हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 61 – अनंत रुप ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “अनंत रुप।   अनंत चतुर्दशी के अवसर पर रचित यह रचना  पौत्र के सार्थक प्रयास से पारिवारिक मिलन को आजीवन अविस्मरणीय बना देने के कथानक पर आधारित है। इस सार्थक  एवं समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 61 ☆

☆ लघुकथा – अनंत रुप

आज फिर अनंत चतुर्दशी के दिन छोटे से घर पर ‘गणपति बप्पा’ के सामने दीपक जला कंपकंपाते हाथों से अपने बेटे के फोटो को देखकर आंखें भर आई। बूढ़ी आँखों से आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। पतिदेव ने गुस्से से कहा…. कब तक रोती रहोगी, वह अब कभी नहीं आएगा। हम मर भी जाएंगे तो भी नहीं आएगा। पर सयानी बूढ़ी अम्मा ने जोर से आवाज लगाई और चश्मा पोंछ कर बोली…. “आएगा। मेरा बेटा जरूर आएगा। मुझसे नाराज है पर बिछड़ा नहीं है। उसका गुस्सा होना जरूरी है पर वह हमसे दूर नहीं है।”

बारिश होने लगी थी। दीपक की लौ भी टिम टिम करने लगी। तेज हवा के चलते दरवाजा बंद करने जैसे ही बूढ़े बाबा ने हाथ बढ़ाया, दरवाजे पर हाथ किसी ने पकड़ लिया … “दादाजी” और जैसे चारों तरफ घंटी बजने लगी कंपकंपाते हाथों से छूकर आँखों से निहारा। उसी की तरह ही तो है। हाँ, यह अपना बेटा ही तो है????  परंतु दादाजी क्यों कह रहा है। आयुष ने चरण स्पर्श कर सब बातें बताई।

“पापा की डायरी से आपका नाम पता लिखकर मैं हॉस्टल से चला आया हूँ। अभी पापा को पता नहीं है। पोते ने जैसे ही कहा दादी कुछ देर सुनकर बोली…. “बेटा तुम अभी जाओ, नहीं तो कुछ अनर्थ हो जाएगा। तुम्हारे पापा बहुत ही जिद्दी हैं।” वह तो जैसे ठान कर आया हुआ था। जिद्द पकड़ ली कहा… “अभी और इसी वक्त आप मेरे साथ शहर चलेंगे। पोते की जिद से दादा दादी शहर रवाना हो गए।”

घर के दरवाजे पर जैसे ही पहुँचे बैंड बाजा बजने लगा। उन्होंने कहा…. “यहाँ क्या हो रहा है आयुष बेटा?” आयुष ने कहा… “दादा दादी आप अंदर तो चलिए यह आपका ही घर है। सारी प्लानिंग मम्मी- पापा ने मिलकर किया है।”  बेटे बहू ने भी माँ बाबूजी को घर के अंदर ले गए। बेटे ने कहा… “पिता जी आपकी बात और मेरी बात दोनों की जीत हो गई। परंतु, मेरे बेटे ने अनंत डिग्री के साथ अपनी खुशियों को लौटा लाया और उसने किसी की नहीं सुना। मेरी सारी गलतियों को क्षमा करें।” यह कह कर वह पिताजी से लिपट कर खुशी से रो पड़ा। पिताजी भी पुरानी बातें भूल बेटे को गले लगा गणपति बप्पा की जय जयकार करने लगे। बूढ़ी अम्मा कभी बेटे और कभी अपने पतिदेव को निहार कर गणपति बप्पा के अनंत रूप को प्रणाम कर मुस्कुराने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-3 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय  भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-3

