(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं सशक्त लघुकथा “– कोना कोई और… –” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — कोना कोई और… —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
जो भी प्राणी धरती पर जन्म ले उसे साँस लेने के लिए हवा, पीने के लिए पानी और खाने के लिए भोजन मिल ही जाता है। न मिलता है तो संतोष। राजा के महल में जन्म लेने वाले बालक का मन धूल में खेलने के लिए मचलता है। उसे संभाल कर महल में बंद किया जाता है और सिखाया जाता है कि धूल से खतरनाक और कुछ नहीं। धूल में तरह – तरह के कीटाणु होते हैं जो अनेक रोगों के जन्म दाता होते हैं। पर बालक को इस दलील से संतोष नहीं होता, लेकिन महल में बंद हो जाने पर भागने के लिए कोई चारा न होने से उसे मन मार कर वहीं रह जाना पड़ता है।
उधर एक बालक होता है जो गरीब माँ – बाप के धूल धूसरित घर में जन्म लेता है। वह महल का स्वप्न देखता है, लेकिन उसे समझाया जाता है धूल ही उसकी सुबह है, धूल ही उसकी शाम। अत: धूल से संतोष करना वह सीखे। धूल से भागे तो भागता ही रहेगा, लेकिन उसे हर मोड़ पर धूल ही मिलेगी, महल नहीं। तो क्यों न पहले कदम पर ही धूल का संतोष कर ले, तब भागने की तृष्णा ही मिट जाएगी।
एक बालक हुआ जिसने पूरे संसार के लोगों के असंतोष का प्रतिनिधित्व किया। पूरा संसार होने से बालक का दायरा धरती से ले कर आकाश तक विस्तृत हुआ। उस बालक ने धूल में जन्म लेने पर संतोष नहीं किया और किसी तरह आगे बढ़ कर महल तक पहुँचा। पर महल में उसे संतोष नहीं हुआ, क्योंकि वह असंतोष की परिभाषा जानता ता। उसने अब ऊपरी आकाश की ओर रुख किया और वहाँ पहुँच कर रहा। वहाँ न धूल थी, न महल था। पर वह मनुष्य था इसलिए आकाश में भी उसके साथ असंतोष निबद्ध हुआ।
असंतोष की वजह से और आगे बढ़ने पर वह तारों के जमघट में खो गया। तारों की अपनी समझ यह हुई उसकी यही मंजिल थी, अत: यहाँ खो जाना ही उसके जीवन का सार तत्व हुआ। यदि तारों को मनुष्य के अनंत असंतोष की परिभाषा मालूम होती तो उसे अपने में विलय करने की अपेक्षा अभयदान देते कि वह अपनी यात्रा जारी रखे और संतोष की कामना में ब्रह्मांड के किसी और कोने के लिए कूच करे।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा ‘आस‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 149 ☆
☆ लघुकथा – आस☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
“सर! अनाथालय से एक बच्ची का प्रार्थना पत्र आया है।”
“अच्छा, क्या चाहती है वह?”
“पत्र में लिखा है कि वह पढ़ना चाहती है।”
यह तो बड़ी अच्छी बात है। क्या नाम है उसका?
रेणु।
“रेणु? अरे! वही जो अभी तक स्कूल आने के लिए तैयार ही नहीं थी ? कितना समझाया था हम लोगों ने उसे लेकिन वह पढना ही नहीं चाहती, स्कूल आना तो दूर की बात है। हम सब कोशिश करके थक गए पर वह बच्ची टस से मस नहीं हुई। अब अचानक वह स्कूल आने के लिए कैसे मान गई , ऐसा क्या हो गया? — वह अचंभित थे।”
“सर! आप रेणु का यह प्रार्थना- पत्र पढ़िए” – स्कूल की शिक्षिका ने पत्र एक उनके हाथ में देते हुए कहा।
“टीचर जी! मुझे बताया गया है कि विदेश से कोई मुझे गोद लेना चाहते हैं| मुझे मम्मी पापा मिलने वाले हैं| मुझे अंग्रेजी नहीं आएगी तो मैं अपने मम्मी पापा से बात कैसे करूंगी ? कब से इंतजार कर रही थी मैं उनका, मुझे उनसे बहुत सारी बातें करनी हैं ना! मुझे स्कूल आना है, खूब पढ़ना है।”
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “फोटो… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 13 ☆
लघुकथा – फोटो… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
मुझे जीवन में एक पत्रिका का संपादक बनने का अवसर मिला। मैं तो बल्लियों उछल गया। लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ का हिस्सा। वाह, वाह अपनी ही पीठ थपथपाने लगा। मेरा जो भी सहयोगी सामने आता तो मैं उससे उम्मीद करता कि वह मुझे बधाई दे, मुझसे नमस्ते करे, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं।
