हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ हॉर्न ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “धन बनाम ज्ञान ”)

☆ लघुकथा – हॉर्न ☆

विनोद और राजन दोनों जल्दी में थे। उन्हें अस्पताल पहुंचना था जहाँ उनका एक दोस्त ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रहा था। सड़क दुर्घटना में वह बुरी तरह से घायल हो चुका था और इस समय उसके पास कोई नहीं था, एक अनजान आदमी ने उसे वहां तक पहुँचाया था। अत: उन दोनों की वहां उपस्थिति, रुपए-पैसे से उसकी सहायता और खून देने जैसी कई जरूरतों को पूरा करने के लिए बहुत जरूरी थी। इसलिए भीड़ भरी सड़क पर भी उनकी गाड़ी तेजी से दौड़ रही थी।

अचानक सड़क पर ही अपने आगे उन्हें एक बारात जाती दिखी। बारात में बहुत सारे लोग थे, जिन्होंने पूरी सड़क पर कब्ज़ा कर रखा था। दो-पहिया, ति-पहिया वाहन तो जैसे-तैसे निकल रहे थे, परन्तु कार या अन्य बड़े वाहनों के निकलने की गुंजाइश अत्यंत कम थी।

राजन ने जोर-जोर से कई बार हॉर्न भी दिया, परन्तु कुछ तो बैंड-बाजे की तेज़ आवाज और कुछ शादी में शामिल होने का नशा, बारातियों के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी।

राजन को क्रोध आ गया, “जी तो करता है सालों पर गाड़ी ही चढ़ा दूं। उधर हमारा दोस्त मर रहा है और इन्हें नाच-गाने की पड़ी है। बाप की सड़क समझ रखी है…।” राजन का चढ़ता पारा देख विनोद तुरंत कार से नीचे उतर गया, “हॉर्न मारने से कुछ नहीं होगा, बेमतलब में झगडा जरूर हो जाएगा। तू रुक मैं देख कर आता हूँ…।”

वहां जाते ही वह जोर-शोर से नृत्य करता हुआ उन बारातियों में शामिल हो गया। बाराती एक नए व्यक्ति को नृत्य में शामिल हुआ देख थोड़ा चौंक से गए और सभी कुछ पल में ही अपना नृत्य छोड़ उसे देखने लगे। विनोद ने मौका देख कर कहा, “नाचो यार, आप लोग क्यों रुक गए, नाचो। ऐसे मौके बार-बार थोड़े आते हैं। मुझे देखो, मेरा दोस्त अस्पताल में पड़ा है, जीवन-मृत्यु से जूझ रहा है, पर मैं फिर भी नाच रहा हूँ। भई ख़ुशी के समय ख़ुश और गम के समय दुखी दोनों होने चाहियें।”

भीड़ में सन्नाटा छा गया। विनोद हाथ जोड़ कर आगे बोला, “पर भाइयों और बहनों, एक विनती जरूर है मेरी कि थोड़ा सा रास्ता आने-जाने वालों को जरूर दे दें, कहीं आपकी वजह से वहां कोई दूसरा दम न तोड़ दे, धन्यवाद।” कह कर वह कार की तरफ चल पड़ा।

…अब उनकी गाड़ी फिर सरपट अस्पताल की तरफ दौड़ रही थी।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ प्रतिबिम्ब ☆ श्री हरिप्रकाश राठी

श्री हरिप्रकाश राठी

(सुप्रसिद्ध  साहित्यकार श्री हरिप्रकाश राठी जी ने यूनियन बैंक ऑफ़ इण्डिया से स्वसेवनिवृत्ति के पश्चात स्वयं को साहित्य सेवा में समर्पित कर दिया और अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। श्री राठी जी अपनी साहित्य सेवा के लिए अब तक कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं। इसके अंतर्गत ‘कथाबिंब’ पत्रिका द्वारा कमलेश्वर स्मृति श्रेष्ठ कथा सृजन पुरस्कार 2018, पंजाब कला साहित्य अकादमी द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान, विक्रमशीला विद्यापीठ द्वारा विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर जैमिनी अकादमी, हरियाणा द्वारा उत्कृष्ट कथा सृजन हेतु राजस्थान रत्न, राष्ट्रकिंकर नई दिल्ली द्वारा संस्कृति सम्मान, मौनतीर्थ फाउंडेशन उज्जैन द्वारा मानसश्री सम्मान, वीर दुर्गादास राठौड़ सम्मान, जोधुपर मेहरानगढ़ से निराला साहित्य एवं संस्कृति संस्थान बस्ती (यूपी) द्वारा राष्ट्रीय साहित्य गौरव सम्मान, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी एवं यूनेस्को द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक कहानी ‘ प्रतिबिम्ब’।) 

☆ कथा कहानी ☆ प्रतिबिम्ब ☆ श्री हरिप्रकाश राठी ☆ 

आसमान की छाती पर विचरने वाला अकेला चांद किससे बतियाता है? वह क्या इतना एकांतप्रिय हो गया है कि उसे किसी का संग नहीं सुहाता? यह भी तो हो सकता है कि ऐसा होना उसकी मजबूरी हो, उसके जैसा अन्य चांद तो विधाता ने रचा ही नहीं। क्या इसीलिए हर रात धरती पर स्वच्छ पानी में तैरते स्वयं के प्रतिबिंबों को वह साथ-साथ लिये घूमता है? क्या पता वे ही उसके मित्र एवं सुहृद हों एवं चांदनी की जुबां से वह गुपचुप उनसे बतियाता हो?

आसमान के चांद की तरह मैं भी इन दिनों बहुत एकांतप्रिय हो गया हूं। मुझे कोई सुहाता ही नहीं। चिड़चिड़ापन स्वभाव में उतर आया है। जिसे देखो काटने को दौड़ता हूं। कभी अखबार वाले, कभी तरकारी वाले तो कभी दूध वाले जिस पर भी मेरा वश चले डपटता रहता हूं। बस कोई मेरे हत्थे चढ़ जाए। ऑफिस के कर्मचारी तो मुझसे दूर ही रहते हैं मानो मैं कोई भेंटी मारने वाला मेढ़ा हूं। हर वक्त अजीब तरह के ख्याल आते रहते हैं। जी में आता है सबकी एैसी-तैसी कर दूं। कभी-कभी तो सोचता हूं मेरे दांत राक्षस जितने बड़े हो जाएं और मैं जिसे चाहूं दांतों के बीच रखकर पीस दूं। मेरे भीतर का पशु अपने दोनों सींग आगे कर खड़ा हो गया है, कोई सामने तो आए, सींग न घुसेड़ दूं तो कहना। सुना है ऑफिस के कुछ लोग मुझे ‘हिड़किया’ कहते हैं। कहते होंगे, मेरी बला से। हिम्मत हो तो सामने आए। ऐसी चटनी बनाऊंगा कि निलम्बन पत्र हाथ में लिये यहां-वहां रोते फिरेंगे। आखिर बॉस हूं मैं उन सबका। वे क्या जाने रात दिन काले करके मैंने प्रशासनिक परिक्षाएं उत्तीर्ण की हैं।

