हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 76 – लघुकथा – लाल पालक…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर सार्थक लघुकथा  “लाल पालक….। अपार्टमेंट्स  के परिवार प्रत्येक पर्व घर के पर्व जैसे मिल जुलकर मनाते हैं।  इस लघुकथा के माध्यम से रोजमर्रा की जिंदगी  के बीच उत्सव के माहौल का अत्यंत सुन्दर वर्णन किया है। एक ऐसी ही अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 76 ☆

? लघुकथा – लाल पालक …. ?

गणतंत्र दिवस के लिए अपार्टमेंट सज रहा हैं ।

अपार्टमेंट का बड़ा सुंदर नजारा रहता है और वह भी जहां लगभग चालिस  परिवार एक ही छत के नीचे फ्लैटों में रहते हैं।

एक पूरा परिवार बन चुका होता है। सुबह हुआ कि अलग-अलग पेपर वाले, दूध वाले, हार्न बजाते कोई मोबाइल में गाना बजाते और कामवाली बाईयों का आना-जाना।

बस इन सभी के बीच लगातार रद्दी वालों की आवाज वह भी नहीं चूका आने के लिए!! कोई आ रहा कोई जा रहा।

बच्चों की टोली धूप में क्रिकेट खेल रही कुछ बच्चे मोबाइल कान में लगाए छत पर धूप सेंकते नजर आते। कुछ पढ़ाई करते भी दिख जाते हैं।

साथ साथ बड़े बूढ़ों की हिदायत भी चलती रहती है। कहीं पेपर पढ़ रहे हैं। कहीं सब्जी भाजी लिया जा रहा है। कुल मिलाकर बहुत सुंदर माहौल रहता है।

जया कामवाली बाई। बहुत बात करती है। माता – पिता की गरीबी की वजह से किश्चन से शादी कर ईसाई धर्म अपना ली हैं। और बातें भी “आता है” “जाता है” करती है। अपार्टमेंट में एक रिटायर्ड अफसर के यहाँ काम करती है।

सब्जी वाला अपार्टमेंट के अंदर जैसे ही आया उसने आवाज लगाईं।  झाड़ू हाथ में लेकर जया बाहर निकली। बालकनी से सीधा झाड़ू लिए ही बोली “हरी पालक है क्या?”

सब्जी वाला कुछ परेशान था। (पता चला रात में कोई बीमार चल रहा था उसके घर) उसने जोर से बोला… “नहीं पीली पालक हैं चाहिए क्या??”

इतना सुनना था, आजू-बाजू की बालकनी से सभी के खिलखिलाने की आवाज जोर हो गई। “उडा़ लो हंसी” गुस्से से जया लाल पीली हो गई और भुनभुनाते जाने लगी।

गणतंत्र दिवस के लिए मानू बिटिया के साथ कुछ बच्चे अपार्टमेंट्स सजा रहे थे।

बिटिया ने हंसकर कहा.. “जया आंटी गुस्सा मत करो हरी पालक, पीली पालक और जब वह बनेगा तो उसका रंग लाल होगा। यही तो पालक का गुण है।”

जया भी हाँ में हाँ मिलाने लगी। सच ही तो है। आखिर पालक खून भी तो बढाता है।

एक बार फिर जया के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी। जय जय जया की लाल पालक!!!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ आधुनिकता ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक लघुकथा “आधुनिकता।)

☆ लघुकथा – आधुनिकता ☆

दो समवयस्क किशोर किशोरी मोबाइल पर बातचीत कर रहे थे.

किशोर ने पूछा- “क्या तुम्हारे मम्मी-पापा आफिस गए?”

किशोरी बोली-“हां क्यों?”

“मेरे भी गये-” किशोर खुश  होते हुए बोला.

“तो”

“इस बीच क्यों न कोई फिल्म देख ली जाए.”

“ओ के…ओ के नाश्ता करके फौरन निकलती हूं.” लडकी ने ज़बाब दिया.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 58 ☆ लघुकथा – बीमा पॉलिसी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा ‘बीमा पॉलिसी’।  यह सच है कि हम बीमा पालिसी के साथ ही सपने खरीद लेते हैं। उम्र के एक पड़ाव पर पहुँच कर खरीदे गए सपनों का गणित ही बदलता महसूस होता है।  एक बेहद सार्थक लघुकथा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इसअतिसुन्दर लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 58 ☆

☆  लघुकथा – बीमा पॉलिसी

तिवारी जी डाइनिंग टेबिल पर इंकम टैक्स के पेपर फैलाए मन ही मन कुछ बडबडा रहे थे – हर साल का खटराग है बीमा पॉलिसी के पैसे भरो, हाउसिंग लोन के कागज दो और भी ना जाने क्या –क्या। पता नहीं क्या बचता है क्या नहीं – बहुत झुंझलाहट आ रही थी आज उन्हें, क्यों और किस पर ये उन्हें भी नहीं पता। बीमा कंपनियां भी, जिंदा रहते कुछ नहीं देती, स्वर्ग सिधारने  के बाद ही ज्यादा मिलेगा। जीवन भर घिसटते रहो, छोटी छोटी इच्छाओं को मारते रहो और पैसे भरते रहो, बस यह सोचकर कि कुछ हुआ तो बीमा पॉलिसी नैया पार लगा देगी। उन्हें बीमा एजेंट की बात याद आ रही थी – आपकी लाईफ सिक्योर है, सब ठीक ठाक चलता रहा तो बढिया है। अगर आपको कुछ हो जाता है तो पचास लाख आपकी पत्नी और बच्चों को मिल जाएगा। पता नहीं क्यों उन्हें एक झटका- सा लगा था यह सुनकर।

क्या बोल रहे हो अकेले में, सठिया रहे हो क्या, रिटायर होने में तो समय है अभी – पत्नी चाय बनाते हुए अपने व्यंग्य पर मुस्कुरा रही थी। तिवारी जी चिढ गये पर संभलकर बोले –  कुछ नहीं ये बीमा पॉलिसी के कागज देख रहा था – इसके हिसाब से तो कई साल पैसे भरना है, पॉलिसी  मैच्योर होने से पहले मैं चल बसा तो तुम लोगों को पचास लाख मिलेगा, वरना भरे हुए पैसे भी नहीं मिलेंगे। सोच रहा हूँ इसे बंद करवा दूँ, क्यों बेकार में तीन– चार लाख भरूँ, किसी और काम आएंगे – धीरे से बोले। काहे बंद करवा दो ? तीन – चार लाख के लिए तुम पचास लाख छोड रहे हो ? तुम्हारे बाद हमें और बच्चों को पैसा मिलेगा तो कुछ बुरा है क्या ? आडे वक्त में काम आएगा उनके। वे सकपका गए – नहीं – नहीं, अच्छा ही होगा। पत्नी जी पता नहीं समझी कि नहीं, पर तिवारी जी सोच रहे थे पचास लाख के लिए पॉलिसी मैच्योर होने से पहले ही स्वर्ग सिधारना पडेगा क्या?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 74 – हाइबन- दुनिया की सबसे लंबी सुरंग ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- दुनिया की सबसे लंबी सुरंग। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 74☆

