(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विवेक के पन्ने”।)
अभी अभी # 168 ⇒ विवेक के पन्ने… श्री प्रदीप शर्मा
ज़िन्दगी एक डायरी है, जिसे आप चाहे लिखें, न लिखें ! कुछ पन्ने विधाता लिखता है, कुछ हमारे द्वारा लिखे जाते हैं। फिर भी कुछ पन्ने कोरे ही रह जाते हैं। मेरी डायरी में भी एक पन्ना विवेक का है, जिस पर आज तक कुछ नहीं लिखा गया। कभी तो श्रीगणेश करना ही है ! सोचा, आज से ही क्यों न कर दूँ।
बुद्धि और ज्ञान के प्रदाता, ऐसा कहा जाता है, मंगलमूर्ति श्रीगणेश हैं ! विवेक के बारे में जब बात करो, तो लोग विवेकानंद तक चले जाते हैं। जब किसी बुद्धिमान को समझा-समझाकर हार जाते हैं, तो मज़बूरन कहना पड़ता है, भाई !अपने विवेक से काम लो। ।
ऐसा कहा जाता है, बुद्धि का संबंध मन से है, और विवेक का अन्तर्मन से ! मन से तो हमेशा यही शिकायत रहती है, कि वह मनमानी करता है। इसीलिए कभी भी किसी बुद्धिमान व्यक्ति की मति फिर सकती है। विवेक का मामला थोड़ा अलग है। उस पर मन का नहीं अन्तर्मन का अंकुश जो है।
कभी कभी इंसान का विवेक भी काम नहीं आता। एक सज्जन किसी ज्ञानी के प्रवचन सुन घर लौटे ! ज्ञानी पुरुष की एक बात उन्होंने गाँठ बाँध ली थी ! हर काम विवेक से पूछकर किया करो अब तक वे स्वावलंबी थे। अपना काम स्वयं करते थे।
अब वे सारा काम विवेक से पूछकर करने लगे। विवेक पर भरोसा किया, और धोखा खाया, क्योंकि विवेक तो उनके लड़के का ही नाम था। ।
बुद्धि और मन से परे प्रज्ञा का निवास है और विवेक उसकी रखवाली करता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, और मत्सर का अन्तर्मन में प्रवेश वर्जित है। वैसे भी इनका कार्य-क्षेत्र मन तक ही सीमित है। केवल संयम ही हमें विवेक का मार्ग दिखला सकता है। और बिना मन को बस में किये संयम भी हाथ नहीं आता। योगानुशासन की यम-नियम ही बुनियाद हैं। हाथ-पाँव को तोड़ना-मरोड़ना कोई योग नहीं।
विवेक का पन्ना अति-वृहद है ! लेकिन यह स्थूल ज्ञान के शब्दों में नहीं समेटा जा सकता। जितना सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हम होते जाएँगे, विवेक के पन्ने अपने आप खुलते जाएँगे। आइए, मन से पार चलें।।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की अगली कड़ी। )
☆ आलेख # 85 – प्रमोशन… भाग –3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
बैंक की इस शाखा के उस दौर के स्टाफ में मुख्यतः अधिकारी वर्ग और अवार्ड स्टाफ में क्रिकेट का शौक उसी तरह के अनुपात था जैसा आम तौर पर पाया जाता है, याने खेलने वाले कम और सुनने वाले ज्यादा. देखने वाले बिल्कुल भी नहीं थे क्योंकि मैच और खिलाड़ियों के दर्शन, दूरदर्शन सेवा न होने से, उपलब्ध नहीं थे. ये वो दौर था जब 1983 में विश्वकप इंग्लैंड की जमीं पर खेला जा रहा था और तत्कालीन मीडिया का यह मानना था कि भारत की टीम पिछले दो विश्व कप के समान ही उसमें सिर्फ खेलने के लिए भाग ले रही थी जबकि उस दौर की सबसे सशक्त क्रिकेट टीम “वेस्टइंडीज” विश्वकप पाने के प्रबल आत्मविश्वास के साथ इंग्लैंड आई थी. पर 23 जून 1983 की रात को हुआ वो, जिसने कपिलदेव के जांबाजों की इस टीम को विश्वकप से नवाज दिया. पूरा देश इस अकल्पनीय विजय से झूम उठा और क्रिकेट का ज़ुनून न केवल देश में बल्कि बैंक पर भी छा गया. वो जो रस्मीतौर पर सिर्फ स्कोर पूछकर क्रिकेट प्रेमी होने का फर्ज निभा लेते थे, अब क्रिकेट की बारीकियों पर और खिलाड़ियों पर होती चर्चा में रस लेने लगे. कपिलदेव और मोहिंदर नाथ के दीवानों और गावस्कर के स्थायी प्रशंसकों में पिछले रिकार्ड्स और तुलनात्मक बातें, बैंक की दिनचर्या का अंग बन गईं. और ऐसी चर्चाओं का अंत हमेशा खुशनुमा माहौल में तरोताज़ा करने वाली चाय के साथ ही होता था. कभी ये बैंक वाली चाय होती तो कभी बाहर के टपरे नुमा होटल की. ये टपरेनुमा होटल वो होते हैं जहाँ बैठने की व्यवस्था तो बस कामचलाऊ होती है पर चाय कड़क और चर्चाएं झन्नाटेदार और दिलचस्प होती हैं. क्रिकेट के अलावा चर्चा के विषय उस वक्त के करेंट टॉपिक भी हुआ करते थे पर उस समय राजनीति और राजनेता इतने बड़े नहीं हुए थे कि दिनरात उनपर ही बातें करके टाइम खोटा किया जाये. सारे लोग उस समय जाति और धर्म को घर में परिवार के भरोसे छोड़कर बैंक में निष्ठा के साथ काम करने और अपनी अपनी हॉबियों के साथ क्वालिटी टाईम बिताने आते थे. इन हॉबीज में ही कैरम, टेबलटेनिस, शतरंज और करेंट अफेयर्स पर बहुत ज्ञानवर्धक चर्चाएं हुआ करती थीं. क्रिकेट के अलावा ऑपरेशन ब्लूस्टार भी उस दौर की महत्वपूर्ण घटना थी और बीबीसी के माध्यम से इसके अपडेट्स कांट्रीब्यूट करने में प्रतियोगिता चलती थी. यहाँ पर, वो जो चेक पोस्ट करते थे याने एकाउंट्स सेक्शन और वो जो चैक पास करते थे (अधिकारी गण)और वो भी जो इन चैक्स का नकद भुगतान करते थे याने केश डिपार्टमेंट, सब एक साथ या कुछ समूहों में इन परिचर्चाओं का आनंद लिया करते थे. एक टीम थी जिसमें लोग अपने रोल के दायरे से ऊपर उठकर, मनोरंजन नामक मजेदार टाइमपास रस में डूब जाते थे. ऐसी शाखाओं में काम करना, एक और परिवार के साथ दिन बिताने जैसा लगता था हालांकि दोनों की भूमिका और जिम्मेदारियों में फर्क था जो कि स्वाभाविक ही था.
