हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 50 ☆ लघुकथा – दिया हुआ वापस आता ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित  उनकी लघुकथा ‘दिया हुआ वापस आता’डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 50 ☆

☆  लघुकथा – दिया हुआ वापस आता 

काकी का रोज का नियम था सुबह उठकर पक्षियों के लिए आटे की छोटी- छोटी गोलियां बनाकर छत की मुंडेर पर रखना। पक्षियों के लिए पानी तो हमेशा उनके घर की छत पर रखा ही रहता था। घर के बाहर भी  उन्होंने  सीमेंट की हौद बनवा  दी थी। सर्दी, गर्मी,बरसात कुछ भी हो वह पानी से लबालब भरी ही रहती। कई बार पडोसी टोक देते ‌- अरे बारिश में क्यों पानी भर रही हो काकी, इस मौसम में थोडे ही  प्यास लगती होगी जानवरों को। काकी हँसकर उत्तर देती -अरे! हमारी तुम्हारी तरह बोलकर माँग सकते होते  तो ना भरती पानी, पर बिचारे बेजुबान प्राणी हैं, क्या पता कब प्यास लगे।

काकी पशु –पक्षियों, इंसान सबके लिए करती ही रहती थीं। वास्तव में गीता का वाक्य ‘ कर्म करो, फल की इच्छा मत करो ‘काकी के  जीवन को देखकर मानों अपना अर्थ समझा देता था। आस – पडोस के लिए तो काकी रात –दिन कुछ ना देखती, सब मानों उनके ही परिवार के अभिन्न अंग। वह तरह – तरह के अचार डालती और छोटी छोटी कटोरियों में रख पडोसियों को दे आतीं।  आसपास के बच्चे तो उनके पीछे ही पडे रहते – काकी चूरनवाली गोली दो ना। काकी गुड, इमली, अजवाईन और सेंधा नमक मिलाकर पाचक गोली बनाकर रखतीं, बच्चे चटकारे लेकर खट्टी – मीठी गोलियां चूसते रहते।  कुल मिलाकर  काकी का घर जमावडा था आस – पडोसवालों के लिए और क्यों ना हो, काकी छोटी – मोटी बीमारियों के घरेलू नुस्खों का खजाना जो थीं। किसी को कुछ  तकलीफ हुई कि वह उनके पास पहुँच जाता फिर सरसों के तेल में हल्दी गरम करके लगाना हो या काढा बनाकर देना, वह सब कुछ बडे स्नेह से करतीं।

काकी घर में अकेले ही रहती थीं, दो लडके थे पर दूसरे शहरों  में रहते थे। उनके बहुत कहने पर भी काकी उनके साथ नहीं गईं। शहर में लोगों का अजनबीपन उन्हें रास नहीं आया, कुछ दिन रहकर वापस आ गईं। कोरोना के बारे में  काकी ने भी सुन रखा था, तरह – तरह की बातें कि कोरोना हो जाने पर घरवाले भी हाथ नहीं लगाते। आस पडोस में किसी को कोरोना हो जाए तो लोग बात करना भी छोड देते हैं। और भी ना जाने क्या- क्या –। सर्दी, जुकाम,बुखार तो मौसम बदलने पर होता ही है लेकिन कोरोना के आतंक ने इस मामूली बीमारी को भी भयावह बना दिया। काकी को भी सुबह से बदन में थोडी हरारत लग रही थी। अकेली घर में रहते हुए  रात में एक बार तो उसके मन में भी विचार आया – अगर उसे कोरोना हो गया तो ? कोई अस्पताल ले जाएगा कि नहीं ? फिर वह मुस्कुराई – देखा जाएगा जो होगा, पहले से सोचकर क्या फायदा और सो गई।

काकी की नींद खुली तो  अपने को अस्पताल के बिस्तर पर पाया। उसने आसपास नजर दौडाई, सब अनजान चेहरे थे। नर्स को अपने पास बुलाकर पूछा,उसने बताया –‘ उसकी पडोसिन बीना  रात में पेट दर्द की दवा लेने काकी के घर गई जब कई बार आवाज देने पर कोई उत्तर नहीं आया तो वह घर के अंदर  गई। उसने देखा कि काकी बहुत तेज बुखार में बेहोश पडी है। पडोसियों ने उसे तुरंत अस्पताल में भर्ती करवाया  और कह गए हैं कि काकी बिल्कुल चिंता ना करें। हम सब अस्पताल के बाहर ही खडे हैं,जो भी जरूरत हो हमें बताएं ‘। काकी को कुछ कहना ही नहीं पडा, खाना – पीना, दवा सब पडोसियों ने संभाल लिया था। जल्दी ही काकी के बच्चे भी आ गए। काकी को पता ही ना चला कि कोरोना कब आया और चला गया। पास खडी नर्स किसी से कह रही थी – इनका दूसरों के लिए किया हुआ ही वापस आ रहा है, वरना आज के समय में किसी के लिए कौन करता है इतना।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ रोटी ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

( संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम  साहित्यकारों ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा  ” रोटी ”। )

☆ लघुकथा – रोटी ☆ 

एक पेड़ के नीचे बैठकर कुछ लोग रोटी चालीसा पढ़ रहे थे . पास ही में एक मलंग अपनी ढपली अपना राग सुना रहा था.

