(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम और विचारणीय लघुकथा – ख़ज़ाना)
☆ लघुकथा – ख़ज़ाना ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
संगीत समारोह में बीस वर्षीय आर्यन ने इतना शानदार गाया कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए। बहुत देर तक उसके लिए तालियाँ बजती रहीं। आर्यन के संगीत-गुरु राज वर्मा मंच पर अपने शिष्य के बारे में कुछ कहने के लिए आमंत्रित किए गए। उन्होंने कहा, “आज इसने जो मुकाम पाया है, अपनी मेहनत और लगन के कारण ही पाया है।
यह जून के महीने में जिस दिन पहली बार मेरे पास आया, उस दिन बेहद गर्मी थी। सड़कें आग की तरह जल रहा थीं। वह मेरे सामने नंगे पाँव खड़ा था। मैंने सोचा शायद जूते बाहर निकाल कर आया है। मैंने इसे सामने बैठाया, पानी पिलाया और कुछ सुनाने के लिए कहा। इसने गाया तो मुझे लगा बच्चे में प्रतिभा है। मैंने इसे सिखाने के लिए सहमति दे दी। यह दरवाज़े से बाहर निकला तो आदतन मैं दरवाज़े तक छोड़ने आया। इसने प्रणाम किया और सड़क पर चल दिया।
मैंने टोका – तुमने पाँव में कुछ पहना नहीं, कितनी गर्मी है?
इसने कहा – मुझे गर्मी नहीं लगती गुरु जी… राज वर्मा आगे कुछ बोल नहीं पाए। शब्द टूट गये थे, गला भर आया था, वे पर्वत की तरह अचल खड़े थे और उस अचल पहाड़ से झरने बह रहे थे।
इससे पहले कि वे रूमाल से आँसू पोंछते, कार्यक्रम के मुख्य अतिथि ने अपने रूमाल में उनके आँसू समेटे और कहा, “गुरु शिष्य के अद्भुत और स्नेहिल रिश्ते के साक्षी इन पवित्र मोतियों के अनमोल ख़ज़ाने को मैं हमेशा सँभालकर रखूँगा। इस ख़ज़ाने का स्वामी बनाने के लिए शुक्रिया।”
अब राज वर्मा और मुख्य अतिथि गले लगकर खड़े थे और तमाम श्रोताओं की आँखों में आँसू उम्मीद की तरह झिलमिला रहे थे।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा –“अँधा”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 197 ☆
☆ लघुकथा- अँधा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
“अरे बाबा ! आप किधर जा रहे है ?,” जोर से चींखते हुए बच्चे ने बाबा को खींच लिया.
बाबा खुद को सम्हाल नहीं पाए. जमीन पर गिर गए. बोले ,” बेटा ! आखिर इस अंधे को गिरा दिया.”
“नहीं बाबा, ऐसा मत बोलिए ,”बच्चे ने बाबा को हाथ पकड़ कर उठाया ,” मगर , आप उधर क्या लेने जा रहे थे ?”
“मुझे मेरे बेटे ने बताया था, उधर खुदा का घर है. आप उधर इबादत करने चले जाइए .”
“बाबा ! आप को दिखाई नहीं देता है. उधर खुदा का घर नहीं, गहरी खाई है .”
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – सोंध
‘इन्सेन्स- परफ्यूमर्स ग्लोबल एक्जीबिशन’.., इत्र बनानेवालों की यह यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रदर्शनी थी। लाखों स्क्वेयर फीट के मैदान में हज़ारों दुकानें। हर दुकान में इत्र की सैकड़ों बोतलें। हर बोतल की अलग चमक, हर इत्र की अलग महक। हर तरफ इत्र ही इत्र।
अपेक्षा के अनुसार प्रदर्शनी में भीड़ टूट पड़ी थी। मदहोश थे लोग। निर्णय करना कठिन था कि कौनसे इत्र की महक सबसे अच्छी है।
तभी एकाएक न जाने कहाँ से बादलों का रेला आसमान में आ धमका। गड़गड़ाहट के साथ मोटी-मोटी बूँदें धरती पर गिरने लगीं। धरती और आसमान के मिलन से वातावरण महकने लगा।
..दुनिया के सारे इत्रों की महक अब अपना असर खोने लगी थीं। माटी से उठी सोंध सारी सृष्टि पर छा चुकी थी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना आपको शीघ्र दी जावेगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – नेक कार्य।)
क्या हो गया बाबूजी, आज आप मुझे स्कूल यह कहां ले जा रहे हैं? हम यह कपड़े की दुकान में क्यों आए हैं? बेटा आज तुम्हारे चाचा के बेटे की शादी है, सब लोग वही गए हैं। तुम्हें भी वही चलना है आज तुम्हारी परीक्षा थी, इसलिए तुम्हें स्कूल से लेने में आ गया। अब तुम यहां पर एक अच्छा सा कपड़ा खरीद लो । तुम्हें मैं शादी में छोड़ देता हूं कोई पूछेगा तो बोल देना कि चाचा जी ने मुझे कपड़े दिए हैं।
बाबूजी आपको पता है कि माँ कितना नाराज होगी यह सुनेगी तो?
