(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
संजय उवाच # 197 ☆ गुरु पूर्णिमा विशेष – सच्चा गुरु
मनुष्य अशेष विद्यार्थी है। प्रति पल कुछ घट रहा है, प्रति पल मनुष्य बढ़ रहा है। घटने का मुग्ध करता विरोधाभास यह कि प्रति पल, पल भी घट रहा है।
हर पल के घटनाक्रम से मनुष्य कुछ ग्रहण कर रहा है। हर पल अनुभव में वृद्धि हो रही है, हर पल वृद्धत्व समृद्ध हो रहा है।
समृद्धि की इस यात्रा में प्रायः हर पथिक सन्मार्ग का संकेत कर सकने वाले मील के पत्थर को तलाशता है। इसे गुरु, शिक्षक, माँ, पिता, मार्गदर्शक, सखा, सखी कोई भी नाम दिया जा सकता है।
विशेष बात यह कि जैसे हर पिता किसी का पुत्र भी होता है, उसी तरह अनुयायी या शिष्य, मार्गदर्शक भी होता है। गुरु वह नहीं जो कहे कि बस मेरे दिखाये मार्ग पर चलो अपितु वह है जो तुम्हारे भीतर अपना मार्ग ढूँढ़ने की प्यास जगा सके। गुरु वह है जो तुम्हें ‘एक्सप्लोर’ कर सके, समृद्ध कर सके। गुरु वह है जो तुम्हारी क्षमताओं को सक्रिय और विकसित कर सके।
एक संत थे जिनके लिए कहा जाता था कि वे ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग जानते हैं। स्वाभाविक था कि उनके शिष्यों की संख्या में उतरोत्तर वृद्धि होती गई। हरेक के मन में ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग जानने की सुप्त इच्छा थी। एक दिन दैनिक साधना के उपरांत उनके परम शिष्य ने इस बाबत पूछ ही लिया। गुरुजी बोले, मैं तुम्हें ईश्वर तक पहुँचने के मार्गदर्शक तत्व बता सकता हूँ पर अपना मार्ग तुम्हें स्वयं ढूँढ़ना होगा।
ज्ञानी जानता है कि पुल पार करने से नदी पार नहीं होती। नदी पार करने के लिए उसमें कूदना पड़ता है। लहरों के थपेड़ों के साथ अन्य सभी आशंकाओं को भी तैरकर परास्त करना होता है। तैराकी के गुर सिखाये जा सकते हैं पर तैरते समय हरेक को अपने हिस्से की चुनौतियों से स्वयं दो-दो हाथ करने पड़ते हैं।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य में समझना चाहें तो जीपीएस लगाकर गंतव्य तक पहुँचा तो जा सकता है पर रास्ते का ज्ञान नहीं होता। रास्ता समझने के लिए स्वयं भटकना होता है। अपना रास्ता स्वयं ढूँढ़ना होता है। स्वयं की क्षमताओं को सक्रिय करना होता है। स्वयं को स्वयं ही अपना शोध करना होता है, स्वयं को स्वयं ही अपना बोध करना होता है।
ध्यान रहे कि पथ तो पहले से ही है। तुम उसका अनुसंधान भर करते हो, आविष्कार नहीं। यह भी भान रहे कि पथ का अनुसंधान करनेवाले तुम अकेले नहीं हो, असंख्य दूसरे भी अपने-अपने तरीके से अनुसंधान कर रहे हैं। सारे मार्गों का अंतिम लक्ष्य एक ही है। अत: यह एकाकार का मार्ग है।
सच्चा गुरु वह है जो तुम्हें एकल नहीं एकाकार की यात्रा कराये। एकाकार ऐसा कि पता ही न चले कि तुम गुरु के साथ यात्रा पर हो या तुम्हारे साथ गुरु यात्रा पर है। दोनों साथ तो चलें पर कोई किसी की उंगली न पकड़े।
यदि ऐसा गुरु तुम्हारे जीवन में है तो तुम धन्य हो। तुम्हारा मार्ग प्रशस्त है।
जिनकी गुरुता ने जीवन का मार्ग सुकर किया, उनका वंदन। जिन्होंने मेरी लघुता में गुरुता देखी, उन्हें नमन।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
चार दिवस गुरु साधना- यह साधना शुक्रवार 30 जून से आरम्भ होकर 3 जुलाई तक चलेगी।
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – श्री गुरवे नमः।।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – फिल्मी गीतों में अभिव्यक्त उदात्त प्रेम
(कुछ पूर्व लिखा लघु आलेख)
प्रेम केवल मनुष्य नहीं अपितु सजीव सृष्टि का शाश्वत और उदात्त मूल्य है। इस उदात्तता के दर्शन यत्र-तत्र-सर्वत्र होते हैं। उदात्त प्रेम के इस रूप को प्राचीन भारत में मान्यता थी। विवाह के आठ प्रकारों की स्वीकार्यता इस मान्यता की एक कड़ी रही।
कालांतर में अन्यान्य कारणों से सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों में भारी उलटफेर हुआ। इस उलटफेर ने वर्ग और वर्ण के बीच संघर्ष उत्पन्न किया। इसके चलते प्रेम की अनुभूति तो शाश्वत रही पर सामाजिक चौखट के चलते अभिव्यक्ति दबी- छिपी और मूक होने लगी।
1931 में आया पहला बोलता सिनेमा ‘आलमआरा’ और मानो इस मूक अभिव्यक्ति को स्वर मिल गया। यह स्वर था गीतों का।
अधिकांश फिल्मों की कहानी का केंद्र नायक, नायिका और उनका प्रेम बना। यह प्रेम फिल्मी गीतों के बोलों में बहने लगा। ख़ासतौर पर 50 से 70 के दशक के गीतों की समष्टि में व्यक्ति को अपनी भावना की अभिव्यक्ति मिलने लगी। समष्टि के लिए रचे गीत वह गा सकता था, गुनगुना सकता था/ थी, जिनमें निगाहें कहीं थीं और निशाना कहीं था। इन प्रेमगीतों ने भारतीय समाज को मन के विरेचन के लिए बड़ा प्लेटफॉर्म दिया।
गीतकारों ने गीत भी ऐसे रचे जिसमें प्रेम अपने मौलिक रूप में याने उदात्त भाव में विराजमान था। प्रेम को विदेह करती यह बानगी देखिए, ‘दर्पण जब तुम्हें डराने लगे, जवानी भी तुमसे दामन छुड़ाने लगे, तब तुम मेरे पास आना प्रिये, मेरा सर झुका है, झुका ही रहेगा तुम्हारे लिए..।’
स्थूल को सूक्ष्म का प्रतीक मानने की यह अनन्य दृष्टि देखिए, ‘तुझे देखकर जग वाले पर यकीन क्योंकर नहीं होगा, जिसकी रचना इतनी सुंदर, वो कितना सुंदर होगा…/ अंग-अंग तेरा रस की गंगा, रूप का वो सागर होगा..।’
प्रेम के मखमली भावों की शालीन प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति का यह ग़जब देखिए, ‘मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा, बात ज़रा सी।’ श्रृंगार भी शालीनता से ही अलंकृत रहा,’ मन की प्यास मेरे मन से न निकली, ऐसे तड़पूँ हूँ जैसे जल बिन मछली।’
