हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 222 ☆ आलेख – फ्लैश फ्लड से बचाव के लिये नदियां गहरी की जावें… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखनाद शंख का)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 222 ☆

? आलेख – फ्लैश फ्लड से बचाव के लिये नदियां गहरी की जावें?

पानी जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है. सारी सभ्यतायें नैसर्गिक जल स्रोतो के तटो पर ही विकसित हुई हैं. बढ़ती आबादी के दबाव में, तथा ओद्योगिकीकरण से पानी की मांग बढ़ती ही जा रही है. इसलिये भूजल का अंधाधुंध दोहन हो रहा है और परिणाम स्वरूप जमीन के अंदर पानी के स्तर में लगातार गिरावट होती जा रही है. नदियो पर हर संभावित प्राकृतिक स्थल पर बांध बनाये गये हैं. बांधो की ऊंचाई को लेकर अनेक जन आंदोलन हमने देखे हैं. बांधो के दुष्परिणाम भी हुये, जंगल डूब में आते चले गये और गांवो का विस्थापन हुआ. बढ़ती पानी की मांग के चलते जलाशयों के बंड रेजिंग के प्रोजेक्ट जब तब बनाये जाते हैं.

रहवासी क्षेत्रो के अंधाधुन्ध सीमेंटीकरण, पालीथिन के व्यापक उपयोग तथा कचरे के समुचित डिस्पोजल के अभाव में, हर साल तेज बारिश के समय या बादल फटने की प्राकृतिक घटनाओ से शहर, सड़कें बस्तियां लगातार डूब में आने की घटनायें बढ़ी हैं. विगत वर्षो में चेन्नई, केरल की बाढ़ हम भूले भी न थे कि इस साल पटना व अन्य तटीय नगरो में गंगा जी घुस आई. मध्यप्रदेश के गांधी सागर बांध का पावर हाउस समय रहते बांध के पानी की निकासी के अभाव में डूब गया.

बाढ़ की इन समस्याओ के तकनीकी समाधान क्या हैं. नदियो को जोड़ने के प्रोजेक्टस अब तक मैदानी हकीकत नही बन पाये हैं. चूंकि उनमें नहरें बनाकर बेसिन चेंज करने होंगे, पहाड़ो की कटिंग, सुरंगे बनानी पड़ेंगी, ये सारे प्रोजेक्टस् बेहद खर्चीले हैं, और फिलहाल सरकारो के पास इतनी अकूत राशि नही है. फिर बाढ़ की त्रासदी के इंजीनियरिंग समाधान क्या हो सकते हैं ?

अब समय आ गया है कि जलाशयो,वाटर बाडीज, शहरो के पास नदियो को ऊंचा नही गहरा किया जावे.यांत्रिक सुविधाओ व तकनीकी रूप से विगत दो दशको में हम इतने संपन्न हो चुके हैं कि समुद्र की तलहटी पर भी उत्खनन के काम हो रहे हैं. समुद्र पर पुल तक बनाये जा रहे हैं बिजली और आप्टिकल सिग्नल केबल लाइनें बिछाई जा रही है. तालाबो, जलाशयो की सफाई के लिये जहाजो पर माउंटेड ड्रिलिंग, एक्सकेवेटर, मडपम्पिंग मशीने उपलब्ध हैं. कई विशेषज्ञ कम्पनियां इस क्षेत्र में काम करने की क्षमता सम्पन्न हैं.मूलतः इस तरह के कार्य हेतु किसी जहाज या बड़ी नाव, स्टीमर पर एक फ्रेम माउंट किया जाता है जिसमें मथानी की तरह का बड़ा रिग उपकरण लगाया जाता है, जो जलाशय की तलहटी तक पहुंच कर मिट्टी को मथकर खोदता है, फिर उसे मड पम्प के जरिये जलाशय से बाहर फेंका जाता है. नदियो के ग्रीष्म काल में सूख जाने पर तो यह काम सरलता से जेसीबी मशीनो से ही किया जा सकता है. नदी और बड़े नालो मे भी नदी की ही चौड़ाई तथा लगभग एक किलोमीटर लम्बाई में चम्मच के आकार की लगभग दस से बीस मीटर की गहराई में खुदाई करके रिजरवायर बनाये जा सकते हैं. इन वाटर बाडीज में नदी के बहाव का पानी भर जायेगा, उपरी सतह से नदी का प्रवाह भी बना रहेगा जिससे पानी का आक्सीजन कंटेंट पर्याप्त रहेगा. २ से ४ वर्षो में इन रिजरवायर में धीरे धीरे सिल्ट जमा होगी जिसे इस अंतराल पर ड्रोजर के द्वारा साफ करना होगा. नदी के क्षेत्रफल में ही इस तरह तैयार जलाशय का विस्तार होने से कोई भी अतिरिक्त डूब क्षेत्र जैसी समस्या नही होगी. जलाशय के पानी को पम्प करके यथा आवश्यकता उपयोग किया जाता रहेगा.

अब जरूरी है कि अभियान चलाकर बांधो में जमा सिल्ट ही न निकाली जाये वरन जियालाजिकल एक्सपर्टस की सलाह के अनुरूप बांधो को गहरा करके उनकी जल संग्रहण क्षमता बढ़ाई जाने के लिये हर स्तर पर प्रयास किये जायें. शहरो के किनारे से होकर गुजरने वाली नदियो में ग्रीष्म ‌‌काल में जल धारा सूख जाती है, हाल ही पवित्र क्षिप्रा के तट पर संपन्न उज्जैन के सिंहस्थ के लिये क्षिप्रा में नर्मदा नदी का पानी पम्प करके डालना पड़ा था. यदि क्षिप्रा की तली को गहरा करके जलाशय बना दिया जावे तो उसका पानी स्वतः ही नदी में बारहो माह संग्रहित रहा आवेगा.इस विधि से बरसात के दिनो में बाढ़ की समस्या से भी किसी हद तक नियंत्रण किया जा सकता है. इतना ही नही गिरते हुये भू जल स्तर पर भी नियंत्रण हो सकता है क्योकि गहराई में पानी संग्रहण से जमीन रिचार्ज होगी, साथ ही जब नदी में ही पानी उपलब्ध होगा तो लोग ट्यूब वेल का इस्तेमाल भी कम करेंगे. इस तरह दोहरे स्तर पर भूजल में वृद्धि होगी. नदियो व अन्य वाटर बाडीज के गहरी करण से जो मिट्टी, व अन्य सामग्री बाहर आयेगी उसका उपयोग भी भवन निर्माण, सड़क निर्माण तथा अन्य इंफ्रा स्ट्रक्चर डेवलेपमेंट में किया जा सकेगा. वर्तमान में इसके लिये पहाड़ खोदे जा रहे हैं जिससे पर्यावरण को व्यापक स्थाई नुकसान हो रहा है, क्योकि पहाड़ियो की खुदाई करके पत्थर व मुरम तो प्राप्त हो रही है पर इन पर लगे वृक्षो का विनाश हो रहा है, एवं पहाड़ियो के खत्म होते जाने से स्थानीय बादलो से होने वाली वर्षा भी प्रभावित हो रही है.

