हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 592 ⇒ …तो मुश्किल होगी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “…तो मुश्किल होगी।)

?अभी अभी # 592 ⇒ …तो मुश्किल होगी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम आम लोगों की मुश्किलें कुछ अलग किस्म की होती हैं, मसलन कभी जेठ की भरी दोपहर में लाइट चली जाए अथवा कड़ाके की ठंड में गीज़र खराब हो जाए। लेकिन शायर कुछ अलग किस्म की मिट्टी के बने होते हैं और उनकी मुश्किलों की तो बस पूछिए ही मत।

कौन किससे प्यार करे, यह उसका जाती मामला होता है, दुनिया इसे चाहत का खेल कहती है। हमारे साहिर साहब तो वैसे भी बड़े दिल वाले हैं, उनको क्या फ़र्क पड़ता है क्योंकि उनका तो पहला प्यार ही शायरी है।।

वे कितनी आसानी और दरियादिली से कह जाते हैं ;

तुम अगर मुझको ना चाहो

तो कोई बात नहीं ..

यह कोई छोटी बात नहीं। यह बतलाता है कि वे भी सामने वाले की पसंद नापसंद की कद्र करते हैं, ठीक है ;

तुम मगर मुझको ना चाहो तो कोई बात नहीं

मेरी बात और है

मैंने तो मोहब्बत की है ..

लेकिन नहीं, यहां हमारे साहिर साहब एकदम पलटी मार देते हैं। वे एकदम कह उठते हैं ;

तुम किसी और को चाहोगी

तो मुश्किल होगी …

अब क्या मुश्किल होगी, कौन सी आफत आ पड़ेगी अथवा कौन सा पहाड़ टूट जाएगा।अरे भाई साफ साफ क्यों नहीं कहते, दिल टूट जाएगा, मैं बर्बाद हो जाऊंगा। लेकिन नहीं, यहां भी शराफत ओढ़, कह दिया, तो मुश्किल होगी।।

बात यहां खत्म नहीं होती, यहां से तो शुरू होती है। आप फरमाते हैं ;

अब अगर मेल नहीं है तो जुदाई भी नहीं

बात तोड़ी भी नहीं तुमने बनाई भी नहीं

ये सहारा भी बहुत है मेरे जीने के लिये

तुम अगर मेरी नहीं हो तो पराई भी नहीं

मेरे दिल को न सराहो तो कोई बात नहीं

गैर के दिल को सराहोगी, तो मुश्किल होगी ..

तुम हसीं हो, तुम्हें सब प्यार ही करते होंगे

मैं तो मरता हूँ तो क्या और भी मरते होंगे

सब की आँखों में इसी शौक़ का तूफ़ां होगा

सब के सीने में यही दर्द उभरते होंगे

मेरे ग़म में न कराहो तो कोई बात नहीं

और के ग़म में कराहोगी तो मुश्किल होगी ..

इतना ही नहीं, जरा आगे देखिए ;

फूल की तरह हँसो, सब की निगाहों में रहो

अपनी मासूम जवानी की पनाहों में रहो

मुझको वो दिन न दिखाना तुम्हें अपनी ही क़सम

मैं तरसता रहूँ तुम गैर की बाहों में रहो

तुम अगर मुझसे न निभाओ तो कोई बात नहीं

किसी दुश्मन से निभाओगी तो मुश्किल होगी ..

हर इंसान में एक पजेसिव इंस्टिंक्ट होती है। जो मेरा नहीं हो सका, वह किसी का भी ना हो। आम आदमी पर इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ सकता है, वह देवदास भी बन सकता है। लेकिन जो लोग संजीदा होते हैं, वे ही कवि अथवा शायर बन पाते हैं।

साहिर भले ही एक कामयाब शायर हों, लेकिन अमृता की तरह खुलकर उन्होंने कभी अपने प्यार अथवा दर्द का इज़हार नहीं किया। आप कह सकते हैं, यही तो फर्क है, एक पुरुष और नारी में। कहीं भावुकता और समर्पण है तो कहीं ग़मों से समझौता करने का गुर अथवा दिल पर पत्थर रख लेने की मजबूरी। शायद यही फर्क है साहिर – अमृता और सुरैया – देवानंद में।

हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।

मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 230 ☆ चरैवेति चरैवेति… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना चरैवेति चरैवेति…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 230 ☆ चरैवेति चरैवेति…

आस्था और भक्ति के रंगों से सराबोर श्रद्धा व विश्वास सहित महाकुम्भ में मौनी अमावस्या पर अमृत स्नान की डुबकी हमें मानसिक मजबूती प्रदान करेगी। जो चाहो वो मिले यही भाव मन में रखकर श्रद्धालु कई किलोमीटर की पैदल यात्रा से भी नहीं घबरा रहे हैं। मेलजोल का प्रतीक प्रयागराज सबको जीवन जीने की कला सिखाने का सुंदर माध्यम बन रहा है।

गंगे च यमुने चैव

गोदावरी सरस्वती

नर्मदे सिंधु कावेरी

जलेsस्मिन् सन्निधिम् कुरु।।

आइए मिलकर कहें…

लक्ष्य कितना भी कठिन हो

तू न पर घबरायेगा।

कैद में पंछी सरस मन

मुक्ति भी पा जायेगा।।

*

रुक न सकता ठोकरों से

आज वो कैसे रुके ?

