हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी #99 ⇒ कयामत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कयामत “।)  

? अभी अभी # 99 ⇒ कयामत? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आप इसे प्राकृतिक आपदा कहें,विपत्ति कहें,ईश्वर का प्रकोप कहें,लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इस बार बारिश, बाढ़, और भू -स्खलन ने जो कहर बरपाया है,और उससे जो जान माल की हानि हुई है,वह किसी तबाही से कम नहीं। इसके पहले कि आदमी के सब्र का बांध टूटे, नदियों के रौद्र रूप को देखकर,प्रशासन को कई बांधों के गेट खोलने पड़े।

बस फिर तो कयामत आनी ही थी।

पूरा उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश तो इस तबाही की चपेट में आया ही,धार्मिक स्थान और पर्यटन स्थल सभी इस बार मूसलाधार बारिश और बाढ़ के पानी का निशाना बने। हरिद्वार हो या जोशीमठ, गंगोत्री हो या अमरनाथ,सोलन,मंडी और मनाली,सब तरफ पानी ही पानी,तबाही ही तबाही।।  

इस बार दिल्ली भी डूबने से नहीं बची। विकास की राह में जब प्रकृति का प्रकोप अपना रौद्र रूप दर्शाता है, तो सारे मंसूबे धरे रह जाते हैं। सरकार कितना खर्च करती है इन प्राकृतिक स्थलों के विकास के लिए। यह सब धार्मिक श्रद्धालुओं और पर्यटकों की सुविधा के लिए ही तो किया जाता है। लेकिन जब प्रकृति ही विपक्ष का रोल अदा करने लगे, तो कोई भी क्या करे।

यह एक गंभीर समस्या है, कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं। आपदा प्रबंधन तो सक्रिय है ही, जो पीड़ित हैं, और वहां जाम में फंसे हुए हैं, वे भी अपने मोबाइल कैमरे से तस्वीरें खींच खींच कर भेज रहे हैं। सरकार भी चिंतित है और मीडिया भी सक्रिय। हेलीकॉप्टर से बचाव कार्य भी होंगे, और माननीयों द्वारा भी परिस्थिति का जायजा लिया जाएगा। राहत कार्य जारी हैं, आर्थिक सहायता की भी घोषणा होगी ही।।  

इस बार कोई सरकार को दोष नहीं दे रहा। सड़कें और पूल जो क्षतिग्रस्त हुए हैं, उन्हें पुनः ठीक किया जाएगा। विकास की राह हमेशा कठिन ही होती है, लेकिन कभी परिस्थितियों से हार नहीं मानी जाती।

फिर भी हर त्रासदी हमें कुछ सबक सिखला कर ही जाती है। दुष्यंतकुमार ने आसमान में सूराख करने को कहा था, यहां तो मानो आसमान ही टूट पड़ा।

मौसम की चेतावनी के साथ रेड अलर्ट ही नहीं, आजकल ऑरेंज अलर्ट और पर्पल अलर्ट भी जारी होने लग गए हैं। जब धरती दुखी होती है, फट जाती है, आसमान से भी दुख सहा नहीं जाता, बादल फट जाते हैं।।  

जब प्रकृति हंसती है, इंसान हंसता है, लेकिन जिस दिन प्रकृति रोने लगती है, ग्लेशियर पिघलने लगते हैं, पहाड़ खिसकने लगते हैं, उसका खामियाजा इंसान को भी भुगतना पड़ता है। अनुशासन और शिष्टाचार और विकास और भ्रष्टाचार कभी साथ नहीं चल सकते। जब भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन जाए तो बेचारे बिकास बाबू भी क्या करे।

बहुत पहले फिल्म उपकार के एक पात्र लंगड़ ने एक बात कही थी, आसमान में उड़ने वाले, मिट्टी में मिल जाएगा। ईश्वर ने हमें पंख तो दिए नहीं, लेकिन हमें भी पंछियों की तरह उड़ने का शौक चर्राया। जल, थल और नभ तीनों लोकों पर इंसान ने कब्जा कर लिया और उसका मनमाना दुरुपयोग शुरू कर दिया।।  

आज आम नागरिक हो या सरकार, सबकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। जन कल्याण का स्थान स्वार्थ और खुदगर्जी ने ले लिया है। एक समय था, जब इस तरह की आपदाओं पर समाज में थोड़ी गंभीरता, संजीदगी और चिंता नजर आती थी। क्या यह आपातकाल नहीं।

हमने अपने नेताओं को भगवान का दर्जा दे दिया है। बस उनका आव्हान हो, और हम नींद से जाग जाएं। वाकई बड़ी गंभीर परिस्थिति है, लेकिन हम कर भी क्या कर सकते हैं, ईश्वर की मर्जी के आगे। जो करेगी सरकार ही करेगी, हमारे नेता ही करेंगे, हमें प्रशासन पर भरोसा है। कपड़े, दवाई और खाद्य सामग्री का भी इंतजाम करना है। नुकसान के आंकड़े तो अभी आना बाकी है। महंगाई को भी अभी और बढ़ना ही है।।  

झूठे प्रचार तंत्र और विज्ञापन बाजी से कभी सच छुपाया नहीं जा सकता। जब दिव्यता पर भव्यता हावी हो जाती है, तो दिव्य शक्तियां रुष्ट हो जाती हैं। बड़ी मुश्किल से हम कोरोना के प्रकोप से उबरे थे, अब और अब यह प्राकृतिक आपदा। कड़वे सच का सामना तो हमें करना ही होगा।

बहुत तारीफ हो गई अपने आपकी, अब अपनी गलतियों को भी सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना होगा। दोषी हम ही हैं, हमारी सरकार नहीं, क्योंकि आखिर सरकार भी तो हमारी ही चुनी हुई होती है। हमें टूटना नहीं मजबूत होना है, एकजुट होना है, तभी हम इस संकट का सामना कर पाएंगे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “टेक ऑफ…” – लेखक : श्री उमेश कुलकर्णी ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? मनमंजुषेतून ?

☆ “टेक ऑफ…” – लेखक : श्री उमेश कुलकर्णी ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

हा टेक ऑफचा क्षण लांबून बघताना मला तरी आतून कुठून तरी भारावून जायला होतं… माझ्या नकळत ‘माझा भारत देश’ हा अभिमान उचंबळून येतो… आतून भरुन येतं… डोळे ओले होतात…

माझं जर हे असं होत असेल तर या प्रोजेक्ट मधे गेली तीन चार वर्षे अव्याहतपणे झोकून देऊन काम करणाऱ्या शास्त्रज्ञांना, अभियंत्यांना काय होत असेल… 

एका बाजूला १४५ कोटी लोकांकडून अपेक्षांचं ओझं… दुसरीकडे अतिशय क्लिष्ट आणि वेगवेगळ्या विषयांवरचे इंजिनियरिंग … इंजिनियरिंग स्ट्रीम्सचं इंटरलिंकींग… विविध तऱ्हेच्या मानसिकतेंचं सिन्क्रोनायझेशन… एकमेकांशी इंटरफेसिंग… स्वतःच्या वैयक्तिक जबाबदाऱ्या, घरगुती जबाबदाऱ्या… वेळोवेळी येणारे अप-डाऊन्स, प्रॉब्लेम्स, प्रेशर्स…  वगैरे वगैरे… सांभाळणं आणि जमवून घेणं ! 