☆ हाइबन- दुनिया की सबसे लंबी सुरंग ☆

दुनिया की सबसे लंबी सुरंग का रिकॉर्ड भारत के नाम है । यह उत्तर भारत के लेह और मनाली हिस्से को जोड़ती है । इसे समुद्र तल से 10000 फीट की ऊंचाई पर बनाया गया है।  इस का निर्माण ऊंचीऊंची पहाड़ी की तलहटी के नीचे 9 किलोमीटर की सुरंग खोदकर किया गया है।

इस अनोखी सुरंग की अपनी अलग विशेषताएं है। यह विशेषताएं इससे अत्याधुनिक बनाती है। 3 अक्टूबर 2020 को प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित इस सड़क मार्ग पर 60 मीटर पर हाइड्रेट, 150 मीटर पर टेलीफोन और 250 मीटर पर सीसीटीवी कैमरे की व्यवस्था की गई है। हर 2 किलोमीटर वाहन को मोड़ने की सुविधा दी गई है।

विशेष परिस्थितियों के लिए इसमें विशेष व्यवस्था की गई है। इसके हर एक 500 मीटर की दूरी पर विशेष निकासी व्यवस्था उपलब्ध है। 9.02 किलोमीटर लंबी विश्व की सबसे लंबी हाईवे टनल 3200 करोड़ रुपए की लागत से बनी है।

टनल का आकार घोड़े की नाल जैसा है। यह सीमा सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण सुरक्षित और संक्षिप्त मार्ग है । सामरिक महत्व के मार्ग ने हमें दुनिया की दृष्टि में बहुत ऊंचा उठा दिया है।

 

लेह की चोटी~

टनल में फिसली

कार में बच्चा।

 

लेह की चोटी~

सुरंग में डरकर

चींखी युवती।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

23-12-2020

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सपना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लघुकथा – सपना ☆

बहुत छोटा था जब एक शाम माँ ने उसे फुटपाथ के एक साफ कोने पर बिठाकर उसके सामने एक कटोरा रख दिया था। फिर वह भीख माँगने चली गई। रात हो चली थी। माँ अब तक लौटी नहीं थी। भूख से बिलबिलाता भगवान से रोटी की गुहार लगाता वह सो गया। उसने सपना देखा। सपने में एक सुंदर चेहरा उसे रोटी खिला रहा था। नींद खुली तो पास में एक थैली रखी थी। थैली में रोटी, पाव, सब्जी और खाने की कुछ और चीज़ें थीं। सपना सच हो गया था।

उस रोज फिर ऐसा ही कुछ हुआ था। उस रोज पेट तो भरा हुआ था पर ठंड बहुत लग रही थी। ऊँघता हुआ वह घुटनों के बीच हाथ डालकर सो गया। ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे ओढ़ने के लिए कुछ मिल जाए। सपने में देखा कि वही  चेहरा उसे कंबल ओढ़ा रहा था। सुबह उठा तो सचमुच कंबल में लिपटा हुआ था वह। सपना सच हो गया था।

अब जवान हो चुका वह। नशा, आलस्य, दारू सबकी लत है। उसकी जवान देह के चलते अब उसे भीख नहीं के बराबर मिलती है। उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं बची है। एकाएक उसे बचपन का फॉर्मूला याद आया। उसने भगवान से रुपयों की याचना की। याचना करते-करते सो गया वह। सपने में देखा कि एक जाना-पहचाना चेहरे उसके हाथ में कुछ रुपये रख रहा है। आधे सपने में ही उठकर बैठ गया वह। कहीं कुछ नहीं था। निराश हुआ वह।

अगली रात फिर वही प्रार्थना, फिर परिचित चेहरे का रुपये हाथ में देने का सपना, फिर हड़बड़ाहट में उठ बैठना, फिर निराशा।

तीसरी रात असफल सपने को झेलने के बाद भोर अँधेरे उठकर चल पड़ा वह शहर के उस चौराहे की तरफ जहाँ दिहाड़ी के लिए मज़दूर खड़े रहते हैं।

आज जीवन की पहली दिहाड़ी मिली थी उसे। रात को सपने में उसने पहली बार उस परिचित चेहरे में अपना चेहरा पहचान लिया था।

सुनते हैं, इसके बाद उसका हर सपना सच हुआ।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 75 – लघुकथा – ऊँचा आसन…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर सार्थक लघुकथा  “ऊँचा आसन….। प्रत्येक व्यक्ति की सोच भिन्न हो सकती है किन्तु, कई बार कोई बातों बातों में जो कह जाता है वह विचारणीय हो जाता है। एक ऐसी ही विचारणीय रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 75 ☆

? लघुकथा – ऊँचा आसन …. ?

काम वाली बाई उमा का रोज आना होता था, अच्छे संपन्न परिवार में। मेम साहब और साहब भी उसकी बातों से बहुत खुश रहते थे। नाटे कद की सरल स्वभाव की सारे जहां का गम छुपाए वह बहुत मुस्कुरा कर काम करती थी। आते ही ‘किस स्टेशन पर क्या हुआ, कोरोना में कौन मरा, किसके यहां चोरी हुई, किसी की सास ने आज अपनी बहू को खूब खरी-खोटी सुनाई और आज सब्जी का ताजा भाव क्या है’।

इन सब के बीच वह अपनी भी बात कहती जाती:- ” अरे मैम साहब आज मेरा आदमी बिना रोटी खाए चला गया।  घर में आटा जो नहीं था। किसी दिन कहती – आज जी नहीं चला, बच्चों की खूब धुनाई कर कर आई हूं।” और खिलखिला कर हंस पड़ती। पर दिल की बहुत अच्छी थी उमा।

एक दिन घर में मेम साहब अकेली थी। उसको बैठा कर चाय पी रहे थे। अचानक उमा बोल पड़ी :-“मेम साहब मैं तो पढ़ी लिखी नहीं हूं, आप लोग बहुत अच्छे हैं, बहुत पढ़े लिखे लोग हैं, बताइए सभी देवी का मंदिर ऊपर ऊँची पहाड़ी पर या किसी कोने की गुफा पर क्यों बना है? जहां देखो चढ़ैया चढ़कर जाना पड़ता है या गुफा में कठिनाई से छुपकर जाना होता है।”

मेम साहब बोली – “अरे उमा उन्होंने अपना स्थान ऊँचा बनाया है। उनकी अपनी जगह है।”

जोर से उमा हंस पड़ी :-“बस यही तो होता आया है।  स्त्री को पहले भी सताया जाता था। सभी देवी घर छोड़ एकांत में ऊपर चढ़कर बैठ जाती थी और कहती- मना अब मुझे। ऊपर चढ़कर आने में तुझे कितना दर्द और बेचैनी सहनी पड़ती है। मुझ तक पहुंचने में तुझे कितना कष्ट सहना  पड़ता है। देवियों ने ऊंचे पहाड़ पर इसीलिए ऊँचा आसन बनाया अब आओ तुम मेरे पास तब पता चलेगा। नारी को पाना सहज नहीं समझो। “यह कहकर वह चलती बनी।

नारी मन उमा की बात को सोचते-सोचते ‘” क्या आज संसार बदल पाया? तब और अब मैं क्या अंतर है? “‘ इस बात को मेम साहब भी सोचने लगी। देवी और नारी की दशा और दिशा में क्या अंतर आया!!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कथा – कहानी ☆ कब्र में जीता हुआ ☆ सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला

सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला

(सुप्रसिद्ध राजस्थानी एवं हिंदी साहित्यकार सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला जी का ई-अभिव्यक्ति  में हार्दिक स्वागत है।

