हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 83 – प्रमोशन… भाग –1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की प्रथम कड़ी।

☆ आलेख # 83 – प्रमोशन… भाग –1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

ये मेरी पोस्ट, कौन बनेगा करोड़पति के विज्ञापन से प्रभावित है, जो डब्बा की उपाधि से प्रचलित अभय कुमार की कहानी है. विज्ञापन के विषय में ज्यादा लिखना आवश्यक नहीं है क्योंकि ये तो प्राय: सभी देख चुके हैं. गांव के स्कूल के जीर्णोद्धार के लिये 25 लाख चाहिये तो गांव के मुखिया जी के निर्देशन में सारे मोबाइल धारक KBC में प्रवेश के लिये लग जाते हैं, किसी और का तो नहीं पर कॉल या नंबर कहिये लग जाता है “डब्बा” नाम के हेयर कटिंग सेलून संचालक का जो प्राय: अशिक्षित रहता है. तो पूरे गांववालों द्वारा माने गये इस अज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम के लिये तैयार करने की तैयारी के पीछे पड़ जाता है पूरा गांव. ये तो तय था कि एक अल्पज्ञानी को करोड़पति कार्यक्रम जिताने के लिये असंभव प्रयास किये जा रहे थे, किसी चमत्कार की उम्मीद में, जो हम अधिकांश भारतीयों की आदत है. पर जब परिणाम आशा के अनुरूप नहीं मिला तो सारे गांववालों ने डब्बा को उठाकर कचरे के डब्बे में डाल दिया. ये हमारी आदत है चमत्कारिक सपनों को देखने की और फिर स्वाभाविक रूप से टूटने पर हताशा की पराकाष्ठा में टूटे हुये सपनों को दफन कर देने की. गांव का सपना उनके स्कूल के पुनरुद्धार का था जो वाजिब था, केबीसी में कौन जायेगा, जायेगा भी या नहीं, चला भी गया तो क्या पच्चीस लाख जीत पायेगा, ये सब hypothetical ही तो था. पर यहां से डब्बा के घोर निराशा से भरे जीवन में उम्मीद की एक किरण आती है उसके पुत्र के रूप में जो हारे हुये साधनहीन योद्धा को तैयार करता है नये ज्ञान रूपी युद्ध के लिये. ये चमत्कार बिल्कुल नहीं है क्योंकि अंधेरों के बीच ये रोशनी की किरण हम सब के जीवन में कभी न कभी आती ही है और हम इस उम्मीद की रोशनी को रस्सी की तरह पकड़ कर, असफलता और निराशा के कुयें से बाहर निकल आते हैं. वही चमत्कार इस विज्ञापन में भी दिखाया गया है जब डब्बा जी पचीस लाख के सवाल पर बच्चन जी से फोन ए फ्रेंड की लाईफ लाईन पर मुखिया जी से बात करते हैं सिर्फ यह बतलाने के लिये कि 25 लाख के सवाल का जवाब तो उनको मालुम है पर जो मुखिया जी को मालुम होना चाहिये वो ये कि उनका नाम अभय कुमार है, डब्बा नहीं.

हमारा नाम ही हमारी पहली पहचान होती है और हम सब अपनी असली पहचान बनाने के लिये हमेशा कोशिश करते रहते हैं जो हमें मिल जाने पर बेहद सुकून और खुशियां देती है. सिर्फ हमारे बॉस का शाम को पीठ थपाथपा कर वेल डन डियर कहना इंक्रीमेंट से भी ज्यादा खुशी देता है. लगता है कि इस ऑफिस को हमारी भी जरूरत है. हम उनकी मजबूरी या liability नहीं हैं.

विज्ञापन का अंत बेहद खूबसूरत और भावुक कर देने वाला है जब इस विज्ञापन का नायक अभय कुमार अपने उसी उम्मीद की किरण बने बेटे को जिस स्कूल में छोड़ने आता है उस स्कूल का नाम उसके ही नाम अभय कुमार पर ही होता है। ये अज्ञान के अंधेरे में फेंक दिये गये, उपेक्षित अभयकुमार के सफर की कहानी है जो लगन और सही सहारे के जरिये मंजिल तक पहुंच जाता है जो कि उसके गांव के स्कूल का ही नहीं बल्कि उसका भी पुनरुद्धार करती है. ये चमत्कार की नहीं बल्कि कोशिशों की कहानी है अपनी पहचान पाने की.

 – अरुण श्रीवास्तव 

प्रस्तावना

ये किस्सा जिला मुख्यालय स्थित किसी ब्रांच का है जिसे तब तक मुख्य शाखा का दर्जा नहीं मिला जब तक कि उस शहर में बैंक की दूसरी ब्रांच नहीं खुली. जाहिर है कि ये एक करेंसी चेस्ट ब्रांच थी और है भी पर ये बात पुराने जमाने की है या फिर हमारे जमाने की है जब शाखायें बिना कंप्यूटर के भी चला करती थीं और बहुत खूब चला करती थीं. इस शाखा के सामने ही एक प्रतिद्वंद्वी बैंक की भी शाखा थी जो बिल्कुल 180 डिग्री जैसी आमने सामने स्थित थीं. इसे उनके सीनियर ब्रांच मैनेजर चलाते थे. इस तरफ की बैंक वालों ने बहुत कोशिश की ये पता लगाने की कि जूनियर शाखाप्रबंधक क्या करते हैं पर लाख कोशिशों के बावजूद यह पता नहीं चल पाया कि जूनियर शाखाप्रबंधक कौन हैं और क्या वो भी शाखा चलाते हैं. दोनों बैंकों में काम करने वाले लोग फुरसत के समय सामने वाली शाखा को यथासंभव और यथाशक्ति बहुत अंदर तक देखने की कोशिश करते रहते थे. हमारी शाखा मजबूत थी क्योंकि हमारे पास स्ट्रांग रूम था, जो उनके पास नहीं था. पर उनके पास बैंक के ऊपर ही शाखाप्रबंधक आवास था जो हमारे पास नहीं था. हमारे शाखाप्रबंधक शहर में कहीं और ही निवास करते थे. और इस कारण भी दोनों प्रतिद्वंद्वी बैंकों के शाखाप्रबंधकों में कोई प्रतिद्वंदिता नहीं थी और उन लोगों के औपचारिक ही सही पर बहुत मधुर संबंध थे।

ये वो दौर था जब स्टाफ के आपस में और कस्टमर के स्टाफ से बड़े मधुर संबंध हुआ करते थे. अब इसका यह मतलब मत निकाल लीजिएगा कि “क्यों, क्या अब नहीं है, कैसी बात करते हैं “. उस दौर में और उस शहर में व्यापारी वर्ग के लिए इन्हीं बैंकों पर आश्रित होना आवश्यक भी था और व्यवहारिक भी. अतः नगरीय दादा होने के बाद भी इस तरह के कस्टमर्स अपना यह गुण शहर के अन्य स्थानों पर आजमाने के लिये रिजर्व रखते थे.

