ई-अभिव्यक्ति: संवाद-27 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–27           

यह कहावत एकदम सच है कि – आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है।

कल आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व एवं कृतित्व आलेख लिखा साथ ही उनकी एक व्यंग्य कविता – घोषणा पत्र  का कविता पाठ एक सामयिक विडियो  भी तौर  पर अपलोड किया।

कुछ पाठक मित्रों ने फोन पर बताया कि- वे यह विडियो देख नहीं पा रहे हैं। मुझे लगा कि मेरा परिश्रम व्यर्थ जा रहा है। ब्लॉग साइट एवं वेबसाइट की स्पेस संबन्धित कुछ सीमाएं होती हैं। तुरन्त फेसबुक पर लोड किया। किन्तु, फिर भी मन नहीं माना।  वास्तव में फेसबुक विडियो के लिए है ही नहीं। अन्त में निर्णय लिया कि क्यों न e-abhivyakti का यूट्यूब चैनल ही तैयार कर लिया जाए जो ऐसी समस्याओं का हल होना चाहिए।

इन पंक्तियों के लिखे जाते तक यूट्यूब चैनल e-abhivyakti Pune नाम से तैयार हो चुका है और आप निम्न लिंक पर वह विडियो देख सकते हैं।

अब आप उपरोक्त विडियो हमारे यूट्यूब चैनल e-abhivyakti Pune पर भी देख सकते हैं। इसके लिए कृपया निम्न लिंक पर क्लिक करें।)

विडियो लिंक   ->>>> आचार्य भगवत दुबे जी की व्यंग्य कविता “घोषणा पत्र” का काव्य पाठ

खैर यह तो आप सबके स्नेह का परिणाम है। किन्तु, आपसे एक बार पुनः अनुरोध है कि आप  निम्न लिंक पर क्लिक कर मेरा आलेख अवश्य पढ़ें।

आचार्य भगवत दुबे जी एक महाकवि ही नहीं हमारी वरिष्ठ पीढ़ी के साहित्य मनीषी हैं जिन्होने एक सम्पूर्ण साहित्यिक युग को आत्मसात किया है। हम लोग भाग्यशाली हैं जिन्हें उनका एवं उनकी पीढ़ी के वरिष्ठ साहित्यकारों जैसे डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी का सानिध्य एवं आशीर्वाद प्राप्त है।

यदि आपके पास हमारी वयोवृद्ध पीढ़ी के साहित्य मनीषियों की जानकारी उपलब्ध है तो आप सहर्ष भेज सकते हैं। हम ऐसी जानकारी प्रकाशित कर गौरवान्वित अनुभव करते हैं।

आज के लिए बस इतना ही।

हेमन्त बवानकर 

22 अप्रैल 2019

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति: संवाद-26 – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव – (साहित्यकार को सीमाओं में मत बांधे)

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

अतिथि संपादक – ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–26 

(कल आपने डॉ मुक्ता जी के मनोभावों को ई-अभिव्यक्ति: संवाद-25 में अतिथि संपादक के रूप में आत्मसात किया। इसी कड़ी में मैं डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी का हृदय से आभारी हूँ। उन्होने मेरा आग्रह स्वीकार कर आज के अंक के लिए अतिथि संपादक के रूप में अपने उद्गार प्रकट किए।डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी ने  ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–22  के संदर्भ में अपनी बेबाक राय रखी। यह सत्य है कि साहित्यकार को सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। साहित्यकार भौतिक जीवन के अतिरिक्त अपने रचना संसार में भी जीता है। अपने आसपास के चरित्रों या काल्पनिक चरित्रों के साथ सम्पूर्ण संवेदनशीलता के साथ। डॉ प्रेम कृष्ण जी का  हार्दिक आभार।)

? साहित्यकार को सीमाओं में मत बांधे ?

इसमें कोई संदेह नहीं कि साहित्यकार के पीछे उसका अपना भी कोई इतिहास, घटना/दुर्घटना अथवा ऐसा कोई तथ्य रहता है जो साहित्यकार में  भावुकता एवं संवेदनाएं ही नहीं उत्पन्न करता है, बल्कि उसे नेपथ्य में प्रोत्साहित अथवा उद्वेलित भी करता है, जिसके परिणाम स्वरूप वह रचना को कलमबद्ध कर पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास करता है। इसीलिए कहा गया है “वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान”। परन्तु यह  आवश्यक नहीं है कि उसकी सभी रचनाएँ उसकी आत्मबीती घटनाओं से ही प्रेरित हों।