एक बात अवश्य हुई कि जिन लोगों की लिखने में रुचि थी, उनका मेरे प्रति नजरिया अवश्य बदला और मुझसे संबंध बनाने के प्रयास करने लगे। जो उच्च श्रेणी के थे वे जहाँ मेरा नाम देखते किसी प्रस्ताव आदि पर तो सहमति व्यक्त कर देते। जो बराबर के थे, वे चाय पिलाने की पहल करने लगे, जबकि पहले पूछते भी नहीं थे। और जो नीचे की श्रेणी के थे वे पहले जो काम टाल जाया करते थे, अब प्राथमिकता से करने लगे। रचनाएं आने लगीं। संपादन क्या होता है, मैं अधिक नहीं जानता था। बस लेख आदि के शब्द, वाक्यों को ठीक करना, विषय के अनुरूप भाषा को बनाए रखना और जो विषय से मेल न खाती हो, उसे काट देना। काफी अच्छा लिखने वाले जुड़ते गए और पत्रिका के अच्छे अंक निकलने लगे। चूंकि सरकारी विभाग की पत्रिका थी इसलिए मुझे कड़े निर्देश थे कि सरकार, मंत्री आदि की आलोचना संबंधी कोई लेख आदि नहीं होना चाहिए। एक लेखक, कवि की एक ही रचना प्रकाशित होनी चाहिए।
एक बार एक कवि महाशय आए और अपनी दो कविताएँ एक ही अंक में प्रकाशित करने का अनुरोध करने लगे। कहने लगे कि इस पत्रिका में छपी अपनी कविताएँ लोगों को दिखाता हूँ तो खुश होते हैं और मुझे कवि सम्मेलन में भी बुलाते हैं। मैं यह जानता था कि वे अधिक पढ़े लिखे नहीं हैं और चतुर्थ श्रेणी में काम करते हैं परंतु लेखन और हिंदी के प्रति उनकी रुचि देखकर मन में आया कि प्रकाशित कर दूँ लेकिन यह नियम विरुद्ध था परंतु उनकी जी हजूरी भी कचोट रही थी। जी हुजूरी करने वाले को मैं एक मजबूर लाचार व्यक्ति समझता था इसलिए मैंने बॉस से अनुमति लेकर उस अंक में उनकी दो कविताएं ले लीं। उसके बाद तो वे उसे ही नज़ीर बना कर हर अंक में दो कविताएँ प्रकाशित करने पर बल देने लगे। उनके व्यवहार में परिवर्तन आ गया। कवि होने का दंभ भरने लगे।
ऐसे ही एक नवोदित लेखक थे। बड़े ही सुंदर अक्षरों में एकदम व्यवस्थित ढंग से निबंध लिखते थे। अपने निबंध में एक अक्षर का भी संशोधन उन्हें बर्दास्त नहीं था। हर निबंध के साथ अपना फोटो और बायो डाटा अवश्य भेजते थे। पत्रिका में लेखक का नाम, पदनाम और पता प्रकाशित करने का नियम था। ऐसा लेखक बहुत बड़ा होता है जिसके निबंध, कविता आदि में कोई भी गलती न हो ऐसा निबंध होना बड़ा मुश्किल था कि उसमें एक वर्तनी भी ग़लत न हो। वर्तनी ठीक करने पर वे लेखक शिकायत करते कि मैं मनमाने ढंग से संपादन करता हूँ। एक बार उनसे किसी बहाने मुलाकात हो गई। मैंने उनके फोटो देखे थे तो उन्हें पहचान गया। पर वे नहीं पहचान पाए। केवल कार्यालय का नाम सुनते ही पत्रिका के संपादक की बुराई करने लगे कि वह अहंकारी और मूर्ख है। हर निबंध के साथ मैं नया फोटो खिंचवा कर अपना आकर्षक फोटो भेजता हूँ पर वह छापता ही नहीं। अब क्या मैं, इतना बड़ा लेखक खुद कहूंगा फोटो छापने के लिए। मेरी ओर से कोई विशेष प्रतिक्रिया न देखकर, उन्हें याद आया कि उन्होंने मेरा परिचय तो जाना ही नहीं सो सामान्य होते हुए मुझसे कह बैठे कि क्षमा कीजिए मैं अपनी ही बातों में बह गया, आपका तो परिचय पूछा ही नहीं। मैंने कहा जी मैं वही नाचीज़ मूर्ख इंसान हूं जिसकी अभी आप तारीफ कर रहे थे। उनके चेहरे का रंग उड़ गया। और जरूरी काम होने का बहाना बना कर चले गए। मैं सोचने लगा कि व्यक्ति में फोटो छपवाने की इतनी लालसा क्यों है?
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मां की कीमत।)
मां हम ऑफिस से आते हुए होली के लिए बाजार से गुजिया और सामान ले आएंगे तुम घर में परेशान मत होना तुम बेकार बनाती हो पास में एक अच्छी दुकान है वहां भी एकदम घर जैसी गुजिया मिलती है अरुण ने अपनी मां को कहा।
बेटा तुम और बहू दोनों व्यस्त रहते हो मैं घर में सारा दिन क्या करूं तो सुबह तुम्हारा टिफिन बनाने के बाद मैं बनाकर रख लूंगी फालतू पैसे क्यों खर्च कर रहे हो।
माँ तुम पैसों की चिंता मत करो आखिर हम दोनों काम क्यों रहे हैं?