ये बीवियां भी जाने क्यों मैके चली जाती हैं? पांच-दस दिन की बात तो समझ में आती है पर दो-दो महीने घर से पीहर जाकर वे करती क्या हैं? बच्चों की समर वेकेशन क्या आ जाती है, पिल्लों को बगल में दबाओ और उड़ो पीहर। पीछे भले खसम रोता रहे। पीहर में क्या कारू का खजाना रखा है? जाने इन बावरियों को वहां क्या रस आता है? यहां चार कमरे कम पड़ते हैं, वहां एक कमरे में सब भाई-बहन घुस लेंगे। यहां के गाड़ी-घोड़े नहीं सुहाते वहां बाप की साइकल के पीछे कैरियर पर बैठकर रबड़ लेंगी। जब देखो एक ही राग, तुम्हारे मां-बाप से मिलने भी तो हर वर्ष गांव जाते हैं, फिर हमारे मां-बाप से क्यों न मिलें। बड़े-बुजर्गों के प्रति हमारा भी कोई धर्म है कि नहीं। मैंने जब कहा कि इन सब कामों के लिए तुम्हारा भाई जो है तो जुबान और लड़ाती है, फिर तुम्हारी बहनें गांव मां-बाप से मिलने क्यों आती हैं? यूं औरत की सारी अकल चोटी में होती है पर तर्क करती है तो लगता है यह चोटी नहीं तर्क की गठरी है।

इन दिनों ऑफिस से आकर आरामकुर्सी पर अकेला बैठा रहता हूँ। अब कोई कितना पढ़े! अखबार का अक्षर-अक्षर चाट लेता हूँ। खाना होटल से आ जाता है, खेलने-खुलने की मेरी प्रारंभ से ही आदत नहीं थी। मित्र मेरे स्वभाव की वज़ह से बनते नहीं। बस मुझे तो मेरा परिवार ही अच्छा लगता है। शाम को ऑफिस से घर आता हूं तो लगता है सुख एवं सुकून की सेज पर आ गया हूं। पत्नी से, बच्चों से बतियाने में मुझे स्वर्गिक प्रसन्नता मिलती है।

अकेले हो तो कोई मिलने भी नहीं आता और आते हैं तो ऐसे खूसट जिन्हें देखते ही आग लग जाती है। इन दिनों बगीचे में आरामकुर्सी पर बैठता हूं तो ऐसा ही एक बुड्ढ़ा मिलने आ जाता है। घर में ऐसे घुसता है जैसे मकान उसके बाप का हो। मुझे वे लोग जरा-भी नहीं सुहाते जो बिना अपाईंटमेन्ट दूसरों के घर धमक लेते हैं जैसे दूसरों के पास कोई काम धाम ही नहीं है और वे ठाले बैठे हों। इस बुड्ढे को भी किसी की परवाह नहीं। एक बार तो मन में आया आडे़ हाथों लूं , पर जाने उसकी आंखांे में कैसा सम्मोहन है, हिम्मत ही नहीं होती। इतना ही नहीं बिना अभिवादन किये मेरे सामने वाली कुर्सी पर आकर साधिकार बैठ जाता है। जाने क्यूं इस देश में बुजुर्गो के प्रति इतना सम्मान है? बुजुर्ग खूसट हो, बिलावज़ह मीन-मेख निकालता हो, बच्चों को परेशान करता हो, बस इन्हें झेलते जाओ। शुक्र है कि यह बुड्ढा आता तभी है जब मैं अकेला होता हूं। बीवी मैके गई उसके दूसरे-तीसरे दिन से लगातार आ रहा है। कल भी दो घण्टे बतिया कर गया है। बाप रे बाप! कितने प्रश्न, कितने सुझाव, कितनी समस्याएं एवं कितनी चिंताएं है इनके पास? देश-समाज इनके कंधों पर ही है!

कल कह रहा था, ‘कोठारीजी, क्या हो गया है देश की नई पीढ़ी को। बड़े-बुजुर्गों की परवाह ही नहीं। अदब-लिहाज सब भूल गए हैं, जाने किस धुन में खोये रहते हैं। जवानी तो इन्हीं को चढ़ी हैं। पहले तो कोई जवान ही नहीं हुआ। ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे ये कभी बुड्ढ़े नहीं होंगे। बरखुरदार उम्र किसी को बख़्शती है क्या? बच्चों को दुख-दर्द बताते हैं तो कहते हैं बैंक से रुपये निकालकर तीर्थ कर आओ। बीमारी का कहते है तो उत्तर मिलता है, ‘सुनते-सुनते हमारे कान पक गए, सामने तीन डॉक्टर हैं, बताकर क्यों नहीं आते? फीस हमसे ले जाओ। हर बात रुपयों से ढकने की कोशिश करते हैं। अरे जवानो! रुपये तो हमारे पास भी है, हम तो किसी बहाने तुम्हारा संग चाहते हैं। दो घड़ी हमारे पास भी बैठा करो। पर ऐसी बातें इनको नहीं सुहाती। फुरसत कहां है इनके पास! बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम करते हैं, मोटी पगार लाते हैं, सारा समय तो कंपनियों एवं बॉस की सेवा में लग जाता है। मां-बाप मरे इनकी बला से। हां, हर शनिवार एवं इतवार मित्रों के संग पिकनिक-पार्टियों पर जाने की इनको अवश्य फुरसत है। मां-बाप के अलावा सबके लिए समय है इनके पास।’ कहते-कहते बुड्ढा हांफने लगा। इस दरम्यान उसने तीन बार नकली बत्तीसी भी ठीक की।

मैं चुपचाप सुनता रहा। जी में तो आया उसके प्रश्न का करारा जवाब दूं, ‘आप कम हैं क्या? घड़ी-घड़ी नई पीढ़ी को कोसते रहते हैं। कंपनियां मोटी पगार यूं ही देती है क्या? सारा खून तो वहीं चुस जाता है। बची-कुची ताकत तुम्हारी तीखी नजरों को देखकर निकल जाती है। कुछ कहें तो पेंशन एवं जमा पूंजी की धौंस बताते हो। बस हर बार कांच दिखाते हो, देते कुछ भी नहीं। अरे, तिजोरियों में बंद रकम को हम क्या चाटें? जब देखो एक ही आलाप, मरने पर तुम्हारे ही काम आएगी। हम क्या छाती पर बांधकर ले जाएंगे? अब आपको कैसे समझाएं जवानी रीतने पर इस धन का हम करेंगे क्या? खुद सड़ोगे और औलादों को भी सड़ाओगे। ऊपर से यह शिकायत भी कि हमारे पास बैठते नहीं। अरे किसको पड़ी है तुम खूसटों के पास बैठने की। हर बार वही परम्पराओं का भैरवी आलाप। हमारे जमाने में यह था, वह था। इतना भी नहीं समझते कि अब जमाना बदल गया है, हम भी बदलें, बस हर समय नुक्ताचीं करवालो।’ खुंदक में जो जी मैं आया, कह गया।

