हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 132 ⇒ लव इन शिमला… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लव इन शिमला।)  

? अभी अभी # 132 ⇒ लव इन शिमला? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

हमने अंग्रेजों का जमाना तो नहीं देखा लेकिन उनके बनाए हिल स्टेशन जरूर देखे हैं। क्या दिन थे वो बचपन के, परीक्षा हुई और गर्मी की छुट्टियां शुरू! अच्छा काम नहीं करने का बहाना, हमें उससे क्या। हमें तो इस बहाने पढ़ाई और स्कूल से छुट्टी मिल जाया करती थी। जाए, जिसको जाना हो पहाड़ों पर, हिल स्टेशन पर, हम तो चले ननिहाल।

१९६० का साल रहा होगा, जब हमने पहली बार शिमला का नाम सुना। एक फिल्म आई थी जॉय मुखर्जी, साधना, शोभना समर्थ और दुर्गा खोटे अभिनीत, लव इन शिमला, लाल लाल गाल !

तब फिल्में भले ही नहीं देख पाते हों, पर रेडियो पर गाने तो सुनने में आ ही जाते थे, और स्कूल के आसपास ही एक नहीं, तीन तीन चलचित्र गृह, सिनेमा के पोस्टर देखने से तो कोई नहीं रोक सकता था। ।

तब हमारे लिए हिल स्टेशन आसपास के प्राकृतिक स्थल ही हुआ करते थे। पाताल पानी, तिन्छा फॉल और जानापाव तो साइकलों से ही निकल जाते थे। खेतों में गन्ने, हरे हरे छोड़ और मटर के दाने तथा फलबाग के जाम हमारे लिए किसी अशोक वाटिका से कम नहीं थे।

कश्मीर अगर पहली बार सन् १९७४ में देखा तो शिमला, देहरादून और मसूरी वर्ष १९८६ में। हिमाचल की ज्वाला जी, सोलन और कांगड़ा भी पहली बार ही जाने का योग आया। पहाड़, हरियाली और प्राकृतिक सौंदर्य ऐसा कि वहीं बस जाने का मन करे। ।

छोटी मोटी होटल में रात गुजारने में ही गरीबी में आटा गीला हो जाता था। कहां दून कल्चर और कहां हम मालवी जाजम वाले इंदौरी ! पहली बार शिमला का माल रोड देखा। आसपास पहाड़ों पर बंगले देखे, इच्छा जरूर हुई, काश हम भी यहां की शांति में बस पाते, इनमें से एक प्यारा बंगला हमारा भी होता। रोज सुबह माल रोड की सैर, मानो स्वर्गारोहण। ‌

बस उसके बाद कभी शिमला मसूरी देहरादून नहीं जा पाए। मन में तसल्ली है, चारों धाम, बारहों ज्योतिर्लिंग कर लिए, अब तो बस मन चंगा और कठौती में गंगा। लेकिन जब भी प्रकृति और पहाड़ों का रौद्र रूप देखता हूं, दहल जाता हूं। ।

Things are not, what they seem! सिक्के के तो केवल दो पहलू होते हैं, जिंदगी के कई रूप रंग होते हैं। कितना विरोधाभास है इस जिंदगी में। एक तरफ विविध भारती पर हेमंत कुमार का गीत बज रहा है, जिंदगी कितनी खूबसूरत है, आइए आपकी जरूरत है, और दूसरी ओर उसी शिमला शहर की तबाही की तस्वीरें न्यूज़ चैनल पर दिखाई दे रही हैं।

एकाएक कानों और आंखों पर भरोसा नहीं होता, हम क्या सुन रहे हैं, और क्या देख रहे हैं। कल जहां बसती थी खुशियाँ, आज है मातम वहां, वक्त लाया था बहारें, वक्त लाया है खिजां, जैसे साहिर के शब्द भी इस त्रासदी को बयां नहीं कर सकते। ।

हम अक्सर पहाड़ जैसी जिंदगी की बातें करते हैं, और कुछ दिन आराम करने के लिए पहाड़ों की ही गोद में चले जाते हैं। आखिर प्रकृति ही तो हमारी गोद है। एक छोटा बच्चा जिस मां की गोद में खेलता है, बड़ा होकर वह मां का कितना खयाल रखता है। प्रश्न ही ऐसा है, हम निरुत्तर हो जाते हैं।

प्रकृति की गोद ही GOD है। जिस बच्चे को सिर्फ मां की गोद चाहिए, वह बड़ा होकर उसी गोद को शर्मिंदा करता है। नंगे पांव पैदल मंदिर जाने वाला इंसान आजकल कार से मंदिर जाता है, उसे पक्की सड़क चाहिए, वह मंदिर के पास ही बड़ी होटल बना लेता है, उसे पैसा जो कमाना है। पैसे पहाड़ पर नहीं उगते लेकिन वह पहाड़ पर पैसों के पेड़ लगा रहा है। मूर्ख है, जिस डाली पर बैठा है, उसे ही काट रहा है। ।

उसने काली, भद्र काली का भी विकराल रूप देखा है। जब प्रकृति रुष्ट होती है, तो सभी देवता रूठ जाते हैं। माता पिता आशीर्वाद नहीं, शाप देते हैं। अपनी ही करनी का फल हम भोग रहे हैं।

