हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #209 ☆ दर्द, समस्या व प्रार्थना ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दर्द, समस्या व प्रार्थना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 209 ☆

☆ दर्द, समस्या व प्रार्थना ☆

‘दर्द एक संकेत है ज़िंदा रहने का; समस्या एक संकेत है कि आप मज़बूत हैं और प्रार्थना एक संकेत है कि आप अकेले नहीं हैं। परंतु कभी-कभी मज़बूत हाथों से पकड़ी हुई अंगुलियां भी छूट जाती हैं,क्योंकि रिश्ते ताकत से नहीं; दिल से निभाए जाते हैं,’ गुलज़ार का यह कथन अत्यंत चिंतनीय है,विचारणीय है। जीवन संघर्ष व निरंतर चलने का नाम है। परंतु वह रास्ता सीधा-सपाट नहीं होता; उसमें अनगिनत बाधाएं,विपत्तियां व आपदाएं आती-जाती रहती हैं; जिनका सामना मानव को दिन-प्रतिदिन जीवन में करना पड़ता है। अक्सर वे हमें विषाद रूपी सागर के अथाह जल में डुबो जाती हैं और मानव दर्द से कराह उठता है। वास्तव में दु:ख,पीड़ा व दर्द हमारे जीवन के अकाट्य अंग हैं तथा वे हमें एहसास दिलाते हैं कि आप ज़िंदा हैं। समस्याएं हमें संकेत देती हैं कि आप साहसी,दृढ़-प्रतिज्ञ व मज़बूत हैं और अपना सहारा स्वयं बन सकते हैं। वे हमें लीक पर न चलने को प्रेरित करती हैं और टैगोर के ‘एकला चलो रे’ की राह को अपनाने का संदेश देती हैं,जो आपके आत्मविश्वास को परिभाषित करता है। परंतु जब मानव भयंकर तूफ़ानों में घिर जाता है और जीवन में सुनामी दस्तक देता है; उसे केवल प्रभु का आश्रय ही नज़र आता है। उस स्थिति में मानव उससे ग़ुहार लगाता है और उसके आर्त्त हृदय की पुकार प्रार्थी के नतमस्तक होने से पूर्व ही प्रभु तक पहुंच जाती है तो उसे आभास ही नहीं; पूर्ण विश्वास हो जाता है कि वह अकेला नहीं है; सृष्टि-नियंता उसके साथ है। उसके अंतर्मन में यह भाव दृढ़ हो जाता है कि अब उसे चिंता करने की दरक़ार नहीं है।

‘अपनों को ही गिरा दिया करते हैं कुछ लोग/ ख़ुद को ग़ैरों की नज़रों में उठाने के लिए।’ यह आज के युग का कटु सत्य है,क्योंकि प्रतिस्पर्द्धा की भावना के कारण प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को पछाड़ कर आगे निकल जाना चाहता है और उसके लिए वह अनचाहे व ग़लत रास्ते अपनाने में तनिक भी संकोच नहीं करता। आजकल लोग अपनों को गिराने व ख़ुद को दूसरों की नज़रों में श्रेष्ठ कहलाने के निमित्त सदैव सक्रिय रहते हैं। इस स्थिति में मज़बूती से पकड़ी हुई अंगुलियां भी अक्सर छूट जाती हैं और इंसान ठगा-सा रह जाता है,क्योंकि रिश्तों का संबंध दिल से होता है और वे ताकत व ज़बरदस्ती नहीं निभाए जा सकते। पहले रिश्ते पावन होते थे और विश्वास पर आधारित होते थे। इंसान अपने वचनों का पक्का था,जैसाकि रामचरित मानस में तुलसीदास जी कहते हैं, ‘रघुकुल रीति सदा चली आयी/ प्राण जायें, पर वचन ना जाय।’ लोग वचन-पालन व दायित्व-निर्वहन हेतू प्राणों की आहुति तक दे दिया करते थे,क्योंकि वे निःस्वार्थ भाव से रिश्तों को गुनते-बुनते व सहेजते-संजोते थे। इसलिए वे संबंध अटूट होते थे; कभी टूटते नहीं थे। परंतु आजकल तो रिश्ते कांच के टुकड़ों की भांति पलभर में दरक़ जाते हैं,क्योंकि अपने ही,अपने बनकर,अपनों की पीठ में छुरा भोंकते हैं।

‘चुपचाप सहते रहो तो आप अच्छे हैं और अगर बोल पड़ो तो आप से बुरा कोई नहीं है।’ यही सत्य है जीवन का– इंसान को भी संबंधों को सजीव बनाए रखने के लिए अक्सर औरत की भांति हर स्थिति में ‘कहना नहीं, चुप रहकर सब सहना पड़ता है।’ यदि आपने ज़ुबान खोली तो आप सबसे बुरे हैं और वर्षों से चले आ रहे संबंध उसी पल दरक़ जाते हैं। उस स्थिति में आप संसार के सबसे बुरे अथवा निकृष्ट प्राणी बन जाते हैं। वैसे हर रिश्ते की अलग-अलग सीमाएं व मर्यादा होती है। परंतु यदि बात आत्मसम्मान की हो तो उसे समाप्त कर देना ही बेहतर व कारग़र होता है। वैसे समझौता करना अच्छा है,उपयोगी व श्रेयस्कर है,परंतु आत्म-सम्मान की कीमत पर नहीं। इसलिए कहा जाता है कि ‘दरवाज़े छोटे ही रहने दो अपने मकान के/ जो झुक कर आ गया,वही अपना है।’ दूसरे शब्दों में जो व्यक्ति विनम्र होता है, जिसमें अहं लेशमात्र भी नहीं होता; वास्तव में वही विश्वसनीय होता है। यह अकाट्य सत्य है कि ‘अहं की बस एक ही खराबी है; वह आपको कभी महसूस नहीं होने देता कि आप ग़लत हैं।’ सो! आप औचित्य-अनौचित्य का चिंतन किए बिना अपनी धुन में निरंतर मनचाहा करते जाते हैं, जिसका परिणाम बहुत भयावह होता है।

