डाॅ. मीना श्रीवास्तव
☆ “मानुष हौं तो वही रसखानि” – भाग – 1 ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
कृष्णभक्त रसखान के सवैयों का काव्यानुभव (पूर्वार्ध)
प्रिय पाठकगण
सस्नेह वंदन!
प्रसिद्ध कृष्ण भक्त रसखान ब्रज भाषा के कवि हैं! वल्लभ सम्प्रदाय को संत वल्लभाचार्य ने प्रारम्भ किया| जब से गोकुल वल्लभ संप्रदाय का केंद्र बना, ब्रजभाषा में कृष्ण पर साहित्य लिखा जाने लगा। इस प्रभाव ने ब्रज (मथुरा गोकुल वृन्दावन की) की बोली भाषा को एक प्रतिष्ठित साहित्यिक भाषा बना दिया। सूरदास और रसखान की कृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत मधुर ब्रजभाषा भाषा में रचित काव्य अत्यंत सुंदर भावानुभूति कराता है। उनके काव्य का मुख्य विषय ‘कृष्णलीला’ है। उसकी गहराई का अनुभव करना हो तो रसखान की कविताओं को पढ़ना ही एकमात्र उपाय है। इस लेख में, मैंने उनके प्रेम और भक्ति से परिपूर्ण कुछ ‘सवैये’ नामक प्रसिद्ध काव्य प्रकार का अंतर्भाव करते हुए उनका रसग्रहण करने का प्रयत्न किया है|
सैयद इब्राहिम खान उर्फ रसखान का जन्म काबुल (१५७८) में हुआ था और उनकी मृत्यु वृन्दावन (१६२८) में हुई थी। रसखान प्रसिद्ध भारतीय सूफ़ी कवि और कृष्ण के बहुत बड़े भक्त थे! कवि ने स्वयं कहा है कि वे बादशाही जाति के थे| उससे यह माना जाता है कि उनका बचपन अच्छी स्थिति में रहा होगा। भागवत का फ़ारसी अनुवाद पढ़कर उनके हृदय में भगवान कृष्ण के प्रति भक्ति जाग उठी। इस संबंध में कई किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। अंततः तात्पर्य यह है कि, वे कई प्रसंगों के कारण कृष्ण भक्ति की ओर आकर्षित हुए थे। वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ द्वारा कृष्ण भक्ति की दीक्षा प्राप्त करने के उपरांत, उन्होंने मुस्लिम होने के बावजूद एक वैष्णव भक्त का जीवन व्यतीत किया।
उन्होंने १६ वीं शताब्दी में प्रेमवाटिका काव्य की रचना की और वृन्दावन में बहुत प्रसिद्धी पाई। बावन दोहों की इस कविता में प्रेम के महत्व का वर्णन किया गया है। मात्र १२९ स्फुट पदों के इस संग्रह के नायक हैं ‘सुजान रसखान’ के प्रिय अपनी बाँसुरी से गोपियों को लुभाते श्रीकृष्ण! इनमें ‘कवित्तसवैया’ बहुत लोकप्रिय हैं। इस संदर्भ में ‘सुनाओ कोई रसखान’ अर्थात ‘कविता सुनाओ’ वाक्यांश का प्रयोग बहुत ही प्रचलित था। ऐसा देखा गया है कि ब्रजभाषा में काव्य रचना करने वाला यह कवि भागवत तथा अन्य संस्कृत ग्रंथों से भली-भांति परिचित था। रसखान ने अपने काव्य में इन पौराणिक सन्दर्भों का उल्लेख किया है। उनकी कविता में अरबी, फ़ारसी और अपभ्रंश भाषाओं के शब्द भी प्रचुर मात्रा में देखे गये हैं। उनकी भाषा सरल और सीधी होते हुए भी सुरुचिपूर्ण और समृद्ध है। उन्होंने दोहा, कवित्त, घनाक्षरी और सवैया छन्द (श्लोकों) का अधिकतर प्रयोग किया। रसखान का सबसे बड़ा परिचय एक कवि के रूप में है, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से कृष्ण के लड़कपन तथा उनकी विभिन्न लीलाओं का रोचक मानस रचा! कुछ विद्वानों के अनुसार रसखान की कविता इतनी ‘रसमय’ है कि वह उन्हें प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवि सूरदास की श्रेणी में लाकर खड़ा करती है|
