हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ निर्णय ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ लघुकथा ☆ निर्णय ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

भवन निर्माण कार्य जोर-शोर से चल रहा था। सुगिया वहा ईंट-गारा ढोनेके काम में लगी थी। हमेशा की तरह काम पूरा होने के बाद मुकादम के सामने पैसे लेने के लिए खड़ी थी। हिसाब देते हुए मुकादम ने एकबारगी उसका हाथ थाम लिया और बोला, ‘कितना नरम मुलायम है ये तेरा हाथ, एकदम मक्खन जैसा। ईंट-गारा ढोने के बावजूद भी कितना नाजुक…. चल मेरे साथ…सुगिया उसकी बदतमीजी सह न सकी। उसकी बात खतम होने से पहले ही उस के पंजे से हाथ छुड़ाकर वह घर की ओर दौड़ पड़ी।

झुग्गी में पहुँची तो मर्द को उसकी राह ताकते पाया। बिना दारू के उसका गला सूख रहा था। उस ने रोते हुए सारी घटना अपने मर्द से कह सुनायी। फिर … फिर क्या? वो तो बरस ही पड़ा उसके ऊपर। झापड, लात, घूसें… चप्पल लेकर भी पीटता रहा वो और बड़बड़ाता रहा, ‘हाथ पकडा तो क्या हुआ? क्या लूट गया? बडी आयी पतिव्रता।‘

उस दिन झुग्गी में बर्तन भूखे… पतीली, थाली भूखी… बच्चे भूखे… वो और पति भी भूखे…

दूसरे दिन सुगिया काम पर गई। आज रोजी लेते वक्त उसने स्वयं ही मुकादम का हाथ थाम लिया। चार दिन का पैसा कमर के बटुए में खोस लिया। मुकादम उसे बिल्डिंग के अधूरे हिस्से में ले गया, जो बिल्कुल वीरान था।

सुगिया घर लौटकर अपने बिस्तर पर लेटी। आज भी झुग्गी में बर्तन भूखे… पतीली, थाली, भूखी… बच्चे भूखे… वो और पति भी भूखे… बिस्तर पर लेटी हुई वो सोचने लगी, दोनों में क्या सहनीय? शराबी पति से मार खाना? या फिर मुकादम का बोझ उठाना, जो उसे नोच- नोच कर खाना चाहता है

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका (ई- अभिव्यक्ति मराठी)

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन के पास, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आत्मकथा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

लघुकथा

☆ संजय दृष्टि – आत्मकथा ☆

बेहद गरीबी में जन्मा था वह। तरह-तरह के पैबंदों पर टिकी थी उसकी झोपड़ी। उसने कठोर परिश्रम आरम्भ किया। उसका समय बदलता चला गया। अपनी झोपड़ी से 100 गज की दूरी पर आलीशान बिल्डिंग खड़ी की उसने। अलबत्ता झोपड़ी भी ज्यों की त्यों बनाये रखी।

उसकी यात्रा अब चर्चा का विषय है। अनेक शहरों में उसे आइकॉन के तौर पर बुलाया जाता है। हर जगह वह बताता है,” कैसे मैंने परिश्रम किया, कैसे मैंने लक्ष्य को पाने के लिए अपना जीवन दिया, कैसे मेरी कठोर तपस्या रंग लाई, कैसे मैं यहाँ तक पहुँचा..!” एक बड़े प्रकाशक ने उसकी आत्मकथा प्रकाशित की। झोपड़ी और बिल्डिंग दोनों का फोटो पुस्तक के मुखपृष्ठ पर है। आत्मकथा का शीर्षक है ‘मेरे उत्थान की कहानी।’

कुछ समय बीता। वह इलाका भूकम्प का शिकार हुआ। आलीशान बिल्डिंग ढह गई। आश्चर्य झोपड़ी का बाल भी बांका नहीं हुआ। उसने फिर यात्रा शुरू की, फिर बिल्डिंग खड़ी हुई। प्रकाशक ने आत्मकथा के नए संस्करण में झोपड़ी, पुरानी बिल्डिंग का मलबा और नई बिल्डिंग की फोटो रखी। स्वीकृति के लिए पुस्तक उसके पास आई। झुकी नजर से उसने नई बिल्डिंग के फोटो पर बड़ी-सी काट मारी। अब मुखपृष्ठ पर झोपड़ी और पुरानी बिल्डिंग का मलबा था। कलम उठा कर शीर्षक में थोड़ा- सा परिवर्तन किया। ‘मेरे उत्थान की कहानी’ के स्थान पर नया शीर्षक था ‘मेरे ‘मैं’ के अवसान की कहानी।’

‘मैं’ के अवसान से आरंभ होता है सच्चा उत्थान।

©  संजय भारद्वाज

(प्रात: 6:57 बजे, 23.12.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 78 – लघुकथा – हैप्पी वेलेंटाइन डे ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एक भावुक एवं सार्थक लघुकथा  “हैप्पी वेलेंटाइन डे। इस लघुकथा के माध्यम से  आदरणीया श्रीमती सिद्धेश्वरी जी ने कई सन्देश देने का सफल प्रयास किया है । एक ऐसी ही अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 78 ☆

? लघुकथा – हैप्पी वेलेंटाइन डे ❤️

 “हैप्पी वैलेंटाइन डे!” फोन पर आवाज सुनकर हर्षा चहक उठी। शहर के हॉस्टल में थी। इस दिन को वह कैसे भूल सकती है।