शहर में जो नगर सेठ माने जाते थे, वो रोजाना के बैंक के कामों के लिये या तो अपने मुनीम को भेजते थे या फिर परिवार के किसी जूनियर सदस्य को और उसे यह कहकर रवाना करते कि “जा पहले बैंक का काम तो सीख ले, फिर गद्दी पर बैठना”. यह गद्दी भी परिवार का राजसिंहासन कहलाती थी जिस पर बैठने का अधिकार सबसे बड़े और सक्रिय सदस्य को ही मिल पाता था और बाकी लोग बड़े भैया के रिटायरमेंट का इंतजार करते रहते थे. ये रिटायरमेंट न तो साठ वर्ष की आयुसीमा से बंधा था न ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति से. ये तो मुखिया के दमखम और वणिक बुद्धि के हिसाब से चलता था. यही वणिक-कुल की रीत थी कि” जब तक प्राण न जाये गद्दी भी न जाई. “जब तक बड़े भैया गद्दी नशीन रहते, अपने खानदान की अर्श से फर्श तक उठाने की खुद के पराक्रम की कहानी सुनाना उनका प्रिय शौक हुआ करता था. जिनको गद्दी से कुछ फायदा मिलने की उम्मीद होती वो हरिकथा सुनने जैसी ही बड़ी आस्था के साथ सेठजी की आंयबांयशांय सुनने का सफल अभिनय करते रहते. हालांकि बाद में बाहर निकल कर इन श्रोताओं की सारी भक्ति, अंदर बैठी राक्षसी प्रवृत्ति का साथ पाकर सेठ के लिये चुनी हुई गालियों का सारा खजाना खाली कर जाती. ऐसा इसलिए भी होता था कि सेठजी पक्के दुनियादार और चतुर कंजूस बनिए थे और ये असंभव था कि कोई भी ऐरागैरा उनको राह चलते या उनके घर में बैठकर बना ले.

इस श्रंखला को भी शुरू करने का मकसद सिर्फ और सिर्फ व्यंग्य में लिपटा मनोरंजन ही है. कुछ अलग मतलब निकल जाये इसलिए पहले से ही यह कहना जरूरी है कि यह शाखा, घटनाएं और शाखा के सभी वर्णित पात्र कल्पना से रचे गये हैं, किसी दुर्भावना से नहीं. सम्मोहक लेखन तभी संभव हो पाता है जब यह यथार्थ, भोगा हुआ या देखा हुआ हो, थोड़ी बहुत कल्पना श्रंखलाओं को प्रभावी मोड़ दे सकती हैं पर अनुभव और ऑब्सरवेशन का कोई मुकाबला नहीं है. ये अनुभव खुद के भी हो सकते हैं या किसी और के भी पर इन कारकों से ही अपने में समाहित करने योग्य रचनाओं का सृजन संभव हो पाता है. अतः शौक से पढ़िए और आनंदित होने का प्रयास करिये. आज के युग में सेवानिवृत्त होने के बाद भी तनावमुक्त और हास्ययुक्त जीवन जीना कठिन हो गया है इसलिए प्रयास यही रहता है कि गाड़ी रिवर्स गेयर में डालकर वहाँ ले जाइ जाये जहाँ उतरकर यात्रीगण पुराने पर खूबसूरत वक्त की खुशियों को फिर से जी सकें, मुस्कुरा सकें. किसी को दुखी करने या “लेगपुलिंग” का पाप करने का दूर दूर तक कोई इरादा नहीं है.

आध्यात्मिक, भावनात्मक, पारिवारिक, चिकित्सीय, यूट्यूबीय फारवर्डेड संदेश पढ़ते रहिये पर हमारी गारंटी है कि हमारी श्रंखलाओं का आनंद, जब भी ये चलती हैं, बिल्कुल अलग और अनूठा रहता है. फिर भी यदि आनंदित नहीं हो पाते हैं तो फिर आपको डॉक्टर की आवश्यकता है और ये डॉक्टर मनमोहन सिंह भी हो सकते हैं.

वैसे फर्ज बनता है कि बेतहाशा और मुफ्त ऐसी लेखन सामग्री “नहीं’ पढ़ने की हिदायत दी जाये जिनको पढ़कर इस तरह की आत्मिक ग्लानि हो जाये कि:

  1. भाई हम तो बहुत पापी हैं, दूसरे लोक के लिये हमने तो कोई भी प्वाइंट नहीं कमाये, स्वर्ग या मोक्ष के चांस तो मेरिट चैनल में टॉप करने के सपने जैसे हैं जो नहीं मिल सकते.
  2. अरे इतना सरल इलाज वाट्सएप पर था और हमने बेकार ही अस्पतालीय इलाज में लाखों खर्च कर दिये. ये बात अलग है कि पॉलिसी ए/बी से काफी कुछ वापस मिल गया पर स्वास्थ्य की तो बैंड बज ही गई.
  3. काश कि ऐसे श्रवणकुमार और श्रवणकुमारी संताने/भाई/बहन हमारी भी होतै जो इन वाट्सएपीय कहानियों के परिजनों जैसी हमारी भी पूजा करते बाकायदा रोज सुबह शाम फिल्मी भजनों के साथ (वैसे ये अंदर की बातें हैं, बताई नहीं जातीं, वाट्सएप पर शेयर जरूर की जाती हैं.
  4. जीवन में गुरुजन तो बहुत मिले जो हमें गुरुदीक्षा देना चाहते थे पर तब तो हमको बैंक की पड़ी थी. काम सीखना है, खूब काम करना है, बॉस को नाराज नहीं करना है और दनादन प्रमोशन लेना है पूरी तैयारी के साथ. तो उस वक्त तो बस यही सब चलता था. अब पता चलता है कि भाई हमने तो वो किया ही नहीं जिसके लिये यह मानव जीवन मिला है. पर अब तो सत्तर प्लस पार कर चुकी गाड़ी सिग्नलपोस्ट पर खड़ी है. सिग्नल का इंतजार है. सिग्नल जहाँ लाल से हरा हुआ फिर जय श्री राम ही है. अब जो भी है वही संभालेंगे.

प्रमोशन श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 153 ⇒ विराजमान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “विराजमान।)

?अभी अभी # 153 ⇒ विराजमान? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

एक अंदाज़ होता है लखनऊ का, जिसे हम आइए पधारिए कहते हैं, उसे वे आइए तशरीफ लाइए कहते हैं। चलिए साहब, तशरीफ तो हम ले आए, अब तशरीफ कहां रखी जाए, यह भी तो बताइए ! जी क्यों शर्मिंदा करते हैं, पूरा घर आपका है।

जब कि हमारी देसी परम्परा देखिए कितनी सहज है, पधारो सा, और विराजो सा। पधारिए, और कहीं भी विराजमान हो जाइए। चलिए साहब मेहमाननवाजी, खातिरदारी, आदर सत्कार, चायपान, स्वल्पाहार सब कुछ हो गया, अब विदाई में आप क्या कहेंगे। अब आप तशरीफ ले जाइए तो नहीं कह सकते। हां, फिर तशरीफ लाइए, जरूर कह सकते हैं। यानी मेहमान खुद ही तशरीफ लाए भी और ले जाए भी। और अगर गलती से तशरीफ लाना ही भूल गया, तो आप तो उसे अपने दौलतखाने में अंदर आने की इजाजत भी नहीं देंगे। ।

अब हमारा आतिथ्य देखिए, जब अतिथि आया तो हमने उसे उचित आसन पर विराजमान किया और अतिथि, मेहमान यानी पाहुना ने जब विदाई ली, तो हमने उसे हाथ जोड़कर विदा करते, पधारो सा, और आवजो कहा।

अपनी अपनी तहजीब है, मैनर्स हैं, लोग तो आजकल प्लीज वेलकम और बाय से भी काम चला लेते हैं। जब कि हमारे सा शब्द में तो साहब, सर, श्रीमान और जनाब सभी शब्द शामिल है।