आणि हे सगळं सांभाळून अखेरीस हा निरोपाचा… टेक ऑफचा क्षण येतो…

लॉन्चिंग पॅड तयारच असतं… सगळं सेटिंग झालेलं असतं… काऊंट डाऊन सुरु होतं… फ्यूएलिंग होतं… कंट्रोल रुममध्ये एक अनामिक शांतता असते… फक्त रिपोर्टिंगचे आवाज ऐकू येत असतात… ‘सिस्टीम इनिशिएटेड’…. ‘सिस्टीम ॲक्टिव्हेटेड’… ‘ऑल चेक्स नॉर्मल’… तरीही सर्वांचे चेहरे दडपणाखाली असतात… आपापल्या पद्धतीने प्रार्थना सुरु असतात… काऊंट डाऊन संपत आलेला असतो… आणि झिरो होतो… 

इग्निशन ॲक्टिव्हेट होतं… अग्निचे लोळ उसळतात… आणि सगळे बंध तडातड तोडून ते निमिषार्धात आकाशात झेपावतं…. सरसर वेगानं पुढं पुढं झेपावत… पहिली स्टेज ओलांडत दुसऱ्या स्टेजमधून तिसऱ्यात जातं… क्रायोजेनिक इंजिन सुरु होतं आणि मग ते ठरवून दिलेल्या ट्रॅजेक्टरीत स्थापित होत होत ठिपका ठिपका होत दिसेनासं होतं आणि मग इकडं कंट्रोल रुममध्ये उरतं फक्त समोरच्या स्क्रीनवर एक ट्रॅजेक्टरी आणि त्यातून पुढे पुढे सरकणारा एक इवलासा ठिपका… हे एवढंच काय ते त्याचं अस्तित्व… 

सगळ्यांचे चेहरे हलके होतात… थोडं थोडं हसू तिथं उमलायला लागतं… एकमेकांचं अभिनंदन केलं जातं…

एवढं आपण केलेलं आज लाखो किलोमीटर लांब निघालेय… लांबचा पल्ला आहे… ते तिथं लांब आणि आपण इथं बसून त्यावर नियंत्रण ठेवायचं… कसं जमत असेल ना हे सगळं ? 

या सगळ्या मंडळींना ग्रेट म्हणायलाच हवं… 

आणि मग याच क्षणी त्यांना  ‘पूर्णत्वा’चा अनुभव मिळत असेल ना !  

पूर्णात पूर्ण ते हेच असणारेय !

एकदा त्या शास्त्रज्ञांना भेटून हे विचारायलाच हवे… 

खात्री आहे, ते हेच सांगतील…

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते 

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते…

लेखक : श्री उमेश कुलकर्णी

प्रस्तुती : सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #191 ☆ शक़, प्यार, विश्वास ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख शक़, प्यार, विश्वास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 191 ☆

☆ शक़, प्यार, विश्वास 

‘मन के दरवाज़े से जब शक़ प्रवेश करता है; प्यार व विश्वास निकल जाते हैं, यह अकाट्य सत्य है। शक़ दोस्ती का दुश्मन है और उसके दस्तक देते ही जीवन में तहलक़ा मच जाता है; शांति व सुक़ून नष्ट हो जाता है।’ पारस्परिक स्नेह व सौहार्द दूसरे दरवाज़े से रफ़ूचक्कर हो जाते हैं और उनके स्थान पर काम,क्रोध व ईर्ष्या-द्वेष अपनी सल्तनत क़ायम कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में विश्वास वहां से कोसों दूर चला जाता है। जीवन में जब विश्वास नहीं रह जाता तो वहां पर शून्यता पसर जाती है; शत्रुता का भाव काबिज़ हो जाता है और मानव ग़लत राहों पर अग्रसर हो जाता है। आजकल रिश्तों में अविश्वास की भावना हावी है,जिसके कारण अजनबीपन का एहसास सुरसा के मुख की भांति पांव पसार रहा है और संबंधों को दीमक की भांति चाट रहा है। संदेह,संशय व शक़ ऐसा ज़हर है,जो स्नेह व विश्वास को लील जाता है। वह दिलों में ऐसी दरारें उत्पन्न कर देता है, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है और जब तक मानव इस सत्य से अवगत होता है; बहुत देर हो चुकी होती है। वह प्रायश्चित करना चाहता है, परंतु ‘अब पछताए होत क्या,जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् उसे खाली हाथ लौटना पड़ता है।

रिश्तों की माला जब टूटती है तो जोड़ने से छोटी हो जाती है,क्योंकि कुछ जज़्बात के मोती बिखर जाते हैं। ‘रहिमन धागा प्रेम का,मत तोरो चटकाय/ टूटे ते पुनि न जुरे,जुरे ते गांठ परि जाय,’ क्योंकि एक बार संशय रूपी गांठ के मन में पड़ने से स्नेह, प्रेम व विश्वास दिलों से नदारद हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि रिश्तों का क्षेत्रफल कितना अजीब है/ लोग लंबाई-चौड़ाई तो नापते हैं/ गहराई कोई नहीं आँकता। आजकल के रिश्ते मात्र दिखावे के होते हैं,जो ज़रा की ठोकर लगते टूट जाते हैं भुने हुए पापड़ की मानिंद और कांच के विभिन्न टुकड़ों की भांति इत-उत बिखर जाते हैं। वैसे भी आजकल रिश्तों की अहमियत रही नहीं; यहां तक कि खून के रिश्ते भी बेमानी भासते हैं। सो! इस स्थिति में मानव किस पर विश्वास करे?

छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान की ओर इंगित करती है। सो! सुनना सीख लो,सहना आ जाएगा। सहना सीख लिया तो रहना सीख जाओगे। इसलिए मानव का हृदय विशाल व सोच सकारात्मक होनी चाहिए, क्योंकि नकारात्मकता मानव को अवसाद के व्यूह में लाकर खड़ा कर देती है। मानव को दूसरों की अपेक्षा ख़ुद से उम्मीद रखनी चाहिए,क्योंकि दूसरों से उम्मीद रखना चोट पहुंचाता है और ख़ुद से उम्मीद रखना जीवन को प्रेरित करता है; निर्धारित मुक़ाम पर पहुंचाता है। वैसे संसार में सबसे मुश्किल काम है आत्मावलोकन करना अर्थात् स्वयं से साक्षात्कार कर,स्वयं को खोजना,क्योंकि आजकल मानव के पास समयाभाव है। सो! ख़ुद से मुलाकात कैसे संभव है? इससे भी बढ़कर कठिन है– अपनों में अपनों को तलाशना, क्योंकि चहुंओर अविश्वास का वातावरण व्याप्त है। हमारे अपने क़रीबी व राज़दार ही सबसे अधिक दुश्मनी निभाते हैं। इन असामान्य परिस्थितियों में मानव तनाव-ग्रस्त होकर सोचने लगता है ‘वक्त भी कैसी पहेली दे गया/ उलझनें हज़ार और ज़िंदगी अकेली दे गया।’ जीवन में इच्छाओं के मकड़जाल में फंसा इंसान लाख चाहने पर भी उनके शिकंजे से बाहर नहीं आ सकता। वक्त व ख़्वाहिशें हाथ में बंधी घड़ी की तरह होती हैं,जिसे हम विषम परिस्थिति में उतार कर रख भी दें,तो भी चलती रहती है। इसलिए कहा जाता है कि ज़रूरतों को पूरा करना मुश्किल नहीं,परंतु असीमित आकांक्षाओं व लालसाओं को पूरा करना असंभव व नामुमक़िन है/ कुछ ख़्वाहिशों को ख़ामोशी से पालना चाहिए अर्थात् उनके पीछे नहीं भागना चाहिए,क्योंकि वे तो माया जाल है; जिसमें मानव फंसकर रह जाता है।