हस्त में तो देवि बसती

क्यों भला कैसे झुकें ?

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 38 – निःशुल्क वस्तुओं का जाल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 38 – निःशुल्क वस्तुओं का जाल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

आजकल भारत में एक नई संस्कृति प्रचलित हो गई है – ‘फ्रीबी कल्चर।’ जैसे ही चुनावों का मौसम आता है, नेता लोग निःशुल्क वस्तुओं का जाल बुनने लगते हैं। अब ये निःशुल्क वस्तुएँ क्या हैं? एकबारगी तो यह सुनकर आपको लगेगा कि ये किसी जादूगर की जादुई छड़ी का कमाल है, लेकिन असल में यह तो केवल राजनैतिक चालाकी है।

राजनीतिक पार्टी के नेता जब मंच पर चढ़ते हैं, तो उनका पहला वादा होता है: “आपको मुफ़्त में ये मिलेगा, वो मिलेगा।” जैसे कि कोई जादूगर हॉटकेक बांट रहा हो। सोचिए, अगर मुहावरे में कहें, तो “फ्री में बुरा नहीं है।” पर सवाल यह है कि ये निःशुल्क वस्तुएँ हमें कितनी आसानी से मिलेंगी?

एक बार मैंने अपने मित्र से पूछा, “तूने चुनावों में ये निःशुल्क वस्तुएँ ली हैं?” वह हंसते हुए बोला, “लेता क्यों नहीं, बही खाता है।” जैसे कि मुफ्त में लड्डू खाने के लिए किसी ने उसे आमंत्रित किया हो। उसकी बात सुनकर मुझे लगा, हम सभी मुफ्तखोर बन गए हैं।

फिर मैंने सोचा, आखिर ये नेता किस प्रकार का जादू कर रहे हैं? क्या ये सब्जियों की दुकान से खरीदकर ला रहे हैं या फिर फलों की टोकरी से निकालकर हमें थमा रहे हैं? नहीं, ये सब तो हमारे कर के पैसे से ही आता है। तो जब हम मुफ्त में कुछ लेते हैं, तो क्या हम अपने ही पैसों को वापस ले रहे हैं? यह एक प्रकार का आत्मा का हंसी मजाक है, जहां हम अपने ही जाल में फंसे हुए हैं।

और जब हम फ्रीबी की बात करते हैं, तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ये फ्रीबी कोई बिस्किट का पैकेट नहीं है, यह तो एक ऐसे लोन का जाल है, जिसका भुगतान हमें भविष्य में करना है। यह एक नारा है – “हम आपको देंगे, लेकिन इसके लिए आप हमें अपनी आवाज़ दें।” इसलिए, जब भी कोई निःशुल्क वस्तु मिलती है, हमें उस पर दो बार सोचना चाहिए।

आधुनिकता के इस दौर में, मुफ्त में चीजें लेना जैसे एक नया धर्म बन गया है। लोग अपनी गरिमा को भूलकर उन मुफ्त वस्तुओं की कतार में लग जाते हैं। और नेता भी इस बात का फायदा उठाते हैं। वे यह सोचते हैं कि “अगर हम मुफ्त में कुछ देते हैं, तो हमें वोट मिलेंगे।” तो क्या हम अपनी आत्मा को बिकने के लिए तैयार कर रहे हैं? यह तो जैसे अपने घर की दीवारों को बेचने जैसा है।

इस फ्रीबी संस्कृति के चलते, हमने अपनी मेहनत की कीमत कम कर दी है। अब लोग काम करने के बजाय मुफ्त में चीजें पाने की तलाश में रहते हैं। और नेता? वे खुश हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि हम मुफ्त में चीजें लेकर खुश हैं। यह एक चक्रव्यूह है, जिसमें हम सभी फंसे हुए हैं।

मैंने तो सुना है कि कुछ जगहों पर लोग मुफ्त में शराब और सिगरेट भी पाने के लिए वोट देते हैं। तो क्या हम अपनी सेहत की भीख मांग रहे हैं? यह एक ऐसी स्थिति है, जहां हम अपने स्वास्थ्य का सौदा कर रहे हैं। हमें यह समझना चाहिए कि “फ्रीबी” का मतलब सिर्फ मुफ्त में चीजें लेना नहीं है, बल्कि यह हमारे भविष्य को दांव पर लगाना है।