विराजमान शब्द इतना आसान नहीं, इसके कई गूढ़ अर्थ हैं। इसमें सुशोभित करने का भाव भी निहित है। किसी की उपस्थिति का जब विशेष अहसास होता है, तब ही इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। पहले पधारो, फिर विराजो। ।

जो सर्व शक्तिमान है, किसी को नजर आता है, किसी को नजर भले ही नहीं आता, लेकिन वह जो घट घट व्यापक है, वह हमारे हृदय में भी तो विराजमान है। जिसके बारे में साफ साफ शब्दों में कहा गया है ;

मो को कहां ढूंढे रे बंदे

मैं तो तेरे पास रे।

कितना मान सम्मान है इस शब्द विराजमान में ! शोभायमान का विकल्प ही तो है विराजमान। मान ना मान, जो सर्वोच्च पद पर विराजमान है, उसका ही तो सदा गुणगान है। उस स्थान और उसके महत्व को जानते हुए, आपकी नजरों में जो भी वहां विराजमान है, उस अदृश्य सर्वत्र व्यापक सर्व शक्तिमान को हमारा प्रणाम है।

कोई कहीं भी विराजे, हमारे आराध्य प्रभु श्रीराम तो अयोध्या में ही विराजेंगे।

जगजीत चित्रा भी शायद उसी भाव से श्रीकृष्ण का गुणगान करते नजर आते हैं ;

कृष्ण जिनका नाम है

गोकुल जिनका धाम है

ऐसे श्री भगवान को

बारम्बार प्रणाम है

बारम्बार प्रणाम है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 51 – देश-परदेश – पेंशनर मिलन कार्यक्रम ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश – पेंशनर मिलन कार्यक्रम” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 51 ☆ देश-परदेश – पेंशनर मिलन कार्यक्रम ☆ श्री राकेश कुमार ☆

सेवानिवृति के बाद पेंशनर संघ नामक संगठन यदा कदा अपने सदस्यों को होली/ दीपावली के पश्चात एकत्र होकर सभी को मिलने का एक अवसर प्रदान करता हैं। किसी भी आयोजन की व्यवस्था बड़ा कठिन कार्य होता हैं। घर के चार सदस्य भी एक साथ, एक जैसा भोजन करने में अनेक प्रकार की नुक्ताचीनी करते है।    

पुरानी कहावत है कि पांच मेंढकों को एक साथ तराज़ू में तोलना नामुनकिन होता है। बड़े आयोजन जहां एक सौ से अधिक व्यक्ति भाग ले रहे हों, तो “जितने मुंह उतनी बातें”  वाला सिद्धांत लागू हो जाता हैं। 

कम खर्च में उत्तम सुविधाएं और मनभावन भोजन की व्यवस्था करना एक बहुत बड़ी चुनौती होती है। 

आयोजन की शुरुआत होती है, निमंत्रण के साथ। अधिकतर सदस्यों को जब दूरभाष द्वारा संपर्क किया जाता है, तो वो कार्यक्रम में आने की पुष्टि करने के लिए नए नए बहाने बनाने लगते हैं। साधारणतः जब भी सेवानिवृत साथियों से बात करने पर उनका कथन रहता है कि समय नहीं कटता, फुरसत से फुरसत नहीं मिलती। लेकिन वर्ष में होने वाले दो आयोजनों में भाग लेने के समय वो अपनी व्यस्तता का हवाला देने लगते हैं। ऐसा दोहरा मापदंड क्यों ?

 © श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 152 ⇒ बासी कढ़ी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बासी कढ़ी “।)

?अभी अभी # 152  ⇒ बासी कढ़ी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

कुछ चीजें ठंडी ही अच्छी लगती हैं। कुल्फी, आइसक्रीम, श्रीखंड और लस्सी गर्म कौन पीता है ! कोल्ड्रिंक और चिल्ड बीयर की तरह ठंडा दूध तक एसिडिटी में अच्छा लगता है, लेकिन ठंडी कढ़ी कौन खाता और खिलाता है भाई।

माना कि कढ़ी, छाछ और दही से बनाई जाती है, और दही, छाछ और दही बड़ा तक, ठंडा ही अच्छा लगता है लेकिन कढ़ी की बात कुछ और ही है। यह गर्म ही खाई और खिलाई जाती है। कभी कभी गर्मागर्म कढ़ी से मुंह भले ही जल जाए, लेकिन कढ़ी का स्वाद मुंह से नहीं जाता। बेसन, हींग, नमक मिर्ची, मैथीदाना, अदरक और मीठी नीम की खुशबू की बात ही कुछ और होती है। कढ़ी अगर पकौड़ी की हो, तो सोने में सुहागा। अगर उसमें सुरजने की फली हो, तो क्या कहना। ठंडे रायते की तरह गर्म कढ़ी भी दोने पर दोने भर भरकर सुड़क ली जाती है।।

अक्सर रायता ही फैलाया जाता है, कढ़ी नहीं ! लेकिन, न जाने क्यूं, बासी कढ़ी सुनते ही मन में उबाल सा आने लगता है। अक्सर सभी खाने की चीजें गर्म ही परोसी जाती हैं, लेकिन पंगत और भंडारे में पहले आवे सो गर्मागर्म पावे, फिर भी सेंव नुक्ती और सब्जी पूरी तो रखी हुई भी चल जाती है, लेकिन ठंडी कढ़ी देखकर ना जाने क्यूं माथा गर्म हो जाता है।

आग के पास जो, जाएगा वो जल जाएगा। सोना हो या चांदी, पिघल जाएगा, बर्तन में पानी हो, तो उबल जाएगा और दूध हो तो उफन जाएगा। जब इंसान ही ठंडी कढ़ी को देखकर आग बबूला होने लगता है, तो बासी कढ़ी को गर्म करने पर ज्यादा उबाल आना स्वाभाविक है।।

बासी कढ़ी में अधिक उबाल क्यूं आता है, हो सकता है, यह कढ़ी की केमिस्ट्री पर निर्भर करता हो। रासायनिक प्रयोगशालाओं में अक्सर घोल, मिक्सचर और गैस ही बनाई जाती है, कौन सा खाद्य पदार्थ कब्ज करता है, और कौन सा गैस, इस पर प्रयोग नहीं किए जाते। फिर भी अन्य द्रव पदार्थों की तुलना में, बासी कढ़ी में उबाल क्यूं अधिक आता है, शायद यह सिद्ध किया जा सके।

जो ठंडी कढ़ी से ही करे इंकार, वो बासी कढ़ी से कैसे करे प्यार ! हमारे लिए बासी कढ़ी में उबाल, मानो खाने में बाल। हम तो ऐसी स्थिति में रायता क्या, कढ़ी भी फैला दें। लोग भले ही कहते रहें, हमारी इस हरकत को देखकर, देखो! बासी कढ़ी में उबाल आ रहा है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 209 – उत्सव की राह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 209 उत्सव की राह ?