नदियो की तलहटी की खुदाई से एक और बड़ा लाभ यह होगा कि इन नदियो के भीतर छिपी खनिज संपदा का अनावरण सहज ही हो सकेगा. छत्तीसगढ़ में महानदी में स्वर्ण कण मिलते हैं,तो कावेरी के थले में प्राकृतिक गैस, इस तरह के अनेक संभावना वाले क्षेत्रो में विषेश उत्खनन भी करवाया जा सकता है.

पुरातात्विक महत्व के अनेक परिणाम भी हमें नदियो तथा जलाशयो के गहरे उत्खनन से मिल सकते हैं, क्योकि भारतीय संस्कृति में आज भी अनेक आयोजनो के अवशेष नदियो में विसर्जित कर देने की परम्परा हम पाले हुये हैं. नदियो के पुलो से गुजरते हुये जाने कितने ही सिक्के नदी में डाले जाने की आस्था जन मानस में देखने को मिलती है. निश्चित ही सदियो की बाढ़ में अपने साथ नदियां जो कुछ बहाकर ले आई होंगी उस इतिहास को अनावृत करने में नदियो के गहरी करण से बड़ा योगदान मिलेगा.

पन बिजली बनाने के लिये अवश्य ऊँचे बांधो की जरूरत बनी रहेगी, पर उसमें भी रिवर्सिबल रिजरवायर, पम्प टरबाईन टेक्नीक से पीकिंग अवर विद्युत उत्पादन को बढ़ावा देकर गहरे जलाशयो के पानी का उपयोग किया जा सकता है.

मेरे इस आमूल मौलिक विचार पर भूवैज्ञानिक, राजनेता, नगर व ग्राम स्थानीय प्रशासन, केद्र व राज्य सरकारो को तुरंत कार्य करने की जरुरत है, जिससे महाराष्ट्र जैसे सूखे से देश बच सके कि हमें पानी की ट्रेने न चलानी पड़े, बल्कि बरसात में हर क्षेत्र की नदियो में बाढ़ की तबाही मचाता जो पानी व्यर्थ बह जाता है तथा साथ में मिट्टी बहा ले जाता है वह नगर नगर में नदी के क्षेत्रफल के विस्तार में ही गहराई में साल भर संग्रहित रह सके और इन प्राकृतिक जलाशयो से उस क्षेत्र की जल आपूर्ति वर्ष भर हो सके. इन दिनों जलवायु परिवर्तन से फ्लैश फ्लड का बचाव इस तरह संभव हो सकेगा।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 110 ⇒ || पा ठ… || ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पा ठ…।)  

? अभी अभी # 110 ⇒ || पा ठ… || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पाठ को हम सबक भी कह सकते हैं। जिंदगी का पहला पाठ हम मां से ही सीखते हैं, क्योंकि हमारा पहला शब्द मां ही होता है। सीख का अंत नहीं, सबक की कोई सीमा नहीं, जो अखंड चले, वही वास्तविक पाठ है।

पठन पाठन ही तो पाठ है, जिसे सीखने के लिए हमें पाठशाला भी जाना पड़ता है। पाठ तो बहुत दूर की बात है, मास्टर जी पहले हमें पट्टी पढ़ाते थे।

एक, दो, तीन, चार, भैया बनो होशियार। पढ़ने लिखने के लिए पहले लिखना पड़ता था, जब हम लिखा हुआ पढ़ने लग जाते थे, तब हम पुस्तक में से पाठ पढ़ते थे। उसे ही सबक याद करना कहते थे। बिना पट्टी पढ़े, पाठ याद नहीं होता था। इसे ही अभ्यास कहते थे।।

पुस्तक में कई पाठ होते थे, जिसे हम बाद में lesson कहने लग गए। पढ़ने का अभ्यास बढ़ता चला गया, पाठ अध्याय होते चले गए, चैप्टर पर चैप्टर खुलते चले गए, हम सीखते चले गए। जिस तरह ज्ञान की कोई सीमा नहीं, सीखने का भी कभी अंत नहीं।

सीखने का असली अध्याय तब शुरू होता है, जब जीवन में स्वाध्याय प्रवेश करता है। जब पढ़े हुए को ही बार बार पढ़ा जाता है, तब वह पाठ कहलाता है। किसी भी धार्मिक ग्रंथ का नियमित पाठ पारायण कहलाता है। नित्य आरती और नित्य पाठ स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान के ही अंग हैं।।

कुछ ज्ञानी पुरुष इतने अनुभवी हो जाते हैं कि उन्हें तो कोई पाठ नहीं पढ़ा सकता, उल्टे वे ही दूसरों को पट्टी पढ़ाना शुरू कर देते हैं। हम पर परमात्मा और सदगुरु की इतनी कृपा हो कि हमारा विवेक जाग्रत हो और हम ऐसे लोगों से दूर रहें।

जिन्दगी इम्तहान भी लेती है और सबक भी सिखलाती है। कोई आश्चर्य नहीं, जीवन के किस मोड़ पर, जिंदगी की किताब का एक नया अध्याय खुल जाए, और हमें एक और नया पाठ पढ़ना पड़े। सीखने की भी कहीं कोई उम्र होती है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 76 – पानीपत… भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 76 – पानीपत… भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

रामचरित मानस और तुलसी के मर्यादा पुरुषोत्तम राम हमारे आराध्य हैं. रामचरित मानस का नियमित पाठ या चौपाइयों का सामान्य जीवन में अक्सर उल्लेख हमारी दादियों और माताओं द्वारा अक्सर किया जाता रहा है. राम का चरित्र और उनके आदर्श हमारे DNA में है, संस्कारों में रहे है. बाद में दूरदर्शन में अस्सी के दशक में रामायण धारावाहिक के प्रसारण और फिर 2020 के कोविड काल में इस अमर महाकाव्य के पुन: प्रसारण ने हमारी उम्र के हर दौर में इसे देखने, सुनने और गुनने का अवसर प्रदान किया है. राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे, परम शक्तिशाली थे पर साथ ही दया, विनम्रता और शालीनता के गुणों की पराकाष्ठा से संपन्न थे. उनसे भयभीत होना संभव ही नहीं था, वे आश्वस्ति के प्रतीक थे. उनका अनुकरण शतप्रतिशत करना तो खैर असंभव के समान ही था पर उनकी नैतिकता हमें सदैव आश्वस्त करती आई है. यही तो कर्मकांड से परे वास्तविक धर्म है जिसे हमारी आस्था ने सनातन रखा है. “जाहे विधि राखे राम, ताहे विधि रहिये” भी हमारी मानसिक सोच रही है.