मैं घर जाती हूं आप शादी में चले जाओ।
नहीं बेटा, जो कह रहा हूं वह चुपचाप मानो और उसे एक सुंदर सी फ्रॉक दिला देते हैं और कहते हैं इसे तुम पहनो और उसके कपड़े पैक करके उसके बैग में डाल देते हैं।
अरे !यह सुनीता ने तो बहुत सुंदर फ्रॉक पहना है। कैसा हुआ तेरा पेपर? यह किसकी फ्रॉक पहन के आ गई ?
माँ यह फ्रॉक मुझे चाचा जी ने दिया है।
भाई की शादी बोले आज है तो तू यहीं पर रहो ठीक है।
चल उसने कुछ खर्चा तो किया।
देखो जी मेरा भतीजा आ रहा है उसे एक अच्छा सा कोट पेंट दिला दो मैं अपने भतीजे को गोद लेना चाह रही थी तुमने नहीं लेने दिया वह मेरा बेटा है।
ठीक है भाग्यवान तो मायके के मोह में हो। तुम्हें क्या पता मेरे निर्णय पर एक दिन तुम खुश होगी जब हमारी सुनीता कुछ बड़ा नाम करेगी और तुम्हारी देखभाल यही करेगी। लेकिन इस सच्चाई से तुम भाग रही हो।
अच्छा शादी में तो चुप रहो। घर चलकर तुम्हारा प्रवचन तो मैं सुनती रहती हूं। नाम तो तुम्हारा शांति है पर हमेशा अशांत रहती हो।
चल! बेटा सुनीता आज हम आराम से रहते हैं। तेरे सहारे मेरा जीवन अच्छे से कट जाएगा मुझे बहुत खुशी है कि मैंने सही समय पर तुझे गोद लेकर एक नेक कार्य किया है।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘अनुष्ठान‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 146 ☆
☆ लघुकथा – अनुष्ठान☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
असल में पूरी पंडिताइन हैं वह। अरे भाई ! गजब की पूजा-पाठी। कोई व्रत-त्यौहार नहीं छोड़तीं। करवाचौथ, हरितालिका सारे व्रत निर्जल रहती है। आज के समय में भी प्याज-लहसुन से परहेज है। अन्नपूर्णा देवी का व्रत करती है। इस बार उद्यापन करना है। बड़ी धूमधाम से तैयारी भी चल रही है। इक्कीस ब्राह्मणों को भोजन कराना। दान-दक्षिणा अपनी श्रद्धा तथा सामर्थ्य के अनुसार। पूजा की सामग्री में इक्यावन मिट्टी के दीपक लाने हैं। कुम्हारवाड़ा घर से बहुत दूर था। पास के ही बाजार में एक बूढ़ी स्त्री दीपक लिए बैठी दिख गई। पच्चीस रुपये में इक्यावन दीपक खरीद लिए गए। पंडिताइन ने पचास का नोट निकालकर बूढ़ी उस स्त्री को दिया और दीपक थैले में रखने लगी।
पंडित जी ने बोला है–“दीपकों में खोट नहीं होना चाहिए। किसी दीपक की नोंक जरा-सी भी झड़ी न हो। ” देखभाल कर बड़ी सावधानी से दीपक रखने के बाद, पंडिताइन ने पच्चीस रुपए वापस लेने के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया।
बूढ़ी माई ने धुंधली आँखों से पचास के नोट को सौ का नोट समझ, पचहत्तर रुपए पंडिताइन के हाथ में वापस रख दिए। पंडिताइन की आँखें चमक उठीं। वह बड़ी तेजी से लगभग दौड़ती हुई-सी वहाँ से चल दी।
अपनी गलती से अनजान बूढ़ी माई शेष दीपकों को करीने से संभाल रही थी। अन्नपूर्णा देवी के अनुष्ठान की तैयारी अभी बाकी थी।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका बाल साहित्य व्यंग्य – “आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 196 ☆