इस भ्रम में मत रहिए, कि हम तो यहां हजारों मील दूर पूरी तरह सुरक्षित हैं, शिव के तांडव से पूरी सृष्टि नहीं बच सकती। इस जर्रे जर्रे में वही शिव तत्व मौजूद है। यह तेरी, मेरी उसकी नहीं, हम सबकी खता है। हम सब ही दंड के भागी हैं। पूरी वसुधा की बात छोड़िए, फिलहाल जो बेहाल हैं, बरबाद हैं, उनकी फिक्र कीजिए।

करिए अरदास, रगड़िए नाक और पूछिए उस परवरदिगार से ;

ओ रूठे हुए भगवान

तुझको कैसे मनाऊॅं

तुझको कैसे मनाऊॅं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 48 – देश-परदेश – इतना तो चलता है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 48 ☆ देश-परदेश – इतना तो चलता है ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जब भी हम परंपराएं/मर्यादा/ नियम/ कानून/ मान्यताएं की सीमा लांघते हैं, तो इन शब्दों की बैसाखी का सहारा लेकर अपने आप से नज़र बचाने का बहाना ढूंढ लेते हैं।

आरंभ खाने से ही करते है, आप युवा है, लेकिन परिवार में सिर्फ शाकाहारी भोजन की परंपरा है। मित्र के कहने से मांसाहारी भोजन से सिर्फ “तरी” लेने के आग्रह को मान लेते है, जब मित्र ये कह देते है, अब इतना तो चलता है। यहीं से आरंभ होता है, मान्यताओं को तोड़ना। कुछ समय बाद बीयर रूपी मदिरा पान भी कर लेते हैं।

घर के लड़के देर रात्रि पार्टी करने के पश्चात पिछले दरवाज़े से मां के आंचल की आड़ में प्रवेश कर जाते है, जब परिवार की लड़कियां ऐसा करती है, तो मुद्दा मर्यादा का हो जाता है। “बिग बॉस” देखते-देखते कब परिवार के बच्चे “लिव इन रिलेशन” जैसी असामाजिक रिश्तों के कायल हो जाते हैं।

यातायात पुलिस के सिपाही का लाल बत्ती पर खड़ा ना रहने से जब हम अपने वाहन को नियम की धज्जियां उड़ाते हुए जल्दी घर पहुंचने की चर्चा करते है, तब घर के बच्चों को जाने/ अनजाने बिगड़ैल बनाने का ज्ञान दे देते हैं।

घर में जब मोबाइल पर बॉस का फोन आता है, तो झूठ बोल कर कह देते है, कहीं बाहर हैं, ये अनैतिकता का पहला पाठ होता हैं। इतना तो चलता है, ना?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विचारणीय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – विचारणीय ??

मैं हूँ

मेरा चित्र है;

थोड़ी प्रशंसाएँ हैं

परोक्ष, प्रत्यक्ष

भरपूर आलोचनाएँ हैं,

 

मैं नहीं हूँ

मेरा चित्र है;

सीमित आशंकाएँ

समुचित संभावनाएँ हैं,

 

मन के भावों में

अंतर कौन पैदा करता है-

मनुष्य का होना या

मनुष्य का चित्र हो जाना…?

 

प्रश्न विचारणीय

तो है मित्रो!

© संजय भारद्वाज 

(शुक्रवार, 11 मई 2018, रात्रि 11:52 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 131 ⇒ एक और अश्वत्थामा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एक और अश्वत्थामा”।)  

?अभी अभी # 131 ⇒ एक और अश्वत्थामा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 

आज मुझे दर्द है, फिर भी लिख रहा हूं। दर्द नहीं होता, तब भी लिखना तो था ही। कहीं पढ़ा है, दर्द का अहसास हो, तो लेखन अच्छा होता है। अब सुबह सुबह दर्द ढूंढने कहां जाऊँ, जब घर बैठे कमर में दर्द उठा, सोचा क्यों न गंगा नहाऊं।

दर्द जिस्मानी भी होता है, और रूमानी भी ! यूं तो दर्द रूहानी भी होता है, लेकिन उसका कॉपीराइट मीरा और सूर जैसे भक्तों के पास होता है। जिस्मानी दर्द लिखने से नहीं, उपचार से ठीक होता है। उसके लिए दर्द को छुपाना नहीं पड़ता, किसी हमदर्द को बताना पड़ता है। बात दवा दारू तक पहुंच जाती है। ।

मैंने मांडू देखा, कई बार देखा ! लेकिन वह मांडू नहीं देखा, जिसका जिक्र स्वदेश दीपक ने “मैंने मांडू नहीं देखा” में किया है। साफ साफ शब्दों में कहूं तो मैंने अभी खंडित जीवन का कोलाज नहीं देखा। क्या जीवन में सुख ही सुख है, दुख नहीं, अथवा दुख ही दुख है, सुख नहीं ! सृजन स्वांतः सुखाय किया जाता है तो क्या यही सृजन सुख कभी कभी स्वांतः दुखाय भी हो सकता है।

एक लेखक खयाली घोड़े दौड़ाता है, लेकिन वे घोड़े खयाली नहीं होते, कभी कभी असली भी होते हैं। यथार्थ और कल्पनाशीलता का मिश्रण गल्प कहलाता है, फिर आप चाहे आप इसे कथा कहें या कहानी। लेखक यथार्थ से पात्र उठाता है, उसे अपना नाम और रूप देकर भूल जाता है। जब ये ही पात्र सजीव बनकर कथा कहानियों में उतर जाते हैं, तो एक कहानी अथवा उपन्यास बन जाता है। ।