सवैय्या
मित्रों, अब देखें कि सवैये का मतलब क्या है? सवैय्या एक छंद (वृत्त) है।चार पंक्तियों (प्रत्येक पंक्ति में २२-२६ शब्द) के संग्रह को पारंपरिक रूप से हिंदी में ‘सवैया’ कहा जाता है। रसखान के सवैये बहुत प्रसिद्ध हैं| निम्नलिखित कविता ‘मानुष हो तो वहीं रसखानि’ उनकी कृष्णभक्ति का सुंदर उदाहरण है। कवि अनेक प्रकार से कहता है कि मुझे कृष्ण के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए। कृष्णलीला ही उनकी समग्र कविताओं की आत्मा है। ‘आठ सिद्धियों और नौ निधियों का वैभव भी मैं कृष्ण की लाठी और कम्बल पर न्योछावर कर दूँ’ इन अलौकिक शब्दों में उन्होंने अपनी भक्ति व्यक्त की है| आइए अब इस प्रसिद्ध कविता का आनंद लेते हैं| उनमें से केवल कुछ एक सवैयों के अर्थ जानने का यत्न करें, क्योंकि कविता रसमय तो है, लेकिन साथ ही काफी लंबी भी है। मैंने इस रसग्रहण को करते हुए कवि की कृष्ण भक्ति को वैसी की वैसी प्रस्तुत करने का भरसक प्रयास किया है|
‘मानुष हौं तो वही रसखानि’
मानुष हौं तो वही रसखानि, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
रसखान को ब्रजभूमि से इतना लगाव है कि वे वहां कृष्ण से जुड़ी हर चीज से जुड़ना चाहते हैं। कवि अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए कहता है, ‘हे भगवान, यदि तुम मनुष्य का जन्म देना चाहते हो तो गोकुल के किसी चरवाहे या ग्वाले का जनम देना| पशु योनि में जन्म देना चाहते हो तो गोकुल के नन्द बाबा के घर में पल बढ़ रही गाय या बछड़े के रूप में जन्म देना| नन्द बाबा के घर रहूँगा तो, गारंटी है कि कान्हा मुझे हर दिन वन में ले जाएंगे! हां, अगर पत्थर ही बनाना चाहते हो तो, जो कृष्ण ने जो गोवर्धन पर्वत उठाया था, बस उसी पर मुझे पडे रहने देना। उस गिरिधर ने एक बार उस पवित्र पर्वत के छत्र को अपनी करांगुली (छोटी उंगली) पर धारण कर के इंद्रदेव के प्रकोप से गोकुल के लोगों के प्राण बचाये थे! अरे पक्षी का भी जन्म दो तो कोई दिक्कत नहीं, लेकिन ऐसी व्यवस्था करो हे भगवन कि, मैं जन्म लूं ब्रज की धरती पर और घोंसला बनाऊं कालिंदी के किनारे कदम्ब के पेड़ की शाखा पर। ओह, एक समय की बात है, राधा और गोपाल कृष्ण इस कदम्ब के पेड़ की शाखाओं पर झूल रहे होंगे! यदि नहीं, तो वह किसन कान्हा इसी कदम्ब के पेड़ पर बैठकर बांसुरी बजाकर गोपियों को रिझाता होगा! डॉ. मीना श्रीवास्तवक्या मेरा ऐसा नसीब होगा कि, मैं भी वहीं जन्म लूंगा जहाँ कृष्ण और गोपियाँ निवास करते होंगे?’