इस शाखा में दिन और रात के हिसाब से परे सिक्युरिटी गार्ड भी थे जो अपनी तयशुदा भूमिका निभाने के अलावा भी बहुत सारी जानकारियों के मालिक थे, वाट्सएपीय ज्ञान इन्हीं की प्रेरणा से अविष्कृत और परिभाषित हुआ. इनमें कुछ अच्छे थे तो कुछ बहुत अच्छे. अब जैसा कि होता है कि बहुत अच्छों की कसौटी पर प्रबंधन को भी कसौटी पर परखे जाने के लिए चौकस या तैयार होना पड़ता है तो वैसा हिसाब हर जगह की तरह यहाँ भी था. ऐसा भी था कि प्रबंधन के अलावा ये यूनियन का भी काम बढ़ाने वाले होते थे. ये लोकल सेक्रेटरी का बहुत टाईम खाया करते थे.
ये शाखा, सामने वाली शाखा और सेठ जी की गद्दी का कारोबार सब बहुत मजे से आनंदपूर्वक चल रहा था. लड्डुओं की मिठास यदाकदा समयानुकूल और विभिन्न कारणों के साथ मिलती रहती थी. पर बैंक को और ऊपरवाले को ये आनंद एक लिमिट से ऊपर मंजूर नहीं हुआ और उन्होंने चेक पोस्ट करने वालों Accounts वालों और उन चैक्स का भुगतान करने वालों Cash वालों की पदोन्नति की प्रक्रिया प्रारंभ करने का निर्णय ले लिया. प्रमोशन का सर्कुलर आने पर क्या हुआ इसका मनोरंजक संस्मरण अगले एपीसोड में. कृपया इंतजार करें. प्रमोशन टेस्ट अगर मौलिक और मनोरंजक रचनाओं पर कमेंट्स करने पर आधारित होता तो आप में से 80% तो कभी पास ही नहीं हो पाते. 😃😃😃
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चीज़ सैंडविच “।)
अभी अभी # 167 ⇒ चीज़ सैंडविच… श्री प्रदीप शर्मा
जी हां ! आज हमें सैंडविच की नहीं,सैंड विच जो चीज़ है,उसकी चर्चा करनी है। वैसे चीज़ हो, अथवा सैंडविच,दोनों के बारे में आज की पीढ़ी की राय शायद यही हो, तू चीज बड़ी है मस्त मस्त।
चीज़ का एक जोड़ीदार भी है,जिसे पनीर कहते हैं। पनीर के बारे में इतनी ही जानकारी पर्याप्त है, कि जब भी कभी घर में दूध फट जाता था, मां झट से उसका पनीर बना लेती थी। ।
हमारा बचपन कभी ब्रेड बटर से बाहर ही नहीं आया। तब हमने सांची और अमूल का तो नाम भी नहीं सुना था। एक जोशी दूध दही भंडार था,जहां से दूध, दही और घी आ जाता था। कृष्णपुरे पर एक भावे की डेयरी थी,जहां दूध दही और घी के अलावा क्रीम, पनीर और चक्का भी मिलता था। पनीर का हमारे घर में प्रवेश वर्जित था, हां सक्रांति पर श्रीखंड के लिए चक्का ज़रूर लाया जाता था।
पनीर का स्वाद हमने कॉलेज में जाने के बाद,सरवटे बस स्टैंड के सामने जनता और स्टैंडर्ड होटल में,पहली बार मटर पनीर खाते वक्त चखा। हरे हरे पालक की ग्रेवी में तैरता हुआ पनीर भी पहली बार ही देखा। ।
घर में तो अक्सर हम दाल रोटी खाकर ही प्रभु का गुण गाया करते थे। एक बार अप्सरा होटल में काजू कढ़ी क्या खाई, यकीन मानिए,सब्जी में काजू को तैरती देख,हमें आश्चर्य भी हुआ,और बिना प्यास के,मुंह में पानी भी आ गया। घर जाकर बड़े उत्साहपूर्वक मां को बताया। मां शांत रही,बस इतना ही बोली,कल सौ ग्राम काजू और थोड़ी खसखस ले आना,घर पर ही बना दूंगी।
तब तक पनीर के साथ चीज़ के जलवे भी कम चर्चा में नहीं थे। लेकिन हमें चीज़ में आज भी वह खूबी नजर नहीं आई,जो घी और मक्खन में है। पनीर भी आप हफ्ते में एक दो बार खा लो,तो ठीक,लेकिन पनीर को ही हर जगह ओढ़ना और बिछाना,हमें बिल्कुल पसंद नहीं। ।
आज की धारणा यह है कि घी और मक्खन की तुलना में चीज़ और पनीर अधिक स्वास्थ्यवर्धक हैं और इनमें अपेक्षाकृत फैट भी कम होता है। लेकिन स्ट्रीट फूड की हालत यह है कि मक्खन,पनीर और चीज़ की जुगलबंदी के बिना स्वाद का तड़का ही नहीं लगता।
पिज़्ज़ा हो या बर्गर,सैंडविच हो या चिली पनीर,अगर उस पर ढेर सारा चीज़ और पनीर किसकर डाले बिना तो उसका ड्रेसिंग पूरा ही नहीं होता। मक्खन, चीज़ और पनीर में डूबी डिश जब पेट में जाती होगी,तो अपना कमाल तो बताती ही होगी। ।