और तो और, जब ये नेता अपने वादों को पूरा नहीं कर पाते, तो हमें याद दिलाते हैं कि “देखो, हमने तो फ्रीबी दी थी।” तो क्या यह हम पर निर्भर नहीं है कि हम अपने अधिकारों के लिए खड़े हों? हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी कि मुफ्त में मिले सामान का मतलब यह नहीं कि हमने अपनी आवाज़ बेच दी है।

अब सवाल यह उठता है कि क्या हमें फ्रीबी की संस्कृति को खत्म करना चाहिए? या फिर हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा? हम केवल इसलिए मुफ्त में चीजें नहीं ले सकते क्योंकि यह हमें आसान लगती है। हमें अपने वोट की कीमत समझनी होगी और उसे केवल मुफ्त वस्तुओं के बदले नहीं बेचना चाहिए।

समाप्ति में, मैं यह कहूंगा कि फ्रीबी लेना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन हमें यह समझना होगा कि यह एक सतत चक्र है। हमें अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी और अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहना होगा। तब ही हम इस निःशुल्क वस्तुओं के जाल से बाहर निकल पाएंगे। और जब हम इस जाल से बाहर निकलेंगे, तब हम वास्तविकता का सामना कर पाएंगे। इसलिए, फ्रीबी को छोड़कर, अपने मेहनत के पैसे पर भरोसा करना ही बेहतर है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 591 ⇒ चित चोर और मन का चोर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चित चोर और मन का चोर।)

?अभी अभी # 591 ⇒ चित चोर और मन का चोर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

चोर वह, जो कुछ चुराकर ले जाए। चित चोर वह, जो सब कुछ चुराकर ले जाए, हम संसारी नहीं चाहते, हमारा कोई सब कुछ चुराकर ले जाए, इसीलिए सदा भयभीत रहते हैं।

भयभीत शब्द भय और भीत को मिलाकर बना है। भय अगर डर है तो भीत एक दीवार है। भीत का ही अपभ्रंश भित्ति यानी दीवार है। मराठी में तो भय ही भित्ती है। ।

हमारे पास ऐसा क्या है, जिसे चोर ले जाएगा। आजकल साइबर क्राइम का जमाना है। आपके पास अगर कुबेर का खजाना भी है तो वह केवल एक क्लिक से साफ हो सकता है। पर्स चोर, चैन चोर और चारा चोर तो आज भी बाजार में सरे आम घूमते हैं। चोर वही जो पकड़ा जाए, बाकी सब सेठ साहूकार।

घरों में तरह तरह के सेफ्टी लॉक लगे हुए हैं। टॉयलेट को छोड़ सभी जगह सीसीटीवी मौजूद है। कामवाली पर भी निगाह रखी जा रही है। फिर भी चोर चोरी से जाए, हेरा फेरी से ना जाए। ।

ये सब तो बाहर के चोर हैं। अब जरा अंदर के चोर की भी बात हो जाए। हम तो केवल मन के चोर की ही बात कर रहे हैं, कहने वाला तो यहां तक कह गया है;

तोरा मन बड़ा

पापी सावरिया रे

मिलाये छलबल

से नजरिया रे …

विज्ञान के पास सिर्फ माइंड है और ब्रेन है। आप चाहें तो मन को माइंड और ब्रेन को दिमाग कह सकते हैं। हो सकता है जिसका शातिर दिमाग हो, उसे ही उसकी प्रेमिका ने पापी कह दिया हो।।

ई मन चंचल 

ई मन चोर,

ई मन शुद्ध ठगहार।

मन-मन करते सुर-नर मुनि जहँड़े, मन के लक्ष दुवार॥

यह मन चंचल है, यह मन चोर है और यह मन केवल ठगहार है। मन पर विचार और चर्चा करते-करते देवता, मनुष्य और मुनि लोग भी मन ही की धारा में बह गए; क्योंकि मन को निकल भागने के लिए लाखों दरवाजे हैं।

ईमेल और gmail के जमाने में कौन भला मन के मैल की बात करता है। वैसे भी मेल और मैल में केवल एक मात्रा का ही तो फर्क है। अगर मैल की सिर्फ एक मात्रा घटा दी जाए, तो हमारा आपस में मेल हो जाए। कितना आसान है। ।

नजरें मत चुराओ। चुराओ तो किसी का दिल चुराओ। अगर डाका डालने का शौक है तो डाका भी किसी के दिल पर ही डालो। बड़ा फर्क है अंग्रेजी के शब्द cheat और हिंदी के चित में। चित चोर अगर किसी को cheat भी करता है, तो उसे मालामाल कर देता है और शायद इसीलिए उसे छलिया, रसिया और मन बसिया कहते हैं। जो चित चोर है, वही रणछोड़ है और वही माखनचोर भी है..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆ आलेख – चौथी सीट… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  – “चौथी सीट“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 7 ☆