मनुष्य चंचलमना है। एक काम निरंतर नहीं कर सकता। उत्सवधर्मी तो होना चाहता है पर उत्सव भी रोज मना नहीं पाता।

वस्तुतः वासना अल्पजीवी है। उपासना शाश्वत है। कुछ क्षण, कुछ घंटे, कुछ दिन, महीने या धन की हो तो जीवन का बड़ा कालखंड, इससे अधिक नहीं ठहर पाती मनुष्य की वासना। उपासना जन्म-जन्मांतर  चल सकती है।

उपासना अर्थात धूनि रमाना भर नहीं है। सच्ची धूनि रमाना बहुत बड़ी बात है, हर किसीके बस की नहीं।

उपासक होने का अर्थ है-जिस भी क्षेत्र में काम कर रहे हो अथवा जिस कर्म के प्रति रुचि है, उसमे डूब जाओ, उसके लिए समर्पित हो जाओ। अपने क्षेत्र में अनुसंधान करो। उसमें नया और नया तलाशो, उसे अधिक और अधिक आनंददायी करने का मार्ग ढूँढ़ो।

हमारी हाउसिंग सोसायटी में हर घर से कूड़ा एकत्र कर सार्वजनिक कूड़ेदान में फेंकने का काम करनेवाला स्वच्छताकर्मी अपने साथ गत्ते के टुकड़े लेकर चलता है। डस्टबिन में नीचे गत्ता या मोटा कागज़ लगाता है। कुछ दिनों में कचरे से गत्ता या कागज़ जब गल जाता है, उसे बदलता है। यह उसके निर्धारित काम का हिस्सा नहीं है पर ऐसे भी की जाती है कर्म की उपासना।

उपासना ध्यानस्थ करती है। ध्यान आत्मसाक्षात्कार कराता है। स्वयं से साक्षात्कार परिष्कार करता है। परिष्कार चिंतन को दिशा देता है। चिंतन, चेतना में रूपांतरित होता है। चेतना, दिव्यता का आविष्कार करती है। दिव्यता जीवन को सच्चे उत्सव में बदलती है। साँस-साँस उत्सव मनाने लगता है मनुष्य।

आज संकल्प करो, न करो। बस उपासना के पथ पर डग भरो। आवश्यक नहीं कि इस जन्म में उत्सव तक पहुँचो ही। पर जो राह उत्सव तक ले जाए, उस पर पाँव रखना क्या किसी उत्सव से कम है?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 माधव साधना- 11 दिवसीय यह साधना  बुधवार दि. 6 सितम्बर से शनिवार 16 सितम्बर तक चलेगी💥

🕉️ इस साधना के लिए मंत्र होगा- ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 151 ⇒ ॥ सच का दातून ॥ ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “॥ सच का दातून ॥”।)

?अभी अभी # 151 ⇒ ॥ सच का दातून ॥ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जी यह कोई स्लिप ऑफ टंग्यू यानी जबान फिसलने वाला मामला नहीं है, कभी कभी गलती से ब्रश करते करते, खून की जगह सच भी निकल आता है। आप कहेंगे, टूथ ब्रश का सच से क्या लेना देना, तो आप सौ प्रतिशत सही हैं।

सुबह सुबह हम ब्रश क्यों करते हैं, लो जी, ये भी कोई पूछने वाली बात हुई ! रात भर का बासी और जूठा मुंह, दांतों में अन्न के कण, सांस में बदबू, भोर होते ही, दातुन कुल्ला कर लें, तो क्या बुरा है। सांसों की बदबू और दांत दर्द के लिए हमने कभी फोरहेंस तो कभी कोलगेट, और कभी बिटको का काला दंत मंजन भी इस्तमाल किया है। आजकल दंत कांति (क्रांति) का जमाना है। ।

क्या आपको जूठा और झूठा में कुछ समानता नजर नहीं आती। झूठ क्यों बोलें, जूठे मुंह तो हम चाय भी नहीं पीते। ईश्वर झूठ ना बुलाए, अगर सवेरे गलती से किसी के घर जूठे मुंह चले जाओ, और वह चाय के साथ कुछ नमकीन, बिस्कुट ले आए, और हम ना नुकुर करें, तो वह बेचारा आग्रह करता रह जाता है, अरे साहब, मुंह तो झूठा करो, तो हम तो उसे यह भी नहीं कह सकते कि भाई साहब, वह जूठा होता है, झूठा नहीं, बस शालीनता से, सौजन्यवश, केवल चाय ग्रहण कर लेते हैं।

हम सब जानते हैं, बासी मुंह कड़वा भी होता है। जब तक कुल्ला नहीं करो, जबान में ताजगी नहीं आती। वैसे भी सच भी कड़वा ही होता है, इसीलिए, जिस प्रकार लोहा, लोहे को काटता है, उसी प्रकार नीम की कड़वी दातून न केवल दांतों और मसूड़ों की मालिश करती है, मुंह की बदबू भी गायब कर देती है और कीटाणुओं का भी नाश कर देती है। ।

कुछ लोगों की शिकायत होती है, नीम का दातून बहुत कड़वा होता है, भाई साहब सच भी तो कड़वा ही होता है। याद कीजिए, पुराने लोगों को, सुबह सुबह नीम के दातून से कुल्ला दातून करना, गला साफ करते हुए पूरे मोहल्ले को जगाना, और फिर कड़क आवाज में सबको मुर्गे की तरह बांग देकर उठने पर मजबूर कर देना।

भले ही उन लोगों की जबान कड़वी होती हो, लेकिन सच भी कहां मीठा होता है। उनकी सच्चाई, ईमानदारी, कठोर अनुशासन और समय की पाबंदी का संबंध उनके चरित्र से होता था।

आजकल ऐसे लागों को खडू़स कहा जाने लगा है। ।

कितना अच्छा हो, किसी ऐसे टूथ ब्रश और ट्रुथ पेस्ट का आविष्कार हो, जिससे जब हम सुबह सुबह ब्रश करें, तो जूठा मुंह तो साफ हो ही, हमारा मुंह इतना साफ हो, कि दिन भर वह केवल सच ही उगले। जो लोग चाशनी भरे शब्दों में हमसे कहते हैं, कुछ मीठा हो जाए, उसमें कितना सच अथवा कितना झूठ छुपा होता है, कौन जानता है।

अगर मीठे में सच छुपा होता तो वह हमें कभी नुकसान नहीं पहुंचाता। जाने अनजाने इस मीठी जुबान ने कितना झूठ उगला है, यह केवल ईश्वर ही जानता है। कितना अच्छा हो, हमारी जबान थोड़ी कड़वी हो, कम से कम इतनी कड़वी, कि सच तो कह ही पाए। ।

सच कड़वा होता है, यह जानते हुए भी हमें यही सीख दी जाती है, हमेशा सच बोलो, और मीठा बोलो ! यह कितना सच है, अब आप ही बोलो। बच्चे मीठा खाते भी हैं और मीठा बोलते भी हैं। उनके तो झूठ में भी सच छुपा होता है, और हमारे सच में, सफेद झूठ।

और शायद यही कारण है कि न तो हमें अधिक चिकनी चुपड़ी बातें हजम होती हैं और ना ही खाने में अधिक मीठा। जब मीठा खाने से स्नेह की जगह मधुमेह होने लग जाए, तो क्यों न मीठे की जगह कुछ कड़वा हो जाए। ।

नहीं साहब, चाय हो या मीठा, शुगर फ्री के साथ तो चलेगा लेकिन कड़वा नहीं चलेगा। कोलगेट की जगह दंत कांति भी चलेगा, लेकिन नीम का दातून नहीं चलेगा। कड़वा बोलने से कहां आजकल काम चलता है, झूठा ही सही, लेकिन मीठा तो बोलना ही पड़ेगा..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अंग्रेजी के मोहपाश में हिंदी भाषी— ☆ डॉ. जवाहर कर्णावट ☆