आज चीज़ से याद आया,जब हम छोटे थे,और रोते रोते पूरा घर सिर पर उठा लेते थे, तो हमारी बड़ी बहन(जो खुद,तब बहुत छोटी थी) हमें गोद में टांगकर बहलाने बज्जी,याने बाजार ले जाती थी और हमें कुछ चिज्जी यानी चीज दिलाती थी,क्या होती थी,वह चीज,आज की भाषा में आप चाहें तो उसे लॉलीपॉप कह सकते हैं,गोली बिस्किट, जो भी मिल जाए,बालहठ पूरा हो जाता था।
आज हठात् इस चीज़ के जिक्र पर वह चीज भी याद आ गई। बचपन की चीज हो अथवा आज की सजी धजी,गार्निश्ड चीज़ सैंडविच,एक बात तो माननी ही पड़ेगी, जब मुंह में पानी आता है,तो अनायास मुंह से निकल ही जाता है, तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त। ।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दिल की नज़र से“।)
अभी अभी # 166 ⇒ दिल की नज़र से… श्री प्रदीप शर्मा
दिल तो हम सबका एक ही है, लेकिन अफसाने हजार !
आँखें तो सिर्फ दो ही हैं, लेकिन ये नज़र कहां नहीं जाती। आपने सुना नहीं, जाइए आप कहां जाएंगे, ये नजर लौट के फिर आएगी। आँखों का काम देखना है, और दिल का काम धड़कना। आँखों में जब नींद भर जाती हैं, वे देखना बंद कर देती हैं, और इंसान बंद आंखों से ही सपने देखना शुरू कर देता है, लेकिन बेचारे दिल को, चैन कहां आराम कहां, उसे तो हर पल, धक धक, धड़कना ही है।
ऐसा क्या है इस दिल में, और इन आँखों में, कि जब मरीज किसी डॉक्टर के पास जाता है, तो वह पहले कलाई थाम लेता है और बाद में उसके यंत्र से दिल की धड़कन भी जांच परख लेता है। और उसके बाद नंबर आता है, आंखों का। आंखों में नींद और ख्वाब के अलावा भी बहुत कुछ होता है। बुखार में आँखें जल सकती हैं, आँखों में कंजक्टिवाइटिस भी हो सकता है। शुभ शुभ बोलें। ।
दिल जिसे चाहता है, उसे अपनी आंखों में बसा लेता है, और फिर शिकायत करता है, मेरी आंखों में बस गया कोई रे, हाय मैं क्या करूं। अक्सर दिल के टूटने की शिकायत आती है, और दिल के घायल होने की भी। जब कोई नजरों के तीर कस कस कर मारेगा, तो दिल को घायल तो होना ही है।
ईश्वर ने हमारा हृदय बड़ा विशाल बनाया है शायद इसीलिए कुछ लोग दरियादिल होते हैं। आप दिल में चाहें तो एक मूरत बिठा लें, और अगर यह दिल पसीज जाए तो दुनिया के सभी दुख दर्द इसमें समा जाएं। ।
हमारी आंखों ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेलीं ! बसो मेरे नयनन में नंदलाल ! मोहिनी मूरत, सांवरी सूरत, नैना बने बिसाल। किसी को आंखों में बसाने के लिए पहले आंखों को बंद करना होता है। बाहरी नजर तो खैर कमाल करती ही है, एक अंतर्दृष्टि भी होती है, जो नेत्रहीन, लेकिन प्रज्ञाचक्षु भक्त सूरदास के पास मौजूद थी। कितना विशाल है हमारी अंतर्दृष्टि का संसार।
लेकिन इस जगत के नजारे भी कम आकर्षक नहीं ! नजरों ने प्यार भेजा, दिल ने सलाम भेजा और नौबत यहां तक आ गई कि ;
मुझे दिल में बंद कर दो
दरिया में फेंक दो चाबी।
यह कुछ ज्यादा नहीं हो गया। लेकिन यह तो कुछ भी नहीं, और देखिए ;
आँखों से जो उतरी है दिल में
तस्वीर है एक अन्जाने की।
खुद ढूंढ रही है शमा जिसे
क्या बात है उस परवाने की। ।
जरूर आँखों और दिल के बीच कोई हॉटलाइन है।
ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कोई चीज आपको पसंद आए, और उसके लिए आपका मन ना ललचाए। ये दिल का शब्द भंडार भी कम नहीं। जी, कहें, जिया कहें अथवा जिगर कहें। आपने सुना नहीं, नजर के सामने, जिगर के पास।
नज़ारे हम आँखों से देखते हैं, और खुश यह दिल होता है। गौर फरमाइए ;
समा है सुहाना, सुहाना
नशे में जहां है।
किसी को किसी की
खबर ही कहां है।
………..