कवि की कविता सिर्फ उसकी आप बीती और उसकी आत्माभिव्यक्ति ही नहीं होती बल्कि उसके आसपास के अन्य व्यक्तियों के साथ जो कुछ घट रहा होता है, वह उसे भी अपनी संवेदना से महसूस ही नहीं करता है बल्कि अभिव्यक्त करने का प्रयास भी करता है। प्रणयबद्ध पक्षी युगल के प्रातः काल नदी किनारे आखेटक द्वारा तीरबद्ध करने पर उन पक्षियों की पीड़ा के रूप में आदिकवि वाल्मीकि के मुंह से जो अनुभूतियाँ एवं उद्गार सर्व प्रथम साहित्य के असीम अनंत संसार को प्राप्त हुए वह कविता ही तो थी।

जब तक साहित्यकार, चाहे किसी भी विधा में क्यों न हो, अपने हृदय में दबे हुए उद्गार कलमबद्ध कर के पाठकों तक नहीं पहुंचा देता, वह छटपटाता रहता है । गर्भ में पल रहे बच्चे की मनोभावनाओं की कल्पना इतनी सहज एवं आसान नहीं है पर असंभव भी नहीं।  स्त्री कवियित्रि ही उन मनोभावों को किसी पुरुष कवि की परिकल्पना से अधिक सहज स्वरूप दे सकती है क्योंकि वह गर्भ में नौ महीने शिशु को पालती है। ऐसा भी नहीं है क्योंकि पुरूष भी शिशु को नौ महीने पिता के रूप में अपने मन मस्तिष्क में पालता है और अनुभूतियाँ एवं संवेदनाएं शरीर से पहले और शरीर से अधिक मन और मस्तिष्क में उपजती हैं । तभी तो नर और नारी में कामकेलि के पूर्व हृदय में प्रेम उत्पन्न होना आवश्यक है। प्रेम विहीन कामक्रिया तो एक शारीरिक भूख है जो मनुष्य को पशुओं के समकक्ष लाकर खड़ा कर देती है जो हमारे मनुष्य होने पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है।

ऐसा भी नहीं है कि पुरुष साहित्यकार नारी की भावनाओं का चित्रण जितना नारी साहित्यकार कर सकती है उतना नहीं कर सकता है और नारी साहित्यकार पुरूषों की भावनाओं का चित्रण उतना बखूबी नहीं कर सकता है जितना कि पुरुष साहित्यकार। प्रेमचंद, शरतचंद, रवीन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र ने अपने साहित्य में नारी भावनाओं का चित्रण पूर्ण संवेदना के साथ बखूबी किया है। इसी प्रकार नारी साहित्यकारों ने भी पुरुषों की भावनाओं का चित्रण भली-भांति किया है। जब साहित्यकार अपने पात्रों का चित्रण करता है तो वह स्वयं को भूल जाता है और अपने द्वारा सर्जित पात्रों की जिंदगी जीता है और उसके पात्र की अनुभूतियाँ एवं संवेदनाएं उसमें पूर्णतया आत्मसात हो जातीं हैं। साहित्यकार की व्यष्टि से समष्टि और समष्टि से इष्ट तक की यात्रा तभी पूर्ण होती है जब वह पुरुष होकर नारी और नारी हो कर पुरूष की भावनाओं एवं संवेदनाओं को महसूस कर अभिव्यक्त कर सकते हैं। इतना ही नहीं प्रेम चंद जैसे साहित्यकारों ने तो पशुओं की भी अनुभूतियों, भावनाओं एवं संवेदनाओं का चित्रण बडी़ ही मार्मिकता से किया है – उनके द्वारा कथ्य दो बैलों की जोड़ी कहानी इस का सटीक उदाहरण है। कृशनचंदर द्वारा सर्जित एक गधे की आत्मकथा भी ऐसा ही एक ज्वलंत उदाहरण है। इसीलिये तो कहा गया है “जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि”। आवश्यकता है तो केवल इस बात की कि साहित्यकार अपने उत्तरदायित्वों को पूरी ईमानदारी से निभाएं क्योंकि साहित्य समाज का सिर्फ दर्पण ही नहीं होता है बल्कि समाज का मार्गदर्शन भी करता है।

इति।

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

(अतिथि संपादक- ई-अभिव्यक्ति)

20 अप्रैल 2019

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति: संवाद-25 – डॉ मुक्ता – (संवेदनाओं का सागर)

डा. मुक्ता 

अतिथि संपादक – ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–25

(मैं आदरणीया डॉ मुक्ता जी का हृदय से आभारी हूँ। उन्होने आज के अंक के लिए अतिथि संपादक के रूप में अपने उद्गार प्रकट किए।डॉ मुक्ता जी ने  ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–22  के संदर्भ में मेरे आग्रह को स्वीकार कर अपने बहुमूल्य समय में से मेरे लिए अपने हृदय के समुद्र से मोतिस्वरूप शब्दों को पिरोकर जो यह शुभाशीष दिया है, उसके लिए मैं निःशब्द हूँ। यह आशीष मेरे साहित्यिक जीवन की  पूंजी है, धरोहर है। इसी अपेक्षा के साथ कि – आपका आशीष सदैव बना रहे। आपका आभार एवं सादर नमन। )

? संवेदनाओं का सागर ?