डॉ. जवाहर कर्णावट

☆ अंग्रेजी के मोहपाश में हिंदी भाषी— ☆ डॉ. जवाहर कर्णावट ☆

हिन्‍दी भारतीय लोकतंत्र के व्‍यापक व्‍यवहार की भाषा है. स्‍वतंत्रता प्राप्‍त करने के लिए जागृति और एकता हेतु महात्‍मा गांधी ने हिन्‍दी को अमोघ शस्‍त्र बनाया. भारत के अलावा दक्षिण अफ्रीका, मारीशस, फि़जी, गयाना आदि देशों में भी जन-जागरण में हिन्‍दी की सक्रिय भूमिका रही. उस समय हिन्‍दी का प्रयोग आजादी केन्द्रित था और आज यह राजभाषा और जनभाषा के रूप में लोकतंत्र और मीडि़या दोनों का आधार बनी हुई है् ।आजादी के बाद इन 76 वर्षों में जनसाधारण के बीच आपसी संपर्क, संवाद, सूचना संचार और मनोरंजन की भाषा के रूप में हिन्‍दी ने एक लम्‍बी यात्रा तय की है. चूंकि लोकतंत्र की सफलता जन भाषा पर ही निर्भर करती है. इसीलिए राजभाषा केवल जनभाषा ही हो सकती है. हमारे संविधान निर्माताओं ने बड़ी दूर अंदेशी के साथ हिन्‍दी को राजभाषा के रूप में चुना. यह स्‍थान हिन्‍दी को इसीलिए नहीं दिया गया था कि यह देश की प्राचीन एवं समृद्ध भाषा है, बल्कि इसीलिए दिया गया था कि यह भारत के अधिकतर भागो में अधिकांश लोगों द्वारा समझी और बोली जाती हैं और इसके माध्‍यम से हम अपनी लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था को अधिक मजबूत बना सकते हैं.

हमारे सामने मुख्‍य प्रश्‍न यह है कि संवाद और मनोरंजन की भाषा से हटकर – हमारी लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था के तीन प्रमुख क्षेत्र शिक्षा, प्रशासन और न्‍याय व्‍यवस्‍था में हिन्‍दी कितनी फल-फुल पाई है ? यह किसी से छिपा नहीं है. दरअसल देश में अंग्रेजी भाषा के जन-विरोधी शोषणपरक इस्‍तेमाल को समझने की कभी कोशिश नहीं की गई. हमारे कर्णधार अभी तक यह नहीं समझ पाए हैं कि राजनीति, शासन, प्रशासन, शिक्षा और न्‍यायिक  व्‍यवस्‍था आदि में अगर अंग्रेजी का वर्चस्‍व टूटता है तो निचले तबके के लोग ही आगे आएंगे जिनकी लड़ाई लड़ने का दावा ये लोग कर रहे हैं.

लोकतंत्र में आम-जन की सहुलियत हेतु सरकारी काम-काज में राजभाषा नीति-नियमों का कड़ाई से पालन करने के प्रयास अवश्‍य हो रहे हैं किन्‍तु इस बारे में जनता में कोई जागरुकता नहीं दिखाई देती है. वास्‍तव में तो हिन्‍दी को राजभाषा के रूप में सफल न बनाते हुए केवल इसका शोर मचाते रहने के पीछे अंग्रेजी को जारी रखने की मानसिकता ही है.

इससे अन्‍य भारतीय भाषाओं में हिन्‍दी के प्रति एक विरोधी वातावरण बनाने में भी सुविधा हुई. अगर सचमुच में अंग्रेजी के स्‍थान पर हिन्‍दी को लाना होता तो उसके लिए हिन्‍दी एवं अन्‍य भारतीय भाषाओं के बीच आपसी समन्‍वय स्‍थापित किया जाता ताकि हिन्‍दी को थोपने जैसी निर्मूल धारणा को राजनीतिक आधार नहीं मिलता. किन्‍तु ऐसा नहीं हो सका और इसका दुष्‍परिणाम यह भी हुआ कि दक्षिण भारत के विरोध के हवाले अंग्रेजी को एक राष्‍ट्रीय आवश्‍यकता बना दिया और सामाजिक जीवन में भी भारतीय भाषाओं को दरकिनार कर अंग्रेजी को महिमा मंडित कर दिया गया. एक भाषा के रूप में अंग्रेजी का विरोध भले ही उचित प्रतीत नहीं होता है किन्‍तु उस अंग्रेजियत से विकसित मानसिकता को उखाड़ फेंकना आवश्‍यक है जो हमारी प्रजातांत्रिक व्‍यवस्‍था से मेल नहीं खाती.

इस संदर्भ में सर्वोच्‍च न्‍यायालय में अंग्रेजी की अनिवार्यता का उदाहरण हमारे सामने हैं. लोकतंत्र में जनता को जनता की भाषा में न्‍यायिक प्रक्रिया में हिस्‍सा लेने का अवसर मिलना चाहिए किन्‍तु हम आज भी सर्वोच्‍च न्‍यायालय में अपनी भाषा में न तो अपनी बात कह सकते हैं और न ही चर्चा कर सकते हैं. संसदीय राजभाषा समिति ने जब सर्वोच्‍च न्‍यायालय के काम-काज में हिन्‍दी को सम्मिलित करने की सिफारीश की तो प्रारंभिक स्‍तर पर ही अनेक बाधाएं खड़ी कर दी गई. देश के विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्‍पष्‍ट रूप से दर्शा दिया कि सर्वोच्‍च न्‍यायालय की कार्रवाई में हिन्‍दी को शामिल करना व्‍यावहारिक दृष्टि से संभव नहीं होगा. यदि आप इस रिपोर्ट को पढेंगे तो आपको स्‍पष्‍ट रूप से लगेगा कि आयोग हिन्‍दी के प्रति कितना पूर्वग्रह से ग्रसित है. मीडि़या में हिन्‍दी की चर्चा करे तो एक बड़ा तबका इस बात से बेहद खुश है कि बाजार और मनांरंजन की भाषा के रूप में हिन्‍दी का जबरर्दस्‍त फैलाव हुआ है. टी.वी. रेडियो, फिल्‍में तथा अखबार इसके बड़े वाहक बने हैं. महानगरीय विकास की धारा छोटे शहरों और कस्‍बों की ओर बढ़ने से क्षेत्रीय स्‍तर पर मीडि़या को मिला आधार अब अत्‍याधिक व्‍यापक हो गया है.इंडियन रीडरशीप सर्वे के हाल ही के आंकड़े बताते है कि भारत में सबसे ज्‍यादा पढ़े जाने वाले दस अखबारों की सूची में हिन्‍दी के अब पांच समाचार पत्र शामिल है. मीडिया में हिन्‍दी और भारतीय भाषाओं की पकड़ मजबूत होते देख कई मीडि़या घरानों ने अपने आर्थिक दैनिक का प्रकाशन हिन्‍दी में भी प्रारम्‍भ कर दिया है. . इलेक्‍ट्रानिक मीडि़या ने भी ,खबरों, मनोरंजन और धारावाहिकों से हटकर बिजनेस चैनलों की सफलता ने भी यह दर्शा दिया है कि लोकतंत्र में आम लोगों तक पहुंचने और व्‍यवसाय की सफलता के लिए हिन्‍दी का कोई विकल्‍प नहीं हो सकता. तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, पंजाब, गुजरात, महाराष्‍ट्र आदि प्रदेशो में हिन्‍दी समाचार-पत्रों की शुरूआत और इसकी बढ़ती प्रसार संख्‍या ने यह मिथक तोड़ दिया है कि हिन्‍दी मीडि़या केवल उत्‍तर भारत तक ही सीमित है.