संक्षिप्त परिचय – राजस्थानी हिन्दी की पत्रिकाओं व समाचार पत्रों में कविता, कहानी, लघुकथा, रेखाचित्र प्रकाशित राजस्थान पत्रिका में राजस्थानी कॉलम ‘सुण री सखी’ कविता कहानी के संकलनों में स्थान । लोक-संस्कृति व लोक गीतों पर लेख। चित्रकार, रेखाचित्रकार, फोटोग्राफी शौकिया जो कवर पेज और लेखों के साथ छपते हैं। यूट्यूब व इंस्टाग्राम चैनल से लोकगीत व संस्कृति के वीडियो प्रस्तुति। दूरदर्शन पर कार्यक्रम। जोधपुर, बाङमेर आकाशवाणी प्रस्तुतियां।। जै जै राजस्थान पेज से राजस्थानी में लोकरंग, आमी-सांमी व कवि सम्मेलन लाइव के संचालन सिलसिला चल रहा है। एक नया कांसेप्ट प्रायवेट नर्सिंग होम में सर्वजन साहित्यिक लायब्रेरी को स्थापित करने पर काम कर रही है। राजस्थानी साहित्य एवं संस्कृति अकादमी बीकानेर से सांवर दईया पैली पोथी पुरस्कार । वीर दुर्गादास राठौड़ सम्मान राजस्थानी संस्कृति समिति से डी लिट्,  कमला देवी सबलावत पुरस्कार, डेह सृजनगाथा सम्मान,  2 पेंटिंग प्रदर्शनी जोधपुर संभाग का पहला पेंटिंग सेमिनार का आयोजन। 

प्रकाशन – राजस्थानी कहाणी संग्रह नेव निवाळी, कांठळ (राजस्थानी),  कविता संग्रह –  ज्यूँ सैंणी तितली (राजस्थानी), झर झर निर्झर (हिंदी)

हम ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से आपकी रचनाएँ साझा करने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ कथा – कहानी ☆ कब्र में जीता हुआ ☆ सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला ☆

उसकी याद फिर तिर आई। कांच पर जमती ओस की बूंदों सी और  उसका वजूद फिर नशे  सा छाये जा रहा है। कईं दिनों की मदहोशी, बेखयाली, बेचैनी, खलिस और बेकरारी उसकी याद के साइड इफैक्ट है  जो सालों से उसी शिद्दत से मोहते भी हैं और कचोटते भी है। वह उन इफैक्ट की बाट भी जोहता है और हल्की घबराहट से किनारा भी करता रहता है। इन सालों यही होता जा रहा है बार-बार। उसे लगता कि इस खाई में गिरते ,संभलते और उठते हुए युग बीत गए। बरसों की सीढ़ियां चढ़ते हुए दिनों की कतरनों ने उन सुखद पलों से उसका कई बार खून किया है और कई बार वह खुशी से और कई बार अनमना होकर उससे गुजरा भी है।  एक बेबसी उस पर हरदम तारी रहती और वह उसमें झूमता रहता।

उसे जिंदगी की इस करवट से यही सीन दिखाई देता है। वह चाहता है कि करवट बदले और कुछ दूसरा सीन देखकर बहल जाये। भूल जाये हमेशा वाली इन भावनाओं की तेज फुहार सी रौ को जिसने उसके वजूद को उब-चूब कर दिया है। पर यह कर नहीं पाता। बरसों से खुद में जीते हुए उसकी आत्मा पर उसके निशान पड़ चुके है। उन्हें खरोंच कर उतार नहीं सकता। जाने क्या हो? खरोंच के निशानों से डरता है वह। जाने कैसा एहसास पैदा हो और जो एहसास बचे वह जाने कैसा हो? मन ने उस नये एहसास को स्वीकार न किया तो ? नये एहसास से एलर्जी  हो गई तो किसकी गोद में जायेगा। आत्मा पर छपे उसके  निशान के संचे में नया एहसास फिट ना हुआ तो वह कहीं का न रहेगा।

सोचते -सोचते उसका माथा अजीब सा भन्नाने लगा। हाथ बेसाख्ता उस पर चला गया जिससे उसे हमेशा से कोफत रही। सिगरेट सुलगाते वक्त वह आंखें तरेरती और धुंआ फूंकने से पहले दूर छिटक पड़ती। शुरू-शुरू में तो वह हंसा करता और चारों ओर छल्ले के धुंए से गोला बना देता  और बेसाख्ता कठोर हो कर कह उठता …‘‘ कुछ भी हो पर तुम मेरी हो ….‘‘। इसी बात पर वह मुग्ध हो जाती लेकिन इसमें वह ज्यादा समय तक न बंध पाती और धुंए की बदबू और हल्की  घुटन से आजाद होकर दूर होकर ही सांस लेती। एक चीज मोहती तो दूसरी चीज दूर धकेलती और मन पेंडुलम सा डोलता रहता।

दीवार के सहारे जाकर सांस लेकर ठेंगा दिखाते हुए हंसती तो वह बेचैन हो उठता। जाने कैसी कसमसाहट ऐड़ी-चोटी सुलगती कि वह समझ नहीं पाता कि क्या करे और क्या न करे । जो चाहता है वह उचित नहीं और चाहा ना कर पाये, रोक पाये उतना उसमें सब्र नहीं।

कितनी तड़प होती थी । उफ! न उठते चैन न बैठते चैन। पांचवे माले के पूर्वमुखी फ्लॅट से हजार गुना अधिक तपन वह अपनी शिराओं में महसूस करता। रात-रात भर बेचैनी में धुंए से कमरे को भरते हुए इधर से उधर और उधर से इधर सैकड़ों मील चला होगा। उसको पाने की तड़प में शिरा-शिरा मुंह बोलती थी। बाजुएं, नथुने, पैर तली, कांधे, कनपटी नारियल की चिटकों की तरह  चटका करती थी। कई बार उसे यह बात बताई। बहुत बार खड़े रहकर ही बता पाया । ऐसा कहते हुए वह उसके पास बैठा नहीं रह सकता। न ही उसकी तरफ देख ही सकता था।

तब गर्मी की तप्त दोपहरी में उन दोनों के बीच भांय-भांय करता वह पुराना पंखा मनहूस गिद्ध की तरह लगता। वह चाहता कि जब वो दोनों बात करे तब बीच में कोई ना होे। कम से कम वह  सांय-सांय,  भांय-भांय कतई बर्दाश्त न करेगा लेकिन वह मनहूस पंखा उन दोनों के दरम्यान हमेशा रहा। अक्सर उसे लगता कि उसकी तकदीर ऐसी ही है। जो न चाहे वह मौजूद रहता ही  है और उसके उलट जो चाहे वह उसके आसपास बना भले रहे , ललचाता रहे लेकिन प्राप्य नहीं बन पाता।

