पर ध्यान दें। परीक्षा में अधिक अंक प्राप्त करने के लिए समय प्रबंधन पर ध्यान देना आवश्यक है।
  • स्वस्थ आहार लें और पर्याप्त नींद लें। परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए स्वस्थ आहार लें और पर्याप्त नींद लें।
  • इन सुझावों का पालन करके विद्यार्थी परीक्षा में अधिकतम अंक प्राप्त कर सकते हैं और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

09-02-2021

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 222 ⇒ टेढ़े मेढ़े सपने… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “टेढ़े मेढ़े सपने।)

?अभी अभी # 222 टेढ़े मेढ़े सपने? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मुझमें अष्टावक्र जितनी प्रतिभा कहां, योगगुरु जैसे कहां मैं अपने शरीर को तोड़ मरोड़ सकता, नजर कमज़ोर है लेकिन बाबा की तरह टेढ़ी नहीं, मैगी और कुरकुरे मुझे पसंद नहीं, फिर भी, न जाने क्यूं, टेढ़े मेढे़ सपनों पर मेरा बस नहीं।

हम कितने सीधे सादे हैं, अथवा कितने टेढ़े, यह या तो हम जानते हैं अथवा ईश्वर। क्या हम जैसे हैं, वैसे ही सबको नजर आते हैं। कभी झुकना और कभी तनकर खड़े रहना तो हमें खूब आता है। एक हाथ से ताली नहीं बजती। कई बार हमने भी टेढ़ी उंगली से ही घी निकाला है। फिर भी न जाने क्यूं, नींद में भी हम, अपने सपनों के मालिक नहीं हो पाए। ।

जाग्रत अवस्था में तो मन हमारी बात मान लेता है, हम जहां चाहें वहां दिखावा भी कर लेते हैं, और परिस्थिति अनुसार सच और झूठ का तालमेल बिठाकर अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं, कभी साधु तो कभी शैतान का रूप धारण कर लेते हैं, लेकिन अवचेतन में हमारा यह मन बेलगाम हो जाता है। इस पर किसी की जोर जबरदस्ती नहीं चलती। शतरंज के मोहरे की तरह कभी घोड़े जैसे ढाई घर तो कभी ऊंट जैसी तिरछी चाल। सच में तो, सपने में हम खुद किसी के मोहरे नजर आते हैं।

काश कोई ऐसा रिमोट कंट्रोल होता जिससे हम अपने सपनों पर लगाम लगा पाते, इसे अपनी मनमर्जी मुताबिक चलने के लिए मजबूर कर पाते। आज हमारे पास हर चीज का रिमोट कंट्रोल है, टीवी, मोबाइल, पंखा, एसी, कार, रेडियो, घर के दरवाजे और अन्य कई इलेक्ट्रिक उपकरण। बस एक नींद और नींद के पश्चात बिन बुलाए आने वाले टेढ़े मेढे सपनों को छोड़कर। ।

सपने हमारी सफलता, असफलता के प्रतीक हैं। दबी हुई इच्छाएं, कष्ट, संघर्ष और मानसिक तनाव, मान अपमान, प्रकट और परोक्ष भय, सबका काला चिट्ठा होता है इन सपनों में। सपने कभी आगाह करते हैं तो कभी रास्ता भी सुझाते हैं। और कभी कभी तो बड़े विचित्र तरीके से पेश आते हैं।

कहते हैं, नींद में हमारा मन सो जाता है और अवचेतन मन उसका चार्ज ले लेता है। अब हमारा रिमोट उसके हाथ। मंत्री महोदय आराम से आलीशान बंगले में सो रहे हैं, मुख्यमंत्री बनने के सपने देख रहे हैं, अचानक कहीं से एक हाथ आता है और गाल पर तड़ाक से तमाचे की आवाज से उनकी नींद खुल जाती है, देखते हैं कोई नहीं है, एक मच्छर ने गाल पर तब काटा था, जब सपने में पिताजी आ गए थे, और मंत्री महोदय अपने बचपन में चले गए थे। शर्म से अपना गाल सहलाया, अपनी बचपन में की गई कारगुज़ारियों और गुस्ताखियों पर खुद ही मुस्काए, और करवट बदलकर निश्चिंत हो, सो गए। सपना टेढ़ा है, पर मेरा है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 221 ⇒ जहाज का पंछी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जहाज का पंछी।)