बस यहीं से ये काल्पनिक पात्र, जिन्हें लेखक ने मूर्त रूप दिया है, उसके पीछे पड़ जाते हैं। परमात्मा को जिस तरह यह जीव घेरे रहता है, उसके पात्र रात दिन उसके पीछे पड़े रहते हैं। क्या तुमने मेरे साथ न्याय किया। क्या तुम मुझे एक कठपुतली की तरह नहीं नचाते रहे। जब कोई लेखक, लेखन में डूब जाता है, तब ऐसा ही होता है।

एक कवि की कल्पना को ही ले लीजिए, जहां न पहुंचे रवि ! यानी जहां तक रवि का प्रकाश न पहुंचे, कवि पहुंच जाता है। तो फिर वहां तो अंधकार ही हुआ न ! तो कहीं सूर, सूर्य बन जाते हैं, और तुलसी शशि, केशव अगर तारे हैं तो शेष जुगनू। कहने को आचार्य रामचंद्र शुक्ल कह गए, लेकिन फिर भी एक लेखक तमस, संत्रास, कुंठा और अवसाद के अंध कूप में जब जा बैठता है, तब उस स्वदेश का दीपक भी बुझ जाता है। ।

बिना डूबे भी कोई लेखक बना है, कवि बना है। कलम तो स्याही में डूबकर अपनी प्यास बुझा लेती है, कवि को अपनी कविता के लिए किसी प्रेरणा की जरूरत होती है तो लेखक को डूबने के लिए शराब का सहारा लेना पड़ता है। बहुत दुखी करते हैं, उसके ही बनाए हुए पात्र उसे। वह क्या करे। होते हैं कुछ नील कंठी, जो अपने पात्रों का गरल, कंठ में ही धारण कर लेते हैं, लेकिन शेष को तो उसमें डूबना ही पड़ता है।

दुख का अहसास इतना ही काफी है मेरे लिए। मैं अपने पात्रों का दुख दर्द सहन नहीं कर सकता। मैं स्वदेश दीपक नहीं बन सकता। मैंने मांडू नहीं देखा। मैने मांडू नहीं देखा। मैं एक और अश्वत्थामा नहीं बनना चाहता जो सृजन के संसार में तो अमर है, लेकिन उसका शरीर कहीं तो आत्मा कहीं। हे सुदर्शन चक्रधारी, उसे तार दे। उसका दर्द मेरा है। हर लेखक का है, जो लेखन का दर्द जानता है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ नाग पंचमी क्यों मनाई जाती है? ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

☆ आलेख ☆ नाग पंचमी क्यों मनाई जाती है?  ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

नाग पंचमी के बारे में भविष्य पुराण के ब्रह्मा पर्व  में नागपंचमी की कथा और उसके व्रत विधान का तथा फल के बारे में विस्तृत वर्णन दिया हुआ है। इसके अलावा स्कंद पुराण के श्रावण महत्व पर्व में भी सनत कुमार को ईश्वर ने नाग पंचमी के बारे में बताया है।

पहले हम आपको भविष्य पुराण के ब्रह्मा पर्व में दिए गए नाग पंचमी की कथा के बारे में बताते हैं। इस पुराण के अनुसार सुमंतु मुनि ने शतानीक राजा को नाग पंचमी की कथा के बारे में बताया है

 श्रावण शुक्ल पक्ष के पंचमी के दिन नाग लोक में बहुत बड़ा उत्सव होता है। पंचमी तिथि को जो व्यक्ति नागों को गाय के दूध से स्नान कराता है उसके  कुल को  सभी नाग अभय दान देते हैं। उसके परिवार जनों को सर्प का भय नहीं रहता है।

महाभारत में जन्मेजय के  के नाग यज्ञ की कहानी है। जिसके अनुसार जन्मेजय के नाग यज्ञ के दौरान बड़े-बड़े विकराल नाग अग्नि में आकर जलने लगे। उस समय आस्तिक नामक ब्राह्मण सर्प यज्ञ रोककर नागों की रक्षा की थी यह पंचमी की तिथि थी अतः नागों को पंचमी की तिथि बहुत प्यारी है इस दिन मिट्टी के नाक बनाना चाहिए ऊंची पूजा करना चाहिए उनके ऊपर दुग्ध स्नान कराना चाहिए तदोपरांत उन्हें विश्व रचित कर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। पूजन करने का विस्तृत विवरण भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में दिया हुआ है।  इस प्रकार नियम अनुसार जो पंचमी को नागों का पूजन करता है उसे पर नागों की विशेष कृपा रहती है।

भविष्य पुराण में सांपों के लक्षण स्वरूप और जातियों के बारे में भी वृहद वर्णन भी है। इससे पता लगता है कि हमारे पुराने ऋषि मनीषियों को सर्पों के बारे में कितना ज्ञान था।

स्कंद पुराण में भी नाग पंचमी के व्रत के बारे में कहा गया है उसमें ब्रह्मा जी ने बताया है कि – 