विश्‍व के प्रमुख देशों में भी सेटेलाइट के माध्‍यम से हिन्‍दी चैनलों ने अपनी लोकप्रियता बना ली है और स्‍थानीय स्‍तर पर भी मारीशस, फिजी, ब्रिटेन, अमेरिका, आस्‍ट्रेलिया आदि देशों में हिन्‍दी के कार्यक्रम नियमित रूप से प्रसारित हो रहे. हिन्‍दी की वैब पत्रिकाओं ने भी सम्‍पूर्ण विश्‍व में अपना जाल फैलाया है. इस प्रकार हिन्‍दी का प्रिंट इलेक्‍ट्रोनिक और वैब मीडि़या का एक दूसरा पक्ष भी हमारे सामने है. विज्ञापन उद्योग ने हिन्‍दी भाषी समाज का दोहन करने के लिए उसे अलग से लक्षित किया है तथा बहुराष्‍ट्रीय उपभोक्‍ता ब्रांड के बाजार में उसे सीधे संवाद की भाषा में बदला है. इसी कारण देश में एक दिलचस्‍प बदलाव देखने को मिल रहा है.नई पीढ़ी अपनी मातृभाषा में लिखने-पढ़ने और यहॉं तक कि उसमें बोलने का काम भी पिछली पीढ़ी की तुलना में अब कम करती जा रही है जबकि हिन्‍दी का इस्‍तेमाल ज्‍यादा फर्राटेदार ढंग से करने लगी है. इस प्रक्रिया में कई प्रकार की नई समस्‍याएं भी सामने आ रही है. अंग्रेजी की शब्‍दावली उस पर हावी हो रही है और देवनागरी लिपि का प्रयोग लगातार घट रहा है. हिन्‍दी के सामने यह जबर्दस्‍त चुनौती है कि उसे भाषा के स्‍थान पर बोली बनने की ओर अग्रसर किया जा रहा है. हिन्‍दी व्‍यापार-व्‍यवसाय के लिए बाजार की भाषा अवश्‍य बने किन्‍तु बाजारु भाषा नहीं. वैश्‍वीकरण के इस युग में अंग्रेजी की महत्‍ता कुछ कार्यों एवं स्‍थानों पर भले ही हो किन्‍तु हमारे दैनिक जीवन एवं सामाजिक व्‍यवहार, जहां हिन्‍दी से बखूबी करम चलाया जा सकता है, अंग्रेजी की गुलाम मानसिकता को त्‍यागना होगा. भारत में हिन्‍दी क्षेत्रों की शहरी, अर्धशहरी एवं ग्रामीण आबादी भी अंग्रेजी के मोहपाश में अब इस तरह जकड़ती जा रही है जैसे अब देश को उन्‍नत कृषकों, कुशल कारीगरों और कुशल श्रमिकों की नहीं अपितु केवल इंजीनियर, आई.टी. और मेजेजमेंट गुरुओं की ही आवश्‍यकता है. हमें चंद अंग्रेजी परस्‍त लोगों की सुविधा की खातिर बहुसंख्‍यक हिन्‍दी भाषी समाज को अपनी भाषा से वंचित रखने के षडयंत्र को बेनकाब करना होगा. लोकतंत्र में जन-जन में अपनी भाषा के प्रति विश्‍वास और सम्‍मान की भावना को बरकरार रखने की महती आवश्‍यकता होती है. इसके लिए सूचना प्रौद्योगिकी में हिन्‍दी की ढेरों सुविधाओं को लोकप्रिय बनाना होगा.

समूचे विश्‍व में हिन्‍दी का परचम लहराने के लिए भारत को हिन्‍दी के प्रयोग संबंधी उच्‍च आदर्श स्‍थापित करने होंगे. लोकतंत्र की प्रमुख शक्ति के रूप में आज देश में युवाओं की संख्‍या देश की आबादी का लगभग 35% है. हमारे युवा शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हिन्‍दी का इस्‍तेमाल तुलनात्‍मक रूप में कितना कर पा रहे हैं ? आज हमारी सबसे बड़ी चुनौती नई पीढी को हिन्‍दी से जोड़ने की है. नागपुर में प्रथम विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन के उदघाटन अवसर पर पूर्व प्रधानमंत्री स्‍व. इंदिरा गांधी ने कहा था – “हिन्‍दी में निखार और शक्ति तभी आएगी जब व्‍यापारी अपने व्‍यापार के लिए, वैज्ञानिक अपनी खोजों को समझाने के लिए तथा सार्वजनिक लोग आशापूर्ण दृष्टिकोण रखने के लिए इसका प्रयोग करें.” आज भी यह विचार प्रश्‍नचिह्न के रूप में हमारे सामने है.

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© डॉ. जवाहर कर्नावट

संपर्क – बी-102,न्यू मिनाल रेसिडेंसी ,जे.के.रोड,भोपाल

मो 7506378525, ई-मेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 150 ⇒ किवाड़, फाटक, दरवाजा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किवाड़, फाटक, दरवाजा।)

?अभी अभी # 150  ⇒ किवाड़, फाटक, दरवाजा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

आइए, पहले नौशाद साहब के इस खूबसूरत नगमे का जायजा लिया जाए ;

जरा मन की किवड़िया खोल,

सैंया तोरे द्वारे खड़े !

कोई हमारे द्वार पर खड़ा होगा तो पहले घंटी बजाएगा, फिर हम दरवाजा खोलेंगे।  गांव में तब कहां बिजली थी, द्वार खटखटाना पड़ता था, तब जाकर कहीं किवाड़ खुलता था।  लेकिन वही किवाड़ अगर मन का होगा, तो सोचिए, कितना छोटा होगा, बेचारा किवाड़ भी छोटा होते होते खिड़की की तरह किवड़िया हो गया होगा।  

कल का किवाड़ ही हमारे आज का दरवाजा है।  दर शब्द से दरवाजा बना है।  दर द्वार को भी कहते हैं, जिसे मराठी में दार भी कहते हैं।  एक प्रसिद्ध मराठी अभंग है, उघड़ दार देवा।  इसी दर, दार, द्वार अथवा दरवाजे को अंग्रेजी में डोअर (door) कहते हैं।  कितनी समानता है न, इन भाषाओं में भी। ।

शहरों में आजकल किवाड़ का प्रचलन नहीं है।  किवाड़ में दो पाट, यानी पल्ले होते हैं, जिनके आसपास एक चौकोर लकड़ी की फ्रेम होती है, जिसे चौखट कहते हैं।  दोनों पल्ले अथवा पलड़े सांकल कुंदों से जोड़े जाते हैं।  पहले देहरी चढ़ना पड़ती थी, उसके बाद ही गृह प्रवेश होता था।  थोड़ा राग द्वेष, कहा सुनी हुई, और कसम खा ली, मैं उसकी देहरी नहीं चढ़ने वाला।  अब कोई देहरी अथवा ड्योढ़ी का चक्कर ही नहीं।  मत चढ़ो चौखट, हमारी बला से।  