✍ आलेख – चौथी सीट… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

छिहत्तरवेंं गणतंत्र दिवस के अवसर पर छिहत्तर वर्ष की आयु में जब पुणे में नई नवेली सी मेट्रो में स्वारगेट स्टेशन से संत तुकाराम नगर स्टेशन जाने के लिए सवार हुआ तो कोच में घुसते ही सामने की लंबी सीट पर और फिर उसके सामने की सीट पर एकदम नजर गई जो शायद खचाखच भीड पर ध्यान दिए बिना आखरी सीट ढूंढ़ रही थी।  मेट्रो में आमने सामने की सीट पर एक ओर छह और दूसरी और सात यात्री बैठे थे। सात यात्रियों में एक यात्री तीसरे नंबर पर ठुसा हुआ था।

यह देखकर मेरे अंदर एक मुस्कान ने दस्तक दी और कहने लगी कि भूल गए चवालीस-पैंतालीस साल पहले बंबई (अब मुंबई) लोकल में जैसे तैसे घुसके चौथी सीट ढूंढ़ा करता था। हालांकि तब उम्र इक्कीस बत्तीस होने पर एकाध घंटे खड़े होने की ताकत थी, फिर भी तीन सीट वाली सीट के कोने पर जैसे तैसे बैठने के अभ्यास ने चौथी सीट  का निर्माण कर दिया। चौथी सीट का दर्जा कैसे मिला किसने दिया, यह तो शोध का विषय है लेकिन है सत्य। तीन सीट वाली एक ही लंबी सीट पर चार लोग बैठते थे और यह सर्वमान्य था। एक सीट पर यदि तीन लोग नियमानुसार बैठे हैं और आप खडे़ हैं तो कोने पर बैठा तीसरा यात्री थोड़ा बहुत हिलडुलकर और दूसरे व पहले यात्री को हिलने डुलने का इशारा करके चौथी सीट बना कर आपके लिए जगह बना दिया करता था। यहाँ जान पहचान का कोई सवाल नहीं था। हाँ एक बात और अगर तीसरी सीट पर कोई महिला बैठी हो तो चौथी सीट का निर्माण नहीं होता था। कोई आग्रह भी नहीं करता था।

पुणे मेट्रो में सातवीं सीट के निर्माण की संभावना नहीं दिखाई देती। क्योंकि, मुंबई लोकल में यदि आप कल्याण से वीटी (अब सीएसटीएम) के लिए बैठे हैं और चौथी सीट भी न मिलने पर कोच के अंदर दो सीटों पर बैठे यात्रियों के बीच में पहुंच जाते थे तो आधे पौने घंटे के अंतराल पर पहला, दूसरा या तीसरा यात्री, इनमें से कोई भी व्यक्ति खड़ा हो कर आपसे थोड़ी देर बैठने का अवसर देकर राहत प्रदान करता था। यदि आपकी जगह कोई वृद्ध व्यक्ति अंदर तक आ गया हो तो कोई न कोई अपनी सीट से खड़े होकर उनको बैठने के लिए अपनी सीट दे दिया करता और स्वयं खड़ा रहता। जहाँ तक मुझे याद है उस समय ज्येष्ठ या वरिष्ठ नागरिक कोई अलग इकाई नहीं थी और लोकल में उनके लिए आरक्षित सीट भी नहीं थी परंतु वृद्धों को अलिखित, अकथित सम्मान व सुविधा स्वतः मिलती थी । इसी प्रकार महिलाओं का भी ध्यान रखा जाता था। लोग सीट से खडे होकर उनको बैठने की जगह दे दिया करते थे। आज भी ऐसा ही होता होगा। पर पुणे मेट्रो में ऐसा होगा, यह उम्मीद की जा सकती है। मेट्रो में गाड़ी की दीवार के किनारे पर सीट है जिस पर छः व्यक्ति बैठ सकते हैं और बाकी जगह खड़े रहने के लिए है। नियम कायदे अपनी जगह और सामाजिक दायित्व, बड़ों का लिहाज -खयाल, महिलाओं के प्रति सहानुभूति अलग बात है। लोकल में व्यक्ति नहीं इंसानियत दौड़ती थी, आज भी दौड़ती होगी और पुणे मेट्रो में भी दौड़ेगी। चौथी नहीं, सातवीं सीट का दर्जा भी शायद पैदा हो जाएगा।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 590 ⇒ दांत, खाने और दिखाने के ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दांत, खाने और दिखाने के।)