नजर बोलती है
दिल बेजुबां है। ।
आजकल हम दिल की बात किसी को नहीं कहते। आप भी शायद हमसे असहमत हों, लेकिन नजर वो, जो दुश्मन पे भी मेहरबां हो। जिन आंखों में दर्द नहीं, दिल में रहम नहीं, तो हम क्यों बातें करें रहमत की, इंसानियत की।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 53 ☆ देश-परदेश – बची हुई दवाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हम सब अपने आप को स्वास्थ्य रखने के लिए नाना प्रकार की दवाओं का सेवन करते हैं। समय समय पर अस्वस्थ होने पर अंग्रेजी दवाओं का प्रयोग अब दैनिक जीवन का एक भाग हो चुका है। अनेक बार डॉक्टर बदलने या दवा को बदल देने से बहुत सारी दवाइयां शेष रह जाती हैं। प्रायः सभी के घर में बची हुई या शेष रह गई दवाइयों का स्टॉक पड़ा रह जाता है। कुछ समय के अंतराल पर वो निश्चित समयपार हो जाने के कारण अनुपयोगी हो जाती हैं।
इस प्रकार की दवाइयां निज़ी धन की हानि करती है, साथ ही साथ इसको राष्टीय क्षति भी कहा जा सकता है।
एक तरफ आर्थिक रूप से कमज़ोर लोग दवा को खरीदने में असमर्थ होते हुए ना सिर्फ शारीरिक कष्ट उठाते है, वरना अनेक बार जीवन से भी मुक्त हो जाते हैं।
ये कैसी विडंबना है, एक तरफ दवा बेकार हो रही है, दूसरी तरफ बिना दवा की जिंदगी खोई जा रही है। कुछ शहरों में इन बची हुई दवाओं को जरूरतमंद लोगों के उपयोग की व्यवस्था होती हैं, परंतु जानकारी के अभाव में बहुत सारी दवाइयां अनुपयोगी हो जाती हैं। यदि आपके पास किसी भी संस्था के बारे में पुख्ता जानकारी हो तो समूह में सांझा कर देवें, ताकि उसका सदुपयोग हो सकें।
जब परिवार के किसी सदस्य की बीमारी से मृत्यु हो जाती है, उस समय तो बची हुई बहुत सारी दवाएं अनुपयोगी हो जाती हैं।
हम में से अधिकांश साथी सेवानिवृत हैं, कुछ समय इस प्रकार की गतिविधियों को देकर, समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर व्यक्तियों के बेहतर स्वास्थ्य के लिए कर सकते हैं।
आप सभी से आग्रह है, की इस बाबत अपने विचार और सुझाव सांझा करें ताकि उनका प्रभावी उपयोग हो सकें।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कार निषेध दिवस”।)
अभी अभी # 165 ⇒ कार निषेध दिवस… श्री प्रदीप शर्मा
NO CAR DAY •
आज हमारी स्थिति ऐसी हो गई है कि हम एक दिन बिना प्यार के तो रह सकते हैं, लेकिन बिना कार के नहीं रह सकते। एक समय था जब पैसा या प्यार जैसी फिल्में बनती थी, आज अगर कार और प्यार में से किसी एक को चुनना पड़े, तो इंसान को दस बार सोचना पड़ेगा। हमने तो आजकल, दे दे प्यार दे की तर्ज पर, लोगों को आपस में, दे दे कार दे, कार दे, कार दे, कार दे कहते हुए, कार मांगते भी देखा है।
ट्रैफिक जाम और प्रदूषण का हाल ये देखा कि, एक दिन के लिए कार छोड़ दी मैने। एक समय था, जब हर तरफ आदमी ही आदमी नजर आता था, और आज यह नौबत आ गई कि हर तरफ कार ही कार। हर चौराहे पर बत्तियां बदलती रहती हैं और ट्रैफिक केंचुए की तरह रेंगता रहता हैं। चारों ओर से हॉर्न की कर्कश आवाज यही दर्शाती है कि हमने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है।।
अंततोगत्वा, ये तो होना ही था ! नो व्हीकल जोन की तरह आप इसे नो व्हीकल डे भी कह सकते हैं। लेकिन वाहन बिन सब सून ! बड़ी ज्यादती हो जाती है। वाहन में तो दो पहिया, तीन पहिया, सिटी बस, स्कूल बस, सभी आते हैं। चलिए, इसे कार तक ही सीमित करते हैं। एक दिन बिना कार का। अब आपको, नो कार डे, से ही समझौता करना पड़ेगा। इसके हिंदी में अनुवाद के चक्कर में मत पड़िए, इंडिया भारत हो गया, यही क्या कम है।
आज की स्थिति में आखिर कार क्यूं, जैसा प्रश्न पूछना ही बेमानी है। जो अपने परिवार से करे प्यार, वो कार से कैसे करे इंकार। जब हम दो थे, तो आराम से, आसानी से वेस्पा, लैंब्रेटा, राजदूत और हीरो होंडा मोटर साइकिल से काम चला लेते थे। हमने भी देखे हैं, चल मेरी लूना के दिन।।
फिर हम दो से, हमारे दो हुए। पहिए भी दो से चार हुए। बाल बच्चों वाला घर, कार का क्या, बेचारी घर के बाहर ही सो जाती है रात को। ठंड, गर्मी, बरसात, कोई शिकायत नहीं, बस सुबह कपड़ा मार दो, चमक जाती है। इंसान होती तो चाय पानी करवा देते, पर उसकी खुराक तो डीजल पेट्रोल है। सबको पेट काट काटकर पालना पड़ता है।
क्या जिनके पास कार नहीं, उनका परिवार नहीं, या वे बेकार हैं। अपनी अपनी हैसियत है, जरूरत है, मेहनत करते हैं, पसीना बहाते हैं, हर महीने कार की किश्त चुकाते हैं, तब कार का शौक पालते हैं।
अपना अपना नसीब है। आप क्यों हमसे जलते हैं।।