‘जीवन एक यात्रा है/ रो-रोकर जीने से लम्बी लगेगी/ और हंसकर जीने से कब पूरी हो जाएगी/ पता भी न चलेगा।’ सो! मानव को सदैव प्रसन्न रहना चाहिए तथा किसी से अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए,क्योंकि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए हानिकारक हैं। वे मानव को उस कग़ार पर लाकर खड़ा कर देती हैं,जहां वह स्वयं को असहाय अनुभव करता है। किसी से उम्मीद रखना और उसकी पूर्ति न होना; उपेक्षा का कारण बनती है। यह दोनों स्थितियां भयावह हैं। ‘उम्र भर ग़ालिब यह भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर थी/ और आईना साफ करता रहा।’ मानव जीवन में यही ग़लती करता है कि वह सत्य का सामना नहीं करता और माया के आवरण में उलझ कर रह जाता है। इसलिए कहा जाता है कि ‘अंदाज़ में न नापिए/ किसी की हस्ती को/ ठहरे हुए दरिया/ अक्सर गहरे हुआ करते हैं।’ परंतु मानव दूसरों को पहचानने की ग़लती करता है और चापलूस लोगों के घेरे से बाहर नहीं आ सकता। दूसरों को खुश करने के लिए मानव को तनाव,चिन्ता व अवसाद से गुज़रना पड़ता है। ‘खुश होना है/ तो तारीफ़ सुनिए/ बेहतर होना है तो निंदा/ क्योंकि लोग आपसे नहीं/ आपकी स्थिति से हाथ मिलाते हैं।’ यह जीवन का कड़वा सच है। पद-प्रतिष्ठा तो रिवाल्विंग चेयर की भांति हैं,जिसके घूमते ही लोग नज़रें फेर लेते हैं।

वास्तव में सम्मान व्यक्ति का नहीं; उसके पद,स्थिति व रुतबे का होता है। सो! सम्मान उन शब्दों में नहीं,जो आपके सामने कहे जाते हैं,बल्कि उन शब्दों का होता है; जो आपकी अनुपस्थिति में कहे जाते हैं। इसलिए कहा जाता है कि व्यक्ति की सोच व व्यवहार उसके जाने से पहले पहुंच जाते हैं। सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है– उपहास,विरोध व अंतत: स्वीकृति। सत्य को सबसे पहले उपहास का पात्र बनना पड़ता है; फिर विरोध सहना पड़ता है और अंत में उसे मान्यता प्राप्त होती है। परंतु सत्य तो सात परदों के पीछे से भी प्रकट हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि सत्य ही शिव है; शिव ही सुंदर है। जीवन में सत्य की राह पर चलना ही श्रेयस्कर है,क्योंकि उसका परिणाम सदैव कल्याणकारी होता है और वह सबको अपनी ओर आकर्षित करता है। व्यवहार ज्ञान से बड़ा होता है और हम अपने विनम्र व्यवहार द्वारा परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं और अनुभव से विचार। इसलिए विचार ऐसे रखो कि किसी को तुम्हारे विचारों पर भी विचार करना पड़े अर्थात् सार्थक विचार और सार्थक कार्य-व्यवहार को जीवन में धरोहर-सम संजोकर रखें। ‘जीवन में हमेशा कर्मशील रहें; थककर निराशा का दामन मत थामें,क्योंकि सफल व्यक्ति कुर्सी पर भी विश्राम नहीं करते। उन्हें काम करने में आनंद आता है। वे सपनों के संग सोते हैं और प्रतिबद्धता के साथ जाग जाते हैं। वे लक्ष्य के प्रति समर्पित होते हैं और वही उनके जीने का अंदाज़ होता है।’ यही सोच थी कलाम जी की–आत्मविश्वास रखो और निरंतर परिश्रम करो। कबीरदास जी के मतानुसार ‘आंखिन देखी पर विश्वास करें; कानों-सुनी पर नहीं’,क्योंकि लोग किसी को खुश नहीं देख सकते। उन्हें तो दूसरों के जीवन में आग लगाने के पश्चात् आनंदानुभूति होती है। इसलिए वे ऊल-ज़लूल बातें कर उनका विश्वास जीत लेते हैं। उस स्थिति में उनके परिवार की खुशियों को ग्रहण लग जाता है। स्नेह व प्रेम भाव उस आशियाने से मुख मोड़ लेते हैं और विश्वास भी सदा के लिए वहां से नदारद हो जाता है। उस घर में मरघट-सा सन्नाटा पसर जाता है। घर-परिवार टूट जाते हैं। संदेह व संशय के जीवन में दस्तक देते ही खुशियाँ अलविदा कह बहुत दूर चली जाती हैं। सो! एक-दूसरे के प्रति अटूट विश्वास भाव होना आवश्यक है ताकि जीवन में समन्वय व सामंजस्य बना रहे। वैसे भी मानव को सब कुछ लुट जाने के पश्चात् ही होश जाता है। जब उसे किसी वस्तु का अभाव खलता है तो ज़िंदगी की अहमियत नज़र आती है। इसलिए शीघ्रता से कोई निर्णय न लें,क्योंकि जो दिखाई देता है,सदा सत्य नहीं होता। मुश्किलें कितनी भी बड़ी क्यों न हों; हौसलों से छोटी रहती हैं। इसलिए संकट की घड़ी में अपना आपा मत खोएं; सुक़ून बना रहेगा और जीवन सुचारु रुप से चलता रहेगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 98 ⇒ गं ध… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गं ध।)  

? अभी अभी # 98 ⇒ || गं ध ||? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आप सुगंध कहें या खुशबू, किसे महकता वातावरण पसंद नहीं। बात चाहे वादियों और फिज़ाओं की हो, अथवा गंधमादन पर्वत की, सुंदरता और मादकता को न तो आप परिभाषित कर सकते हैं, और न ही उसे किसी तस्वीर में उतार सकते हैं। किसी बदन की खुशबू और किसी गुलाब की महक किसी नुमाइश की मोहताज नहीं। कब ‘आंख ‘ सूंघ ले, और कब ” नाक ‘ देख ले, कुछ कहा नहीं जा सकता। एक सस्ता सा शेर भी शायद यही बात दोहरा रहा है ;