हृदय में जब सुनामी आता /सब कुछबहाकर ले जाता। गगनचुंबी लहरों में डूबता उतराता मानव। । प्रभु से त्राहिमाम …… त्राहिमाम की गुहार लगाता/लाख चाहने पर भी विवश मानव कुलबुलाता-कुनमुनाता परंतु नियति के सम्मुख कुछ नहीं कर पाता और सुनामी के शांत होने पर चारों ओर पसरी विनाश की विभीषिका और मौत के सन्नाटे की त्रासदी को देख मानव बावरा सा हो जाता है और एक लंबे अंतराल के पश्चात सुकून पाता है ।

इसी  प्रकार साहित्यकार जन समाज में व्याप्त विसंगतियों – विशृंखलताओं और विद्रूपताओं को देखता है तो उस्का अन्तर्मन चीत्कार कर उठता है। वह आत्म-नियंत्रण खो बैठता है और जब तक वह अंतरमन की उमड़न-घुमड़न को शब्दों में उकेर नहीं लेता, उसके आहत मन को सुकून नहीं मिलता। वह स्वयं को जिंदगी की ऊहापोह में कैद पाता है और उस चक्रव्युह से बाहर निकलने का भरसक प्रयास करता है। परंतु, उस रचना के साकार रूप ग्रहण करने के पश्चात ही वह उस सृजन रूपी प्रसव-पीड़ा से निजात पा सकता है। वह सामान्य मानव की भांति सृष्टि-संवर्द्धन में सहयोग देकर अपने दायित्व का निर्वहन करता है।

जरा दृष्टिपात कीजिये, हेमन्त बावनकर जी की रचना ‘स्वागत’ पर …. एक पुरुष की परिकल्पना पर जिसने गर्भ में पल रहे बच्चे की मनोभावनाओं को सहज-साकार रूपाकार प्रदान किया है, जो उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है। वे गत तीन दिन तक नीलम सक्सेना चंद्रा जी की अङ्ग्रेज़ी कविताओं ‘Tearful Adieu’ एवं ‘Fear of Future’ और प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता ‘यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है’ को पढ़कर उद्वेलित रहे। इन कविताओं ने उन्हें उनकी रचना ‘स्वागत’ की याद दिला दी जिसकी रचना उन्होने अपनी पुत्रवधु के लिए की थी जब वह गर्भवती थी।

उस समय उनके मन का ज्वार-भाटा ‘स्वागत’ कविता के सृजन के पश्चात ही शांत हुआ होगा, ऐसी परिकल्पना है । हेमन्त जी ने नारी मन के उद्वेलन का रूपकार प्रदान किया है – भ्रूण रूप में नव-शिशु के आगमन तक की मनःस्थितियों का प्रतिफलन है। उन दोनों के मध्य संवादों व सवालों का झरोखा है जो बहुत संवेदनशील मार्मिक व हृदयस्पर्शी है।

‘स्वागत’ कविता को पढ़ते हुए मुझे स्मरण हो आया, सूरदास जी की यशोदा मैया का, कृष्ण की बालसुलभ चेष्टाओं व प्रश्नों का, जो गाहे-बगाहे मन में अनायास दस्तक देते हैं और वह उस आलौकिक आनंद में खो जाती है। ‘सूर जैसा वात्सल्य वर्णन विश्व-साहित्य में अनुपलब्ध है….. मानों वे वात्सल्य का कोना-कोना झांक आए हैं? कथन उपयुक्त व सार्थक है। हेमन्त जी ने इस कविता के माध्यम से एक भ्रूण के दस्तक देने से मन में आलोड़ित भावनाओं को बखूबी उड़ेला है व प्रतिपल मन में उठती आशंकाओं को सुंदर रूप प्रदान किया है। भ्रूण रूप में उस मासूम व उसकी माता के मन के अहसासों-जज़्बातों व भावों-अनुभूतियों को सहज व बोधगम्य रूप में प्रस्तुत किया है। भ्रूण का हिलना-डुलना, हलचल देना उसके अस्तित्व का भान कराता है, मानों वह उसे पुकार रहा हो। वह सारी रात उसके भविष्य के स्वप्न सँजोती है। नौ माह तक बच्चे  से गुफ्तगू करना, अनगिनत प्रश्न पूछना, मान-मनुहार करना उज्ज्वल भविष्य के स्वप्न संजोना, रात भर माँ का लोरी तथा पिता का कहानी सुनना। दादा-दादी का उसे पूर्वजों की छाया-प्रतीक रूप में स्वीकारना, जहां उनके बुजुर्गों के प्रति श्रद्धाभाव को प्रदर्शित करता है वहीं भारतीय संस्कृति में उनके अगाध-विश्वास को दर्शाता है, वही उससे आकाश की बुलंदियों को छूने के शुभ संस्कार देना, माँ के दायित्व-बोध व अपार स्नेह की पराकाष्ठा है, जिसमें नवीन उद्भावनाओं का दिग्दर्शन होता है।