नो कार डे को आप बेकार डे नहीं कह सकते। हफ्ते पंद्रह दिन में, कुछ लोग उपवास रखते हैं, अन्न की जगह कुछ और खा लेते हैं। एक पंथ दो काज ! थोड़ा धरम करम, थोड़ा व्रत उपवास, पिज़्ज़ा बर्गर पास्ता की छुट्टी। क्या कहते हैं उसे, संयम। कुछ लोगों से तो कंट्रोल ही नहीं होता।
महीने पंद्रह दिन में अगर कार से भी परहेज किया जाए तो कोई बुरा नहीं।
अन्य साधन उपलब्ध तो हैं ही। बस अगर सामूहिक इच्छा शक्ति हो, तो हमारी बहुत ही समस्याओं का निदान तो हम ही कर लें।
जिस तरह बूंद बूंद से घड़ा भरता है, आपके एक दिन कार नहीं चलाने से भी बहुत फर्क पड़ सकता है।
बिना कार कहें, बहिष्कार कहें, आप चाहें तो इसे नो कार डे भी कहें, सब चलता है।।
बढ़ती कारों की संख्या आप रोक नहीं सकते। नए वाहनों के क्रय पर भी आप बंदिश भी नहीं लगा सकते। गैरेज का पता नहीं, कार सड़कों पर रखी जा रही हैं। कार पार्किंग की समस्या भी आज की सबसे बड़ी समस्या है।
जहां सामान खरीदना है, वहीं कार खड़ी कर दी। दो कदम पैदल चल नहीं सकते। पूरी सड़कें गलत पार्किंग से भरी रहती हैं, ट्रैफिक तो बाधित होता ही है। प्रशासन चालान काट काट कर हार गया। भगवान भरोसे शहर की ट्रैफिक व्यवस्था है। फिर भी हम खुश हैं, क्योंकि हमारे पास तो कोई कार ही नहीं है।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 211☆ अपरंपार
स्थानीय बस अड्डे के पास सड़क पार करने के लिए खड़ा हूँ। भीड़-भाड़ है। शेअर ऑटो रिक्शावाले पास के उपनगरों, कस्बों, बस्तियों, सोसायटियों के नाम लेकर आवाज़ लगा रहे हैं, अलां स्थान, फलां स्थान, यह नगर, वह नगर। हाईवे या सर्विस रोड, टूटा फुटपाथ या जॉगर्स पार्क। हर आते-जाते से पूछते हैं, हर ठहरे हुए से भी पूछते हैं। जो आगंतुक जहाँ जाना चाहता है, उस स्थान का नाम सुनकर स्वीकारोक्ति में सिर हिलाता हुआ शेअर ऑटो में स्थान पा जाता है। सवारियाँ भरने के बाद रिक्शा छूट निकलता है।
छूट निकले रिक्शा के साथ चिंतन भी दस्तक देने लगता है। सोचता हूँ कैसे भाग्यवान, कितने दिशावान हैं ये लोग ! कोई आवाज़ देकर पूछता है कि कहाँ उतरना है और सामनेवाला अपना गंतव्य बता देता है। जीवन से मृत्यु और मृत्यु उपरांत की यात्रा में भी जिसने गंतव्य को जान लिया, गंतव्य को पहचान लिया, समझ लिया कि उसे कहाँ उतरना है, उससे बड़ा द्रष्टा और कौन होगा?
एक मैं हूँ जो इसी सड़क के इर्द-गिर्द, इसी भीड़-भड़क्के में रोज़ाना अविराम भटकता हूँ। न यह पता कि आया कहाँ से हूँ, न यह पता कि जाना कहाँ है। अपनी पहचान पर मौन हूँ, पता ही नहीं कि मैं कौन हूँ।
सृष्टि में हरेक की भूमिका है। मनुष्य देह पानेवाले जीव की गति मनुष्य के संग से ही संभव है। यह संग ही सत्संग कहलाता है।
दिव्य सत्संग है पथिक और नाविक का। आवागमन से मुक्ति दिलानेवाले साक्षात प्रभु श्रीराम, नदी पार उतरने के लिए केवट का निहोरा कर रहे हैं। अनन्य दृश्यावली है त्रिलोकी के स्वामी की, अद्भुत शब्दावली है गोस्वामी जी की।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी मंगलवार दि. 19 सितंबर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार गुरुवार 28 सितंबर तक चलेगी।
इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः
साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मिलावट और कानून”।)
अभी अभी # 164 ⇒ मिलावट और कानून… श्री प्रदीप शर्मा
हमारा देश कानून से चलता है। मिलावट के खिलाफ तो हमने सन् १९५४ में ही कानून पास कर दिया था, कोई छोटा मोटा कानून नहीं सख्त कानून। और तब से ही देश कानून से ही चल रहा है। कानून अपनी चाल चल रहा है, और मिलावट भी अपनी चाल से चल रही है।
ऐसा नहीं है, कि हमें कानून से डर नहीं है, अथवा हम कानून का सम्मान नहीं करते, लेकिन हमारे यहां मिलावट और कानून के बीच शतरंज का खेल चलता रहता है। दोनों अपनी अपनी चाल चलते रहते हैं। खेल के भी कुछ कायदे कानून होते हैं, आप यूं ही किसी का घोड़ा नहीं मार सकते और घोड़े को ढाई घर चलने से रोक भी नहीं सकते।।
कानून के हाथ जरूर लंबे होते हैं, लेकिन सुना है, वह अंधा भी होता है। मिलावट उसे कहते हैं, जो नजर नहीं आए। दूध में पानी मिलाना भी अपराध है, लेकिन अगर भैंस ही पतला दूध देती है, तो वहां कानून का डंडा काम नहीं करता।
होती है खाद्य पदार्थों और फल सब्जियों में मिलावट, तो आम आदमी क्या करे। अरे भाई उपभोक्ता फोरम भी है, शिकायत दर्ज करो, उनकी नानी याद आ जाएगी। सड़क के ठेले से आपने छः केले खरीदे, आपने उससे बिल भी नहीं लिया, पांच किलोमीटर चलकर घर आ गए। केले पूजा में रख दिए, प्रसाद बांट दिया। केले ऊपर से पीले नजर आ रहे थे, अंदर से पूरे कच्चे। केले कार्बाइड से भी पकाए जाते हैं, और प्राकृतिक तरीके से भी। बाजार में दोनों तरह के केले उपलब्ध हैं, सावधानी में ही समझदारी है।।