चतुर्थी तिथि को एक बार भोजन करें और पंचमी को नक्त भोजन करें. स्वर्ण, चाँदी, काष्ठ अथवा मिटटी का पाँच फणों वाला सुन्दर नाग बनाकर पंचमी के दिन उस नाग की भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए. द्वार के दोनों ओर गोबर से बड़े-बड़े नाग बनाए और दधि, शुभ दुर्वांकुरों, कनेर-मालती-चमेली-चम्पा के फूलों, गंधों, अक्षतों, धूपों तथा मनोहर दीपों से उनकी विधिवत पूजा करें। उसके बाद ब्राह्मणों को घृत, मोदक तथा खीर का भोजन कराएं। इसके बाद अनंत, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, कर्कोटक, अश्व, आठवाँ धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालीय तथा तक्षक – इन सब नागकुल के अधिपतियों को तथा इनकी माता कद्रू को भी हल्दी और चन्दन से दीवार पर लिखकर फूलों आदि से इनकी पूजा करें।

उसके बाद  वामी में प्रत्यक्ष नागों का पूजन करें और उन्हें दूध स्नान करवाएं। घृत तथा शर्करा मिश्रित पर्याप्त दुग्ध उन्हें अर्पित करें। इस विधि से व्रत करने पर सर्प से कभी भी भय नहीं होता है।

 प्रत्येक मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को नाग देव का पूजन किया जा सकता है। वर्ष के पूरा होने पर नागों के निमित्त ब्राह्मणों तथा सन्यासियों को भोजन कराएं।

सनातन धर्म में नाग पंचमी के बहाने नागों की रक्षण का व्रत लिया जाता है। नागों की रक्षा से पर्यावरण  संतुलित रहता है। सांप सामान्यतया किसानों के लिए हितकारी हैं। सांप फसलों को नष्ट करने वाले कीड़े पतंगों को खा जाते हैं जिससे की फसलें अच्छी होती हैं। सांप फसलों को खाने वाले चूहों को भी खा जाते हैं। इस प्रकार हमारे फसल चक्र के लिए सांप एक आवश्यक प्राणी है।

वर्ष 2023 में नाग पंचमी कब मनाई जाएगी:-

हिंदू पंचांग के अनुसार, नाग पंचमी का त्योहार श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को मनाया जाता है। इस वर्ष पंचमी तिथि की शुरुआत 21 अगस्त को रात 12 बजकर 21 मिनट पर होगी और पंचमी तिथि का समापन 22 अगस्त को रात 2 बजे होगा। उदया तिथि में पंचमी 21 अगस्त को पड़ रही है अतः 21 अगस्त को नाग पंचमी मनाई जाएगी।

मां शारदा से प्रार्थना है कि आप सदैव स्वस्थ सुखी और संपन्न रहें। जय मां शारदा।

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 205 – कलयुग केवल नाम अधारा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 205 कलयुग केवल नाम अधारा ?

राम नाम अवलंब बिनु परमारथ की आस।

बरसत वारिद बूँद गहि चाहत चढ़न अकास।।

श्री राम का नाम परमार्थ अर्थात धर्म, अर्थ, काम मोक्ष प्रदान करता है। उनके नाम के बिना भवसागर से पार होने की कल्पना कुछ ऐसी ही है, जैसे कोई बारिश की बूँदों के सहारे आकाश में जाना चाहता हो। अर्थ स्पष्ट है, श्री राम का नाम तारणहार है।

श्री राम के नाम को, उनकी अतुल्य जीवनयात्रा को घर-घर और जन-जन तक जनभाषा में पहुँचानेवाले ग्रंथ का नाम है, रामचरितमानस।  कौशल्या हितकारी राम से रणकर्कश श्री राम  की कथा है रामचरितमानस, राजा राम से लोकनायक श्री राम होने की गाथा है रामचरितमानस। रामचरितमानस श्रीराम के व्यक्तित्व और कृतित्व की अशेष यात्रा है। रामचरितमानस में को अवधी भाषा में लिखा गया है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस अमर कृति का लेखन विक्रम संवत 1631 तदनुसार  ईस्वी सन 1574 को  मंगलवार श्री रामनवमी के दिन आरंभ किया था। यह लेखन 2 वर्ष 7 महीने और 26 दिन चला। विक्रम संवत 1633 अर्थात ईस्वी सन 1576 को श्री राम विवाह के दिन यह संपन्न हुआ।

रामचरितमानस में कुल सात खंड / अध्याय हैं, बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किन्धाकांड, सुन्दरकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड।

मानस में संस्कृत और प्राकृत के कुल मिलाकर 18 छंदों में सृजन हुआ है। रामचरितमानस में कुल 10902 पद हैं। इनमें 9388 चौपाई हैं। मानस में 1172 दोहा हैं। इसमें 87 सोरठा हैं। इस महाकाव्य में 208 छंद हैं जिनमें हरिगीतिका, त्रिभंगी, तोमर, चौपैया सम्मिलित हैं। इस कालजयी ग्रंथ में 47 श्लोक हैं। इन श्लोकों में शार्दूलविक्रीडित, अनुष्टुप, प्रमाणिका, वंशस्थ, उपजाति, मालिनी, वसंततिलका, रथोद्धता, भुजंगप्रयात, तोटक, स्रग्धरा हैं।

यद्यपि स्थूल रूप से देखें तो रामचरितमानस,  रामकथा है, तथापि सूक्ष्म अवलोकन-अध्ययन  करें तो पाएँगे कि इसके अक्षर-अक्षर में जीवनमूल्य और नीतिमत्ता साक्षात दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि श्री राम का जीवनवृत्त ही ऐसा है। संभवत: यही कारण था, जिसने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त से लिखवाया,

राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।

कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है।।

रामचरितमानस ने श्री राम को एक अनन्य व्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया।

राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, लोकहितकारी हैं। राम एकमेवाद्वितीय हैं।

रामचरितमानस पढ़ना अर्थात सदाचार, नीतिमत्ता और जीवन के आदर्श पढ़ना। विशेषकर उत्तरभारत में तो मानस के दोहे और चौपाइयाँ, लोकोक्तियों के समान चलन में हैं।

अवधी में होने के कारण रामचरितमानस सार्वजनीन हुआ, जन-जन की जिह्वा का गान बना। जिस तरह बालक को दादी, नानी कहानी सुनाती हैं, कुछ उसी तरह हर आयुसमूह के लिए दादी, नानी की लोककथा बना रामचरितमानस। यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास रचित मानस का पारायण आगे चलकर परम्परा बना।

वस्तुत: संसार रूपी सागर में हर मनुष्य एक घड़ा है, एक घट है। इस घट में रावण का निवास है पर श्रीराम का भी वास है। मनुष्य से अपेक्षित है कि वह भीतर के  श्रीराम का जागरण और अंतर्भूत रावण का मर्दन करे।अपने अवगुणों का दहन, और रामत्व का जागरण  ही रामचरितमानस का सच्चा पारायण है।

‘रामत्व’ की अनुकम्पा गोस्वामी तुलसीदास को प्राप्त हुई थी। तभी श्रीरामचरितमानस में आपने लिखा,

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।

बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥

अर्थात जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ।

गोस्वामी जी के कविरूप का ध्रुवतारा है रामचरितमानस। कहा गया है,

कलयुग केवल नाम अधारा।

सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।

कलयुग में केवल श्री राम का नाम एक आधार है। उनके सुमिरन मात्र से, केवल उनके स्मरण से मनुष्य भवसागर पार हो जाता है।

श्री राम के चरित के माध्यम से जीवन की ज्ञात, अज्ञात स्थितियों को जानने, समझने और हल की दिशा पर प्रकाश डालने का माध्यम है रामचरितमानस। कालजयी साहित्य का सार्वकालिक उदाहरण है रामचरितमानस।

श्रावण शुक्ल सप्तमी को गोस्वामी तुलसीदास जी की जयंती है। विश्व को रामचरितमानस जैसा अनन्य महाकाव्य  देनेवाले गोस्वामी जी को नमन।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 130 ⇒ कुदरत का बुलडोजर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कुदरत का बुलडोजर।)  

? अभी अभी # 130 ⇒ कुदरत का बुलडोजर? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

जब हम कुदरत का कानून अपने हाथ में ले लेते हैं, तो कुदरत भी कानून कायदे ताक में रख देती है। जब जब भी इंसान ने प्रकृति को पूजा है, सहेजा है, संवारा है, प्रकृति प्रसन्न हुई है, प्रकृति ने उसे रोटी, कपड़ा और मकान दिया है, लेकिन जब जब उसने प्रकृति से खिलवाड़ किया है, उसकी छाती पर हल की जगह बुलडोजर चलाया है, गरीबों के घर उजाड़े और अपने महल बनाए हैं, वह क्रुद्ध हुई है, उसने विकराल रूप धरा है, और सब कुछ तहस नहस करके रख दिया है।

पर्वतराज हिमालय हो, अथवा उसका आंचल हिमाचल, पंजाब हो अथवा हरियाणा, देवभूमि उत्तराखंड हो या फिर गढ़वाल क्षेत्र, शुद्ध जल, शीतल पवन और स्वर्ग समान पर्यावरण अपने आप में पर्याप्त खाद्यान्न, खनिज सम्पदा, फूलों की घाटी और एक नहीं अनेक ऐसे पर्वत जहां संजीवनी बूटी सहित कई औषधीय पौधे केवल इंसान ही नहीं, प्राणी मात्र का पालन पोषण, और संवर्धन ही नहीं, उसे संरक्षण भी प्रदान करते हैं। ।

प्रकृति ने पुरुष को अगर संघर्ष करना सिखाया है, तो उसके विकास में उसका हाथ भी बंटाया है। सूर्य का प्रकाश संसार के लिए है, नदियां अपना जल नहीं पीतीं, वृक्ष अपना फल नहीं खाते। यह स्वार्थी मनुष्य प्रकृति से लेने में कभी पीछे नहीं हटता और देने के लिए, वैसे भी इसके पास क्या है।

लेकिन जब से इसने प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ना शुरू कर दिया है, जंगल साफ कर दिए, और खेतों पर कंक्रीट जंगल खड़े कर दिए, जिन पहाड़ों ने इसे बारिश दी, सुहाना मौसम दिया, वहां अपने सैर सपाटे के लिए आलीशान भवन और होटलें खोल लीं। अब वह पहाड़ों पर चढ़ता नहीं, हेलीकॉप्टर में उड़कर पहुंचता है। ।

अपनी गोद में खेलने वाले बालक का यह उत्पात अब वसुधा से बर्दाश्त नहीं होता। यह नादान जिस पेड़ पर बैठा है, उसी को काट रहा है। विकास के नाम पर विनाश का तांडव रच रहा है जिसमें वहां का बेचारा आम रहवासी पिसा जा रहा है।

अपनी सरकार बचाने के लिए जब गरीबों के घरों पर बुलडोजर चला, अवैध खनन के बल पर बड़े बड़े ट्रेडिंग सेंटर और मॉल खड़े होंगे, तो आसमान भी रोएगा और धरती भी खसकेगी। विकास की अंधाधुंध आंधी के कारण पहाड़ भी बर्फ की तरह पिघलने लगेंगे। इस तबाही को अब कौन रोक पाएगा। ।