☆ बाल साहित्य – आत्मकथा– हवाई जहाज का जन्म☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मेरा जन्म 1900 की शुरुआत में ओहियो के डेटन में एक छोटे से वर्कशॉप में हुआ था। मेरे निर्माता ऑरविल और विल्बर राइट नाम के दो भाई थे। वे पक्षी की उड़ान से प्रेरित थे। वे कई वर्षों से मेरे डिजाइन पर काम कर रहे थे।
मैं एक बहुत ही साधारण मशीन था। मेरे पास दो पंख थे, एक प्रोपेलर और एक छोटा इंजन। लेकिन मैं भी बहुत नवीन था। मैं पहला हवाई जहाज था जो कुछ सेकंड से अधिक समय तक उड़ान भरने में सक्षम था।
17 दिसंबर, 1903 को मैंने अपनी पहली उड़ान भरी। मैं ऑरविल के नियंत्रण में था। विल्बर मेरे साथ दौड़ रहा था। वह एक रस्सी पकड़े था। मैंने 12 सेकंड के लिए उड़ान भरी। 120 फीट की यात्रा की। यह एक छोटी उड़ान थी, लेकिन यह एक ऐतिहासिक थी।
मेरी उड़ान ने साबित कर दिया कि इंसान उड़ सकता है। इसने अन्य अन्वेषकों को नए और बेहतर हवाई जहाज बनाने के लिए प्रेरित किया। और इसने दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया।
मैं अब 100 से अधिक वर्षों से उड़ रहा हूं। मैंने उस समय में काफी बदलाव देखे हैं। हवाई जहाज बड़े और तेज हो गए हैं। वे ऊंची और दूर तक उड़ सकते हैं। वे अधिक लोगों को ले जा सकते हैं।
लेकिन एक चीज नहीं बदली है: मैं अभी भी दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक मशीन हूं। मैं लोगों को नई जगहों और नए अनुभवों के साथ ले जा सकता हूं। मैं लोगों को एक-दूसरे से और उनके आसपास की दुनिया से जुड़ने में मदद कर सकता हूं। मैं दुनिया को एक छोटी जगह बना दिया है।
मुझे मेरे हवाई जहाज होने पर गर्व है। लोगों को यात्रा करने और अन्वेषण करने में मदद करने पर मुझे प्रसन्न्ता होती है। मुझे मेरी प्यारी दुनिया के भ्रमण करने पर गर्व है।
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचरणीय लघुकथा – “नदिया ऊपर नाव…”।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 1 ☆
लघुकथा – नदिया ऊपर नाव… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
मैं बाज़ार में सब्जी खरीद रहा था तभी एक व्यक्ति ने नमस्कार किया। मैंने देखा कि शिवा था। शिवा ने एक मजदूर सुपरवाइजर के रूप में मेरा बंगला बनाया था। बड़ा अच्छा कारीगर था। उसका व्यवहार भी अच्छा था। मकान बनने के बाद जब कभी मिलता तो बड़ी इज्जत से नमस्कार करता और कहता साहब कोई काम हो तो बताइएगा। इसलिए मैं उसे भूल नहीं पाया था। लेकिन आज वह कुछ मुरझाया सा दिखा। मैंने पूछा कि क्या बात है मुंह क्यों लटकाए हुए हो। उसने कहा कि साहब अपने ठेकेदार साहब के साथ पंद्रह साल से काम कर रहा था। सब कुछ ठीक चल रहा था परंतु चार दिन पहले उन्होंने काम से निकाल दिया। मैं नहीं जानता कि इन लोगों की सेवा कैसे सुरक्षित है, कोई पेंशन है या नहीं। प्रोविडेंट फंड तो मिलता है शायद। मेरी तंद्रा टूटी और मैंने महसूस किया कि वह मेरे सामने ही खड़ा है। मैंने उससे कहा कि तुम्हारे साथ तो काफी लोग काम करते थे। उन्हें इकट्ठा करके तुम लेबर कांट्रेक्टिंग कर सकते हो। मुझे लगा कि मेरी बात सुनकर वह कुछ सहज हो गया है। मैंने कहा कि कभी कभार घर आ जाया करो। उसने आश्वासन में हाथ जोड़ दिए और मैं घर की ओर चल दिया। उसके बाद शिवा नहीं मिला और बात आई गई हो गई।