खाने का खुला सामान हमारे यहां खुले आम बिकता है, लोग उसे ताजा समझते हैं। नकली घी और नकली मावे से तो प्रशासन भी परेशान है। कहां कहां छापे मारे। अरे साहब भंडारे और पूजा के लिए तो कोई सा भी असली घी चलेगा। इतने सालों से वही तो चलता चला आ रहा है।
मिलावट का सीधा संबंध मुनाफे से होता है। यह मुनाफा कहां से कहां की यात्रा करता है, सब जानते हैं। नुकसान में सिर्फ कानून और उपभोक्ता, यानी आम आदमी रहता है।।
खाद्य पदार्थों में मिलावट और मानक अधिनियम के अंतर्गत लाखों का जुर्माना ही नहीं, मृत्यु दण्ड तक का प्रावधान है, लेकिन कानून आप अपने हाथ में नहीं ले सकते। आप शिकायत कीजिए, कानून अपना काम करेगा। हमारे देश में मिलावटी शराब और फूड पॉइजनिंग से जितनी मौतें हुई हैं, उनकी तुलना में मिलावटी कानून के तहत कितनों को मृत्यु दण्ड मिला है, शायद ही कोई आंकड़ा उपलब्ध हो।
जागो ग्राहक जागो, तो मेरे मॉर्निंग अलार्म की ट्यून ही है। सुबह उठते ही मेरा ग्राहक जाग जाता है, अब और कितना जागूं। उपभोक्ता वह भी नहीं, जो रात दिन मिलावट मिलावट ही भौंकता रहे। सबकी अपनी अपनी मजबूरियां हैं, दूध से धुला कोई नहीं।।
कल ही नेताजी का फोन आ गया गुप्ता जी के पास ! इस बार भंडारे में घी की सेवा का पुण्य आप कमाओगे। दस डब्बे शुद्ध घी भिजवा देना। गुप्ता जी और नेता जी, शतरंज के पुराने खिलाड़ी हैं। पाप पुण्य सब नेता जी के माथे, भिजवा देंगे कोई सस्ता सा ब्रांड, जो शुद्ध नजर आए। दान की बछिया ही तो है।
मिलावट की तरह ही एक बाजार डुप्लीकेट का भी है। ऑटो पार्ट्स हों अथवा अमूल घी, लक्स अंडरवियर और बनियान भी, जो चाहे मिलेगा, कहीं उसी भाव तो कहीं थोड़ा वाजबी, जहां कीमत में सौदेबाजी की जा सके।
हम भी तो कहां आदत से बाज आते हैं। बिल मत देना, कौन सा अचार डालना है बिल का।।
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अहं, क्रोध, काम व लोभ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 201 ☆
☆ अहं, क्रोध, काम व लोभ☆
‘अहं त्याग देने से मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है; क्रोध छोड़ देने पर वह शोक रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने पर धनवान हो जाता है और लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है’– युधिष्ठिर की यह उक्ति विचारणीय है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है क्योंकि जब तक उसमें ‘मैं’ अथवा कर्त्ता का भाव रहेगा, तब तक उसके लिए उन्नति के सभी मार्ग बंद हो जाते हैं। जब तक उसमें यह भाव रहेगा कि मैंने ऐसा किया और इतने पुण्य कर्म किए हैं, तभी यह सब संभव हो सका है। ‘जब ‘मैं’ यानि अहंकार जाएगा, मानव स्वर्ग का अधिकारी बन पाएगा और उसे इच्छित लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी’– प्रख्यात देवाचार्य महेंद्रनाथ का यह कथन अत्यंत सार्थक है। अहंनिष्ठ व्यक्ति किसी का प्रिय नहीं हो सकता और कोई भी उससे बात तक करना पसंद नहीं करता। वह अपने द्वीप में कैद होकर रह जाता है, क्योंकि सर्वश्रेष्ठता का भाव उसे सबसे दूर रहने पर विवश कर देता है।
वैसे तो किसी से उम्मीद रखना कारग़र नहीं है। ‘परंतु यदि आप किसी से उम्मीद रखते हैं, तो एक न एक दिन आपको दर्द ज़रूर होगा, क्योंकि उम्मीद एक न एक दिन अवश्य टूटेगी और जब यह टूटती है, तो बहुत दर्द होता है’– विलियम शेक्सपियर यह कथन अनुकरणीय है। जब मानव की इच्छाएं पूर्ण होती है, तो वह दूसरों से सहयोग की उम्मीद करता है, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं होती। उस स्थिति में जब हमें दूसरों से अपेक्षित सहयोग प्राप्त नहीं होता, तो मानव हैरान-परेशान हो जाता है और जब उम्मीद टूटती है तो बहुत दर्द होता है। सो! मानव को उम्मीद दूसरों से नहीं, ख़ुद से करनी चाहिए और अपने परिश्रम पर भरोसा रखना चाहिए… उसे सफलता अवश्य प्राप्त होती है। इसलिए मानव तो खुली आंखों से सपने देखने का संदेश दिया गया है और उसे तब तक चैन से नहीं बैठना चाहिए; जब तक वे साकार न हो जाएं–अब्दुल कलाम की यह सोच अत्यंत सार्थक है। यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ व आत्म-विश्वासी है; कठिन परिश्रम करने में विश्वास करता है, तो वह भीषण पर्वतों से भी टकरा सकता है और अपनी मंज़िल पर पहुंच सकता है।