?अभी अभी # 221 ⇒ जहाज का पंछी… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मेरो मन अनत कहां सुख पावै।

जैसे जहाज का पंछी, उड़ि उड़ि जहाज पर आवै।।

एक जहाज के पक्षी को तो उड़ने के लिए उन्मुक्त आकाश है, उसके तो पर भी हैं, लेकिन फिर भी थक हारकर उसे वापस जहाज पर ही आना पड़ता है, उसके अलावा कहां उसका ठौर ठिकाना। मीलों दूर तक कोई जीवन नहीं, वन जंगल, बाग बगीचा नहीं।

ठीक ऐसी ही स्थिति हमारे मन की होती है। घर संसार और अपने सगे संबंधी, यार दोस्त और जमीन जायदाद में हम इतने उलझे हुए होते हैं, कि हमारे मन की स्थिति भी एक जहाज के पंछी के समान हो जाती है, बार बार वह घर संसार की ओर ही रुख करता है।।

सैर सपाटा, घूमना फिरना किसे पसंद नहीं। बहुत इच्छा होती है, रोज की कामकाज भाग दौड़ भरी जिंदगी से फुर्सत निकालकर कुछ समय पहाड़ों और प्राकृतिक स्थानों के बीच गुजारा जाए। कितनी मुश्किल से वह पल आता है, जब परिवार के सदस्यों के चेहरे पर खुशी छा जाती है, यह जानकर कि हम सब छुट्टियां बिताने बाहर जा रहे हैं।

कितनी जल्दी कट जाते हैं सुख के पल। कभी वक्त ठहरा सा नजर आता है, तो कभी लगता है, वक्त के भी पंख लग गए हैं। खट्टे मीठे अनुभवों को ही हमारे यहां पर्यटन कहा जाता है। बहुत ही जल्द अनुभवों का खजाना और यादगार तस्वीरों के साथ आखिरकार घर लौटना ही पड़ता है।।

घर से बाहर जाने का उत्साह और वापस घर आने की खुशी को केवल महसूस किया जा सकता है। अगर अनुभव कटु रहे, तो लौटकर बुद्धू घर को आए, अन्यथा हमारी स्थिति भी एक जहाज के पंछी की तरह ही होती है। घर तो आखिर घर होता है।

जो गुरु नानक देव जैसे समर्थ गुरु होते हैं, वे इस भव संसार से पार उतरने के लिए किसी जहाज अथवा हवाई जहाज का सहारा नहीं लेते, केवल मात्र नाम स्मरण ही उनका जहाज होता है, सिमर सिमर उतरै पारा।।

जिन्हें गुरु नानक की तरह इस भव सागर से अपनी नैया पार लगाना है, केवल उनके लिए ही तो बना है, नानक नाम जहाज। केवल जहाज के पंछी को ही अपने असली घर की तलाश होती है बाकी पंछी तो आजाद है, स्वच्छंद हैं, अपना जीवन जीने के लिए।

शैलेंद्र भूल गए, जहां हमें खुदा से मिलने के लिए वे पैदल भेज रहे हैं, वहां बीच में सागर भी है। शैलेंद्र एक कवि हृदय नेक इंसान थे, आम आदमी की बातें करते थे। गुरु नानक देव तो सर्वज्ञ थे, जिन्हें पार उतरना हो, वे नानक नाम जहाज की सवारी करें, जिन्हें पैदल आना है, उनका भी स्वागत है ;

कहत कबीर सुनो भई साधो

सतगुरू नाम ठिकाना है

यहां रहना नहीं,

देस बिराना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 61 – देश-परदेश – कुत्ता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 61 ☆ देश-परदेश – कुत्ता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

शब्द लिखने में थोड़ा संकोच हो रहा था, परंतु जब हमारे बॉलीवुड ने इस शब्द को लेकर तीन घंटे की फिल्म ही बना डाली, तो हमारी आत्मा ने  भी अपनी आपत्ति वापिस ले कर हमें अनुमति प्रदान कर दी इस शब्द पर चर्चा करनी चाहिये।

वैसे आजकल फिल्मों में नए नामों की कमी देखते हुए या समाज किसी विशेष नाम को लेकर बवंडर खड़ा करने से तो ऐसे शब्द ही ठीक हैं। अब ये तो होगा नहीं कि अखिल भारतीय कुत्ता समाज उनके नाम के दुरुपयोग को लेकर न्यायालय या स्वयं सड़कों पर उतर आएंगे।