प्रीत की उलट रीत कुछ यों अभिव्यक्त हुई है, ‘दिल अपना और प्रीत पराई, किसने है यह रीत बनाई..।’ इस रीत के रहस्य को छिपाये रखने का भी अपना अलग ही अंदाज़ है, ‘होठों पे ऐसी बात मैं दबाके चली आई, खुल जाए वही बात तो दुहाई है दुहाई..।’ प्रेयसी के अधरों तक पहुँचे शब्दों में ‘अ-क्षरा’ भाव तो सुनते ही बनता है, ‘होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो..।’ होठों की बात कहने के लिए मीत को बुलाना और मीत को सामने पाकर आँख चुराना दिलकश है, साथ ही अपनी बीमारी के प्रति अनजान बनना तो क़ातिल ही है, ‘मिलो न तुम तो हम घबराएँ, मिलो तो आँख चुराएँ../ तुम्हीं को दिल का राज़ बताएँ, तुम्हीं से राज़ छुपाएँ,…हमें क्या हो गया है..!’
चाहत अबाध है, ‘चाहूँगा तुझे सांझ सवेरे’.., चाहत में साथ की साध है, ‘तेरा मेरा साथ रहे..’ चाहत में होने से नहीं, मानने से जुदाई है,’जुदा तो वो हैं खोट जिनकी चाह में है..।’ अपने साथी में अपनी दुनिया निहारता है आदमी, ‘तुम्हीं तो मेरी दुनिया हो’ पर गीत दुनियावी आदमी को दुनिया की हकीकत से भी रू-ब-रू कराता है, ‘छोड़ दे सारी दुनिया किसीके लिए, ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए।’
उदात्त प्रेम केवल प्रेमी-प्रेमिका तक सीमित नहीं रहता। इसके घेरे में सारे रिश्ते और सारी संवेदनाएँ आती हैं। देश के प्रति निष्ठा हो, भाई- बहन का सहोदर भाव हो या पिता से परोक्ष बंधी पुत्री की गर्भनाल हो.., गीतों में सब अभिव्यक्त होता है। कलेजे के टुकड़े को विदा करती पिता की यह पीर साहिर लुधियानवी की कलम से निकल कर रफी साहब के कंठ में उतरती है और सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक होकर अमर हो जाती है, ‘बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले/ मैके की ना कभी याद आए, ससुराल में इतना प्यार मिले..।’ उदात्त में पराकाष्ठा समाहित है तब भी इसी गीत में उदात्त की पराकाष्ठा भी हो सकती है, इसका प्रमाण छलकता है, ‘..उस द्वार से भी दुख दूर रहे, जिस द्वार से तेरा द्वार मिले..।’
गीत बहते हैं। गीतों में प्यार की लय होती है। प्यार भी बहता है। प्यार में नूर की बूँद होती है,..‘ ना ये बुझती है, न रुकती है, न ठहरी है कहीं/ नूर की बूँद है, सदियों से बहा करती है।’
उदात्त प्रेम ऐसा ही होता है, फिर वह चाहे फिल्मी गीतों के माध्यम से मुखर होकर गाए या भीतर ही भीतर अपना मौन गुनगुनाए।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी।
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हाइपर बोल“।)
अभी अभी # 87 ⇒ हाइपर बोल… श्री प्रदीप शर्मा
हिंदी व्याकरण में एक अलंकार है, अतिशयोक्ति अलंकार, जिसे अंग्रेजी में hyperbole (हाइपरबोल) कहते हैं। हमने अंग्रेजी सहित कई भाषाओं को आत्मसात किया है, और उन्हें हमारी बोलचाल की भाषा में ढाल लिया है। अधिक बोलने वाली महिलाओं को अक्सर सर में हेडएक (headache) और अपच के कारण कई पुरुषों को पेट में भी हेडएक होने लगता है।
Ten thousand saw I at a glance. यह मैं नहीं कह रहा, अंग्रेजी कवि विलियम वर्डस्वर्थ कह रहे हैं। जिसे हम अतिशयोक्ति अलंकार कहते हैं, वह अंग्रेजी का figure of speech, hyperbole ही है। ।
मान लिया आप कवि हो, पर दस हज़ार डफोडिल्स एक झलक में, भाई साहब आप भले ही इसे अपनी भाषा में हाइपरबोल कह लें, लेकिन ये बोल ज़रा, जरूरत से ज्यादा ही हाइपर हो गए हैं। जिस तरह आपकी भाषा है, हमारी भी एक भाषा है, संस्कृति है, विचार है।
जब कोई ज्यादा फेंकता है, तो हम भी हाइपर हो जाते हैं।
ऐसे बोल जिससे हमारे सर में हेडएक हो, हमारा टेंपर हाइपर हो, उसे हम हाइपरबोल ही कहते हैं। हमारे हिंदी कवियों ने भी अतिशयोक्ति अलंकार का भरपूर प्रयोग किया और आजकल हमारे राजनेता भी इन्हीं अलंकारों से लदे हुए हैं। अतिशयोक्ति की भी हद होती है। पहले जहां तौलकर बोला जाता था, वहीं आजकल, बिना तराजू से तौले, क्विंटल में फेंका जा रहा है। ।
कितना बढ़िया शब्द चुना है आप लोगों ने अतिशयोक्ति अलंकार के लिए, हाइपरबोल ! हम गांव के सीधे सादे आपस में राम राम से अभिवादन करने वाले, आज कहां से कहां पहुंच गए। इस्स, लाज आती है बताते हुए। किसी ने कहा हरि बोल, तो हमने भी हरि बोल कहा। हनुमान जी के भक्त ने जय बजरंग बली कहा, तो हमने हनुमान जी की भी जय जयकार करी।
हमारे लिए सब भगवान एक हैं, आप चाहे जय श्री कृष्ण कहें अथवा जय श्री राम, हमें तो बस भगवान का नाम लेने से काम।
लेकिन हमारे राजनेता बड़े चतुर निकले। उन्हें जब अपनी भी जय जयकार करवानी हो, रैलियां निकालनी हों, तो वे अपने नाम के साथ भगवान के नाम की भी जय जयकार करवाने लगे। क्या यह अतिशयोक्ति नहीं हुई, इसमें कोई आभूषण नहीं, कोई अलंकार नहीं, हमारे लिए यह बकवास बोल है, जिसके लिए हमने आपका अलंकार hyperbole हाइपर बोल
हाइपरबोल में आज हम thousand से मिलियन और बिलियन तक पहुंच गए हैं। हमारा राजनेताओं का आंकड़ों का गणित आज जहां तक पहुंचा हुआ है, वहां तक कभी आपका कोई पहुंचा हुआ कवि, नहीं पहुंच पाया होगा। हमारी नज़र हजारों से हटकर करोड़ों तक पहुंच गई है।
आपका तो नाम ही कविवर wordsworth था, जिसका हर शब्द कीमती था, words worth, अतः आपसे क्षमा मांगते हुए हमने आपके अलंकार हाइपरबोल पर अपना कॉपीराइट स्थापित कर लिया है। अतिशयोक्तिपूर्ण कथन में कोई हमसे बाजी नहीं मार सकता। बोल बोल, जब भी बोल हाइपरबोल। ।
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अधूरी ख़्वाहिशें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 189 ☆
☆ अधूरी ख़्वाहिशें☆
‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’ गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें उन स्वप्नों की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।
इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व विकास में बाधक हैं। उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए; दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की यह सोच अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है।
‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।
संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता; जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है; आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम दूसरों से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समाप्त हो जाता है।
‘ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख।’ इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ, तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ’ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियाल भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। इसलिए मानव को अपनी संचित शक्तियों को पहचानने की सीख दी गयी है, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
आलेख ☆ महाराष्ट्र विशेष – वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा श्री संजय भारद्वाज
(कल देवशयनी (आषाढ़ी) एकादशी का पावन पर्व था। यह आलेख निश्चित ही आपकी वारी से संबन्धित समस्त जिज्ञासाओं की पूर्ति करेगा। आज के विशेष आलेख के बारे में मैं श्री संजय भारद्वाज जी के शब्दों को ही उद्धृत करना चाहूँगा।)
श्रीक्षेत्र आलंदी / श्रीक्षेत्र देहू से पंढरपुर तक 260 किलोमीटर की पदयात्रा है महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी। मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि – वारी की जानकारी पूरे देश तक पहुँचे, इस उद्देश्य से 11 वर्ष पूर्व वारी पर बनाई गई इस फिल्म और लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। अनुरोध है कि महाराष्ट्र की इस सांस्कृतिक परंपरा को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने में सहयोग करें। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी। 🙏
(महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी यात्रा पर 12 वर्ष पूर्व बनाई हमारी यह डॉक्युमेंट्री फिल्म यदि अब तक न देखी हो तो अवश्य देखिएगा। विट्ठल-रखुमाई की अनुकम्पा से इसे अब तक पच्चीस हज़ार से अधिक दर्शक देख चुके हैं।)
निर्माण – श्री प्रभाकर बांदेकर
लेखन एवं स्वर – श्री संजय भारद्वाज
भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है- पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है- जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।
स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।
पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।
पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।
वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।
अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।
अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।
हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार।
वारी में सहभागी होने के लिए दूर-दराज के गाँवों से लाखों भक्त बिना किसी निमंत्रण के आलंदी और देहू पहुँचते हैं। चरपादुकाएँ लेकर चलने वाले रथ का घोड़ा आलंदी मंदिर के गर्भगृह में जाकर सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन करता है। ज्ञानेश्वर महाराज को माउली याने चराचर की माँ भी कहा गया है। माउली को अवतार पांडुरंग अर्थात भगवान का अवतार माना जाता है। पंढरपुर की यात्रा आरंभ करने के लिए चरणपादुकाएँ दोनों मंदिरों से बाहर लाई जाती हैं। उक्ति है- ‘जब चराचर भी नहीं था, पंढरपुर यहीं था।’
चरण पादुकाएँ लिए पालकी का छत्र चंवर डुलाते एवं निरंतर पताका लहराते हुए चलते रहना कोई मामूली काम नहीं है। लगभग 260 कि.मी. की 800 घंटे की पदयात्रा में लाखों वारकरियों की भीड़ में पालकी का संतुलन बनाये रखना, छत्र-चंवर-ध्वज को टिकाये रखना अकल्पनीय है।
वारी स्वप्रेरित अनुशासन और श्रेष्ठ व्यवस्थापन का अनुष्ठान है। इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ आंकड़े जानना पर्याप्त है-
विभिन्न आरतियों में लगनेवाले नैवेद्य से लेकर रोजमर्रा के प्रयोग की लगभग 15 हजार वस्तुओं (यहाँ तक की सुई धागा भी) का रजिस्टर तैयार किया जाता है। जिस दिन जो वस्तुएँ इस्तेमाल की जानी हैं, नियत समय पर वे बोरों में बांधकर रख दी जाती हैं।
15-20 हजार की जनसंख्या वाले गाँव में 10 लाख वारकरियों का समूह रात्रि का विश्राम करता है। ग्रामीण भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अद्वैत भाव के बिना गागर में सागर समाना संभव नहीं।
सुबह और शाम का भोजन मिलाकर वारी में प्रतिदिन 20 लाख लोगों के लिए भोजन तैयार होता है।
रोजाना 10 लाख लोग स्नान करते हैं, कम से कम 30 लाख कपड़े रोज धोये और सुखाये जाते हैं।
रोजाना 50 लाख कप चाय बनती है।
हर दिन लगभग 3 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होता है।
एक वारकरी दिन भर में यदि केवल एक हजार बार भी हरिनाम का जाप करता है तो 10 लाख लोगों द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले कुल जाप की संख्या 100 करोड़ हो जाती है। शतकोटि यज्ञ भला और क्या होगा?