अब देश स्वतंत्रत हो गया था, रघु काका जैसे लाखों अनाम शहीदों की कुर्बानी रंग लाई थी तथा रघु काका की ‌त्याग तपस्या सार्थक ‌हुई, उनकी सजा के दिन पूरे हो चले थे,आज उनकी रिहाई का दिन था।  जेलके मुख्य द्वार के सामने आज बड़ी ‌भीड़ थी, लोग अपने नायक को अपने सिर पर बिठा‌अभिनंदन करने को आतुर दिख रहे थे। उनके बाहर आते ही वहां उपस्थित अपार जनसमूह ने हर हर महादेव के जय घोष तथा करतलध्वनि से मालाफूलों से लाद कर  कंधे पर उठा अपने दिल में बिठा लिया था । लोगों से इतना प्यार और सम्मान पा छलक पड़ी थी रघु काका की आँखें।

इस घटनाक्रम से यह तथ्य बखूबी‌साबित हो गया कि जिस आंदोलन को समाज के संभी वर्गों का समर्थन मिलता है, वह आंदोलन जनांदोलन बन जाता है, जो व्यक्तित्व सबके हृदय में बस मानस पटल पर छा जाता है , वह जननायक बन सबके दिलों पर राज करता है।

इस प्रकार समय चक्र मंथर गति से चलता रहा चलता रहा,और रघु काका जेल में बिताए यातना भरे दिनों  अंग्रेज सरकार  द्वारा मिली यातनाओं को भुला चले थे। और एक बार फिर अपने स्वभाव के अनुरूप कांधे पर ढोलक टांगें जीविकोपार्जन हेतु घर से निकल पड़े थे,यद्यपि उनके पुत्र राम खेलावन अच्छा पैसा कमाने लगे थे। वो नहीं चाहते थे कि रघु काका अब ढोल टांग भिक्षाटन को जाएँ । क्योंकि इससे उनमें हीनभाव पैदा होती लेकिन रघु तो रघु काका ठहरे। उन्हें लगता कि गांव ज्वार की गलियां, बड़े बुजुर्गो का प्यार, बच्चों की‌ निष्कपट हँसी अपने ‌मोह पाश  में बांधे अपनी तरफ खींच रहीं हों। इन्ही बीते पलों की स्मृतियां उन्हें अपनी ओर खींचती और उनके कदम चल पड़ते गांवों की गलियों की ओर।

आज महाशिवरात्रि का पर्व है, सबेरे से ही लोग-बाग जुट पड़े हैं भगवान शिव का जलाभिषेक करने। शिवबराती बन शिव विवाह के साक्षी बनने।  महाशिवरात्रि पर पुष्प अर्पित करने मेला अपने पूरे यौवन पर था। पूरी फिजां में ही दुकानों पर छनती कचौरियो जलेबियों की तैरती सौंधी सौंधी खुशबू जहाँ श्रद्धालु जनों की क्षुधा को उत्तेजित कर रही थी तो  कहीं बेर आदि मौसमी फलों ‌से दुकानें पटी पड़ी थीऔर कहीं घर गृहस्थी के सामानों से सारा बाज़ार पटा पड़ा था, तो कहीं जनसमूह भेड़ों ,मुर्गों,  तीतर, बुलबुल के लड़ाई का कौशल देखने में मशगूल था।  कहीं लोक कलाकारों के लोक नृत्य तथा लोकगीतों की स्वरलहरियां लोगों के बढ़ते कदमों को अनायास रोक रही थी। इन्ही सबके बीच मंदिर प्रांगण से गाहे-बगाहे उठने वाले हर-हर महादेव के जयघोष की तुमुल ध्वनि वातावरण में एक नवीन चेतना एवं ऊर्जा का संचार कर रही थी।

उन सबसे अलग -थलग पास के प्रा०पाठशाला पर कुछ अलग‌‌ ही ऱंग बिखरा पड़ा था। महाशिवरात्रि के अवकाश में विद्यालय में वार्षिक सांस्कृतिक प्रतियोगिता चल‌ रही थी, निर्णायक मंडल के मुख्य अतिथि जिले के मुख्य शिक्षाधिकारी श्री राम खेलावन को बनाया गया था। क्योंकि उनके ऊंचे पद के साथ एक स्वतंत्रता सेनानी का पुत्र होने का सम्मान भी जुड़ा था, जो उस समय मंचासीन थे। प्रतियोगिता में उत्कृष्ट प्रदर्शनकर्ता को संम्मानित भी राम खेलावन के हाथों होना था। प्रतियोगिता में एक से बढ़ कर एक धुरंधर प्रतियोगी अपनी कला प्रदर्शित कर‌ रहे थे।

