(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| तिजारत ||…“।)
अभी अभी # 259 ⇒ || तिजारत || श्री प्रदीप शर्मा
कल रेडियो पर एक गीत सुना, बस इतना ही याद रहा, मोहब्बत अब तिजारत बन गई है, तिजारत अब मोहब्बत बन गई है। हिंदी तो खैर हमारी ठीकठाक है, लेकिन उर्दू और इंग्लिश में हमारा हाथ बहुत तंग है। एक भारतीय होकर हम ग्रीक और लेटिन की बात क्यूं करें, लेकिन उर्दू और इंग्लिश हमारे लिए तमिळ और मळयालम से कम भी नहीं। जिसमें उर्दू तो बिल्कुल काला अक्षर भैंस बराबर है। आखिर मातृभाषा, mother tongue और मादरे जुबां में अंतर तो होता ही है। यह अलग बात है कि हमारी मातृ और इनकी मदर एक ही है।
कई ऐसे उर्दू शब्द हैं, जिनका हम अर्थ नहीं जानते। तिजारत भी उनमें से ही एक है। हमें पहले लगा, इबादत को ही तिजारत कहते होंगे, लेकिन हम गलत निकले। इनकी तिजारत तो हमारा व्यापार, व्यवसाय निकली। यानी राजनीति और धर्म की तरह आजकल मोहब्बत भी व्यवसाय हो चली है।।
लेकिन मन ही मन हम खुश भी हुए। आखिर क्या अंतर है, मोहब्बत, इबादत, राजनीति और धर्म में ! सभी तो प्रेम के सौदे हैं।
आपने सुना नहीं ;
ये तो प्रेम की बात है उधो
बंदगी तेरे बस की नहीं है।
यहां सर दे के होते हैं सौदे
आशिकी इतनी सस्ती नहीं है।।
और उधर हमारे दिलीप साहब, जिंदाबाद जिंदाबाद, ऐ मोहब्बत जिन्दाबाद के नारे लगा रहे हैं। और गीता में हमारे श्रीकृष्ण कह रहे हैं, सभी धर्मों को त्याग, अर्जुन, मेरी शरण में आ।
उधर मोहब्बत तिजारत की बात हो रही है, और इधर विविध भारती पर भजन चल रहा है ;
राम नाम अति मीठा है
कोई गा के देख ले।
आ जाते हैं राम,
बुला के देख ले।।
आजकल मार्केटिंग का जमाना है। बिना प्रचार के तो कछुआ छाप अगरबत्ती भी नहीं बिकती। यह भी सच है कि हर सौदा सच्चा नहीं होता लेकिन हमें भी ललिता जी की तरह सर्फ वाली समझदारी से ही काम लेना चाहिए।।
प्रचार प्रसार के सच से हम मुंह नहीं मोड़ सकते। यह सच है कि मोहब्बत की तरह अब इबादत भी तिजारत हो गई है। सोचिए, अगर आज इतना सोशल मीडिया, डिजिटल नेटवर्क, संचार के अत्याधुनिक साधन नहीं होते, तो क्या रामकाज इतना आसान होता।
आज घर बैठे हम नेटवर्क के जरिए अयोध्या पहुंच रहे हैं, यह सब भी रामजी की ही कृपा है। आज हमारे रामदूतों का नेटवर्क भी इस रामकाज में पीछे नहीं। जब घर घर पीले चावल पहुंच चुके हैं, तो हर घर और मंदिर में दीप भी प्रज्वलित किए जाएंगे। राम आएंगे, आएंगे, आएंगे।।
ना तिजारत बुरी, ना मोहब्बत बुरी। जब सियासत और इबादत एक हो जाती है, तब ही रामराज्य की स्थापना होती है। कामकाज और रामराज जब साथ साथ चलते हैं, तब ही धर्म की स्थापना होती है, और ग्लोबल नेटवर्क के जरिए, रोम रोम में रामलला विराजमान होते हैं।
जोत से जोत जलाना ही तिजारत है, इबादत है, अपने इष्ट प्रभु राम के प्रति सच्चा प्रेम और समर्पण है। रामजी की निकली सवारी,
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी झोपड़ी के भाग…“।)
अभी अभी # 258 ⇒ मेरी झोपड़ी के भाग… श्री प्रदीप शर्मा
आज सभी ओर केवल एक ही स्वर गूंज रहा है, राम आएंगे, राम आएंगे, राम आएंगे, मेरी झोपड़ी के भाग खुल जाएंगे। यह एक भक्त का भाव है, अनन्य भक्ति की पराकाष्ठा है।
अनन्य भक्ति उसे कहते हैं, जहां कोई दूसरा बीच में होता ही नहीं, भक्त और भगवान एक हो जाते हैं।
शाब्दिक रूप से झोपड़ी एक गरीब की होती है और महल एक राजा अथवा किसी अमीर रईस का। जब कभी हममें भी यह अनन्य भाव जाग उठता है तो हम भी अपने आलीशान बंगले को कुटिया कह उठते हैं।।
हमने तो ऐसी आलीशान कोठी भी देखी है, जिसका नाम संतोष कुटी है। पहले संत कुटिया में रहते थे, आजकल कॉटेज का जमाना है। असली भक्त भी वही, जिसे अपना विशाल भवन भी गरीबखाना ही लगे।