इस समय इसी प्रकार के नाम ही चलन में हैं, कुछ दिन पूर्व भेड़िया नाम से भी फिल्म आई थी। पुराने समय में भी हाथी मेरे साथी, कुत्ते की कहानी आदि  जानवरों के नाम से फिल्में आ चुकी हैं।

साधारण बोलचाल की भाषा में कुत्ते शब्द का प्रयोग किसी को निम्न, गिरा हुआ, लालची आदि प्रवृत्ति के द्योतक के रूप में बहुतायत से किया जाता हैं। गली के कुत्ते, कुत्ता घसीटी जैसे शब्द भी इसी प्रवृति के प्रतीक हैं।

साम, दाम, दंड और भेद या वो व्यक्ति जो कठिन कार्य को भी येन केन प्रकारेण पूर्ण करने में महारत रखते हैं, उनको भी “बड़ी कुत्ती चीज़” है के तमगे से नवाजा जाता है।

पालतू, सजग और वफादार प्राणी होते हुए भी जब लोग खराब व्यक्ति को कुत्ता कहते हैं, तो लगता है, हम इंसानों में ही कुछ कमी है, जो हमेशा किसी की भी बुरी बातों से उसे स्मृति में रखता है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 220 ⇒ खुश्की… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “खुश्की…।)

?अभी अभी # 220 खुश्की? श्री प्रदीप शर्मा  ?

खुश्की  ~ dryness ~

अगर कोई अनजान व्यक्ति अचानक आपसे शायराना अंदाज़ में पूछ बैठे, ” होंठ क्यों फट रहे हैं, जरा कुछ तो बोलो “, तो आप क्या जवाब देंगे ?

आप न तो खुश ही होंगे और न ही नाराज, और न ही आपको आश्चर्य ही होगा, क्योंकि मौसम के बदलते ही हमारी त्वचा, जिससे हमारी उम्र का कभी पता ही नहीं चलता था, अचानक खुश्क हो उठी है। अजी होंठ तो छोड़िए, पांव की एड़ियां तक फटने लगी हैं। पौ तो रोज फटती है, अचानक यह त्वचा फटने वाली बीमारी हमने कहां से गले लगा ली।।

सभी जानते हैं, हमारी तरह, मौसम भी अंगड़ाई लेता है। शरद पूर्णिमा के बाद से ही वातावरण में ठंडक शुरू हो जाती है।

त्योहारों की गर्मी में कहां किसे ठंड महसूस होती हैं, लेकिन यह बेईमान मौसम, ईमानदारी से अपनी छाप छोड़ता जाता है। आप कितने भी खुशमिजाज क्यों न हों, त्वचा में रूखापन घर कर ही जाता है।

जो शरीर की विशेष परवाह करते हैं, रोजाना आइने के सामने कुछ वक्त गुजारते हैं, उनका यह मौसम कुछ नहीं बिगाड़ पाता। जहां नियमित पेडीक्योर और मेडीक्योर हो, वहां तो काया को कंचन जैसा होना ही है।।

एक शब्द है परवाह ! इसके दो भाई और हैं, लापरवाह और बेपरवाह। Careful, careless and carefree. इनमें सबसे समझदार तो वही है, जिसको अपनी परवाह है। लापरवाही अथवा बेपरवाही का ही नतीजा खुश्की है। फिर भी आप चाहें तो आसानी से, मौसम पर दोषारोपण कर सकते हैं।

ज्यादा नहीं, सुबह नहाने के पहले, सरसों के तेल से त्वचा की खुश्की मिटाई जा सकती है। साबुन बदला जा सकता है, और नहाने के बाद खोपरे का तेल और स्वादानुसार होठों पर घी अथवा मलाई भी लगाई जा सकती है। स्वदेशी और आयातित कई सौंदर्य प्रसाधन उपलब्ध हैं हर्बल ब्यूटी और हल्दी चंदन के नाम पर।।

अब धूप स्नान अर्थात् विटामिन डी के सेवन का समय शुरू हो गया है। गर्म कपड़ों को सहेजना, संवारना जोरों पर है। जो मां अपने छोटे बच्चों का विशेष ख्याल रखती है, वह विज्ञापन के अनुसार पियर्स ग्लिसरीन सोप का ही उपयोग करती है। जो लोग दूध से नहीं नहा सकते, वे डॉव साबुन से नहाकर काम चला लेते हैं।