मां रोमा तो ऑफिस चली गई है अब मैं जा रहा हूं।
शाम को रोमा और अरुण दोनों गुजिया, गुलाल और होली के लिए ढेर सारा सामान लेकर घर आए।
अरुण – “पास में जो दुकान खोली है वहां कितना अच्छा सामान मिलता है मां जी आप खा कर देखो। एकदम तुम्हारे हाथों का स्वाद लग रहा है मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा है।”
कमला ने कहा – “मैं तो बनाती हूं तो तुम लोग नाक मुंह सिकुड़ते हो और अच्छा नहीं लगता अब बाजार से लाए हो तो कह रहे हो कि घर जैसा है।”
तभी अचानक दुकान का मालिक घर में आता है।
“कमला आंटी आप तो बिल्कुल मेरी मां की तरह हो आपके कारण मेरी दुकान चल निकली । होली के लिए कुछ और गुजिया बनाना है मैं माफी चाहता हूं आपको आकर तकलीफ दे रहा हूं आप चाहे तो मेरी दुकान में आकर बस आपकी निगरानी में दुकान में काम करने वाले लोग बना देंगे। क्या-क्या सामान चाहिए ? आप पूरी लिस्ट बना दो आंटी।”
“अरे आप लोग तो अभी थोड़ी देर पहले ही मेरी दुकान में आए थे आपने यह क्यों नहीं बताया कि आप आंटी के बच्चे हो। और हंसते हुए कहा हर बच्चों का यही हाल है अपनी मां की कीमत नहीं जानते।”
बहू नाराज होकर बोली – “मां आपको यदि काम करना ही था कुछ तो हमें बताया होता। इस तरह बेइज्जती तो ना करती सबके सामने । क्या हम आपको अच्छे से नहीं रखते ?
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेंद्र निगम जी ने बैंक ऑफ महाराष्ट्र में प्रबंधक के रूप में सेवाएँ देकर अगस्त 2002 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। उसके बाद लेखन के अतिरिक्त गुजराती से हिंदी व अँग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हैं। विभिन्न लेखकों व विषयों का आपके द्वारा अनूदित 14 पुस्तकें प्रकाशित हैं। गुजराती से हिंदी में आपके द्वारा कई कहानियाँ देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आपके लेखों का गुजराती व उड़िया में अनुवाद हुआ है। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री यशवंत ठक्कर जी की कथा का हिन्दी भावानुवाद “मायका“।)
☆ कथा-कहानी – मायका – गुजराती लेखक – श्री यशवंत ठक्कर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री राजेन्द्र निगम ☆
‘मेहुल, क्या आज ऑफिस से कुछ जल्दी आ सकते हो ?’ स्वाति ने पूछा |
‘क्यों ?’
‘आज रात आठ बजे टाउन-हाल में कवि सम्मलेन है | उसमें कई अच्छे-अच्छे कवि आनेवाले हैं | तुम यदि आओ तो चलते हैं |’
हर वक्त जब भी कविता, नाटक या साहित्य का जिक्र होता, तो मेहुल को हँसी आ जाती | इस वक्त भी वह आ गई | वह हँसते-हँसते बोला ; ‘कवि साले कल्पना की दुनिया से कभी बाहर ही नहीं आते | उन्हें कुछ दूसरा भी कुछ काम-धंधा है या नहीं |’
‘मेहुल, यदि न जाना हो, तो मुझे कुछ आपत्ति नहीं है | लेकिन ऐसे किसी का अपमान करना ठीक नहीं है |’
‘लो, तुम तो नाराज हो गई | तुम तो ऐसे बात कर रही हो, मानो मैंने तुम्हारे मायकों वालों की तौहीन कर दी हो |’
हर बार की तरह स्वाति चुप हो गई | लेकिन वह मन ही मन मेहुल से सवाल किए बगैर रह नहीं सकी | ‘मेहुल, यह मेरे मायके वालों के अपमान करने जैसा नहीं है | मायका अर्थात क्या सिर्फ मेरे माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, मामा-मामी आदि ही ? जिन कवियों की कविताओं ने मुझे प्रेम करना सिखाया, सपने देखना सिखाया, अकेले-अकेले मुस्कराना सिखाया, अकेले-अकेले रोना सिखाया, वे कवि क्या मेरे मायके के नहीं हैं ? आज मैं जो भी हूँ, जैसी भी हूँ, उसमें मेरे माता-पिता व मेरे शिक्षकों के साथ इन कवियों का भी अहम योगदान है | यह मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ ? इसे समझने के लिए जब तुम्हारे पास यदि हृदय ही नहीं हो तब !’