वारकरी दिनभर में लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलता है। विज्ञान की दृष्टि से यह औसतन 26 हजार कैलोरी का व्यायाम है।
जाने एवं लौटने की 33 दिनों की यात्रा में पालकी के दर्शन 24 घंटे खुले रहते हैं। इस दौरान लगभग 25 लाख भक्त चरण पादुकाओं के दर्शन करते हैं।
इस यात्रा में औसतन 200 करोड़ का आर्थिक व्यवहार होता है।
हर दिंडी के साथ दो ट्रक, पानी का एक टेंकर, एक जीप, याने कम से कम चार वाहन अनिवार्य रूप से होते हैं। इस प्रकार 500 अधिकृत समूहों के साथ कम से कम 2 हजार वाहन होते हैं।
एकत्रित होने वाली राशि प्रतिदिन बैंक में जमा कर दी जाती है।
रथ की सजावट के लिए पुणे से रोजाना ताजा फूल आते हैं। हर रात 7 से 8 घंटे के कठोर परिश्रम से रथ को विविध रूपों में सज्जित किया जाता है।
एक पंक्ति में दिखनेवाली भक्तों की लगभग 15 किलोमीटर लम्बी ‘मूविंग ट्रेन’ 24 घंटे में चार बार विश्रांति के लिए बिखरती है और नियत समय पर स्वयंमेव जुड़कर फिर गंतव्य की यात्रा आरंभ कर देती है।
गोल रिंगण अर्थात अश्व द्वारा की जानेवाली वृत्ताकार परिक्रमा हो, या समाज आरती, रात्रि के विश्राम की व्यवस्था हो या प्रातः समय पर प्रस्थान की तैयारी, लाखों का समुदाय अनुशासित सैनिकों-सा व्यवहार करता है।
नाचते-गाते-झूमते अपने में मग्न वारकरी…पर चोपदार का ‘होऽऽ’ का एक स्वर और संपूर्ण नीरव …… इस नीरव में मुखर होता है-वारकरियों का अनुशासन।
वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है।
वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।
राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला। राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।
वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है। प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवण कुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं तो संत जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।
वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है। ‘जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत……’, हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियाँ अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये ,पता ही नहीं चलता। संत कबीर कहते हैं-
कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर
पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर
भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।
भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति भी जुटते हैं। ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।
वारी भारत के धर्मसापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओसकणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।
आनंद का असीम सागर है वारी..
समर्पण की अथाह चाह है वारी…
वारी-वारी, जन्म-मरणा ते वारी..
जन्म से मरण तक की वारी…
मरण से जन्म तक की वारी..
जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी……
वस्तुतः वारी देखने-पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है।
विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में – महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आषाढ़ का एक दिन“।)
अभी अभी # 86 ⇒ आषाढ़ का एक दिन… श्री प्रदीप शर्मा
आषाढस्य प्रथम दिवसे पर अगर कालिदास का कॉपीराइट है तो आषाढ़ के एक दिन पर मोहन राकेश का। मुझे संस्कृत नहीं आती, अतः मैं कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तल, कुमारसंभव और मेघदूतम् नहीं पढ़ पाया। कालिदास को हिंदी में पढ़ना शेक्सपीयर को हिंदी में पढ़ने जैसा है। जिसे संस्कृत नहीं आती, वह सुसंस्कृत नहीं कहलाता और जिसे अंग्रेजी नहीं आती, आजकल वह पढ़ा लिखा नहीं कहलाता। हमने मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन पढ़ लिया और संस्कृत नहीं आने के अपराध बोध से मुक्त हो गए।
हमारे अभिन्न मित्र श्री हृदयनारायण जी, जब प्रेम के ढाई अक्षरों में भी धाराप्रवाह संस्कृत बहा देते हैं, तो हमारी हिंदी हमें थाम नहीं पाती। जिसे तैरना नहीं आता, उसे भाषा के प्रवाह में बह जाना चाहिए। भाषा का प्रवाह सबको पार लगा देता है। जिसे एक बार भाषा का ज्ञान हो जाता है फिर वह ज्ञान के सागर में डुबकियां लगाता रहता है। ज्ञान के मोती भी उसी के हाथ लगते हैं। ।