आज फिर चले आए हैं जनाब। फिर सुनो इनके उपदेश! पैंतीस साल का युवा कब तक सत्तर साल के बुड्ढे को झेले? आज मैंने तय कर लिया है प्रश्नों का पहला तीर मैं ही डालूंगा। कभी हमारे बारे में भी तो सोचे। इन्हें क्या पता अकेले कैसे जी रहा हूँ। सुबह चाय बनाते हुये हाथ और जल गया। वे कुछ बोलने वाले ही थे कि मैं तपाक से बोला, ‘औरतों में तमीज जरा भी नहीं होती। कोई तरीका है महीनों-महीनों पीहर जाकर बैठने का! बस धूनी रमाती रहेेंगी। इतना भी नहीं सोचती बेचारे पतियों पर क्या गुजरेगी, कैसे अकेले रहते होंगे, मरे इनकी बला से। बस बुड्ढे़ मां-बापों की सेवा करनी है। सास-श्वसुर है कि मुंह फाड़े राक्षस। बस चले तो जंवाई को दांतों से पीस दें।’ अभी मैं इसी तात्कालिक समस्या से पीड़ित था। जो भीतर था, बाहर उडेल दिया।

बुड्ढा कुछ देर तो मुझे चुपचाप देखता रहा फिर बोला, ‘इतना गुस्सा क्यों होते हो? बुड्ढे सास-श्वसुर क्या हमेशा के लिए रहेंगे? उन्हें भी कुछ पल रहने दो बेटी-नातियों के साथ। बुढ़ापे में यही पल तो सुकून देते हैं।’

‘अरे, उनके बुढ़ापे को सुधारने के लिए मैं जवानी पेल दूं? दस साल से गाये जा रहे हैं अब कितने दिन बचे है, हमारी तो उम्र की उल्टी गिनती चालू हो गई है। बस भय बताते रहते हैं। उम्र तो इनकी ऐसे ठहर गई है जैसे गड्ढे में पानी।’ आज मैंने भी करारा जवाब दिया। आखिर कोई कब तक सहन करें।

‘बहुत अधीर हो तुम! कभी तुम भी तो बुड्ढे मां-बाप बनोगे? तुम भी तो अपने बेटी-नातियों की राह तकोगे? तुम्हारी बेटी को तुम्हारे दामाद ने रोक लिया तो? खुद पर पड़ेगी तब समझ में आएगा। तुम भी तो कभी बीमार पड़ोगे, तुम्हारा शरीर भी तो कभी जवाब देगा। उस समय तुम्हें सहारा देने की बजाय कोई सड़-मरने को छोड़ देगा, तब तुम्हें समझ में आएगा कि बुड्ढों को बड़ा घर, धन-दौलत, अच्छे डॉक्टर एवं अस्पताल नहीं चाहिए। उन्हें तो सिर्फ कुछ क्षण चाहिए अपने बच्चों के साथ बिताने के लिए। यही उनकी निधि है। उनकी बीमारी का भी यही इलाज है।’ कहते-कहते बुड्ढे की आंखें गीली हो गई। मैं कुछ कहता उसके पहले ही वे उठे, अपने चोगे के लटकते सिरे को ऊपर कर आंखों की कोर पोंछी एवं चुपचाप चले गए।

मैं चाहकर भी उन्हें नहीं रोक पाया। यहां तक कि मैं कुर्सी से उठ भी नहीं पाया। किसी ने मेरा स्तंभन कर दिया। जाते-जाते उनके पांव डगमगा रहे थे।

क्षणभर के लिए मुझे लगा बुढ़ापे में मेरी भी चाल ऐसी ही हो जाएगी, मेरे चेहरे पर उनकी तरह झुर्रियां उतर आएंगी एवं मैं भी उनकी ही तरह खूसट, परम्परावादी एवं असहाय हो जाऊंगा।

न जाने क्यों आज मुझे उनकी शक्ल मेरी शक्ल से मिलती-जुलती लगी? मैं उन्हें रोकता तब तक वे उठकर चले गए।

मैं सकपका गया। खामख्वाह पंगा लिया। कल आ तो रहे हैं बीवी-बच्चे। अकारण अपनी कुण्ठा एक बुजुर्ग के मत्थे मढ़ दी। अब वो शायद ही आए।

मैंने ठीक ही सोचा था। बीवी-बच्चों को आए आज दस रोज हो गए हैं। इस दरम्यान बुड्ढा न तो कहीं दिखाई दिया न ही फिर आया।

वह आता भी कैसे? कुर्सी के उस पार मैं ही तो बुड्ढा बनकर बैठता था, अपने एकाकीपन का साथी ढूंढ़ने के लिए, स्वयं द्वारा स्वयं के प्रतिरूप से सवाल-जवाब करने के लिए, ठीक वैसे ही जैसे आसमान का अकेला चांद हर रात अपने प्रतिबिंबों से बिना कुछ बोले बतियाता है!

 

©  श्री हरिप्रकाश राठी

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 56 ☆ लघुकथा – ऐसे थे दादू ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा ‘ऐसे थे दादू’।  एक अतिसुन्दर शब्दचित्र। लघुकथा पढ़ने मात्र से पात्र ‘दादू ‘ की आकृति साकार हो जाती है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इसअतिसुन्दर लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 56 ☆

☆  लघुकथा – ऐसे थे दादू

दादू की फोटो और शोक सम्वेदना के संदेश कॉलेज के व्हाटसएप समूह पर दिख रहे थे, उन्हें पढते- पढते  मेरे कानों में आवाज गूंज रही थी –  नमस्कार बाई साहेब और इसी के साथ दादू का चेहरा मेरी आँखों के सामने आ गया- बडी – बडी आँखें, सिर पर अस्त–व्यस्त दिखते घुंघराले बाल। मुँह में तंबाखू भरा रहता और चेहरे की झुर्रियां उसकी उम्र गिना सकती थीं। दादू हमारे कॉलेज का एक बुजुर्ग सफाई कर्मचारी जो हमेशा सफाई करता ही दिखाई देता था। आप कहेंगे कि सफाई कर्मचारी  है तो साफ- सफाई ही करेगा ना ? इसमें बडी बात क्या है ? बडी बात है दादू का मेहनती स्वभाव। जो उम्र आराम से घर में बैठने की थी उसमें वह निरंतर काम कर रहा था। दादू के रहते कॉलेज के रास्ते हमेशा साफ – सुथरे ही दिखाई देते। कभी – कभी जो सामने दिख जाता उससे वह पूछता – कोई कमी तो नहीं है साहब ? सारे पत्ते साफ कर दिए हैं। पगार लेता हूँ तो काम में कमी क्यों करना ? आजकल के छोकरे काम नहीं करना चाहते बस पगार चाहिए भरपूर। काम पूरा होने के बाद ही वह कॉलेज परिसर में कहीं बैठा हुआ दिखता या डंडेवाली लंबी झाडू कंधे पर रखकर चाय पीने कैंटीन की ओर जाता  हुआ। दादू  के कंधे अब झुकने लगे थे, झाडू कंधे पर रखकर जब वह चलता तो लगता झाडू के बोझ से गर्दन  झुकी जा रही है। रास्ते में चलते समय बीच –बीच में चेहरा उठाकर ऊपर देखता, सामने किसी टीचर के दिखने पर बडे अदब से हाथ उठाकर नमस्कार करता। उसकी मेहनत के कायल हम उसे अक्सर चाय पिलाया करते थे। कभी- कभी वह खुद ही कह देता – बाई साहेब बहुत दिन से चाय नहीं पिलाई आपने। मैं संकेत समझ जाती और उसे चाय – नाश्ता करवा देती।