हमारे इष्ट मर्यादा पुरुषोत्तम अगर अयोध्या के राम हैं, तो केवट, निषाद, वानर और शबरी के लिए वे एक वनवासी राम हैं, राम, लखन, और सीता का अगर वनवास नहीं होता, तो ना तो रावण का वध होता और ना ही भक्त यह कह पाते ;
राम, लछमन, जानकी
जय बोलो हनुमान की।
राम की अनन्य भक्ति के केवल दो ही प्रतीक हैं, जो हर भक्त के लिए आदर्श हैं। एक शबरी और दूसरे रामभक्त हनुमान। अपने इष्ट की प्राप्ति एक जन्म में नहीं होती। अपने आराध्य के दर्शन के लिए शबरी ने कितने जन्मों तक इंतजार किया होगा। पत्थर की अहिल्या में प्रभु श्रीराम के केवल पाद स्पर्श से ही प्राणों का संचार हो गया।।
भक्ति का पहला सोपान है, भक्त की अस्मिता और अहंकार का नष्ट होना।
लेकिन यह भी केवल प्रभु कृपा से ही संभव है। राम क्या इतने पक्षपाती हैं कि वे केवल शबरी की झोपड़ी में ही आएंगे और मेरे दो बेडरूम किचन के फ्लैट में नहीं आएंगे। प्रभु तो प्रेम के भूखे हैं और शायद इसीलिए शबरी के जूठे बेर में उन्हें वही रस आता है जो द्वापर के श्रीकृष्ण को विदुर के साग में आया होगा।
यह एक भक्त का अनन्य भाव ही है कि वह अपनी भौतिक उपलब्धियों को तुच्छ मानकर अपने विशाल निवास को एक झोपड़ी के रूप में ही प्रस्तुत करता है। वह यह भी जानता है एक भक्त सुदामा जब अपनी कुटिया से एक मुट्ठी चावल लेकर अपने अनन्य मित्र द्वारकाधीश श्रीकृष्ण से मिलने जाता है, तो केवल एक मुट्ठी चावल से उसके भाग जाग जाते हैं।।
वह तो घट घट व्यापक अंतर्यामी निर्गुण और निराकार होते हुए भी एक भक्त की भावना के अनुरूप सगुण साकार हो उठता है ;
जाकी रही भावना जैसी
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ;
अगर आपकी भावना प्रबल है तो आप जैसे भी हैं, जहां भी हैं, झोपड़ी, कुटिया, कॉटेज, सरकारी क्वार्टर, बंगला अथवा केवल चित्त शुद्ध, तो अयोध्या के राम, आएंगे, आएंगे, जरूर आएंगे।
काश हमारा भाव भी राम भक्त हनुमान समान ही होता जहां ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एकांगी रिश्ते…“।)
अभी अभी # 257 ⇒ एकांगी रिश्ते… श्री प्रदीप शर्मा
रास्ता एकांगी होता है, रिश्ता नहीं। रास्ता आवागमन के लिए बना होता है और रास्तों पर लगातार चलते चलते रिश्ते भी बन ही जाते हैं। पहले मेरे शहर का कोई रास्ता एकांगी नहीं था, आप एक ही रास्ते से आसानी से आ जा सकते थे। अचानक मुख्य मार्ग बहुत व्यस्त होता चला गया, वाहनों की संख्या भी बढ़ने लगी और राहगीरों की भी। इसका असर यह हुआ कि सबसे पहले शहर के महात्मा गांधी मार्ग को एकांगी किया गया। हमने एकांकी नाटक देखे और पढ़े जरूर थे, लेकिन एकांगी शब्द हमारे लिए नया था। वन वे से हमें एकांगी का मतलब समझ में आया। कुछ लोग तो आज भी हिंदी में उसे एकांकी ही कहते हैं।
रास्ता बना ही चलने के लिए होता है, बांए दायें भी केवल वाहनों के लिए ही होता है, कोई किसी पैदल यात्री को वन वे का ज्ञान नहीं बांट सकता। परेशानी तब खड़ी हुई, जब वन वे में चालान कटने शुरू हो गए।
एकांगी मार्ग में हाथी महावत के साथ निकल रहा है, उसका चालान नहीं, लेकिन एक सायकल सवार पर कानून का डंडा।।
रास्तों की तरह शनै: शनै: रिश्तों के एकांगी होने के लिए हम प्रशासन को तो दोष नहीं दे सकते। ताली दो हाथ से बजती है। लेकिन तब सभी रिश्ते करीबी लगते थे। शहर था ही कितना छोटा। छावनी, मिल एरिया, मल्हारगंज और बड़ा गणपति, हो गई चारों दिशाएं। किसी की याद आई, उठाई साइकल और पहुंच गए दस पंद्रह मिनिट में।
तब कहां किसी के घर में फोन था। मिलना जुलना ही तो रिश्ता कहलाता था।