‘यूं ही नहीं आती खूबसूरती रिश्तों में/ अलग-अलग विचारों को एक होना पड़ता है’ अर्थात् सामंजस्य करना पड़ता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘अपनी ऊंचाई पर कभी घमंड ना करना ऐ दोस्त!/ सुना है बादलों को भी पानी ज़मीन से उठाना पड़ता है।’ जब दोनों पक्षों में स्नेह,प्यार व सम्मान का भाव सर्वोपरि होगा; तभी रिश्ते पनप सकेंगे और स्थायित्व ग्रहण कर सकेंगे। केवल रक्त-संबंध से कोई अपना नहीं होता– प्रेम,सहयोग,विश्वास व सम्मान भाव से आप दूसरों को अपना बनाने का सामर्थ्य रखते हैं। नाराज़गी यदि कम हो तो संबंध दूर तक साथ चलते हैं। सो! रिश्तों में अपनत्व भाव अपेक्षित है। जीवन में हीरा परखने वाले से पीड़ा परखने वाला अधिक महत्वपूर्ण होता है,क्योंकि वह आपके दु:ख-दर्द को अनुभव कर उसके निवारण के उपाय करता है। वह हर स्थिति में आपके अंग-संग रहता है। मेरी स्वरचित पंक्तियां ‘ज़िंदगी एक जंग है/ साहसपूर्वक सामनाकीजिए/ विजयी होगे तुम/ मन को न छोटा कीजिए।’ इसलिए कहा जाता है कि ‘जो सुख में साथ दें; रिश्ते होते हैं और जो दु:ख में साथ दें; फ़रिश्ते होते हैं।’ ऐसे लोगों को सदैव अपने आसपास रखिए और संबंधों की गहराई का हुनर पेड़ों से सीखिए। ‘जड़ों में चोट लगते ही शाखाएं टूट जाती हैं।’ वास्तव में वे संबंध शाश्वत् होते हैं,जिनमें स्व-पर व राग-द्वेष के भाव का लेशमात्र भी स्थान नहीं होता; यदि चोट एक को लगती है तो अश्रु-प्रवाह दूसरे के नेत्रों से होता है।

‘अतीत में मत झाँको/ भविष्य का सपना मत देखो/ वर्तमान क्षण पर ध्यान केंद्रित करो,’ महात्मा बुद्ध की यह सोच अत्यंत सार्थक है कि केवल वर्तमान ही सत्य है और मानव को सदैव उसमें ही जीना चाहिए। परंतु शर्त यह है कि कोई कितना भी बोले; स्वयं को शांत रखें; कोई आपको कितना भी भला-बुरा कहे; आप प्रतिक्रिया मत दें, क्योंकि तेज़ धूप में सागर को सुखाने का सामर्थ्य नहीं होता बल्कि शांत रहने से सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है। ‘सो! अहं त्याग देने से मनुष्य सबका प्रिय बन जाता है– जैसे क्रोध छोड़ देने से वह शोक-रहित हो जाता है; काम का त्याग कर देने से धनवान और लोभ छोड़ देने से सुखी हो जाता है’– युधिष्ठिर के उक्त कथन में काम,क्रोध,लोभ व अहं त्याग करने की सीख दी गई है। यही जीवन का आधार है,सार है। महात्मा बुद्ध के मतानुसार ‘सबसे उत्तम तो वही है,जो स्वयं को वश में रखे और किसी भी परिस्थिति व अवसर पर कभी भी उत्तेजित न हो।’

‘संबंध जोड़ना एक कला है तो उसे निभाना साधना है।’ मानव को संबंध बनाने से पहले उसे परखना चाहिए कि वह योग्य है भी या नहीं,क्योंकि आजकल रिश्ते-नाते मतलब की पटरी पर चलने वाली रेलगाड़ी के समान हैं, जिसमें जिसका स्टेशन आता है,उतरता चला जाता है। वैसे भी सब संबंध स्वार्थ पर टिके होते हैं; जिनमें विश्वास का अभाव होता है। इसलिए जब विश्वास जुड़ता है तो पराये भी अपने हो जाते हैं और जब विश्वास टूटता है तो अपने भी पराये हो जाते हैं। परंतु इसकी समझ मानव को उचित समय पर नहीं आती; ख़ुद पर बीत जाने से अर्थात् अपने अनुभव से आती है।

‘जीवन में कभी किसी से इतनी नफ़रत मत करना कि उसकी अच्छी बात भी आपको ग़लत लगे और किसी से इतना प्यार भी मत करना कि उसकी ग़लत बात भी अच्छी व सही लगने लगे।’ इसलिए रिश्तों का ग़लत इस्तेमाल करना श्रेयस्कर नहीं है। रिश्ते तो बहुत मिल जाएंगे,परंतु अच्छे लोग ज़िंदगी में बार-बार नहीं आएंगे और ऐसे संबंधों की क्षतिपूर्ति किसी प्रकार भी नहीं की जा सकती। अपनों से बिछुड़ने का दु:ख असह्य होता है। इसलिए मानव को दृढ़-प्रतिज्ञ होना चाहिए तथा आपदाओं का डटकर सामना करना चाहिए। उसे स्वयं को कभी अकेला नहीं अनुभव करना चाहिए,क्योंकि सृष्टि-नियंता हमसे बेहतर जानता है कि हमारा हित किसमें है? इसलिए वह हम-साये की भांति पल-पल हमारे साथ रहता है। सो! दु:ख में मानव को चातक सम प्रभु को पुकारना चाहिए। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित विभिन्न गीतों की ये पंक्तियां ‘मन चातक तोहे पुकार रहा/ हर पल तेरी राह निहार रहा/ अब तो तुम आओ प्रभुवर!/ अंतर प्यास ग़ुहार रहा’ और ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहां है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जायेगा।’ परमात्मा सदैव हमारे अंग-संग रहते हैं; चाहे सारी दुनिया हमारा साथ छोड़ जाए। इसलिए मानव को सदैव प्रभु में अटूट व अथाह विश्वास रखना चाहिए– ‘मोहे तो एक भरोसो राम/ मन बावरा पुकारे सुबहोशाम।’

अंत में ‘संभाल के रखी हुई चीज़ और ध्यान से सुनी हुई बात कभी भी काम आ ही जाती है और सुन लेने से कितने ही सवाल सुलझ जाते हैं और सुना देने से हम फिर वहीं उलझ कर रह जाते हैं।’ वैसे हम भी वही होते हैं; रिश्ते भी वही होते हैं और रास्ते भी वही होते हैं– बदलता है तो बस समय,एहसास और नज़रिया। रिश्तों की सिलाई अगर भावनाओं से हुई हो तो टूटना मुश्किल है; अगर स्वार्थ से हुई है तो टिकना मुश्किल है। इसलिए मानव को संवेदनशील व आत्मविश्वासी होना चाहिए और दु:ख के समय पर आपदाओं से घबराना नहीं चाहिए, क्योंकि वह दुनिया का मालिक सदैव उसके साथ रहता है। समस्याओं के दस्तक देते ही मानव दु:ख-दर्द से आकुल-व्याकुल हो जाता है और उसे कोई भी राह दृष्टिगोचर नहीं होती। ऐसी स्थिति में वह प्रभु से प्रार्थना करता व ग़ुहार लगाता है,जो उसके नत-मस्तक होने से पूर्व पलभर में उस तक पहुंच जाती है और उसके कष्टों का निवारण हो जाता है। ‘यह दुनिया है रंग-बिरंगी/ मोहे लागै है ये चंगी’ और अंतकाल में वह ‘मोहे तो प्रभु मिलन की आस/ बार-बार तोहे अरज़ लगाऊँ/ कब दर्शन दोगे नाथ’ की तमन्ना लिए वह मिथ्या संसार से रुख्सत हो जाता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 217 ⇒ हरा चना (छोड़)… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हरा चना (छोड़)।)