रुद्रिका से  जब पहले पहल आत्मा के तप्त प्रवाह को बेबसी से रुक-रुक कर  पीठ फेरे हुए बता रहा था। खुद जाने किस गड्डे में गिरता जा रहा था पर अचानक आकर उसने ही उबार लिया था। अपनी गर्दन के पिछवाड़े में उसने दो नथुनों की गरमाहट को और दो होठांे की तप्त सलाईयों को महसूसा ….पल भर भी न लगा उसे और इस एहसास का परिणाम पूरे बदन में दौड़ने लगा और दिल तेजी से धड़कने लगा। वह ऐसे ही महसूसते  हुए बैठा रह जाता तो ष्षायद ठीक रहता पर जाने कैसे और कब उसने उसे अपने से सटा लिया उसे पता ही न चला। पीछे से बांहें गले में डाले वह पूरी तरह से सटी हुई थी और वह ना जाने कहां -कहां की यात्रायें वह भर में कर आया और सुखद एहसासों से लबथब रहा। कोमलता के पहले एहसास से मुलाकात  का पहला वाकया उसके लिए सुखद भी था और अंजाना भी । घबराहट वैसी जैसी पहली परीक्षा में होती है। उस आनंद को बहुत देर तक देख कर आनंदित होना भी चाह रहा था और जल्दी ही पीकर खतम भी करना चाहा रहा था। सुख के वे पल उसे बहुत लंबे चाहिए थे लेकिन सब कुछ तेजी से पाने की चाह बलवती होते जा रही थी। बदन की हर शिरा में रुद्रिका के प्रेमिल एहसास का प्रमाण गूंज रहा था। अपनी चाह को अभी इस वक्त कोई नाम नहीं देना चाहता था। सीनियर सैकंडरी से लेकर आरपीएससी के परीक्षा की तैयारी तक सैकड़ों मुलाकातें, हजारों जज्बाती रेले आये कि जब बहते-बहते तिर गए।

उन हजारों बार की उब-चूब ने उसे जाने कैसा बना दिया। एक अलग तरह का ही। उतार-चढ़ाव उसकी धमनियों का ही नहीं जीवन का स्थायी भाव बन गया। बचपन से लेकर अब तक कई जरुरतों  को मारते-मारते उसे खुद को ही मारने की इच्छा ने ही आरपीएससी की चाणक्य कोचिंग में ला पटका।

किसी भी काम में वह खुद को इतना झोंक देना चाहता है कि खुद को देखने-महसूसने समय ही न बचे और ना ही जरुरत। ऐसा करते वह सब कुछ बदल देना चाहता है।
और तत्काल ही उसे भुवन की याद हो आई। उसके दिल को कहीं ठौर है तो रुद्रिका के बाद भुवन की पनाह में। अपनी आहों का हिसाब जब उसे थमाता है तो भले ही वह खिल्ली उड़ाये लेकिन अंत में उसकी बातों को सीरियसली लेकर देा-चार उपदेश दे बैठता है। वह भी उसे मंजूर हो जाते है। लेकिन उसका सुकून भरी दुनिया की रंगीनियत में नहीं पांच बाई दस के उस अंधेरे कमरे में ही है। दर्द भरे उकताये हुए दिल को चैन भुवन के उस कमरे में ही मिलता है। भुवन के अपणायत की याद तीव्रता भी उसे सुकून देती है। दुनिया का एक वह कोना उसे नायाब लगता ।

……उस दिन की बात भी उसने भुवन से हूबहू कही थी। बिना लाग लपेट, बेहिचक। अपने मन की बात से लेकर, रुद्रिका की भाव-भंगिमा तक, अपनी देह के बदलावों से लेकर रुद्रिका की उफ तक का हिसाब देता रहा था। वह मुंह लुकोये सुनता रहा और उसे बरजता रहा था। बीच में कई बार टोका कि बस अब वह सुन नहीं पायेगा। लेकिन वह कहां रुका था।

….इन सालों की प्रीत को ऐसे किसी पड़ाव की आवष्यकता को दरकिनार करता रहा था। लेकिन आस-पास फड़कते होंठ उसकी नस-नस को जगा रहे थे और वह जाग रहा था। उसे खींच कर सामने लाकर अपनी बांहों में घेरा तब वह बहुत  सुंदर लगी थी। हमेशा से अलग सांवली सी लड़की इतनी सुंदर हो सकती है ये जाना उसने। निहारती रही थी वह भी….। चाहता था कि कमरे की ये निहायत ही शान्ति रुक जाये और किसी मधुर कोलाहल में वे डूब जाये। और किसी तरह का शोर दोनों के आसपास ना हो। वे केवल वही सुनें जो उनसे झंकृत होकर बिखरे। इस बिखरेपन में प्रकृति की सुंदर सुरुपता किसी मंजिल की ओर बहे जा रही थी। ये रास्ते बहुत तेजी से उंचे जा रहे थे। जैसे किसी मंजिल की तीव्र तलाश हो। पहाड़, झरने, सितार, जलतरंग से गूंजते वे पल सुंदरतम हुये बीतते रहे। सम तक पहुंच-पहुंच कर उनका फिर उंचा उठना….एक दूजे को देखते हुए उस सफर को पूरे होशोहवास में जी रहे थे। यह मधुर याद का पहला सफर हमेशा याद रहने वाला था। आंखें मूंदे किसी अनदेखी दुनिया को मन की आंखों से उतर कर देख रहा था….सुन रहा था….कुछ कानों में पड़ रहा था…..मधुर लय के साथ एक और वह लय किसी वस्तु के घूर्णन की ….सांय-सांय सी। वह सुनता रहा और बहता रहा…..थमता रहा। लगातार आती सांय-सांय ने उसे उद्ववेलित कर दिया। थम कर चेतना के टेंटेकल्स को थाम कर इधर-उधर देखा । लाईट आ गई थी और हमेशा से तेज आवाज में दौड़ते हुए अपने होने को जता रहा था वो मनहूस पंखा …………………

© सुश्री किरण राजपुरोहित नितिला 

संपर्क – 139 सी सेक्टर शास्त्री नगर, जोधपुर (राजस्थान) 342003

मो. 7568068844

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 57 ☆ लघुकथा – टीचर के नाम एक पत्र ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा ‘टीचर के नाम एक पत्र’।  कुछ शिक्षक कल्पना में ही हैं, इसलिए ऐसा संवाद कल्पना में ही संभव है। और यदि वास्तव में ऐसे शिक्षक अब भी हैं तो वे निश्चित रूप में वंदनीय हैं। मकर संक्रांति पर्व पर एक मीठा एहसास देती लघुकथा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इसअतिसुन्दर लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 57 ☆

☆  लघुकथा – टीचर के नाम एक पत्र

यह पत्र मेरी इंग्लिश टीचर के नाम है। जानती हूँ कि पत्र उन तक नहीं पहुँचेगा पर क्या करूँ इस मन का, मानता ही नहीं, सो लिख रही हूँ।

टीचर! आप जानती हैं कि हम सब आपसे कितना डरते थे? बडा रोबदार चेहरा था आपका। सूती कलफ लगी साडी और आपके बालों में लगा गुलाब का फूल,बहुत अच्छी लगती थीं आप। पर हममें से किसी में साहस कहाँ कि आपके सामने कुछ बोल सकें। आपको देखते ही क्लास में सन्नाटा खिंच जाता था। आप थोडा मुस्कुरातीं तो हम लोगों को हँसने का मौका मिलता। वैसे हँसी तो ईद का चाँद थी आपके चेहरे पर। एक बार आपने मुझसे कहा कि मेरे लिए रोज मेज पर एक गिलास पानी लाकर रखा करो। मैं रोज पानी लाकर रखने लगी, यह देखकर आपने कहा – क्या मुझे रोज पानी पीना पडेगा? मैंने पानी का गिलास रखना बंद कर दिया, तो आपने थोडा डाँटते हुए कहा ‌‌- क्या रोज कहना पडेगा पानी लाने के लिए? मेरी हिम्मत ही कहाँ थी कुछ सफाई देने की? पर आपको अपनी बात याद आ गई थी शायद क्योंकि आप उस समय थोडा मुस्कुराई थीं।