अगर वार त्योहार में भी आपस में नहीं मिले, तो कैसा रिश्ता। तब कहां कोई आज की तरह बड़े शहरों में नौकरी धंधा करने जाता था। परिवार के तकरीबन सभी सदस्य एक ही छत के नीचे रहते थे।
ना रिश्तों की कमी, ना रिश्तेदारों की।।
रिश्तों से अधिक शिक्षा और रोजगार को प्राथमिकता दी जाने लगे। बच्चे पहले पढ़ने और बाद में नौकरी धंधे के लिए बड़े शहरों में जाने लगे। आवागमन के साधन, सुलभ होते चले गए, फोन, टीवी, कंप्यूटर और स्मार्ट फोन ने शहर को बड़ा और दुनिया को छोटा कर दिया।
आना जाना तो छोड़िए, चिट्ठी पत्री भी गायब होती चली गई। पहले लैंडलाइन और बाद में मोबाइल ने सभी मिलने जुलने वाले रास्तों को एकांगी बना दिया। अब कोई यार दोस्त अथवा रिश्तेदार, पहले की तरह चाहे जब मुंह उठाए, घर नहीं आ सकता। वह पहले फोन करेगा, अन्यथा उसे ताला भी मिल सकता है। आप भी किसी से मिलने जाएं, तो सुविधा के लिए पहले सूचित अवश्य करें।।
आज भी मेरे घर के चार पांच किलोमीटर के दायरे में कई मित्र, परिचित और रिश्तेदार हैं लेकिन हमारे बीच इस स्मार्ट सिटी बनने जा रहे महानगर में इतने एकांगी मार्ग, डिवाइडर और मार्ग अवरोधक हैं कि, वाकई लगने लगा है, बहुत कठिन है डगर पनघट की। अब रिश्तों की प्यास बस कभी कभी मोबाइल पर ही पूरी हो जाती है। फिल्म सरगम (१९७९) में एक बड़ा भावुक गीत था, हम तो चले परदेस, परदेसी हो गए। आज तो जिसे देखो, वह प्रवासी होता जा रहा है।
रिश्ते और रास्ते भले ही एकांगी हुए हों, देश आज उन्नति की राह पर है। कहीं कहीं रिश्तों में दरार आई है तो कहीं रास्तों में भी। रास्ते तो सुधर जाएंगे, और चौड़े हो जाएंगे, बस हमारे रिश्तों का दायरा ना सिमटे। एकांगी रिश्तों की दास्तान जगजीत सिंह ने कुछ इस तरह बयां की है ;
डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी उत्सव है…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 215 ☆
☆ ज़िंदगी उत्सव है… ☆
‘कुछ लोग ज़िंदगी होते हैं / कुछ लोग ज़िंदगी में होते हैं / कुछ लोगों से ज़िंदगी होती है और कुछ लोग होते हैं, तो ज़िंदगी होती है’… इस तथ्य को उजागर करता है कि इंसान अकेला नहीं रह सकता; उसे चंद लोगों के साथ की सदैव आवश्यकता होती है और उनके सानिध्य से ज़िंदगी हसीन हो जाती है। वास्तव में वे जीने का मक़सद होते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि दोस्त, किताब, रास्ता और सोच सही व अच्छे हों, तो जीवन उत्सव बन जाता है और ग़लत हों, तो मानव को गुमराह कर देते हैं। सो! दोस्त सदा अच्छे, सुसंस्कारित, चरित्रवान् व सकारात्मक सोच के होने चाहिएं। परंतु यह तभी संभव है, यदि वे अच्छे साहित्य का अध्ययन करते हैं, तो सामान्यतः वे सत्य पथ के अनुगामी होंगे और उनकी सोच सकारात्मक होगी। यदि मानव को इन चारों का साथ मिलता है, तो जीवन उत्सव बन जाता है, अन्यथा वे आपको उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देते हैं; जहां का हर रास्ता अंधी गलियों में जाकर खुलता है और लाख चाहने पर भी इंसान वहां से लौट नहीं सकता। इसलिए अच्छे लोगों की जीवन में बहुत अहमियत होती है। वे हमारे प्रेरक व पथ-प्रदर्शक होते हैं और उनसे स्थापित संबंध शाश्वत् होते हैं।
यह भी अकाट्य सत्य है कि रिश्ते कभी क़ुदरती मौत नहीं मरते, इनका कत्ल इंसान कभी नफ़रत, कभी नज़रांदाज़ी, तो कभी ग़लतफ़हमी से करता है, क्योंकि घृणा में इंसान को दूसरे के गुण और अच्छाइयां दिखाई नहीं देते। कई बार इंसान अच्छे लोगों के गुणों की ओर ध्यान ही नहीं देता; उनकी उपेक्षा करता है और ग़लत लोगों की संगति में फंस जाता है। इस प्रकार दूसरे के प्रति ग़लतफ़हमी हो जाती है। अक्सर वह अन्य लोगों द्वारा उत्पन्न की जाती है और कई बार हम किसी के प्रति ग़लत धारणा बना लेते हैं। इस प्रकार इंसान अच्छे लोगों को नज़रांदाज़ करने लग जाता है और उनकी सत्संगति व साहचर्य से वंचित हो जाता है।