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
ए रसखानि जबै इन नैनन ते ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौ।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
उपरोक्त सवैये में ऐसा प्रतीत होता है कि कवि रसखान कृष्ण के बचपन की चीजों से अत्यधिक मोहित हुए हैं। देखें कि वे उनके लिए क्या त्याग करने को तैयार हैं! वे कहते हैं ‘इस ग्वाले की लाठी और कम्बल मुझे अति प्रिय हैं, यदि मुझे त्रिलोक का राज्य भी मिल जाए तो भी मैं इनपर उसे न्योछावर कर दूँ| यदि कोई मुझे नंद बाबा की गायों को चराने ले जाने का अवसर देता है तो, आठ सिद्धियों (अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्त्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व) और नौ निधियों (पद्म निधि, महापद्म निधि, नील निधि, मुकुंद निधि, नंद निधि, मकर निधि, कच्चा निधि, शंख निधि और खर्व) के सुख का मैं त्याग कर सकता हूँ| जीवनभर ब्रजभूमि के वनों, उपवनों, उद्यानों और तड़ागों को अपनी आंखों से देखूंगा और उन्हें अपनी आंखों में संजोकर रखूंगा। मैं ब्रजभूमि की कंटीले वृक्ष लताओं के लिए करोडों स्वर्ण महल अर्पित करने को मैं खुशी खुशी तैयार हो जाऊँगा।‘
सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
कवि उपरोक्त पंक्तियों में कहते हैं, ‘शेष (नाग), गणेश, महेश (शिव), दिनेश (सूर्य) और सुरेश (इंद्र) लगातार उनका (कृष्ण) ध्यान करते हैं, उसका आकलन न कर पाने वाले वेद उनकी स्तुति गाते हैं, ‘वह अनादी, अनंत, अखंड, अछेद (जिसमें कोई छेद न हो) आणि अभेद हैं।’ नारद मुनि, शुक मुनि, वेद व्यास जैसे महा बुद्धिमान ऋषि जिनके नाम का लगातार जाप करते रहते है, ऐसे परात्पर परब्रह्म गोकुल के बालकृष्ण को ये ग्वालिनें (अहीर या ग्वाले की छोरियां) छछिया (छाछ रखने का मिट्टी का एक छोटा बरतन) भर छाछ दिखाकर नचाती हैं, तो कभी पायल पहनती हैं तो कभी घाघरा चोली!’ ये हैं भगवान कृष्ण, जो दुनिया को नचाते हैं! उनकी लीला तो अपरम्पार है! इन ग्वालिनों के परम भाग जो इस जगदीश्वर को अपने मन माफिक नचाती रहती हैं| उनका बाल रूप इतना मनमोहक और सर्वज्ञ है, फिर भी वे निःसंदेह अज्ञ गोपियों के लिए ऐसी लीला करते हैं।
(ऐसा कहा जाता है कि देवगण और ऋषि मुनियों ने स्त्री रूप धारण कर भगवान विष्णु से एकरूप होने के लिए गोपिकाओं के रूप धारण किये थे। लेकिन गोपिकाएँ बनने के बाद, वे अपने मूल रूप को भूल गए और भोली भाली गोपिकाओं के रूप में इस प्रकार कृष्ण की संगति का आनंद लिया! क्या सही और क्या गलत! केवल पूर्ण ब्रह्म कृष्ण ही जानें! केवल एक ही सत्य, भगवान कृष्ण, जिन्होंने दुनिया को नचाया, गोपियों के लिए नृत्य करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे, केवल एक गोला मक्खन का और एक छछिया भर छाछ देना होता था!)
मित्रों, आज यहीं विराम देती हूँ! कल उत्तरार्ध प्रस्तुत करुँगी!
तब तक राम कृष्ण हरी!
© डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे
दिनांक १५ ऑगस्ट २०२3
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