ऐसे ही एक दिन पास के पार्क में शाम की सैर पर निकला था। सामने एक सज्जन ने रास्ता रोका और मेरा हालचाल पूछा। मैंने देखा चौहान साहब थे, नगर के जाने माने ठेकेदार। मैंने खुशी जताते हुए उन्हें धन्यवाद दिया कि उनके बनाए गए मेरे बंगले में आजतक किसी भी बारिश में एक बूँद पानी नहीं आया। उनके चेहरे पर भी मुस्कान उभर आई। और मेरे साथ ही टहलने लगे। बातचीत में बोले साहब अब माहौल बहुत बदल गया है। बोले,”आपको याद होगा मेरा सुवरवाइजर शिवा, जिसने आपके बंगले का काम किया था।” मैंने कहा “हाँ हाँ मुझे याद है। कुछ साल पहले मुझे मिला था, दुखी था, कह रहा था कि आपने उसे काम से निकाल दिया।” वे बोले “निकाला नहीं साहब मजबूरी थी । जब मुझे काम नहीं तो उसे कहाँ से देता।”” मैंने कहा कि वह तो ठीक है पर उसकी बात क्यों निकल आई।” “साहब बात इसलिए निकल आई कि वह आज लेबर कांट्रेक्टर है। मेरे पास एक बड़ा काम आ गया तो मैं उसके पास लेबर मांगने गया तो उसने साफ मना कर दिया। जिसे मैंने काम करना सिखाया वही काम नहीं आया।” यह कहकर वे अपनी गाड़ी की ओर चल दिए। फिर मुझे अचानक याद आया कि कुछ वर्ष पहले शिवा को मैंने क्या सुझाव दिया था।
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – जीवन का सुख।)
☆ लघुकथा # 51 – जीवन का सुख ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
तुम्हारे जीवन में यह चार लोग कौन हैं? मुझे आज तक यह नहीं समझ में आया। पतिदेव कम से कम एक दिन उनके दर्शन करा दो। उनके नाम यू रोज-रोज बातें मत बनाओ?
ऐसे मत जाओ, बाहर नौकरी मत करो। इस तरह के कपड़े मत पहनो। मेरे ऊपर तुम इतना अनुशासन लगाते हो?
क्या तुम भी कभी यह चार लोगों की बातें सुनते हो क्या?
भाग्यवान जो बातें मैं कहता हूं, वह तुम्हारे भले के लिए कहता हूं। पीठ पीछे हंसी उड़ाते हैं लोग।
पीठ पीछे तो लोग भगवान को भी नहीं छोड़ते और लोगों की बातें सुनने लग गई तो जीवन जीना मुश्किल हो जाएगा। जिंदगी एक बार मिली है क्या हम खुलकर नहीं जी सकते? यह चार लोग तो घड़ी चौराहे नुक्कड़ में बैठकर कुछ ना कुछ तो कहेंगे ही और जब हम खुश रहेंगे तो हमारी खुशी से जलेंगे। मैं जैसी हूं वैसे ही मुझे रहने दो। मुझे किसी के सामने टोकना नहीं, वरना मेरा मुंह सबके सामने खुल जाएगा। तब मत कहना कि- भरे समाज में मेरी बेइज्जती कर दी। समझो पतिदेव जीवन का सत्य, सुखी जीवन बिताने में ही है।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय हृदयस्पर्शी लघुकथा “सिल्वर जुबली यादें”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 211 ☆
🌻लघुकथा🌻 🌧️ सिल्वर जुबली यादें 🌧️
अभी कुछ महीने पहले ही 25वीं शादी की सालगिरह मनाते दोनों पति-पत्नी ने एक दूसरे को सोने में जड़ी हीरे की अंगूठी पहनाई थी।
खुशी का माहौल दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था। क्योंकि बिटिया की शादी की तैयारी चल रही थी, मेहमानों का आना-जाना लगा था। सारी व्यवस्था एक होटल से ही की गई थी क्योंकि बारात और लड़के वालों ने एक ही साथ मिलकर शादी समारोह की व्यवस्था की थी।