आषाढ़ के प्रथम दिन का शायद मेघदूत से संबंध है। इस बार आषाढ़ के पहले दिन ही एक बूंद भी पानी नहीं गिरा। शुक्र है फागुन की तरह, आषाढ़ के दिन चार नहीं होते, आषाढ़ निकलता जा रहा है, मेघदूत जल्दी कर, हरी अप।
इस बार आषाढ़ के दिनों में और भी कई दिन मिक्स हो गए। एक दिन तो ऐसा आया जिस दिन कई दिन एक साथ आ गए। आजकल दिन, दिवस हो जाता है, और दिवस, डे।
साल में वैसे तो सिर्फ 365 दिन होते हैं लेकिन अगर मदर्स डे, वेलेंटाइन्स डे और फादर्स डे की तरह अन्य दिवस अर्थात days का हिसाब लगाया जाए, तो वे 365 से अधिक ही बैठेंगे, कम नहीं। फरवरी का तो पूरा सप्ताह days’ week अर्थात् दिवसों का सप्ताह कहा जा सकता है। रोज़ डे, प्रोमिस डे, चॉकलेट डे, दिल दे, दिल ले, इत्यादि इत्यादि।
अभी अभी टाइपराइटर्स डे निकला, फादर्स डे भी अकेला नहीं आया, साथ में योग दिवस भी लेकर आया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, रोज दिन में तीन चार बार चाय पीने वाले हम भारतीय, चाय दिवस भी मनाते हैं। बस मैगी दिवस और पास्ता दिवस की कमी है शायद। ।
मेरे लिए ” आषाढ़ का एक दिन ” बहुत महत्वपूर्ण है।
कथाकार और नाटककार स्व.मोहन राकेश का यह पहला नाटक (1958) है। जो संस्कृत के ज्ञाता हैं, वे कालिदास को पढ़ें, हमारे जैसे हिंदीभाषी लोगों के लिए मोहन राकेश एक बहुत बड़ा काम कर गए। कितने कम समय में कोई इंसान सृजन के क्षेत्र में इतना कुछ कर जाता है ; (1925-1972) कि विश्वास ही नहीं होता। उनके दो और नाटक भी यहां उल्लेखनीय हैं, आधे अधूरे और लहरों के राजहंस।
अभी देव सोये नहीं हैं। मेघ हम पर मेहरबान नहीं। आषाढ़ के किसी भी दिन झमाझम हो सकती है। आप भी आषाढ़ के किसी एक दिन फुर्सत निकालकर मोहन राकेश का “आषाढ़ का एक दिन”, पढ़ ही लें। अगर पढ़ भी लिया हो, तो भी बार बार पढ़ने लायक है। जो नाट्य विधा अर्थात् स्टेज से जुड़े हैं, वे इसकी मंचीय खूबियों से भली भांति अवगत होंगे।
स्वागत, अभी आषाढ़ मास के कुछ दिन बाकी हैं। ।
आषाढ़ के एक दिन की तरह शायद एक दिन विश्व नाट्य दिवस का भी अवश्य होगा। संस्कृत में कालिदास के अलावा भास और भवभूति भी नाटककार हैं। उधर अंग्रेजी साहित्य में भी विलियम शेक्सपियर और क्रिस्टोफर मार्लो के अलावा भी कई नाटककार हुए हैं।
हमारे देश में आज हिंदी की अपेक्षा मराठी मंच अधिक सक्रिय है।
कारण अच्छे मंचीय कलाकारों की फिल्मों में मांग। फिलहाल तो लगता है राजनीति साहित्य और संस्कृति को पूरी तरह लील रही है। कहीं हमें ऐसा दिन ना देखना पड़े कि लोग पूछें कौन कवि कालिदास और कौन मोहन राकेश..!!
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चाय की भाषा”।)
अभी अभी # 85 ⇒ चाय की भाषा… श्री प्रदीप शर्मा
भाषा और परिभाषा में बहुत अंतर होता है। पक्षियों की भी अपनी भाषा होती है। एक भाषा नैनों की भी होती है। बिहारी की भाषा में कहें तो ;
भरे भौन में करत है
नैनन ही सो बात !
और हमारी भाषा में ;
आँखों आँखों में बात होने दो।
अक्सर हम बॉडी लैंग्वेज की बात करते हैं, वह भाषा जो संकेत की भी हो सकती है, इशारों की भी हो सकती है। जो लोग चाय से प्रेम करते हैं, उनकी भी एक भाषा होती है।
बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद ! फलसफा चाय का तुम क्या जानो। तुमने कभी चाय ना पीया। चाय में एक आकर्षण होता है, जो चुंबक की तरह चाय प्रेमी को अपनी ओर खींचता है। चाय किसी चाय दिवस का इंतजार नहीं करती। हमने ऐसे ऐसे टी टोटलर देखे हैं, जो सिर्फ चाय पीते हैं, चाय के लिए ही जीते हैं, चाय के लिए ही मरते हैं। ।
यही चाय तीसरी कसम की चहा थी, जो इस्स कहते हुए लोटे में पी जाती थी। हमने अंग्रेजों का जमाना भले ही ना देखा हो, हमारी दादी, नानी का जमाना जरूर देखा है, जहां घरों में कप प्लेट वर्जित थे और चाय पीतल और कांसे की कटोरियों और तश्तरियों में डालकर सुड़क के साथ पी जाती थी।
सारी खुमारी चाय से ही तो दूर होती थी। कभी कभी तो फूंक मारने के बावजूद जीभ जल जाती थी, लेकिन एक बार जिसकी जबान पर चाय का स्वाद चढ़ गया, वह छाले भी बर्दाश्त कर लेता था। लागी नाहिं छूटे रामा, चाह जिंदगी की।।
कभी होगी लिप्टन माने अच्छी चाय और ब्रुक बॉन्ड विदेशी चाय, आज तो देश के नमक वाले टाटा और बाघ बकरी की चाय एक ही ठेले पर उपलब्ध है।
चाय शौक भी है और आदत भी। किसी की जिंदगी तो किसी की मजबूरी। हमने बचपन में कभी ब्रेड और बिस्किट नहीं खाए, चाय के साथ रात की ठंडी रोटी ही कभी हमारा ब्रेकफास्ट तो कभी स्कूल के टिफिन का विकल्प था। मिड डे मील कहां हमारे नसीब में कभी था।