परंतु संसार में यदि मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करने वाला कोई है, तो वह प्रेम है और इसका सबसे बड़ा साथी है आत्मविश्वास। सो! प्रेम ही पूजा है। प्रेम द्वारा ही हम प्रभु को भी अपने वश में कर सकते हैं और आत्मविश्वास रूपी पतवार से कठिन से कठिन आपदा का सामना कर, सुनामी की लहरों से भी पार उतर कर अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। इस प्रकार प्रेम व आत्मविश्वास की जीवन में अहम् भूमिका है… उन्हें कभी ख़ुद से अलग न होने दें। इसलिए किसी के प्रति घृणा व मोह का भाव मत रखें, क्योंकि वे दोनों हृदय में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव उत्पन्न करते हैं। मोह में हमारी स्थिति उस अंधे की भांति हो जाती है; जो सब कुछ अपनों को दे देना चाहता है। मोह के भ्रम में इंसान सत्य से अवगत नहीं हो पाता और ग़लत काम करता है। वह राग-द्वेष का जनक है और उसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है। हम सब एक-दूसरे पर आश्रित हैं और एक-दूसरे के बिना अधूरे व अस्तित्वहीन हैं… यही रिश्तों की गरिमा है; खूबसूरती है। इसीलिए कहा जाता है ‘दिल पर न लो उनकी बातें /जो दिल में रहते हैं’ अर्थात् जिन्हें आप अपना स्वीकारते हैं, उनकी बातों का बुरा कभी मत मानें। वे सदैव आपके हित मंगल कामना करते हैं; ग़लत राहों पर चलने से आपको रोकते हैं; विपत्ति व विषम परिस्थिति में ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं। हमें उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जब हम यह समझ लेते हैं कि ‘वे ग़लत नहीं हैं; भिन्न हैं। उस स्थिति में सभी शंकाओं व समस्याओं का अंत हो जाता है, क्योंकि हर इंसान का सोचने का ढंग अलग-अलग होता है।’
‘ज़िंदगी लम्हों की किताब है /सांसों व ख्यालों का हिसाब है / कुछ ज़रूरतें पूरी, कुछ ख्वाहिशें अधूरी / बस इन्हीं सवालों का जवाब है ज़िंदगी।’ सांसों का आना-जाना हमारे जीवन का दस्तावेज़ है। जीवन में कभी भी सभी ख्वाहिशें पूरी नहीं होती, परंतु ज़रूरतें आसानी से पूरी हो जाती हैं। वास्तव में ज़िंदगी इन्हीं प्रश्नों का उत्तर है और बड़ी लाजवाब है। इसलिए मानव को हर क्षण जीने का संदेश दिया गया है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि ख्वाहिशें तभी मुकम्मल अर्थात् पूरी होती हैं/ जब शिद्दत से भरी हों और उन्हें पूरा करने की/ मन में इच्छा व तलब हो। तलब से तात्पर्य है, यदि आपकी इच्छा-शक्ति प्रबल है, तो दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं। आप आसानी से अपनी मंज़िल को प्राप्त कर सकते हैं और हर परिस्थिति में सफलता आपके कदम चूमेगी।
सो! कुछ बातें, कुछ यादें, कुछ लोग और उनसे बने रिश्ते लाख चाहने पर भी भुलाए नहीं जा सकते, क्योंकि उनकी स्मृतियां सदैव ज़हन में बनी रहती हैं। जैसे इंसान अच्छी स्मृतियों में सुक़ून पाता है और बुरी स्मृतियां उसके जीवन को जहन्नुम बना देती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जो भी अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर लो; अपना लो, क्योंकि यही सबसे उत्तम विकल्प होता है। जो मानव दोष-दर्शन की प्रवृत्ति से निज़ात नहीं पाता, सदैव दु:खी रहता है। अच्छे लोगों का साथ कभी मत छोड़ें, क्योंकि वे तक़दीर से मिलते हैं। दूसरे शब्दों में वे आपके शुभ कर्मों का फल होते हैं। ऐसे लोग दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं जो आपकी तक़दीर बदल देते हैं। इसलिए कहा जाता है, ‘रिश्ते वे होते हैं, जहां शब्द कम, समझ ज़्यादा हो/ तक़रार कम, प्यार ज़्यादा हो/ आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो। यही है रिश्तों की खूबसूरती।’ जब इंसान बिना कहे दूसरे के मनोभावों को समझ जाए; वह सबसे सुंदर भाषा है। मौन विश्व की सर्वोत्तम भाषा है, जहां तक़रार अर्थात् विवाद कम, संवाद ज़्यादा होता है। संवाद के माध्यम से मानव अपनी प्रेम की भावनाओं का इज़हार कर सकता है। इतना ही नहीं, दूसरे पर विश्वास होना कारग़र है, परंतु उससे उम्मीद रखना दु:खों की जनक है। इसलिए आत्मविश्वास संजोकर रखें, क्योंकि इसके माध्यम से आप अपनी मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।
सुख मानव के अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की और दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन सफल होता है। सो! मानव को सुख में अहंकार से न फूलने की शिक्षा दी गई है और दु:ख में धैर्यवान बने रहने को सफलता की कसौटी स्वीकारा गया है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु व सभी रोगों की जड़ है। वह वर्षों पुरानी मित्रता में पल-भर में सेंध लगा सकता है; पति-पत्नी में अलगाव का कारण बन सकता है। वह हमें एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देता। इसलिए अच्छे लोगों की संगति कीजिए; उनसे संबंध बनाइए; कानों-सुनी बात पर नहीं, आंखों देखी पर विश्वास कीजिए। स्व-पर व राग-द्वेष को त्याग ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ को जीवन का मूलमंत्र बना लीजिए, क्योंकि इंसान का सबसे बड़ा शत्रु स्वयं उसका अहम् है। सो! उससे सदैव कोसों दूर रहिए। सारा संसार आपको अपना लगेगा और जीवन उत्सव बन जाएगा।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चोली दामन का साथ…“।)
अभी अभी # 256 ⇒ चोली दामन का साथ… श्री प्रदीप शर्मा
चोली दामन का साथ एक मुहावरा है, जिसका प्रयोग बोलचाल की भाषा में बहुतायत से किया जाता है। अच्छी मित्रता हो, घनिष्ठ संबंध हो, एक के बिना दूसरे की उपयोगिता ना हो, वहां चोली दामन उदाहरण स्वरूप चले आते हैं।
कुछ उदाहरण तो आदर्श होते हैं, मसलन राम और सीता, राम और लक्ष्मण, राधा और श्याम और कृष्ण के अधरों पर बांसुरी। जुम्मन शेख और अलगू चौधरी हों, अथवा ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे वाले शोले के जय और वीरू। लोग तो शोले, दीवार और त्रिशूल वाली सलीम जावेद की जोड़ी को भी याद करते हैं। लेकिन दोनों में कौन चोली और कौन दामन, समझना मुश्किल ! आज देखिए कहां चोली और कहां दामन। जावेद के दामन में आज शबाना और सलीम भाई के आंचल में भाई सलमान।
चोली दामन नहीं हुए, बदलते हुए सितारे हो गए।।
क्या पांव की जूते की जोड़ी में चोली दामन का साथ नहीं, एक से काम भी नहीं चलता, और दूसरे पांव में जोड़ी की जगह चप्पल भी नहीं चलती। एक समय था जब लेखक बिना कलम के और हज्जाम बिना उस्तरे के किसी काम का नहीं था। झूठ क्यूं बोलूं, मेरी आंखों का और मेरे चश्मे का भी चोली दामन का बचपन से ही साथ है।
हमारे शरीर का सांसों के साथ कितना गहरा संबंध है, हम नहीं जानते। वैसे देखा जाए तो एक मां और उसकी संतान का तो साथ चोली दामन से भी कई गुना अधिक होता है, जिसकी व्याख्या करना इतनी आसान भी नहीं। लेकिन हां चोली दामन के साथ पर हम जरूर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं।।
चोली को आप चाहें तो स्त्रियों का अंग वस्त्र कह सकते हैं। जिस तरह फिल्म शोले में ठाकुर यानी संजीव कुमार हमेशा एक शॉल ओढ़े रहता था, उसी तरह चोली को दामन अर्थात् आंचल अथवा पल्लू से हमेशा ढंका रखा जाता है। पुरुष का क्या है, वह तो बड़ी आसानी से कह उठता है ;
चुनरी संभाल गोरी
उड़ी चली जाए रे ….