गर्मी की सुस्ती, ठंड में काम नहीं आती। जैसे जैसे ठंड पांव पसारेगी, पांव में मोजे, गले में स्वेटर मफलर, और बिस्तर में कंबल रजाई का प्रवेश होता चला जाएगा। फिलहाल तो बस, होंठ भले ही सूख जाएं, लेकिन फटे नहीं।

बोरोलिन नहीं तो बोरोप्लस ही सही।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 218 – संभावना के बीज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 218 संभावना के बीज ?

सीताफल की पिछले कुछ दिनों से बाज़ार में भारी आवक है। सोसायटी की सीढ़ियाँ उतरते हुए देखता हूँ  कि बच्चे सीताफल खा रहे हैं। फल के बीज निकालकर करीने से एक तरफ़ रख रहे हैं। फिर सारे बीज एक साथ उठाकर डस्टबिन में डाल दिए। स्वच्छता और सामाजिक अनुशासन की दृष्टि से यह उचित भी था।

यहीं से चिंतन जन्मा। सोचने लगा, हर बीज के पेट में एक पौधा  है, पौधे का बीज फेंका जा रहा है। फ्लैट में रहने की विवशता कितना कुछ नष्ट कराती है।

सर्वाधिक दुखद होता है संभावनाओं का नष्ट होना। वस्तुत: संभावना की हत्या महा पाप है। हर संभावना को अवसर मिलना चाहिए। पनपना, न पनपना उसके प्रारब्ध और प्रयास पर निर्भर करता है।

चिंतन बीज से मनुष्य तक पहुँचा। सही ज़मीन न मिलने पर जैसे बीज विकसित नहीं हो पाता, कुछ उसी तरह अपने क्षेत्र में काम करने का अवसर न पाना, संभावना का नष्ट होना है। साँस लेने और जीने में अंतर है। अपनी लघुकथा ‘निश्चय’ के संदर्भ से बात आगे बढ़ाता हूँ। कथा कुछ यूँ है,

“उसे ऊँची कूद में भाग लेना था पर परिस्थितियों ने लम्बी छलांग की कतार में लगा दिया। लम्बी छलांग का इच्छुक भाला फेंक रहा था। भालाफेंक को जीवन माननेवाला सौ मीटर की दौड़ में हिस्सा ले रहा था। सौ मीटर का धावक, तीरंदाजी में हाथ आजमा रहा था। आँखों में तीरंदाजी के स्वप्न संजोने वाला तैराकी में उतरा हुआ था। तैरने में मछली-सा निपुण मैराथन दौड़ रहा था।

जीवन के ओलिम्पिक में खिलाड़ियों की भरमार है पर उत्कर्ष तक पहुँचने वालों की संख्या नगण्य है। मैदान यहीं, खेल यहीं, खिलाड़ी यहीं दर्शक यहीं, पर मैदान मानो निष्प्राण है।

एकाएक मैराथन वाला सारे बंधन तोड़कर तैरने लगा। तैराक की आँंख में अर्जुन उतर आया, तीर साधने लगा। तीरंदाज के पैर हवा से बातें करने लगे। धावक अब तक जितना दौड़ा नहीं था उससे अधिक दूरी तक भाला फेंकने‌ लगा। भालाफेंक का मारा भाला को पटक कर लम्बी छलांग लगाने लगा। लम्बी छलांग‌ वाला बुलंद हौसले से ऊँचा और ऊँचा, बहुत ऊँचा कूदने लगा।

दर्शकों के उत्साह से मैदान गुंजायमान हो उठा। उदासीनता की जगह उत्साह का सागर उमड़ने लगा। वही मैदान, वही खेल, वे ही दर्शक पर खिलाड़ी क्या बदले, मैदान में प्राण लौट आए।”

अँग्रेज़ी की एक कहावत है, ‘यू गेट लाइफ वन्स। लिव इट राइट। वन्स इज़ इनफ़।’ जीवन को सही जीना अर्थात अपनी संभावना को समझना, सहेजना और श्रमपूर्वक उस पर काम करना।

स्मरण रहे, आप जीवन के जिस भी मोड़ पर हों, जीने की संभावना हमेशा बनी रहती है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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