घर में कहने को तो सभी पर केवल पैसे से खेलने, पैसों से बात करने, और पैसों से ही सारी व्यवस्था करना, सबको अच्छा लग रहा था।
बिटिया के पिताजी का बैंक बैलेंस शून्य हो चुका था। फरमाइश को पूरा करते-करते अब थकने लगे थे। होटल में कुछ ना कुछ सामान बढ़ते जा रहा था। एडवांस के बाद भी होटल मैनेजर बड़ी बेरुखी से बोला- सर अभी आप तुरंत पैसों का इंतजाम कीजिए नहीं तो इसमें से कुछ आइटम कम करना पड़ेगा।
उसने अपने सभी रिश्तेदारों के बीच अपनी बदनामी को डरते इशारे से अभी आता हूँ कह लार चले गए। पत्नी को समझते देर न लगी। आगे- पीछे देखती रही। पति आँख बचाकर ज्योंही मैनेजर के केबिन में आकर अपनी अंगूठी उतार देते हुए कहने लगे – यह अंगूठी अभी-अभी की है। फिलहाल आप गिरवी के तौर पर इसे रखिए क्योंकि मैं तुरंत पैसे का इंतजाम नहीं कर सकूंगा। पीछे से पत्नी ने अपने अंगूठी उतार देती बोली- मैनेजर साहब यह दोनों अंगूठी बहुत कीमती है। यह रही रसीद।
आप चाहे तो दुकानदार से पल भर में पता लगा लीजिए। परंतु सारी व्यवस्था रहने दीजिए। पतिदेव पत्नी का रूप देख कुछ देर सशंकित रहे, परंतु बाद में धीरे से कंधे पर हाथ रखते हुए बोले- हमारी सिल्वर जुबली यादें तो हमारे साथ है।
अभी वक्त है हमारी बिटिया के पारंपरिक जीवन का, शादी विवाह का।
मैनेजर भी हतप्रभ था। ड्यूटी से बंधा था। भींगी पलकों से रसीद और अंगूठी उठाकर रखने लगा। सोचा क्या ऐसा भी होता है?
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय कथा – ‘एक नेक काम‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 267 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ एक नेक काम ☆
बाहर चले गये या बाहर रह रहे बच्चों का घर आना बहुत सुख देने वाला होता है, और उनका जाना बहुत दुखदायक। मीनू इस बार जब ससुराल से आयी तो मां बाप को हमेशा की तरह बहुत खुशी हुई। दोनों छोटी बहनों को भी। खासतौर से इसलिए कि उसके साथ बुलबुल भी था। बुलबुल अब दो साल का हो गया था। पिछली बार जब मीनू आयी थी तब वह इधर-उधर घिसट ही पाता था। अब वह सयाना हो गया था,खूब बातूनी। उसकी तोतली ज़बान दिन भर चलती थी। ढेर सारी जिज्ञासा और ढेर सारे सवाल। नाना नानी और दोनों मौसियो के लिए जीता-जागता खिलौना। मीनू के पास न अब वह रहता था, न सोता था।
नानी उसे अपने पास लिटा कर खूब सारी कहानियां सुनातीं— राजाओं, राजकुमारियों की, परियों और राक्षसों की। बच्चे वैसे भी अद्भुत श्रोता होते हैं। हर बात उनके लिए सच होती है, हर किस्सा विश्वसनीय। परी, राक्षस, सब उनकी कल्पना में जिन्दा हो जाते हैं। उनके साथ उठते, बैठते, बतयाते हैं। बुलबुल भी नानी की कहानियां सुनते-सुनते कभी किलक कर ताली बजाने लगता, कभी भयभीत होकर कबूतर की तरह उनकी गोद में दुबक जाता। सारे वक्त उसकी आंखें उत्सुकता से फैली रहतीं और पुतलियां नानी के चेहरे के चारों तरफ घूमती रहतीं। फिर एकाएक नानी पातीं कि वह किसी क्षण नींद में डूब गया है। उसके गुलाबी ओंठ नींद में खुल जाते और उसकी सांसों की मीठी महक नानी के चेहरे को छूने लगती।