?अभी अभी # 217 हरा चना (छोड़)? श्री प्रदीप शर्मा  ?

green chickpeas

हम यहां नाकों चने चबाने की नहीं, हरे चने की बात कर रहे हैं। हरे चने को छोड़ भी कहा जाता है। जिसे किसी ने रोका नहीं, फिर भी जिसे कोई छोड़ने को तैयार नहीं, उसे छोड़ कहते हैं।

मालव धरती तो खैर गहन गंभीर है ही, कभी यहां गेहूं चने की फसल साथ साथ लहराती रहती थी। जिस तरह पैसे पेड़ पर नहीं उगते, चने का भी कोई झाड़ नहीं होता। गेहूं की फसल को नुकसान पहुंचाए बिना भी हम खेत से गन्ने और छोड़ तोड़ लाते थे। चोरी करना पाप है, लेकिन अगर पकड़े ही नहीं गए, तो काहे की चोरी और कैसा पाप, माई बाप।।

छोड़िए, आप तो छोड़ पर आइए ! गेहूं की तरह चने का भी हरा भरा खेत होता है। हमारे एक अनजान गीतकार के सुपुत्र समीर ने तो चने के खेत पर एक गीत भी लिख डाला है। लेकिन हमें गीत नहीं, खेत में उगने वाले छोड़ पसंद हैं। ज्यादा ऊंचे कद का नहीं होता चने का खेत, आराम से उखाड़िए, और छोड़ के दाने छील छीलकर खाइए। यकीन मानिए, गाने से अधिक नमकीन स्वाद होता है, छोड़ के दानों में।।

मकर संक्रांति के पर्व पर बाजार से ढेर सारे छोड़ लाते थे, छोड़ खुद भी खाते थे और पशुओं को भी खिलाते थे। इंसान वार त्योहार पर माल पकवान बनाता है और बेचारे चौपाये सिर्फ चारा ही खाएं, यह ठीक नहीं। मां छोड़ के दाने नहीं निकालने देती थी, कहती थी, जो गाय के लिए है, उसे हाथ मत लगाओ। तुम्हारे लिए अलग छोड़ रखे हैं। कुछ खा लो, बचे हुओं की छोड़ की सब्जी बना लेंगे।

गेहूं की तरह, चने की भी फसल धूप में पकती है।

सूखने पर, अगर गेहूं की रोटी बनती है, तो चने की भी दाल दलती है। चने की दली हुई दाल बेसन कहलाती है। छोड़िए, अब हम गलती से इंदौर के नमकीन पर आ गए हैं।

जब यही हरे भरे छोड़, हौले हौले से, गर्गागर्म तगारी में, मूंगफली की तरह सेंके जाते हैं, तो होले कहलाते हैं। इनका ऊपर का छिलका गर्म होकर काला हो जाता है, जिसे छीलकर होला खाया जाता है। हाथ भले ही काला, लेकिन मुंह में उस भुने हुए होले का स्वाद आज शायद ही कहीं शहर की सड़कों पर नसीब हो।।

चने हरे हों, या सूखे, ये पौष्टिकता और फाइबर से भरपूर होते हैं। चना वैसे भी, लंबी रेस के घोड़े का प्रिय भोजन है। देसी चने अगर छोटे होते हैं तो बड़े डॉलर चना कहलाते हैं।

छोले भटूरे कौन स्वाद से नहीं खाता। एक अलग ही दुनिया है दलहन की। प्रभु के गुण गाने के लिए तो दाल रोटी ही खाई जाती है, पिज्जा बर्गर और चाउमीन नहीं।

छोड़कर तेरे स्वाद का दामन,

ये बता दे, हम किधर जाएं ;

आप भी छोड़िए मत इस छोड़ को। फिर मत कहना, बताया नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 215 ⇒ हार और उपहार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हार और उपहार”।)

?अभी अभी # 215 ⇒ हार और उपहार… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

यूं तो इंसान खाली हाथ आता है, और खाली हाथ जाता है, लेकिन इस जीवन में बहुत कुछ कमाता भी है, और नेकी और अच्छाई ही गिरह में बांधकर ले जाना चाहता है। हमारे जन्मदिन भी आते हैं। पूरे परिवार, और मित्र स्नेहियों के रिश्ते हम अपने गिरह में समेटे रखते हैं। उनमें शादी की सालगिरह भी शामिल होती है।

आज मेरी शादी की सालगिरह है। इस गिरह में अब तक हमने ५० वर्ष सहेजे हैं और इक्कानवें में कदम रख रहे हैं। इस बार शादी की सालगिरह पर पत्नी ने मुझसे उपहार स्वरूप सोने का हार मांगा है। मेरी गिरह में इतना पैसा नहीं है, वह भी जानती है, लेकिन सोना एक ऐसी चीज है, जिससे किसी का पेट नहीं भरता। जितना सोना, उतनी अधिक भूख।

देव उठ गए हैं ! शादियों का मौसम है। ज्वैलर्स की चांदी है। जितनी कभी शहर में पान की दुकानें होती थीं, उतनी आज ज्वैलर्स की दुकानें हो गई हैं।।

मेरा शहर भी अजीब है ! लोग यहां सराफा आभूषण खरीदने नहीं, चाट और पकवान खाने जाते हैं। सही भी है ! सोना चांदी भूख बढ़ा भी देते हैं। जो भला आदमी, आभूषण नहीं खरीद सकता, वह सराफा की चाट तो खा ही सकता है।

मंदी और तेजी दो विरोधाभासी शब्द है। मंदी में कीमतें कम नहीं होती, व्यापारी की ग्राहकी कम हो जाती है। जैसे जैसे बाज़ार में मंदी बढ़ती जाती है, भावों में तेजी और ग्राहकी एक साथ बढ़ने लगती है। जितनी भीड़ कभी पान की दुकान पर लगती थी, उतनी आज एक ज्वैलर की दुकान पर देखी जा सकती है।।

उपहार में पत्नी को हार देने की समस्या का समाधान भी पत्नी ने ही कर दिया। उसके एक कान का भारी भरकम बाला कहीं गुम गया। मैं उस वक्त शहर में नहीं था, इसलिए ढूंढो ढूंढो रे साजना, मेरे कान का बाला, जैसी परिस्थिति से बच गया।