सच्चाई छुप नहीं सकती

बनावट के उसूलों से।

कि खुशबू आ नहीं सकती

कभी काग़ज़ के फूलों से।।

सभी प्राणियों में सूंघने की शक्ति होती है, किसी में कम, किसी में ज्यादा। जिस तरह लोग स्वाद के शौकीन होते हैं, उसी तरह कई लोग खुशबू के भी शौकीन होते हैं। कजरा अगर सुंदरता का प्रतीक है तो गजरा खुशबू का। रसिकों का क्या है, वे तो सुनने के भी शौकीन होते हैं ;

पायल वाली देखना,

यहीं तो कहीं दिल है ;

पग तले आए ना।।

रस और गंध का गुण धर्म राजसी है। स्वर्ग में राजसी सुख है, वैभव है, नृत्य और संगीत है। हम मंदिर में अपने इष्ट को पुष्प और गंध दोनों अर्पित करते हैं। धूप बत्ती और कर्पूर आरती का भी प्रावधान है। गंध से आसुरी शक्तियां पास नहीं फटकती। सुगंधित पदार्थों और जड़ी बूटियों से ही यज्ञ और हवन संपन्न होते हैं।

पुष्प समर्पयामि। गंधं समर्पयामि ! चित्त का शांत होना ही शांति का प्रतीक है।

सूंघने का विभाग नाक का है। एक विभाग के भी दो भाग हैं, जिनमें वेंटिलेटर्स लगे हैं। हमारे फेफड़ों में प्राणवायु का प्रवेश और कार्बन डाइऑक्साइड की निकासी भी तो इसी नाक से होती है। नस नाड़ियों का जाल हमारे शरीर का नेटवर्क है। सूर्य चंद्र नाड़ी का अनुपात शरीर को गर्म ठंडा रखता है। संत कबीर तो इड़ा पिंगला की बात करते करते सीधे सुषुम्ना यानी सहज समाधि तक पहुंच जाते हैं। ।

यह हमारा शरीर भले ही हाड़ मांस का पुतला हो, लेकिन अगर किसी के बदन में खुशबू है तो किसी के शरीर में बदबू भी हो सकती है, क्योंकि हमारी प्रवृत्ति भी सात्विक, राजसी और तामसिक होती है तामसी पदार्थों के सेवन से बदन में खुशबू नहीं, बदबू ही आती है। जैसा अन्न वैसा मन ;

फूल सब बगिया खिले हैं

मन मेरा खिलता नहीं क्यों।

फूल तो खुशबू बिखेरें

मैं रहा बदबूऍं क्यों।।

हमारे ही शरीर में आभा भी है और ओज भी, जिसे विज्ञान की भाषा में aura कहते हैं। किसी के आने पर सजना, धजना, संवरना भी प्रसन्नता का ही द्योतक होता है। बहारों फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है। खुशी से हमारा चेहरा खिलता क्यों है, जब उदास होते हैं, तो मुरझाता क्यों है।

चमन में बहार है तो खुशबू है। जिस घर में महक और खुशबू जैसी बहनें हों, वहां तो बहार ही बहार है। किसी के पड़ोसी अगर मिस्टर गंधे हैं तो किसी के समधी श्री सुगंधी हैं। एक सुगंधा मिश्रा है, जो आज तक यह तय नहीं कर पा रही, कि वह एक अच्छी गायिका है या मिमिक्री आर्टिस्ट। ।

अक्सर, जब सर्दी जुकाम हो जाता है, तो हमारी सूंघने की शक्ति काम नहीं करती। हम समझते हैं, रसोई में अभी दाल ही नहीं गली, जब कि दाल जलकर खाक हो चुकी होती है। पेट में जब चूहे कूदने लगते हैं, तो दूर किसी झोपड़ी से चूल्हे की आग में सिक रही रोटी की महक, छप्पन भोग को मात कर देती है।

हमारी माटी की गंध का भी जवाब नहीं। तपती गर्मी के बाद, जब बारिश की कुछ बूंदें, धरती पर पड़ती है, तो वह सौंधी सौंधी खुशबू, बड़ी प्यारी लगती है। नेकी ही खुशबू का झोंका है और बदी, असह्य बदबू।

षडयंत्र की बू सभी को आ जाती है लेकिन अच्छाई कभी अपना प्रचार नहीं करती। फूल कभी नहीं कहता, मुझे सूंघो, उसकी खुशबू चलकर आपके पास आती है। हमारा स्वभाव ही हमारी असली पहचान है, डियोड्रेंट और आर्टिफिशियल फ्रेगरेंस ( कृत्रिम सुगंध ) नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 221 ☆ आलेख – उपेक्षित हैं वरिष्ठ नागरिक… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेखउपेक्षित हैं वरिष्ठ नागरिक

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 221 ☆  

? आलेख – उपेक्षित हैं वरिष्ठ नागरिक?

कल मेरा बैंक जाना हुआ। एक बुजुर्ग अम्मा अपनी पास बुक में एंट्री करवाना चाहती थीं। काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने उन्हें हिकारत की नजरों से देखते हुये कहा कि कल आना। इस संवेदनशील दृश्य ने मुझे यह लेख लिखने को विवश किया है। बैंको में निश्चित ही ढ़ेर सारी कथित जन कल्याणकारी वोट बटोरू योजनाओ के कारण काम की अधिकता है। प्रायः माह के पहले सप्ताह में बैंक कर्मी एंट्री या अन्य कार्यों को टालने के लिये प्रिंटर खराब होने, स्टाफ न होने, या अन्य बहाने बनाते आपको भी मिले होंगे, मुझे भी मिलते हैं।

बुजुर्गो के लिये बैंक आपके द्वार जैसी योजनायें इंटरनेट पर बड़ी लुभावन लगती हैं किन्तु वास्तविकता से कोसों दूर हैं। म प्र में तो सीनियर सिटिजन कार्ड्स तक नहीं बनाये गये हैं, उनके लाभों की बात तो बेमानी ही है। स्वयंभू मामा को वरिष्ठ नागरिको में वोट बैंक नही दिखना हास्यास्पद है। वे कुछ बुजुर्गों को तीर्थाटन में भेजते फोटो खिंचवाते प्रसन्न हैं। श्रीलंका की यात्रा से लौटकर यथा नियम वर्षो पहले विधिवत कलेक्टोरेट जबलपुर में आवेदन करने, सी एम हेल्पलाइन पर शिकायत करने पर भी यात्रा के किंचित व्यय की पूर्ति योजना अनुसार देयता होने पर भी आज तक न मिलने के उदाहरण मेरे सम्मुख हैं।