भ्रूण रूप में उस मासूम के भरण-पोषण की चिंता, गर्मी, सर्दी, शरद, वर्षा ऋतु में उसे सुरक्षा प्रदान करना। सुरम्य बर्फ का आँचल फैलाना उसके आगमन पर हृदय के हर्षोल्लास को व्यक्त करता है। मानव व प्रकृति का संबंध अटूट है, चिरस्थायी है और प्रकृति सृष्टि की जननी है। और दिन-रात, मौसम का  ऋतुओं के अनुसार बदलना तथा अमावस के पश्चात पूनम का आगमन समय की निरंतर गतिशीलता व मानव का सुख-दुख में सं रहने का संदेश देता है।

परन्तु, माता को नौ माह का समय नौ युगों की भांति भासता है जो उसके हृदय की व्यग्रता-आकुलता को उजागर करता है। धार्मिक-स्थलों पर जाकर शिशु की सलामती की मन्नतें मानना व माथा रगड़ना जहां उसका प्रभु के प्रति श्रद्धा -विश्वास व आस्था के प्रबल भाव का पोषक है, वहीं उसकी सुरक्षा के लिए गुहार लगाना, अनुनय-विनय करना भी है।

अंत में माँ का अपने शिशु को संसार के मिथ्या व मायाजाल और जीवन में संघर्ष की महत्ता बतलाना, आगामी आपदाओं व विभीषिकाओं का साहस से सामना करने का संदेश देना बहुत सार्थक प्रतीत होता है। परंतु माँ का यह कथन “मैंने भी मन में ठानी है, तुम्हें अच्छा इंसान बनाऊँगी’ उसके दृढ़ निश्चय, अथाह विश्वास व अगाध निष्ठा को उजागर करता है। यह एक संकल्प है माँ का, जो उस सांसारिक आपदाओं में से जूझना ही नहीं सिखलाती, बल्कि स्वयं को महफूज़ रखने व सक्षम बनाने का मार्ग भी दर्शाती है।

हेमन्त जी ने ‘स्वागत’ कविता के माध्यम से मातृ-हृदय के उद्वेलन को ही नहीं दर्शाया, उसके साथ संवादों के माध्यम से हृदय के उद्गारों को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया है। उनका यह प्रयास श्लाधनीय है, प्रशंसनीय है, कल्पनातीत है। उनकी लेखनी को नमन। उनकी चारित्रिक विशेषता व साहित्यिक लेखन के बारे में मुझे शब्दभाव खलता है और मैं अपनी लेखनी को असमर्थ पाती हूँ। वे साहित्य जगत के जाज्वल्यमान नक्षत्र की भांति पूरी कायनात में सदैव जगमगाते रहें तथा अपने भाव व विचार उनके हृदय को आंदोलित-आलोकित करते रहें। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ —

 

शुभाशी,

मुक्ता  

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।)

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति: संवाद-24 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–24          

विश्व की प्रत्येक भाषा का समृद्ध साहित्य एवं इतिहास होता है, यह आलेखों में पढ़ा था। किन्तु, इसका वास्तविक अनुभव मुझे ई-अभिव्यक्ति  में सम्पादन के माध्यम से हुआ। हिन्दी, मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी के विभिन्न लेखकों के मनोभावों की उड़ान उनकी लेखनी के माध्यम से कल्पना कर विस्मित हो जाता हूँ। प्रत्येक लेखक का अपना काल्पनिक-साहित्यिक संसार है। वह उसी में जीता है। अक्सर बतौर लेखक हम लिखते रहते हैं किन्तु, पढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाते। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ जो मुझे इतनी विभिन्न विचारधाराओं के प्रतिभावान साहित्यकारों की रचनाओं को आत्मसात करने का अवसर प्राप्त हुआ।

आज के अंक में सुश्री सुषमा भण्डारी जी की कविता “ये जीवन दुश्वार सखी री” अत्यंत भावप्रवण कविता है। इस कविता की भाव शैली एवं शब्द संयोजन आपको ना भाए यह कदापि संभव ही नहीं है।