महिलाओं के बारे में एक भ्रम है कि उनके पेट में कोई बात नहीं पचती। मैं इससे असहमत हूं। कई बार ऐसे मौके आए हैं, जब अप्रिय प्रसंगों को पत्नी ने मुझसे छुपाया है। आप इसके दो अर्थ लगा सकते हैं ! एक, वह मुझे दुखी नहीं देखना चाहती। दो, वह मुझसे डरती है। मुझे कान के बाले के गुमने की कानों कान खबर भी नहीं होती, अगर मैं उसे यह नहीं कहता, वे कान के बालेे कहां हैं, जो मैंने तुम्हें 25 वीं सालगिरह पर दिलवाए थे।।

कुछ बहाने बनाए गए, काम की अधिकता का बखान किया गया, लेकिन जब बात न बनी, तब राज़ खुला, कि अब दो नहीं, एक ही कान का बाला अस्तित्व में है। उसे लगा, अब सर पर पहाड़ टूटने वाला है। मुझे उल्टे

खुश देखकर उसे आश्चर्य भी हुआ। क्यों न, इस एक बाले के बदले में एक गले का हार ले लिया जाए इस सालगिरह पर, मैंने सुझाव दिया।

नेकी और पूछ पूछ ! उसके चेहरे के भावों को मैंने पढ़ लिया। तुरंत ज्वेलर से संपर्क साधा गया। बीस प्रतिशत के नुक़सान पर वह बाला बेचा गया, और एक अच्छी रकम और मिलाने पर उपहार स्वरूप एक हार क्रय कर लिया गया।।

उपहार में दिए हार को हम गले में धारण कर सकते हैं, जीवन में मिली हार को हम गले लगाने से कतराते हैं। हमें हमेशा जीत ही उपहार में चाहिए, हार नहीं। ऐसा क्यों है, जीत को सम्मान, हारे को हरि नाम।

सुख दुख, सफलता असफलता को गले लगाना ही हारे को हरि नाम है। शादी की सालगिरह पर उपहार का हार भी एक सकारात्मक संदेश दे सकता है, कभी सोचा न था।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 214 ⇒ पहलवान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पहलवान…।)

?अभी अभी # 214 ⇒ पहलवान… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पहलवान धनवान भले ही ना होता हो, बलवान ज़रूर होता है। बिना पहल किए, कोई पहलवान नहीं बन सकता। वर्जिश और मालिश ही एक इंसान को पहलवान बनाती है। बाहर भले ही वह एक साधारण इंसान नजर आता हो, अखाड़े में वह भगवान होता है। जहां स्वर्ग है वहां भगवान है। जहां अखाड़ा है, वहां पहलवान है।

एक बार धनवान बनना आसान है, लेकिन पहलवान नहीं ! एक लॉटरी का टिकट, बाप दादा की वसीयत अथवा चार चार ऑप्शन, लाइफ लाइन और भाग्य के भरोसे, आप के बी सी के करोड़पति भी भले ही बन जाएं, लेकिन पहलवान बनने के लिए आपको कस कर कसरत तो करनी ही पड़ती है। किसी उस्ताद को गुरु बनाना पड़ता है, गंडा बांधना पड़ता है, अखाड़े की मिट्टी को सर से लगाना पड़ता है। बदन को तेल पिलाना पड़ता है, दंड बैठक लगानी पड़ती है।।

केवल रुस्तमे हिंद दारासिंह एक ऐसे पहलवान निकले जिन्होंने अभिनय के क्षेत्र में भी अपने दांव आजमाए। मुमताज जैसी अभिनेत्री के पर्दे पर नायक बने। कुछ भक्तों को जब हनुमान जी दर्शन देते हैं तो बिल्कुल दारासिंह नजर आते हैं और अरुण गोविल, प्रभु श्रीराम।

अखाड़े में राजनीति के दांव पेंच काम नहीं आते। पहलवानों की कुश्ती में राजनीतिज्ञों की तरह कसम, वादे और नारों से काम नहीं बनता। यहां जनता को मोहरा नहीं बनाया जाता। यहां दर्शक सिर्फ आपका हौंसला बढ़ाते हैं, ज़ोर आजमाइश तो आपको ही करनी पड़ती है। वोट की भीख, और जोड़ तोड़ से कुश्ती नहीं जीती जाती, यहां दांव लगाए जाते हैं, सामने वाले के पेंच ढीले किए जाते है। कुश्ती का फैसला अखाड़े में ही होता है, इसका कोई एक्जिट पोल नहीं होता।

राजनीति की तरह अखाड़े में भी झंडा और डंडा होता है। लेकिन झंडा अखाड़े की पताका होता है, उस्ताद के नाम से अखाड़े का नाम होता है। डमरू उस्ताद, छोगालाल उस्ताद, रुस्तम सिंह और झंडा सिंह की व्यायामशालाएं होती हैं, जहां किसी गुरुकुल की तरह ही पहलवानी की शिक्षा दीक्षा प्रदान की जाती है।।

पहलवान कभी घुटने नहीं टेकते। लेकिन यह भी सच है कि उम्र के साथ साथ जैसे जैसे वर्जिश कम होती जाती है, घुटने जवाब देने लग जाते है। कहा जाता है कि पहलवान का दिमाग घुटने में होता है लेकिन किसी भी रेडियोलॉजिकल जांच में इसका कोई प्रमाण आज तक उपलब्ध नहीं हो पाया है इसलिए किसी पहलवान के सामने ऐसी बे सिर पैर की बातें नहीं करनी, चाहिए, अन्यथा आपका दिमाग और घुटना एक होने का अंदेशा ज़रूर हो सकता है। वैसे भी राजनीतिज्ञों की तरह सातवें आसमान में रखने से अच्छा है, दिमाग को घुटने में ही रखा जाए। पांच साल में एक बार तो ये नेता भी जनता के सामने घुटनों के बल चलकर ही आते हैं।

कुछ पहलवान मालिश से हड्डी और मांसपेशियों के दर्द का इलाज भी करते हैं। इनका तेल, मलहम और सधी हुई उंगलियों की मालिश से मरीज को फायदा भी होता है। आम आदमी जो महंगे इलाज नहीं करवा पाता, इनकी ही शरण में जाता है। जहां दर्द से छुटकारा मिले, वही तो दवाखाना है।।

अब कहां वे अखाड़े और कहां वे पहलवान। लेकिन कुश्तियां फिर भी ज़िंदा हैं। आज की पीढ़ी भले ही जिम जाकर सिक्स पेक तैयार कर ले, ओलंपिक में तो आज भी पहलवानों का ही राज है। हो जाए इस बात पर ठंड में थोड़ी दंड बैठक ।।!!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 60 – देश-परदेश – SHARK TANK ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “SHARK TANK” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 60 ☆ देश-परदेश – SHARK TANK ☆ श्री राकेश कुमार ☆