एक व्यक्ति बोला – जब से रोटी बनी है तबसे वह अपने ही मूल स्वरूप में है. आकार प्रकार, लंबाई-चौडाई, व्यास, त्रिज्या लगभग वही. थोड़ी बहुत ज्यादा थोड़ी बहुत कम.

दूसरा व्यक्ति बोला – स्पष्ट है कि उस लघु आकार रोटी में भूख है, वहशीपन है, दरिंदगी है, पागलपन गहरे बहुत गहरे तक छुपा है.

तीसरा बोला – वही रोटी जब पेट में चली जाती है तो उमंग, सरलता, सौजन्यता, बुद्धि, चातुर्य, साहित्य, कला, आनंदोत्सव ले आती है. रोटी जीवन है यार. इस असार संसार में रोटी वह नाव  है जिससे जीवन नैया पार लगतीं है.

चौथा बोला – हाँ भाईयो, कितने रूप-स्वरूप हैं रोटी के, जिसके भाग्य में जैसा रूप हासिल हो जाए. बड़ी कातिल होती है रोटी. इसने हरिश्चन्द्र जैसे राजा को भी डोम की नौकरी करा दी थी.

सबकी बातें सुनकर मलंग बोला- बच्चों, जरा मेरी ओर देखो. मैं मलंग हूं. मेरे पास कुछ नहीं है. बिल्कुल फक्कड़. पर मुझे रोटी की कमी नहीं है. उस तरफ देखो, एक महिला पत्तल में रोटी-दाल लिए चली आ रही है.

उन लोगों को रोटी का गणित समझ के परे था.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ धनतेरस ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ धनतेरस 

इस बार भी धनतेरस पर चाँदी का सिक्का खरीदने से अधिक का बजट नहीं बचा था उसके पास। ट्रैफिक के चलते सिटी बस ने उसके घर से बाजार की 20 मिनट की दूरी 45 मिनट में पूरी की। बाजार में भीड़ ऐसी कि पैर रखने को जगह नहीं। भारतीय समाज की विशेषता यही है कि पैर रखने की जगह न बची होने पर भी हरेक को पैर टिकाना मयस्सर हो ही जाता है।

भीड़ की रेलमपेल ऐसी कि दुकान, सड़क और फुटपाथ में कोई अंतर नहीं बचा था। चौपहिया, दुपहिया, दोपाये, चौपाये सभी भीड़ का हिस्सा। साधक, अध्यात्म में वर्णित आरंभ और अंत का प्रत्यक्ष सम्मिलन यहाँ देख सकते थे।

….उसके विचार और व्यवहार का सम्मिलन कब होगा? हर वर्ष सोचता कुछ और…और खरीदता वही चाँदी का सिक्का। कब बदलेगा समय? विचारों में मग्न चला जा रहा था कि सामने फुटपाथ की रेलिंग को सटकर बैठी भिखारिन और उसके दो बच्चों की कातर आँखों ने रोक लिया। …खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।..गौर से देखा तो उसका पति भी पास ही हाथ से खींचे जानेवाली एक पटरे को साथ लिए पड़ा था। पैर नहीं थे उसके। माज़रा समझ में आ गया। भिखारिन अपने आदमी को पटरे पर बैठाकर उसे खींचते हुए दर-दर रोटी जुटाती होगी। आज भीड़ में फँसी पड़ी है। अपना चलना ही मुश्किल है तो पटरे के लिए कहाँ जगह बनेगी?

…खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।…स्वर की कातरता बढ़ गई थी।..पर उसके पास तो केवल सिक्का खरीदने भर का पैसा है। धनतेरस जैसा त्योहार सूना थोड़े ही छोड़ा जा सकता है।…वह चल पड़ा। दो-चार कदम ही उठा पाया क्योंकि भिखारिन की दुर्दशा, बच्चों की टकटकी लगी उम्मीद और स्वर में समाई याचना ने उसके पैरों में लोहे की मोटी सांकल बाँध दी थी। आदमी दुनिया से लोहा ले लेता है पर खुदका प्रतिरोध नहीं कर पाता।

पास के होटल से उसने चार लोगों के लिए  भोजन पैक कराया और ले जाकर पैकेट भिखारिन के आगे धर दिया।

अब जेब खाली था। चाँदी का सिक्का लिए बिना घर लौटा। अगली सुबह पत्नी ने बताया कि बीती रात सपने में उसे चाँदी की लक्ष्मी जी दिखीं।

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 68 – कर्मवीर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा  “कर्मवीर।  कई बार हम जल्दबाजी और आवेश में कुछ  ऐसे निर्णय ले लेते हैं जिसके लिए जीवनपर्यन्त पछताते हैं और वह समय लौट कर नहीं आता।  / शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 68 ☆

☆ लघुकथा – कर्मवीर ☆

कर्मवीर का बोर्ड लगा देख प्रकाश ठिठक सा गया। अंदर जाने की हिम्मत नहीं हुई। क्योंकि वह तो लगभग 21 साल बाद शहर लौट रहा था। दरवाजे पर आवाज दिया, एक हट्टा कट्टा नौजवान  बाहर आया और पूछा… कौन है और क्या चाहिए?? प्रकाश ने सोचा शायद में गलत जगह पर आ गया। यह शायद स्नेहा  का घर तो नहीं है। लौट कर वह चला गया।