सुश्री प्रभा सोनवणे जी  हमारी  पीढ़ी की एक वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं । स्कूल-कॉलेज के वैर-मित्रता के क्षण, सोशल मीडिया के माध्यम से सहेलियों का पुनर्मिलन और नम नेत्रों से विदाई। किन्तु, इन सबके मध्य स्वर्णिम संस्मरणों की अनुभूति। समय और पारिवारिक जिम्मेवारियों के साथ हम कितना बदल जाते हैं इसका हमें भी एहसास नहीं होता। हमें हमारे अस्तित्व से रूबरू कराती हुई वृत्ती -निवृत्ती  जैसी लघुकथा सुश्री प्रभा सोनवणे जी जैसी संवेदनशील लेखिका ही लिख सकती हैं।

अन्त में मराठी साहित्य से जुड़े मराठी कवियों के लिए एक सूचना राज्यस्तरीय आयोजन  *काव्य स्पंदन!!!*  (साभार – कविराज विजय यशवंत सातपुते) में सहभागिता के लिए।

 

आज बस इतना ही,

हेमन्त बवानकर 

18 अप्रैल 2019

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति: संवाद-23 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–23          

आज के अंक में सौ. सुजाता काळे जी की कथा ‘वेळ’ इस भौतिकवादी एवं स्वार्थी संसार की झलक प्रस्तुत करती है। इस मार्मिक एवं भावुक कथा के एक-एक शब्द , एक-एक पंक्तियाँ एवं एक-एक पात्र हमें आज के मानवीय मूल्यों में हो रहे ह्रास का एहसास दिलाते हैं । ऐसा लगता है कि हम यह कथा नहीं पढ़ रहे अपितु, हम एक लघु चलचित्र देख रहे हैं। हिन्दी में ‘वेळ’ का अर्थ होता है ‘समय’। कोई भावनात्मक रूप से सारा जीवन, सारा समय आपकी राह देखने में गुजार देता है और आपके पास समय ही नहीं होता या कि आप स्वार्थ समय ही नहीं देना चाहते। स्वार्थ का स्वरूप कुछ भी हो सकता है। फिर एक समय ऐसा भी आता है जब आप अपना तथाकथित कीमती समय सामाजिक मजबूरी के चलते देना चाहते हैं किन्तु ,अगले के पास समय कम होता है या नहीं भी होता है ।  यह जीवन की सच्चाई है। मैं इस भावनात्मक सच्चाई को कथास्वरूप में रचने के लिए सौ. सुजाता काळे जी की लेखनी को नमन करता हूँ।

विख्यात साहित्यकार  श्री संजय भारद्वाज जी पुणे की सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था “हिन्दी आन्दोलन परिवार, पुणे” के अध्यक्ष भी हैं।  श्री संजय भारद्वाज जी का ‘जल’ तत्व पर रचित यह ललित लेख जल के महत्व पर व्यापक प्रकाश डालता है। जल से संबन्धित शायद ही ऐसा कोई तथ्य शेष हो जिसकी व्याख्या  श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा इस लेख में न की गई हो।

We presented the amazingly scripted poem by Ms. Neelam Saxena Chandra’ ji. This amazing poem on thoughts has an amazing control on thoughts too.  I tried to play with thoughts. I tried to keep them in my pocket.  Alas! they slipped and slipped away.  Finally, I concluded that there is no switch in the human brain so that one  can switch off the thinking process. I salute Ms. Neelam ji  to pen down such a beautiful poem for which sky is the limit.

भविष्य में  भी ऐसी ही और अधिक उत्कृष्ट, स्तरीय, सार्थक एवं सकारात्मक साहित्यिक अभिव्यक्तियों  के लिए मैं सदैव तत्पर एवं कटिबद्ध हूँ।

आज बस इतना ही,

हेमन्त बवानकर 

17 अप्रैल 2019

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति: संवाद-22 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–22         

साहित्यकार की किसी भी रचना रचने के पीछे अवश्य ही उसका अपना कोई ना कोई इतिहास, घटना/दुर्घटना अथवा ऐसा कोई तो तथ्य अवश्य रहता होगा जो साहित्यकार को नेपथ्य में प्रोत्साहित अथवा उद्वेलित करता होगा जिसकी परिणति उस रचना को कलमबद्ध कर आप तक पहुंचाने की प्रक्रिया का अंश होता है । जब तक साहित्यकार, चाहे किसी भी विधा में क्यों न हो, अपने हृदय में दबे हुए उद्गार कलमबद्ध न कर दे कितना छटपटाता होगा इसकी कल्पना कतिपय पाठक की परिकल्पना से परे है।

विगत दो तीन दिनों के अंतराल में सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की अङ्ग्रेज़ी कविताओं  “Tearful adieu” एवं “Fear of Future” और आज डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता “यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है” ने काफी उद्वेलित किया।

मुझे अनायास ही लगा कि गर्भ में पल रहे बच्चे की मनोभावनाओं की परिकल्पना क्या इतनी सहज एवं आसान है? क्या स्त्री कवियित्रि  उन मनोभावों को किसी पुरुष कवि की परिकल्पना से अधिक सहज स्वरूप दे सकती है। एक पाठक के रूप में यह मेरी भी परिकल्पना से परे है। इन्हीं तथ्यों पर आधारित मेरी एक कविता आपसे साझा करना चाहता हूँ। अब यह आप ही तय करें।

 

स्वागत!