पानीपत सदृश्य मुख्य शाखा के हमारे मुख्य प्रबंधक में वाकपटुता तो नहीं थी पर सज्जनता और बैंकिंग का ज्ञान पर्याप्त था. उनकी सहजता और शालीनता धीरे धीरे स्टाफ के आकर्षण का केंद्र बनती गई और फिर शाखा के अधिकतर स्टाफ शाखा के कुशल परिचालन में आगे बढ़कर हाथ बटाने लगे. जब किसी का व्यक्तित्व भयभीत न करे तो यह गुण भी साथ में काम करने वालों को आकर्षित करता है. कभी कभी ऐसा भी होता है कि भयभीत करने वाले निर्मम प्रशासक अपने भय और चापलूसी का माहौल तो बना लेते हैं पर ऐसे में सहजता और मोटिवेशन लुप्त हो जाते हैं टीम तो यहां भी नजर आती है पर वास्तव में ये थानेदार और चापलूसों का कॉकस ही कहलाता है. पर इन सबसे परे, इस शाखा में धीरे धीरे ऐसे लोग जुड़ते गये जो हुक्मरानी और चापलूसी दोनों से घृणा करते थे. सशक्त कारसेवक थे पर किसी के डंडे से डरकर परफार्म नहीं करते थे. मिथक के अनुसार, आग में जलकर राख हो जाना और फिर उसी राख से उठकर पुन:जीवन पाने वाले पक्षी को फिनिक्स कहा जाता है. तो यही फिनिक्स का सिद्धांत शाखा में अस्तित्व में आया जिसे निकट भविष्य में आडिट इंस्पेक्शन, वार्षिक लेखाबंदी और Statutory Audit का सामना करना था. और सामना करना था अनियोजित, आकस्मिक फ्राड का जो इंस्पेक्शन के आगमन पर ही संज्ञान में आया. शाखा में बनी इस टीम भावना ने हर संकट पर विजय पाई, फ्राड की गई राशि की शतप्रतिशत वसूली की, इंस्पेक्शन में वांछित अंक पाये, डिवीजन अपग्रेड हुई, लेखाबंदी संपन्न हुई और बाद में सावधिक अंकेक्षण का विदाउट एम. ओ. सी. का लक्ष्य भी कुशलता पूर्वक प्राप्त किया. कोई भी बैंक और कोई भी शाखा किसी की बपौती नहीं होती, हर किसी की मेहनत से चलती है. वो हुक्मरान जो ये समझते हैं कि बैलगाड़ी हमारे कारण चल रही है वो वास्तविकता से परे किसी लोक में भ्रमण करते रहते हैं और उनका भरम, बैलगाड़ी के नीचे चलने वाले प्राणी के समान ही होता है जिसे लगता है गाड़ी सिर्फ और सिर्फ़ उसके पराक्रम से चल रही है.

 जैसाकि होता है, सद्भावना और सद व्यवहार की भावना इन मंजिलों को पाकर आगे बढ़ रही थी, लोग इस सामूहिक प्रयास की सफलता से खुश थे, वहीं मुख्य प्रबंधक जी इसे अपना स्वनिर्धारित टारगेट प्राप्त करना मानकर अपने अगले लक्ष्य की दिशा में सोचने लगे. होमसिकनेस उन्हें हमेशा सताती रही और यह भावना, उनकी हर भावना पर भारी पड़ जाती थी.

आगे क्या हुआ यह अगले अंक में प्रस्तुत करने का प्रयास रहेगा. कहानी “पानीपत “का कैनवास काफी बड़ा है. उद्देश्य पानीपत के युद्ध में बनी परिस्थितियों का हूबहू बखान करना है. हर घटना, हर बदलाव के लिये परिस्थितियां उत्तरदायी होती हैं, मनुष्य तो निमित्त मात्र ही पर्दे पर आते हैं और अपना रोल निभाते हैं. जो हुआ शायद वैसा होना ही पूर्वनिर्धारित था. मैं ऐसा मानता हूँ कि “पानीपत” आप सभी पढ़ रहे हैं और बहुत ध्यान से पढ़ रहे हैं, यही एक लेखक के लिये सबसे बड़ा पुरस्कार है. धन्यवाद. 

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 109 ⇒ पैसा और पुण्य… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पैसा और पुण्य।)  

? अभी अभी # 109 ⇒ पैसा और पुण्य? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

पैसा तो सभी कमाते हैं, लेकिन जिस पैसे से दान किया जाता है, पुण्य तो उसी से कमाया जा सकता है। पुण्य कमाना है, तो दान कीजिए, दान पुण्य से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। पैसा तो यहीं छूट जाता है, सिर्फ दान पुण्य ही साथ जाता है।

हमारे पूर्वजों ने बहुत दान पुण्य किया होगा, नेक काम किए होंगे, और आज उनकी वही पुण्याई, शायद आशीर्वाद के रूप में, हमारे काम आ रही है। हमारी विरासत ही हमारा व्यक्तित्व बनाती है। संस्कार, आदर्श, निष्ठा और नैतिकता कुछ लोगों को विरासत में मिलती है, और कुछ को इनके लिए संघर्ष करना पड़ता है। जैसा बाप वैसा बेटा ही कहा जाता है, जैसा बेटा वैसा बाप नहीं। ।

कलयुग में नाम से अधिक दान की महिमा बताई जा रही है, क्योंकि दान से ही तो नाम होता है। दान धर्म को अलग नहीं कर सकते, जो दानदाता वही धर्मात्मा। पुरुषार्थ अगर कर्म की सीढ़ी है तो दान धर्म की। दान सेवा भी है और परमार्थ भी। जो किसी कारणवश असहाय, आश्रित, दिव्यांग और जरूरतमंदों की स्थूल रूप से सेवा नहीं कर सकते, वे यथोचित दान से यह कमी तो पूरी कर ही सकते हैं।

दान स्वार्थ के लिए भी किया जाता है और परमार्थ के लिए भी। सुख शांति और परिवार के कल्याण के लिए भी यज्ञ, दान, हवन, पूजन,

इत्यादि करना ही पड़ता है और बिना पैसे के यह सब संभव नहीं है, इसलिए पहले पैसा कमाएं, उसके बाद ही दान, धर्म और पुण्य कर्म करने की सोचें। ।

हमारी गृहस्थी की गाड़ी दो पहियों पर ही चलती है।

आजकल सुखी गृहस्थी उसी की है जिसके घर में चार पहिये की भी गाड़ी हो। धर्मपत्नी भी हमेशा एक ही बात कहती है, धंधे की कुछ बात करो, पैसे जोड़ो, और यही सुशील गृहिणी पूरे परिवार को धर्म कर्म और दान पुण्य से भी जोड़े रहती है। वह अपने स्वामी से साफ साफ कहती है, दान धर्म और पूजा पाठ आप मुझ पर छोड़ दो, आप तो बस अपने काम धंधे पर ध्यान दो।

आप पैसा कमाओ मैं परिवार के लिए पुण्य कमाती हूं। बाद में बांट लेंगे हम आधा आधा।

किसी भी कथा, प्रवचन, सत्संग में चले जाइए, आपको महिलाएं ही महिलाएं नजर आएंगी। कुछ पुरुष कार्यकर्ता जरूर सेवा कार्य करते नजर आ जाएंगे, लेकिन बहुमत सास, बहुओं, बेटियों का ही होगा। रामकथा, शिव कथा, भागवत पुराण और नानी बाई को मायरो से अब ये कथाएं और कई किलोमीटर आगे निकल गई हैं। बीमारी, पितृ दोष और प्रेत बाधा तक का त्वरित इलाज़ आजकल यहां होने लग गया है। ।

यज्ञ कीजिए, दान कीजिए, संकल्प लीजिए। अगर पर्स में पैसा नहीं है तो चिंता मत कीजिए, गौशाला के लिए चंदा दीजिए, रसीद कटाइए, हमारी बैंक का नाम और आईएफसी कोड है, खाता नंबर है उसमें राशि ट्रांसफर कीजिए। पारदर्शी पुण्य कमाइए।

आपके दान से ही मंदिर बनते हैं, धर्मशालाएं बनती हैं, गेस्ट हाउस बनते हैं, गौशालाओं का निर्माण और गौसेवा होती है, मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा होती है। धर्म की रक्षा ही तो सनातन की रक्षा है।।