स्नेहा और प्रकाश दोनो एक बिजली विभाग में काम करती थें। दोनों में आपसी तालमेल के कारण दोनों परिवारों की विरोध के बावजूद विवाह कर लिया था।

दोनों  की हमेशा कर्म और संस्कारों को लेकर एक जैसी राय बनती थी और दोनों की बातें भी एक जैसी थी। दोनों में बहुत प्यार था परंतु न जाने किसकी नजर लगी दोनों का आपस में मतभेद हो गया।

एक साल के अंदर ही दोनो अलग अलग हो गए दोनों को एक शब्द बहुत पसंद था वो था कर्मवीर अपने  बच्चे का नाम रखना चाहते थे।

अलग होने के बाद प्रकाश तबादला करा  दूसरे शहर चला गया और लौटकर जब आया बहुत देर हो चुकी थी।

ऑफिस पहुंचा तो  बिजली ऑफिस वालों ने बताया साहब आपके ट्रांसफर के बाद लगभग दो साल बाद तक स्नेहा  मैडम ऑफिस नहीं आई।

और फिर आने लगी शायद उन्होंने दूसरी शादी कर ली है। क्योंकि एक सारांश नाम का नौजवान गाड़ी में छोड़ने और लेने आता है।

प्रकाश को याद है थोड़ी सी बात और मतभेद के कारण दोनों ने अलग होने का फैसला बहुत जल्दी में ले लिया था।

और दोनों अलग हो चुके थे प्रकाश के जाते जाते स्नेहा बता भी नहीं सकी थी कि वह पापा बनने वाले हैं।

करवा चौथ का सामान लेकर स्नेहा शाम को घर जा रही थी।इक्कीस मिट्टी के करवा खरीद रही थीं। बेटे को आश्चर्य तो हुआ पर बोला कुछ नहीं।

शाम को खुद श्रंगार कर, करवो को  भरकर, दीपक सजा पूरे घर को सजाकर स्वयं तैयार हो गई। सारांश,अपने बेटे को कहा…. आज करवा चौथ का पूजन करना है।  बेटे ने सिर्फ हा में सिर हिला दिया।

मां के दिन रात मेहनत और उनके व्यवहार के कारण  कभी कोई बात नहीं पूछना चाहता था।

शाम ढले सब समान लेकर मां और सारांश दोनो छत पर पहुंच गए। पूजन का थाल  लिए मां बेटा दोनो छत पर खड़े  चांद का इंतजार कर रहे थे। बेटे ने आवाज लगाई… मां चांद निकल आया पूजन कर लो परंतु स्नेहा बोली… मैं थोड़ा और इंतजार कर लूं। फिर पूजन करती हूं।

इक्कीस करवो का दीपक लहरा रहा था। जो ही उसने आरती की थाली उठाई सामने की सीढ़ियों से प्रकाश को आते देख चूनर से सिर ढकते बोल उठी…. बेटा आ जा चांद निकल आया। सारांश की समझ में कुछ नहीं आ रहा था परन्तु उसने देखा  ये तो वही व्यक्ति हैं जो सुबह आए थे और बिना कुछ बोले चले गये थे। वह सीधी छलनी के सामने जाकर खड़े हो गए और मां खुशी से रोए जा रही थी।

सारांश तो बस इन लम्हों को अपने मोबाइल में कैद करते जा रहा था कि आज मां  पहला करवा चौथ मना रही है। वह भी पहली बार शायद पापा के साथ। त्यौहार मना रही है बहुत खुश था सारांश। स्नेहा और प्रकाश बस एक दूसरे को निहार रहे थे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 72 ☆ हास्य कथा – इन्तकाल के बाद ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक  अतिसुन्दर हास्य कथा   ‘इन्तकाल के बाद’।  इस हास्य कथा के लिए डॉ परिहार जी के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर और लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 72 ☆

☆ हास्य कथा – इन्तकाल के बाद

(‘पैनी चीज़ें पीड़ा देती हैं, नदियाँ गीली हैं, तेज़ाब दाग छोड़ते हैं, और दवाओं से जकड़न होती है। बन्दूकें कानूनी नहीं हैं, फन्दे खुल जाते हैं, गैस भयानक गंध छोड़ती है। बेहतर है कि ज़िन्दा ही रहा जाए।’ – डोरोथी पार्कर)

चौधरी गप्पूलाल पुरुषार्थी व्यक्ति हैं। तीस साल के सुखी वैवाहिक जीवन में उन्होंने आठ संतानें पैदा कीं—पाँच बेटे और तीन बेटियाँ। इसके बाद उन्हें भारत देश का खयाल आ गया। वैसे ही देश जनसंख्या समस्या से त्रस्त है, अब और पुरुषार्थ ठीक नहीं।

एक शाम गप्पूलाल जी घर लौटे। लौटकर पलंग पर पसरकर उन्होंने बड़े बेटे को आवाज़ दी, ‘भुल्लन ज़रा सुनना।’

भुल्लन आज्ञाकारी भाव से हाज़िर हुए। बोले, ‘क्या आदेश है, बाउजी?’