दादू  के बारे में एक विद्यार्थी ने बडी रोचक घटना बताई – कॉलेज के एक कार्यक्रम के लिए दादू  ने काफी देर काम किया था। मैंने उस विद्यार्थी के साथ दादू को  नाश्ता करने के लिए कैंटीन भेजा।  कैंटीन में जाने के बाद दादू खाने की चीजें मंगाता ही जा रहा था समोसा, ब्रेड वडा और भी ना जाने क्या – क्या। विद्यार्थी परेशान  कि पता नहीं कितने पैसे देने होंगे, मैडम को क्या जबाब दूंगा। भरपेट नाश्ता करने के बाद  दादू ने पूरा बिल अदा कर दिया और साथ आए विद्यार्थी से बोला – बेटा ! बस पचास रुपए दे दो, नाश्ता उससे ज्यादा का थोडे ही ना होता है, पर क्या करें आज सुबह से कुछ खाया नहीं था तो भूख लगी थी। ऐसे थे दादू।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लघुकथा – तिलिस्म ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆  लघुकथा – तिलिस्म ☆

….तुम्हारे शब्द एक अलग दुनिया में ले जाते हैं। ये दुनिया खींचती है, आकर्षित करती है, मोहित करती है। लगता है जैसे तुम्हारे शब्दों में ही उतर जाऊँ। तुम्हारे शब्दों से मेरे इर्द-गिर्द सितारे रोशन हो उठते हैं। बरसों से जिन सवालों में जीवन उलझा था, वे सुलझने लगे हैं। जीने का मज़ा आ रहा है। मन का मोर नाचने लगा है। महसूस होता है जैसे आसमान मुट्ठी में आ गया है। आनंद से सराबोर हो गया है जीवन।

…सुनो, तुम आओ न एक बार। जिसके शब्दों में तिलिस्म है, उससे जी भरके बतियाना है। जिसके पास हमारी दुनिया के सवालों के जवाब हैं, उसके साथ उसकी दुनिया की सैर करनी है।

…..कितनी बार बुलाया है, बताओ न कब आओगे?

लेखक जानता था पाठक की पुतलियाँ बुन लेती हैं तिलिस्म और दृष्टिपटल उसे निरंतर निहारता है। तिलिस्म का अपना अबूझ आकर्षण है लेकिन तब तक ही जब तक वह तिलिस्म है। तिलिस्म में प्रवेश करते ही मायावी दुनिया चटकने लगती है।

लेखक जानता था कि पाठक की आँख में घर कर चुके तिलिस्म की राह उसके शब्दों से होकर गई है। उसे पता था अर्थ ‘डूबते को तिनके का सहारा’ का। उसे भान था सूखे कंठ में पड़ी एक बूँद की अमृतधारा से उपजी तृप्ति का। लेखक परिचित था अनुभूति के गहन आनंद से। वह समझता था महत्व उन सबके जीवन में आनंदानुभूति का। लेखक जानता था तिलिस्म, तिलिस्म के होने का। लेखक जानता था तिलिस्म, तिलिस्म के बने रहने का।

लेखक ने तिलिस्म को तिलिस्म रहने दिया और वह कभी नहीं गया, उन सबके पास।

# हमारे शब्द आनंद का अविरल स्रोत बनें।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ महामारी ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज  प्रस्तुत है, महामारी के दौरान मध्यमवर्गीय परिवारों  की समस्याओं पर आधारित कहानी महामारी। )  

☆ कथा कहानी – महामारी

पम्मी और दम्मी दोनों सहेलियाँ एक काव्य गोष्ठी से लौट रही थी । पम्मी को अपनी कविता पढ़ने का पहला मौका मिला था, जब कि दम्मी के लिए यह चौथा कवि सम्मेलन था । यह जगह दम्मी के घर से बहुत दूर था । पम्मी भी  उसके घर से थोडी दूर पर रहती थी । आज दोनों साथ में काव्य गोष्ठी के लिए गई थी । वहां पर सबने अपनी-अपनी कविता पढ़ी और आते समय पम्मी ने एक टैक्सी बुक करी । घर दूर होने के कारण कोई भी आने के लिए तैयार नहीं था । अंत में एक टैक्सी ने आने के लिए स्वीकार किया । उसने पूछा, आपको कहां जाना है ?

तो पम्मी ने बताया कि हमें चामराज नगर जाना है । आप हमें वहां छोड देंगे। अभी तो शाम के सात बजे है ।

मेमसाब, मेरा घर भी उसी तरफ है । मैं आप लोगों को छोडता हुआ घर चला जाऊँगा। मेमसाब यह जगह बहुत दूर है । यहाँ पर आप लोगों को कोई भी टैक्सी नहीं मिलेगी । कहते हुए ड्राइवर ने दोनों को अपनी गाडी में बैठने के लिए कहा ।

जाते हुए पम्मी अपनी सहेली दम्मी को कह रही है कि, अरी! वो इन्दु ने बहुत ही अच्छा गीत प्रस्तुत किया । विद्या तो लाजवाब है । सब से अच्छा गीत तो आपने भी प्रस्तुत किया ।

ड्राइवर इन दोनों की बात सुन रहा था । अचानक उसने पूछा, मेमसाब आप लोग लिखते हो क्या ? अगर हो सके तो मेरी भी कहानी लिख दीजिए । सच में कभी लगता है कि हमारी भी कोई कहानी लिखकर देखें तो कितना दर्द है हमारी जिंदगी में ।

दम्मी ने उससे पूछा कि आपकी जिंदगी में ऐसा क्या हो गया है ? जिसकी वजह से आप इतने परेशान हो । कुछ बताएँगे आप । वैसे तो सबकी अपनी परेशानी होती है । सब यही समझते है कि हमारे दुःख ज्यादा है ।

मेमसाब मुझे दूसरों के बारे में पता नहीं है, लेकिन मेरे लिए तो एक-एक दिन बहुत महंगा है । लगता है कोई कहानी लिखकर दुनिया को क्यों नहीं बताता है । हर दिन एक नयी बात हम सीखते है । कहते हुए अपनी गाडी की रफ्तार कम करता है ।