ऐसे में सर्वोच्च प्रतिभागी का चयन मुश्किल हो रहा था।  एक कीर्तिमान स्थापित होता असके अगले पल ही‌ टूट जाता। उसी मेले में सबसे अलग-थलग जमीन पर आसन
ज़माये अपनी ढोल की थाप पर रघूकाका ने आलाप लेकर अपनी सुर साधना की‌ मधुर तान छेड़ी तो जनमानस विह्वल हो आत्ममुग्ध हो गया। उनकी आवाज़ का जादू तथा भाव प्रस्तुति का ज्वार सबके सिर चढ़ कर इस कदर बोल उठा कि वाह बहुत खूब, अतिसुंदर, अविस्मरणीय, लोगों के जुबान से शब्द मचल रहे थे कि तभी आई प्राकृतिक आपदा में सब ऱंग में भंग कर दिया।सब गुड़गोबर हो गया। पहले लाल बादल फिर उसके बाद तड़ित झंझा तथा काले मेघों के साथ ओलावृष्टि ने वो तांडव मचाया कि मेले में भगदड़ मच गई। जिसे जहां ठिकाना मिला वहीं दुबक लिया। उसी समय अपनी जान बचाने रघूकाका भी भाग चलें पाठशाला की तरफ। पाठशाला प्रांगण में घुसते ही सबसे पहले मंचासीन रामखेलावन से ही रघु काका की नजरें चार हुई थी,। लेकिन दो अपरिचितों की तरह रघु काका को देखते ही रामखेलावन ने अपनी निगाहें चुरा ली थी।  उनके कलेजे की धड़कन बढ़ गई, मुंह सूखने लगा कलेजा मुंह को आ गया। वे अज्ञात ‌भय तथा आशंका से थर-थर कांप रहे थे।  पसीने से तर-बतर बतर हो गये। उन्हें डर था कि कहीं ‌यह बूढ़ा मुझसे अपना रिश्ता सार्वजनिक कर के अपमानित न कर दे। इसलिए इन परिस्थितियों से बचने हेतु शौच के‌ बहाने रामखेलावन विद्यालय के ‍पिछवाडे छुप आकस्मिक परिस्थितियों से बचने का‌ प्रयास कर रहे थे।

रघु काका की अनुभवी निगाहों ने रामखेलावन के‌ हृदय में उपजे भय तथा अपने प्रति‌उपजे‌ अश्रद्धा के भावों को पहचान लिया था ।वो लौट पड़े थे।  थके थके पांवों बोझिल कदमों से मेले की तरफ़। दिल पे लगी आज की भावनात्मक चोट अंग्रेजों द्वारा दी गई यातना की चोट से ज़्यादा गहरी एवम् दुखदायी, जिसने आज उनके सारे हौसलों को तोड़ कर अरमानों का गला घोट दिया था।

क्रमशः …. 4

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ धनवान ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ धनवान…. ☆

मनुष्य अतीतजीवी होता है। अपना बीता समय, विशेषकर बचपन उसकी स्मृतियों के केंद्र में होता है। अनेक बार इच्छा जगती है कि काश बचपन में लौट सकें! यह बात अलग है कि वयस्क बोध के साथ बचपन में लौटने की सोच, ख़ालिस बचपने के अलावा कुछ भी नहीं।

तब भी मनुष्य यह मनभावन बचपना करता रहता है। अनेक बार यह बचपना, सचमुच बचपन में ले जाता है। ऐसी ही एक घटना कल घटी।