‘यदि तुम ख़ुद को कमज़ोर समझते हो, तो तुम कमज़ोर हो जाओगे; अगर ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो तुम ताकतवर हो जाओगे’– विवेकानंद की यह उक्ति इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि मन में अलौकिक शक्तियाँ विद्यमान है। वह जैसा सोचता है, वैसा बन जाता है और वह सब कर सकता है, जिसकी कल्पना भी उसने कभी नहीं की होती। ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ दूसरे शब्दों में मानव स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। इसलिए कहा जाता है कि असंभव शब्द मूर्खों की शब्दकोश में होता है और बुद्धिमानों से उसका दूर का नाता भी नहीं होता। इसी संदर्भ में मैं इस तथ्य पर प्रकाश डालना चाहूंगी कि प्रतिभा जन्मजात होती है उसका जात-पात, धर्म आदि से कोई संबंध नहीं होता। वास्तव में प्रतिभा बहुत दुर्लभ होती है और प्रभु-प्रदत्त होती है। दूसरी और शास्त्र ज्ञान व अभ्यास इसके पूरक हो सकते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् अभ्यास करने पर मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है। जिस प्रकार पत्थर पर अत्यधिक पानी पड़ने से वे अपना रूपाकार खो देते हैं, उसी प्रकार शास्त्राध्ययन द्वारा मर्ख अर्थात् अल्पज्ञ व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है। स्वामी रामतीर्थ जी के मतानुसार ‘जब चित्त में दुविधा नहीं होती, तब समस्त पदार्थ ज्ञान विश्राम पाता है और दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।’ सो! संशय की स्थिति मानव के लिए घातक होती है और ऐसा व्यक्ति सदैव ऊहापोह की स्थिति में रहने के कारण अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता।
इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रहा है हज़रत इब्राहिम का प्रसंग, जिन्होंने एक गुलाम खरीदा तथा उससे उसका नाम पूछा। गुलाम ने उत्तर दिया – ‘आप जिस नाम से पुकारें, वही मेरा नाम होगा मालिक।’ उन्होंने खाने व कपड़ों की पसंद पूछी, तो भी उसने उत्तर दिया ‘जो आप चाहें।’ राजा के उसके कार्य व इच्छा पूछने पर उसने उत्तर दिया–’गुलाम की कोई इच्छा नहीं होती।’ यह सुनते ही राजा ने अपने तख्त से उठ खड़ा हुआ और उसने कहा–’आज से तुम मेरे उस्ताद हो। तुमने मुझे सिखा दिया कि सेवक को कैसा होना चाहिए।’ सो! जो मनुष्य स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है, उसे ही दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है।
क्रोध छोड़ देने पर मनुष्य शोक रहित हो जाता है। क्रोध वह अग्नि है, जो कर्त्ता को जलाती है, उसके सुख-चैन में सेंध लगाती है और प्रतिपक्ष उससे तनिक भी प्रभावित नहीं होता। वैसे ही तुरंत प्रतिक्रिया देने से भी क्रोध द्विगुणित हो जाता है। इसलिए मानव को तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए, क्योंकि क्रोध एक अंतराल के पश्चात् शांत हो जाता है। वह तो दूध के उफ़ान की भांति होता है; जो पल भर में शांत हो जाता है। परंतु वह मानव के सुख, शांति व सुक़ून को मगर की भांति लील जाता है। क्रोध का त्याग करने वाला व्यक्ति शांत रहता है और उसे कभी भी शोक अथवा दु:ख का सामना नहीं करना पड़ता। काम सभी बुराइयों की जड़ है। कामी व्यक्ति में सभी बुराइयां शराब, ड्रग्स, परस्त्री- गमन आदि बुराइयां स्वत: आ जाती हैं। उसका सारा धन परिवार के इतर इनमें नष्ट हो जाता है और वह अक्सर उपहास का पात्र बनता है। परंतु इन दुष्प्रवृत्तियों से मुक्त होने पर वह शरीर से हृष्ट-पुष्ट, मन से बलवान् व धनी हो जाता है। सब उससे प्रेम करने लगते हैं और वह सबकी श्रद्धा का पात्र बन जाता है।
आइए! हम चिन्तन करें– क्या लोभ का त्याग कर देने के पश्चात् मानव सुखी हो जाता है? वैसे तो प्रेम की भांति सुख बाज़ार से खरीदा ही नहीं जा सकता। लोभी व्यक्ति आत्म-केंद्रित होता है और अपने इतर किसी के बारे में नहीं सोचता। वह हर इच्छित वस्तु को संचित कर लेना चाहता है, क्योंकि वह केवल लेने में विश्वास रखता है; देने में नहीं। उसकी आकांक्षाएं सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं, जिनका खरपतवार की भांति कोई अंत नहीं होता। वैसे भी आवश्यकताएं तो पूरी की जा सकती हैं; इच्छाएं नहीं। इसलिए उन पर अंकुश लगाना आवश्यक है। लोभ व संचय की प्रवृत्ति का त्याग कर देने पर वह आत्म-संतोषी जीव हो जाता है। दूसरे शब्दों में वह प्रभु द्वारा प्रदत्त वस्तुओं से संतुष्ट रहता है।