भाषा की तरह चाय की भी तजहीब होती है। लेकिन जीभ कभी तहजीब की मोहताज नहीं। आप चाय कप से पीयें या प्लेट से, ग्लास में पीयें या लोटे में, ठंडी करके पीयें या गर्मागर्म उकलती, कड़क मीठी अथवा कम फीकी, पसंद अपनी अपनी स्वाद अपना अपना। कुछ लोग ट्रे की चाय पसंद करते हैं। चाय का पानी अलग, दूध अलग, चीनी अलग। अपनी चाय सबसे अलग।।
मत पूछिए, चाय में क्या है ऐसा। जो आप जिंदगी भर चाय पी पीकर हासिल नहीं कर पाए, वो एक शख्स ने केवल चाय बेचकर हासिल कर लिया।
यह उपलब्धि किसी गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स जैसी जगह शामिल नहीं की जा सकती, क्योंकि यह कोई रेकॉर्ड नहीं एक चमत्कार है, न भूतो न भविष्यति।
चाय के प्याले में कभी तूफान आता था। आजकल ग्रीन रिवोल्यूशन का जमाना है। बाजार में स्वास्थ्यवर्धक ग्रीन टी भी आ गई है। नशे और शान में अंतर होता है। यह तो यही हुआ, आप किसी को व्हिस्की ऑफर कर रहे हैं, लेकिन वे महाशय नींबू पानी से आगे ही नहीं बढ़ रहे।।
हो जाए प्याले में क्रांति, दुनिया भर में चाय पर राजनीतिक चर्चा और ग्रीन टी रिवोल्यूशन, न हम कभी चाय छोड़ेंगे और ना ही हमारा चाय वाला हमें छोड़ेगा। हम भी आदत से मजबूर और चाय वाला पहले से भी और अधिक मजबूत..!!
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – समझ समझकर
प्रातः भ्रमण कर रहा हूँ। देखता हूँ कि लगभग दस वर्षीय एक बालक साइकिल चला रहा है। पीछे से उसी की आयु की एक बिटिया बहुत गति से साइकिल चलाते आई। उसे आवाज़ देकर बोली, ‘देख, मैं तेरे से आगे!’ इतनी-सी आयु के लड़के के ‘मेल ईगो’ को ठेस पहुँची। ‘..मुझे चैलेंज?… तू मुझसे आगे?’ बिटिया ने उतने ही आत्मविश्वास से कहा, ‘हाँ, मैं तुझसे आगे।’ लड़के ने साइकिल की गति बढ़ाई,.. और बढ़ाई..और बढ़ाई पर बिटिया किसी हवाई परी-सी.., ये गई, वो गई। जहाँ तक मैं देख पाया, बिटिया आगे ही नहीं है बल्कि उसके और लड़के के बीच का अंतर भी निरंतर बढ़ाती जा रही है। बहुत आगे निकल चुकी है वह।
कर्मनिष्ठा, निरंतर अभ्यास और परिश्रम से लड़कियाँ लगभग हर क्षेत्र में आगे निकल चुकी हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था लड़के का विलोम लड़की पढ़ाती है। लड़का और लड़की, स्त्री और पुरुष विलोम नहीं अपितु पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा। महादेव यूँ ही अर्द्धनारीश्वर नहीं कहलाए। कठिनाई है कि फुरसत किसे है आँखें खोलने की।
कोई और आँखें खोले, न खोले, विवाह की वेदी पर लड़की की तुला में दहेज का बाट रखकर संतुलन(!) साधनेवाले अवश्य जाग जाएँ। आँखें खोलें, मानसिकता बदलें, पूरक का अर्थ समझें अन्यथा लड़कों की तुला में दहेज का बाट रखने को रोक नहीं सकेंगे।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी।
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दान, दहेज, और दक्षिणा”।)
अभी अभी # 84 ⇒ दान, दहेज, और दक्षिणा… श्री प्रदीप शर्मा
इंसान को दान पुण्य करते रहना चाहिए। अगर दानवीर कर्ण हो, तो सभी दान के पात्र होते हैं, लेकिन अगर आपको कहीं कोई पात्र नजर नहीं आए, तो आसपास दान पात्र पर नजर दौड़ाएं, क्योंकि दान से ही पुण्य की प्राप्ति होती है।
दान तो किसी को भी दिया जा सकता है, लेकिन दक्षिणा सिर्फ गुरु को ही दी जाती है। गुरु से ज्ञान की दीक्षा दान में ली जाती है और प्रतिदान स्वरूप दक्षिणा दी जाती है। पंडित पुजारी की बात अलग है, वहां दान और दक्षिणा दोनों यजमान ही देता है और बदले में यश, कीर्ति, मनोवांछित फल और ढेरों आशीर्वाद प्राप्त करता है।।
दान दक्षिणा तो ठीक है, लेकिन दान दहेज की बात हमारे मुंह से अच्छी नहीं लगती। लेकिन कौन समझाए उस बाबुल को, जो आज भी दुआ के साथ अपनी कन्या का दान करता है। हमारे भाई मुकेश तो कह भी गए हैं ;
कोई पुण्य करे कोई दान करे
कोई दान का रोज बखान करे।
जिन कन्या धन का दान दियो
उन और को दान दियो न दियो। ।
सती प्रथा, बाल विवाह और दहेज प्रथा के खिलाफ तो अब कानून भी है, नारी स्वयं आजकल अपने अधिकारों के प्रति सजग है, दुल्हन ही दहेज है, बेटियां बचाई जा रही हैं और लाड़ली योजना के अंतर्गत उन पर दिल की दौलत लुटाई जा रही है।
ऐसे में दान दहेज की बात शोभा नहीं देती।