आज ही के दिन तो वह मम्मी के साथ गांव के हर कुआं (well) पर जाकर (rose) गुलाब का फूल चढ़ाती है। क्योंकि इसी दिन तो उसका वैलेंटाइन डे हुआ था। उसके अपने बापू ने तो फिर से छोरी आ गई कहकर कुएं में गेरने (गिराने) ले गए थे।

वह तो भला हो उस सिस्टर दीदी का जिन्होंने रात के अंधेरे में ही समय रहते, हर्षा को गिराने से बचा ही नहीं लिया, अपितु अपना घर, पूरा जीवन बेटी बनाकर रख, अपना नाम और पहचान दी।

सिस्टर दीदी यानी मम्मी फोन पर!!!! और हॉस्टल में हर्षा अपनी पढ़ाई पूरी कर रही थी।

दोनो की आंँखों से शायद आँसू बह रहे थे। पर खुशी के थे। हर्षा ने फोन पर “हैप्पी वैलेंटाइन डे मम्मी” कहकर अपनी विश पूरी की। वैसे मम्मी और हर्षा का तो रोज वैलेंटाइन डे होता है। पर आज कुछ खास है।

विश यू आल ए वेरी हैप्पी वैलेंटाइन डे!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ हॉर्न (अनुवादीत कथा) ☆ मूळ कथा – हॉर्न – श्री विजय कुमार ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ जीवनरंग ☆ ☆ हॉर्न (अनुवादीत कथा) ☆ मूळ कथा – हॉर्न – श्री विजय कुमार ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

विनोद आणि राजन दोघेही गडबडीत होते. त्यांना हॉस्पिटलमध्ये पोचायची घाई होती. तिथे त्यांचा एक मित्र जीवन-मरणाच्या सीमारेषेवर होता. रस्त्याच्या दुर्घटनेत तो जखमी झाला होता. त्याच्याजवळ कुणीच नव्हते.. कुणा अज्ञात इसमाने याला तिथे पोचवले होते. त्यामुळे पैशाची जुळणी करणं, रक्त देण्याची व्यवस्था करणं यासाठी त्या दोघांची उपस्थिती तिथे आवश्यक होती.त्यामुळे गर्दीच्या रस्त्यावरही त्यांची गाडी वेगाने चालली होती.

अचानक रस्त्यावर त्यांच्यापुढे त्यांना एक वरात जात असलेली दिसली.वरातीत खूप लोक होते. त्यांनी जवळ जवळ सगळा रसताच काबीज केला होता. दोन चाकी, तीन चाकी वहानं काशी-बशी जागा काढत जात होती. परंतु कार कोणतीही मोठी वाहाने जाणं शक्यच नव्हतं॰

राजनने जोरजोरात अनेकदा हॉर्न वाजवला. पण बेंड-बाजाचा मोठा आवाज आणि वरातीत सामील झाल्याची एक प्रकारची नशा, वरातीततल्या ओकांना काही म्हणता काही ऐकू येत नव्हतं. राजन रागारागाने म्हणाला, ‘वाटते, या लोकांच्या अंगावर सरळ गाडी घालावी. तिकडे इकडे आमचा मित्र मरणाच्या दारात उभा आहे आणि इकडेया लोकांचं नाच-गाणं चालू आहे, जसा काही यांच्या बापाचाच रास्ता आहे. राजनच्या रागाचा पारा चढत असलेला पाहून विनोद खाली उतरला. तो म्हणाला, ‘हॉर्न वाजवण्याचा काही फायदा होणार नाही.विनाकारण भांडण मात्र होईल. तू थांब. मी बघून येतो.वरातीजवळ पोचताच तो जोशात नृत्य करत वरातीमध्ये सामील झाला. बाकीचे सगळे आपापला नाच थांबवून त्याच्याकडे आश्चर्याने बघत राहिले. विनोद म्हणाला, ‘अरे थांबलात का? नाचा… नाचा… भरपूर नाचा… अशी संधी वारंवार थोडीच मिळते. आता माझ्याकडेच बघा ना, माझा मित्र हॉस्पिटलमध्ये पडलाय. मृत्यूशी झूंज देतोय., तरीही मी नाचतोय. खुशीच्या वेळी खूश आणि दु:खाच्या वेळी दु:खी व्हायला हवं॰

गर्दीत एकदम शांतता पसरली. विनोद हात जोडून पुढे म्हणाला, ‘माझ्या बंधुंनो आणि भगिनींनो, माझी एक विनंती आहे. थोडासा रास्ता येणार्‍या- जाणार्‍यासाथी मोकळा ठेवा. आपल्यामुळे तिकडे कुणी जीव गमावून बसू नये. धन्यवाड’ एवढा बोलून तो कारकडे गेला. आता त्यांची गाडी त्वरेने हॉस्पिटलकडे जाऊ लागली.

 

मूळ कथा – ‘हॉर्न ’ –   मूळ  लेखक – श्री विजय कुमार, 

सह संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका), अंबाला छावनी 133001, मोबाइल 9813130512

अनुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ दिव्यांग ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज  प्रस्तुत है  एक विचारणीय कहानी दिव्यांग। )  

☆ कथा कहानी – दिव्यांग  ☆

भरत फुटपाथ पर बैठा गहरी सोच में था। वह मुंबई शहर की ट्राफिक को देख रहा है। लग रहा है मानो सब कुछ रुक गया है। अपनी जिंदगी के प्रति नाराज़ था। वह अपने भविष्य के बारे में सोच रहा है। वह सोच रहा है, मुंबई में इतने सारे लोग रहते है, फिर भी भगवान मुझे ही परेशान करता है। आखिर क्यों? मेरी जिंदगी में कभी खुशी होगी? क्या भगवान सही में है। सोच ही रहा था कि अचानक फुटपाथ पर भीड ज़मा हो गई। वह जाकर देखता है, एक लडकी पत्थर से ठोकर खाकर गिर गई है। लोग उसे उठाकर पास के पत्थर पर बिठाते है। उसके घुटनों से काफी लहू बह चुका है। सब ने उस पर पानी डालकर कपड़े से पैर को बांध दिया।