दम्मी को उसकी बात सुनकर अजीब लगता है, वह कहती है, भैया ऐसा क्या है जो आप इतने दुखी है । अगर मुझे बतायेंगे तो कुछ कहानी के माध्यम से ही मदद कर सकती हूँ । मैं एक लेखिका हूं और कहानी लिखकर  लोगों तक आपके विचार पहुंचाने में मदद कर सकती हूं ।

तो सुनिए । मैं चामराजनगर के पास एक झौंपड़ी में रहता हूँ । मैंने पढ़ाई ज्यादा नहीं की है । मैंने दसवीं कक्षा तक ही पढाई की है । मैं बहुत नटखट था । उस समय मुझे पढ़ने का इतना शौक नहीं था, जितना कमाने का । लगा कि रुपया कमाना आसान है । पढ-लिखकर करना क्या है ? मेरे पिताजी ऑटो चलाते थे । वे चाहते थे कि मैं पढ लिखकर अच्छा काम करुँ । उन्हों ने मुझे बहुत मारा, मैंने उनकी एक न मानी और पढाई छोड दी । वे मेरा भला ही चाहते थे । मैं भी बहुत उद्दंड था । किसी की भी बात नहीं मानता था । सिर्फ अपने मन की सुनता था । एक दिन ऐसे ही जब सोचा कि पैसे कमाने है । कैसे? अब आगे करना क्या है? जब मैंने सोचा तो मुझे पापा का ऑटो तो नहीं चलाना था । मैंने पापा से कहा, आप चिंता ना करो । मैं अपनी जिंदगी का जुगाड कर लूंगा । मेरी चिंता में ही मेरे पापा का देहांत हो गया । घर की सारी जिम्मेदारी मेरे कंधो पर थी । मैंने भी बैंक से ऋण लेकर एक टैक्सी खरीदी । यही टैक्सी है मेमसाब ।

अब आपको क्या परेशानी है? कुछ भी समझ नहीं आ रहा है ? अभी तो आपका बैंक का ऋण भी चुकता हो गया   होगा । कहते हुए दम्मी शीशे की खिडकी से बाहर की ओर देखती है ।

मेमसाब अभी तो परेशानी के बारे में मैंने आपको बताया नहीं है। मेरी परेशानी कुछ और ही है । सुनिए तो! कहते हुए ड्राइवर अपनी जिंदगी की कहानी को आगे बढाता है । मेमसाब मैंने टैक्सी चलाना शुरु किया और बैंक का कर्ज भी मुझे ही चुकता करना था । अब मैं अपने कर्ज को देखूं या घर को । उसके ऊपर मेरी माँ ने मेरी शादी कर दी । मैंने सोचा कि मुझे बच्चे नहीं चाहिए । मैंने अपनी पत्नी को समझाया । रोज़ मैं टैक्सी लेकर भोर होते ही निकल पडता हूं और रात तक बाहर रहता हूं । जितनी कमाई होती है उससे थोडा कर्ज चुकता करता हूं और थोडा घर में देता हूं । एक दिन आपने भी सुना होगा की टैक्सीवालों ने आंदोलन किया था। हम भी टैक्सी खरीदते है और कमाई के लिए किसी कंपनी में काम करते है । जैसे अभी आपने एक एप के द्वारा मुझे बुलाया । मैं उन्हीं लोगों के लिए रुपये के वास्ते काम करता हूँ । आप जो रुपया मुझॆ देते हो उसमें से कुछ प्रतिशत उनके लिए होते है । सब ने सोचा कि अगर वे हमें थोडा वेतन ज्यादा दे तो अच्छा है । वही सोचकर उन्होंने आंदोलन किया था ।

हाँ सुना तो था । इतना तो पता चला कि वेतन बढ़ाने के लिए आंदोलन किया । क्या हुआ कुछ भी पता नहीं चला ? ऐसे तो होता ही रहता है । कहते हुए दम्मी कार में ठीक तरह से बैठती है ।

सुनिए मेमसाब । उस वक्त हमें आंदोलन में भाग लेने के लिए मजबूर किया गया । हमारे घर की स्थिति बहुत बिगड चुकी थी । घर में मैं अकेला ही कमानेवाला था । रोज़ जो भी मैं कमाकर अपनी पत्नी को देता था, उसीसे गुज़ारा होता था । अगर मेरे घर जाने में देर हो गई तो घर पर सब मेरा इंतजार करते थे ।

अरे! तुम तो कह रहे थे कि तुम्हारे बच्चे नहीं है । घर में सब मतलब…..और तुम्हारे घर में और कौन-कौन है ? पूछते हुए कार में आगे के आइने में दम्मी उसका चेहरा देखती है ।

मेमसा’ब मेरे बच्चे अभी तक मैंने नहीं सोचा है । मेरे छोटे भाई और बहिन है, जिनकी पढाई और शादी अभी तक बाकी है । शायद मेरे पापा इसलिए ही परेशान थे कि मैं बडा बेटा हूं । घर की ओर ध्यान नहीं दे रहा हूं । आज घर में इतनी परेशानी है कि मैं चावल ले जाकर दू तभी घर में खाना बनता है । आंदोलन की वजह से घर में सब भूखे थे । घर में सब को देखकर मुझे भी परेशानी होती थी । मेरे आंखों में भी आंसू आते थे । मैं अपने आंसू किसी को नहीं दिखाता था । मुझे लगता था कि अगर मालिक मान गये तो सारी परेशानी दूर हो जाएगी । सिर्फ मैं अकेला नहीं था । हमारे जैसे अनेक लोग आंदोलन में शामिल थे ।  मैं अकेला कुछ नहीं कर सकता था । बल्कि धीरे-धीरे माजरे का कुछ और ही रुख बदल गया । वहाँ पर हमारे यूनियन लीडर को कुछ पैसे दे दिये ताकि मामला रफा-दफा हो जाए । उसने एक हफ्ते के बाद रुपये लेकर मामले को दबा दिया ।

हम लोग इंतजार करते रहे कि कुछ अच्छा नतीजा निकलेगा । कुछ तो अच्छा होगा । मेमसाब सच तो यह है कि कुछ भी नहीं हुआ । बल्कि घर में परेशानी और बढ़ गई । मेमसाब अगर हो सके तो आप इस कहानी को ज़रुर लोगों के समक्ष रखियेगा ।

ड्राइवर पम्मी के घर के पास अपनी कार खडी करते हुए कहता है मेमसाब आपका घर आ गया है । एक हज़ार रुपये हुए है । वह रुपये लेकर वहां से चला जाता है । दम्मी और पम्मी दोनों उसके कार को ही देखते रह जाती  है ।