आज से ५० वर्ष पूर्व एक बाबुल ने हमें भी भरे मन से अपनी कन्या का दान किया था। दान के साथ दहेज में क्या आया, आज कुछ याद नहीं लेकिन हां एक हाथ से चलाने वाली उषा सिलाई मशीन जरूर हमें नजर आई थी। वैसे भी खाली हाथ कौन अपनी कन्या को विदा करता है।
हमने भी अपनी बहन बेटियां ब्याही हैं। ।
हम अपने माता पिता के एक आज्ञाकारी पुत्र हैं, हमारे माता पिता भी आधुनिक विचारों के ही थे, लेकिन व्यवहार कुशल थे और सबकी मान मर्यादा का पूरा खयाल रखते थे।
अपनी सभी बहुओं को उन्होंने बेटियों की तरह ही रखा। शादियों में अपनी बेटियों को भले ही अपनी हैसियत अनुसार कुछ दिया हो, लेकिन घर आई बेटियों को ही लक्ष्मी माना।
हम तब भी अजीब थे, आज भी अजीब हैं। खुद को समझदार समझते हैं, लेकिन कभी सामने वाले को समझने की कोशिश नहीं करते। उस उषा सिलाई मशीन से जुड़ी किसी की भावना की हमने कभी कद्र नहीं की, हमें वह मशीन हमेशा पराई ही लगी। थाली में परोसी मिठाई तो हमें पसंद आई लेकिन करेला कड़वा लगा। ।
कुछ वर्ष पूर्व एकाएक हमें पुराना घर खाली करना पड़ा। हमें और हमारे सामान को भी लदकर, दूसरे मकान में जाना पड़ा। हमारी नज़रों में खटकने वाली उषा सिलाई मशीन से हमेशा के लिए छुटकारा पाने का हमें मौका मिल गया। हमने आव देखा न ताव, जो मजदूर सामने नज़र आया, उसे ही कह दिया, भैया यह मशीन तुम ले जाओ। उसे कुछ क्षण विश्वास नहीं हुआ, लेकिन उसने भी मौका हाथ से नहीं जाने दिया, बाबू जी पैसे ? हमने जोश में जवाब दिया, कुछ नहीं, ऐसे ही ले जाओ।
जोश में होश नहीं खोना चाहिए, लेकिन अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत। हमने न तो अपनी धर्मपत्नी से राय ली, न उन्हें कुछ बताया, बस चले दानवीर बनने! बाद में पता चला, वह मशीन हमारी पत्नी के ही, स्कॉलरशिप की बचत के पैसे से खरीदी हुई मशीन थी, जो उनके पिताजी ने आशीर्वाद स्वरूप अपनी बेटी के साथ भिजवाई थी। ।
अब हमारे पास सिवाय पछताने और प्रायश्चित करने के, कोई विकल्प नहीं। पत्नी की अब सिलाई बुनाई की उम्र नहीं रही।
उन्हें उनकी मशीन जाने का कोई रंज, अफसोस प्रकट रूप से नहीं। दोष हमारा ही है, दान दहेज के भ्रम में हम किसी की अमानत में खयानत कर बैठे। आज हमारी कारगुजारी पर अफसोस करने वाले ना तो वे बाबुल हैं, जिन्होंने अपनी बेटी का कन्यादान किया था, और ना ही हमारे माता पिता।
बस हम हैं, हमारा झूठा अहंकार है और दुनिया भर की बेवकूफी है।
आज हम अपनी मर्जी के मालिक हैं, कोई हमारा कान पकड़ने वाला नहीं, डांटने वाला नहीं, दो बातें सुनाने वाला नहीं। लगता है, अब यही सब काम भी हमें ही करना पड़ेगा। आज अगर उषा सिलाई मशीन होती तो शायद हमारा घाव भर जाता। उसने कई बार हमारे कपड़ों को रफू किया होगा, हमारे लिए रूमाल तैयार किए होंगे। शायद कोई पुराना रूमाल मिल जाए, हमारे पश्चाताप के आंसू केवल उसे ही नजर आएंगे, उसके बनाए रूमाल ही शायद वे आंसू पोंछ पाएंगे। ।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 72 – पानीपत… भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
जिस राजसिंहासन पर हमारे नवपदोन्नत मुख्य प्रबंधक विराजमान हो रहे थे, उसकी महिमा राजा विक्रमादित्य के बत्तीस पुतलियों वाले सिंहासन से कम नहीं थी, अंतर सिर्फ यह था कि पुतलियों ने अपनी काया की सर्जरी करवा ली थी और पुतलों में बदल गये थे. इनका काम पदस्थ राजा के दमखम का आकलन करना और उसकी रपट दैनिक आधार पर अपने बहुत बहुत बड़े बॉस को करना था. साथ ही ये नवपदस्थ राजा से बड़ी उद्दंडता पूर्वक सवाल करने की भी हिमाकत करते रहते थे. कोई न कोई पुतला, कभी न कभी, कोई न कोई सवाल दाग ही देता था. जैसे पहले दिन ही :
“रुक जाओ राजन! क्या तुम वाकई खुद को इस सिंहासन में बैठने की योग्यता रखते हो”. अक्सर चतुर राजन यही जवाब देते कि “अगर बैंक ने समझ लिया है और मान भी लिया है तो फिर किसको दिक्कत है. भोले भाले राजन ये भूल जाते थे कि बैंक के इतर भी बहुत विभूतियां होती हैं जो इस तरह के फॉस्ट ट्रेक कैडरलैस धावकों पर सवाल उठाती रहती हैं. आसमां को छूता उनका अहंकार ये बर्दाश्त नहीं कर पाता कि जब इनको ही राजा बनाना था तो हमारे लोगों को क्यों बुलाया. फिर शक्तिशाली कुर्सी से शंका का समाधान किया जाता कि बैंक रूपी समंदर में कुछ “बरमूडा ट्रायंगल्स” भी होते हैं जहाँ हम अपने टाइटेनिक नहीं डुबाना चाहते.
Scapegoats are always required and allowed to play in high profile brain games or you can say blame games, without hockey sticks, shoes and body protecting pads.