स्वाति मेहुल के लिए टिफिन तैयार करने के काम में व्यस्त हो गई | मेहुल ऑफिस जाने की तैयारी में लग गया | लेकिन वातावरण में उदासी का रंग छा गया |
ऑफिस जाते समय मेहुल ने वातावरण को हल्का बनाने के इरादे से कहा, ‘सॉरी स्वाति, तुम तो जानती ही हो कि मैं पहले से ही कुछ प्रेक्टिकल हूँ और मुझे ऐसे कल्पना के घोड़े दौड़ाना अच्छा नहीं लगता | मुझे काम भी बहुत रहता है | जवाबदारी भी बहुत है | हमें अंश के भविष्य के बारे में भी विचार करना है | उसे किसी अच्छे होस्टल में रखना है | अच्छी पढ़ाई के बाद उसे विदेश भेजना है | ऐसे में साहित्य का राग ही अलापना नहीं है |’
स्वाति का मौन टूटा नहीं |
मेहुल ने वातावरण को हलका बनाने का प्रयास जारी रखा | ‘स्वाति, तुम्हें कविता, नाटक व कहानियाँ आदि का शौक है, लेकिन ये सब तो टीवी में आते ही हैं न ? अब तो नेट पर भी यह सब मिल जाता है |’
‘मेहुल, नेट पर तो रोटी-सब्जी भी होती है, लेकिन उससे पेट तो नहीं भरता | टीवी में हरे-भरे पेड़ भी बहुत होते हैं, लेकिन हमें उनसे छाँह तो नहीं मिलती | टीवी की बरसात हमें भिगोती नहीं है | ठीक है, कोई बात नहीं | कवि-सम्मलेन कोई बहुत बड़ी बात नहीं है | न जाएँगे, तब भी चलेगा | हमारी जवाबदारियाँ पहले हैं |’
स्वाति ने हँसने की कोशिश की, लेकिन उसकी रुआँसी आँखें मेहुल की नजरों से छिप न सकीं |
‘तुम्हें खुश रखने के लिए मैं कितनी जी तोड़ मेहनत करता हूँ, फिर भी तुम्हारी आँखों में आँसू ! तुम्हें क्या चाहिए, यह मुझे समझ नहीं आता |’ मेहुल की आवाज कुछ तेज हो गई |
‘मुझे मेरा गुम हुआ मेहुल चाहिए | जो छोटी-छोटी बातों से खुश हो जाता था |’ स्वाति किसी तरह कुछ बोल सकी |
‘छोटी-छोटी बातें !’ मेहुल हँसा और ऑफिस जाने लिए निकल गया |
अकेली रह गई स्वाति और वह जी भर कर रोती रही | वह सोचने लगी | ‘ऐसी जिंदगी, अब जी नहीं सकते, लगता है यह तो अब रोज मानो कॉपी-पेस्ट होती जा रही है | इसमें से अब नया कुछ भी बनने से रहा | जो बनना था, वह बन गया | अब तो जो रोज बनता है, वह सब एक जैसा | कविता, नाटक, संगीत, प्रवास इन सब के बगैर जिंदगी रुक नहीं जाती है, लेकिन इन सब के होने से जिंदगी को एक गति मिलती है | लेकिन इन सब को समझने के लिए मेहुल के पास वक्त नहीं है | शयद उसकी जिंदगी तेजी से भाग रही ट्रेन जैसी है और मेरी जिंदगी यार्ड में पड़े किसी डिब्बे जैसी !’
काम पूरा कर वह बिस्तर पर लेटी और बिस्तर पर पड़े-पड़े यही सोचती रही | उसकी आँखें बोझिल होने लगीं |
जब मोबाईल की रिंग बजी, तब उसकी आँखें खुलीं | फोन मेहुल का था | बात शुरू करने के पहले स्वाति ने अपनी नजर घड़ी की ओर घुमाई | चार बजने वाले थे |
‘हलो, स्वाति, क्या कर रही हो ?’
‘बस अभी उठी हूँ |’
‘कह रहा हूँ कि तुम रिक्शा कर छह बजे शहर में आ जाना | मैं लेने आऊँगा, तो देर हो जाएगी | हम लक्ष्मी-हॉल पर इकट्ठे हो जाएँगे |’
‘लेकिन क्यों ? कुछ खरीदना है ? मेरे पास बहुत कपड़े हैं और अब…’
‘मैं इकट्ठे होने की बात कर रहा हूँ, खरीदी करने की नहीं | मैं फोन रख रहा हूँ | काम में हूँ | आने का भूलना नहीं |’
‘ठीक है |’ स्वाति ने जवाब दिया या देना पड़ा |
स्वाति सोचने लगी, ‘अब मुझे मनाने के इरादे से एकाध साड़ी या ड्रेस दिलाने की बात करेंगे | लेकिन उसका क्या अर्थ है ? छोटी-छोटी खुशियों में अब उसकी कोई दिलचस्पी नहीं | उसकी गणना अलग ही तरह की है | लेकिन आज तो इंकार ही कर देना है | मुझे कपड़े और गहने इकट्ठे नहीं करने हैं |’
वह लक्ष्मी-हॉल पहुँची और वहाँ मेहुल अपनी बाईक पार्क कर उसकी प्रतीक्षा करता हुआ खड़ा था |
‘मेहुल, कुछ खरीदी करना है ?’ स्वाति साड़ी की दुकान की ओर नजर घुमाते हुए बोली |
‘हाँ ‘
‘क्या खरीदना है ?’