सम्पूर्ण लॉकडाउन और उसके बाद अनलॉक-3 तक चरणबद्ध तरीके से पहुँचने की प्रक्रिया में लगभग पाँच माह बीत चुके हैं। इन पाँच माह में अनावश्यक कामों से बाहर जाना हर घर में प्रतिबंधित है। स्वाभाविक है कि इस बंधन से उच्चशिक्षा ग्रहण करती बिटिया की आउटिंग पर भी ब्रेक है। अपनी मित्रों के साथ कुछ शॉपिंग और फिर होटेल में भोजन, इस आउटिंग का एजेंडा होता है।

यह ब्रेक कल हटा जब अपने आगत जन्मदिन के निमित्त उसे पास के एक मॉल में कपड़े खरीदने जाने की अनुमति मिली। सारी एहतियात बरतकर वह और उसकी एक मित्र शॉपिंग के लिए गए।

शॉपिंग से लौटी तो  मेरे लिए दो टी-शर्ट साथ लाई। लॉकडाउन और उसके बाद लगभग ठप पड़ी व्यापारिक गतिविधियों के चलते अधिकांश समय ‘वर्क फ्रॉम होम’ ही रहा है। घर पर रहते हुए तीन टी-शर्ट में सारा काम चल रहा है। दो नियमित पहनने के लिए, एक बाजार से खरीदारी करने जाने के लिए जो लौटते ही धोने के लिए डाल दी जाती है। अन्य टी-शर्ट प्रयोग करने की न आवश्यकता अनुभव हुई, न अवसर ही आया। कुछ चित्त की वृत्ति भी ऐसी कि वसन की विविधता के आकर्षण में विशेष रमती नहीं।

याद आया कि माँ-पिताजी जब बाजार जाते थे तो हम भाई-बहनों के कपड़़े लाते थे। अपने आनंद में मग्न हमने कभी नहीं पूछा कि वे ख़ुद के लिए क्या लाए!

माँ का विस्तार होती है बेटी। उसके थैले से टी- शर्ट के रूप में निकला माँ का आशीर्वाद और बेटी का साथ पाकर मैं मानो बचपन में लौट गया! सुदर्शन फ़ाकिर ने लिखा है, ‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी!’

कुछ भी दिये बिना, सबकुछ पा लेनेवाले इस धनवान से ईर्ष्या करने के लिए पाठक स्वतंत्र हैं!

#हर मित्र इसी तरह धनवान हो!

©  संजय भारद्वाज 

 प्रात: 4:03 बजे, 27.8.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 41 ☆ लघुकथा – विडम्बना ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा विडंबना।  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 41 ☆

☆  लघुकथा – विडंबना 

’बहू ! गैस तेज करो, तेज आँच पर ही पूरियाँ फूलती हैं’ यह कहकर सास ने गैस का बटन फुल के चिन्ह की ओर घुमा दिया। तेल में से धुआँ निकल रहा था। पूरियाँ तेजी से फूलकर सुनहरी हो रही थी और घरवाले खाकर। कढ़ाई से निकलता धुआँ पूरियाँ को सुनहरा बना रहा था और मुझे जला रहा था। मेरी छुट्टियाँ पूरी-कचौड़ी बनाने में खाक हो रही थीं। बहुत दिन बाद एक हफ्ते की छुट्टी मिली थी।  मेरे अपने कई काम दिमाग में थे, सोचा था छुट्टियों में निबटा लूंगी। एक-एक कर सातों दिन नाश्ते- खाने में हवा हो गए। दिमाग में बसे मेरे काम कागजों पर उतर ही नहीं पाए। सच कहूँ तो मुझे उसका मौका ही नहीं मिला। पति का आदेश- ‘तुम्हारी छुट्टी है अम्मा को थोड़ा आराम दो अब, बाबूजी की पसंद का खाना बनाओ’। बच्चों की फरमाइश अलग- ‘मम्मी ! छुट्टी में तो आप मेरे प्रोजेक्ट में भी मदद कर सकती हैं ना ?’