गप्पूलाल जी बोले, ‘आज प्रसिद्ध ज्योतसी अटकलनाथ से मिलने गया। उन्होंने बताया कि मेरी जीवन रेखा संकट में चल रही है। जीवन का कोई ठिकाना नहीं। पता नहीं कब रवाना होना पड़े। इसलिए तैयारी कर लेना चाहिए।’

उनकी पत्नी गोमती देवी कुछ दूर बैठीं पोते के लिए स्वेटर बुन रही थीं। बात को आधा समझकर बोलीं, ‘कहाँ जा रहे हो? खा पी कर जाना। बता देना तो पराठा सब्जी बना दूँगी।’

गप्पूलाल चिढ़ कर बोले, ‘जहाँ हमें जाना है वहाँ पराठा सब्जी नहीं, पाप पुन्न काम आते हैं। हम ऊपर जाने की बात कर रहे हैं। ज्योतसी ने कहा है कि हमारा समय गड़बड़ चल रहा है।’

गोमती देवी शान्ति से बोलीं, ‘जोतखी ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा। अपनी सब बीमा पालिसियाँ हमें दे देना। एकाध दिन में चलकर वह दफ्तर भी दिखा देना जहाँ पेमेंट मिलता है। बाद में हम कहाँ भटकते फिरेंगे?’

गप्पूलाल यह सुनकर गोमती देवी को मारने लपके, लेकिन बेटे ने बाँह पकड़कर रोक लिया।

इसी बीच किसी ने भीतर खबर फैला दी कि बाबूजी जायदाद का बँटवारा कर रहे हैं। तत्काल चारों छोटे बेटे बड़ी उम्मीद लिये आकर खड़े हो गये। उनके पीछे, थोड़ा ओट में, बहुएँ भी डट गयीं। बड़ी बहू भी आकर एक खंभे की ओट में खड़ी हो गयी।

गप्पूलाल ने उनकी तरफ देखा, पूछा, ‘तुम लोग किस लिए आये हो?’

दूसरे नंबर का बेटा बोला, ‘कोई कह रहा था कि आपने सब को बुलाया है। ‘

गप्पूलाल गुस्से में बोले, ‘हमें पता है तुम लोग सूँघते हुए आये हो। जहाँ हम ऊपर जाने की बात करते हैं, तुम लोग आसपास मंडराने लगते हो। भागो यहाँ से। तुम्हारी उम्मीद इतनी जल्दी नहीं पूरी होने वाली।’

बेटे और बहुएँ निराशा में मुँह लटकाये, अपने अपने कमरों में चले गये।

गप्पूलाल ने बड़े बेटे से कहा, ‘ज्योतसी ने कहा है तो कुछ ध्यान जरूर देना चाहिए। जायदाद वायदाद तो हमें अपने जीते जी किसी को नहीं देनी, लेकिन कुछ और बातें हैं जिनकी चर्चा करनी है। पहली बात यह है कि अपने धरम में मरने के बाद जो आदमी को जला देते हैं वह अपने को जमता नहीं। आदमी को जरा सी आग छू जाए तो घंटा भर तक कल्लाता है, और यहाँ तो पूरा का पूरा शरीर आग में झोंक देते हैं। किसी को क्या पता कि मुर्दे को क्या तकलीफ होती है। एक बार जाकर कोई लौट कर तो आता नहीं कि कुछ बताये।’

भुल्लन विनम्रता से बोले, ‘बाउजी, मरने के बाद ही जलाते हैं। मरे आदमी को आग का क्या बोध!’

गप्पूलाल हाथ उठाकर बोले, ‘हमें न सिखाओ। हमने एक अखबार में पढ़ा था कि एक साँप ऐसा होता है जो मरने के एक घंटे बाद तक काट सकता है। तो हम तो आदमी हैं, हमारी जान कहाँ और कितनी देर तक अटकी रहती है, किसी को क्या पता।’

भुल्लन बोले, ‘तो फिर क्या हुकुम है बाउजी?’

गप्पूलाल बोले, ‘हुकुम यही है कि हमें आग में मत जलाना। हमें आग बिलकुल बर्दाश्त नहीं होती।’

भुल्लन बोले, ‘आपने बड़े संकट में डाल दिया, बाउजी। अगर आपको आग में जलना पसन्द नहीं तो क्या आप दफनाया जाना पसन्द करेंगे? बता दीजिए तो हम बिरादरी वालों को समझा लेंगे।’

गप्पूलाल दोनों हाथ उठाकर बोले, ‘पागल है क्या? यह भी कोई बात हुई कि आदमी को गढ्ढा खोदकर गाड़ दिया और ऊपर से मिट्टी पत्थर से तोप दिया। मान लो किसी के भीतर साँस बाकी हो और वह साँस लेना चाहे, तो वह तो गया काम से। आदमी अधमरा हो तो मरने का पुख्ता इन्तजाम हो जाता है। नहीं भैया, अपन को यह सिस्टम भी मंजूर नहीं।’

भुल्लन परेशान होकर बोले, ‘तो बाउजी, क्या आपको पारसियों का सिस्टम पसन्द है? वे लोग शरीर को ऊपर टावर पर रख देते हैं और गीध आकर उसे अपना भोजन बना लेते हैं।’

गप्पूलाल गुस्से में बोले, ‘तू मेरा दुश्मन है क्या?तू चाहता है कि मरने के बाद गीध मुझे नोचें? मुझे तकलीफ नहीं होगी क्या?’