दम्मी को उसकी बात सुनकर बहुत दुख हुआ । उसने पम्मी से कहा, देखना मैं एक दिन इस ड्राइवर की कहानी लिखूंगी । लोगों को सचेत करना है कि पढाई करें । जीवन में पढना भी ज़रुरी होता है। आज नवयुवक पढाई के ओर कम ध्यान देते है,बाद में पछताते है । कम से कम स्नातक तो करना ही है वरना इस ड्राइवर के जिंदगी की तरह बर्बाद कर लेंगे । यह ठेकेदारों ने भी अपन वर्चस्व जमाकर रखा है । भ्रष्टाचार के बारे में भी मुझे बताना है ।

भ्रष्टाचार? मुझे तो भ्रष्टाचार के अलावा सिर्फ एक गरीब व्यक्ति के घर का दुख ही नज़र आया, कहते हुए पम्मी अपने घर की तरफ जाती है ।

दम्मी भी अपने घर लौटती है । रात के नौ बजे उसने सोचा की थोडा समाचार देख लेते है । बाद में खाना  खाऊँगी । जैसे ही उसने दूरदर्शन देखा, महामारी के कारण इक्कीस दिन का लोकडाउन घोषित किया गया है ।

दम्मी लोकडाउन सुनते ही परेशान हो गई । लोकडाउन मतलब कोई बाहर नहीं जाएगा । संपूर्ण देश में लोग अपने ही घर में कैद रहेंगे । दम्मी ने तुरंत सोचा कि घर में कुछ राशन है, उससे ही काम चलाना पड़ेगा । कोई दूसरा उपाय नहीं है । पूरे मोहल्ले में सन्नाटा है । दम्मी थोडी परेशान होकर अपनी बाल्कनी से देख रही थी ।  उसके घर के पास एक झौपडी है । वहाँ से आवाज़ आ रही है । वैसे तो रोज़ होता है, आज सन्नाटे की वजह से स्पष्ट रुप से सुनाई दे रही था । दम्मी मन ही मन सोचती है, मैं चाहकर भी उनकी आर्थिक स्थिति में मदद नहीं कर सकती हूँ । मध्यमवर्गीय परिवार की अपनी अलग दुविधा होती है । वे न तो गरीबी में आते है,न तो अमीरों की तरह रुपया किसी को दे सकते है । वह भूखे भी मर जाएँगे लेकिन किसी से भी नहीं मांगेगे । दम्मी अपनी असहायता को भी किसी से बांट नहीं सकती थी, वह मात्र एक मूक दृष्टा बनकर वहाँ पर सब देख रही थी ।

अरी ओ! कलमुही कुछ काम कर, उठ । पूरा दिन सोती रहती है । बच्चा तो हमने भी जना है, लेकिन ऐसे सोते नहीं रहते थे । आजकल की छोरियाँ पता नहीं क्या हो जाता है ? थोडा सा कुछ हो जाता है और आराम करने लगती है । आज अगर काम पर नहीं गए तो घर पर क्या बनाएंगे ? कुछ भी तो नहीं है । कहते हुए सांवली माही अपनी बहु कमली पर चिल्लाती है ।

कमली को तीन महीने हुए है । उसकी कमर में बहुत दर्द हो रहा है । उसका पति रोनक भी ऑटो चलाता है । अब घर में कोई कमाई नहीं थी । अब यह लोग करें तो भी क्या? माही सारा दुख नहीं झेल पाती थी  और कमली पर चिल्लाती है ।  बेचारी कमली!… उसका पति भी कमली का साथ नहीं देता । माही उसे अपने पिता जी के घर से कुछ रुपया लाने के लिए कहती है । कमली का मायका भी गरीब था । उपर से  पूरे देश में लोकडाउन था । आने-जाने की सुविधा भी नहीं थी । उसने गोपाल से कहा कि वह अपने मायके अभी नहीं जा सकती है । गोपाल ने भी उसकी बातों को अनसुना कर दिया ।

उसे पता चला कि कुछ लोग चलकर रास्ता पार करते हुए अपने घर पहुँच रहे है । मजदूरों के लिए शहर में रहना  बहुत ही मुश्किल था । अपने घर जाने के लिए कोई भी व्यवस्था नहीं थी । सबने तय किया कि वे चलकर ही कई किलोमीटर का फासला पार करेंगे । बीच में रुककर थकान मिटा लेंगे । अब कमली को भी इस बात का पता चला । उसने भी तय किया, वैसे भी यहां पर उसकी कोई कद्र करनेवाला नहीं है । दूसरे दिन सुबह वह घर से निकली । घर में किसी ने भी उसे जाने से मना नहीं किया । उसका मायका बहुत दूर था ।

गर्भवती कमली थक जाती थी । पानी पीते हुए बीच में आराम करते हुए उसने कुछ किलोमीटर तय किए । बाद में वह अपने मायके नहीं पहुंच सकी । बीच में ही उसकी मृत्यु हुई । उसके घर पर पुलिस भी आई । माजरा दबा दिया         गया । माही बहुत चालाक थी । उसने सारी घटना में कमली की गलती को ही बताया । पुलिस भी वहां से चली गई । मैं सब देख रही थी । मैं  कमली के लिए कुछ न कर सकी, उसका दुख हमेशा के लिए रह गया । सच में लोकडाउन के कारण अच्छा भी हुआ है और बुरा भी । अच्छा तो बहुत कम लेकिन बुरा बहुत हुआ है ।  कितने परिवार परेशान हो रहे है । उससे अच्छा होता कि वे किसी महामारी के शिकार होकर मर जाते । जब मैंने ऐसा सोचा तो तुरंत मुझे टैक्सी ड्राइवर की बात याद आ गई । मुझे उसकी परेशानी कम और यह सब अधिक लगने लगा । मुझे लगा कि ड्राइवर से भी ज्यादा परेशानी इन लोगों की है ।

मुझे लगता था कि सिर्फ अनपढ लोग ही परेशान होते है । मैं इस सोच में गलत थी । मेरे पडोस में एक अध्यापक भी परेशान थे । एक दिन मैंने ऐसे ही उनके हालचाल के बारे में पूछ लिया था ।

क्या बताएँ दम्मी जी अभी तो नौकरी भी रहेगी कि या नहीं उसका पता नहीं है । हमारे यहाँ तो किसी से भी सवाल करने का अधिकार नहीं रखते है । उसके उपर तनख्वाह भी बहुत कम दे रहे है । मेरे दो बच्चे है, उनकी पढाई के लिए भी रुपये नहीं जोड़ पा रहा हूं । हम मध्यमवर्गीय परिवार भीख भी तो नहीं मांग सकते। हम लोग बहुत बुरी अवस्था में है । ऊपर से अभिभावक भी आंदोलन कर रहे है । बच्चे की फीस इस बार कम देंगे । हमारे पास तो फीस कम देने के लिए भी पैसे नहीं है । इस साल हम बच्चों का दाखिला नहीं करवायेंगे तो कुछ नहीं होगा । ज्यादा से ज्यादा क्या होगा ? बच्चे का साल ही तो बरबाद होगा । सोच लेंगे कि हमारा बच्चा पांचवी में ही पढ रहा है ।  इसमें आप भी क्या कर सकती है ? हम सब अपने-अपने करम करते है, फल भी कर्मों का ही भुगत रहे है । दम्मी जी हमारी पढाई का कोई फायदा नहीं है, कहते हुए दुःखी होकर वे अपने घर के अंदर चले जाते है ।