बस, बाकी सबके कामकाज चलते रहे, मेरे कामों की फाइलें बंद हो गई थीं। कॉलेज में परीक्षाएँ समाप्त हुई थीं और जाँचने के लिए कॉपियों का ढेर मेरी मेज पर पड़ा था। बंडल बंधा ही रह गया। सोचा था इस छुट्टी में किसी एक शोध छात्र की थीसिस का एक अध्याय तो देख ही लूंगी लेकिन सब धरा रह गया। घर भर मेरी छुट्टी को एन्जॉय करता रहा। ‘बहू की छुट्टी है’ का भाव सासू जी को मुक्त कर देता है। मेरे घर पर ना रहने पर पति जो काम खुद कर लेते थे अब उन छोटे-मोटे कामों के लिए भी वे मुझे आवाज लगाते।  बच्चे वे तो बच्चे ही हैं।

छुट्टी खत्म होने को आई थी , छुट्टी के पहले जो थकान थी, वह छुट्टी खत्म होने तक और बढ़ गई थी। कल सुबह से फिर वही रुटीन-सुबह की भागम-भाग, सवा सात बजे कॉलेज पहुँचना है। मन में झुंझलाहट हो रही थी , इसी तरह काम करते-करते जीवन किसी दिन खत्म हो जाएगा। यह सब बैठी सोच ही रही थी कि पति ने बड़ी सहजता से मेरी पीठ पर हाथ मारते हुए कहा- बड़ी बोर हो यार तुम? कभी तो खुश रहा करो? छुट्टियों में भी रोनी सूरत बनाए बैठी रहती हो। आराम से सोफे पर लेट कर क्रिकेट मैच देखते हुए उन्होंने अपनी बात पूरी की- एन्जॉय करो लाइफ को यार ! मैं अवाक् देखती रह गई।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पुनर्पाठ – एक पत्र- अनाम के नाम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

पुनर्पाठ –

☆ संजय दृष्टि  ☆ एक पत्र- अनाम के नाम ☆

(ब्लू व्हेल के बाद ‘हाईस्कूल गेम’ अपनी हिंसक वृत्ति को लेकर चर्चा में रहा। इसी गेम की लत के शिकार एक नाबालिग ने गेम खेलने से टोकने पर अपनी माँ और बहन की नृशंस हत्या कर दी थी। उस घटना के बाद लेखक की प्रतिक्रिया, उस नाबालिग को लिखे एक पत्र के रूप में मे कागज़ पर उतरी ।)

प्रिय अनाम..,

अपने से छोटे को यही संबोधन लिखने के अभ्यास के चलते लिखा गया ‘प्रिय’..पर नहीं तुम्हें ‘प्रिय’ नहीं लिख पाऊँगा। घृणित, नराधम, बर्बर जैसे शब्दों का भी प्रयोग नहीं कर पाऊँगा क्योंकि मेरे माता-पिता ने मुझे कटुता और घृणा के संस्कार नहीं दिये। वैसे एक बात बताना बेटा…!!! …, हाँ बेटा कह सकता हूँ क्योंकि बेटा श्रवणकुमार भी हो सकता है और तुम्हारे जैसा दिग्भ्रमित क्रूरकर्मा भी।….और मैंने देखा कि तुम्हारी कल्पनातीत नृशंसता के बाद भी टीवी पर तुम्हारा पिता, तुम्हें ‘मेरा बेटा’ कह कर ही संबोधित कर रहा था। …सो एक बात बताना बेटा, कटुता और घृणा के संस्कार तो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें भी नहीं दिये थे, हिंसा के तो बिलकुल ही नहीं। फिर ऐसा क्या भर गया था तुम्हारे भीतर जो तुमने अपनी ही माँ और बहन को काल के विकराल जबड़े में डाल दिया!…उफ़!