?अभी अभी # 590 ⇒ दांत, खाने और दिखाने के… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सभी जानते हैं, हम जिन दांतों से खाते हैं, वही दांत दिखाते भी हैं। वैसे भी बत्तीस दांत कम नहीं होते एक आदमी के लिए। लेकिन हाथी के दांत खाने के अलग होते हैं और दिखाने के अलग, यानी जनाब गजराज के पास दांतों के दो सेट्स होते हैं, आप चाहें तो उन्हें outer teeth और inner teeth भी कह सकते हैं। बाहर के दो दांत हाथी दांत के होते हैं और अंदर के दांत सिर्फ हाथी के होते हैं। कहते हैं, शेर के दांत गिनना आसान नहीं, लेकिन हाथी के अंदर के दांत, फिर भी कोई नहीं गिनता।

खुदा मेहरबान तो हाथी पहलवान ! मनुष्य की तुलना में ईश्वर ने हाथी को अधिक विशाल और ताकतवर तो बनाया ही है, खाने और दिखाने के दांतों से नवाजा भी है। चलो, हमारी हाथी की तुलना में एक ही बत्तीसी सही, हाथ तो भगवान ने दो दो दिए हैं, और उधर नाम के हाथी और हाथ एक भी नहीं। एक सूंड लेकर घूमते फिरो जंगल जंगल।।

इतना बड़ा हाथी, फिर भी देखो उसकी किस्मत, उस पर सवार महावत और अंकुश ही जिसका रिमोट कंट्रोल। कहावत है, मरा हाथी भी सवा लाख का होता है, लेकिन बेचारा जिंदा हाथी, जब बाजार में निकलता है, तो एक एक पैसा अपनी सूंड से उठाकर अपने मालिक को देता है। और मालिक हाथी मेरे साथी रामू को ज्ञान देता है दुनिया में रहना है तो काम करो प्यारे। हाथ जोड़ सबको सलाम करो प्यारे। बच्चों, बजाओ ताली।

हमारे खाने के दांत जितने कीमती हैं उतने ही कीमती हाथी के दिखाने के दांत हैं। हाथी की कीमत उसके दांत हैं, और हमारी कीमत हमारे दांत। हम तो अपने दांतों को सुरक्षित रख भी सकते हैं, उन्हें सड़ने और कीड़ों से बचा भी सकते हैं, लेकिन लोग हैं कि बेचारे हाथी के दिखाने वाले दांत भी नहीं छोड़ते। अगर कोई आपके दोनों हाथ तोड़ दे, तो कैसा लगे।।

ईश्वर का न्याय भी अजीब है। जिसे बल देता है, उसे बुद्धि नहीं, और जिसे बुद्धि देता है उसे बल नहीं। फिर भी अर्थ का अनर्थ हो ही जाता है, जब किसी को बल बुद्धि की जगह बाल बुद्धि दे देता है। मूक प्राणियों से पशुवत व्यवहार क्या बाल बुद्धि की श्रेणी में आता है। अपने मनोरंजन के लिए उनका शिकार करना, अपने स्वार्थ और लालच के चलते हाथियों के दांतों की तस्करी करना क्या मानवता और इंसानियत का अपमान नहीं।

कहावत में प्रतीक भले ही हाथी हो, लेकिन वास्तविकता तो यही है, इंसान के खाने के दांत और हैं और दिखाने के और। एक ओर ऊपर से शरीफ इंसान और अंदर से शैतान नहीं हैवान और दूसरी ओर कहां बलशाली लेकिन बेचारा नाम का गजराज जिसके दिखाने के दांत ही उसके लिए मुसीबत बन जाते हैं।।

इंसान को छोड़कर हर प्राणी जैसा अंदर से है, वैसा ही बाहर से है। काश, हम भी वैसे ही होते, जैसा हमें भगवान ने बनाया है। पहले भगवान ने इंसान को बनाया, आज इंसान भगवान के ही मंदिर बना रहा है।

हमारे दांत खराब हुए तो हम तो पैसा खर्च कर नई बत्तीसी बनवा लेते हैं जो खाने के काम भी आती है और दिखाने के भी। काश, हाथियों के लिए भी कोई दांत का दवाखाना होता। जब उनके भी दांतों में दर्द होता तो कोई गजेंद्र मोक्ष उनकी भी पीड़ा हर लेता।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 589 ⇒ तलब ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “तलब।)

?अभी अभी # 589 ⇒ तलब ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

न अब, न तब, तो कब, किसे नहीं लगी तलब ! तलब केवल लब तक ही सीमित नहीं रहती, यह पूरे जिस्म में उतर जाती है। किसी ने भले ही इसका हॉर्स-पावर नहीं जाना हो, लेकिन तलब में बहुत बल है।

आखिर यह तलब है क्या ?