‘यह’ फुटपाथ पर बैठी एक बाई सिर को सुशोभित करनेवाले बोर बेच रही थी, मेहुल ने उसकी ओर हाथ से इंगित किया |
‘ओह ! इसकी तो मुझे वास्तव में बहुत जरूरत है |’ स्वाति मानो उस ओर दौड़ गई | वह बोर पसंद करने में मशगूल हो गई |
मेहुल स्वाति को मानो समझ रहा हो, ऐसे उसकी ओर देखने लगा |
‘दस रूपए दो न |’ स्वाति मेहुल की ओर देख कर बोली |
‘क्रेडिट कार्ड नहीं चलेगा ?’ मेहुल ने मजाक में पूछा | मेहुल ने एक लंबे अरसे के बाद इस प्रकार की मजाक की थी | स्वाति को अच्छा लगा |
बोर खरीदने के बाद मेहुल ने स्वाति से कपड़े खरीदने की बात की, लेकिन स्वाति ने इंकार कर दिया |
‘तो चलो, बाजार का एक चक्कर लगाते हैं | शायद बोर जैसी ही कुछ और भी चीज मिल जाए |’ मेहुल ने मजाक की |
स्वाति याद करने की कोशिश करने लागी कि वह आखिर में इस बाजार में कब आई थी| निश्चित दिन तो याद नहीं आया, लेकिन करीब पंद्रह वर्ष पहले के दिन याद आ गए, जब मेहुल का धंधा कुछ-कुछ जमने लगा था | कमाई कम थी, इसलिए खरीदी करने के लिए इस बाजार में आना पड़ता था |
बाजार आज भी चीजों व लोगों से भरा हुआ था | गरीब व माध्यम वर्ग के लोग कपड़े, चप्पल, कटलरी, खिलौने जैसी वस्तुएँ खरीद रहे थे | व्यापारी अपनी चीजें बेचने के लिए जाजम आदि बिछा कर बैठे हुए थे | उनमें से तो कई के लिए चार-छह वर्ग फिट जगह भी कमाई के लिए पर्याप्त थी | वे ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए उनमें जो भी कौशल थी, उसका वे उपयोग कर रहे थे | ग्राहक भाव लम करने के लिए रकझक कर रहे थे | व्यापारियों की चिल्लाहट, भोंपू व सीटियों का संगीत, जोर से बज रहे गीत, ‘जगह दो… जगह दो’ व ‘गाय आई… गाय आई’ जैसी चीखें, ये सब उस बाजार के वातावरण को जीवंत बना रहे थे |
स्वाति को एक लंबे समय के बाद ऐसे जीवंत वातावरण का अनुभव हो रहा था | उसे कोई पुराना सगा-संबंधी मिल गया हो, उस तरह का आनंद मिल रहा था | वस्तुएँ खरीद रहे ग्राहकों की आँखों में दिखाई दे रही आशा, उमंग, लाचारी जैसे भाव उसे अपने स्वयं के लगे | वर्षों पहले वह इसी प्रकार के भाव के साथ इस बाजर में अक्सर आती थी |
दोनों कपड़ों के एक ठेले से कुछ दूर खड़े रह गए | उन्होंने देखा कि एक बाई उसके बेटे के लिए कपड़े खरीदने के लिए आई थी | उसने ठेलेवाले के पास से लड़के के माप के एक जोड़ी कपडे लेकर लड़के को पहनाए | लड़का भी नए कपड़े पहन कर बहुत खुश था, अब मात्र रकम का भुगतान करना ही शेष था और इसलिए वह बाई भाव के लिए व्यापारी के साथ रकझक कर रही थी |
‘मेहुल, तुम्हें याद है ? अंश का पहला जन्मदिन था और तब हम उसके कपड़े लेने के लिए इसी बाजार में आए थे |’ स्वाति ने बालक की ओर प्रेम भरी नजरों से देखते हुए पूछा |
‘हाँ, लेकिन तब हमारी मजबूरी थी | कमाई कम थी न ?’
‘कमाई कम थी, लेकिन जिंदगी छोटी-छोटी खुशियों से छलकती रहती थी ! मैं भी इस बाई की तरह व्यापारियों के साथ रकझक करती थी और कीमत कम करवाने के बाद बहुत खुश हो जाती थी |’
लेकिन आज उस बाई और उसके लड़के के नसीब में शायद ऐसी खुशी नहीं थी | बहुत रकझक के बाद ठेलेवाले व्यापारी ने जो भाव कहा था, उस भाव का वहन करने की सामर्थ्य बाई में नहीं थी | उसके पास बीस रूपए कम थे | बीस रूपए कम लेकर वह कपड़ा देने के लिए गिडगिडा रही थी, लेकिन व्यापारी ने भी उसकी मजबूरी दर्शाई वह बोला, ‘बहनजी, इससे अब एक रुपया भी कम नहीं होगा | मेरे घर भी, मेरा परिवार है, मुझे वह भी देखना है न ?’
अंत में उस बाई के पास एक ही उपाय शेष रहा कि वह लड़के के शरीर पर से कपड़ा उतार कर व्यापारी को लौटा दे | वह जब वैसा करने लगी, तो लड़के ने बिलख कर रोना शुरू कर दिया | देखते-देखते बालक की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी | बच्चा अपनी भाषा में दलील करने लगा कि, ‘माँ, तुम मुझे यहाँ नए कपड़े दिलाने लाई हो तो फिर क्यों नहीं दिला रही हो ?’ बाई ने उसे समझाया, ‘बेटे, मान जाओ, ये कपड़े अच्छे नहीं हैं, तुम्हारे लिए इससे भी अच्छे कपड़े लाएँगे |’ लेकिन लड़के को वह बात गले नहीं उतर रही थी | उसका झगड़ा चालू ही था | बालहठ के समक्ष बाई धर्म-संकट में आ चुकी थी | वह बालक के शरीर पर से जोर लगाकर कपड़े को उतारने की कोशिश कर रही थी और बालक के पास जितनी ताकत थी, उससे वह कपड़े को पकड़े हुए था |
अब मेहुल से नहीं रहा गया | वह तुरंत ठेलेवाले के पास पहुँचा | उसने व्यापारी से, बाई न सुन सके, उतनी धीमी आवाज में पूछा, “कितने कम पड़ रहे हैं ?’