उस लडकी ने सबको बताया कि, वह अब ठीक है। चिंता की कोई बात नहीं है। वह चल सकती है। सब अपने काम पर जा सकते है। भरत भी सबके निकलने के बाद वहां से चला। भरत को अपनी परेशानी अलग से थी। हादसा देखकर उसे बुरा लगा, फिर लगा कि वह लडकी ठीक हो गई है और वह भी वहां से थोडी दूर धीरे धीरे  जा रहा था।

वह लडकी वहाँ से उठकर धीरे-धीरे पैर रख रही थी। वह लडखडा रही थी। उसे लगा कि वह गिर जाएगी और उसने आगे जा रहे भरत का कंधा ज़ोर से पकड लिया।

वह चिल्लाया, मान न मान मैं तेरा मेहमान। यह क्या बात हुई? आपने मुझे क्यों पकड़ा ? वो भी इतने ज़ोर से बात करते हुए कहता है, “आपको दीखता नहीं क्या ? आपने मेरा शर्ट भी बरबाद कर दिया।“

लडकी ने सहमी आवाज़ में धीरे से कहा, “सर,आपने ठीक ही फरमाया है। मुझे दीखता नहीं है। मैं बहुत संभलकर चलती हूं। आज का समय खराब था, इसलिए पत्थर से ठोकर खाकर गिर पडी। मुझे लगा कि फिर से गिर जाऊँगी इसलिए मैंने आपके कंधे का सहारा लिया। क्षमा कीजिएगा। सॉरी।“

यह श्ब्द सुनकर भरत गदगद हो गया। उसे अच्छा लगा कि, किसी लडकी ने उसे ’सर’ कहकर संबोधित किया।  इतना ही नहीं, ऊपर से क्षमा भी मांग ली। भरत का गुस्सा कम हो गया। उसने देखा कि, उसके घुटनों में अभी भी लहू बह रहा है। कपडा जो लोगों ने बांधा है, वह भी लहूलुहान हो गया है। उसने कुछ सोचकर यहां- वहां देखा और कहा, “मैडम आप के घुटनों में अभी भी लहू बह रहा है। हम पास के अस्पताल में आपको लेकर चलते है।“ तुरंत उस लडकी ने कहा, “मैडम नहीं, रीना, रीना मेरा नाम है जी। चलिए अस्पताल चलते है। मुझे भी लग रहा है कि डॉक्टर को दिखाना पडेगा। चलना थोड़ा मुश्किल लग रहा है।“

“आपको पता है , मेरा नाम भरत है। मैं अविनाश नाम की कंपनी चलाता हूँ। यह कंपनी डिजिटल आइटम बेचती है। अभी- अभी शुरु हुई है। आजकल काम थोडा मन्दा चल रहा है। धीरे- धीरे कंपनी ठीक तरह से पहले जैसे ही होने की संभावना है। देखिए बातों- बातों में अस्पताल आ गया।“ भरत उसे डॉक्टर के पास ले जाकर मरहम पट्टी करवाता है।  फिर वह रीना से पूछता है, “जी आप गलत मत समझिएगा लेकिन, आप यहां पर अकेले…? कहने का मतलब है कि…?” कहते – कहते रुक जाता है।

“आप भी ना भरत जी अब इतनी देर साथ रहने के बावजूद भी आप बात कहने-पूछने के लिए हिचकिचाते हो। कोई बात नहीं, आप कुछ भी मत सोचिए। जो मन में है बेझिझक आप पूछ सकते हो। एक कप कॉफी के साथ इत्मीनान से मैं सारी बात बताऊँगी। मंजूर है तो पूछिए”, कहते हुए मुस्कुराती है।

भरत उसकी मुस्कान को देखता रह जाता है। उसे उसकी मुस्कान पसंद आती है। रीना के  बात करने का तरीका भी उसे भा जाता है। रीना की सुंदरता भी उसके मन को मोह लेती है। उसे देखकर मन ही मन सोचता है कि इतनी सुंदर लडकी और भगवान ने……….अगर उसको दृष्टि दी होती तो कितना अच्छा होता। मैं तो अपनी परेशानी को लेकर भगवान को कोस रहा था। यह क्या?  मुझसे भी ज्यादा परेशानी इस लडकी है।

रीना थोडी देर गुनगुनाते हुए बाद में अचानक पूछती है, “भरत जी क्या हुआ? किस सोच में पड गए ? देखिए अगर आपको कॉफी नहीं पिलानी है , तो ठीक है। मैं यहां पर अक्सर आती हूं। आज समय खराब था और अच्छा भी।  मैं बताऊँ आपको कॉफी डे पास में ही है। हम थोडा बैठ जाएगे तो दर्द भी कम होगा।“

“अरे! नहीं तो कुछ भी नहीं सोच रहा था। चलिए , कॉफी डे में बैठकर थोडी देर आराम से बात करते है।“ कहते हुए वह रीना का हाथ पकडकर कॉफी डे लेकर चलता है।

वहाँ पर भरत रुपये देकर केपेचीनो ऑर्डर करते हुए रीना से पूछता है, “आप यहाँ कैसे? कोई काम था?”