क्या यह कोई बुरी लत है, आदत है, चस्का है, या फिर एक तरह का सेल्फ कंडीशनिंग है। शराब की लत बुरी है, यह तो सुना है, लेकिन तलब को बड़ी मासूमियत से स्वीकारा गया है।।

दावत में छककर खाया ! मानो तालाब लबालब। फिर भी न जाने कहाँ से तलब उठी ! एक मीठा पत्ता पान और हो जाता, तो मज़ा आ जाता। जहाँ ज़ुबाँ चुप रहती है, लब कमाल बता जाते हैं। ये तलब ऐसी ही होती है जी।

आत्मा शरीर में होती है, दिखाई कहाँ देती है। तलब भी दिखाई नहीं देती, पर महसूस होती है। आत्मा को नित्य, शुध्द माना गया है, वह सुखी दुखी नहीं होती। लेकिन किसी को दुखी देख, संत-महात्माओं की आत्मा को कष्ट ज़रूर होता है। तलब का भी कहीं अंदर से आत्मा से संबंध ज़रूर होता है।

अब आप चाय को ही ले लीजिए ! चाय में ऐसा क्या है कि इसकी तलब उठती है। सुबह हाथ-पाँव टूटते हैं, आँखें नहीं खुलती, अलसाये बदन की एक ही माँग होती है, एक प्याला गर्मा-गर्म, भाप निकलता हुआ, चाय का प्याला। लबों को छूती एक-एक चुस्की, नासिका में चाय की खुशबू, फूँक मार-मारकर हलक से नीचे उतरती चाय संजीवनी बूटी का काम करती है। यह तलब कहीं न कहीं, आत्मिक संतुष्टि से जुड़ी प्रतीत होती है। कहीं तलब का आत्मा से कोई संबंध तो नहीं।।

चाय तो महज एक उदाहरण है तलब का। अगर आपने अशोककुमार की फ़िल्म मेहरबान देखी हो तो, सिगरेट छोड़ने से पहले, सिगरेट का आखरी कश लेने का उनका अभिनय इतना ग़ज़ब का था, मानो सिगरेट नहीं, उनसे उनकी साँसें जुदा हो रही हों। जिस बेसब्री से बीड़ी सिगरेट सुलगाई जाती है, और उसका कश लिया जाता है, वह तलब नहीं तो और क्या है।

लत, शौक और आदत बहुत कमज़ोर शब्द प्रतीत होते हैं, तलब के आगे। तलब का कोई सबब नहीं, कोई तोड़ नहीं, कोई विकल्प नहीं। बरसात में मूँग के भजियों अर्थात मुंगौड़ों को देख, किसका मन नहीं मचलता। लेकिन जब तलब लग जाती है, तो आसमान सर पर उठा लिया जाता है। धनिया, अदरक, हरी मिर्ची, प्याज सबकी व्यवस्था हो जाती है, एक अदद तलब को मिटाने के लिए। अवचेतन में मानो कोई कह रहा हो, आज नहीं तो फिर कब ?

तलब का भूख-प्यास से कोई संबंध नहीं ! कड़कती भूख में ठंडी रोटी-अचार और लोटा भर पानी ही छप्पन भोग नज़र आते हैं, लेकिन तलब तो आत्मा की आवाज़ है, एक बच्चे की ज़िद है, चइये मने चइये। तलब किया जाए। इसी बात पर सुबह सुबह एक कप चाय हो जाए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 275 – संतत्व ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 275 ☆ संतत्व… ?

फूटी आँख विवेक की, लखे ना संत असंत।

जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ||

महंत होना सरल है, संत होना कठिन। संत यात्रा करता है, संत यात्रा करवाता भी है। यात्रा में भटका ऐसा ही एक पथिक कबीरदास जी के पास पहुँचा। वह अपने गृहस्थ जीवन में रोज़ाना होने वाले कलह और तर्क-वितर्क से बहुत दुखी था। अपना दुखड़ा बयान करता हुआ कबीरदास जी से बोला, “महाराज मेरा गृहस्थ जीवन बहुत दुखी है। हम पति-पत्नी में ज़रा भी नहीं पटती। रोज़ झगड़ा, रोज़ कलह। वह भी दुखी, मैं भी दुखी। तंग आ गया हूं इस जीने से। जीवन में अंधेरा ही अंधेरा है।” कबीर ् समय सूत बुन रहे थे। पथिक की बात सुनी-अनसुनी कर अपनी पत्नी लोई से बोले,”इतना अंधेरा है कि सूत बुनने में दिक्कत हो रही है। तनिक दीया तो बाल लाओ।” लोई एक दीप प्रज्ज्वलित करके ले आई। पति के पास रखकर चली गई। कबीर के इस व्यवहार से प्रश्नकर्ता किंकर्तव्यविमूढ़-सा हो गया। वह भरी दोपहर का समय था। सूर्य सिर पर था और प्रकाश प्रखर था। आशंका व्यक्त करते हुए कबीरदास जी से बोला, “महाराज, सूरज तप रहा है। दोपहर का समय है। इतना तेज़ प्रकाश है और आपको सूत कातने के लिए दीया मंगवाना पड़ा। क्या आपकी आँखें खराब हो गई हैं?” कबीर मुस्करा कर बोले, “यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भी है। अपनी आँखों को ठीक करो। गृहस्थ जीवन में विश्वास करना सीखो। अपने साथी के विचार का, उसकी सोच का, उसके निर्णय का सम्मान करो। व्यर्थ के तर्क-वितर्क एक दूसरे का मान समाप्त करते हैं। तुमने देखा कि दिन के प्रकाश में मैंने लोई से दीया मंगवाया। बिना कोई प्रश्न किए वह दीया रख गई। उसका विश्वास है कि मैंने दीया मंगवाया है तो कुछ सोच कर ही मंगवाया होगा। …तुम अपनी पत्नी को अपने जैसा कर देना चाहते हो। खाना-पीना तुम्हारे जैसा, बोलना-चालना तुम्हारे जैसा, सोचना-विचारना तुम्हारे जैसा। तुम्हारी  आँखें खराब हो गई हैं। तुम जानते हो पर देखते नहीं कि धरती पर कोई भी दो लोग एक जैसे नहीं हो सकते।