अंत में मैं कहना चाहूंगी कि जो मनुष्य अहं, काम, क्रोध व लोभ पर विजय प्राप्त कर लेता है; वह सदैव सुखी रहता है। ज़माने भर की आपदाएं उसका रास्ता नहीं रोक सकतीं। वह सदैव प्रसन्न-चित्त रहता है। दु:ख, तनाव, चिंता, अवसाद आदि उसके निकट आने का साहस भी नहीं जुटा पाते। ख़लील ज़िब्रान के शब्दों में ‘प्यार के बिना जीवन फूल या फल के बिना पेड़ की तरह है।’ ‘प्यार बांटते चलो’ गीत भी इसी भाव को पुष्ट करता है। इसलिए जो कार्य- व्यवहार स्वयं को अच्छा न लगे; वैसा दूसरों के साथ न करना ही सर्वप्रिय मार्ग है–यह सिद्धांत चोर व सज्जन दोनों पर लागू होता है। महात्मा बुद्ध की भी यही सोच है। स्नेह, प्यार त्याग, समर्पण वे गुण हैं, जो मानव को सब का प्रिय बनाने की क्षमता रखते हैं।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – चिंतन तो बनता है
बात चार वर्ष पुरानी है। सोमवार 16 सितम्बर 2019 को हिंदी पखवाड़ा के संदर्भ में केंद्रीय जल और विद्युत अनुसंधान संस्थान, खडकवासला, पुणे में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित था। कार्यक्रम के बाद सैकड़ों एकड़ में फैले इस संस्थान के कुछ मॉडेल देखे। केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों के लिए अनेक बाँधों की देखरेख और छोटे-छोटे चेकडैम बनवाने में संस्थान महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह संस्थान चूँकि जल अनुसंधान पर काम करता है, भारत की नदियों पर बने पुल और पुल बनने के बाद जल के प्रवाह में आनेवाले परिवर्तन से उत्पन्न होनेवाले प्रभाव का यहाँ अध्ययन होता है। इसी संदर्भ में यमुना प्रोजेक्ट का मॉडेल देखा। दिल्ली में इस नदी पर कितने पुल हैं, हर पुल के बाद पानी की धारा और अविरलता में किस प्रकार का अंतर आया है, तटों के कटाव से बचने के लिए कौनसी तकनीक लागू की जाए, यदि राज्य सरकार कोई नया पुल बनाने का निर्णय करती है तो उसकी संभावनाओं और आशंकाओं का अध्ययन कर समुचित सलाह दी जाती है। आंध्र और तेलंगाना के लिए बन रहे नए बाँध पर भी सलाहकार और मार्गदर्शक की भूमिका में यही संस्थान है। इस प्रकल्प में पानी से 900 मेगावॉट बिजली बनाने की योजना भी शामिल है। देश भर में फैले ऐसे अनेक बाँधों और नदियों के जल और विद्युत अनुसंधान का दायित्व संस्थान उठा रहा है।
मन में प्रश्न उठा कि पुणे के नागरिक, विशेषकर विद्यार्थी, शहर और निकटवर्ती स्थानों पर स्थित ऐसे संस्थानों के बारे में कितना जानते हैं? शिक्षा जबसे व्यापार हुई और विद्यार्थी को विवश ग्राहक में बदल दिया गया, सारे मूल्य और भविष्य ही धुँधला गया है। अधिकांश निजी विद्यालय छोटी कक्षाओं के बच्चों को पिकनिक के नाम पर रिसॉर्ट ले जाते हैं। बड़ी कक्षाओं के छात्र-छात्राओं के लिए दूरदराज़ के ‘टूरिस्ट डेस्टिनेशन’ व्यापार का ज़रिया बनते हैं तो इंटरनेशनल स्कूलों की तो घुमक्कड़ी की हद और ज़द भी देश के बाहर से ही शुरू होती है।
किसीको स्वयं की संभावनाओं से अपरिचित रखना अक्षम्य अपराध है। हमारे नौनिहालों को अपने शहर के महत्वपूर्ण संस्थानों की जानकारी न देना क्या इसी श्रेणी में नहीं आता? हर शहर में उस स्थान की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक धरोहर से कटे लोग बड़ी संख्या में हैं। पुणे का ही संदर्भ लूँ तो अच्छी तादाद में ऐसे लोग मिलेंगे जिन्होंने शनिवारवाडा नहीं देखा है। रायगढ़, प्रतापगढ़ से अनभिज्ञ लोगों की कमी नहीं। सिंहगढ़ घूमने जानेवाले तो मिलेंगे पर इस गढ़ को प्राप्त करने के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज के जिस ‘सिंह’ तानाजी मालसुरे ने प्राणोत्सर्ग किया था, उसका नाम आपके मुख से पहली बार सुननेवाले अभागे भी मिल जाएँगे।
लगभग पाँच वर्ष पूर्व मैंने महाराष्ट्र के तत्कालीन शालेय शिक्षामंत्री को एक पत्र लिखकर सभी विद्यालयों की रिसॉर्ट पिकनिक प्रतिबंधित करने का सुझाव दिया था। इसके स्थान पर ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व के स्थानीय स्मारकों, इमारतों, महत्वपूर्ण सरकारी संस्थानों की सैर आयोजित करने के निर्देश देने का अनुरोध भी किया था।
धरती से कटे तो घास हो या वृक्ष, हरे कैसे रहेंगे? इस पर गंभीर मनन, चिंतन और समुचित क्रियान्वयन की आवश्यकता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी मंगलवार दि. 19 सितंबर को आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार गुरुवार 28 सितंबर तक चलेगी।
इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः
साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