भुल्लन हारकर बोले, ‘बाउजी, मेरे खयाल से तो सबसे बढ़िया यह है कि शरीर को नदी में प्रवाहित कर दिया जाए। पवित्र जल में भले भले बह जाए।’

गप्पूलाल बोले, ‘बकवास मत करो। हमें तैरना नहीं आता। तुम हमें नदी में छोड़ोगे और हम सीधे नीचे चले जाएंगे। साँस वाँस सब बन्द हो जाएगी। मछलियाँ चीथेंगीं सो अलग। ना भैया, यह तरीका भी अपने को नहीं जमता।’

इस बीच गप्पूलाल का भतीजा आकर बैठ गया था। मुँहलगा और विनोदी प्रकृति का था। चाचा की बातें सुनकर बोला, ‘चच्चा, सबसे बढ़िया हम आपके शरीर पर मसाला लगवा कर हमेशा के लिए सुरक्षित करवा देंगे और एक कमरे में रख देंगे। जैसे रूस में लेनिन का शरीर रखा रहा ऐसे ही आप भी सालोंसाल आराम फरमाना।’

गप्पूलाल प्रसन्न होकर बोले, ‘आइडिया अच्छा है। इसमें फायदा ये है कि कभी साँस वापस आ गयी तो कम से कम फिर से साबुत खड़े तो हो सकेंगे। देख लेना, अगर तुम लोग खरचा बर्दाश्त कर सको तो ऐसा कर लेना, लेकिन इसमें गड़बड़ यह है कि घर का एक कमरा इसमें फँस जाएगा।’

फिर बोले, ‘फिलहाल ये बातें छोड़ो। ज्योतसी कुछ भी कहे, अभी आठ दस साल हम इस धरती से नहीं हिलने वाले। कभी फुरसत से सोचेंगे कि अपन को कौन सा सिस्टम ‘सूट’ करेगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 69 ☆ प्रलय के विरुद्ध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 69 – प्रलय के विरुद्ध 

लोकश्रुति है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है। पाप की अधिकता होने पर धरती को टिकाए रखना एक दिन शेषनाग के लिए संभव नहीं होगा और प्रलय आ जाएगा। कई लोगों के मन में प्राय: यह प्रश्न उठता है कि विसंगतियों की पराकाष्ठा के इस समय में अब तक प्रलय क्यों नहीं हुआ?

इस प्रश्न का एक प्रतिनिधि उत्तर है, ‘धनाजी जगदाले जैसे संतों के कारण।’ तुरंत प्रतिप्रश्न उठेगा कि कौन है धनाजी जगदाले जिनके बारे में कभी सुना ही नहीं?

धनाजी जगदाले, उन असंख्य भारतीयों में से एक हैं जो येन केन प्रकारेण अपना उदरनिर्वाह करते हैं। 54 वर्षीय धनाजी महाराष्ट्र के सातारा ज़िला की माण तहसील के पिंगली गाँव के निवासी हैं।

‘यह सब तो ठीक है पर धनाजी संत कैसे हुआ?’ …’धैर्य रखिए और अगला घटनाक्रम भी जानिए।’

अक्टूबर 2019 में महापर्व दीपावली के दिनों में धनाजी को धन प्राप्ति का एक दैवीय अवसर प्राप्त हुआ।

हुआ यूँ कि शहर के बस अड्डे पर खड़े धनाजी के सामने संकट था अपने गाँव लौटने का। गाँव का टिकट था रु.10/- और धनाजी की जेब में बचे थे केवल 3 रुपये। एकाएक धनाजी ने जो देखा, उससे उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। बस अड्डे पर किसी के गलती से  छूट गए थैले में नोटों के बंडल थे। कुल चालीस हज़ार रुपये।

चालीस हज़ार की राशि धनाजी के लिए एक तरह से कुबेर का ख़जाना था पर कुबेर का एक अकिंचन के आगे लज्जित होना अभी बाकी था।

अकिंचन धनाजी ने सतर्क होकर आसपास के लोगों से थैले के मालिक की जानकारी टटोलने का प्रयास किया। उन्हें अधिक श्रम नहीं करना पड़ा। थोड़ी ही देर में एक व्यक्ति बदहवास-सा अपना थैला ढूँढ़ते हुए आया। मालूम पड़ा कि पत्नी के ऑपरेशन के लिए मुश्किल से जुटाए चालीस हज़ार रुपये जिस थैले में रखे थे, वह यहीं-कहीं छूट गया था। पर्याप्त जानकारी लेने के बाद धनाजी ने वह थैला उसके मूल मालिक को लौटा दिया।

आनंदाश्रु के साथ मालिक ने उसमें से एक हज़ार रुपये धनाजी को देने चाहे। विनम्रता से इनाम ठुकराते हुए धनाजी ने अनुरोध किया कि यदि वह देना ही चाहता है तो केवल सात रुपये दे ताकि दस रुपये का टिकट खरीदकर धनाजी अपने गाँव लौट सके।

प्राचीनकाल में सच्चे संत हुआ करते थे। देवताओं द्वारा इन संतों की तपस्या भंग करने के असफल प्रयासों की अनेक कथाएँ भी हैं।  इनमें एक कथा धनाजी जगदाले की अखंडित तपस्या की भी जोड़ लीजिए।…और हाँ, अब यह प्रश्न मत कीजिएगा कि अब तक प्रलय क्यों नहीं हुआ?