‘साहब, बीस रूपए | मैं जितना कम कर सकता था, उतने कम किए, लेकिन अब कम नहीं कर सकता हूँ | नहीं तो मैं बालक को रोने नहीं देता |’
‘तुम उन्हें कपड़ा दे दो | वे जाए, उसके बाद मैं बीस रूपए देता हूँ | उन्हें कहना नहीं कि बाकी की रकम मैं दे रहा हूँ, नहीं तो खराब लगेगा |’ मेहुल ने यह धीमे से कहा और स्वाति के पास आ गया |
‘’रहने दो | ठीक है, पहने रहने दो |’ व्यापारी ने बाई को कहा | ‘लाओ, बीस रूपए कम हैं, तो ठीक है, चलेंगे |’
बाई ने उसके पास जो थी, वह रकम व्यापारी के हाथ पर रख दी |
‘अब खुश ?’ व्यापारी ने लड़के से प्रेम से पूछा | बालक ने निर्दोष नजर से अपनी प्रसन्नता व्यक्त की |
बाई व्यापारी को आशीर्वाद देती-देती और बच्चे के गालों पर से आँसू पोंछती-पोंछती गई |
बाई और उसका लड़का कुछ दूर पहुँचे और तब मेहुल ने उस व्यापारी को बीस रूपए का भुगतान कर दिया |
‘आज मुझे मेरा गुम हुआ मेहुल वापिस मिल गया है |’ खुश होते हुए स्वाति बोली |
‘स्वाति, आज मैंने ऑफिस में गुम हुए मेहुल को ढूँढने के सिवा और कुछ काम नहीं किया | चार बजे वह मुझे मिला और मैंने तुम्हें तुरंत फोन किया |’ मेहुल ने कहा |
स्वाति ने मेहुल का हाथ पकड़ लिया | ‘चलो, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए, जो चाहिए था, वह मिल गया |’
‘अरे ! यहाँ तक आए हैं तो भला राजस्थानी कचोरी खाए बगैर कैसे जाएँगे ?’
राजस्थानी कचोरी खाने के बाद उन्होंने उस हॉटल में आइसक्रीम खाई, जिस हॉटल में उन्होंने अंश को पहली बार आइसक्रीम खिलाई थी |
बाजार में एक चक्कर लगाकर वे दोनों बाईक के पास फिर आए |
मेहुल ने स्वाति को बिठाया और बाईक को दौड़ाया | उसने घर की ओर का रास्ता नहीं लिया, इसलिए स्वाति ने पूछ ही लिया, ‘क्यों इस ओर ? घर नहीं चलना है ?’
‘नहीं, अभी एक ठिकाना और बाकी है |’ मेहुल ने जवाब दिया |
‘कहाँ ?’
‘नजदीक ही है ?’
उस नजदीक की जगह के बारे में स्वाति कुछ अनुमान लगाती रही | लेकिन उसके वे सब अनुमान गलत निकले, जब उस जगह पर मेहुल ने बाईक खड़ी की |
‘यहाँ जाना है |’ उसने जगह की ओर उंगली से इशारा करते हुए बताया |
काव्य-रसिकों का स्वागत करता हुआ टाउन-हॉल स्वाति को उसके मायके जैसा ही लगा |
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पतझड़”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 220 ☆
🌻लघुकथा🌻 🍂पतझड़ 🍂
फागुन की रंग बिरंगी मस्ती के साथ जहाँ सभी उत्साह, उमंग, गाते बजाते, आती – जाती टोली। वहीं सड़क के किनारे फुटपाथ पर कतारों में लगे वृक्ष और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रखी टूटी- फूटी कुर्सियाँ।
उम्र का पड़ाव और मानसिक सोच के साथ-साथ गुलाब राय मन ही मन कुछ बात कर रहे थे। सड़क सफाई करने वाला स्वीपर झाड़ू लेकर पेड़ के गिरे पत्तों को एकत्रित कर रहा था। राम राम बाबु जी 🙏🙏कैसे हैं?