“ जी, मैं गहनों के लिए डिजाईन बनाती हूं। डिजाईन को गहने के दुकान में बेचती हूं। मैं पुरुषोत्तम ज्वेलर्स को अपनी लेटेस्ट गहनों की डिजाइन दिखाने आई थी। उनको पसंद नहीं आई तो बस ऐसे ही चलकर आ रही थी कि यह घटना घट गई।“ बात को आगे बढाते हुए कहती है, “आपको पता है भगवान एक चीज़ छीनता है तो दूसरी चीज़ देकर उसे नवाज़ता  है। इन्सान को उसे परखना है। वैसे भी भगवान हर इन्सान को सब कुछ नहीं देता है। अगर दे देता तो फिर वह भगवान को कैसे याद करता ? बताइए” कहते हुए वह फिर से मुस्कुराती है।

भरत को पता नहीं क्यों रीना की मुस्कुराहट बहुत ही आकर्षित करती है, वह मन ही मन बुदबुदाता है कि सुंदरता के साथ रीना में इतने अच्छे गुण भी है। उसके साथ उसे समय बिताना अच्छा लगता है। भरत ने रीना से पूछा, “आप बुरा ना माने तो क्या आप बता सकती है कि आप यह डिज़ाइन कैसे करते हो? क्या आप जन्म से ही अंधे हो?”

“जी, इसमें क्या बात है? आप पूछ सकते हो। पहली बात, मैं जन्म से अंधी नहीं हूं। एक दिन मैं अपने दोस्तों के साथ पूना जा रही थी। हाइवे पर एक्सिडेन्ट हुआ और मेरी आंखे चली गई। उस वक्त तो मुझे बहुत बुरा लगा था। भविष्य के बारे में भी बहुत सोच रही थी। भविष्य में शून्य के अलावा कुछ भी नहीं था। लगा जैसे मेरे सपने को पूरा कैसे करुँगी ? आगे क्या होगा ? जैसे मैंने आपको पहले भी कहा था कि भगवान एक चीज़ लेता है तो दूसरी दे देता है। वही वक्त था कि, मैंने स्वयं को परखने की कोशिश की। अंधी हो गई तो डान्स करना संभव हो पाएगा या नहीं ? मेरे लिए बहुत बडा प्रश्न था। मुझे बेली डान्स बहुत पसंद है। मैं उसके लिए प्रयास भी कर रही थी। रोज तीन घंटा उस नृत्य का अभ्यास कर रही थी। थोडी देर के लिए मैंने सोचा, जिंदगी में कुछ तो करना है। फिर सोचा, मुझे क्या आता है? मैं क्या कर सकती हूं। यही सब सोचते हुए लगा, क्यों न मैं डिजिटल का इस्तेमाल करते हुए गहनों की डिज़ाइन करूँ। शुरुआत में तकलीफ हुई लेकिन बाद में सीख गई। अब बस यहीं सहारा है मेरी जिंदगी का। कहते हुए अपने आंसू पौंछती है।“

बात करते -करते भरत ने उसके कुछ डिजाइन देखें थे। कुछ साल पहले के और अभी के थे। उसे बहुत अच्छे लगे थे। उसी वक्त कॉफी डे में एक गहनों से लदी औरत आती है। भरत उसे देखकर दंग रह जाता है। तुरंत भरत उनसे बात करता है।  भरत ने उनके गहनों की तारीफ़ करते हुए बात की गहराई को जानना चाहा। आपने यह गहने कहाँ से खरीदे ? मैं अपनी पत्नी के लिए बनवाना चाहता हूँ। तो उसने बताया कि उसने “यह गहने पुरुषोत्तम ज्वेलर्स से खरीदे।“

“जी, धन्यवाद” कहते हुए मन ही मन सोचता है, जबकि उसने तो रीना के डिजाइन लेने से मना कर दिया था। यह गहने हू..ब…हू यही डिजाइन के थे। भरत ने तुरंत फोन करके अपने दोस्त को इस बारे में जानकारी देने के लिए कहां। उसके दोस्त केशव ने बताया कि, वे लोग रीना के डिज़ाइन का ही इस्तेमाल कर रहे है। जब कि रीना को इसका अंदाज़ा तक नहीं है । वे रीना को डिज़ाइन खरीदने से मना कर देते है और दूसरी ओर वे फोटो लेकर रख लेते है।

भरत ने यह बात रीना को बताई तो उसने बहुत ही सरलता से जवाब दिया, “मुझे इस बारे में नहीं पता।“

भरत गुस्से में आकर कहता है, “आप ऐसे ही बैठे रहना। भगवान भरोसे। इस समाज में ऐसे लोगों को सज़ा होनी चाहिए। आप सिर्फ भगवान का नाम जपते रहो। चलिए जाकर उनसे पूछते है।“

तुरंत रीना अपना हाथ भरत के हाथ पर रखते हुए कहती है, “लगता है आपको भगवान पर भरोसा नहीं है। ऐसा क्या हुआ है जो आपको भरोसा नहीं है। आप लाख छिपाने की कोशिश करो लेकिन आपकी बातों से यह अहसास हो ही जाता है कि आप कुछ छिपा रहे है।“

“बात कुछ खास नहीं है?” भरत को रीना के दुःख के सामने अपना दुःख कम लगा। फिर भी परेशानी तो है। भरत ने स्वयं को संभालते हुए कहा, “जी मौसम की वजह से बारिश और आंधी में हमारी बिल्डिंग गिर गई।“

रीना को अजीब लगता है, वह तुरंत कह उठती है, “बिल्डिंग गिर गई? मतलब?”