 

© संजय भारद्वाज

(प्रात: 4 :14 बजे, 7.11.2019)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ समझ का फेर ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा समझ का फेर।  

☆ लघुकथा – समझ का फेर ☆

मेरे एक  रिश्तेदार कुछ दिन मेरे यहां ठहरने आए मंगलवार उनका मौन व्रत था। वह टीवी देख रहे थे तभी उनसे मिलने उनका  भतीजा आया चरण स्पर्श कर वह बैठ गया, चाचा जी ने कागज कलम उठाई  लिखा  कहां से आ रहे हो? तत्परता से उसने वहां पड़ा दूसरा कागज़ उठाया और पेन निकालकर लिखा घर से सीधे ही आ रहा हूं ।

चाचा जी ऐसे ही लिख-लिख कर प्रश्न करते रहे और वो लिख लिखकर उत्तर देता रहा अचानक  चाचा जी गुस्से में उठ खड़े हुए और जोर से बोले…” बेवकूफ मौन  तो मैं हूं तुम तो बोल सकते हो ।”

रसोई घर में खड़ी मैं सोच रही थी जिंदगी में  हम  सब भी  कुछ बातों को  ठीक से ना समझ पाने के कारण ऐसी ही गलतियां कर बैठते हैं।

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ जन्मदिवस विशेष – मेरे गांव की कहानी, एक नई सी, एक पुरानी ☆ श्री अजीत सिंह

श्री अजीत सिंह

( हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी ने अपने जीवन का एक संस्मरण  हमारे पाठकों के लिए साझा किया है। यह संस्मरण ही नहीं अपितु हमारी विरासत है। उनके ही शब्दों में  –  “इन मौखिक कहानियों को रिकॉर्ड करने और अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने की ज़रूरत है। वर्ना ये खूबसूरत कहानियां यूं ही खो जाएंगी। ये हमारी जड़ों की कहानियां हैं। ये जुड़ाव और संघर्ष की कहानियां हैं जो हमें और हमारी संतानों को सम्बल देती रहेंगी। इन कहानियों में गुज़रे वक़्त का समाज शास्त्र है। यह हमारा विरसा है, लोक इतिहास है। कहानियां आपस में उलझी सी हैं पर एक दूसरे को तार्किक बल देती हैं। इन में कुछ आंखों देखी हैं और कुछ सुनी सुनाई पर आपस में जुड़ी हुई। लोक इतिहास ऐसा ही होता है।” – श्री अजीत सिंह जी,  पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

ई -अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ इस अविस्मरणीय संस्मरण को साझा करने के लिए हम आदरणीय श्री अजीत सिंह जी के हृदय से आभारी हैं। )

? श्री अजीत सिंह जी को ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से उनके 75 वें जन्मदिवस पर अशेष हार्दिक शुभकामनाएं  ? 

☆ संस्मरण ☆ जन्मदिवस विशेष – मेरे गांव की कहानी, एक नई सी, एक पुरानी ☆ श्री अजीत सिंह ☆

उसका नाम शेरा था। वह पाकिस्तान से आया था अपने, और मेरे, पैतृक गांव हरसिंहपुरा में जो हरियाणा के करनाल ज़िले में स्थित है। वह करीबन 20 साल की उम्र में पाकिस्तान चला गया था सन् 1947 में मारकाट के दौरान। जी हां, जिसे किताबों में स्वतंत्रता काल कहा जाता है, हरसिंहपुरा के लोग उसे आज भी मारकाट के नाम से पुकारते हैं।

वह अनपढ़ आदमी था पर उसे वीज़ा देवबंद में हो रही किसी इस्लामिक कॉन्फ्रेंस के डेलीगेट के तौर पर मिला था। वह वहां के थाने में हाज़री देकर पैतृक गांव में अपने बचपन के संगी साथियों से मिलने पहुंचा था कोई तीस साल बाद। सिर के बाल भी सफेद होने लगे थे उसके और चेहरा मोहरा भी बदल गया था। गांव पहुंचा तो सबसे पहले उसे बारू नाई ने बातचीत के बाद पहचाना। आखिरकार दोनों हम उम्र जो थे और एक दूसरे के खिलाफ कबड्डी खेलते रहे थे।

शेरा ने गांव की पहचान तालाब पर खड़े बड़ और पीपल के पेड़ों से की थी। गांव के घर उसे बदले बदले नज़र आ रहे थे। बारु नाई उसे पूरे गांव में घुमा के लाया। शेरा कहने लगा, गलियां तो वही हैं पर घर सारे ही बदल गए हैं।

बात चली तो तो शेरा ने बताया कि असल में वह मारकाट से पहले की अपनी ज़मीन की जमाबंदी की नकल लेने आया था ताकि उसके सहारे वह पाकिस्तान में उसे अलॉट हुई ज़मीन पर उठे झगड़े को निपटा सके।

फिर शेरा ने एक रोचक बात बताई कि सन् 47 तक  हरसिंहपुरा और साथ लगते चार गांवों में खेती की जमीन का आधा हिस्सा त्यागी बिरादरी के पास था, चौथाई मुसलमानों के पास और चौथाई रोड़-मराठा बिरादरी के किसानों के पास था। अन्य जातियों के पास खेती की ज़मीनें नहीं थी।

पर केवल तीन जातियों में ऐसा बटवारा किस आधार पर हुआ?