आपका पैसा एक नंबर अथवा दो नंबर का हो सकता है, लेकिन पुण्य में एक नंबर दो नंबर नहीं होता। दान दाता से कभी नहीं पूछा जाता यह कमाई काली है या गोरी। दान पुण्य में इतनी शक्ति होती है, वह सभी पापों का नाश कर देता है। पुण्य का पलड़ा सदा भारी ही रहा है।

पुरुष कर्म प्रधान है और धर्मपत्नी धर्म प्रधान। धन्य है ऐसा सद् गृहस्थ जिसे धर्म परायण पत्नी मिली हो, उस परिवार का तो समझिए इहलोक और परलोक दोनों सुधर गए। आज का परमार्थ यही है, पहले पैसा संचित करें, उसके बाद ही पुण्य संचित करें।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 44 – देश-परदेश – आतुरता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 44 ☆ देश-परदेश – आतुरता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

अति आतुर या व्याकुल होना ,एक रोग ही माना जाता था। दैनिक जीवन में प्रतिदिन अनेक बार इसका आभास होना साधारण सी बात है। पहले ऐसा कहा जाता था कि वृद्ध होने पर ही इंसान आतुर हो जाता है। वर्तमान में तो  बच्चे और युवा सभी इस रोग से पीड़ित है। सभी को शीघ्रता है,शायद प्रलय आने ही वाली है।   

आज कल सभी हाथ में मोबाइल लिए हुए रहते है। आदर के साथ झुकी हुई गर्दन, आँखें मोबाइल के स्क्रीन में अंदर तक घुसी हुई, मन बेचैन सा किसी नए msg की प्रतीक्षा में ही रहता है। अल सुबह सर्वप्रथम मोबाइल को प्रणाम कर दिन का शुभारंभ हो जाता है। जब शुरुआत ही बेचैनी से होगी तो पूरा दिन भी उसी प्रकार का होगा।  

कुछ दिन पूर्व एक हस्त-निर्मित  बेकरी से खरीदारी कर रहा था, तो घोड़े (स्कूटी) पर सवार आदरणीय महिला ने वही से अपने सामान की जानकारी/ भाव इत्यादि की फेहरिस्त जारी कर दी। इस प्रकार के लघु इकाइयां निर्माण कार्य में तो दक्ष होते हैं,परंतु विक्रय कला में महारत नहीं हासिल कर पाते हैं। दुकानदार हमारा काम छोड़, महिला की सेवा में लग गया। महिला ने बताया की टीवी सीरियल का समय निकल जायेगा इसलिए वह व्याकुल हो रही है। शायद उनके प्रिय सीरियल का पुनः प्रसारण नहीं होता है और ना ही उनके पास नई तकनीक का टीवी सेट है, जो पसंदीदा कार्यक्रम को सुरक्षित रख लेता है।

आज अपोलो दवा की दुकान से अपने जीवित रहने की दवा खरीदने के लिए डॉक्टर का पर्चा वहां कार्यरत व्यक्ति को दिया, तभी एक सज्जन दूर खड़ी कार की खिड़की से कुतुर के समान अपनी थूथनी बाहर निकाल कर abc को उल्ट पलट कर दवा का नाम लेकर उसकी उपलब्धता, भाव, एक्सपायरी की तारीख, दो हज़ार के छुट्टे आदि पूरी जानकारी चाहने लगे। उनके पास कार से बाहर आकर बातचीत करने का समय नहीं था। टीवी पर शाम को होने वाली कुत्तों की बहस का समय हो चला था। इस प्रकार की कॉर्पोरेट की दुकानें डिस्काउंट तो अच्छा दे देती है, परन्तु अन्य पुश्तैनी दवा दुकानदारों की तरह व्यवहार कुशल नहीं होते हैं। एक और युवती भी जल्दी से आई और बोली मुझे सिर्फ बता देवें की फलां दवा दुकान में है, या नहीं ?

इस प्रकार की व्याकुलता बैंक ग्राहकों में भी रहती है, लंबी लाइन में भी नियम विरुद्ध किनारे से आकर बोलते है, सिर्फ खाते में बैलेंस की जानकारी लेनी है। वो बात अलग है, बैलेंस के नाम से वो अपनी बैलेंस शीट में लगने वाली बैंक की पूरी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। लाइन में इंतजार कर रहे अन्य व्यक्तियों के समय हानि को दरकिनार कर अपना उल्लू सीधा करने में रहते हैं।                               

क्या अतुरता, सब हम सब के स्वभाव का हिस्सा तो नहीं बन गया है। सहजता, धैर्य, सुकून आदि जैसा व्यवहार अब कहानियों तक ही सीमित रह जायेगा।

 © श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 108 ⇒ घड़ियाल/मगरमच्छ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घड़ियाल/मगरमच्छ”।)  

? अभी अभी # 108 ⇒ घड़ियाल/मगरमच्छ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

घड़ियाल और मगरमच्छ का मामला कौआ कोयल जैसा नहीं है। दोनों ही जलचर हैं, हिंसक जीव हैं, दोनों की ही मोटी चमड़ी है, और कथित रूप से दोनों ही आंसू बहाते हैं। इनके आंसुओं पर ना तो कोई शोध हुआ है और ना ही इनकी आंसू बहाता हुई कोई तस्वीर, हमारे नेताओं की तरह, कभी वायरल हुई है।

नर और वानर की तरह इनकी भी शारीरिक रचना में थोड़ा अंतर होने के कारण अगर कोई घड़ियाल है तो कोई मगरमच्छ। हम तो जब रोजाना मंदिर जाते हैं तो भव्य आरती के वक्त घंटा और घड़ियाल में भी भेद नहीं कर पाते। कोरोना काल में तो जिसके जो हाथ में आया, उसने उसे ही ईमानदारी से, कोरोना वॉरियर्स के सम्मान में बजाया। दूध सांची का हो या अमूल का, टूथपेस्ट पतंजलि का हो अथवा कोलगेट का, दोनों में ज्यादा अंतर नहीं। ।

एक कथा के अनुसार जब एक हाथी जल पीने तालाब किनारे गया, तो किसी मगरमच्छ ने उसका पांव पकड़ लिया और उसे अपना ग्रास बनाने चला। हाथी ने बहते हुए एक कमल के फूल को अपनी सूंड में उठाया और अपनी प्राण रक्षा के लिए हरि हरि पुकारा। विष्णु भगवान ने तत्काल प्रकट होकर उस हाथी के प्राण बचाए। इस कथा में भी अगर किसी के आंसू बहे होंगे तो हाथी के ही बहे होंगे, मगरमच्छ के नहीं। मुफ्त में ही किसी को बदनाम करने का हमारे यहां चलन बहुत पुराना है।

आंसू बहाना औरतों का काम है। भक्त के आंसू तो बारहमासी सावन भादो के आंसू होते हैं। भक्ति भाव में अश्रुओं की धारा सतत बहती रहती है। जंगली जानवरों को तो सुख दुख से परे ही होना पड़ता है, वहां तो पल पल पर संघर्ष है और एक जीव का जन्म ही इसलिए हुआ है कि वह किसी अन्य जीव का भोजन बने। ईश्वर दयालु है, जो उन्हें इन संघर्ष के क्षणों में मनुष्य के समान मानसिक आघातों से बचाकर रखता है। ।