“जी, हम लोगों को जब लगा कि बिल्डिंग गिरनेवाली है। तो हम सब बाहर निकल आए। हमारे ऊपर के घर में एक अंकल, आंटी रहते थे जिनकी उम्र हो चुकी थी। वे बाहर नहीं निकल पाए, दर असल उम्र की वजह से वे चल नहीं पाते थे। उनकी मौत हो गई। बहुत बुरा लगा। तो अब आगे जिंदगी के बारे में वहां पर बैठा सोच रहा था और आपको देखा। तब से बस…चल रहा है।“

रीना को चिंता हो गई। वह चिंतित स्वर में कहती है, “तब तो आपको उस जगह पर जाना चाहिए।“

“अब किसका घर? कहाँ है वह घर? कुछ भी नहीं बचा। आप कहती हो भगवान है। भगवान है तो ऐसा क्यों किया ?” कहते हुए भरत आंसू पौछते हुए बुरा मानता है।

“सारे गलत काम इन्सान करें तो हम क्यों भगवान को कोसे? यह तो गलत है। भगवान ने इन्सान को बनाया फिर उन्होंने उनको नहीं बताया कि गलत काम करो। आप लोग भगवान को क्यों बुरा कहते हो?” कहते हुए रीना थोडा कॉफी का प्याला ठीक करती है।

“आप भी ना! रीना जी। ठीक है चलिए, एक क्षण के लिए मान लिया कि आपके भगवान गलत नहीं है। फिर भी हम ही क्यों? क्यों हमारी ही बिल्डिंग ऐसी गिरी?” कहते हुए भरत भी कॉफी के प्याले को ठीक करता है।

“गज़ब है, जी आप जब घर खरीदते हो तो क्या आप नहीं देखते हो कि बिल्डर कौन है ? कितनी रेत और सिमेन्ट उसमें मिला रहा है। फाउन्डेशन कैसे डाल रहा है ? ईंट कैसी इस्तेमाल कर रहा है? यह सब देखकर ही घर खरीदना चाहिए। घर खरीदना कोई छोटी बात तो है नहीं, यह तो जिंदगी भर की पूंजी है।  चलिए आपकी तसल्ली के लिए मैं आपको अपने दोस्त के बारे में बताती हूं। मेरी एक दोस्त थी अंशु। बचपन से उसकी मानसिकता कुछ अलग थी। वह बचपन से लडकों जैसे रहना पसंद करती थी। वह लडकों की बॉडी  बिल्डिंग में हिस्सा भी लेना चाहती थी। अंशु जैसे-जैसे बडी होती गई। शारीरिक रुप से लडकी लेकिन मानसिक रुप से लडको जैसा ही व्यवहार करती थी। उसने अपने पिताजी से मन की बात बताई। उसके पिता जी का अपना उद्योग था। बहुत ही धनवान थे। अब अंशु को लडका बनना था। कुदरत के नियम के विरुद्ध में जाना था। उसके पिता जी ने उसका साथ दिया। सब सर्जरी के बाद आज वह अंशु से अंश में परिवर्तित हुई है। आपको पता है वह बॉडी बिल्डिंग की प्रतियोगिता में अंश जीता भी है। आप चाहो तो उसे गूगल पर देख सकते है। यह सारी चीज़े करने के लिए तो भगवान नहीं कहता। पहले जब मैंने उससे लिंगपरिवर्तन के बारे में सुना तो अजीब लगा, परंतु बाद में पता चला कि ऐसे कई लोग है जो अपने सपनों को पूरा करने के लिए ऐसा करते है। मैंने उसे मनाने की कोशिश भी की थी, कुदरत ने जो दिया है उसे रख ले। क्यों अपना लिंग परिवर्तन करा रही है। उसने तो एक ही रट लगा रही थी कि उसे अपनी बॉडी अच्छी बनानी है।  वह अपने इरादों से टस से मस नहीं हुई। वह अपने इरादों में पक्की थी। उसे जो करना है वह किसी भी हाल में करना ही है।  उसकी सोच ही अलग थी।“

“अंशु हंमेशा यही सोचती थी कि भगवान ने मुझे लडकी बनाकर इस धरती पर भेजा है। मैं लडकी बनकर चूल्हा-चौका करने के लिए नहीं पैदा हुई हुँ। मुझे जिंदगी में बहुत काम करने है। मैं एक बात बताऊँ भरत जी, यही जिंदगी है। संघर्ष नहीं करेंगे तो हमें कुछ हासिल नहीं होगा। हमें समय के साथ बदलना और जिंदगी को  अपनाना सीखना चाहिए। आप परेशान मत होइए।  आपकी परेशानी भी दूर हो जाएगी। मुझे इस बात का कोई गम नहीं है कि मेरी डिजाइन उन लोगों ने चुरा ली है। मैं कुछ और डिजाइन बना लूगी। मुझमें वो हुन्नर है।  अब उस दुकान में कभी नहीं जाऊँगी। देखिए, मुझ पर भी बेली डान्स सीखने का भूत सवार था। मैंने सीखा भी अब एक्सिडेन्ट के बाद नहीं कर पा रही   हूं। दुनिया रुक तो नहीं जाएगी। आगे देखते है ! अगर मौका मिला तो साबित कर देंगे कि हम भी कुछ कर सकते है। मुझे लगता है, हम बहुत देर से बात कर रहे है। अब घर जाना चाहिए। आपको भी आगे क्या करना है उसके बारे में सोचना चाहिए। बैठकर भगवान को कोसने से अच्छा है कि पुरुषार्थ करें। वह अपनी घडी़ को छूती हुई अरे! अब तो शाम के सात बज गए है।“