वरिष्ठ नागरिक समाज की जबाबदारी हैं एक दिन सबको वृद्ध होना ही है। सरकारों को अति वरिष्ठ नागरिकों की विशेष चिंता करनी होगी। देश के उच्च तथा मध्य वर्ग के बड़े समूह ने अपने बच्चो को सुशिक्षित करके विदेश भेज रखा है। अब एकाकी बुजुर्गो की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। अति वरिष्ठ बुजुर्गो के लिए कोई इंश्योरेंस नही है। अकेले धक्के खाने वाली चिकित्सा व्यवस्था से बुजुर्ग घबराते हैं, समाज में बुजुर्गो को सुरक्षा की कमी है, बैंक तथा शासकीय अधिकारी सही सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते, बच्चों के पास ये वरिष्ठ नागरिक विदेश जाना चाहते हैं किंतु वीजा तथा वहां मंहगी चिकित्सा की समस्याएं हैं। सरकार को देश में और विदेशी सरकारों से समझौते कर इन अति वरिष्ठ नागरिकों को सहज सरल जीवन व्यवस्था देनी चाहिए। यह समय की मांग है। किसी भी राजनैतिक पार्टी का ध्यान इस ओर अभी तक नही गया है।

अपने विदेश तथा अमेरिका प्रवास में मैंने देखा कि वहां बुजुर्गो के मनोरंजन हेतु, उनके दैनंदिनी जीवन में सहयोग, कार पार्किंग, आदि आदि ढ़ेरो सुविधायें निशुल्क सहज सुलभ हैं। भारत सरकार के पोर्टल के अनुसार बुजुर्गों को आयकर संबंधी कुछ छूट, बैंको के कुछ अधिक ब्याज के सिवा यहां कोई लाभ बुजुर्गों तक नहीं पहुंच रहे। कार्पोरेशन प्रापर्टी टैक्स में छूट, दोपहर और रात में जब मेट्रो खाली चलती हैं तब बुजुर्गों को सहज किराये में छूट दी जा सकती है . निजि क्षेत्रो के अस्पताल, एम्यूजमेंट पार्कस, सिनेमा आदि भी अंततोगत्वा सरकारी प्रावधानो के अंतर्गत स्थानीय प्रशासन में ही होते हैं, उन्हें भी बुजुर्गो के लिये सरल सस्ती व्यवस्थाये बनाने के लिये प्रेरित और बाध्य भी किया जा सकता है।

जेरियेट्रिक्स पर सरकारो को विश्व स्तर पर ध्यान देने की जरुरत है। जिनके बच्चे जिस देश में हैं उन्हें वहां के वीजा सहजता से मिलें, उन देशों की सरकारें वहां पहुंच रहे बुजुर्गो को मुफ्त स्वास्थ्य सेवायें, कैश लेस बीमा सेवायें सुलभ करवायें इस आशय के समझौते परस्पर सरकारों में किये जाने की पहल भारत को करनी जरूरी है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 96 ⇒ भाव और अभाव… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भाव और अभाव।)  

? अभी अभी # 96 ⇒ भाव और अभाव? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

अचानक मुझे टमाटर से प्रेम हो गया है, क्योंकि उसके भाव बढ़ गए हैं। जब इंसान के भी भाव घटते बढ़ते रहते हैं, तो टमाटर क्यों पीछे रहें। हमारे टमाटर जैसे लाल लाल गाल यूं ही नहीं हो जाते। आम आदमी वही जो अभाव में भी सिर्फ टमाटर और प्याज़ से ही काम चला ले।

सभी जानते हैं, An apple a day, keeps the doctor away. एक सेंवफल रोज खाएं, डॉक्टर को दूर भगाएं ! यह अलग बात है, आदमी यह महंगा फल तब ही खाता है, जब वह बीमार पड़ता है। अंग्रेजी वर्णमाला तो a फॉर एप्पल से ही शुरू होती है, बेचारा टमाटर बहुत पीछे लाइन में खड़ा रहता है। ।

हमने भी हमारी बारहखड़ी में टमाटर को नहीं, अनार को पहला स्थान दिया। अ अनार का और आ आम का। एक अनार सौ बीमार ! और आम तो फलों का राजा है, शुरू से ही खास है। बेचारा टमाटर ककहरे में उपेक्षित सा, ठगा सा, ट, ठ, ड, ढ और ण के बीच पड़ा हुआ है। उसे अपनी मेहनत का “फल” कभी नहीं मिला, उसे बस अमीरों के सलाद में स्थान मिला, और हर आम आदमी तक उसकी पहुंच ही उसकी पहचान रही है।

सब्जियों के बीच अच्छा फल फूल रहा था, लेकिन प्याज की तरह उसको या तो किसी की नज़र लग गई, अथवा किसी लालची व्यापारी की उस पर नज़र पड़ गई। अभाव में पहले कोई वस्तु गायब होती है, और बाद में उसके भाव बढ़ते हैं। शायद इसी कारण, आज टमाटर जबर्दस्त भाव खा रहा है। ।

एक समय था, जब टमाटर की एक ही किस्म होती थी। फिर अचानक टमाटर की एक और किस्म बाजार में प्रकट हो गई। यह टमाटर, कम खट्टा और कम रसीला, और कम बीज वाला होता है। सलाद के लिए आसानी से कट जाता है। हमें तो पुराने देसी टमाटर ही पसंद हैं, क्या खुशबू, क्या स्वाद, और क्या रंग रूप। दोनों ही खुद को स्वदेशी कहते हैं, पसंद अपनी अपनी।

पाक कला महिलाओं की रसोई से निकलकर पंच सितारा संस्कृति में शामिल हो गई है। पहले कभी, मेरी सहेली और गृह शोभा के रसोई विशेषांक प्रकाशित होते थे, तरला दलाल और शेफ संजीव कपूर का नाम चलता था।

आज होटलों का खाना महंगा होता जा रहा है, घरों में भी फास्ट फूड और पिज्जा बर्गर पास्ता का प्रवेश हो गया है।।

बिना प्याज टमाटर की ग्रेवी के कोई सब्जी नहीं बनती। घर के मसाले गायब होते जा रहे हैं, शैजवान सॉस का घरों में प्रवेश हो गया है। cheese पनीर नहीं, तो सब्जी में स्वाद नहीं। ऐसे में आम आदमी कभी प्याज के आंसू बहाता है, तो कभी टमाटर को अपनी पहुंच से बाहर पाता है।

आजकल महंगाई के विरुद्ध प्रदर्शन और आंदोलन नहीं होते। महंगाई अब डायन नहीं, हमारी सौतन है। विकास में हमारे कदम से कदम मिलाकर हमारा साथ देती है। अधिक अन्न उपजाओ, अधिक कमाओ। यह असहयोग का नहीं, सहयोग का युग है।।

आम आदमी भी आजकल समझदार हो गया है। वह स्वाद पर कंट्रोल कर लेगा, लेकिन उफ नहीं करेगा। इधर बाजार में महंगे टमाटर, और उधर सोशल मीडिया पर लाल लाल, स्वस्थ, चमकीले टमाटरों की तस्वीरें उसे ललचाती भी हैं, उसके मुंह में पानी भी आता है, लेकिन वह अपने आप पर कंट्रोल कर लेता है। उसने टमाटर का बहिष्कार ही कर दिया है।