लेकिन फिर भी जब सृजन का प्रश्न आता है, तो प्रजनन के वक्त सृष्टि के हर प्राणी में संवेदना जाग उठती है। मादा कछुआ हो अथवा मगरमच्छ, समुद्र की रेत के किनारे जब अपने बच्चों को जन्म देती है, तब वह साक्षात जननी बन जाती है। सभी हिंसक जीव इन सृजन के पलों में कहीं से मदरकेयर का पाठ पढ़कर आते हैं, हर मां अपने बच्चे को छाती से चिपकाए रखती है, जान पर खेलकर अपने बच्चों की रक्षा करती है।

ऐसे कई अवसरों पर हमें तो इन सभी हिंस पशु -पक्षी और जानवरों में मानवीय गुणों के दर्शन हो जाते हैं, लेकिन केवल इंसान ही ऐसा प्राणी है जो अपनी इंसानियत छोड़ हैवानियत पर उतर आता है। ।

झूठे मगरमच्छ अथवा घड़ियाली आंसुओं से हमें क्या लेना देना। उसके आंसुओं से आपका वास्ता तो तब पड़ेगा जब देवताओं को दुर्लभ इस मानवीय देह की जगह आपको भी इन जानवरों की देह में जन्म लेना पड़े।

चौरासी का चक्कर जो काट रहा है, और अपनी भोग योनि के वशीभूत असहाय है, अशक्त है, उसके प्रति हमारे मन में दया का भाव हो, हम संवेदनशील हों, हमारे छल कपट और बनावटी आंसुओं की तुलना कम से कम उनके साथ तो ना करें।

मनुष्य के अलावा कभी किसी अन्य प्राणी ने प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं किया और न ही कभी अपनी सीमा लांघी। केवल मनुष्य ही अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ करता है, अपनी मानवीय कमजोरियों और दोषों पर उनका कॉपीराइट घोषित करता है। आदमी का जहर और एक कपटी नेता के बनावटी आंसुओं की तुलना किसी घड़ियाल अथवा मगरमच्छ से नहीं की जा सकती। अब इन झूठे और बनावटी आंसुओं पर इन पाखंडियों का ही कॉपीराइट है किसी मूक और असहाय प्राणी का नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 201 – ऋणानुबंध ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 201 ऋणानुबंध ?

प्रातः भ्रमण से लौट रहा हूँ। देखता हूँ कि एक दुकानदार अपनी दुकान के सामने कौओं को चुग्गा दे रहा है। चुग्गे के लिए कौओं की भीड़ लगी हुई है। कौए निरंतर काँव-काँव कर रहे हैं। सड़क पर एकत्रित कौओं की तरफ कुछ चुग्गा उसने फेंक दिया है। वे एक दाना उठाते हैं, फिर अपनी बड़ी-सी चोंच खोलकर काँव-काँव करने लगते हैं।

दुकानदार का मुँहलगा एक कौआ दुकान के बाहर लगे खंभे पर लटका हुआ है। उसकी और दुकानदार की केमिस्ट्री भी खूब है। खंभे पर लटककर वह नीचे की ओर मुँह कर दुकानदार को देखता है और कहता है, ‘काँव।’ दुकानदार निशाना साधकर चुग्गा उसकी और उछालता है, कौवा हवा में ही उसे मुँह में लपक लेता है। वर्तमान में जब मनुष्य का प्रकृति के अधिकांश जीवों के साथ संघर्ष का नाता है, ऐसा कोई दृश्य अनन्य ही कहलाएगा।

सत्य तो यह है कि मनुष्य और प्रकृति के अन्य सभी घटक सहजीवी हैं। हमारी कठिनाई यह है कि हमने सहजीवी होने का भाव छोड़ दिया है। ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि का मुकुट दिया है। बुद्धि का मुकुट देने का अर्थ है कि उसे प्रकृति का साम्राज्य दिया है। सम्राट बुद्धिमान हो, शौर्यवान हो, यह तो अपेक्षित है लेकिन साथ ही सम्राट के मन में अपनी प्रजा के लिए करुणा का सागर भी होना चाहिए।

हमारा मत है कि यदि केवल भारत का हर एक नागरिक किसी एक पक्षी या प्राणी का पेट पालने की ज़िम्मेदारी ले ले तो कम से कम डेढ़ सौ करोड़ प्राणियों को तो जीवनदान मिल ही सकेगा। हर कोई यह कर सकता है क्योंकि ग़रीब से ग़रीब को भी एक चिड़िया का पेट भरने जितनी अमीरी तो ईश्वर ने दी ही है।

पक्षियों-प्राणियों को भोजन उपलब्ध कराने की भावना पर अनेक बार प्रश्न उठाया जाता है कि ऐसा करके उनकी भोजन जुटाने की प्राकृतिक क्षमता को नष्ट नहीं करना चाहिए। मनुष्य भी एक समय पैदल ही चला करता था। फिर पशुओं पर सवारी करते हुए हवाई जहाज़ और अंतरिक्ष यान तक आ पहुँचा। आदिमानव संभवत: भोजन संग्रह करना भी न जानता हो। आज के मनुष्य के पास कई सालों के लिए अनाज संग्रहित है। कहने का तात्पर्य है कि परिवर्तन संसार का एकमात्र नियम है जो कभी परिवर्तित नहीं होता। मनुष्य द्वारा प्रकृति के निरंतर दोहन के चलते सहज जीवन से विस्थापित होते सभी घटकों के प्रति मनुष्य का ऋणानुबंध है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह इन घटकों का पोषण करे।

श्रीमद्भागवत कहता है,

खं वायुमग्निं सलिलं महीं च ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन्।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं यत्किंच भूतं प्रणमेदनन्यः॥

(11/2/41)

अर्थात आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदियाँ, समुद्र आदि जो कुछ भूत सृष्टि है, वह सब हरिरूप है, ईश्वर का विराट स्वरूप है। यह समझकर ( भक्त) प्रेमभाव से इन्हें प्रणाम करते हैं।

श्रावण चल रहा है। एक पौधा लगाएँ, एक प्राणी का पेट भरने का ज़िम्मा उठाएँ। एक समय था, जब हमारे घरों में पहली रोटी गाय के लिए और अंतिम श्वान के लिए बनती थी। हमारे पूर्वजों ने अपने दायित्व का निर्वहन प्रामाणिकता से किया था। उनके कारण हमें हरी-भरी और भरी-पूरी प्रकृति मिली थी। अब हमारी बारी है कि हम आनेवाली पीढ़ी को हरा संसार दें।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 107 ⇒ चांद के बहाने… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चांद के बहाने “।)  

? अभी अभी # 107 ⇒ चांद के बहाने ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

विज्ञान प्रयोग और परीक्षण में विश्वास करता है, उसकी अपनी प्रयोगशाला होती है। वह हवा में बातें नहीं करता, अंतरिक्ष की बात करता है। बड़े बड़े यंत्रों से वह ना केवल उनकी दूरी नापता है, उन्हें तनिक करीब भी ले आता है। हमारे ऑडिटोरियम की तरह उसका भी एक प्लैनिटोरियम होता है।