“सही है, चलिए मैं आपको आपके घर तक पहुंचा दूंगा।“ कहते हुए वह रीना के मदद के लिए आगे बढता     है।

“नहीं भरत जी। मैंने आज तक किसी का सहारा नहीं लिया है। मेरा मानना है कि जिंदगी में सहायता सिर्फ कमज़ोर लोग ही लेते है। मैं कमज़ोर नहीं हूं, कहते हुए वह ऑटो को आवाज़ देती है। और हाँ भरत जी, आप अब तक मुझसे बात कर रहे थे। आपको कहीं पर भी कोई अहसास  हुआ। मैंने भी लिंग परिवर्तन कराया है। मैं दुनिया के सामने अपना नृत्य करके दिखाऊँगी। अंधी हो गई तो क्या हुआ? दुनिया तो अंधी नहीं है। वह देखेगी मेरा नृत्य। आप भी देखना समझे! वैसे हमारा एक गिरोह है, जो समाज को दिखाना चाह्ते है कि इन्सान अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए कुछ भी कर सकता है। थोडे दिनों के बाद अंश की शादी एक किन्नर स्त्री से होनेवाली है। आप अपना फोन नंबर दीजिए हम आपको भी न्योता भेजेंगे, ज़रुर आना है।“ मुस्कुराते हुए वह ओटो में बैठकर कहती है, चलिए साहब तीसरी गली में जाना है।

आश्चर्य से भरत वह मुस्कुराते चेहरे को देखता रहता है। किसी को भी पता नहीं चलता की रीना अंधी और उसका लिंग परिवर्तन हुआ है। रीना में आत्मविश्वास को देखकर भरत दंग रह जाता है।

 

©  डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

लेखिका व कवयित्री, सह प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, जैन कॉलेज-सीजीएस, वीवी पुरम्‌, वासवी परिसर, बेंगलूरु।

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#1 – प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें! ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ। )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#1 – प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें! ☆ श्री आशीष कुमार☆

प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें!

जंगल में एक गर्भवती हिरनी बच्चे को जन्म देने को थी वो एकांत जगह की तलाश में घूम रही थी कि उसे नदी किनारे ऊँची और घनी घास दिखी। उसे वो उपयुक्त स्थान लगा शिशु को जन्म देने के लिये वहां पहुँचते ही उसे प्रसव पीडा शुरू हो गयी।

उसी समय आसमान में घनघोर बादल वर्षा को आतुर हो उठे और बिजली कडकने लगी।

उसने बायें देखा तो एक शिकारी तीर का निशाना उस की तरफ साध रहा था। घबराकर वह दाहिने मुड़ी तो वहां एक भूखा शेर, झपटने को तैयार बैठा था। सामने सूखी घास आग पकड चुकी थी और पीछे मुड़ी तो नदी में जल बहुत था।

मादा हिरनी क्या करती? वह प्रसव पीडा से व्याकुल थी। अब क्या होगा? क्या हिरनी जीवित बचेगी? क्या वो अपने शावक को जन्म दे पायेगी? क्या शावक जीवित रहेगा?

क्या जंगल की आग सब कुछ जला देगी? क्या मादा हिरनी शिकारी के तीर से बच पायेगी? क्या मादा हिरनी भूखे शेर का भोजन बनेगी?

वो एक तरफ आग से घिरी है और पीछे नदी है। क्या करेगी वो?

हिरनी अपने आप को शून्य में छोड़,अपने प्राथमिक उत्तरदायित्व अपने बच्चे को जन्म देने में लग गयी।  कुदरत का करिश्मा देखिये बिजली चमकी और तीर छोडते हुए , शिकारी की आँखे चौंधिया गयी उसका तीर हिरनी के पास से गुजरते शेर की आँख में जा लगा, शेर दहाडता हुआ इधर उधर भागने लगा और शिकारी शेर को घायल ज़ानकर भाग गया घनघोर बारिश शुरू हो गयी और जंगल की आग बुझ गयी हिरनी ने शावक को जन्म दिया।

हमारे जीवन में भी कभी कभी कुछ क्षण ऐसे आते है, जब हम चारो तरफ से समस्याओं से घिरे होते हैं और कोई निर्णय नहीं ले पाते तब सब कुछ नियति के हाथों सौंपकर अपने उत्तरदायित्व व प्राथमिकता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अन्तत: यश- अपयश, हार-जीत, जीवन-मृत्यु का अन्तिम निर्णय ईश्वर करता है। हमें उस पर विश्वास कर उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ गानसमाधि ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ लघुकथा ☆ गानसमाधि ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

मंचपर से वह युवा गायक गा रहा था। अभी अभी एक अच्छे गायक के रूप में उसकी पहचान होने लगी थी । महफिल में अब वह बागेश्री का आवाहन कर रहा था। बागेश्री ने धीरे धीरे आँखे खोली। विलंबित गत में आलाप के साथ साथ अलसाई बागेश्री, अंगडाई लेने लागी। धीरे धीरे उठ खड़ी हुई। हर लम्हे, जर्रा जर्रा खिलने लगी। हर आलाप के साथ विकसित होने लगी। पदन्यास करने लगी। थिरकने लगी। आलाप, सरगम, मींड, नज़ाकती ठहराव, बागेश्री का रूप निखरने लगा। द्रुत बंदिश … नभ निकस गायो चंद्रमा… बागेश्री की मनमोहक अदा, उसका तेज नर्तन, और सम के साथ साथ उस का खूबसूरत ठहराव… अब तानों की बौछारें होने लगी। वह चक्राकार फेरे लेने लगी। सुननेवाले संगीत का लुफ्त उठा रहे थे। गायक तल्लीन हो कर गा रहा था। रसिक गाने में समरस हो रहे थे।