बुलडोजर कुदरत का हो अथवा सरकार का, पिसना तो आम आदमी को ही है। हम तो शायद प्रायश्चित करने से रहे, शायद प्रकृति का भी प्रायश्चित करने का यही तरीका हो। वह पहले चेताती है और बाद में कहर ढहाती है। हमें स्वयं संज्ञान लेते हुए ईश्वर से प्रार्थना करना चाहिए, पीड़ितों का दर्द भी प्रकृति का ही दर्द है।

ॐ शांति ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 129 ⇒ सफेद झूठ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सफेद झूठ”।)  

? अभी अभी # 129 ⇒ सफेद झूठ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

 

क्या सच और झूठ को भी रंग से पहचाना जा सकता है, पानी का तो कोई रंग नहीं होता, इसीलिए दूध में पानी मिलाया जाता है। अगर झूठ भी सफेद रंग का हुआ, तो उसमें भी मिलावट की संभावना है।

अगर झूठ में भी मिलावट होने लगी तो फिर सच का तो भगवान ही मालिक है, यकीन मानिए, आपको खाने को कभी असली जहर भी नसीब नहीं होगा।

लहू का रंग एक है, अमीर क्या गरीब क्या, तो सुना था, रात के अंधेरे में भी आसानी से पहचान लिया जाए, वह सफेद झूठ ! चलो जी, यह भी मान लिया, तो फिर सच की भी तो कुछ पहचान होगी। सच सच बता, सच ! तेरा रंग कैसा ?

सच में मिलावट कोई बर्दाश्त नहीं करता। असली घी, खरा सोना, और तराशा हुआ हीरा होता है सच, सच का कोई रंग नहीं होता, सच, सोलहों आने सच होता है।।

अगर आपकी जेब में सिर्फ चार आने हैं, तो आप कितना सच खरीद पाएंगे। आने कब, दशमलव में नये पैसे हो गए, पैसा काला और सफेद धन हो गया, सबसे बड़ा रुपया हो गया और पैसा भी बाजार से गायब हो गया। जी हां, और यही सच है कि सच भी सोलहों आने सच, बाजार से आने और नये पैसे की तरह चलन से बाहर हो गया।

अब सभी ओर सफेद झूठ का कारोबार जोर शोर से चल रहा है। हम तो नहीं कहते लेकिन दुनिया तो कहती है, झूठे का बोलबाला, सच्चे का मुंह काला। इधर सच को अपनी सूरत दिखाने में भी शर्म आ रही है और उधर सफेद झूठ दिन में दस बार सर्फ से धुले साफ सफेद कपड़े पहनकर रोड शो कर रहा है।।

सच और झूठ दोनों का कारोबार चल रहा है। अब सच ने सफेद धन का चोला पहन लिया है और झूठ ने काले धन का। एक नंबर को हमने सच मान लिया है और दो नंबर को दस नंबरी। एक नंबर वाला दूध से धुला है, और दो नंबरी काला बाजारी।

चारों ओर काले धन और सफेद झूठ की जुगलबंदी चल रही है। कड़वा सच कहीं खामोश सिसकियों और आक्रोश में अपना दम तोड़ रहा है। सच की रोशनी से भी कहीं सफेद झूठ की आँखें चौंधियाई हैं ! लगता है सच को ही मोतियाबिंद हो गया है और आँखों के डॉक्टर ने भी feko सर्जरी के पश्चात् जो लैंस लगाया है, उससे भी अब सफेद झूठ ही नजर आ रहा है। सच में कहां आ गए हैं हम लोग।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #196 ☆ ख्वाब : बहुत लाजवाब ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख्वाब : बहुत लाजवाब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 196 ☆

ख्वाब : बहुत लाजवाब 

‘जो नहीं है हमारे पास/ वो ख्वाब है/ पर जो है हमारे पास/ वो लाजवाब है’ शाश्वत् सत्य है, परंतु मानव उसके पीछे भागता है, जो उसके पास नहीं है। वह उसके प्रति उपेक्षा भाव दर्शाता है, जो उसके पास है। यही है दु:खों का मूल कारण और यही त्रासदी है जीवन की। इंसान अपने दु:खों से नहीं, दूसरे के सुखों से अधिक दु:खी व परेशान रहता है।

मानव की इच्छाएं अनंत है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती चली जाती हैं और सीमित साधनों से असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। इसलिए वह आजीवन इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और सुक़ून भरी ज़िंदगी नहीं जी पाता। सो! उन पर अंकुश लगाना अनिवार्य है। मानव ख्वाबों की दुनिया में जीता है अर्थात् सपनों को संजोए रहता है। सपने देखना तो अच्छा है, परंतु तनावग्रस्त  रहना जीने की ललक पर ग्रहण लगा देता है। खुली आंखों से देखे गए सपने मानव को प्रेरित करते हैं करते हैं, उल्लसित करते हैं और वह उन्हें साकार रूप प्रदान करने में अपना सर्वस्व झोंक देता है। उस स्थिति में वह आशान्वित रहता है और एक अंतराल के पश्चात् अपने लक्ष्य की पूर्ति कर लेता है।