इधर कोई प्रेमी शयन कक्ष में बैठा बैठा गुनगुना रहा है, चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो, और उधर भारत का चन्द्रयान सफलतापूर्वक चंद्रमा की ओर प्रस्थान कर रहा है। विज्ञान अफसाने में नहीं, हकीकत में यकीन करता है। एक कवि अथवा शायर भले ही श्रोताओं का दिल अपनी शायरी से जीत ले, विज्ञान चांद पर तिरंगा फहराने में यकीन रखता है। ।

हमारा अस्तित्व सूरज से है। विज्ञान भी यह भली भांति जानता है, इसलिए उसका मंगल इसी में है कि भले ही वह मंगल ग्रह पर परीक्षण के लिए मंगल यान भेज दे, लेकिन सूरज से तो दूर से ही बात करनी होगी। क्योंकि आपके पास जो आएगा, वो जल जाएगा। हम भी इसीलिए सुबह सवेरे सूर्य नमस्कार करते हैं, और उगते सूर्य को अर्घ्य अर्पित करते हैं।

चांद का मामला कुछ अलग है। इसीलिए मनुष्य ने चांद पर कदम तो रख लिया लेकिन सूर्य को दूर से ही राम राम कह दिया। बच्चों ने अगर चांद को चंदामामा माना है, तो क्या शायर, क्या प्रेमी और क्या हमारी भारतीय नारी, सारे व्रत उपवास, सभी चांद के इर्द गिर्द ही नजर आते हैं। ।

एक प्रेमिका अपने प्रेमी से कहती है, चांद को देखो जी ! ऐसा क्या है चांद में, तू अकेली ही चांद को देख लेती। चांद तो महज बहाना है। उन्हें चांदनी रात चाहिए, और एकांत चाहिए। चांद भी कम नहीं। चांद तकता है इधर, आओ कहीं छुप जाएं। चांद समझदार है, इशारा समझ जाता है, खुद ही बादलों में छुप जाता है।

कोई आम चतुर्थी हो अथवा विशिष्ट करवा चौथ, चांद के भाव देखिए आप। आसमान में तो वैसे ही रहते हैं, फिर भी नजर नहीं आते। हर सुहागन सज धजकर, सोलह श्रृंगार कर, पहले चांद को देखेगी, फिर अपने चांद को देखकर व्रत तोड़ेगी। ।

कल से अगर लोग चांद पर बसने लगे तो वे चांद कैसे देखेंगे, किसे देखकर व्रत तोड़ेंगे। शायद तब वे या सूर्य देवता के लिए व्रत उपवास रखें, या फिर नीचे उनकी धरती माता के लिए। मां अपने बेटे की बला टालने के लिए, उसे बुरी नजर से बचाने के लिए, व्रत उपवास रखती है, लेकिन कोई बेटा कभी अपनी मां के लिए व्रत उपवास नहीं रखता, क्योंकि मां को कभी किसी की नजर ही नहीं लगती।

होंगे सितारों से आगे और भी जहान, दूर के ढोल सुहाने, हमारी धरती पर ही वास्तविक स्वर्ग है, और उसमें भी सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा।

चांद सितारे हमें प्यारे हैं, खुला आसमान ही हमारी छत है। आसमान में तो एक ही चांद है, हमारी धरती पर तो सभी चांद से चेहरे हैं ;

तुझे चांद के बहाने देखूं

तू छत पर आ जा गोरिये

जिन्द मोरिये …!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 106 ⇒ फुटपाथ और पार्किंग… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “फुटपाथ और पार्किंग।)  

? अभी अभी # 106 ⇒ फुटपाथ और पार्किंग? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

बोलचाल के कुछ शब्दों के हम इतने अभ्यस्त हो चुके होते हैं कि उनकी भाषा हमें अपनी ही भाषा लगने लगती है। एक भाषा आम होती है जिसमें स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, स्टेशन और लाइब्रेरी भी शामिल है। वहां भाषा विवाद और भेद बुद्धि काम नहीं करती। जो आपसी संवाद कायम करे, वही भाषा कहलाती है।

कभी हमारा शहर भी एक आदर्श शहर था, यहां सड़कें थीं, फुटपाथ थे। आज जब यही महानगर, स्मार्ट सिटी बनता हुआ, स्वच्छता के सातवें आसमान पर कदम रख रहा है, तब यहां का आम नागरिक आज ट्रैफिक जाम और पार्किंग जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। ।

हमारे यहां पहले चौराहों का सौंदर्यीकरण होता है और उसके कुछ समय पश्चात् ही वहां ब्रिज निर्माण और मेट्रो का काम शुरू हो जाता है। कितनी बार इन सड़कों का मेक अप करना पड़ता है, शहर की सुंदरता और स्वच्छता को कायम रखने के लिए।

होते हैं कुछ लोग, जो बार बार घरों को रेनोवेट करते हैं, हर तीन साल में कार बदलते हैं।

आज के व्यस्ततम शहर में जब आम आदमी पैदल चल ही नहीं सकता तो फुटपाथ का क्या औचित्य ! लेकिन नगर विकास की कुछ मान्यताएं हैं, कुछ शर्तें हैं, यातायात की कुछ मजबूरियां हैं, जिनके कारण फुटपाथ का होना भी जरूरी है।

निकल पड़े हैं, खुली सड़क पे, अपना सीना ताने! भला ये कहां का ट्रैफिक सेंस। ।

हमारे शहर का प्रशासन और नगर निगम वाहनों की संख्या और यातायात की असुविधा भले ही कम नहीं कर सकता हो, लेकिन शहर के पूरे मोहल्लों और कॉलोनियों में उसने सुंदर फुटपाथ का जाल जरूर बिछा दिया है। शहर की प्रमुख कॉलोनियों में लोगों के घरों के बाहर सड़क के साथ आप एक फुटपाथ भी देख सकते हैं। लेकिन यह फुटपाथ भी चलने के लिए नहीं बना। यहां रहवासी अपनी कारें पार्क करने लगे हैं। अपने ही घर के सामने फुटपाथ पर अपनी कार। इसे ही तो कहते हैं अपनी सरकार।

बड़ा सपना होता था कभी अपना घर बनाने का। एक बंगला बने न्यारा। बंगले के साथ कार का भी सपना जुड़ा रहता था। कार के लिए बाकायदा गैरेज बनाया जाता था, ताकि हर मौसम में उनकी कार सुरक्षित रहे। तब शहर में इतनी खुली ज़मीन आसानी से उपलब्ध हो जाती थी। आज भी कुछ पुराने घरों में कार के दर्शन गैरेज में किए जा सकते हैं। ।

समय का फेर देखिए, जगह कम होती गई, मकान छोटे होते चले गए, दोपहिया और चौपहिया वाहनों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही चली गई और एक स्थिति ऐसी आ गई कि शहर में धड़ाधड़ ऑटो गैरेज खुलने लगे। जो कल के कार सेंटर थे, वे सर्विस सेंटर कहलाने लगे। आजकल कार भी सर्विस पर जाती है, जब वह घर में नहीं होती।

आज का फुटपाथ, चलने के लिए नहीं बना। कर्जा करके बड़ी मुश्किल से घर बनाया, फर्नीचर खरीदा, कर्जे पर ही कार खरीदी, कार हमें जान से प्यारी है, पूरे घर की सवारी है, लेकिन उसके लिए अलग से घर बनाने की हमारी हैसियत नहीं। टाउनशिप हो या कोई पॉश कॉलोनी, कार तो घर के बाहर फुटपाथ पर ही पार्क की हुई मिलेगी। अगर आज घर में गैरेज जितनी जगह अतिरिक्त होती तो क्या हम वह किराए से नहीं उठा देते। एटीएम वाले तो दो गज जमीन से ही काम चला लेते हैं। ।