सभागृह में पहली पंक्ती में एक अधेड उम्र का व्यक्ति बैठा था। उसने अपनी आँखें मूँद ली थी। गायक का ध्यान जब जब उस की तरफ जाता, गायक विचलित हो जाता। राग के बढत के साथ साथ, उस के दिमाग में गुस्सा और विषाद भर जाता। सोचने लगता, ‘अरे, सोना है जनाब को तो घर में ही आराम से सोते। यहां आने की परेशानी क्यौं उठायी? वैसे रियाज और अभ्यास के कारण, आदतानुसार गायक गाए जा रहा था, किन्तु मन में कुंठा जरूर पली हुई थी।

तालियों की बौछार के साथ बागेश्री का समापन हुआ। उस अधेड व्यक्ति ने अपनी आँखे खोली। गायक ने उसे अपने पास बुलाया और उन्हें पूछने लगा,

“महाशय, क्या आप को मेरे गाने में कोई कमी महसूस हुई?”

“नहीं तो…”

“फिर क्या आप की नींद पूरी नहीं हुई थी?”

“नहीं… नहीं… ऐसा भी नहीं…”

“तो फिर सारा समय आप नें अपनी आँखे क्यों मूँद ली थी?”

“उस का क्या है बेटा, जब हम आँखे मूँद लेते है, तब पंचेंद्रियों की सारी शक्ति कानों में समाई जाती है। फिर एक एक सुर अंतस तक उतरता जाता है। जब आँखे खुली होती है, तब वह यहां-वहां दौड़ती है। जिस की जरूरत हो, वह देखती है, ना हो उसे भी देखती है। मन को विचलित करती है। स्वर परिपूर्णता से अंतस में समाए नहीं जाते।”

बाते करते करते, अभी थोडी ही देर पूर्व गायक ने लिया हुआ एक कठिन आलाप, वह आदमी उसी नज़ाकती मींड के साथ गुनगुनाने लगा। गायक आलाप सुनते ही विस्मित हुआ।

वह अधेड व्यक्ति आगे कहने लगा, “तुम बहुत अच्छा गाते हो, लेकिन गायक की गाने में इतनी समरसता होनी चाहिये की सामने बैठे श्रोता क्या कर रहे हैं, दाद दे रहे है, या नहीं, आपस में बोल रहे है, या सो रहे है, इससे उसे बेखबर होना चाहिये। इसे गानसमाधि कहते है।  तुम्हारा गायन इस अवस्था तक पहुँचे, यह मेरी कामना है।” अधेड व्यक्ति नें गायक के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। गायक नें उन का चरणस्पर्श किया।

आज उस अधेड व्यक्ति नें, उस के मन में रियाज के लिए एक नया बीज डाला था।

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ( ई- अभिव्यक्ति मराठी)

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन के पास, सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 80 ☆ लघुकथा – सही मार्ग ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  किशोर मनोविज्ञान पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “सही रास्ता। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 80 – साहित्य निकुंज ☆

 लघुकथा – सही रास्ता

उषा का आज कॉलेज में पहला दिन था। उसे कुछ अजीब सा लग रहा था और नौकरी लगने की खुशी भी बहुत थी ।

स्टाफ रूम पहुंची सभी ने उसका स्वागत किया।

विभागाध्यक्ष ने उसे टाइम टेबिल दिया । इस वर्ष उसे फाइनल की ही क्लास मिली थी।

आज जब वह क्लास लेने गई तब बच्चों ने उसका स्वागत किया। और एक छात्र सुनील ने तो उसे गुलाब का फूल लाकर दिया और बोला “हार्दिक स्वागत है मेम ।”

उषा ने …”प्यार से थैंक्स कहा।”

उषा पढ़ाने लगी। उषा कई दिन से महसूस कर रही थी  कि सुनील का पढ़ने में मन नहीं लगता और वह केवल आंखें फाड़ करके देखता ही रहता है उसे।

रोज कॉलेज छूटने पर कॉलेज के बाहर मिलता है न जाने क्या है उसके मन में ?

शायद यह उम्र ही ऐसी है।

उषा ने सोचा .. कि कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा वरना यह बच्चा अपनी पढ़ाई से हाथ धो बैठेगा।

अगले दिन जब कॉलेज के गेट पर सुनील मिला तो उसने सुनील से कहा .. “मेरे साथ घर चलोगे।”

सुनील खुशी खुशी उषा के साथ घर चला गया।

उषा ने सुनील को बैठाया और चाय नाश्ता करवाया। तब तक उषा के बच्चे भी लौट आए स्कूल से।  आपस में मिलवाया। सुनील सभी से मिलकर बहुत खुश हो गया।

बच्चों ने पूछा मम्मी यह “भैया कौन है।”

उषा ने कहा …. “इन्हें तुम मामा कह सकते हो।”

“क्यों सुनील यह रिश्ता तुम्हें मंजूर है?”