वह जानता है, सभी दिन एक समान नहीं होते। आज अभाव के माहौल में जिस टमाटर के इतने भाव बढ़े हुए हैं, कल वही सड़कों पर रोता फिरेगा। कोई पूछने वाला नहीं मिलेगा।

भूल गया वे दिन, जब किसान की लागत भी वसूल नहीं होती थी, और वह तुझे यूं ही खेत में पड़े रहने देता था। आज तुम्हारे अच्छे दिन हैं और उपभोक्ता के परीक्षा के दिन। दोनों मिल जुलकर रहो, तो दाल में भी टमाटर पड़े और बच्चों के चेहरे पुनः टमाटर जैसे खिल उठें।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 74 – पानीपत… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 74 – पानीपत… भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

नोस्टाल्जिया का अर्थ है अतीत के सुनहरे दौर में खो जाना और वर्तमान को उपेक्षित करते हुये उदासीनता का आवरण पहनना. ये सिंड्रोम नये परिवेश में घुलमिल जाने में अवरोधक बन जाता है और कार्यक्षमताओं में भी कमी आ जाती है. “मैं तो भूल चली बाबुल का देश (पिछली शाखा) पिया का घर (वर्तमान शाखा) प्यारा लगे”, जैसी भावना शनैः शनैः शनि की गति से आ पाती है. ये काल संक्रमण काल कहलाता है पर शाखाओं को टॉरगेट देने वाले ये धैर्य अफोर्ड नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें लक्ष्य देने वालों की काल गणना में भी ये संक्रमण काल नहीं पाया जाता.

जिस तरह विदेशी दौरों पर जाने वाली क्रिकेट टीमें अभ्यास मैच और वार्म अप मैंच खेलकर नये माहौल में सहज हो जाती हैं, वैसी सुविधाएं बैंक तो क्या किसी भी कार्यालय/संस्था में नहीं होती. स्थानांतरण की प्रक्रिया में तालमेल का अभाव, आने वाले से पहले ही जाने वाले को मुक्त कर देता है. यहाँ भी ऐसा ही हुआ, जाने वाले पहले ही जा चुके थे, आने वाले एकदम से दौड़ने की मन:स्थिति में नहीं आ पा रहे थे. क्रिकेट का 20-20 मैच भी ऐसा ही होता है, पहले ओवर में ही बाउंड्री या सिक्सर के प्रयास कभी बॉल को बाउंड्री पार भेजते हैं तो कभी बैटर, (पुराना नाम बेट्समैन) को पेवेलियन. शाखा के संचालन में नेतृत्व को, टेस्टमैच के बेट्समैन की तरह परफॉर्म करने के लिये अनुमत करना आदर्श स्थिति मानी जाती है, टाईमबाउंड असाइनमेंट और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में 20-20 मैच की संस्कृति हर संस्था की संस्कृति बन गई है.

आधुनिक युग की इस प्रतिस्पर्धा के दौर में आदर्श स्थिति की जगह मार्केट और विपणनकला ही नीतियों का निर्धारण करते हैं. खरगोश और कछुए की कहानी इस दौर में प्रभावी नहीं है. इस कारण भी जो मैन्युपुलेशन, विंडोड्रेसिंग और चमचागिरी में निपुण होते हैं, वो झूठे कमिटमेंट के जाल में अपने बॉस को मंत्रमुग्ध कर हरेक के लिये “राजा बेटा”का उदाहरण बन जाते हैं. ऐसे उदाहरण हर संस्था की कार्य संस्कृति में पाये जाते हैं.

ये श्रंखला भी क्लासिक टेस्टमैच की गति से ही चलती रहेगी ताकि क्लाइमेक्स की जगह खेल की कलात्मकता का आनंद लिया जा सके. धन्यवाद

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 220 ☆ आलेख – परसाई के शीर्षक, हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखपरसाई के शीर्षक, हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 220 ☆  

? आलेख – परसाई के शीर्षक, हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं?

व्यंग्य लेखों में शीर्षक का महत्व सर्वविदित है. शीर्षक वह दरवाजा होता है जिससे पाठक व्यंग्य में प्रवेश करता है. शीर्षक पाठकों को रचनाओ तक सहजता से खींचता है. शीर्षक सरल, संक्षिप्त और जिज्ञासा वर्धक होना चाहिये. वस्तुतः जिस प्रकार जब हम किसी से मिलते हैं तो उसका चेहरा या शीर्ष देखकर उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के विषय में अनुमान लगा लिया जाता है ठीक उसी प्रकार शीर्षक को पढ़कर व्यंग्य के अंतर्निहित मूल भाव के विषय में शीर्षक से अनुमान लगाया जा सकता है.

केवल सनसनीखेज शीर्षक हो पर व्यंग्य में पाठक को विषयवस्तु न मिले तो जल्दी ही व्यंग्यकार पाठकों का विश्वास खो देता है. शीर्षक-लेखन अपने आप में एक कला है. शीर्षक में शब्दों के स्थान का निर्धारण भी एक महत्वपूर्ण तत्व होता है. परसाई जी के लेख पढ़ना तो वैचारिक विमर्श होता ही है, उनके लेखों के शीर्षक भी स्वयं में विचार मंथन का अवसर देते हैं. परसाई के अनेक लेखों के शीर्षक शाश्वत बोध देते हैं. उनके शीर्षकों पर फिर फिर नये नये लेख लिखे जा सकते हैं. परसाई रचनावली के छै खण्ड हैं. उनके लगभग हजार से ज्यादा लेख इस समग्र रचनावली में समाहित हैं.

इन समाहित लेखों में परसाई के अनेक शीर्षक कौतूहल पैदा करते हैं, उनमें प्रश्नवाचक चिन्ह तथा मार्क आफ एक्सक्लेमेशन भी मिलता है. आखिर एकता क्यों हो ? बोल जमूरे इस्तीफा देगा? भेड़ें और भेड़िए ! बाबा की गौमाता ! आदि ऐसे ही शीर्षक हैं.. परसाई न्यूनतम शब्दों में ही बड़ी बात कहने की क्षमता रखते हैं. आत्मसम्मान की शैलियां, बारात की वापसी, आरोप ही आरोप, भगत की गत, जैसे शीर्षकों में वे शब्द चातुर्य करते हैं. परसाई के लंबे शीर्षकों में भी प्रायः एक वाक्य या वाक्यांश हैं. लंबे शीर्षकों में वाक्य विन्यास में कर्ता और क्रिया के अनुक्रम में परिवर्तन मिलता है. भारत-पाक युद्ध और मेरी तलवार, आचार्य जी एक्सटेंशन और बगीचा, अब युद्ध जहर भी नहीं, भगवान का रिटायर होना, रिटायर्ड भगवान की आत्मकथा, भूत पिशाच का हनुमान चालीसा, आवारा युवकों के जरिए आवारा क्रांति, वादे पूरे करो मत करो, आदम की पार्टी का घोषणा पत्र आदि उनके व्यंग्य लेखों के ऐसे ही शीर्षक हैं

सामान्यतः सिद्धांत है कि शीर्षक छोटा होना चाहिए लेकिन लेख की समग्र अर्थाभिव्यक्ति की दृष्टि से अधूरा नहीं होना चाहिए. परसाई के कुछ एक या दो शब्दों के लघु शीर्षक देखिये आमरण अनशन, अकाल उत्सव, अफसर कवि, बेमिसाल, अनुशासन, अमरता, अभिनंदन, असहमत, आदमी की कीमत, बदचलन, भोलाराम का जीव, आदि जब हम इन लेखों को पढ़ते हैं तब शीर्षक अपनी संपूर्णता में अभिव्यक्त होता जाता है तथा लेख का कंटेंट शीर्ष से बाद में भी स्मरण रहता है.