दम्मी खडी-खडी इन सबके बारे में सोचते हुए लग रहा है कि समाज में परेशानी ही ज्यादा है । कोई भी तो सुखी नहीं है । कई लोग दुःखी है, अब भगवान ने हमें भी तो इतना नहीं दिया है कि किसी परिवार की आर्थिक परेशानी दूर कर सकें । सिर्फ स्वयं का देख लें, बहुत बडी बात है । यह महामारी सबको ले डूबेगी, ऐसा लगता है ।

©  डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

लेखिका व कवयित्री, सह प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, जैन कॉलेज-सीजीएस, वीवी पुरम्‌, वासवी परिसर, बेंगलूरु।

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 55 ☆ लघुकथा – दमडी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर एक लघुकथा ‘दमडी’। आज की लघुकथा हमें मानवीय संवेदनाओं, मनोविज्ञान एवं  विश्वास -अविश्वास  के विभिन्न परिदृश्यों से अवगत कराती है।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  इस  संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 55 ☆

☆  लघुकथा – दमडी

माँ! देखो वह दमडी बैठा है, कहाँ ? सहज उत्सुकता से उसने पूछा।  बेटे ने संगम तट की ढलान पर पंक्तिबद्ध बैठे हुए भिखारियों की ओर इशारा किया। गौर से देखने पर वह पहचान में आया – हाँ लग तो दमडी ही रहा है पर कुछ ही सालों में कैसा दिखने लगा ? हड्डियों का ढांचा रह गया है। दमडी नाम सुनते ही  मानों किसी ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। दमडी की दयनीय अवस्था देखकर दया और क्रोध का भाव एक साथ माँ के मन में उमडा। दमडी ने किया ही कुछ ऐसा था। बीती बातें बरबस याद आने लगीं – दमडी मौहल्ले में ही रहता था, सुना था कि वह दक्षिण के किसी गांव का है। कद काठी में लंबा पर इकहरे शरीर का। बंडी और धोती उसका पहनावा था। हररोज गंगा नहाने जाता था। एक दिन घर के सामने आकर खडा हो गया, बोला –बाई साहेब रहने को जगह मिलेगी क्या ? आपके घर का सारा काम कर दिया करूँगा। माँ ने उसे रहने के लिए नीचे की एक कोठरी दे दी। दमडी  के साथ उसका एक तोता भी आया, सुबह चार बजे से दमडी  उससे बोलना शुरू करता – मिठ्ठू बोलो राम-राम। इसी के साथ उसका पूजा पाठ भी चलता रहता। सुबह हो जाती और दमडी  गंगा नहाने निकल जाता।  सुबह शाम उसके मुँह पर राम-राम ही रहता। माँ खुश थी कि घर में पूजा पाठी आदमी आ गया है। वह घर के काम तो करता ही बच्चों की देखभाल भी बडे प्यार से करता। दमडी  की दिनचर्या और उसके व्यवहार से हम सब उससे हिलमिल गए थे। दमडी  अब हमारे घर का हिस्सा हो गया। यही कारण था कि उसके भरोसे पूरा घर छोडकर हमारा पूरा परिवार देहरादून शादी में चला गया। माँ पिताजी के मन में यही भाव रहा होगा कि दमडी  तो है ही फिर घर की क्या चिंता।

उस समय  मोबाईल फोन था नहीं और घर के हालचाल जानने की जरूरत भी नहीं समझी किसी ने। शादी निपटाकर हम खुशी खुशी घर आ गए। कुछ दिन लगे सफर की थकान उतारने में फिर घर की चीजों पर ध्यान गया। कुछ चीजें जगह से नदारद थी, माँ बोली अरे रखकर भूल गए होगे तुम लोग। एक दिन सिलने के लिए सिलाई मशीन निकाली गई, देखा उसका लकडी का कवर और नीचे का हिस्सा तो था पर सिलाई मशीन गायब। अब स्थिति की गंभीरता समझ में आई और चीजें देखनी शुरु की गई तो लिस्ट बढने लगी। अब पता चला कि सिलाई मशीन, ट्रांजिस्टर, टाईपराईटर, बहुत से नए कपडे और भी बहुत सा सामान  गायब था। दमडी  तो घर में ही था उसका  मिठ्ठू बोलो राम-राम भी हम रोज सुन रहे थे। सब कमरों में ताले वैसे ही लगे थे, जैसे हम लगा गए थे, फिर सामान गया कहाँ ? दमडी को  बुलाया गया वह एक ही बात दोहरा रहा था—बाईसाहेब  मुझे कुछ नहीं पता। कोई आया था घर में, नहीं बाई, तो घर का सामान गया कहाँ ? हारकर पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई। पुलिस मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी पूरी कर रही थी, रोज शाम को पुलिसवाले आ जाते, चाय – नाश्ता करते और दमडी की पिटाई होती। पुलिस की मार से दमडी चिल्लाता और हम बच्चे पर्दे के पीछे खडे होकर रोते। रोज के इस दर्दनाक ड्रामे से घबराकर पुलिस के सामने पिताजी ने हाथ जोड लिए। इस पूरी घटना का एक भावुक पहलू यह था कि चोरी गया ट्रांजिस्टर मेरे मामा का दिया हुआ था जिनका बाद में अचानक देहांत हो गया था। माँ दमडी के सामने रो रोकर कह रही थी हमारे भाई की आखिरी निशानी थी बस वह दे दो, किसी को बेचा हो तो हमसे पैसे ले लो, खरीदकर ला दो। माँ के आँसुओं से भी दमडी टस से मस ना हुआ। उसने अंत तक कुछ ना कबूला और माँ ने उसे यह कहकर घर से निकाल दिया कि तुम्हें देखकर हमें फिर से सारी बातें याद आयेंगी।

इसके बाद कई साल दमडी का कुछ पता ना चला। कोई कहता कि मोहल्ले के लडकों ने उससे चोरी करवाई थी, कोई कुछ और कहता। हम भी धीरे धीरे सब भूलने लगे। आज अचानक उसे इतनी दयनीय स्थिति में देखकर माँ से रहा ना गया पास जाकर बोली – कैसे हो दमडी ? बडी क्षीण सी आवाज में हाथ जोडकर वह बोला – माफ करना बाईसाहेब। माँ वहाँ रुक ना सकी, सोच रही थी पता नहीं इसकी क्या मजबूरी रही होगी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ भूकंप ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ भूकंप ☆

पहले धरती में कंपन अनुभव हुआ। फिर तने जड़ के विरुद्ध बिगुल फूँकने लगे। इमारत हिलती-सी प्रतीत हुई। जो कुछ चलायमान था, सब डगमगाने लगा। आशंका का कर्णभेदी स्वर वातावरण में गूँजने लगा, हाहाकार का धुआँ अस्तित्व को निगलने हर ओर छाने लगा।