क्योंकि उसको तो उड़ती पतंग को काटने और लूटने में बड़ा मजा आता है। पतंग और डोर का ही तो साथ है, चोली और दामन का।
लेकिन पुरुष में कहां हया और शरम ! ईश्वर ने उसे ना तो आंचल ही दिया और ना ही दामन। वह तो कमीज के बटन खोलकर, सीना तानकर चलता है। वह क्या जाने एक चोली का दर्द। दामन में दाग भी स्त्री को ही लगता है और आंचल भी उसे ही फैलाना पड़ता है।।
केवल एक मासूम सा, नन्हा सा बालक ही समझ सकता है, चोली दामन का उसके लिए क्या महत्व है। क्योंकि मेरी दुनिया है मां, तेरे आंचल में। उसी आंचल में, उस नन्हीं सी जान के लिए दूध है, और रात भर जागी हुई आंखों में ममता भरा पानी। वहां मां के दामन में उसके लिए खुशियां ही खुशियां हैं। यह होता है, चोली दामन का साथ।।
फिल्म मॉडर्न गर्ल (1961) का एक खूबसूरत सा गीत रफी साहब की आवाज में ;
☆ “१८ जनवरी – स्व. हरिवंशराय बच्चन जी के पुण्यस्मरण अवसर पर ….” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆
स्व. हरिवंशराय बच्चन
(जन्म, 27 नवम्बर 1907. निधन, 18 जनवरी 2003)
☆
स्व. हरिवंशराय बच्चनजी के असंख्य चाहने वालों में से मैं एक हूं। उनकी कवितासे मैं बेहद प्यार करता हूं और जाहिर है कि उनकी मधुशाला का मैं बहुत बड़ा भक्त हूं। प्रकृति के हर अंगों में, जीवन के हर पहलू में, सभी जगह जिधर देखें उधर उन्हें मधुशाला नजर आती हैं। उनकी नजर तो मुझमें नहीं है और ना मैं उनके जैसा शब्दप्रभू हूँ फिर भी एक भक्त के नाते जो कुछ मन में आता है, वह शायद उनकी ही प्रेरणा है, मैं सादर कर रहा हूं। आपके आशिर्वाद और प्रशंसा के सिवा भी आपके सुझावों को भी जरूर चाहता हूं जिसके जरिए मुझे ज्यादा से ज्यादा सुधरने का मौका मिल सकेगा और शब्दों में ज्यादा से ज्यादा नशीलापन मैं भर सकूंगा।
——– सुनील देशपांडे
लॉकडाउन के काल में जब दुकानें बंद थी उसी माहौल के लिए यह चंद पंक्तियाँ बनाई थी आपके सामने रखता हूँ –
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वर्ण काल -भक्तिकाल…“।)
अभी अभी # 255 ⇒ स्वर्ण काल -भक्तिकाल… श्री प्रदीप शर्मा
साहित्य में भक्तिकाल को स्वर्ण काल कहा गया है। यह भक्ति साहित्य ही है, जिसने भक्ति की अलख को सदा जलाए रखा है। भक्ति आंदोलन कोई नया आन्दोलन नहीं है। 1375 से 1700 तक का समय हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग माना गया है। भक्ति काल को लोक जागरण का काल भी कहा गया है।
रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानुज द्वारा यह आंदोलन दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाया गया।
चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, संत तुकाराम, जयदेव और गुरु नानक इनमें प्रमुख है।।
वाल्मिकी कृत आदि महाकाव्य रामायण और तुलसीदास रचित रामचरितमानस ने अगर रामाश्रयी परंपरा को पुष्ट किया तो वल्लभाचार्य के अष्ट छाप कवियों ने कृष्णाश्रयी परम्परा में पुष्टिमार्ग को स्थापित किया। मीरा अगर प्रेमाश्रयी शाखा के अंतर्गत कृष्ण भक्ति में लीन थी, तो हमारे कबीर साहब ज्ञानाश्रयी मतावलंबी होते हुए अपनी साखियों द्वारा समाज में व्याप्त अंध विश्वास और पाखंड की धज्जियां भी बिखेरने से बाज नहीं आते थे।
बिना भक्तों के कैसा भक्ति आंदोलन। भक्त जब जाग जाए तभी जन आंदोलन। कभी चित्रकूट के घाट पर संतों की भीड़ जमा होती थी, तुलसीदास जी चंदन घिसते थे, और रघुवीर का तिलक करते थे। आज अयोध्या में सरयू के तट पर संतों की भीड़ जमा है। बस तुलसीदास और रघुवीर की कमी है।।
मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम ने त्रेता युग में अपने वनवास काल में दुष्ट रावण का सहार किया, लंका पर विजय पाई और सीता, लखन सहित अयोध्या वापस लौटे रघुराई। उनका राजतिलक हुआ, रामराज्य की स्थापना हुई। लेकिन तब से आज तक हम हर वर्ष रावण जलाते रहे, दशहरा मनाते रहे, लेकिन रावण न जला, न जला, न मरा, न मरा।