अनेक लेखों में वे दो तीन शब्दों के शीर्षक से भी एक उत्सुकता, तथा चमत्कार पैदा करने में पारंगत थे. मसलन उनके लेखों के शीर्षक हैं… अपना पराया, अमरत्व अभियान, असिस्टेंट लोकनायक, अश्लील पुस्तकें, असुविधा भोगी, अभाव की दाद, एयरकंडीशंड आत्मा, अमेरिकी छत्ता, अरस्तु की चिट्ठी, आत्मज्ञान क्लब, वैष्णव की फिसलन, विधायकों की महंगी गरीबी, अपने लाल की चिट्टी, वधिर मुख्यमंत्री, मूक मुख्यमंत्री, बंधुआ मुख्यमंत्री, आंदोलन दवाने वालों का आंदोलन, अखिल भारतीय मंत्री संघ का पत्र, अपनी कब्र खोदने का अधिकार इस तरह के समसामयिक लेखों के उनके शीर्षक प्रासंगिक रूप से आकर्षक होते थे. बेताल की कथा, कहा जाता है कि शीर्षक जिज्ञासापरक होना चाहिये, परंतु उसे जानबूझकर सनसनीखेज नहीं बनाना चाहिए. द्वि-अर्थी, पक्षपातपूर्ण, अभद्र व अश्लील शीर्षक नहीं होना चाहिए. परसाई जी इस मापदण्ड पर शत प्रतिशत खरे उतरते हैं. भारत सेवक की सेवा, आना और ना आना राम कुमार का, अपने-अपने इष्ट देव, अपनी-अपनी बीमारी, आफ्टर ऑल आदमी, असफल कवि सम्मेलनों का अध्यक्ष, अब और लोकतंत्र नहीं, बेचारा कॉमन मैन, भगवान को घूस, बेचारा भला आदमी, अपनी-अपनी हैसियत जैसे शीर्षकों से उनके लेख उस समय तो पठनीय थे ही आज भी रुचिकर हैं. सामान्यतः कहा जाता है कि समसामयिक व्यंग्य साहित्य की उम्र ज्यादा नहीं होती, वह अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर छपता जरूर है किन्तु अखबार के साथ ही रद्दी में बदल जाता है किन्तु परसाई रचनावली पढ़ने से समझ आता है कि क्यों वे इतने सशक्त व्यंग्य हस्ताक्षर के रूप में पहचाने जाते हैं. आज के व्यंग्य लेखक परसाई के पठन से, उन की शैली व चिंतन को समझ कर बहुत कुछ सीख सकते हैं.

मुहावरों, लोकोक्तियों लोकप्रिय फिल्मी गीतों या शेरो शायरी के मुखड़ों को भी शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है. इस तरह के प्रयोग से परसाई ने भी अनेक लेखों के शीर्षकों को आकर्षक बनाया है. उदाहरण के लिये अभी दिल्ली दूर है, सब सो मिलिए धाय, अहले वतन में इतनी शराफत कहां है जोश, सुजलाम् सुफलाम्, वैष्णव जन और चौधरी की पीर, सबको सन्मति दे भगवान, आई बरखा बहार, अपने-अपने भगीरथ, बलिहारी गुरु आपकी आदि.

भ्रष्टाचार वितरण कार्यक्रम, भावना का भोजन, सरकार चिंतित है, बिना माइंड के लाइक माइंडेड, सदाचार का ताबीज, सड़े आलू का विद्रोह, साहब का सम्मान, सज्जन दुर्जन और कांग्रेस जन, सर्वोदय दर्शन, वर्क आउट स्लिप आउट ईट आउट, भारत को चाहिए जादूगर और साधु जैसे शीर्षको के उनके व्यंग्य लेख समर्थ साहित्य हैं. और अब गीता आंदोलन, अकाली आंदोलन फासिस्टी और देश, बांझ लोक सभा को तलाक, भूत के पांव पीछे, भारतीय राजनीति का बुलडोजर, भारतीय भाषाओं का रेडियो कवि सम्मेलन, भजन लाल का भजन, यज्ञदत्त का यज्ञ भंग, बिना जवाब की आवाजें, स्वर्ग में नर्क जैसे शीर्षकों में परसाई शब्दों से खेलते मिलते हैं.

साहित्य शोध प्रक्रिया, सम्मान की भूमिका, साहित्य और नंबर दो का कारोबार, बेपढ़ी समीक्षा जैसे लेखो में वे साहित्य जगत पर कटाक्ष करते हैं तो, ये विनम्र सेवक, बेचारे संसद सदस्य, जैसे लेखों मे राजनीतिज्ञो को अपनी कलम के निशाने पर लेते हैं. बकरी पौधा चर गई में परसाई वृक्षारोपण में होते भ्रष्टाचार पर प्रहार करते हैं. यशोदा मैया का माखन में उनका इशारा माखन चट करते भ्रष्ट अफसरो और मंत्रियो के काकस की ओर है. ये सारे विषय दशकों के बाद आज भी उतने ही ज्वलंत हैं जितने परसाई के समय में थे. उन्हें धर्म नहीं आंदोलन चाहिए ऐसे शीर्षक हैं जिन्हें पढ़कर लगता है जैसे परसाई आज के प्रसंगो पर लिख रहे हों. यदि हम परसाई के समय में स्वयं को वैचारिक रूप उतारकर पूरा लेख पढ़ें तो परसाई के लेखो के शीर्षक हमें शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 95 ⇒ हुस्न और इश्क… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हुस्न और इश्क ।)  

? अभी अभी # 95 ⇒ हुस्न और इश्क ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

ऐ हुस्न ज़रा जाग, तुझे इश्क जगाए ! और अगर हुस्न नहीं जागे, तो इश्क क्या करे। बस, ठंडी आहें भरे। हुस्न जब सोता है, बड़ा मासूम होता है। जागता है, सीधा आईने के पास जाता है। आइना नहीं, हुस्न नहीं। आईने की कोई सूरत नहीं होती, हुस्न को अपनी ही सूरत पर गुमान होता है, गुरूर होता है। हुस्न को यकीन है, आइना झूठ नहीं बोलता।