जब से आहट दी है तुमने,

मुझमे यह एहसास जगाया है।

मानो किसी दूसरी दुनिया से

कोई शांति दूत सा आया है।

जब गर्भ में हलचल देकर

अपना एहसास दिलाते हो।

ऐसा लगता है जैसे मुझको

तुम अन्तर्मन से बुलाते हो।

सारी रात तुम्हारे भविष्य के

हम सपने रोज सँजोते हैं।

मैं सुनाती हूँ प्यारी लोरी

पिता कहानी रोज सुनाते हैं।

यह मेरा सौभाग्य है जो तुम

मेरी ही कोख में आए हो।

दादा-दादी कहते नहीं थकते

तुम पिछली पीढ़ी के साये हो।

स्वप्न देखकर पिछली पीढ़ी ने

हमको आज यहाँ पहुंचाया है।

अब आसमान छूना है तुमको

यही स्वप्न हमें दिखलाया है।

ना जाने तुम अपने संसार में

कैसे यह एकांत बिताते हो ?

क्या खाते हो? क्या पीते हो?

कुछ भी तो नहीं बताते हो?

तन आकुल है, मन आकुल है

तुम्हारी एक झलक पाने को।

बाहें आकुल हैं, हृदय आकुल है

अपने हृदय से तुम्हें लगाने को।

शरद, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु से

प्रकृति ने ही तुमको बचाया है।

शांत सुरम्य बर्फ की चादर ने

स्वागत में आँचल फैलाया है।

सह सकती हूँ कैसी भी पीड़ा

तुम्हें इस संसार में लाने को।

नौ माह लगते हैं नौ युग से

तुम्हें इस संसार में लाने को।

सभी धार्मिक स्थलों के दर पर

हमने अपना माथा टिकाया है।

सांसारिक शक्तियों ने तुम्हारा

अस्तित्व मुझमें मिलाया है ।

यह जीवन अत्यंत कठिन है

यह कैसे तुमको समझाउंगी?

मैंने भी मन में यह ठानी है

तुम्हें अच्छा इंसान बनाऊँगी।

 

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर 

16 अप्रैल 2019

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति: संवाद-20 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–20       

 

आज सुश्री निशा नंदिनी जी की कविता नेत्रदान ने मुझे मेरी एक पुरानी कविता ये नेत्रदान नहीं – नेत्रार्पण हैं की याद दिला दी जो मैं आपसे साझा करना चाहूँगा:

(यह कविता दहेज के कारण आग से झुलसी युवती द्वारा मृत्युपूर्व नेत्रदान के एक समाचार से प्रेरित है )

 

ये नेत्रदान नहीं – नेत्रार्पण हैं

सुनो!

ये नेत्र

मात्र नेत्र नहीं

अपितु

जीवन यज्ञ वेदी में

तपे हुये कुन्दन हैं।

 

मैंने देखा है,

नहीं-नहीं

मेरे इन नेत्रों ने देखा है

आग का एक दरिया

माँ के आँचल की शीतलता

और

यौवन का दाह।

 

विवाह मण्डप

यज्ञ वेदी

और सात फेरे।

नर्म सेज के गर्म फूल

और ……. और

अग्नि के विभिन्न स्वरुप।

 

कंचन काया

जिस पर कभी गर्व था

मुझे

आज झुलस चुकी है

दहेज की आग में।

 

कहाँ हैं – ’वे’?

कहाँ हैं?

जिन्होंने अग्नि को साक्षी मान

हाथ थामा था

फिर

दहेज की अग्नि दी

और …. अब

अन्तिम संस्कार की अग्नि देंगे।

 

बस

एक गम है।

साँस आस से कम है।

जा रही हूँ

अजन्में बच्चे के साथ

पता नहीं

जन्मता तो कैसा होता/होती ?

हँसता/हँसती  ….. खेलता/खेलती

खिलखिलाता/खिलखिलाती या रोता/रोती?

 

किन्तु, माँ!

तुम क्यों रोती हो?

और भैया तुम भी?

दहेज जुटाते

कर्ज में डूब गये हो

कितने टूट गये हो?

काश!

…. आज पिताजी होते

तो तुम्हारी जगह

तुम्हारे साथ रोते!