… और सुनो, यह दीया मैंने अपने लिए नहीं तुम्हारे लिए मंगवाया था। जैसे इसकी ज्योति जल रही है अपने भीतर भी ज्योति जलाओ। अग्नि पवित्र होती है। भीतर एक बार ज्योति जल गई तो जीवन में प्रकाश ही प्रकाश होगा।”

सच्चा संत खुद जलता है, खुद तपता है आत्मदीप बनता है। वह पोथी का ज्ञान नहीं जताता, अनुभव से मिला ज्ञान बताता है। संतत्व में ‘कागज की लेखी’ नहीं बल्कि ‘आँखन की देखी’ महत्वपूर्ण है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 588 ⇒ मोनालिसा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मोनालिसा।)

?अभी अभी # 588 ⇒ मोनालिसा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मोनालिसा, इतालवी चित्रकार लियोनार्दो दा विंची की पेंटिंग है. यह पेंटिंग 16वीं शताब्दी में बनाई गई थी. यह दुनिया की सबसे चर्चित पेंटिंगों में से एक है. यह पेंटिंग फ़्लोरेंस के एक व्यापारी फ़्रांसेस्को देल जियोकॉन्डो की पत्नी लीज़ा घेरार्दिनी को देखकर बनाई गई थी. यह पेंटिंग फ़िलहाल पेरिस के लूवर म्यूज़ियम में रखी हुई है। इसकी रहस्यमयी मुस्कान ही इस पेंटिंग की जान है।

आज आपको घर घर में यह नाम मिल जाएगा। कहीं एक बहन का नाम अगर मोना है, तो दूसरी का लिसा। हमारे चलचित्र के खलनायक आदरणीय अजीत जी का तो आदर्श वाक्य ही मोना डार्लिंग था। ।

उधर प्रयाग राज के महाकुंभ में भी एक माला बाला प्रकट हुई है, जो अपनी मोनालिसाई मुस्कान के कारण चर्चित हुई जा रही है। सोचिए, करोड़ों साधु, संन्यासी और श्रद्धालुओं का सैलाब, और सबके हाथ में कैमरा। इतने पत्रकार, देसी विदेशी टीवी रिपोर्टर, इनकी आंखों से बच पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।

काहे का कुंभ और काहे का अमृतपान, जिसे देखो वही इस मोनालिसा की तस्वीर अपने कैमरे में कैद कर रहा है, और आम और खास को परोस रहा है।

जो महाकुंभ में नहीं जा पाए, वे इसी माला वाली बाला की झील सी आंखों में डुबकी लगाना चाहता है। ।

इतना ही नहीं, महाकुंभ की इस मोनालिसा पर कविता, ग़ज़ल, कथा कहानी और व्यंग्य तक का सृजन हो चुका है। सिर्फ एक तस्वीर वायरल होती है और इंसान आम आदमी से सेलिब्रिटी बन जाता है।

मैं भी पशोपेश में हूँ, आज लोग किस मोनालिसा को देखना चाहते हैं, विंची की मोनालिसा तो हमारे लिए कब की पुरानी हो चुकी, आज तो घर घर जिसका चर्चा है, वह तो बेचारी एक साधारण सी महाकुंभ में माला बेचने वाली लड़की है। भविष्य के गर्त में क्या है, कोई नहीं जानता, लेकिन पारखी लोग महाकुंभ में से भी अनमोल रत्न निकाल ही लाते हैं। ।

यह मंथन हम बाद में करेंगे, इस महाकुंभ के स्नान से कितने श्रद्धालुओं को अमृत की बूंद प्राप्त हुई, फिलहाल आज का दिन तो, आज की मोनालिसा का ही है …!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 587 ⇒ गुमशुदा की तलाश ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गुमशुदा की तलाश।)