अगर हुस्न जाग जाए, और इश्क सो जाए, तो इश्क को कौन जगाए। हुस्न एक आग है, जिसमें वह खुद नहीं जलता। सुबह का सूरज उसी हुस्न की एक आग है। वह एक ऐसा आफताब है, जिसे देख कुदरत अंगड़ाई लेती है। इश्क जाग उठता है। इश्क सुबह के सूरज की इबादत करता है। फूल खिलते हैं, कलियां मुस्कुराती हैं, भंवरे गुनगुनाते हैं। हुस्न का जलवा ही सूर्योदय है। ।

जैसे जैसे सूरज आसमान पर चढ़ता है, उसका हुस्न परवान चढ़ता है। वह तपकर आग का गोला हो जाता है। हमने जलवा दिखाया तो जल जाओगे। आप उस जलवे से आंख नहीं मिला सकते। हुस्न की आग से नज़रें मिलाई नहीं जाती, नजर झुकाकर भी इश्क किया जाता है।

हुस्ने जाना इधर आ, आइना हूं मैं तेरा। इश्क हुस्न को परदे में रखना चाहता है, उसे पूजना चाहता है। उसके हुस्न को किसी की नजर ना लगे, उसे ताले में बंद करना चाहता है। घूंघट के पट खोल रे, तुझे पिया मिलेंगे। जो हुस्न आग है, आफताब है, पाक साफ है, क्या उससे नज़रें मिलाना इतना आसान है। ।

बाल कृष्ण ने मिट्टी क्या खाई, माता यशोदा ने गुस्से में जो नंदलाला का मुंह खोला, तो होश खो बैठी। वहां कृष्ण की लीला थी या जलवा था। माया अपना काम कर गई। यशोदा जान तो गई, लेकिन किसी को बताने की स्थिति में भी नहीं रही।

अर्जुन ने भी देखा था सारथी नटवर श्रीकृष्ण के हुस्न का जलवा कुरुक्षेत्र में, जब वह शस्त्र छोड़, शरणागत हो गया था।

कृष्ण का विराट स्वरूप जब सामने आया तो होश उड़ गए। ।

हुस्न से चांद भी शरमाया है।

सूरज अगर आग है तो चंद्रमा शीतलता का प्रतीक ! चंद्रमा की अपनी कोई रोशनी नहीं। सूरज की ही परछाई है वह। ये जमीं चांद से बेहतर नजर आती है हमें। चांद से बेहतर ही है यह जमीं, क्योंकि यहां सूरज की रोशनी है, जीवन है, प्राण है, प्रेम है, शांति है। जहां भी तेज है, ओज है, रोशनी है, प्रकाश है, सब सूरज का ही जलवा है। हुस्न के कई रूप हैं, कई रंग हैं। कोई सच्चा आशिक ही उसको पहचान पाता है।

सुंदरता में प्रेम है, भक्ति है, समर्पण है। सब में रब तो बाद में होगा, क्यों न सब रब में ही समा जाए। पहले किसी से दिल तो लगे, फिर शुरू हो दिल्लगी। हुस्न का जलवा हो, तो हम भी कर लें बंदगी ;

आशिक हूं तेरे दर का

ठुकरा मुझे ना देना।

आया हूं बन भिखारी

झोली तो भर ही देना। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 198 – गुरुत्वाकर्षण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 198 ☆ गुरुत्वाकर्षण ?

आदमी मिट्टी के घर में रहता था, खेती करता था। अनाज खुद उगाता, शाक-भाजी उगाता, पेड़-पौधे लगाता। कुआँ खोदता, कुएँ की गाद खुद निकालता। गाय-बैल पालता, हल जोता करता, बैल को अपने बच्चों-सा प्यार देता। घास काटकर लाता, गाय को खिलाता, गाय का दूध खुद निकालता, गाय को माँ-सा मान देता। माटी की खूबियाँ समझता, माटी से अपना घर खुद बनाता-बाँधता। सूरज उगने से लेकर सूरज डूबने तक प्रकृति के अनुरूप आदमी की चर्या चलती।

आदमी प्रकृति से जुड़ा था। सृष्टि के हर जीव की तरह अपना हर क्रिया-कलाप खुद करता। उसके रोम-रोम में प्रकृति अंतर्निहित थी। वह फूल, खुशबू, काँटे, पत्ते, चूहे, बिच्छू, साँप, गर्मी, सर्दी, बारिश सबसे परिचित था, सबसे सीधे रू-ब-रू होता । प्राणियों के सह अस्तित्व का उसे भान था। साथ ही वह साहसी था, ज़रूरत पड़ने पर हिंसक प्राणियों से दो-दो हाथ भी करता।

उसने उस जमाने में अंकुर का उगना, धरती से बाहर आना देखा था और स्त्रियों का जापा, गर्भस्थ शिशु का जन्म उसी प्राकृतिक सहजता से होता था।

आदमी ने चरण उटाए। वह फ्लैटों में रहने लगा। फ्लैट यानी न ज़मीन पर रहा न आसमान का हो सका।

अब आदमियों की बड़ी आबादी एक बीज भी उगाना नहीं जानती। प्रसव अस्पतालों के हवाले है। ज्यादातर आबादी ने सूरज उगने के विहंगम दृश्य से खुद को वंचित कर लिया है। बूढ़ी गाय और जवान बैल बूचड़खाने के रॉ मटेरियल हो चले, माटी एलर्जी का सबसे बड़ा कारण घोषित हो चुकी।

अपना घर खुद बनाना-थापना तो अकल्पनीय, एक कील टांगने के लिए भी कथित विशेषज्ञ  बुलाये जाने लगे हैं। अपने इनर सोर्स को भूलकर आदमी आउटसोर्स का ज़रिया बन गया है। शरीर का पसीना बहाना पिछड़ेपन की निशानी बन चुका। एअर कंडिशंड आदमी नेचर की कंडिशनिंग करने लगा है।

श्रम को शर्म ने विस्थापित कर दिया है। कुछ घंटे यंत्रवत चाकरी से शुरू करनेवाला आदमी शनैः-शनैः यंत्र की ही चाकरी करने लगा है।

आदमी डरपोक हो चला है। अब वह तिलचट्टे से भी डरता है। मेंढ़क देखकर उसकी चीख निकल आती है। आदमी से आतंकित चूहा यहाँ-वहाँ जितना बेतहाशा भागता है, उससे अधिक चूहे से घबराया भयभीत आदमी उछलकूद करता है। साँप का दिख जाना अब आदमी के जीवन की सबसे खतरनाक दुर्घटना है।

लम्बा होना, ऊँचा होना नहीं होता। यात्रा आकाश की ओर है, केवल इस आधार पर उर्ध्वगामी नहीं कही जा सकती। त्रिशंकु आदमी आसमान को उम्मीद से ताक रहा है। आदमी ऊपर उठेगा या औंधे मुँह गिरेगा, अपने इस प्रश्न पर खुद हँसी आ रही है। आकाश का आकर्षण मिथक हो सकता है पर गुरुत्वाकर्षण तो इत्थमभूत है। सेब हो, पत्ता, नारियल या तारा, टूटकर गिरना तो ज़मीन पर ही पड़ता है।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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