मेरी विदा के आँसू तो

अब तक थमे नहीं

और

डोली फिर सज रही है।

 

नहीं …. नहीं

माँ !

बस अब और नहीं

अब

ये नेत्र किसी को दे दो।

दानस्वरुप नहीं

दान तो वह करता है

जिसके पास कुछ होता है।

 

अतः

यह नेत्रदान नहीं

नेत्रार्पण हैं

सफर जारी रखने के लिये।

 

सुनो!

ये नेत्र

मात्र नेत्र नहीं

अपितु,

जीवन यज्ञ वेदी में

तपे हुये कुन्दन हैं।

रचना  – 2 दिसम्बर 1987

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

7  अप्रैल 2019

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति: संवाद-19 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–19       

सर्वप्रथम आप सबको आप सबको भारतीय नववर्ष, गुड़ी पाडवा, चैत्र नवरात्रि एवं उगाड़ी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें। पर्व हमारे जीवन में उल्लास तो लाते ही हैं साथ ही हमें एवं हमारी आने वाली पीढ़ी को हमारी संस्कृति से अवगत भी कराते हैं।

आज इन सभी पर्वों के साथ आप सबसे यह संदेश साझा करने में गर्व का अनुभव हो रहा है कि विगत दिनों www.e-abhivyakti.com परिवार के दो सदस्यों ने अभूतपूर्व सफलता अर्जित की जिसके लिए मैं दोनों सदस्यों को हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई देना चाहता हूँ।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सम्माननीय साहित्यकार श्री संतोष ज्ञानेश्वर भुमकर जी की कविता “असीम बलिदान ‘पोलिस'” को विगत दो दिनों में 252 पाठकों  ने इस वेबसाइट पर पढ़ा। यह अपने आप में उनकी रचना के लिए एक कीर्तिमान है।

विगत दिवस  हमारी वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी को मशाल न्यूज़  नेटवर्क स्पर्धा में   द्वितीय  पुरस्कार प्राप्त करने के लिए हार्दिक  अभिनंदन।

मैं आपका हृदय से आभारी हूँ। आप सभी साहित्यकार मित्रगणों  का स्नेह ही मेरी पूंजी है।  पुनः आपका सभी  साहित्यकार  मित्र गणों  का अभिनंदन एवं  लेखनी को सादर नमन।

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

6 अप्रैल 2019

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति: संवाद-17 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–17     

मेरे पास जितनी भी रचनाएँ आपसे साझा करने के लिए e-abhivyakti में आती हैं वास्तव में वे रचनाएँ साहित्य के सागर में किसी भी प्रकार से मोतियों से कम नहीं हैं। मेरा सदैव प्रयास रहता है कि मैं उन मोतियों को सूत्रधार की भांति एक माला में पिरोकर इस माध्यम से आप तक प्रेषित कर दूँ। प्रत्येक रचनाकार अपने पाठकों तक अपने हृदय के सारे उद्गार उन रचना रूपी मोतियों में सजा चमका कर मुझे प्रेषित कर देते हैं। फिर उन मोतियों से भी चुनिन्दा मोतियों को चुनकर प्रतिदिन आप तक पहुँचने का प्रयास बड़ा ही सुखद होता है। यह संवाद तो कदाचित उन मोतियों के माध्यम से अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति है जो मुझे आप से जोड़ती है।

मेरा तो सदैव यह प्रयास रहता है कि प्रतिदिन आपको चुनिन्दा रचनाएँ प्रस्तुत करूँ। आपका रुचिकर स्नेह मुझे साहित्य में नित नवीन प्रयोगों को आपसे साझा करने हेतु प्रोत्साहित करता है। प्रत्येक दिन आपको कुछ नया दूँ बस यही लालसा मुझे एवं e-abhivyakti के माध्यम से संभवतः मेरे-आपके साहित्य तथा साहित्यिक जीवन जीने की लालसा को जीवित रखती है।

अब आज की रचनाएँ देखिये न। दैनिक स्तंभों में श्री मदभगवत गीता के एक श्लोक के अतिरिक्त श्री जगत सिंह बिष्ट जी का गंगाजी के तट एवं हिमालय श्रंखलाओं के मध्य प्रकृति के गोद में शांतचित्त बैठ कर “निर्वाण” जैसे विषयों पर रचित रचना आपके मस्तिष्क के आध्यात्मिक तारों को निश्चित ही झंकृत कर देंगी।

इसी क्रम में श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की कविता “सावली” मुझे चमत्कृत करती है। मराठी शब्द “सावली” का अर्थ “छाया” होता है। उनकी प्रथम दो पंक्तियाँ “अपनी ही छाया में जब उलझ जाता हूँ कभी कभी, तो सूर्य भी मुझ पर हँसता है कभी कभी।“ यह रचना श्री अशोक जी के गंभीर एवं दार्शनिक मनोभावों को अभिव्यक्त करती है।