एक वर्ष पूर्व जब इस कार्यक्रम के आने की चर्चा हुई, तो आरंभ में हमें ऐसा प्रतीत हुआ, इसमें शायद शार्क (मछली) को घर में रखे जाने वाले फिश एक्वेरियम (कांच का बड़ा डिब्बा नुमा) में रखने से संबंधित जानकारी इत्यादि पर चर्चा होगी। जब कार्यक्रम का प्रथम एपिसोड प्रसारित हुआ तब पता चला ये तो हिंदी पुस्तक “व्यापार से धन कमाने के 100 से अधिक आसान तरीके” पर आधारित कार्यक्रम है।

बचपन में हमने इस प्रकार की अनेक पुस्तकें VPP से मंगवाई थी। वो तो बाद में बच्चों ने बताया ये तो अमेरिका में प्रसारित होने वाले कार्यक्रम का हिंदी अनुवाद है। वैसे कौन बनेगा करोड़पति भी तो विदेशी कार्यक्रम की तर्ज पर बना हुआ है।

कार्यक्रम के संचालकगण देश के  युवा पीढ़ी से हैं, जो आज सफलतम व्यापारी/उद्योगपति बन कर अपने झंडे गाड़ चुके हैं। इनमें से अधिकतर उस जाति से आते हैं, जो कि सदियों से व्यापार करने में अग्रणी रहते हैं। ऐसा कहना अतिश्योक्ति होगी की सिर्फ एक विशेष जाति के लोग ही सफल व्यापारी बन सकते हैं, इस बाबत, हमारे देश में बहुत सारे अपवाद भी हैं।

सयाने लोग कहा करते थे, परिवार या पिता के व्यापार को ही पुत्र सफलता पूर्वक कर सकता है। समय के चक्र ने इस मिथ्या को काफी हद तक परिवर्तित भी कर दिया है।

जब पंद्रह वर्ष पूर्व हमारे बैंक ने बीमा से संबंधित कार्य करना आरंभ किया तो मुझे क्षेत्रीय कार्यालय में कार्यरत रहते हुए शाखा स्तर पर “बीमा विक्रय” के लिए कर्मचारियों का प्रोत्साहित करने का कार्य दिया गया था। एक वरिष्ठ अधिकारी ने ज्ञान देते हुए एक विशेष जाति के लोगों पर फोकस करने की बात कही थी। जो बाद में सही साबित हुई थी।

कहा जाता है, कुछ गुण वंशानुगत भी प्राप्त होते हैं। हमारे देश के बड़े और सफलतम उद्योगपति बहुतायत में गुजराती, पारसी और राजस्थानी समुदाय से आते हैं। इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि देश के अन्य भागों से भी कुछ सफल उद्योगपति आए हैं।

हमारे जैसे वरिष्ठ जन भी इस कार्यक्रम को देखकर ये कह सकते हैं, अन्य सास बहू पर आधारित कार्यक्रम से तो कहीं बेहतर श्रेणी का है।

कार्यक्रम भले ही विदेश की नकल है, पर अक्ल तो देसी ही काम आयेगी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 213 ⇒ एक संवाद आइने से… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)

?अभी अभी # 213 ⇒ एक संवाद आइने से… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे ! एक भोला भाला, मासूम, सफाचट चेहरा मांगे।

अब उस चेहरे पर परिपक्वता के साथ सफेद काली दाढ़ी मूंछ भी आ गई है। जिसका जो चेहरा होता है, वही स्वीकारा जाता है, आईने का इसमें क्या जाता है।।

कौन पहचानता है आज वह तस्वीरों में धुंधला सा श्वेत श्याम चेहरा, जरा आज देखिए उन चेहरों की ओर ! हर ओर विराट कोहली और केबीसी के बिग बी के चेहरों का शोर। जहां दाढ़ी नहीं, विराट नहीं, अमिताभ नहीं।

कितने चेहरों पर चढ़ गई विराट और महानायक की दाढ़ी, आइना गवाह है। किसको आज ५६ इंच के सीने का सफाचट चेहरा याद है। मोदी जी की दाढ़ी ही चेहरा है, ये इंसान आज कौन नहीं, आइकॉन है।।

इनमें से कोई नहीं कहता, चाहता, कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन। अगर आज आइना, इन्हें अपना वही पुराना चेहरा दिखाने चले, तो ये आईने को ही बदल दें। जो युग बदलना जानता है, क्या वह एक आईना नहीं बदल सकता।

इतनी जिद भी ठीक नहीं ऐ दकियानूस आइने ! अपनी औकात में रह। तू पहले खुद अपना चेहरा आईने में देख ले, तुझे कुछ भी नजर नहीं आएगा। जो चेहरे जैसे असली नकली, नकाबपोश और पर्दानशीं नजर आते हैं, उनके ही पीछे उनकी असलियत छुपी होती है।

पैसा, प्रसिद्धि और लोकेष्णा एक चेहरे पर कई चेहरे लगा देती है।

बिना शर्त और बिना किसी मांग के उनकी खुशी में तू अपनी खैर मना, क्योंकि तू है सिर्फ एक आइना।।

एक शुभचिंतक !

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 212 ⇒ गिरना – फिसलना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गिरना – फिसलना”।)

?अभी अभी # 212 ⇒ गिरना – फिसलना… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

गिरना-फिसलना, ज़िन्दगी की हक़ीक़त भी है, और अफसाना भी। ऐसा कोई शख्स नहीं, जो कभी ज़िन्दगी में गिरा अथवा फिसला नहीं। गिरों हुओं को उठाना और फिसलने वालों को संभालना ही हमारी संस्कृति है, सभ्यता है, इंसानियत है। क्या आपने सड़क पर फिसलने पर, किसी को ताली बजाते देखा है। लोग तमाशा नहीं देखते, उसे संभालने के लिए आगे आते हैं।

गिरकर उठे, उठकर चले, इस तरह तय की, हमने मंजिलें ! जब बच्चा चलना सीखता है, तो कई बार गिरता, संभलता है। गिरने पर जब रोता है, तो उसे समझाया जाता है, बहलाया जाता है, देखो, वो चींटी मर गई। हम भी ताली बजाते है, बच्चा बहल जाता है, वह भी ताली बजाने लगता है। ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव में ऐसे कई मौके आते हैं, जब हम संभल नहीं पाते। न सामने रास्ता होता है, न मंज़िल। न पांवों में ताकत होती है, न मन में लगन। ऐसे में कोई पथ -प्रदर्शक, रहबर, फरिश्ता बनकर आता है, हमें अपने दोनों हाथों से उठाता है। एक बार, फिर से चलना सिखाता है।।