आजकल हमने भी एक ऐसा चश्मा बना लिया है, जिससे हमें कहीं गरीबी नजर नहीं आती। हर घर के बाहर एक कार खड़ी है, फुटपाथ कहीं चलने लायक नहीं। बाजारों में तो आप फुटपाथ छोड़िए, सड़कों पर भी नहीं चल सकते। जो आदमी इतना व्यस्त है, क्या वह समस्याग्रस्त भी हो सकता है। उसे तो बस बहना है, विकास के बहाव में, विज्ञापनों का बाजारवाद आपको महंगाई से भी बचाए रखता है। एमेजॉन, फ्लिपकार्ट और बिग बास्केट चौबीस घण्टे आपकी सेवा में हाजिर है। ऑनलाइन पेमेंट में पैसा कहां जेब से जाता है। वैसे भी ईश्वर ने बहुत दिया है।

रहवासी एरिए में, घर के बाहर बने फुटपाथ अथवा सड़क पर कार रखना कोई अतिक्रमण नहीं, कानूनी जुर्म नहीं, आम नागरिक की मजबूरी है। रात दिन आपकी कार आपकी निगरानी में रहे, सुरक्षित रहे, हम तो यही प्रार्थना कर सकते हैं। बस अन्य लोगों की सुविधा का भी खयाल रखें, तो सोने में सुहागा।

पार्किंग की समस्या का कोई विकल्प हो या ना हो, दूसरी कार का संकल्प लोग फिर भी ले ही लेते हैं। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #192 ☆ ज़िंदगी…लम्हों की किताब ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी…लम्हों की किताब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 192 ☆

  ज़िंदगी…लम्हों की किताब 

‘लम्हों की किताब है ज़िंदगी/ सांसों व ख्यालों का हिसाब है ज़िंदगी/ कुछ ज़रूरतें पूरी, कुछ ख्वाहिशें अधूरी/ बस इन्हीं सवालों का/ जवाब है जिंदगी।’ प्रश्न उठता है–ज़िंदगी क्या है? ज़िंदगी एक सवाल है; लम्हों की किताब है; सांसों व ख्यालों का हिसाब है; कुछ अधूरी व कुछ पूरी ख्वाहिशों का सवाल है। सच ही तो है, स्वयं को पढ़ना सबसे अधिक कठिन कार्य है। जब हम ख़ुद के बारे में नहीं जानते; अनजान हैं ख़ुद से… फिर ज़िंदगी को समझना कैसे संभव है? ‘जिंदगी लम्हों की सौग़ात है/ अनबूझ पहेली है/ किसी को बहुत लगती लम्बी/ किसी को लगती सहेली है।’ ज़िंदगी सांसों का एक सिलसिला है। जब कुछ ख्वाहिशें पूरी हो जाती हैं, तो इंसान प्रसन्न हो जाता है; फूला नहीं समाता है– मानो उसकी ज़िंदगी में चिर-बसंत का आगमन हो जाता है और जो ख्वाहिशें अधूरी रह जाती हैं; टीस बन जाती हैं; नासूर बन हर पल सालती हैं, तो ज़िंदगी अज़ाब बन जाती है। इस स्थिति के लिए दोषी कौन? शायद! हम…क्योंकि ख्वाहिशें हम ही मन में पालते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। एक के बाद दूसरी प्रकट हो जाती है और ये चाहतें हमें चैन से नहीं बैठने देतीं। अक्सर हमारी जीवन-नौका भंवर में इस क़दर फंस जाती है कि हम चाह कर भी उस चक्रवात से बाहर नहीं निकल पाते। परंतु इसके लिए दोषी हम स्वयं हैं, परंंतु उस ओर हमारी दृष्टि जाती ही नहीं और न ही हम यह जानते हैं कि हम कौन हैं? कहाँ से आए हैं और इस संसार में आने का हमारा प्रयोजन क्या है? संसार व समस्त प्राणी-जगत् नश्वर है और माया के कारण सत्य भासता है। यह सब जानते हुए भी हम आजीवन इस मायाजाल से मुक्त नहीं हो पाते।

सो! आइए, खुद को पढ़ें और ज़िंदगी के मक़सद को जानें; अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखें और बेवजह ख्वाहिशों को मन में विकसित न होने दे। ख्वाहिशों अथवा आकांक्षाओं को ज़रूरतों-आवश्यकताओं तक सीमित कर दें, क्योंकि आवश्यकताओं की पूर्ति तो सहज रूप में संभव है; इच्छाओं की नहीं, क्योंकि वे तो सुरसा के मुख की भांति बढ़ती चली जाती हैं और उनका अंत कभी नहीं होता। जिस दिन हम इच्छा व आवश्यकता के गणित को समझ जाएंगे; ज़िंदगी आसान हो जाएगी। आवश्यकता के बिना तो ज़िंदगी की कल्पना ही बेमानी है, असंभव है। परमात्मा ने प्रचुर मात्रा में पृथ्वी, वायु, जल आदि प्राकृतिक संसाधन जुटाए हैं… भले ही मानव के बढ़ते लालच के कारण हम उनका मूल्य चुकाने को विवश हैं। सो! इसमें दोष हमारी बढ़ती इच्छाओं का है। इसलिए इच्छाओं पर अंकुश लगाकर उन्हें सीमित कर तनाव-रहित जीवन जीना श्रेयस्कर है।

ख्वाहिशें कभी पूरी नहीं होती और कई बार हम पहले ही घुटने टेक कर पराजय स्वीकार लेते हैं; उन्हें पूरा करने के निमित्त जी-जान से प्रयत्न भी नहीं करते और स्वयं को झोंक देते हैं– चिंता, तनाव, निराशा व अवसाद के गहन सागर में; जिसके चंगुल से बच निकलना असंभव होता है। वास्तव में ज़िंदगी साँसों का सिलसिला है। वैसे भी ‘जब तक साँस, तब तक आस’ रहती है और जिस दिन साँस थम जाती है, धरा का, सब धरा पर, धरा ही रह जाता है। मानव शरीर पंच-तत्वों से निर्मित है…सो! मानव अंत में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश में विलीन हो जाता है।