सुनील तुरंत मैम के चरणों में झुक गया। बोला.. “आपने मुझे सही मार्ग दिखाया। आपने मेरी आंखें खोल दी।”

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 59 ☆ लघुकथा – पचास पार की औरत ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘पचास पार की औरत’डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद सार्थक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 59 ☆

☆  लघुकथा – पचास पार की औरत ☆

सुनंदा बहुत दिनों से अनमनी सी हो रही थी,  क्यों,  यह उसे भी पता नहीं। बस मन कुछ उचट रहा था। बेटी की शादी के बाद से अक्सर  ऐसा होने लगा था। पति अपनी नौकरी में व्यस्त और  वह सारा दिन घर में अकेली। इतनी फुरसत तो आज तक कभी उसे मिली ही नहीं थी। वैसे तो परिवार में सब ठीक ठाक था, फिर भी रह-रहकर मन में निराशा और अकेलापन महसूस होता। दरअसल वह कभी घर में अकेली रही ही नहीं, अकेले घूमने–फिरने की आदत भी नहीं थी उसे। यही फुरसत और अकेलापन अब उसे खल रहा था, पर कहे किससे।

उसने कहीं पढा था कि 45 की उम्र के बाद स्त्रियों में हारमोनल बदलाव आते हैं और मन पर भी इसका असर पडता है, तो यह मूड स्विंग है क्या? वह सोच रही थी कि मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है क्या?  अपने में ही उलझी हुई सी थी कि फोन की घंटी बजी,  बेटी का फोन था – क्या कर रही हो मम्मां! बर्थडे का क्या प्लान है? कितने साल की हो गईं अब? इस प्रश्न का जबाब ना देकर वह बोली – अरे कुछ नहीं इस उम्र में क्या बर्थडे मनाना। जहाँ उम्र का काँटा 35-40 के पार गया कि फिर शरीर ही उम्र बताने लगता है बेटा। इसी के साथ विचारों का सिलसिला चल पडा, पचास की उम्र की महिलाओं की स्थिति कुछ वैसी ही होती है जैसे पंद्रह – सोलह साल की लडकियों की, जिन्हें ना छोटा समझा जाता है ना बडा। कुछ बडों जैसा बोल दिया तो डांट पडती है कि ज्यादा दादी मत बनो, और कोई काम नहीं किया तो सुनने को मिलता – इतनी बडी हो गई सहूर नहीं है, बिचारी बच्ची करे तो क्या करे? शायद वह भी आज उम्र के ऐसे ही पडाव पर है। अब पति कहते हैं – पहले कहती थी ना आराम के लिए समय  नहीं मिलता,  अब जितना आराम करना है करो। बेटी समझाती है घूमने जाइए, शॉपिंग करिए, मस्ती करिए, बहुत काम कर लिया माँ आपने। वह कैसे समझाए कि उसकी जिंदगी तो इन दोनों के इर्द- गिर्द ही घूमने की आदी है। अपने लिए कभी सोचा ही कहाँ उसने। अब एकदम से कैसे बदल ले अपने आपको? हैलो मम्मां कहाँ खो गईं? बेटी फोन पर फिर बोली। अरे यहीं हूँ, बोल ना। बताया नहीं आपने क्या करेंगी बर्थडे पर। अभी कुछ सोचा नहीं है, अच्छा फोन रखती हूँ बहुत काम हैं। फोन रखकर उसने आँसू पोंछे, ये आँखें भी ज्यादा ही बोलने लगीं हैं अब।

मुँह धोकर वह शीशे के सामने खडी हो गई। लगा बहुत समय बाद फुरसत से अपने चेहरे को देख रही है। आँखों के आसपास काले घेरे बढ गए थे,  चेहरे पर उम्र की लकीरें भी साफ दिखने लगी थीं। चेहरे को देखते – देखते शरीर पर ध्यान गया, थकने लगी है अब। थोडा सा काम बढा,  फिर दो दिन आराम करने को मन करता है। शीशे में देखकर उसने मुस्कुराने की कोशिश की,  सुना था- शीशे के सामने खडे होकर मुस्कुराओ तो मन खुशी से भर जाता है। वह मुस्कुराने लगी – हाँ शायद बदल रहा है मन,  कुछ कह भी रहा है –  इस उम्र तक अपने लिए सोचा ही नहीं, पर अब तो सोचो। आधी जिंदगी परिवार में सिमटे रहो और बाकी उसकी याद में। खुद  मत बदलो और जमाने से शिकायत करते फिरो, यह तो कोई बात नहीं हुई। निकलना ही होगा उसे अपने बनाए इस घेरे से जो उसके आगे के जीवन को अपनी चपेट में ले रहा है। अब भी अपने लिए नहीं जिऊँगी तो कब? उसने कपडे बदले,  रिक्शा बुलाया और निकल पड़ी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 75 – हाइबन- जैसे का तैसा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- जैसे का तैसा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 75☆

☆ हाइबन- जैसे का तैसा ☆

प्रकृति की हर चीज बदलती है । मगर कुछ चीजें आज भी ज्यों के त्यों बनी हुई है। जी हां, आपने सही सुना । हम कछुए की ही बात कर रहे हैं ।

इस प्रकृति में कछुआ ही ऐसा प्राणी है जो करोड़ों वर्ष से जैसा का तैसा बना हुआ है। इसका जन्म तब हुआ था जब छिपकली, सांप, डायनासोर भी नहीं थे । यानी आज से 20 करोड़ों वर्ष पहले भी कछुआ इसी तरह दिखता था।

प्राकृतिक रूप से बिल्कुल शांत रहने वाले कछुए का खून उसी की तरह बिल्कुल ठंडा होता है। इसके शरीर में कहीं बाल नहीं होते हैं। आमतौर पर कछुए की उम्र 50 से 100 साल तक होती है । मगर 300 प्रजातियों वाले कछुए की उम्र 200 से 400 साल तक पाई गई है ।

इसका कवच बहुत ही कठोर होता है। इसी कारण इसकी पुराने समय में ढाल भी बनाई जाती थी। कठोर कवच वाले कछुए का शेर भी शिकार नहीं कर पाता है।

नदी किनारा~

कछुए पर झपटा

नन्हासा शेर।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01-02-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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