देखिए न इस मौसम में हम लोगों का काम बढ़ गया। अब यह सारी सूखी पत्तियाँ किसी काम की नहीं रही। सरसराती गिरती जा रही हैं। आप सुनाएं – – – आप होली के दिन यहाँ चुपचाप क्यों बैठे हैं। घरों में आसपास पड़ोसी या परिवार के संग होली नहीं खेल रहे।
गुलाब राय जैसे नींद से जाग उठे। झुरझुरी आँखे और कपकपाते हाथों से डंडे का सहारा लेकर उठ कहने लगे – – यही तो सृष्टि का नियम है!! बेटा पतझड़ होता ही इसीलिए है कि नयी कपोले अपनी जगह बना सके।
हृदय की टीस दर्द को दबाते हुए कहना चाहते थे कि परिवार वाले ने तो उन्हें कब का पतझड़ समझ लिया है। शायद उस ढेर का इंतजार है जिसमें माचिस की तीली लगे और पतझड़ जलकर हवा में उड़ने लगे।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – लघुकथा- सोंध
इन्सेन्स- परफ्यूमर्स ग्लोबल एक्जीबिशन’.., इत्र बनानेवालों की यह यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रदर्शनी थी। लाखों स्क्वेयर फीट के मैदान में हज़ारों दुकानें। हर दुकान में इत्र की सैकड़ों बोतलें। हर बोतल की अलग चमक, हर इत्र की अलग महक। हर तरफ इत्र ही इत्र।
अपेक्षा के अनुसार प्रदर्शनी में भीड़ टूट पड़ी थी। मदहोश थे लोग। निर्णय करना कठिन था कि कौनसे इत्र की महक सबसे अच्छी है।
तभी एकाएक न जाने कहाँ से बादलों का रेला आसमान में आ धमका। गड़गड़ाहट के साथ मोटी-मोटी बूँदें धरती पर गिरने लगीं। धरती और आसमान के मिलन से वातावरण महकने लगा।
दुनिया के सारे इत्रों की महक अब अपना असर खोने लगी थीं। माटी से उठी सोंध सारी सृष्टि पर छा चुकी थी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री शिव महापुराण का पारायण सम्पन्न हुआ। अगले कुछ समय पटल पर छुट्टी रहेगी। जिन साधकों का पारायण पूरा नहीं हो सका है, उन्हें छुट्टी की अवधि में इसे पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा ‘त्यौहार…‘।)
☆ लघुकथा – त्यौहार… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆
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चौराहे पर, अपनी छोटी बच्ची को लिए, वह गुलाल के पैकेट बेच रही थी। जो भी कार, लाल सिग्नल पर रुकती थी, वह कार के पास पहुंच जाती और शीशे पर उंगली की दस्तक कर वह गुलाल पैकेट लेने का आग्रह करती। जो चाहते, उससे ले लेते, कुछ लोग शीशा ही नहीं खोलते थे, और चले जाते थे। वह फिर भी आस लगाए, हर कार वाले के पास जाकर, पैकेट गुलाल ले लो, कह कर उन्हें मनाया करती। एक परिवार कार में था, पति-पत्नी, उनकी माताजी और उनकी बेटी जो कॉलेज में पढ़ती थी। उसके पास भी गुलाल बेचने वाली ने शीशे पर दस्तक दे कर, गुलाल लेने का आग्रह किया। उनकी बेटी ने गुलाल का पैकेट लिया और उस बेचने वाली को भी क्योंकि होली के उत्सव पर जिसने गुलाल नहीं लगाई थी, उसको और उसकी बच्ची को गुलाल लगा दिया। वह महिला चिल्लाने लगी कि मुझे गुलाल लगाने की हिम्मत कैसे हुई? क्यों गुलाल लगाया मुझे? परिवार ने कहा- आप गुलाल आप बेच रही थी, और क्योंकि आपने आज होली का गुलाल नहीं लगाया था इसलिए, आपको और आपकी बच्ची को, जिसे आप लिए हैं उसे थोड़ा सा गुलाल लगा दिया। वह गुस्से में चिल्लाई कि हम तुम्हारे मजहब के नहीं हैं तुमने हमें गुलाल क्यों लगाया? हमारे मजहब में गुलाल नहीं खेलते, रंग नहीं लगाते है, शोर हो गया, काफी हंगामा हो रहा था। कार में बैठे परिवार ने बाहर निकल कर उससे माफी मांगी कि- बहन हमें माफ करो हम आपका मजहब नहीं जानते थे, मगर आप गुलाल बेच रही थी, इसलिए बिटिया ने गुलाल लगा दिया।
वो महिला कुछ शांत हुई और रोने लगी और कहने लगी- कि रंग किसी भी मजहब में बुरे नहीं होते, मगर हम नहीं खेल सकते। पति की मृत्यु के बाद हम, हर त्यौहार पर, उस त्यौहार में काम आने वाली सामग्री बेच तो सकते हैं, मगर हर त्यौहार मना नहीं सकते। कोई भी धर्म आपस में लड़ना नहीं सिखाता और… । अपने पल्लू से अपना और इन सब बातों से अनजान अपनी बच्ची का रंग पोंछते हुए रो पड़ी। उसकी आंखों से आंसू बरसने लगे।
सच है कोई भी धर्म आपस में लड़ने की बात नहीं करता, लड़ते तो वे हैं जो धर्म ग्रंथो का सार ही नहीं समझ पाए जो जीवन के लिए आवश्यक है।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा “– अनबोलते जानवर–” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — अनबोलते जानवर —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