आपके चेहरे की कठोरता तो जानी पहचानी थी लेकिन मन की उदारता का कोना सबसे अछूता था। मैं भी ना जानती अगर आपके घर ट्यूशन पढने ना आती। मेरे पास ट्यूशन फीस देने के पैसे नहीं थे, बडे संकोच से आप से पूछा था कि आप ट्यूशन  पढाएंगी क्या मुझे? आपने कहा – घर आ जाना। मुझे याद है कि आपने कई महीने मुझे ना सिर्फ पढाया बल्कि आने- जाने के रिक्शे के पैसे भी दिए थे। नाश्ता तो बढिया आप कराती ही थीं, आपको याद है ना? ट्यूशन का अंतिम दिन था आपने मुझसे सख्ती से कहा – स्कूल में जाकर गाना गाने की जरूरत नहीं है कि टीचर ने पैसे नहीं लिए, मैं पैसेवालों से फीस जरूर लेती हूँ और जरूरतमंद योग्य बच्चों से कभी पैसे नहीं  लेती। लेकिन इस बात का भी ढिंढोरा नहीं पीटना है। उस समय आपका चेहरा बडा कोमल लग रहा था, आप तब भी मुस्कुराई नहीं थीं पर मैं मुस्कुरा रही थी। टीचर! उस समय आप बिल्कुल मेरी माँ जैसी लग रही थीं।

आपकी एक छात्रा

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ समय-रथ ☆ श्री हरिप्रकाश राठी

श्री हरिप्रकाश राठी

(सुप्रसिद्ध  साहित्यकार श्री हरिप्रकाश राठी जी ने यूनियन बैंक ऑफ़ इण्डिया से स्वसेवनिवृत्ति के पश्चात स्वयं को साहित्य सेवा में समर्पित कर दिया और अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। श्री राठी जी अपनी साहित्य सेवा के लिए अब तक कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं। इसके अंतर्गत ‘कथाबिंब’ पत्रिका द्वारा कमलेश्वर स्मृति श्रेष्ठ कथा सृजन पुरस्कार 2018, पंजाब कला साहित्य अकादमी द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान, विक्रमशीला विद्यापीठ द्वारा विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर जैमिनी अकादमी, हरियाणा द्वारा उत्कृष्ट कथा सृजन हेतु राजस्थान रत्न, राष्ट्रकिंकर नई दिल्ली द्वारा संस्कृति सम्मान, मौनतीर्थ फाउंडेशन उज्जैन द्वारा मानसश्री सम्मान, वीर दुर्गादास राठौड़ सम्मान, जोधुपर मेहरानगढ़ से निराला साहित्य एवं संस्कृति संस्थान बस्ती (यूपी) द्वारा राष्ट्रीय साहित्य गौरव सम्मान, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी एवं यूनेस्को द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक कहानी ‘ प्रतिबिम्ब’।) 

☆ कथा कहानी ☆ समय-रथ ☆ श्री हरिप्रकाश राठी ☆ 

अस्ताचल में उतरने के पूर्व सूर्यदेव कुछ पल के लिए रुके, पूर्वी क्षितिज से पश्चिमी छोर तक के यात्रा-पथ को निहारा, कुछ गंभीर हुए एवं तत्पश्चात् क्षणभर में ओझल हो गए। डूबने से पूर्व आखिर इस मार्ग को निहार कर वे क्या सोच रहे थे? क्या वे यह विवेचन कर रहे थे कि इस पथ में उन्होंने क्या देखा एवं क्या देखने से वंचित रह गए? क्या वे यह सोच रहे थे कि यह यात्रा ऐसे न होकर वैसे होती तो अच्छा होता? क्या सूर्यदेव मंसूबे मन में बसाये ही डूब गए? क्या उनकी चाहनाएं अधूरी रह गई? डूबते हुए उनके चेहरे पर इतने प्रश्न क्यों थे ?

सांझ का झुरमुटा अब सर्वत्र फैलने लगा था। एक प्रहर और बीता होगा एवं तदनंतर धाय की तरह जगत को गोद में आश्रय देने वाली रात्रिदेवी का सर्वत्र आधिपत्य हो गया।

जीरो बल्ब की रोशनी में बिस्तर पर पड़े काशीनाथ जाने किस चिंता में डूबे थे? अभी बीस मिनट पूर्व डिनर लेकर वे कमरे में आए थे, कुछ देर एक पुस्तक का पारायण किया, नित्य की तरह पांच मिनट पद्मासन में बैठ प्रभुनाम का स्मरण किया एवं चुपचाप लेट गए। उन्होंने सोने का प्रयास किया, पर जैसा कि होता है प्रयास करने पर नींद ज्यादा उखड़ती है, वे नहीं सो पाए। जैसे जवानी में धन कमाना, न कमाना भाग्य की बात है, बुढ़ापे में भी नींद आना, न आना भाग्य के अधीन है। वे सŸार पार थे एवं इस उम्र में अक्सर ऐसा होता है। वे उठे, अंतिम प्रयास के रूप में जीरो बल्ब ऑफ किया एवं पुनः लेट गए। यह प्रयास भी निरर्थक सिद्ध हुआ एवं अब नींद उनकी आँखों से कोसों दूर थी। आज जाने क्यों कमरे के अंधेरे से भी गहन अंधेरा उनके हृदय में उतर आया था। देखते ही देखते चिंतन की गहरी लकीरें उनके ललाट पर उभर आई एवं वे जाने किस लोक में खो गए।

काशीनाथ की लौकिक आँखों के आगे घुप्प अंधेरा था, लेकिन मन की आँखों के आगे अतीत रोशन होकर नाच रहा था। इस अंधेरे में भी वे देख रहे थे कि एक पाँच साल का बच्चा, कांधे पर बैग डाले अपनी मस्ती में स्कूल की ओर भाग रहा है। चित्रपट की तरह उनके सारे जीवन की फिल्म रिवाईंड होकर पीछे की ओर घूम गई एवं वे वहाँ जाकर खडे़ हो गए जहाँ से उनकी जीवनयात्रा प्रारंभ हुई थी। इसके पूर्व की किसी घटना का उन्हें इल्म न था। उनके स्मृति-कोष में यही आखिरी याद थी। विद्यालय में यद्यपि कभी-कभार गेम्स के पीरियड्स होते, लेकिन मन में अदम्य इच्छा होते हुए भी वे उनमें कम ही भाग ले पाते थे। पिताजी के स्पष्ट निर्देश थे कि खेलकूद पर ज्यादा ध्यान न दो, अंततः पढ़ाई में अच्छे नंबर लाने वाले ही आगे बढ़ते हैं। बलात् पिता की बात उन्होंने मान तो ली, लेकिन अब लगता है असली नवाब पढ़ने-लिखने वाले नहीं, खेलने-कूदने वाले बनते हैं। खेल बालक में न सिर्फ ऊर्जा का संचार करते हैं, ताउम्र प्रतिस्पर्धी होने का सबक भी देते हैं। स्वास्थ्य अच्छा रहता है, वह फिर अतिरिक्त बोनस है। काश! उन्होंने पिताजी की राय दरकिनार कर खेलों पर ध्यान दिया होता तो शायद राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी होते। काश! क्रिकेट का बल्ला पकड़ने पर पिताजी ने तीखी आँखों से देखने की बजाय कंधे पर हाथ रखकर उत्साहित किया होता तो वे मात्र किताबी कीड़े नहीं बनते। निरंतर पुस्तकों के मनन ने उन्हें अच्छे नंबर तो दिलाए लेकिन बेहद अव्यावहारिक, अहंकारी एवं अक्खड़ भी बना दिया। जिस फाइटिंग इंस्टिक्ट, स्पर्धाभाव के साथ व्यक्ति आगे बढ़ता है एवं जिसकी जीवन में पल-पल आवश्यकता होती है, मानो विलुप्त हो गया। पढ़ाई के साथ खेलों में भी यदि उनकी समभागिता होती तो आज आत्मविश्वास सिर चढ़ कर बोलता।