क्या कभी आपको किसी के फिसलने पर हंसी आई है ! यह तब का ज़माना है, जब शहर में सड़क के किनारे कतार से छायादार वृक्ष होते थे, जिन पर पक्षी अपना बसेरा बनाते थे। शाम को हज़ारों पक्षियों की चहचहाहट से वातावरण रमणीय हो जाता था।

तब महात्मा गांधी मार्ग, शहर का मुख्य मार्ग था और इस मार्ग पर लोग गांधी हॉल तक पैदल टहलने आते थे। पूरी सड़क पर पक्षियों का पाखाना पसरा रहता था। क्योंकि पशु-पक्षियों के लिए आज भी खुले में शौच पर कोई पाबंदी नहीं है।।

ऐसे में किसी सुहानी शाम में हल्की सी बूंदाबांदी होने पर, पक्षियों की विष्टा चिकना पेस्ट बन जाती थी, जिस पर आने जाने वाले दुपहिया वाहन फिसलने लगते थे। यह अक्सर बारिश की पहली बूंदाबांदी के वक्त ही होता था। अधिक पानी गिरने पर सड़कें साफ हो जाया करती थी।

कोई वाहन चालक बड़े आराम से गाड़ी चला रहा है, अचानक उसकी दुपहिया वाहन फिसल जाती है। वह उठकर खड़ा होता है, इतने में एक और का फिसलना। बाद में उसी एक स्थान पर फिसलने वालों का तांता लग जाया करता था। लोग एक दूसरे का मुंह देखते, थोड़ा मुस्कुराते, और गाड़ी उठाकर निकल जाते। कुछ ही समय में तेज बारिश से सब कुछ सामान्य हो जाया करता था।।

अक्सर किसी चिकने पदार्थ का सड़कों पर गिरने से भी ऐसी परिस्थिति निर्मित हो जाती है, जो कभी कभी गंभीर हादसों का कारण बन जाती है।

किसी को जान बूझकर गिराना, गिरे हुए पर हंसना अथवा उसका मज़ाक उड़ाना हद दर्जे की बदतमीजी कहलाती है। इंसान फिसले तो कई लोग बचा भी लेते हैं, लेकिन अगर एक बार ज़बान फिसली तो मुंह से निकला शब्द न तो वापस आता है, और न ही कोई आपके मुंह पर पट्टी बांध सकता है। इसलिए संभल कर चलें ही नहीं, ज़बान भी संभाल कर रखें। कभी भी फिसल सकती है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 217 – जमघट…मरघट..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 217 ☆ जमघट…मरघट..! ?

नदी किनारे की एक पुलिया के नीचे से गुज़र रहा हूँ। ऊपर महामार्ग, रेलवे पटरियाँ, मेट्रो ट्रैक हैं। नीचे नदी बहती है। इसी पुलिया से ‘यू’  मोड़ लेकर आगे जाना पड़ता है।

सुबह का समय है। आसपास की मांसाहारी होटलों से निकले प्राणियों के अवशेष इस पुलिया के इर्द-गिर्द बिखरे पड़े हैं। कौवे और चील इन छोटे-छोटे हिस्सों पर मंडरा रहे हैं, अपनी चोंच में भर रहे हैं। रोज़ाना सुबह इसी पुलिया के नीचे से गुज़रना पड़ता है। रोज़ाना इसी दृश्य को देखना पड़ता है। एक तरह का आदिम मरघट है यह।

किसी भी देह का इस तरह का विदारक अंत भीतर तक हिला देता है। थोड़ा-सा आगे निकलता हूँ। अभी पुलिया पार नहीं कर पाया हूँ। देखता हूँ कि मुर्गों से भरा एक ट्रक चला आ रहा है। अपने-अपने पिंजरों में क़ैद अपने अंत की ओर बढ़ते मुर्गे। इन प्राणियों ने अपनी प्रजाति के इन अवशेषों को देखा- समझा-जाना है या नहीं, पता नहीं चलता। वे अपने में मग्न हैं। एक तरह का शाश्वत जमघट है यह।

चलते ट्रक में लगा जमघट है, ठहरी पुलिया के नीचे थमा मरघट है। जीवन के पनघट पर अनादिकाल से इसी दृश्य का साक्ष्य और पात्र बनता हर घट है।

देहरूपी घट की यही कथा सार्वकालिक है, सार्वजनीन है। यात्रा मरघट की, तृष्णा जमघट की। जमघट का आनंद लेना वांछित है, अधिकारों का उपभोग, कर्तव्यों का निर्वहन भी अनिवार्य है। तथापि अपने अंत को जानते हुए विशेषकर बुद्धितत्व के धनी मनुष्य का इस देहयोनि को सार्थक नहीं कर पाना, उसकी मेधा पर प्रश्नचिह्न लगाता है।

हर जीव जानता है कि उसका जीवन बीत रहा है। मेधावी चिंतन करता है कि जीवन बीत रहा है या रीत रहा है?

विशेष बात यह कि बीतना और रीतना की गुत्थी को सुलझाने का चमत्कारी सूत्र भी मनुष्य के ही पास है। चमत्कारी इसलिए कहा क्योंकि वाह्य जगत का बीज अंतर्जगत में है। जिस दृश्य को बाहर देख रहे हो, वह भीतर का रेपलिका या प्रतिकृति भर है।

कबीर लिखते हैं,

या घट भीतर अनहद बाजे,

या ही में उठत फुवारा,

ढूँढ़े रे ढूँढ़े अँधियारा।

जीवन को रीता रखोगे या घटी-पल के नित बरते जा रहे रिक्थ पर टिके अपने घट को समय रहते सार्थकता से लबालब करोगे, इसका निर्णय तुम्हें स्वयं करना है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 211 ⇒ व्यंग्य देखो, व्यंग्य की धार देखो… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)

?अभी अभी # 211 ⇒ व्यंग्य देखो, व्यंग्य की धार देखो… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

व्यंग्य कोई बच्चों का खेल नहीं ! बच्चों के हँसने खेलने के दिन होते हैं, उन्हें व्यंग्य जैसी धारदार वस्तुओं से दूर रखना चाहिए। हमने बचपन में बहुत तेल देखा है और तेल की धार भी देखी है।

तब हमारे पंसारी के पास तेल भी दो तरह के होते थे। एक मिट्टी का तेल, जिसे बाद में घासलेट यानी केरोसिन कहा जाने लगा और दूसरा मूंगफली का तेल, जिसे हम मीठा तेल कहते थे। हमारा पंसारी एक सिंधी था, जिसे हम साईं कहते थे। उसके पास तेल के दो कनस्तर होते थे, एक मिट्टी के तेल का और एक मीठे तेल का। दोनों में ही तेल निकालने का एक यंत्र लगा रहता था, जो तेल को कनस्तर से हमारी लाई गई कांच की बोतल में, साइफन विधि से, पहुंचाता था। हम बड़े ध्यान से तेल और तेल की धार को देखते रहते थे।