बछिया गौशाला के एक किनारे में बंधी होती थी। दूसरे किनारे में वह गाय बंधी हुई थी जो वर्षों से दूध देती आयी। यह बछिया उसी से पैदा हुई थी। गाय दूध से खाली हो गयी और उसे कसाई के हाथों बेच दिया गया। तत्काल बछिया को उस किनारे से खोल कर गाय की खूँट से बांध दिया गया। बछिया ने खूँट के इस अंतर से जाना वह दूध देगी और फिर उसका हश्र उसकी माँ जैसा होगा।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
पुनर्पाठ में आज प्रस्तुत है स्व भीष्म साहनी जी की एक कालजयी रचना “ओ हरमजादे” पर श्री कमलेश भारतीय जी की कथा चर्चा।
☆ कथा चर्चा ☆ क्लासिक किरदार – “ओ हरामजादे” – लेखक – स्व. भीष्म साहनी ☆ चर्चा – श्री कमलेश भारतीय ☆
यह दैनिक ट्रिब्यून का एक रोचक रविवारीय स्तम्भ था – “क्लासिक किरदार“। यानी किसी कहानी का कोई किरदार आपको क्यों याद रहा ? क्यों आपका पीछा कर रहा है? – कमलेश भारतीय)
प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी की कहानी ओ हरामजादे मुझे इसलिए बहुत पसंद है क्योंकि जब मैं अपने शहर से सिर्फ सौ किलोमीटर दूर चंडीगढ़ में नौकरी करने नया नया आया तब एक शाम मैं बस स्टैंड पर अपने शहर को जाने की टिकट लेने कतार में खड़ा था कि पीछे से आवाज आई – केशी, एक टिकट मेरी भी ले लेना। यह मेरे बचपन के दोस्त सतपाल की आवाज थी।
कितना रोमांचित हो गया था मैं कि चंडीगढ़ के भीड़ भाड़ भरे बस स्टैंड में किसी ने मेरे निकनेम से पुकारा। आप सोचिए कि हजारों मील दूर यूरोप के किसी दूर दराज के इलाके में बैठा कोई हिंदुस्तानी कितना रोमांचित हो जाएगा यदि उसे कोई दूसरा भारतीय मिल जाए ।
ओ हरामजादे कहानी यहीं से शुरू होती है जब मिस्टर लाल की पत्नी नैरेटर को इंडियन होने पर अपने घर चलने की मनुहार लगाती है और घर में अपने देश और शहर को नक्शों में ढूंढते रहने वाले पति से मिलाती है। लाल में कितनी गर्मजोशी आ जाती है और वह सेलिब्रेट करने के लिए कोन्याक लेकर आ जाता है। फिर धीरे-धीरे कैसे लाल रूमानी देशप्रेम से कहीं आगे निकल जालंधर की गलियों में माई हीरां गेट के पास अपने घर पहुंच जाता है। जहां से वह भाई की डांट न सह पाने के कारण भाग निकला था और विदेश पहुंच कर एक इंजीनियर बना और आसपास खूब भले आदमी की पहचान तो बनाई लेकिन कोई ओ हरामजादे की गाली देकर स्वागत् करने वाला बचपन का दोस्त तिलकराज न पाकर उदास हो जाता। इसलिए वह कभी कुर्ता पायजामा तो कभी जोधपुरी चप्पल पहन कर निकल जाता कि हिंदुस्तानी हूं, यह तो लोगों को पता चले ।
आखिर वह जालंधर जाता क्यों नहीं ? इसी का जवाब है : ओ हरामजादे । लाल एक बार अपनी विदेशी मेम हेलेन को जालंधर दिखाने गया था। तब बच्ची मात्र डेढ़ वर्ष की थी। दो तीन दिन लाल को किसी ने नहीं पहचाना तब उसे लगा कि वह बेकार ही आया लेकिन एक दिन वह सड़क पर जा रहा था कि आवाज आई : ओ हरामजादे, अपने बाप को नहीं पहचानता ? उसने देखा कि आवाज लगाने वाला उसके बचपन का दोस्त तिलकराज था । तब जाकर लाल को लगा कि वह जालंधर में है और जालंधर उसकी जागीर है । तिलकराज ने लाल को दूसरे दिन अपने घर भोजन का न्यौता दिया और वह इनकार न कर सका । पत्नी हेलेन को चाव से तैयार करवा कर पहुंच गया। तिलकराज ने खूब सारे सगे संबंधी और कुछ पुराने दोस्त बुला रखे थे। हेलेन बोर होती गयी। पर दोस्त की पत्नी यानी भाभी ने मक्की की रोटी और साग खिलाए बिना जाने न दिया। लाल ने भी कहा कि ठीक है फिर रसोई में ही खायेंगे। पंजाबी साग और मक्की की रोटी नहीं छोड़ सकता। वह भाभी को एकटक देखता रहा जिसमें उसे अपनी परंपरागत भाभी नजर आ रही थी पर घर लौटते ही पत्नी हेलेन ने जो बात कही उससे लाल ने गुस्से में पत्नी को थप्पड़ जड़ दिया क्योंकि हेलेन ने कहा कि तुम अपने दोस्त की पत्नी के साथ फ्लर्ट कर रहे थे। उस घटना के तीसरे दिन वह लौट आया और फिर कभी भारत नहीं लौटा। फिर भी एक बात की चाह उसके मन में अभी तक मरी नहीं है।
इस बुढ़ापे में भी मरी नहीं कि सड़क पर चलते हुए कभी अचानक कहीं से आवाज आए – ओ हरामजादे । और मैं लपककर उस आदमी को छाती से लगा लूं यह कहते हुए उसकी आवाज फिर से लड़खड़ा गयी। लाल आंखों से ओझल नहीं होता। पूरी तरह भारतीयता और पंजाबियत में रंगा हुआ जो अभी तक इस इंतजार में है कि कहीं से बचपन का दोस्त कोई तिलकराज उसे ओ हरामजादे कह कर सारा प्यार और बचपन लौटा दे। कैसे भीष्म साहनी के इस प्यारे चरित्र को भूल सकता है कोई ? कम से कम वे तो नहीं जो अपने शहरों से दूर रहते हैं चाहे देश चाहे विदेश में। वे इस आवाज़ का इंतजार करते ही जीते हैं।