ऐसे ही अगड़म-बगड़म कितनी ही बातें उनके जेहन में ‘काश!’ बनकर उनसे प्रश्न करने लगी थी। उन्हें कैशोर्य के वे पल भी याद आए जब कॉलेज में साथ पढ़ने वाली निरुपमा से उन्हें प्रेम हुआ था। दोनों एक-दूसरे को टुकुर-टुकुर देखते, जी-जान से चाहते, पर इतना साहस भी न बटोर पाए कि वे कह सके निरुपमा मैं तुम्हें चाहता हूँ। हर बार वही अकड़, वही दम्भ, वही अहंकार कि पहले वह कहेगी एवं इसी अकड़ में उसका विवाह अन्यत्र हो गया। ओह! निरुपमा कितनी सुंदर, समझदार एवं संवेदनशील लड़की थी। उसने आँखों से संदेश भी भेजे लेकिन वे एक कदम चूक गए। निरुपमा के संबंध होने का समाचार मिला तब दस दिन तक दाढ़ी बढ़ाये मंजनू की तरह घूमते रहे, लेकिन प्लेटफार्म पर छूटी ट्रेन की तरह वह फिर कभी नहीं दिखी।

अब तो मालती से विवाह हुए भी चालीस वर्ष हुए। तीन वर्ष पूर्व जबसे उसका निधन हुआ तब से  बुढ़ापा ढो रहे हैं। वह थी तो कौन-सी उससे बनती थी! वही हठी स्वभाव कि हर जगह मेरा रौब चले। अब चलाओ रौब। आज वो मिल जाए तो सब कुछ करने को तैयार है, नाक रगड़ने तक को मना नहीं करेंगे, पर वही बात चिड़िया खेत चुग जाने पर पछतावा करने से बनता क्या है ? वह दिन भूल गए जब किसी पार्टी में जाने की अनिच्छा जाहिर करने पर तुमने न सिर्फ उसे खरी-खोटी सुनाई, आग बबूला होकर थप्पड़ भी जड़ा था। बेचारी खून का घूंट पीकर रह गई। वह दिन भूल गए जब उसने भाई की शादी में दो गहने बनाने का क्या कहा, तुम पारे की तरह बिखर गए। क्या कहा था, पैसा पेड़ पर लटकता है कि मैं तोड़कर तुम्हारी सभी इच्छाएं पूरी कर दूँ? मालती तब मन मसोसकर कमरे में चली गई थी। उसका विवश चेहरा याद है तुम्हें ? वह दिन तो तुम्हें जरूर याद होगा जब तुम्हारे लाये नये डिनर सेट की प्लेटें धोकर वह अल्मारी में रख रही थी, यकायक उसका पैर फिसला, वह नीचे गिरी एवं सारी प्लेटें फूट गई। तब उससे यह कहने की बजाय कि मालती तुम्हारे चोट तो नहीं लगी, तुमने जमकर लताड़ पिलाई। यह उसके सहनशक्ति की इंतहा थी। सुबकती हुई मालती तब पीहर चली गई थी। श्वसुरजी तब यमराज की तरह कुपित होकर बोले थे, ‘‘मेरी फूल-सी बेटी को आपने क्या बना दिया है!’’ तीन-चार दिन पीहर रही तब तुम्हें नानी याद आई। तब झूठी तबीयत खराब होने का बहाना कर वापस बुलाया। तुम चाहते तो ससुराल जाकर उसे प्यार से भी ला सकते थे। मालती तब कितना खुश होती! तुम हारते तो वह वारि जाती, पर तुमने तो हर बार जीतकर उसे निराश किया। अब भुगतो! अब लाख आँसू बहाने से भी वह नहीं आने वाली। उसे निर्देश क्या देते हिदायतों की झड़ी लगा देते थे। काश! तुम संयत रहते, मालती को समझने की कोशिश करते तो आज यूँ मन न मसोसते। सारे गुण किस औरत में मिलते हैं। गुलाब काँटों के बिना मिलता है क्या? सोचते-सोचते काशीनाथ का चेहरा आँसुओं में नहा गया।

जिस पिता के माँ से मत-मतांतर हो उसके बच्चे उसे वैसे देखते हैं, जैसे पिटती हुई गाय के बछड़े ग्वाले की ओर देखते हैं। उनके अनुशासन एवं मालती के प्रेम की छाँव में बच्चे आगे तो बढे़, लेकिन अनेक मुद्दों पर उनका बच्चों से मतभेद रहा। कितने निर्देश वे बच्चों को देते थे? यह करो, वह करो, ऐसे रहो, वैसे रहो! वह तो साहस कर बच्चों ने अपने कैरियर-पथ को उनकी नैसर्गिक योग्यता के अनुसार चुना, अन्यथा कुंठित बच्चे विद्रोह करते तो अकल आती। आशीष ने जब कहा कि पापा, मैं इंजिनियरिंग तो पूरी करूँगा, लेकिन कैरियर संगीत के क्षेत्र में ही बनाऊँगा तो तुम कैसे उखड़े थे। याद है वे शब्द, ‘‘मैंने इंजिनियरिंग गवैया बनाने को नहीं करवाई है! यह काम तो अनपढ़ भी कर लेता है। मैंने जितना खर्च किया है, उसका रिटर्न चाहिए मुझे।’’ तब वह रूठकर मुंबई चला गया था। आज उसने अच्छा सिंगर बनकर सफलता का परचम लहराया है तो गर्व से कहते हो मेरा बेटा है! आस्था के अंतर्जातीय विवाह पर क्या कम तूफान खड़ा किया था ? मालती को आडे़ हाथों लिया था। यह आशिकमिजाजी इसमें आई कहाँ से ? तुम बच्चों का जरा भी ध्यान नहीं रखती? इसकी योजनाओं मंे अवश्य तुमने साथ दिया होगा एवं जाने क्या-क्या ? बाद में झख मारकर रिश्ता स्वीकार भी किया पर एक बार तो दूध बिगाड़ दिया ना। वह तो मालती और आस्था ने कुशलता से मामला समेट लिया वरना रूठे दामाद को मनाने में सारी ऐंठ निकल जाती। आज आस्था प्रसन्न है तो कहते हैं, ईश्वर तूने मुझे संतति का पूर्ण सुख दिया।