?अभी अभी # 587 ⇒ गुमशुदा की तलाश ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

एक समय था, जब समाचार पत्रों में यदा कदा ऐसी तस्वीरें छपा करती थीं, जिनके साथ यह संदेश होता था, प्रिय मोहन, तुम जहां भी हो, घर चले आओ, तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। पैसे की ज़रूरत हो बता देना।

लाने वाले को आने जाने के किराए के अलावा उचित इनाम दिया जाएगा। इनमें कुछ ऐसे वयस्क महिला पुरुष भी होते थे जो मानसिक रूप से विक्षिप्त होते थे, और घर छोड़कर चले जाते थे।

तब किसी का अपहरण अथवा किडनैपिंग सिर्फ फिल्मों में ही होता था। मनमोहन देसाई की फिल्मों में बच्चे या तो मेलों में गुम होते थे, अथवा उन्हें डाकू या गुंडे उठाकर ले जाते थे, और वे बड़े होकर डॉन या फिर डाकू बन जाते थे।।

तब ना घर में फोन अथवा मोबाइल होता था और ना ही कोई संपर्क सूत्र। घर भी भाई बहनों और रिश्तेदारों से भरे भरे रहते थे। खेलने कूदने की आउटडोर गतिविधि अधिक होती थी। स्कूल के दोस्तों के साथ साइकलों पर पाताल पानी और टिंछा फॉल जैसी प्राकृतिक जगह निकल जाते थे। सर्दी, गर्मी, बारिश, कभी साइकिल पंक्चर, देर सबेर हो ही जाती थी। परिवार जनों की चिंता स्वाभाविक थी। लेकिन वह उम्र ही बेफिक्री और रोमांच की थी।

गुमने और खोने में फर्क होता है। जो गुमा है उसके वापस आने की संभावना बनी रहती है। गुमना एक तरह से गायब होना है, कुछ समय के लिए बिछड़ना है। कई बार ऐसा होता है, हम खोए खोए से, गुमसुम बैठे रहते हैं। हमें ही नहीं पता, हम कहां गायब रहते हैं, अचानक कोई हमें सचेत करता है, और हम अपने आप में वापस आ जाते हैं।।

हमारे पास ऐसा बहुत कुछ है, जो हमसे जुड़ा हुआ है, चल – अचल, जड़ – चेतन। रिश्ते बनते हैं, बिगड़ते हैं, कभी कोई काम बनता है, तो कभी कोई काम बिगड़ता भी है। खोने पाने के बीच जीवन निरंतर चलता रहता है। किसी चीज की प्राप्ति अगर उपलब्धि होती है तो किसी का खोना एक अपूरणीय क्षति। जेब से पर्स का गिरना, चोरी होना या खोना तक हमें कुछ समय के लिए विचलित कर सकता है।

कभी कभी तो जीवन में ऐसे क्षण भी आते हैं, जब किसी के अचानक चले जाने से समय रुक जाता है, ज़िन्दगी ठहर जाती है, एक तरह से दुनिया ही लुट जाती है।

होते हैं कुछ ऐसे इंसान भी, जो खोने पाने के बीच, मन को एक ऐसी स्थिति में ले आते हैं, जहां जो खो गया, वह आसानी से भुला दिया जाता है, और जो मिल गया, उसे ही मुकद्दर समझ लिया जाता है। मिलने की खुशी ना खोने का ग़म, क्या एक ऐसा भी कोई मुकाम होता है।।

सदियों से इंसान की एक ही तलाश है। वह सब कुछ पाना तो चाहता है, लेकिन कुछ भी खोना नहीं चाहता। उस लगता है, पाने में खुशी है, और गंवाने में गम। उसकी चाह, चाहत बन जाती है, जब कि हकीकत में हर चाह का पूरा होना मुमकिन नहीं।

चाह में चिंता है, बैचेनी है, दिन रात का परिश्रम है, आंखों में नींद नहीं सिर्फ सपने हैं।

और पाने के बाद उसके खोने और गुम हो जाने का भय। ताले चाबी, लॉकर, सुरक्षा, key word, पासवर्ड, OTP, सेफ्टी अलार्म, सीसीटीवी, और सिक्योरिटी गार्ड। लेकिन जो आपसे ज़िन्दगी तक छीन सकता है, उससे आप क्या क्या बचाओगे। साईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय तो आज की तारीख में अतिशयोक्ति होगी लेकिन जो है वह पर्याप्त है का भाव ज़रूरी है। बस सुख चैन कोई ना छीने, हमारी स्वाभाविक खुशियां कहीं गुम ना हो जाए। दुनिया में आज भी नेकी कायम है। अमन चैन भी, थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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