जानते हो, आज सुबह अपनी सोसायटी के कुछ बच्चों को अपने-अपने क्रिकेट बैट की तुलना करते देखा। एक बच्चा बेहतर बैट खरीदवाने के लिए अपनी माँ से उलझ रहा था। माँ उसे आश्वासन दे रही थी कि उसे अच्छा, ठोस, मज़बूत और चौड़ा बैट खरीदवा देगी। अपनी माँ की हत्या करते समय तुम्हारे हाथ में जो बैट था, वह भी ठोस, मज़बूत और चौड़ा ही था न बेटा!…याद करो, बैट माँ ने ही दिलवाया था न बेटा!

माँ के आश्वासन के बाद उलझता यह बच्चा भी खुश हो गया। मैं सोच रहा था, कौन जाने उसके मस्तिष्क में तुम रोल मॉडेल की तरह बस जाओ। कहीं वह भी अभी से अपनी माँ के माथे की चौड़ाई और बैट की चौड़ाई की तुलना कर रहा हो। बैट इतना चौड़ा तो होना ही चाहिए कि एक ही बार में माँ का काम तमाम।…सही कह रहा हूँ न बेटा!

माँ ने शायद तुम्हें ‘हाईस्कूल गेम’ खेलने से रोका था। उन्हें डर था कि इस हिंसक खेल से तुम्हारे दिलो-दिमाग में हिंसा भर सकती है। तुम कहीं किसी पर अकारण वार न कर दो। गलती से, उन्माद में किसी की हत्या न कर बैठो।…माँ का डर सही साबित हुआ न बेटा!

जानकारी मिली है कि रोकने पर भी तुम्हारे ‘हिंसक गेम’ खेलते रहने पर चिंतित माँ ने तुम्हें एक-दो तमाचे जड़ दिये थे। तुम्हारी पीढ़ी, हमारे मुकाबले अधिक गतिशील है। हमने मुहावरा पढ़ा था, ‘ईंट का जवाब, पत्थर से दो’ पर तुमने तो चिंता का जवाब चिता से दे दिया दिया। इतनी गति भी ठीक नहीं होती बेटा!

.. और माँ ही क्यों..? वह नन्ही परी जो जन्म से तुम्हें राखी बाँधती आई, जिसने तुम्हें हमेशा रक्षक की भूमिका में देखा, जो संकट में तुम्हारी ओट को सबसे सुरक्षित स्थान समझती रही, ओट में ले जाकर उसकी ही अँतड़ियाँ तुमने बाहर निकाल दीं…बेटा!

खास बात बताऊँ, मरकर भी दोनों के मन में तुम्हारे लिए कोई दुर्भावना नहीं होगी। उनकी आत्मा चाहेंगी कि मेरे बेटे, मेरे भाई को दंड न हो, वह निर्दोष छूट जाए। सब कुछ लुट जाने के बाद तुम्हारा पिता भी तो यही चाहता है बेटा!

एक बात बताओ, खून से लथपथ माँ और बहन के पेट में कैंची और पिज्जा काटने का चाकू घोंपकर उनका मरना ‘कन्फर्म’ करते समय एक बार भी मन में यह विचार नहीं उठा कि इसी पेट में नौ महीने तुम पले थे बेटा!

तुम्हें जानकारी नहीं होगी इसलिए बता देता हूँ। मादा बिच्छू जब संतानों को जन्म देती है तो  नवजात बच्चे उसकी पीठ से चिपक जाते हैं। ये भूखे नवजात धीरे-धीरे माँ का पूरा शरीर खा जाते हैं। बच्चे को पालने के लिए माँ का मर जाना! …बिच्छू समझते हो न बेटा!

बहुत भयानक दंंश होता है बिच्छू का। पंद्रह वर्ष बच्चे को बड़ा करने के बाद उसीके हाथों अपना पेट फड़वाने से बेहतर है कि आनेवाले समय में स्त्री अपना पेट फाड़कर ही बच्चे को जन्म देने लगे। संतान का आगमन, माँ का गमन! ठीक कह रहा हूँ न बेटा!