बहू आई तब कौन-सा कम तूफान खड़ा किया था ? यह करो, वह करो, यह पहनो, यह न पहनो। मेरे घर में जीन्स-टॉप, सलवार-कुर्ता नहीं चलेगा, मेरे घर में साड़ी ही पहननी होगी। यहाँ ऐसे रहना होगा, वैसे रहना होगा एवं जाने क्या-क्या ? तुम इतना भर न समझ पाए कि पराये घर से आने वाली इन दुलारियों से कैसे व्यवहार किया जाता है? तुम्हारा दामाद तुम्हारी बेटी के साथ ऐसा करता तो दिन में तारे नजर आ जाते। वह तो बहू भले घर से थी एवं समायोजन कर गई अन्यथा मालती के निधन के पश्चात् बगलें झांकते। अब बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचने से क्या फायदा कि काश! मैं जमाने की लय-ताल के साथ चलता तो घर स्वर्ग होता।

काशी! रिश्तेदारों से तुमने कौन-सी कम लड़ाइयाँ लड़ी। एक जरा-सी बात को लेकर छोटे भाई से तीन माह तक नहीं बोले। कितना अच्छा स्वभाव था उसका। एक बार जरा विरोध क्या कर दिया, बस बिगड़ गए। परिवारों में अंतर-विरोध तो होते ही हैं। कौैन-सा घर इससे अछूता है ? लेकिन तुम तो तानाशाह थे। उखड़ गए सो उखड़ गए। याद है उस दिन उससे क्या कहा था, ‘‘खबरदार! आज के बाद मुँह भी न दिखाना!’’ मजबूर वह भी अनेक दिन चुप रहा। बाद में मन ही मन दुःखी भी होते, लेकिन वही पुराना स्वभाव। पूरे तीन माह नहीं बोले। अब पडे़-पडे़ सोच रहे हैं, काश! मैं उस दिन ऐसा नहीं करता। वह तो भला हो मालती एवं उसकी देवरानी का, जिन्होंने मामला निपटा दिया अन्यथा घर युद्ध का मैदान बन जाता। अब सोच रहे हैं, काश! मैं धैर्य रखता! मैं बड़ा था, मुझे बड़प्पन दिखाना चाहिए था। तुम्हारा कितना आदर करता था वह! आज भी हर दूसरे दिन ‘दादा! दादा!’ कहकर तुम्हारी तबीयत की जानकारी लेता है। बेटा-बहू नहीं होते हैं तब उसी के घर जाकर आसरा लेते हो। आज भी तुम्हें हथेली के छाले की तरह  रखता है। अब सर धुन-धुनकर पछताने से बीता समय बदल सकते हो क्या ?

छोटा भाई ही क्यों, समय-समय पर अन्य रिश्तेदारों यहाँ तक कि माँ-बाप तक से तुमने अकारण विरोध किया। अब किस मुँह से बच्चों को कहोगे कि माँ-बाप की सेवा करो। गये माँ-बाप लौटकर आते हैं क्या ? उनसे बड़ा हितैषी मिलता है भला ? काश! तुम माता-पिता का महत्त्व  जीते-जी समझते तो आज यँू न रोते! अब उनकी तस्वीरों के आगे आँसू बहाने के अतिरिक्त विकल्प क्या है ?

काशी! मित्रों से तुम्हारे क्या कम मत-मतांतर रहे। यह जानते हुए भी कि मित्र जीवन-सुख के अहम पायदान होते हैं, अनेक बार तुम उनसे भी उलझ गए। हर बार वही रोना- मेरा स्वाभिमान, मेरा आत्मसम्मान, मेरा अभिमान। तुम इस छोटी-सी बात को क्यों नहीं समझ पाए कि मित्रता त्याग एवं कुर्बानी की पृष्ठभूमि में पल्लवित होती है। ‘अमन’ जैसे निष्कपट मित्र से भी तुम अनेक बार उलझ पडे़ थे। आज कहते हो, अमन! तुम-सा मित्र सौभाग्य से मिलता है। काश! तुम यह समझ पाते कि मित्रता एक अमूल्य धन है तो अनेक मित्रों को गंवाने का दुःख नहीं भोगते।

ऑफिस में तुमने कौन-सी कम हैकड़ी चलाई ? बात-बात में वही अनुशासन की पूंगी। तीन कर्मचारियों को तो छोटी-सी बात पर निलंबित कर दिया। ऐसे में कर्मचारी खडू़स नहीं तो और क्या कहते! हर बॉस से तुम्हारा शनि-सूरज का आँकड़ा रहा। इसी के चलते अकारण घर में तनाव लाते एवं परिवार को भी तनावग्रस्त करते। काश! तुम अधीनस्थ कर्मचारियों को अनुजवत् रखते तो वे भी अग्रजवत् आदर देते। काश! तुम समझते कि उच्चाधिकारियों की अपनी समस्याएं होती हैं। ऐसे में तुम न सिर्फ उनका प्यार पाते, समयानुकूल पदोन्नति भी मिलती। अरे बॉस मिट्टी का पुतला हो तो भी आदरणीय है। तुमने तो जीवंत अधिकारियों से पंगा ले लिया। लेकिन अब रोने से क्या फायदा? अब तो बस पुरानी गलतियों को याद करो एवं बैठे-बैठे भाग्य को कोसते रहो कि वह मुझसे आगे निकल गया, उसने इतनी तरक्की कर ली। भले तुम उन्हें ‘चमचा‘ आदि कहकर मन का कोप शांत कर लो, सच्चाई यह है कि वे आगे बढ़े हैं तो अपने संयम, श्रम एवं काबिलियत से। याद करो समकक्ष कर्मचारी तुम्हारे बॉस बनकर ऑफिस विजिट पर आते तब कैसी टें बोलती! तब जलने के अतिरिक्त चारा क्या था।

आज अनेक मित्र-रिश्तेदार धनी हो गए हैं तो सोचते हो काश! मैं भी इनकी तरह धनी होता। यह बात जवानी में सोचते तो बेहतर होता कि बुढ़ापे में धन निकटस्थ मित्र होता है। तब त्याग कर चार पैसे बचाते, संयम से विनियोजन करते तो अन्यों की तरह तुम्हारी फसल भी लहलहाती। तब तो बेपरवाह होकर खर्च करते थे। धन जेब को काटता था। अब कलपो!

पड़ोसियों से कौन-से तुम्हारे मधुर संबंध रहे काशीनाथ ? जब मौका मिला तुमने उन्हें भी आड़े हाथों लिया। याद है कॉमन दीवार से पड़ोसी का गमला एक बार तुम्हारी ओर गिर गया था। ऐसा होने से तुम्हारा गमला फूट गया। तब पड़ोसी को कैसी हिकारत से देखा था। तुम इतना भी नहीं समझ पाए कि पड़ोसी परमात्मा का प्रतिरूप होता है। मित्र-रिश्तेदारों से भी पहले विपत्ति में वह आता है।

तुम्हारे बड़बोले स्वभाव से तो बाप रे बाप, कौन दुःखी नहीं हुआ! हर बार हर स्थिति में इसी फिराक में रहते थे कि मैं बिल्ली मार लूँ। काश! धैर्य से कभी दूसरों की भी सुनते तो जीवन के अनेक गलत निर्णयों के लिए नहीं पछताते। तुम तो यह भी नहीं सोच पाए कि जब हम दूसरों की सुनते हैं तभी हमारे ज्ञान में बढ़ोतरी होती है। अच्छा श्रोता अनायास ही शांत रहकर अपने ज्ञान-विज्ञान एवं विवेक की धार पैनी कर लेता है। अनेक बार तुमने स्वयं महसूस किया कि काश! मैं दूसरों की सुनता तो मेरे निर्णय गलत नहीं होते।