मां के घर आकर मीनू आलसी हो जाती है। मां कोई काम नहीं करने देती। कहती हैं, अपने घर में बहुत काम करती होगी। यहां थोड़ा आराम कर ले। मां और बहनें सारा काम करती हैं और मीनू आराम फरमाती है। लेटी लेटी कोई किताब पलटती है या सोती है। यहां आकर जैसे वह एक बार फिर बच्ची हो जाती है। मां उसके लिए सोच सोच कर नये पकवान बनाती है और मना मना कर उसे खिलाती है।
मीनू ऊबती है तो परिचितों के घर बैठने के लिए चली जाती है। उसकी हमउम्र सहेलियों में से ज़्यादातर शादी के बाद ससुराल चली गयीं। जिनकी अभी तक शादी नहीं हुई वे समय काटने के लिए किसी डिग्री या ट्रेनिंग के चक्कर में फंसी हैं। ऐसी सहेलियों को मीनू से ईर्ष्या होती है क्योंकि मध्यम वर्ग की लड़की की सही वक्त पर शादी हो जाना सौभाग्य की बात है।
बुलबुल के आने से मीनू के पिता भी खूब खुश हैं। वे कहीं भी जाने के लिए तैयार होते हैं कि बुलबुल कहता है, ‘नानाजी, कहां जा रहे हो? हम भी चलेंगे।’ वह सब जगह नाना की उंगली पकड़े घूमता है, चाहे वह बाज़ार हो या उनके मित्रों का घर।
गरज़ यह कि मीनू की उपस्थिति से घर में बड़ा सुकून है। उसकी बात कोई नहीं टालता, न मां-बाप, न बहनें।जब मर्जी आती है, वह मां को, पिता को, बहनों को झिड़क देती है और सब उसकी बात को शान्ति से सुन लेते हैं और मान लेते हैं। मां को आराम है क्योंकि पिता और बहनों पर वह खूब अनुशासन रखती है।
मीनू के आने से घर की महरी भी खुश है। वजह यह है कि जाते वक्त कुछ मिल जाने की आशा है— रुपये और शायद पुरानी साड़ी और ब्लाउज़। इसीलिए वह मीनू की अतिरिक्त सेवा करती है। काम खत्म होने पर अक्सर उसके हाथ- पांव दबाने बैठ जाती है।
महरी के साथ उसकी तेरह चौदह साल की बेटी आती है। नाम आश्चर्यजनक है— सुकर्ती। यह ‘सुकृति’ शब्द बिगड़कर कैसे निम्न वर्ग तक पहुंच गया, यह अनुसंधान का विषय है। वैसे हर सन्तान माता-पिता की नज़र में ‘सुकृति’ ही होती है। सुकर्ती किसी घर से कृपा-स्वरूप मिली गन्दी फ्राक पहने, रबर की चप्पलें फटफटाती, सूखा झोंटा खुजाती, मां के साथ घूमती रहती है। मां बर्तन मांजती है तो वह धो देती है। लेकिन उसे झाड़ू पोंछा लगाने की अनुमति नहीं मिलती क्योंकि उसकी सफाई के बाद भी घर में बहुत सी गन्दगी छूट जाती है।
बुलबुल सुकर्ती से भी बहुत हिल गया है। उसकी गोद में चढ़ा घूमता है। कई बार उसके साथ उसके घर भी हो आया है।
सुकर्ती को देखकर कई बार मीनू के मन में आया है कि उसे अपने साथ ले जाए। बुलबुल को खिलाने के लिए कोई चाहिए। एक ननद है जो अपनी पढ़ाई में लगी रहती है। सास ससुर ज़्यादा बूढ़े हैं। उनसे वह ठीक से संभलता नहीं। मीनू ने इसके बारे में मां से बात की और फिर दोनों ने ही महरी से। महरी बात को टाल देती है। बेटी के सूखे बालों पर प्यार से हाथ फेरकर कहती है, ‘बाई, अब इसी की वजह से घर में कुछ अच्छा लगता है। दोनों लड़के ‘न्यारे’ हो गये। यह भी चली जाएगी तो घर में मन कैसे लगेगा? जो रूखा सूखा मिलता है सो ठीक है। आंखों के सामने तो है। बड़ी हो जाएगी तो हाथ पीले कर देंगे।’