बॉटल भरने के पहले ही धार रुक जाती थी। जितना पैसा, उतनी बड़ी धार। कभी नकद, कभी उधार।।

आज मिट्टी के तेल की यह हालत है कि वह बाजार से गधे के सिर के सींग की तरह गायब है। जिस चीज का अभाव होता है, अथवा जो वस्तु महंगी होती है, उस पर तो सॉलिड व्यंग्य लिखा जा सकता है। प्याज और टमाटर इस विषय में बड़े नसीब वाले हैं। थोड़ा भाव बढ़ा, तो बाजार से गायब ! और उनके इतने भाव बढ़ जाते हैं कि उन पर व्यंग्य पर व्यंग्य और अधबीच पर अधबीच लिखे जाने लगते हैं। लेकिन जो मिट्टी का तेल काला बाजार में भी उपलब्ध नहीं, उस पर धारदार तो छोड़िए, बूंद बराबर भी व्यंग्य नहीं।

चलिए, मिट्टी के तेल को मारिए गोली, खाने के तेल को ही ले लीजिए। सरसों, सोयाबीन, सनफ्लॉवर हो अथवा मीठा तेल, जब इनके भाव आसमान छूते हैं, तब कोई भी व्यंग्यकार को न तो यह तेल दिखाई देता है और न ही इसकी धार, और बातें करते हैं धारदार व्यंग्य की। क्या राजनीति पर किया गया व्यंग्य, तेल पर किए व्यंग्य से अधिक धारदार होता है।।

हमारे घर में हथियार के नाम पर सिर्फ चाकू, छुरी ही होते हैं। उससे केवल सब्जियां और कभी कभी हमारे हाथ ही कटते हैं, लेकिन कभी किसी का गला नहीं। लेकिन आजकल हमारे चाकू छुरी भी व्यंग्य की तरह ही अपनी धार खो बैठे हैं।

एक समय था, जब चाकू छुरियां तेज करने वाला आदमी घर घर और मोहल्ले मोहल्ले आवाज लगाता था, एक पहियानुमा यंत्र से चिंगारी निकलती थी, और हमारे घरेलू औजार धारदार हो जाते थे।

आज की गंभीर समस्या न तो महंगाई है और न ही भ्रष्टाचार। जिसे राज करना है, राज करे, और जिसे नाराज करना है नाराज करे, कहने को फिर भी यह जनता का ही राज है। लेकिन जब व्यंग्य में ही धार नहीं, तो कैसी सर्जिकल स्ट्राइक। नाई के उस्तरे में भी धार नहीं, और चले हैं हजामत करने।।

हमने तो खैर हमारे घर के औजार धारदार कर लिए, बस आजकल के व्यंग्य में धार अभी बाकी है। पहले सोचा धार जिले में ही जाकर बसा जाए, लेकिन हमारे एक मित्र धारकर स्वयं इंदौर पधारकर यहां बस गए।

काश, यह पता चल जाता परसाई अपने व्यंग्य लेखों पर धार कहां करवाते थे, तो उन ज्ञानियों की भी यह शिकायत दूर हो जाती कि आजकल व्यंग्य में धार नहीं है।

शब्द ही धार है, कटार है, व्यंग्य का हथियार है।

जब जरूरत से अधिक पैना हो जाता है तो शासन, प्रशासन और सत्ता को चुभने लगता है। पद्म पुरस्कार जैसे अन्य प्रलोभनों के लिए इनका सही उपयोग बहुत जरूरी है। व्यंग्य वह लाठी है जो सिर्फ सांप को ही मारती है, किसी दुधारू गाय को नहीं।।

लेकिन वक्त वह लाठी है, जो कबीर जैसे खरी और कड़वी बात कहने वाले के मुंह से भी यह लाख टके की बात कहलवा दे ;

बालू जैसी करकरी

उजल जैसी धूप।

ऐसी मीठी कछु नहीं

जैसी मीठी चुप।।

लो जी, यह भी कह गए, दास कबीर। और लाइए धार अपने व्यंग्य में..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #208 ☆ स्वार्थ-नि:स्वार्थ ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख स्वार्थ-नि:स्वार्थ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 208 ☆

☆ स्वार्थ-नि:स्वार्थ ☆

‘बिना स्वार्थ आप किसी का भला करके देखिए; आपकी तमाम उलझनें ऊपर वाला सुलझा देगा।’ इस संसार में जो भी आप करते हैं; लौटकर आपके पास आता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म करने की सलाह दी जाती है। परन्तु आजकल हर इंसान स्वार्थी हो गया है। वह अपने व अपने परिवार से इतर सोचता ही नहीं तथा परिवार पति-पत्नी व बच्चों तक ही सीमित नहीं रहे; पति-पत्नी तक सिमट कर रह गये हैं। उनके अहम् परस्पर टकराते हैं, जिसका परिणाम अलगाव व तलाक़ की बढ़ती संख्या को देखकर लगाया जा सकता है। वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने व प्रतिशोध लेने हेतु कटघरे में खड़ा करने का भरसक प्रयास करते हैं। विवाह नामक संस्था चरमरा रही है और युवा पीढ़ी ‘तू नहीं, और सही’ में विश्वास करने लगी हैं, जिसका मूल कारण है अत्यधिक व्यस्तता। वैसे तो लड़के आजकल विवाह के नाम से भी कतराने लगे हैं, क्योंकि लड़कियों की बढ़ती लालसा व आकांक्षाओं के कारण वे दहेज के घिनौने इल्ज़ाम लगा पूरे परिवार को जेल की सीखचों के पीछे पहुंचाने में तनिक भी संकोच नहीं करतीं। कई बार तो वे अपने माता-पिता की पैसे की बढ़ती हवस के कारण वह सब करने को विवश होती हैं।

स्वार्थ रक्तबीज की भांति समाज में सुरसा के मुख की भांति बढ़ता चला जा रहा है और समाज की जड़ों को खोखला कर रहा है। इसका मूल कारण है हमारी बढ़ती हुई आकांक्षाएं, जिन की पूर्ति हेतु मानव उचित-अनुचित के भेद को नकार देता है। सिसरो के मतानुसार ‘इच्छा की प्यास कभी नहीं बझती, ना पूर्ण रूप से संतुष्ट होती है और उसका पेट भी आज तक कोई नहीं भर पाया।’ हमारी इच्छाएं ही समस्याओं के रूप में मुंह बाये खड़ी रहती हैं। एक के पश्चात् दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है तथा समस्याओं का यह सिलसिला जीवन के समानांतर सतत् रूप से चलता रहता है और मानव आजीवन इनके अंत होने की प्रतीक्षा करता रहता है; उनसे लड़ता रहता है। परंतु जब वह समस्या का सामना करने पर स्वयं को पराजित व असमर्थ अनुभव करता है, तो नैराश्य भाव का जन्म होता है। ऐसी स्थिति में विवेक को जाग्रत करने की आवश्यकता होती है तथा समस्याओं को जीवन का अपरिहार्य अंग मानकर चलना ही वास्तव में जीवन है।