उसने मन को अंगद के पाँव-सा स्थिर रखा। धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा। अब बाहर और भीतर पूरी तरह से शांति है।

 

©  संजय भारद्वाज

17 जनवरी 2020 , दोपहर 3:52 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ धन बनाम ज्ञान ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “धन बनाम ज्ञान ”)

☆ लघुकथा – धन बनाम ज्ञान ☆

दोनों कॉलेज के दोस्त अरसे बाद आज रेलवे स्टेशन पर अकस्मात् मिले थे। आशीष वही सादे और शिष्ट् कपड़ों में था, हालांकि कपड़े अब सलीके से इस्त्री किये हुए और थोड़े कीमती लग रहे थे, जबकि दिनेश उसी तरह से सूट-बूट में था, पर उसके कपड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता था कि उन्हें बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जा चुका है। आशीष के चेहरे पर वही पुरानी मुस्कुराहट और रौनक थी, जबकि दिनेश का चेहरा पीला पड़ गया लगता था, और उसमें अब वह चुस्ती-फुर्ती नज़र नहीं आ रही थी जो कॉलेज के दिनों में कभी हुआ करती थी।

आशीष तो उसे पहचान भी नहीं पाता, यदि दिनेश स्वयं आगे बढ़ कर उसे अपना परिचय न देता।

“अरे दिनेश यह क्या, तुम तो पहचान में भी नहीं आ रहे यार? कहाँ हो? क्या कर रहे हो आजकल?” आशीष ने तपाक से उसे गले लगाते हुए कहा।

“बस, ठीक हूँ यार, तुम अपनी कहो?” दिनेश ने फीकी सी हंसी हंसते हुए कहा।

“तुम तो जानते ही हो बंधु, हम तो हमेशा मजे में ही रहते हैं”, आशीष ने उसी जोशोखरोश से कहा, “अच्छा, वो तेरा मल्टीनेशनल कंपनी वाला बिज़नेस कैसा चल रहा है, कितना माल इकट्ठा कर लिया?”

“क्या माल इकट्ठा कर लिया यार, बस गुजारा ही चल रहा है। वैसे वह काम तो मैंने कब का छोड़ दिया था, और छोड़ दिया था तो बहुत अच्छा किया, वर्ना बिल्कुल बर्बाद ही हो जाता। उस कंपनी ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया, और लोगों का काफी पैसा हजम कर गयी। आजकल तो मैं अपना निजी काम कर रहा हूँ ट्रेडिंग का। गुजारा हो रहा है। तुम क्या कर रहे हो?”

“मैं आजकल इंदौर के एक कॉलेज में प्रोफेसर हूँ”, आशीष ने बताया, “कुल मिला कर बढ़िया चल रहा है।”

“तो तुम आखिर जीत ही गए आशीष”, रितेश ने हौले से कहा तो आशीष चौंक गया, “कैसी जीत?”

“वही जो एक बार तुममें और मुझमें शर्त लगी थी”, रितेश ने कहा।

“कैसी शर्त? मुझे कोई ऐसी बात याद नहीं?” आशीष को कुछ याद न आया।

“भूल गए शायद, चलो मैं याद करवा देता हूँ”, कह कर रितेश ने बताया, “जब पहली बार किसी ने मुझे इस मल्टीनेशनल कंपनी का रुपए दे कर सदस्य बनने, अन्य लोगों को सदस्य बनाने और इसके महंगे-महंगे उत्पादों को बेच कर लाखों रुपए कमा कर अमीर बनने का लालच दिया, तो मैं उसमें फंस गया था। मैंने तुम्हें भी हर तरह का लालच दे कर इसका सदस्य बनाने की कोशिश की तो तुमने साफ मना कर दिया था। तुमने मुझे भी इस लालच से दूर रह कर पढ़ाई में मन लगाने की ताक़ीद दी थी। परंतु मैं नहीं माना। मुझे आज भी याद है कि तुमने कहा था, ‘धन और ज्ञान में से यदि मुझे एक चुनना पड़े तो मैं हमेशा ज्ञान ही चुनूँगा, क्योंकि धन से ज्ञान कभी नहीं कमाया जा सकता, परंतु ज्ञान से धन कभी भी कमाया जा सकता है। स्वयं ही देख लो, पढ़-लिख कर तुम फर्श से अर्श तक पहुंच गए, और मैं अर्श से फर्श पर…।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 74 ☆ लघुकथा – सहना नहीं ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक विचारणीय लघुकथा   “सहना नहीं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 74 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – सहना नहीं ☆

“कितनी बार कहा, जा चली जा मायके। मेरी नजर से दूर पर जाती ही नहीं।”

“क्यों जाऊं मांजी..? मैं तो यहीं छाती पर होरा  भूंजूँगी । क्या बिगाड़ा है आपका? बहुत सह लिया, अब सहना नहीं।”

“पता नहीं क्या कर रखा है शरीर का? 4 साल में एक बच्चा भी न जन सकी।”

पारो का रोना दिवाकर से देखा नहीं गया। उसने अब फैसला कर लिया बोला – “पारो अब तुम चिंता मत करो।  मैंने 1 साल के लिए मुंबई ब्रांच के काम लिए है … चलने की तैयारी करो।”

“क्या हुआ बेटा कहाँ जा रहे हो?”

“माँ,  मुंबई ट्रांसफर हो गया है,  पारो का चेकअप  भी हो जाएगा  हम जल्दी ही आ जाएंगे।”

“ठीक है बेटा खुश खबरी देना।”

रास्ते में दिवाकर ने कहा “पारो  मेरी कमी के कारण तुम्हें माँ के दिन रात ताने सहने पड़ते है। हमारे  डा. दोस्त ने वचन दिया है 9 महीने के अंदर हमें एक बच्चा गोद दिलवा देंगे। तुम जिंदगी भर तानों से बच जाओगी।”

साल भर बाद माँ बच्चे के साथ पारो का भी स्वागत कर रही थी।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लघुकथा – लाँग वॉक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लघुकथा – लाँग वॉक ☆

तुम्हारा लाँग वॉक मार डालेगा मुझे…रुको… इतना तेज़ मत चलो… मैं इतना नहीं चल सकती…दम लगने लगता है मुझे…हम कभी साथ नहीं चल सकते.., हाँफते-हाँफते उसने कहा था। वह रुक गया। आगे जाकर राहें ही जुदा हो गईं।

बरसों बाद वे एक मोड़ पर मिले। …क्या करती हो आजकल?… लाँग वॉक करती हूँ…कई-कई घंटे…साथ वॉक करें कल? …नहीं मैं इतना नहीं चल सकता… मेरा वॉक अब बहुत कम हो गया है…दम लगने लगता है मुझे… हम कभी साथ नहीं चल सकते..,उसने फीकी हँसी के साथ कहा। राहें फिर जुदा हो गईं।

©  संजय भारद्वाज

4.10 संध्या, 30.112020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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