स्वास्थ्य के प्रति तुम कौन-सा जागरुक रहे ? अब कौन-सा सुधर गए हो ? मिठाई देखते ही जुबान लपलपाती है। पूरी-पकवान तो फकीरों की तरह स्वप्न में दिखाई देते हैं। काश! तुम्हारी आदतें संयमित होती तो उच्च रक्तचाप, हृदयरोग आदि से पीड़ित नहीं होते। आज जो बीमारी पर इतना पैसा खर्च कर रहे हो, उसका मुख्य कारण तुम्हारी स्वयं की लापरवाही एवं अदूरदर्शिता ही है।

बवण्डर की तरह हर एक गिल्ट, हर एक अपराध, हर एक दुर्व्यवहार आज उनके विचार-व्योम पर गिद्धों की तरह मंडरा रहा था। उनकी आत्मा मानो बार-बार उनसे पूछ रही थी काश! तुम अपने भाई से नहीं लड़ते, काश! तुम्हारा व्यवहार पत्नी, मित्र, रिश्तेदारों, पड़ोसियों एवं जीवन में आने वाले हर एक व्यक्ति के साथ सुमधुर होता। काश! तुम अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से स्नेह रखते तो आज सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे तुम्हें आँखों पर रखते। अपने उच्चाधिकारियों से ढंग से पेश आते तो कैरियर खोने के गम में गमगीन नहीं होते। काश! तुम समय पर धन संग्रहण करते, संयम रखते तो आज विषम परिस्थितियों में नहीं होते। काश! तुम अपनी वाणी पर संयम रखते, काश! तुम अपने खाने-पीने की आदतंे सीमाओं में रखते, ऐसा करते, वैसा करते तो जीवन में कुण्ठा, निराशा एवं व्यर्थता का बोध नहीं होता। तुम्हारे पास विकल्प खुले थे, लेकिन तुम्हीं ने अवसर खो दिया। अब यह कहाँ संभव है ? शरीर जब झूलती मीनारों की तरह हिल रहा हो तो मनुष्य का कौन-सा स्वप्न फलित हो सकता है ? कौन-सा अरेचित मन रेचन पा सकता है ? कौन-सी अतृप्त अभिलाषाएं पूर्ण हो सकती हैं ?

यकायक उन्हें लगा वे बिल्कुल ऐसे तो नहीं थे। क्या उन्होंने निरुपमा को अनेक बार कहने का प्रयास नहीं किया ? मालती उन्हें प्राणों से अधिक प्यारी थी। उसे खुश करने के लिए उन्होंने क्या नहीं किया ? अपने बच्चों के कैरियर के लिए वे कब सजग नहीं रहे ? अपने साथी कर्मचारियों एवं उच्चाधिकारियों से उन्होंने बेवजह तो पंगा नहीं लिया ? उनके मित्र-रिश्तेदार-पड़ोसी आज भी उनका आदर करते हैं। उन्होंने भी इन रिश्तों को बनाने के लिए क्या नहीं किया ? स्वास्थ्य के प्रति वे कब जागरुक नहीं थे ? अब आदमी हर समय दण्ड तो नहीं पेल सकता। आज भी उनके पास इतना धन है कि वे आराम से जी सकते हैं। ऐसा होते हुए भी विचारों की यह आँधी आज उन्हें क्यों परेशान कर रही थी ? क्यों मात्र उनकी त्रुटियाँ, कमजोरियाँ एवं दुर्व्यवहार ही आज उनके मन-मस्तिष्क में झंझावत बनकर तैर रहे थे ?

सोचते-सोचते काशीनाथ की आँखें मुंद गई। भयभीत उनकी अंतरात्मा में असंख्य प्रश्न कौंधने लगे। वे मानो पुकार उठे, प्रभु! एक अवसर और दो तो उन सभी गलतियों की भरपाई करूँ। अपने एक-एक गुनाह का प्रायश्चित करूँ। अपने हर एक दुर्व्यवहार के लिए घर-घर जाकर क्षमा मांगूं, पर यह क्या……. ? उनकी देह ठण्डी क्यों पड़ गई है ? यकायक उन्हें लगा उनकी देह से एक अलौकिक तत्त्व विलग होकर उनसे कह रहा है, काशी! अब शांत हो जाओ। जाने-अनजाने मनुष्य कितनी गलतियाँ करता है, अनेक गुनाहों को अंजाम देता है लेकिन हर गलती, हर गुनाह, हर चालाकी अंततः अपना हिसाब मांग लेती है। तुम्हारा यह पश्चात्ताप, यह अंतर-मंथन उन गलतियों को चुकता करने के लिए ही है। यहाँ जितना चुका पाए, अच्छा है बाकी अब आगे जन्मों में विमोचित करना। चुकाना तो तुम्हें पड़ेगा ही। यह बात तुम जीते-जी समझते तो अच्छा होता, लेकिन अब तो ‘हंसा’ उड़ चला। अब तुम कुछ नहीं कर सकते।

संसार में समय-रथ भी क्या कभी थमा है ?

©  श्री हरिप्रकाश राठी

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 74 – लघुकथा –बेरोजगार …. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर सार्थक लघुकथा  “बेरोजगार….।  समाज में  सस्वचित्र प्रदर्शन या दिखावे की पराकाष्ठा हो गई है जिसे बेहद सुन्दर तरीके से श्रीमती सिद्धेश्वरी जी ने अपनी लघुकथा में वर्णित किया है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लेखनी को सदर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 74 ☆

? लघुकथा – बेरोजगार  …. ?

कड़कड़ाती ठंडक और नर्मदा नदी का किनारा। बड़े ही दान दाता दिखने लगते हैं आजकल।

कुछ थोड़ा बहुत सामान और जरूरत की वस्तु देने से फोटो लेकर और बड़े प्यार से बात कर उसकी गरिमा और बड़ा कर प्रदर्शन का चलन जोरों पर है।

जिससे कोई भी अछूता नहीं है। सदा की भांति एक नर्मदा भक्त जो हमेशा ठंड में कपड़ों का दान किया करता था। ऐसा उनका मानना था। पर दिखावा कभी नहीं किया करता, बस भोले की कृपा और माई नर्मदा की इच्छा कह कर आगे बढ़ता जाता था।

घाट पर ऊपर से नीचे सभी उसको पहचानते थे क्योंकि ठंड बहुत थी और वह उस दिन साड़ी और कुछ गरम स्वेटर लेकर गया हुआ था और कान टोपी मफलर बुजुर्गों के लिए बांट रहा था।

सुबह 7:00 बजे का समय था ठंड से सभी सिकुड़े, जो भी  फटे कपड़े रखे थे। कोई सोया कोई बैठा सभी के हाथ पांव ढके हुए थे।

महानुभाव बांटते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। सभी हाथ आगे बढ़ा कर ले रहे थे। अचानक दो हाथ आगे फटे कंबल से बाहर आए। महानुभाव ने पूछा… आप महात्मा है या साध्वी? आपको कौन सा कपड़ा दूं, तो अंदर से आवाज आई… मैं एक पढ़ा-लिखा ‘बेरोजगार’ हूँ। क्या? मेरे लिए कुछ कर सकते हैं? बांटने वालों को जोरदार झटका लगा वह बिना कुछ कहे आगे चल पड़े।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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