रावण के जितने सिर हैं, उतने ही उसके अवतार हैं। अशोक वाटिका को तहस नहस करने और लंका में आग लगाने के बाद रामभक्त हनुमान शांत नहीं बैठे। हमारे हनुमत वीरा के भी कई अवतार हैं। रामकाज को आतुर सभी रामभक्तों ने कलयुग में एक और रावण की लंका ढहाई। भक्तों का यह जन आंदोलन था, जिसके ही कारण आज रामलला पुनः अयोध्या में विराज रहे हैं।।
कलयुग में यह त्रेतायुग का पदार्पण है। भक्ति का बीज अक्षुण्ण होता है, यह कभी नहीं मरता। वाल्मीकि, तुलसी और करोड़ों राम भक्तों की आस्था का ही यह परिणाम है कि आज अयोध्या में पुनः भव्य राम मंदिर की स्थापना हो रही है।
भक्तों के जन आंदोलन से बड़ा कोई आंदोलन नहीं होता। भक्ति काल ही हमारे जीवन का स्वर्ण काल है।
सगुण हो अथवा निर्गुण, ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन भक्ति ही है।।
अगर हम चाहते हैं कि वहां पुनः रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हो तो एक प्रतिज्ञा हमें भी करनी पड़ेगी। राम की मर्यादा और आचरण को अपने जीवन में उतारने की। शायद पंडित भीमसेन जोशी का भी इस भजन में यही संकेत है ;
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – धर्म और धर्म ध्वज ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 254 ☆
आलेख – धर्म और धर्म ध्वज
वर्तमान समय वैश्विक सोच का है, क्या धर्म इस विस्तार को संकुचित करता है ? समान सांस्कृतिक परम्परा के मानने वालों का समूह एक धर्मावलंबी होता है। धर्म की अनुपालना मनुष्य को मनुष्यत्व सिखाती है।
धर्म की अवधारणा ज्यादा पुरानी नहीं है। यह 16वीं और 17वीं शताब्दी में बनाई गई थी। संस्कृत शब्द धर्म, का अर्थ कानून भी है। पूरे दक्षिण एशिया में, कानून के अध्ययन में धर्मपरायणता के साथ-साथ व्यावहारिक परंपराओं के माध्यम से तपस्या जैसी अवधारणाएं शामिल थीं। मध्यकालीन जापान में पहले शाही कानून और सार्वभौमिक या बुद्ध कानून के बीच एक समान संघ था, लेकिन बाद में ये सत्ता के स्वतंत्र स्रोत बन गए। परंपराएं, पवित्र ग्रंथ और प्रथाएं सदा मौजूद रही हैं। अधिकांश संस्कृतियां धर्म की पश्चिमी धारणाओं से अलग है। 18वीं और 19वीं शताब्दी में, बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म, ताओवाद, कन्फ्यूशीवाद और विश्व धर्म शब्द सबसे पहले अंग्रेजी भाषा में आए। अमेरिकी मूल-निवासियों के बारे में भी सोचा जाता था कि उनका कोई धर्म नहीं है और उनकी भाषाओं में धर्म के लिए कोई शब्द भी नहीं है। 1800 के दशक से पहले किसी ने स्वयं को हिंदू या बौद्ध या अन्य समान शब्दों के रूप में पहचाना नहीं था। “हिंदू” ऐतिहासिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के स्वदेशी लोगों के लिए एक भौगोलिक, सांस्कृतिक और बाद में धार्मिक पहचान के रूप में इस्तेमाल किया गया है। अपने लंबे इतिहास के दौरान, जापान के पास धर्म की कोई अवधारणा नहीं थी।
19 वीं शताब्दी में भाषाशास्त्री मैक्स मुलर के अनुसार, अंग्रेजी शब्द धर्म की जड़, लैटिन धर्म, मूल रूप से केवल ईश्वर या देवताओं के प्रति श्रद्धा, दैवीय चीजों के बारे में सावधानीपूर्वक विचार करने के लिए इस्तेमाल किया गया था, धर्मपरायणता (जिसे सिसेरो ने आगे अर्थ के लिए व्युत्पन्न किया था) । मैक्स मुलर ने इतिहास में इस बिंदु पर एक समान शक्ति संरचना के रूप में मिस्र, फारस और भारत सहित दुनिया भर में कई अन्य संस्कृतियों की विशेषता बताई। जिसे आज प्राचीन धर्म कहा जाता है, उसे तब केवल सामाजिक व्यवस्था के रूप में समझा जाता था।
सामान्यतः ध्वज चौकोन होते हैं। पर हिंदू धर्म ध्वज त्रिकोणीय होते हैं। ध्वज के रंग, उस पर बने चित्र आदि संप्रदाय विशेष, एक मतावलंबियो, मठों, के अनुरूप विशिष्ट पहचान के रूप में, बिना किसी पंजीयन के ही मान्य रहे हैं। युद्ध में एक सेना एक ध्वज के तले नियंत्रित और उससे ऊर्जा प्राप्त करती थी। जय, विजय, लोल, विशाल, दीर्घ, वैजांतिक, भीम, चपल आदि ध्वजो के वर्णन महाभारत के युद्ध में मिलते हैं। अस्तु आज जब दुनिया भर में धर्म की व्याख्या को महत्व दिया जा रहा है, धर्म और उसके प्रतीक ध्वज को नई दृष्टि से देखा जा रहा है।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “प्रेम डोर सी सहज सुहाई…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 179 ☆ प्रेम डोर सी सहज सुहाई… ☆