‘आदमी की औक़ात/ बस! एक मुट्ठी भर राख’ यही है जीवन का शाश्वत सत्य। मृत्यु निश्चित व अवश्यंभावी है; भले ही समय व स्थान निर्धारित नहीं है। इंसान इस जहान में खाली हाथ आया था और उसे सब कुछ यहीं छोड़, खाली हाथ लौट जाना है। परंतु फिर भी वह आखिरी सांस तक इसी उधेड़बुन में लगा रहता है और अपनों की चिंता में लिप्त रहता है। वह अपने आत्मजों व प्रियजनों के लिए आजीवन उचित-अनुचित कार्यों को अंजाम देता है…उनकी खुशी के लिए; जबकि पापों का फल उसे अकेले ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि ‘सुख के सब साथी, दु:ख में न कोय’ अर्थात् सुख-सुविधाओं का आनंद तो सभी लेते हैं, परंतु वे पाप के प्रतिभागी नहीं होते। आइए! हम इससे निज़ात पाने की चेष्टा करें और हर पल को अंतिम पल स्वीकार कर निष्काम कर्म करें। कबीरदास जी का यह दोहा समय की सार्थकता पर प्रकाश डालता है–’ काल करे सो आज कर, आज करे सो अब/ पल में प्रलय हो जाएगी, बहुरि करेगा कब?’ जी हां! कल अर्थात् भविष्य अनिश्चित है; केवल वर्तमान ही सत्य है। इसलिए जो भी करना है; आज ही नहीं, अभी करना बेहतर है। क़ुदरत ने तो हमें आनंद ही आनंद दिया है, दु:ख तो हमारी स्वयं की खोज है। इससे तात्पर्य है कि प्रकृति दयालु है; मां की भांति मानव की हर आवश्यकता की पूर्ति करती है। परंतु मानव स्वार्थी है; उसका अनावश्यक दोहन करता है; जिसके कारण अपेक्षित संतुलन व सामाजिक-व्यवस्था बिगड़ जाती है तथा उसके कार्य-व्यवहार में अनावश्यक हस्तक्षेप करने का परिणाम है सुनामी, अत्यधिक वर्षा, दुर्भिक्ष, अकाल, महामारी आदि…जिनका सामना आज पूरा विश्व कर रहा है। मुझे स्मरण हो रहा हो रहा है… भगवान महावीर द्वारा निर्दिष्ट–’जियो और जीने दो’ का सिद्धांत, जो अधिकार को त्याग कर्त्तव्य-पालन व संचय की प्रवृत्ति को त्यागने का संदेश देता है। सृष्टि का नियम है कि ‘एक साँस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है।’ सो! जीवन में ज़रूरतों की पूर्ति करो; व्यर्थ की ख्वाहिशें मत पनपने दो, क्योंकि वे कभी पूरी नहीं होतीं और उनके जंजाल में फंसा मानव कभी भी मुक्त नहीं हो पाता। इसलिए सदैव अपनी चादर देख कर पांव पसारने अर्थात् संतोष से जीने की सीख दी गयी है… यही अनमोल धन है अर्थात् जो मिला है, उसी में संतोष कीजिए, क्योंकि परमात्मा वही देता है, जो हमारे लिए आवश्यक व शुभ होता है। सो! ‘सपने देखिए! मगर खुली आंख से’… और उन्हें साकार करने की भरपूर चेष्टा कीजिए; परंतु अपनी सीमाओं में रहते हुए, ताकि उससे दूसरों के अधिकारों का हनन न हो।

संसार अद्भुत स्थान है। आप दूसरे के दिल में, विचारों में, दुआओं में रहिए। परंतु यह तभी संभव है, जब आप किसी के लिए अच्छा करते हैं; उसका मंगल चाहते हैं; उसके प्रति मनोमालिन्य का दूषित भाव नहीं रखते। सो! ‘सब हमारे, हम सभी के’ –इस सिद्धांत को जीवन में अपना लीजिए… यही आत्मोन्नति का सोपान है। ‘कर भला, हो भला’ तथा ‘सबका मंगल होय’ अर्थात् इस संसार में हम जैसा करते हैं; वही लौटकर हमारे पास आता है। इसीलिए कहा गया है कि ‘रूठे हुए को हंसाना; असहाय की सहायता करना; सुपात्र को दान देना’ आदि सब प्रतिदान रूप में लौट कर आता है। वक्त सदा एक-सा नहीं रहता। ‘कौन जाने, किस घड़ी, वक्त का बदले मिज़ाज’ तथा ‘कल चमन था, आज एक सह़रा हुआ/ देखते ही देखते यह क्या हुआ’– यह हक़ीक़त है। पल-भर में रंक राजा व राजा रंक बन सकता है। क़ुदरत के खेल अजब हैं; न्यारे हैं; विचित्र हैं। सुनामी के सम्मुख बड़ी-बड़ी इमारतें ढह जाती हैं और वह सब बहाकर ले जाता है। उसी प्रकार घर में आग लगने पर कुछ भी शेष नहीं बचता। कोरोना जैसी महामारी का उदाहरण आप सबके समक्ष है। आप घर की चारदीवारी में क़ैद हैं… आपके पास धन-दौलत है; आप उसे खर्च नहीं कर सकते; अपनों की खोज-खबर नहीं ले सकते। कोरोना से पीड़ित व्यक्ति राजकीय संपत्ति बन जाता है। यदि बच गया, तो लौट आएगा, अन्यथा उसका दाह-संस्कार भी सरकार द्वारा किया जाएगा। हां! आपको सूचना अवश्य दे दी जाएगी।

लॉकडाउन में सब बंद है। जीवन थम-सा गया है। सब कुछ मालिक के हाथ है; उसकी रज़ा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल पाता…फिर यह भागदौड़ क्यों? अधिकाधिक धन कमाने के लिए अपनों से छल क्यों? दूसरों की भावनाओं को रौंद कर महल बनाने की इच्छा क्यों? सो! सदा प्रसन्न रहिए। ‘कुछ परेशानियों को हंस कर टाल दो, कुछ को वक्त पर टाल दो।’ समय सबसे बलवान् है; सबसे बड़ी शक्ति है; सबसे बड़ी नियामत है। जो ठीक अर्थात् आपके लिए उपयुक्त व कारग़र होगा, आपको अवश्य मिल जाएगा। चिंता मत करो। जिसे तुम अपना कहते हो; तुम्हें यहीं से मिला है और तुम्हें यहीं पर सब छोड़ कर जाना है। फिर चिंता और शोक क्यों?

रोते हुए को हंसाना सबसे बड़ी इबादत है; पूजा है; भक्ति है; जिससे प्रभु प्रसन्न होते हैं। सो! मुट्ठी खुली रखना सीखें, क्योंकि तुम्हें इस संसार से खाली हाथ लौटना है। अपने हाथों से गरीबों की मदद करें; उनके सुख में अपना सुख स्वीकारें, क्योंकि ‘क़द बढ़ा नहीं करते, एड़ियां उठाने से/ ऊंचाइयां तो मिलती है, सर को झुकाने से।’ विनम्रता मानव का सबसे बड़ा गुण है। इससे बाह्य धन-संपदा ही नहीं मिलती; आंतरिक सुख, शांति व आत्म-संतोष भी प्राप्त होता है और मानव की दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: अंत हो जाता है। वह संसार उसे अपना व खुशहाल नज़र आता है। सो! ज़िंदगी उसे दु:खालय नहीं भासती; उत्सव प्रतीत होती है, जिसमें रंजोग़म का स्थान नहीं; खुशियाँ ही खुशियाँ हैं; जो देने से, बाँटने से विद्या रूपी दान की भांति बढ़ती चली जाती हैं। इसलिए कहा जाता है–’जिसे इस जहान में आंसुओं को पीना आ गया/ समझो! उसे जीना आ गया।’ सो! जो मिला है, उसे प्रभु-कृपा समझ कर प्रसन्नता से स्वीकार करें, और  ग़िला-शिक़वा कभी मत करें। कल अर्थात् भविष्य अनिश्चित है; कभी आएगा नहीं…उसकी चिंता में वर्तमान को नष्ट मत करें… यही ज़िंदगी है और यही  है लम्हों की सौग़ात।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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