आपने कभी सांकल की आवाज सुनी है, महलों और किलों में बड़े बड़े लकड़ी के दरवाजे रहते थे, और ये मोटी मोटी, लोहे की सांकल।  बुलंद दरवाजे का नाम तो सुना ही होगा।  हाथी भी उन दरवाजों को नहीं तोड़ सकते थे। ।

आजकल महानगरों में घर बहुत छोटे छोटे हो गए हैं।

एक आदर्श मकान में, आज भी थोड़ी बहुत बागवानी होती है और घर के बाहर भी एक गेट होता है जिससे घर की सुरक्षा भी होती है और ढोर, पशु, जानवर भी घर में प्रवेश नहीं करते।  कहीं इसे मेन गेट कहते हैं, तो कहीं फाटक।  रात को मेन गेट, यानी बाहर का फाटक बंद कर दिया, तो रात भर चैन की नींद सो सकते हैं।  

फाटक के लिए किसी घर की आवश्यकता नहीं होती।  रेलवे फाटक सिर्फ रेल के आने के समय ही बंद होता था।  मेरे एक मित्र का नाम भी मि. फाटक ही था।  जब भी मिलने आते, यही कहते, शर्मा जी दरवाजा खोलो, मैं गौरव फाटक। ।

द्वार की तो आज भी कमी नहीं, एक सुदामा नगर में आपको कई प्रवेश द्वार मिल जाएंगे।  शादी विवाह में तो गार्डन, रिसॉर्ट के बाहर प्रवेश द्वार पर ही आपका स्वागत कर दिया जाता है।  चार दिन, अथवा चार घंटे की चांदनी जो है।

एक तब का उत्साह था, उमंग थी, हमरे गांव कोई आएगा, प्यार की डोर से बंध जाएगा।  और एक आज का दिन है।  लगता है, फोन ने हमारी दूरियां बढ़ा दी हैं।  बात भी सही है ;

जाना था हमसे दूर

बहाने बना लिए

अब तुमने कितनी दूर

ठिकाने बना लिए। ।

मजबूरियां भी बढ़ी हैं, और दूरियां भी।  आप कहते ही रह जाएं, हमारे घर आना राजा जी, राजा जी को आजकल कहां फुरसत।  शायद इसीलिए जगजीत सिंह को मजबूरी में कहना पड़ा होगा ;

कौन आएगा यहां

कोई न आया होगा।

मेरा दरवाजा

हवाओं ने हिलाया होगा। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #199 ☆ मैं और तुम का झमेला ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं और तुम का झमेला। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 199 ☆

☆ मैं और तुम का झमेला 

‘जिंदगी मैं और तुम का झमेला है/ जबकि सत्य यह है/ कि यह जग चौरासी का फेरा है/ और यहां कुछ भी ना तेरा, ना मेरा है/ संसार मिथ्या, देह नश्वर/ समझ ना पाया इंसान/ यहाँ सिर्फ़ मैं, मैं और मैं का डेरा है।” जी हाँ– यही है सत्य ज़िंदगी का। इंसान जन्म-जन्मांतर तक ‘तेरा-मेरा’ और ‘मैं और तुम’ के विषैले चक्रव्यूह में उलझा रहता है, जिसका मूल कारण है अहं– जो हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। इसके इर्द-गिर्द हमारी ज़िंदगी चक्करघिन्नी की भांति निरंतर घूमती रहती है।

‘मैं’ अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव उक्त भेद-विभेद का मूल कारण है। यह मानव को एक-दूसरे से अलग-थलग करता है। हमारे अंतर्मन में कटुता व क्रोध के भावों का बीजवपन करता है; स्व-पर व राग-द्वेष की सोच को हवा देता है –जो सभी रोगों का जनक है। ‘मैं ‘ के कारण पारस्परिक स्नेह व सौहार्द के भावों का अस्तित्व नहीं रहता, क्योंकि यह उन्हें लील जाता है, जिसके एवज़ में हृदय में ईर्ष्या-द्वेष के भाव पनपने लगते हैं और मानव इस मकड़जाल में उलझ कर रह जाता है; जो जन्म-जन्मांतर तक चलता है। इतना ही नहीं, हम उसे सहर्ष धरोहर-सम सहेज-संजोकर रखते हैं और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी सत्ता काबिज़ किए रहता है। इसका खामियाज़ा आगामी पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है, जबकि इसमें उनका लेशमात्र भी योगदान नहीं होता।

‘दादा बोये, पोता खाय’ आपने यह मुहावरा तो सुना ही होगा और आप इसके सकारात्मक पक्ष के प्रभाव से भी अवगत होंगे कि यदि हम एक पेड़ लगाते हैं, तो वह लंबे समय तक फल प्रदान करता है और उसकी कई पीढ़ियां उसके फलों को ग्रहण कर आह्लादित व आनंदित होती हैं। सो! मानव के अच्छे कर्म अपना प्रभाव अवश्य दर्शाते हैं, जिसका फल हमारे आत्मजों को अवश्य प्राप्त होता है। इसके विपरीत यदि आप किसी ग़लत काम में लिप्त पाए जाते हैं, तो आपके माता-पिता ही नहीं; आपके दोस्त, सुहृद, परिजनों आदि सबको इसका परिणाम भुगतना पड़ता है और उसके बच्चों तक तो उस मानसिक यंत्रणा को झेलना पड़ता है। उसके संबंधी व परिवारजन समाज के आरोप-प्रत्यारोपों व कटु आक्षेपों से मुक्त नहीं हो पाते, बल्कि वे तो हर पल स्वयं को सवालों के कटघरे में खड़ा पाते हैं। परिणामत: संसार के लोग उन्हें हेय दृष्टि व हिक़ारत भरी नज़रों से देखते हैं।

‘कोयला होई ना ऊजरा, सौ मन साबुन लाई’ कबीरदास जी का यह दोहा उन पर सही घटित होता है, जो ग़लत संगति में पड़ जाते हैं। वे अभागे निरंतर दलदल में धंसते चले जाते हैं और लाख चाहने पर भी उससे मुक्त नहीं पाते, जैसे कोयले को घिस-घिस कर धोने पर भी उसका रंग सफेद नहीं होता। उसी प्रकार मानव के चरित्र पर एक बार दाग़ लग जाने के पश्चात् उसे आजीवन आरोप-आक्षेप व व्यंग्य-बाणों से आहत होना पड़ता है। वैसे तो जहाँ धुआँ होता है, वहाँ चिंगारी का होना निश्चित् है और अक्सर यह तथ्य स्वीकारा जाता है कि उसने जीवन में पाप-कर्म किए होंगे, जिनकी सज़ा वह भुगत रहा है। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना’ से तात्पर्य है कि लोगों के पास कुछ तो वजह होती है। परंतु कई बार उनकी बातों का सिर-पैर नहीं होता, वे बेवजह होती हैं, परंतु वे उनके जीवन में सुनामी लाने में कारग़र सिद्ध होती हैं और मानव के लिए उनसे मुक्ति पाना असंभव होता है। इसलिए मानव को अहंनिष्ठता के भाव को तज सदैव समभाव से जीना चाहिए।