भाव भक्ति के रंग में डूबे हुए आस्थावान लोग; सकारात्मक शक्ति के उपासक बन अपनी जीत का जश्न मना रहे हैं । लंबे संघर्ष के बाद जब न्याय मिलता है तो हर चेहरे पर खुशी की मुस्कान देखते ही बनती है । हर आँखों में श्रीराम लला के प्रति उमड़ता स्नेह व अपार श्रद्धा झलक रही है । वनवासी राम से मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनने का क्रम सारे समाज के लिए प्रेरणास्रोत है । सबको जोड़कर साथ रखना, वचन निभाना, सागर पर सेतु बनाकर लक्ष्य भेदना , मित्रता का धर्म निभाना इस सबके आदर्श प्रभु श्रीराम हैं ।
हम सब सौभाग्यशाली हैं जो इन पलों के साक्षी बन रहें हैं । हर घर में अक्षत के साथ राम मंदिर का आमंत्रण, घर- घर दीपोत्सव का आयोजन साथ ही अपने आसपास के परिवेश को स्वच्छ रखने का संदेश । सारे समाज को जोड़ने वाली कड़ी साबित होगा राम मंदिर ।
बाल सूर्य जब सप्त घोड़े पर सवार होकर नित्य प्रातः बेला को भगवामय करते तो पूरी प्रकृति ऊर्जान्वित होकर अपने कार्यों में जुट जाती है, तो सोचिए जब पूरा विश्व भगवामय होगा तो कैसा सुंदर नजारा होगा । हर घर में लहराता हुआ ध्वज मानो अभिनंदन गान गा रहा है । स्वागत में पलक पाँवड़े बिछाए हुए लोग समवेत स्वरों में मंगलकामना कर रहें हैं-
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गाय और गौ ग्रास…“।)
अभी अभी # 254 ⇒ गाय और गौ ग्रास… श्री प्रदीप शर्मा
(Cow and grass)
गाय को हम गौ माता मानते हैं, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह हमें दूध देती है। हम गौ सेवा इसलिए भी करते हैं, कि वेदों के अनुसार गाय में ३३ कोटि देवताओं का वास होता है। इन ३३ प्रकार के देवताओं में १२ आदित्य, ८ वासु, ११ रुद्र और २ आदित्य कुमार हैं। केवल एक गाय की सेवा पूजा से अगर ३३ कोटि देवताओं का पूजन संपन्न हो जाता है, तो यह सौदा बुरा नहीं है।
अन्य चौपायों की तरह गाय भी पशुधन ही है और घास ही खाती है, कोई चाउमिन नहीं।
हमने बचपन में कहां वेद पढ़े थे। बस गाय पर निबंध ही तो पढ़ा था।
घरों में पहली रोटी गाय की बनती थी, और आज भी बनती चली आ रही है। एक रोटी से कहां गाय का पेट भरता है। पेट तो उसका भी घास से ही भरता है। उसके लिए हमारी रोटी, ऊंट के मुंह में जीरे के समान, एक ग्रास ही तो है। कई अवसरों पर भोजन के पहले गऊ ग्रास भी निकाला जाता है। लेकिन प्रश्न भाव और संतुष्टि का है।
इसे संयोग ही कहेंगे कि घास को अंग्रेजी में भी ग्रास ही कहते हैं। घास से भले ही गौ माता का पेट भरता हो, लेकिन मन तो उसका भी, उसके लिए एक ग्रास जितनी, एक रोटी से ही भरता है। आप गाय को अगर रोज घास नहीं खिला सकते, तो कम से कम गौ ग्रास तो खिला ही सकते हैं।।
बचपन में हमने कहां वेद पढ़े थे। हमारे मोहल्ले में पाठशाला थी, गुरुकुल नहीं। हर मकर सक्रांति को पिताजी के साथ जाते और नन्दलालपुरा से धडी भर नहीं, छोड़ के गट्ठर के गट्ठर, साइकिल के पीछे बांधकर ले आते। हमारे लिए तो छोड़ हमेशा ही आते थे, लेकिन ये छोड़ विशेष रूप से गाय के लिए आते थे।
हम तब भाग्यशाली थे, तब सड़कों पर वाहन से अधिक गाय नजर आती थी। हमारी बालबुद्धि समझ नहीं पाती। गाय को छोड़ खिलाना है, खिलाओ, लेकिन छोड़ के दाने तो निकाल लो। लेकिन हमारी मां हमें समझाती, ये छोड़ गाय के लिए हैं, तुम्हारे लिए अलग से रखे हैं।।
आज घर में मां नहीं है, मकर सक्रांति के दिन, छोड़ खिलाने के लिए आसपास गाय भी नहीं है। गौ शालाओं में गाय की अच्छी सेवा हो रही है और हम तिल गुड़ खाकर और मीठा मीठा बोलकर उत्सव मना रहे हैं।
स्मार्ट सिटी बनने जा रहे महानगर की बहुमंजिला इमारतों की खिड़कियों से जितना आसमान दिख जाए, देख लो, जितनी पतंगें लोग उड़ा सकते हैं, उड़ा ही रहे हैं। पतंग काटने का सुख, और कटने का दुख, दोनों कितने अच्छे लगते हैं। समय कहां रुकता है, जीवन चलने का ही तो नाम है। अच्छे दिन आज भी हैं, फिर भी किशोर कुमार का यह गीत गुनगुनाने का मन करता है ;