इसका जवाब मेरे पूछने मेरे पिता ने दिया। जवाब क्या था, एक और रोचक कहानी थी, लगभग दो सौ साल पुरानी।

करनाल ज़िले में, जी टी रोड और यमुना नदी के बीच खादर कहे जाने वाले इलाक़े में आज भी दो गांव हैं पूंडरी और बरसत।

इन गांवों की सरहद पर एक कुआं हुआ करता था जिसमें एक दिन किसी व्यक्ति की लाश पाई गई। थानेदार ने दोनों गांवों के नम्बरदारों  को बुला लिया और कहा कि वे क़ातिल का पता कर उसे  सिपाहियों के हवाले करें। बरसत के नंबरदार ने कहा कि वह कुआं उनके गांव की सीमा में नहीं है। अब ज़िम्मेदारी पूंडरी के त्यागी नंबरदार पर आ गई। कातिल का पता नहीं चला तो सिपाही नंबरदार को ही मुजरिम मानकर ले गए। उसे सज़ा हुई और साथ में उसे मुसलमान बना दिया गया। ऐसी ही सज़ाएं होती थीं उस वक्त। नंबरदार का एक छोटा भाई भी था पर उसकी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई। भाइयों में प्यार था पर भतीजे ताऊ को पसंद नहीं करते थे। चिढ़ाते भी थे।

एक बार ताऊ ने एक छप्पर तैयार किया और उसे उठा कर लकड़ी की बल्लियों पर रखने के लिए भतीजों से मदद मांगी। वे यह कहते हुए इनकार कर गए की अल्लाह मियां रखवाएंगे! वे ताऊ का मज़ाक उड़ा रहे थे। ताऊ और उसका इकलौता बेटा बिना मदद के छप्पर नहीं उठा सकते थे।

मुसलमान बुज़ुर्ग नंबरदार ताऊ इसी दुविधा में दुखी मन से बैठा था कि तीन बैलगाड़ियों में सवार कुछ लोग वहां आए । पिताजी ने बताया कि वे सन् 1761 में हुई पानीपत की तीसरी लड़ाई में हार के बाद लुकते छिपते घूम रहे मराठा सैनिक या उनकी अगली पीढ़ी के वंशज थे जो हमारे पूर्वज थे। बुज़ुर्ग के अनुरोध पर उन्होंने उसका छप्पर रखवा दिया। बुज़ुर्ग के भतीजे दूर से घूरते रहे पर पास नहीं आए।

पानी पीकर आराम करने लगे तो मुसलमान बुज़ुर्ग ने पूछा कहां जाओगे। मराठा सरदार ने कहा कि बस कहीं ठिकाना जमाने की कोशिश में हैं। भतीजों की बढ़ती जा रही छेड़छाड़ से तंग बुज़ुर्ग ने कहा कि तुम यहीं ठहर जाओ , मेरे पास। बेटे की तरह रखूंगा। मेरी आधी ज़मीन मेरे बेटे की और आधी तुम्हारी होगी। उसके साथ भाइयों की तरह रहना। बुज़ुर्ग मुसलमान ने अपना वायदा निभाया । पूंडरी गांव की आबादी बढ़ी तो एक के पांच गांव बन गए पर सभी में आम तौर पर  ज़मीन की मलकीयत उसी अनुपात में रही, आधी त्यागी बिरादरी के पास , चौथाई मुसलमानों के पास और चौथाई रोड़- मराठा जाति के लोगों के पास।

सन् 1947 तक भी मुसलमानों और मराठों का भाईचारा कायम रहा। हमारे गांव में मारकाट भी नहीं हुई जबकि दूसरे गांवों में बहुत खून खराबा हुआ।  यहां  तक कि मेरे पिता ने अपने करीबी दोस्त मजीद चाचा को पाकिस्तान जाने नहीं दिया। करीब दस साल बाद वे पाकिस्तान गए क्योंकि उनके भाई कमालुद्दीन ने उनके नाम भी ज़मीन अलॉट करा ली थी।

शेरा गांव में दस दिन रहा। पटवारी और तहसील के चक्कर काटता रहा। पुराना रिकॉर्ड करनाल की तहसील में मिला। पटवारी ने बिना रिश्वत के ही काम कर दिया। शेरा का खाना गांव में अलग अलग घरों में हुआ। जाते वक़्त लोगों ने उसे खर्च के लिए 400 रुपए इकठ्ठा कर के दिए। मेरी मां ने चाचा मजीद की  पोती के लिए एक सूट दिया।

मित्रो 5 नवंबर को मेरा जन्म दिन होता है। पिछली बार 74वें जन्मदिन पर मेरे गांव की यह कहानी अनायास ही याद आ गई थी। मेरे बच्चों और उनके बच्चों को यह कहानी बड़ी रोचक लगी। इस शर्त पर कि वे आगे अपने बच्चों और उनके बच्चों तक इस कहानी को पहुंचाएंगे, मैंने इस कहानी को शब्द रूप दे दिया।

आशीर्वाद दें मित्रो, आज मेरा 75 वाँ जन्मदिन है।

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 70 – अपेक्षा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक लघुकथा  “अपेक्षा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 70 ☆

☆ अपेक्षा ☆

उसने धीरे से कहा, ” आप सभी को कुछ ना कुछ उपहार देती रहती हैं|”

“हाँ,” दीदी ने जवाब दिया, ” कहते हैं कि देने से प्यार बढ़ता है|”

“तब तो आपकी बहू को भी आपको कुछ देना चाहिए| वह आपको क्यों नहीं देती है?” उसने धीरे से अगला सवाल छोड़ दिया|

“क्योंकि वह जानती है,” कहते हुए दीदी रुकी तो उसने पूछा,” क्या?”