इस बार बतौर प्रयोग आपके समक्ष नारी की भावनाओं पर दो कवितायें प्रस्तुत कर रहा हूँ। आप स्वयं रचनाओं की साहित्यिक तुलना किए बगैर निर्णय लें कि यदि नारी के मनोभावों को एक कवियित्रि डॉ भावना शुक्ल लिखती हैं और एक कवि श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश” लिखते हैं तो उनकी दृष्टि, संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति कैसी होती है। मैं तो आपको मात्र दोनों कवियों की अंतिम दो पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा।

स्त्री है सबसे न्यारी

है वो हर सम्मान की अधिकारी।

  • डॉ भावना शुक्ल

 

पता नहीं पिंजरे में,

“मैं हूँ या मेरी भावनाएं ….?”

  • माधव राव माण्डोले दिनेश

 

इस संदर्भ में मुझे मेरी कविता कि निम्न पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

 

कहते हैं कि –

स्त्री मन बड़ा कोमल होता है

उसकी आँखों में आँसुओं का स्रोत होता है।

 

किन्तु,

मैंने तो उसको अपनी पत्नी की विदाई में

मुंह फेरकर आँखें पोंछते हुए भी देखा है।

 

श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी कि प्रसिद्ध पुस्तक “सफर रिश्तों का” पर आत्मकथ्य एवं उनकी चर्चित  कविता “मृत्युबोध” अवश्य आपको जीवन के शाश्वत सत्य “मृत्यु” के “बोध” से अवश्य रूबरू कराएगी।

 

इस संदर्भ में भी मुझे मेरी कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

 

जन्म के पश्चात

मृत्यु

सुनिश्चित है।

और

जन्म से मृत्यु का पथ ही

परिभाषा है

जीवन की।

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

2 अप्रैल 2019

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति: संवाद-16 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–16    

मैं अक्सर आपसे अपनी एक प्रिय नज्म की पंक्तियाँ टुकड़ों में साझा करता रहता हूँ।

यदि आप गौर करेंगे तो पाएंगे यह मेरी ही नहीं तकरीबन मेरे हर एक समवयस्क मित्रों की भी अभिव्यक्ति है।

आज मैं अपनी वही नज़्म आपसे संवाद स्वरूप साझा करना चाहता हूँ।

एहसास 
जब कभी  गुजरता हूँ  तेरी  गली  से  तो क्यूँ ये एहसास होता है 
जरूर   तुम्हारी निगाहें भी कहीं न कहीं खोजती होंगी मुझको।
बाग के दरख्त जो कभी गवाह रहे हैं हमारे उन हसीन लम्हों के  
जरूर उस वक्त वो भी जवां रहे होंगे इसका एहसास है मुझको। 
बाग के फूल पौधों से छुपकर लरज़ती उंगलियों पर पहला बोसा 
उस पर वो  झुकी निगाहें सुर्ख गाल लरज़ते लब याद हैं मुझको।  
कितना  डर  था हमें उस जमाने में सारी दुनिया की नज़रों का 
अब बदली फिजा में बस अपनी नज़रें घुमाना पड़ता है मुझको। 
वो  छुप छुप कर मिलना वो चोरी  छुपे  भाग कर फिल्में देखना 
जरूर समाज के बंधनों को तोड़ने का जज्बा याद होगा तुमको।  
सुरीली धुन और खूबसूरत नगमों  के हर लफ्ज के मायने होते थे
आज क्यूँ नई धुन में नगमों के लफ्ज  तक  छू  नहीं पाते मुझको।   
  
वो शानोशौकत की निशानी साइकिल के पुर्जे भी जाने कहाँ होंगे 
यादों की मानिंद कहीं दफन हो गए हैं इसका एहसास है मुझको।  
इक दिन उस वीरान कस्बे में काफी कोशिश की तलाशने जिंदगी 
खो गये कई दोस्त जिंदगी की दौड़ में जो दुबारा  न  मिले मुझको। 
दुनिया के शहरों से रूबरू हुआ जिन्हें पढ़ा था  कभी किताबों में 
उनकी खूबसूरती के पीछे छिपी तारीख ने दहला दिया मुझको।  
अब ना किताबघर  रहे  ना किताबें ना ही उनको पढ़ने वाला कोई
सोशल साइट्स पर कॉपी पेस्ट कर सब ज्ञान बाँट  रहे हैं मुझको।  
अब तक का सफर तय किया एक तयशुदा राहगीर की मानिंद 
आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें  है  न  मुझको।  
आज बस इतना ही

हेमन्त बावनकर

1 अप्रैल 2019

Please share your Post !

Shares
image_print