समस्याएं जीवन की दशा व दिशा को तय करती हैं और वे तो जीवन भर बनी रहती है। सो! उनके बावजूद जीवन का आनंद लेना सीखना कारग़र है। वास्तव में कुछ समस्याएं समय के अनुसार स्वयं समाप्त हो जाती हैं; कुछ को मानव अपने प्रयास से हल कर लेता है और कुछ समस्याएं कोशिश करने के बाद भी हल नहीं हो पातीं। ऐसी समस्याओं को समय पर छोड़ देना ही बेहतर है। उचित समय पर वे स्वत: समाप्त हो जाती हैं। इसलिए उनके बारे में सोचो मत और जीवन का आनंद लो। चैन की नींद सो जाओ; यथासमय उनका समाधान अवश्य निकल आएगा। इस संदर्भ में मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहती हूं कि जब तक हृदय में स्वार्थ भाव विद्यमान रहेगा; आप निश्चिंत जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते और कामना रूपी भंवर से कभी बाहर नहीं आ सकते। स्वार्थ व आत्मकेंद्रिता दोनों पर्यायवाची हैं। जो व्यक्ति केवल अपने सुखों के बारे में सोचता है, कभी दूसरे का हित नहीं कर सकता और उस व्यूह से मुक्त नहीं हो पाता। परंतु जो सुख देने में है, वह पाने में नहीं। इसलिए कहा जाता है कि जब आपका एक हाथ दान देने को उठे, तो दूसरे हाथ को उसकी खबर नहीं होनी चाहिए। ‘नेकी कर और कुएं में डाल’ यह सार्थक संदेश है, जिसका अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। यह प्रकृति का नियम है कि आप जितने बीज धरती में रोपते हैं; वे कई गुना होकर फसल के रूप में आपके पास आते हैं। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से किए गये कर्म असंख्य दुआओं के रूप में आपकी झोली में आ जाते हैं। सो! परमात्मा स्वयं सभी समस्याओं व उलझनों को सुलझा देता है। इसलिए हमें समीक्षा नहीं, प्रतीक्षा करनी चाहिए, क्योंकि वह हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानता है तथा वही करता है; जो हमारे लिए बेहतर होता है।

‘अच्छे विचारों को यदि आचरण में न लाया जाए, तो वे सपनों से अधिक कुछ नहीं हैं’ एमर्सन की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। स्वीकारोक्ति अथवा प्रायश्चित सर्वोत्तम गुण है। हमें अपने दुष्कर्मों को  मात्र स्वीकारना ही नहीं चाहिए; प्रायश्चित करते हुए जीवन में दोबारा ना करने का मन बनाना चाहिए। वाल्मीकि जी के मतानुसार संत दूसरों को दु:ख से बचाने के लिए कष्ट सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दु:ख में डालने के लिए।’ सो! जिस व्यक्ति का आचरण अच्छा होता है, उसका तन व मन दोनों सुंदर होते हैं और वे संसार में अपने नाम की अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

दूसरी ओर दुष्ट लोग दूसरों को कष्ट में डालकर सुक़ून पाते हैं। परंतु हमें उनके सम्मुख झुकना अथवा पराजय स्वीकार नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वीर पुरुष युद्ध के मैदान को पीठ दिखा कर नहीं भागते, बल्कि सीने पर गोली खाकर अपनी वीरता का प्रमाण देते हैं। सो! मानव को हर विषम परिस्थिति का सामना साहस-पूर्वक करना चाहिए। ‘चलना ही ज़िंदगी है और निष्काम कर्म का फल सदैव मीठा होता है। ‘सहज पके, सो मीठा होय’ और ‘ऋतु आय फल होय’ पंक्तियां उक्त भाव की पोषक हैं। वैसे ‘हमारी वर्तमान प्रवृत्तियां हमारे पिछले विचार- पूर्वक किए गए कर्मों का परिणाम होती हैं।’ स्वामी विवेकानंद जन्म-जन्मांतर के सिद्धांत में विश्वास रखते थे। सो! झूठ आत्मा के खेत में जंगली घास की तरह है। अगर उसे वक्त रहते उखाड़ न फेंका जाए, तो वह सारे खेत में फैल जाएगी और अच्छे बीज उगने की जगह भी ना रहेगी। इसलिए कहा जाता है कि बुराई को प्रारंभ में ही दबा दें। यदि आपने तनिक भी ढील छोड़ी, तो वह खरपतवार की भांति बढ़ती रहेगी और आपको उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देगी; जहां से लौटने का कोई मार्ग शेष नहीं दिखाई पड़ेगा।

प्यार व सम्मान दो ऐसे तोहफ़े हैं, अगर देने लग जाओ तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। सो! लफ़्ज़ों को सदैव चख कर व शब्द संभाल कर बोलिए। ‘शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। शब्द यदि सार्थक हैं, तो प्राणवायु की तरह आपके हृदय को ऊर्जस्वित कर सकते हैं। यदि आप अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो दूसरों के हृदय को आहत करते हैं। इसलिए सदैव मधुर वाणी बोलिए। यह आप्त मन में आशा का संचरण करती है। निगाहें भी व्यक्ति को घायल करने का सामर्थ्य रखती हैं। दूसरी ओर जब कोई अनदेखा कर देता है, तो बहुत चोट लगती है। अक्सर रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोग ग़ैरों की बातों में आकर अपनों से उलझ जाते हैं और जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बहुत तकलीफ़ होती है। परंतु जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है, तो उससे भी अधिक तकलीफ़ होती है। इसलिए जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकारें; संबंध लंबे समय तक बने रहेंगे। अपने दिल में जो है; उसे कहने का साहस और दूसरे के दिल में जो है; उसे समझने की कला यदि आप में है, तो रिश्ते टूटेंगे नहीं। हां इसके लिए आवश्यकता है कि आप वॉकिंग डिस्टेंस भले रखें, टॉकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें, क्योंकि ‘ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुक़ाम/ वे फिर नहीं आते।’ इसलिए किसी से अपेक्षा मत करें, बल्कि यह भाव मन में रहे कि हमने किसी के लिए किया क्या है? ‘सो! जीवन में देना सीखें; केवल तेरा ही तेरा का जाप करें– जीवन में आपको कभी कोई अभाव नहीं खलेगा।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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