“यही कि वह जो भी प्यार से देगी, वह प्यारी चीज मेरे पास तो रहेगी नहीं| मैं उसे दूसरे को दे दूंगी| इसलिए वह अपनी पसंद की कोई चीज मुझे नहीं देती है|”

“तभी आपकी बहु आपसे खुश है,” कहते हुए उसे अपनी बहु की घूरती हुई आंखें नजर आ गई |जिसमें घृणा की जगह प्रसन्नता के भाव फैलते जा रहे थे |

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-09-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 71 ☆ लघुकथा – कचरे वाला ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है एक  अतिसुन्दर लघुकथा   ‘कचरे वाला’।  इस सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 71 ☆

☆ लघुकथा – कचरे वाला

शरीफों का मुहल्ला है। रोज़ तड़के कचरा इकट्ठा करने वाला,अपनी गाड़ी खींचता, सीटी बजाता हुआ आता है। सब अपने अपने घर से प्रकट होकर कचरा-दान करते हैं और राहत की साँस लेते हैं।

नन्दी जी तुनुक मिजाज़ हैं। घर में थोड़ी थोड़ी बात पर भड़कते हैं। सफाई-पसन्द हैं। कचरे वाले को देखकर उनका माथा चढ़ता है। कचरे के डिब्बे में दूर से कचरा टपकाते हैं। मास्क के ऊपर से सिकुड़ी नाक नज़र आती है। देखकर कचरे वाले  का मुँह बिगड़ता है। कई बार कह देता है, ‘आप ही का कचरा है। हमारे घर का नहीं है।’

एक दिन नन्दी जी उससे उलझ गये। उसने गीला और सूखा कचरा अलग अलग डिब्बों में डालने को कहा तो वे उखड़ गये—-‘हम यही करते रहेंगे क्या? दूसरा काम नहीं है? पहले क्यों नहीं बताया?’

थोड़ी बहस हो गयी। अन्त में नन्दी जी उँगली उठाकर बोले, ‘ऑल राइट, आप कल से हमारे घर से कचरा नहीं लेंगे। आई विल मैनेज इट। ‘ कचरे वाला ‘ठीक है’ कह कर आगे बढ़ गया।

भीतर आकर बोले, ‘मैं कर लूँगा। जब वह कर सकता है तो हम क्यों नहीं कर सकते?’

मिसेज़ नन्दी अपने पति को जानती थीं, इसलिए कुछ नहीं बोलीं।

दूसरी सुबह कचरे वाला घर के सामने से निकल गया। रुका नहीं। नन्दी जी घर में बैठे रहे। बुदबुदाये, ‘मिजाज़ दिखाता है!आई विल डू इट।’

घर में तीन दिन का कचरा इकट्ठा हो गया। अब सबकी नाक सिकुड़ने लगी। सबकी नज़रें नन्दी जी पर टिकने लगीं। नन्दी जी सबसे नज़र बचाते फिर रहे थे।

चौथे दिन वे तैयार हुए। स्कूटर पर कचरे की दो बकेट रखीं और आगे बढ़े। तिरछी नज़रों से देखते जा रहे थे कि कोई परिचित देख तो नहीं रहा है। भीतर से सिकुड़ रहे थे।

लंबे निकल गये, लेकिन कोई कचरे का कंटेनर नहीं दिखा। परेशान हो गये। सड़क के किनारे फेंकने पर कोई भी चार बातें सुना सकता था। आगे कुछ खेत थे। वहीं स्कूटर रोक कर चारों तरफ देखा, फिर पौधों के बीच में बकेट खाली करके भाग खड़े हुए।

घर पहुँचकर लंबी साँस लेते हुए पत्नी से बोले, ‘आई कान्ट डू इट। इट इज़़ वेरी डिफ़ीकल्ट।’

अगली सुबह जब कचरे वाला आया तब मिसेज़ नन्दी गेट पर थीं। उसे रोककर बोलीं, ‘कचरा लेना क्यों बन्द कर दिया, भैया?’ कचरे वाला कैफ़ियत देने लगा तो थोड़ी देर सुनकर बोलीं, ‘वे थोड़ा गुस्सैल हैं। क्या करें। आप खयाल मत करो। आगे से कचरा हमीं दिया करेंगे। यह थोड़ा सा प्रसाद है, बच्चों को दे देना।’

भीतर नन्दी जी मुँह पर दही जमाये बैठे थे। मिसेज़ नन्दी कचरा देकर लौटीं तो सबके चेहरे पर राहत का भाव आ गया। मुसीबत टल गयी थी। सुबह सुहावनी हो गयी थी।

©
डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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