‘अगुणहि सगुणहि नहीं कछु भेदा’ अर्थात् निर्गुण व सगुण ब्रह्म के दो रूप हैं, परंतु उनमें भेद नहीं है। प्रभु ने सबको समान बनाया है–फिर यह भेदभाव व ऊँच-नीच क्यों? वास्तव में इसी में निहित है– मैं और तुम का भाव। यही है मैं अर्थात् अहंभाव, जो मानव को अर्श से फ़र्श पर ले आता है। यह मानवता का विरोधी है और सृष्टि में तहलक़ा मचाने का सामर्थ्य रखता है। कबीरदास जी का दोहा ‘नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहे लेहुं/ ना हौं  देखूं और को, ना तुझ देखन देहुं’ में परमात्म-दर्शन पाने के पश्चात् मैं और तुम का द्वैतभाव समाप्त हो जाता है और तादात्म्य हो जाता है। जहाँ ‘मैं’ नहीं, वहाँ प्रभु होता है और जहाँ प्रभु होता है, वहाँ ‘मैं’ नहीं होता अर्थात् वे दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते। सो! उसे हर जगह सृष्टि-नियंता की झलक दिखाई पड़ती है। इसलिए हमें हर कार्य स्वांत: सुखाय करना चाहिए। आत्म-संतोष के लिए किया गया कार्य सर्व-हिताय व सर्व-स्वीकार्य होता है। इसका अपेक्षा-उपेक्षा से कोई सरोकार नहीं होता और वह सबसे सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि व सर्वमान्य होता है। उसमें न तो आत्मश्लाघा होती है; न ही परनिंदा का स्थान होता है और वह राग-द्वेष से भी कोसों दूर होता है। ऐसी स्थिति में नानक की भांति मानव में केवल तेरा-तेरा का भाव शेष रह जाता है, जहाँ केवल आत्म- समर्पण होता है; अहंनिष्ठता नहीं। सो! शरणागति में ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ का भाव व्याप्त होता है, जो उन सब झमेलों से श्रेष्ठ होता है। दूसरे शब्दों में यही समर्पण भाव है और सुख-शांति पाने की राह है।

नश्वर संसार में सभी संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। इसलिए यहां स्पर्द्धा नहीं, ईर्ष्या व राग-द्वेष का साम्राज्य है। मानव को काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार को त्यागने का संदेश दिया गया है। यह मानव के सबसे बड़े शत्रु हैं, जो उसे चैन की साँस नहीं लेने देते। इस आपाधापी भरे युग में मानव आजीवन सुक़ून की तलाश में मृग-सम इत-उत भटकता रहता है, परंतु उसकी तलाश सदैव अधूरी रहती है, क्योंकि कस्तूरी तो उसकी नाभि में निहित होती है और वह बावरा उसे पाने के लिए भागते-भागते अपने प्राणों की बलि चढ़ा देता है।

‘जीओ और जीने दो’ महात्मा बुद्ध के इस सिद्धांत को आत्मसात् करते हुए हम अपने हृदय में प्राणी मात्र के प्रति करुणा भाव जाग्रत करें। करुणा संवेदनशीलता का पर्याय है, जो हमें प्रकृति के प्राणी जगत् से अलग करता है। जब मानव इस तथ्य से अवगत हो जाता है कि ‘यह किराये का मकान है, कौन कब तक ठहर पाएगा’ अर्थात् वह इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही लौट जाना है। इसलिए मानव के लिए संसार में धन-दौलत का संचय व संग्रह करना बेमानी है। उसे देने में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि जो हम देते हैं, वही लौटकर हमारे पास आता है। सो! उसे विवाद में नहीं, संवाद में विश्वास रखना चाहिए और जीवन में मतभेद भले हों, मनभेद होने वाज़िब नहीं हैं, क्योंकि यह ऐसी दीवार व दरारें हैं, जिन्हें पाटना अकल्पनीय है; सर्वथा असंभव है।

यदि हम समर्पण व त्याग में विश्वास रखते हैं, तो जीवन में कभी भी कोई समस्या उत्पन्न नहीं हो सकती। एक साँस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है, इसलिए संचय करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? इसका स्पष्ट प्रमाण है कि ‘कफ़न में भी जेब नहीं होती।’ यह शाश्वत् सत्य है कि सत्कर्म ही जन्म-जन्मांतर तक मानव का पीछा करते हैं और ‘शुभ कर्मण ते कबहुँ न टरौं’ भी उक्त भाव को पुष्ट करते हैं कि ‘प्रभु सिमरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा’, वरना वह लख चौरासी के भँवर से कभी भी मुक्त नहीं हो पाएगा। इस मिथ्या संसार से मुक्ति पाने का एकमात्र साधन उस परमात्म-सत्ता में विश्वास रखना है। ‘मोहे तो एक भरोसो राम’ और ‘कब रे! मिलोगे राम/ यह दिल पुकारे तुम्हें सुबहोशाम’ आदि स्वरचित गीतों में अगाध विश्वास व आत्म-समर्पण का भाव ही है, जो मैं और तुम के भाव को मिटाने का सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम साधन है। यह मानव को जीते जी मुक्ति पाने की राह पर अग्रसर करता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 149 ⇒ सातवाँ आसमान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सातवाँ आसमान।)

?अभी अभी # 149⇒ सातवाँ आसमान? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

हम इस धरती पर रहते हैं, हमारे ऊपर हमें नीला आसमान नज़र आता है, और सुना है, हमारे नीचे पाताल लोक है। पाप पुण्य और स्वर्ग नर्क हम ज्यादा नहीं समझते, लेकिन हमें लगता है, स्वर्ग लोक ऊपर है और नर्क हमारे नीचे। जो ऊपर उठ जाता है, वह स्वर्ग में चला जाता है और जो नीचे गिर जाता है, वह नर्क में चला जाता है।

लोगों की अपने कर्म से ही सद्गति अथवा दुर्गति होती है, पाप अगर उसे रसातल में पहुंचा देता है तो क्रोध में उसका पारा सातवें आसमान तक पहुंच जाता है। वैसे हम नहीं जानते, आसमान कितने होते हैं।।

प्रेम अगर सृष्टि में सृजन का बीज बोता है, तो क्रोध में विनाश की शक्ति होती है। शक्ति भी दैवीय और आसुरी होती है। कृष्ण अगर प्रेम का प्रतीक हैं, तो ब्रह्मा सृजन के आधार। पालनकर्ता अगर विष्णु हैं तो संहारक रुद्र के अवतार।

रुद्र के कितने अवतार हैं, क्रोधाग्नि सब कुछ भस्म कर डालती है, अगर समुद्र अपनी मर्यादा लांघता है तो मर्यादा पुरुषोत्तम का क्रोध उसे नतमस्तक कर देता है। महर्षि दुर्वासा को तो क्रोध का अवतार ही कहा गया है।।

शक्ति से ही सृजन होता है और शक्ति से ही विसर्जन भी। कृष्ण का बाल स्वरूप एकमात्र ऐसी अवस्था है, जो भक्तों के लिए उनका शाश्वत, सनातन स्वरूप है। सूर और मीरा के आराध्य कृष्ण गिरधर गोपाल ही हैं।

जिस दिन इस संसार से प्रेम समाप्त हो जाएगा, सृष्टि का विनाश हो जाएगा। सृष्टि के हर बाल गोपाल में राम और कृष्ण ही तो विराजमान हैं। अनासक्त प्रेम और वात्सल्य के प्रतीक गोवर्धन गोपाल, नंद के लाल नटखट नंदकिशोर नटराज, जग के पालनहार, तारनहार भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव पर सभी प्रेमी रसिकों का अभिनंदन। जन्माष्टमी की बधाई।

सबसे ऊंची प्रेम सगाई।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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