लेकिन मीनू और उसकी मां इतनी आसानी से हारने वाले नहीं। मां, मीनू और दोनों बहनें हमेशा महरी को एक ही धुन सुनाती रहती हैं, ‘सुकर्ती को भेज दो। आराम से रहेगी। अच्छा खाएगी, अच्छा पहनेगी। भले घर में रहकर शऊर सीख जाएगी। यहां देखो कैसे घूमती है। वहां जाएगी तो शकल बदल जाएगी। तुम देखोगी तो पहचान भी नहीं पाओगी। और फिर मीनू तो साल- डेढ़- साल में आती ही रहती है। उसके साथ सुकर्ती भी आएगी।’
महरी एक कान से सुनती है, दूसरे से निकाल देती है। अकेले में सुकर्ती के सामने भी प्रलोभन लटकाये जाते हैं, ‘वहां अच्छा खाना, अच्छे कपड़े मिलेंगे। वहां कार भी है। खूब घूमने को मिलेगा। काम क्या है? बस, बुलबुल को खिलाना और थोड़ी ऊपरी उठा-धराई।’
सुनते सुनते सुकर्ती अपनी वर्तमान ज़िन्दगी और उस काल्पनिक ज़िन्दगी के बीच तुलना करने लगती है। उसे अपनी वर्तमान ज़िन्दगी में खोट नज़र आने लगते हैं। सामने कल्पना की इंद्रधनुषी दुनिया विस्तार लेती है जिसमें सब कुछ सुन्दर, चमकदार है, वर्तमान अभाव और अपमान नहीं है।
रात को जब थककर महरी सोने के लिए लेटती है तो उसके सिर पर हाथ फेरकर कहती है, ‘तू कहीं मत जाना बेटा। हम जैसे भी हैं अच्छे हैं। चली जाएगी तो देखने को तरस जाएंगे। जो मिलता है, उसी में हमें संतोष है।’
लेकिन सुकर्ती की आंखों में वह चमकदार दुनिया कौंधती है। वह कोई जवाब नहीं देती।
मीनू महीने भर रहने की सोच कर आयी थी, लेकिन एक दिन उसके पतिदेव आ धमके। बहुत से पति पत्नी-विछोह नहीं सह पाते। दो दिन बाद ही तबीयत बिगड़ने लगती है। यह नहीं कि हर स्थिति में पत्नी के प्रति बहुत प्रेम ही हो, बस पत्नी एक आदत बन जाती है, ज़िन्दगी के ढर्रे का एक ज़रूरी हिस्सा, जिसकी अनुपस्थिति में ढर्रा गड़बड़ाने लगता है। अक्सर पत्नी की अनुपस्थिति कुछ ऐसी लगती है जैसे घर की कोई बहुत उपयोगी ऑटोमेटिक मशीन बिगड़ गयी हो। घर में उसकी उपस्थिति ज़रूरी होती है, लेकिन उसके प्रति कोई स्नेह या समझदारी का भाव नहीं होता।
तो दामाद साहब मीनू को ले जाने के लिए पधार गये। भारतीय समाज में दामादों का पधारना एक घटना होती है। घर में एक ज़लज़ला उठता है। प्रेम और ख़िदमत के भाव गड्डमड्ड हो जाते हैं।
यहां भी यही हुआ। सास और दोनों सालियां दामाद साहब की सेवा में लग गये। क्या खिलायें? कहां घुमायें? दामाद से संबंध में केवल स्नेह का ही भाव नहीं होता, अन्यथा साले को अपनी बहन के घर में भी वैसा ही सम्मान मिलता। इसकी पृष्ठभूमि में वरपक्ष की श्रेष्ठता और कन्यापक्ष की घटिया स्थिति होती है। दामाद की खातिर के लिए और उसे अच्छी विदाई देने के लिए सास-ससुर कोनों में फुसफुसाते हैं, कर्ज लेते हैं और दामाद साहब सब जानते हुए भी टांग पर टांग धरे शेषशायी मुद्रा में पड़े विदाई के सुखद क्षण की प्रतीक्षा करते रहते हैं।
दामाद के आने से मीनू की मां खुश भी हुई और दुखी भी। बेटी के चले जाने की सोच कर दिल भारी हो गया। विवाह के बाद बेटी पर कैसे अधिकार खत्म हो जाता है। उधर से हुक्म आता है और उसका तुरन्त पालन करना पड़ता है। मां अब अक्सर चिन्तित रहती थीं। काम करते-करते रुक कर सोच में डूब जाती थीं। मीनू के साथ-साथ बुलबुल के चले जाने की बात उन्हें और ज़्यादा व्याकुल करती थी।