खैर, कहानी आगे बढ़ती है नवपदोन्नत मुख्य प्रबंधक जी के सिंहासन ग्रहण प्रक्रिया के बाद परिचय और आकलन की. नवागत तो परिचय और नाम याद करने की कसरत में उलझ जाता है पर परिचय के उस छोर पर विराजित जन अपने अपने हिसाब से, मानदंडों और मापदंडों से नापतौल करने में लग जाते हैं. ये सब “मुन्नाभाई एमबीबीएस के बोमन ईरानी बन जाते हैं जिनका दृढ़तापूर्वक यह मानना होता है कि “सर जी, ये शाखा तो गरम गुलाबजामुन है, न निगल पाओगे न उगल पाओगे, जब तक हमसे सेटिंग नहीं होगी.
वैसे तो ये स्थान रेल से वेल कनेक्टेड था पर अनिभिज्ञ प्रबंधक बाद में समझ पाते थे कि रेल कभी कभी उनके कैरियर या नौकरी की सलामती के ऊपर से भी गुजर सकती है. वर्कलोड और रिस्क फैक्टर में प्रतिस्पर्धा थी कि कौन ज्यादा घातक है. पर इन सबके बावजूद इस शाखा की कुछ खासियत भी थी कि यहाँ कुछ बहुत अच्छे और समर्पित कारसेवक भी थे जो राहत और सुकून के मामले में ईश्वर के उपहार थे. ऐसे लोग आमतौर पर दुर्लभ ही होते हैं जो हर आपदा में हर चुनौती में आपके साथ खड़े होते हैं. आपकी मन:स्थिति, उदासी, बेचैनी, निराशा, गुस्सा, फ्रस्ट्रेशन, नाउम्मीदी को दूर करने की कोशिश करते रहते हैं. जब आप दस बजे से चार बजे तक लगातार डिमांडिंग और आक्रामक कस्टमर्स से उलझते हुये, सर को दोनों हाथों के बीच टिकाकर परेशान और थकित बैठे रहते हैं तो ये एक हवा के ठंडे झोंके की तरह आते हैं और अपनी राहतभरी आवाज से कहते हैं “चलिए सर, काम तो चलता रहेगा, अभी तो बाहर ठंडी हवाओं के बीच अदरक वाली कड़क चाय पीने का मौसम है”और आपको लगभग खींचकर अपने साथ ले जाते हैं. इन लम्हों को और इस अन ऑफीशियल अंतरंगता को कभी भूला नहीं जाता बल्कि अपनी सुनहरी यादों के लॉकर में संभाल कर रख लिया जाता है.
यद्यपि शाखा की “विश्वस्तरीय कस्टमर सर्विस को अंगूठा दिखाती सेवा”, तो विख्यात थी ही, फिर भी आने वाले “दिल है कि मानता नहीं” की भावना के साथ बड़ी उम्मीद लेकर आते थे और काम न होने पर भी खुद को ईशकृपा पाने के अयोग्य समझ कर वापस चले जाते थे. यही आत्मसंतोष उन्हें उस रात की नींद और फिर दूसरे दिन आने का हौसला और उम्मीद प्रदान करता था. जिनका काम उस दिन हो जाता, वे इसे अपने पूर्व जन्म के सुकर्मों का प्रतिफल मानकर खुश होते. इस स्थिति के लिए शाखा का प्राचीन दोमंजिला भवन, उसकी लोकेशन, शहर की बारहमासी गर्मी, भवन के मालिक का व्यवसायिक स्थल के मुताबिक किराया नहीं मिलने से उपजा असंतोष, संकरी सड़क भी जिम्मेदार थे. शहर व्यवसाय की असीम संभावनाओं से ओवरफ्लो हो रहा था और प्रतिस्पर्धा के नाम पर चुनौती देने वाले बैंक दूर दूर तक कहीं नहीं थे. इस कारण बैंक की स्थिति 1952 की कांग्रेस या 2023 की भाजपा सी अजेय थी. (राजनैतिक तुलनात्मक संदर्भ के लिए क्षमा). शाखा में एक दो केजरीवाल जैसे ज्ञानी भी थे (फिर से क्षमा) जो बैंक से और उसके उच्चाधिकारियों से लीगल टक्कर लेने की योग्यता रखते थे और ये नहीं सोचा करते थे कि यही प्रतिभा अगर बैंक के काम आती तो स्थिति कितनी अलग और बेहतर होती. बैंक में उन्हें क्या करना चाहिए इससे परे, प्रबंधन की क्या ड्यूटी है और कस्टमर की क्या, इसका उन्हें जबरदस्त ज्ञान था. बैंक में निर्देशानुसार कौन सी संकेतक पट्टी नहीं लगी है इसका ज्ञान वे समय समय पर प्रबंधन को देते रहते थे जबकि कस्टमर्स इस पट्टिका के मायाजाल से परे सिर्फ और सिर्फ अपनी बैंकिंग की जरूरतों का समाधान चाहते थे. चूंकि यह शहर एक बहुत बड़े और उच्च राजनैतिक प्रभुत्व पाये महापुरुष की विशाल इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट से भी संपन्न था तो ये इनके आधुनिक, तकनीकी रूप से उच्च प्रशिक्षित और डिमांडिंग कर्मचारियों को भी बैंकिंग की आधुनिकतम सेवाएं मिलने की उम्मीद से, शाखा के मुख्य द्वार तक ले आता था. व्यवसाय के रास्ते हर तरफ से हर तरह के कस्टमर्स को, बैंक की ओर भेजते थे, सिर्फ कृषि और शासकीय व्यवसाय और शासकीय कर्मचारियों को छोड़कर. पर फिर भी असंतोष ही ऐसी खुशबू थी जो शाखा के परिसर में हमेशा बहती रहती थी, कस्टमर्स, स्टाफ, अधिकारी, भवन स्वामी सभी सब कुछ ए-वन संतुष्टि चाहते थे और इस सब को डिलीवर करने का दायित्व बस दो लोगों का ही माना जाता था. शाखा के बड़े नायक अपर फ्लोर पर और छोटे वाले भूतल पर पाये जाते थे.