परंतु चंद लोग ऐसी स्थिति में निराशा का दामन थाम लेते हैं और अपने भाग्य को कोसते हुए अवसाद की स्थिति में पहुंच जाते हैं और उन्हें यह संसार दु:खालय प्रतीत होता है। दूसरों को देखकर वे उसके प्रति भी ईर्ष्या भाव दर्शाते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें अभावों से नहीं; दूसरों के सुखों को देख कर दु:ख होता है–अंतत: यही उनकी नियति बन जाती है।

अक्सर मानव भूल जाता है कि वह खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ जाना है। यह संसार मिथ्या और  मानव शरीर नश्वर है और सब कुछ यहीं रह जाना है। मानव को चौरासी लाख योनियों के पश्चात् यह अनमोल जीवन प्राप्त होता है, ताकि वह भजन सिमरन करके अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सके। परंतु वह राग-द्वेष व स्व-पर में अपना जीवन नष्ट कर देता है और अंतकाल खाली हाथ जहान से रुख़्सत हो जाता है। ‘यह किराये का मकान है/ कौन कब तक रह पाएगा’ और ‘यह दुनिया है एक मेला/ हर इंसान यहाँ है अकेला’ स्वरचित गीतों की ये पंक्तियाँ एकांत में रहने की सीख देती हैं। जो स्व में स्थित होकर जीना सीख जाता है, भवसागर से पार उतर जाता है, अन्यथा वह आवागमन के चक्कर में उलझा रहता है।

जो हमारे पास है; लाजवाब है, परंतु बावरा इंसान इस तथ्य से सदैव अनजान रहता है, क्योंकि उसमें आत्म-संतोष का अभाव रहता है। जो भी मिला है, हमें उसमें संतोष रखना चाहिए। संतोष सबसे बड़ा धन है और असंतोष सब रोगों  का मूल है। इसलिए संतजन यही कहते हैं कि जो आपको मिला है, उसकी सूची बनाएं और सोचें कि कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास उन वस्तुओं का भी अभाव है; तो आपको आभास होगा कि आप कितने समृद्ध हैं। आपके शब्द-कोश  में शिकायतें कम हो जाएंगी और उसके स्थान पर शुक्रिया का भाव उपजेगा। यह जीवन जीने की कला है। हमें शिकायत स्वयं से करनी चाहिए, ना कि दूसरों से, बल्कि जो मिला है उसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। जो मानव आत्मकेंद्रित होता है, उसमें आत्म-संतोष का भाव जन्म लेता है और वह विजय का सेहरा दूसरों के सिर पर बाँध देता है।

गुलज़ार के शब्दों में ‘हालात ही सिखा देते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह होता है।’

हमारी मन:स्थितियाँ परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती रहती हैं। यदि समय अनुकूल होता है, तो पराए भी अपने और दुश्मन दोस्त बन जाते हैं और विपरीत परिस्थितियों में अपने भी शत्रु का क़िरदारर निभाते हैं। आज के दौर में तो अपने ही अपनों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, उन्हें तक़लीफ़ पहुंचाते हैं। इसलिए उनसे सावधान रहना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए जीवन में विवाद नहीं, संवाद में विश्वास रखिए; सब आपके प्रिय बने रहेंगे। जीवन मे ं इच्छाओं की पूर्ति के लिए ज्ञान व कर्म में सामंजस्य रखना आवश्यक है, अन्यथा जीवन कुरुक्षेत्र बन जाएगा।

सो! हमें जीवन में स्नेह, प्यार, त्याग व समर्पण भाव को बनाए रखना आवश्यक है, ताकि जीवन में समन्वय बना रहे अर्थात् जहाँ समर्पण होता है, रामायण होती है और जहाल इच्छाओं की लंबी फेहरिस्त होती है, महाभारत होता है। हमें जीवन में चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। स्व-पर, राग-द्वेष, अपेक्षा-उपेक्षा व सुख-दु:ख के भाव से ऊपर उठना चाहिए; सबकी भावनाओं को सम्मान देना चाहिए और उस मालिक का शुक्रिया अदा करना चाहिए। उसने हमें इतनी नेमतें दी हैं। ऑक्सीजन हमें मुफ्त में मिलती है, इसकी अनुपलब्धता का मूल्य तो हमें कोरोना काल में ज्ञात हो गया था। हमारी आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती हैं, परंतु इच्छाएं नहीं। इसलिए हमें स्वार्थ को तजकर,जो हमें मिला है, उसमें संतोष रखना चाहिए और निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। हमें फल की इच्छा कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जो हमारे प्रारब्ध में है, अवश्य मिलकर रहता है। अंत में अपने स्वरचित गा त की पंक्तियों से समय पल-पल रंग बदलता/ सुख-दु:ख आते-जाते रहते है/ भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह सफलता का मूलमंत्र रे। जो इंसान स्वयं पर भरोसा रखता है, वह सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। इसलिए इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि जो नहीं है, वह ख़्वाब है;  जो मिला है, लाजवाब है। परंतु जो नहीं मिला, उस सपने को साकार करने में जी-जान से जुट जाएं, निरंतर कर्मरत रहें, कभी पराजय स्वीकार न करें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 127 ⇒ टूथपेस्ट… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “टूथपेस्ट”।)  