मां वैसे भी बहुत संवेदनशील थीं। बेटियों की जुदाई उन्हें बर्दाश्त नहीं होती थी। मीनू की शादी में विदा के वक्त ऐसी हड़बड़ायीं कि सीढ़ी से उतरने में लुढक गयीं। घुटने और हाथ में खासी चोट आयी । उसी स्थिति में मीनू को उनसे विदा लेनी पड़ी थी। अब मीनू के जाने में तीन-चार दिन थे, लेकिन वे अकेली होने पर अपने आंसू पोंछती रहती थीं। पति और दोनों छोटी बेटियों पर चिड़चिड़ाती रहतीं।
दामाद साहब के आने के बाद से महरी पर सुकर्ती को भेजने के लिए दबाव बढ़ने लगा था। अब महरी के लिए बात को टालना मुश्किल हो रहा था। अन्ततः बात सुकर्ती के बाप तक पहुंच गयी। एक दिन सवेरे वह मीनू के घर आया। सांवला, तगड़ा, सलीके से बात करने वाला आदमी था।
हाथ जोड़कर मीनू से बोला, ‘आप ले जाओ बाई सुकर्ती को। हमने सुना तो हमें बड़ी खुशी हुई। लड़की की जिन्दगी सुधर जाएगी। बल्कि वहीं कोई लड़का देख कर उसकी शादी करवा देना। उसकी मां की बात पर ध्यान मत देना। वह मूरख है। सुकर्ती आपके साथ जरूर जाएगी।’
घर में सब खुश हो गये। किला फतह हो गया। लेकिन उस दिन से महरी बहुत उदास रहने लगी। आती तो बहुत धीरे-धीरे बात करती। सुकर्ती से पहले से ज़्यादा प्यार से बात करती। पहले से ज़्यादा उसका खयाल करती।
अन्ततः वह दिन आ गया जब मीनू को प्रस्थान करना था। मां का कलेजा फटने लगा। सब सामान तैयार हो गया। घर के सब सदस्य बुलबुल को बारी-बारी से गोद में लेकर प्यार करने लगे। सुकर्ती अपनी पोटली लेकर आ गयी थी। साथ मां-बाप थे। महरी का जी दुख से भरा था। आंखों में आंसू भरे, आंचल को मुंह में ठूंसे वह चुपचाप खड़ी थी। लेकिन सुकर्ती एक लुभावनी दुनिया की आशा में खुश थी।
मीनू विदा हो गयी। पिता और सुकर्ती का बाप उन्हें छोड़ने स्टेशन गये। मेहमान अपने पीछे सन्नाटा, शून्य और दुख छोड़ गये। घर के पुराने सन्तुलन को मीनू और बुलबुल के आगमन ने तोड़ा था और अब घर उसी पुराने सन्तुलन पर लौटने की पीड़ादायक प्रक्रिया से गुज़र रहा था।
मीनू के जाते ही मां आंखों को साड़ी से ढक कर पलंग पर ढह गयीं और दोनों बेटियां कुर्सियों पर चुप-चुप बैठ गयीं।
महरी एक कोने में बांहों पर सिर रखे बैठी थी। थोड़ी देर में उसके मुंह से रुलाई का हल्का सवार निकलने लगा, जैसे कि पीड़ा को दबाये रखना कठिन हो गया हो।
उसकी आवाज़ सुनकर मीनू की मां चौंक कर पलंग पर बैठ गयीं। दोनों बहने भी चौंकीं।
मां उठकर उसके पास आयीं और उसके नज़दीक उकड़ूं बैठ गयीं। उनके चेहरे पर आश्चर्य का भाव था। बैठकर बोलीं, ‘अरे, तुम रो रही हो? तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि सुकर्ती आराम से रहेगी। रोने की क्या बात है?’
जवाब में महरी का स्वर और ऊंचा हो गया। मीनू की मां की समझ में नहीं आ रहा था कि महरी खुश होने के बजाय रो क्यों रही थी। दोनों बहनें भी यह समझ नहीं पा रही थीं कि सुकर्ती के इतनी अच्छी जगह जाने पर महरी को खुशी क्यों नहीं हो रही थी।