? अभी अभी # 127 ⇒ टूथपेस्ट ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

अब कौन इसे दातून कहता है । बच्चों, पेस्ट किया कि नहीं,चलो चाय दूध पी लो । उधर सोते हुए पतिदेव को उठाने के लिए टूथब्रश में पेस्ट तैयार लगाकर रखना पड़ता है, उठिए, लीजिए, पेस्ट कीजिए, कुल्ला कीजिए, पानी पीजिए, आपकी चाय तैयार है, ऐसे आलसी पतिदेव कभी हुआ करते थे, आजकल तो कुछ घरों में पहली चाय पतिदेव ही बनाने लग गए हैं ।

मुझे जब खेत की बात करनी होती है, तो मैं खलिहान का जिक्र करने बैठ जाता हूं । मुझे सुबह का पेस्ट करना है, जो मैं सुबह जल्दी नहाते वक्त ही कर लिया करता हूं ।।

वह मेरा एकान्त होता है, मैं और मेरा टूथपेस्ट ! कभी वह फोरहेंस और कोलगेट हुआ करता था, आजकल दंत कांति चल रहा है । पेस्ट में कितना मंजन और कितनी हवा होती है, हम नहीं जानते । हम तो बस उसके मुंह का ढक्कन खोलते हैं, और उसकी ट्यूब को दबाकर थोड़ा सा पेस्ट, टूथब्रश पर लगा लेते हैं ।

जब यह टूथपेस्ट एकदम नया होता है, तो फूला फूला सा हृष्ट पुष्ट नजर आता है । इसे जब हम दबाते हैं,तो ट्यूब से पेस्ट बाहर आता है । तब मेरा ध्यान कहीं भी हो, मेरी नजर ट्यूब पर जाती है, जो उस जगह से थोड़ी पिचक जाती है । यह रोज दबाने और पिचकने का सिलसिला तब तक चला करता है, जब तक टूथपेस्ट अपनी अंतिम सांसें ना गिन ले ।।

मेरा नियम है कि मैं पेस्ट को बिल्कुल नीचे से पिचकाता हूं, ताकि वह ऊपर से, मुंह की ओर से पूरा फूला फूला और स्वस्थ रहे, और उसका अंतिम छोर रोजाना पिचकते पिचकते सिकुड़ता रहे,छोटा होता रहे । लेकिन मेरे बाद जिसके हाथ में भी वह पेस्ट आता है,वह उसे कहीं से भी दबाकर पेस्ट निकाल लेता है, और टूथपेस्ट की शक्ल बिगड़ जाती है ।

इसका पता मुझे दूसरे दिन सुबह चलता है, जब मैं पेस्ट करने बैठता हूं । मुझे बड़ा बुरा लगता है, किसी ने मेरे टूथपेस्ट का हुलिया बिगाड़ दिया है । मैं फिर पेस्ट को अंतिम सिरे से दबा दबाकर उसे फुलाकर आगे से मोटा करता हूं । इस तरह मुझे मेरा टूथपेस्ट, शेप में नजर आता है ।।

लेकिन दूसरे दिन वह बेचारा जिसके भी हाथ लगता है, उसका वही हश्र होता है । मैं उसे उपयोग करते हुए भी उसे एक शेप में रखना चाहता हूं, और लोग हैं, जो उसे कहीं से भी पिचकाकर उसका हुलिया बिगाड़ देते हैं । मेरी नजर में यह टूथपेस्ट का शोषण है, पेस्ट की शक्ल तो मुझे यहीं बयां करती है ।

दैनिक उपयोगी वस्तुओं के साथ भी हमारा एक रिश्ता होता है । हमें रिश्तों को सम्मान देना चाहिए । जोर जोर से बर्तनों को पटकना उन्हें आहत भी कर सकता है । उनका रखरखाव भी बच्चों की तरह ही होना चाहिए क्योंकि वे भी बेजुबान और बेजान हैं ।

वॉशबेसिन में जो लोग ब्रश करते हैं, वे लापरवाही से पूरा नल खुला छोड़कर ब्रश करते रहते हैं । कोई उन्हें नहीं देख रहा है, क्योंकि वे ही नहीं देख पा रहे हैं, वे क्या कर रहे हैं, किसका हक छीन रहे हैं ,जल का दुरुपयोग ही नहीं, अपमान भी कर रहे हैं ।।

जो लोग व्यवस्थित और सुरूचिपूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं, उनमें एक एस्थेटिक सेंस होता है, जो उनके रहन सहन और व्यवहार से प्रकट हो जाता है । घर की सब चीज करीने से रखी हुई । कार हो, साइकिल हो या टू व्हीलर, साफ सुथरी, हमेशा अच्छी हालत में । जिसे बोलचाल की भाषा में टीप टॉप कहते हैं ।

अगली बार जब आप सुबह ब्रश करें, तो जरा पेस्ट पर भी नजर डाल लें । अगर वह आगे से पिचका हुआ है, तो वह बेशैप है, उसमें सिरे की ओर से थोड़ी हवा भरें, वह आगे से फूल जाएगा और पीछे से पिचक जाएगा । आपको सुकून मिले ना मिले,पेस्ट को जरूर अच्छा लगेगा ।

हमें अपने पिचके गाल कितने बुरे लगते हैं, टूथपेस्ट की नियति भी पिचकने की ही है, वह भी जानता है, वह यूज और थ्रो के लिए ही बना हुआ है, उसे अपनी छोटी सी जिंदगी सम्मान से जीने दें । उसे एक अच्छी शक्ल दें, वह वाकई मुस्कुराएगा, शायद आपको दुआ भी दे ; “आपके दांत मोतियों जैसे चमकते रहें ।।”

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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