ये बात अलग है कि तब संतानें पल नहीं पायेंगी। उन्हें अपने रक्त-माँस का दूध कर पयपान कौन करवायेगा? अपनी गोद में घंटों थपकाकर सुलायेगा कौन? खानपान, पसंद-नापसंद का ध्यान रखेगा कौन? ऐसे में तो माँ के चल बसने के कुछ समय बाद संतान भी चल बसेगी। न बाँस, न बाँसुरी, न सृष्टि का मूल, न सृष्टि का फूल! यही चाहते हो न तुम बेटा!

यही चाहते हो न तुम कि सृष्टि ही थम जाये। माँ न हो, बहन न हो, बेटी न हो, कोई जीव पैदा ही न हो। लौट जायें हम शून्य की ओर!…एक बात कान खोलकर सुन लो, अपवाद से परंपराएँ नहीं डिगतीं। निरी आँख से न दिखनेवाले सूक्ष्म जंतुओं से लेकर मनुष्य और विशालकाय हाथी तक में माँ और बच्चे की स्नेह नाल समान होती है। तुम्हारे कुत्सित अपवाद से अवसाद तो है पर सब कुछ समाप्त नहीं है।

…सुनो बेटा! अपनी माँ और बहन को खो देने का दुख अनुभव कर रहे हो न! ‘नेवर एंडिंग’ मिस कर रहे हो न। एक रास्ता है। उनकी ममता और स्नेह को मन में संजोकर तुम पार्थिव रूप से न सही परोक्ष रूप से माँ और बहन को अपने साथ अनुभव कर सकते हो। तुम्हारा जीवन सुधर जाये तो वे मरकर भी जी उठेंगी।

सद्मार्ग से आगे का जीवन जीने का संकल्प लेकर अपनी माँ और बहन को पुनर्जीवित कर सकते हो।…..करोगे न बेटा..!!

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 60 – हाइबन – नभ में छवि ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “नभ में छवि। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 60 ☆

☆ नभ में छवि ☆

आठ वर्षीय समृद्धि बादलों को उमड़ती घुमड़ती आकृति को देखकर बोली, ” दादाजी ! वह देखो । कुहू और पीहू।” और उसने बादलों की ओर इशारा कर दिया।

बादलों में विभिन्न आकृतियां बन बिगड़ रही थी, ” हाँ  बेटा ! बादल है ।” दादाजी ने कहा तो वह बोली, ” नहीं दादू , वह दादी है।” उसने दूसरी आकृति की ओर इशारा किया, ”  वह पानी लाकर यहां पर बरसाएगी।”

“अच्छा !”

“हां दादाजी, ”  कहकर वह बादलों  को निहारने लगी।

नभ में छवि~

दादाजी को दिखाए

दादी का फोटो।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 60 – काला तिल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक  अतिसुन्दर एवं सार्थक लघुकथा  “काला तिल ।  एक विचारणीय लघुकथा। विवाह के सात फेरों का बंधन और स्त्री के अहं के सामने सब कुछ व्यर्थ है। यही हमें संस्कार में भी मिला है। किन्तु, कितने लोग इस गूढ़ अर्थ को समझते हैं और कितने लोग इसे अपनी नियति मान लेते हैं ?  इस सार्थक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 60 ☆

☆ लघुकथा – काला तिल

तन की सुंदरता अपार और उस पर गोरा रंग, किसी की भी निगाहें  उसे एक टक देखा करती थी।

कहीं भी आए जाए हर समय माता – पिता को अपनी बिटिया दिव्या को लेकर परेशानी होती थी।

समय गुजरता गया पुराने विचारों के कारण दिव्या की कुंडली मिलान कर एक बहुत ही होनहार युवक  से उसका विवाह तय कर दिया गया। गिरधारी अच्छी कंपनी पर नौकरी करता था। परंतु रंग तो ईश्वर का दिया हुआ था, काला रंग और नाम गिरधारी।

दोनों से आज के समय की दिव्या को कुछ नहीं जच रहा था। घरवालों की इच्छा और सभी की खुशियों के लिए उसने विवाह के लिए हाँ कर दी। विवाह उपरान्त ससुराल जाकर वह अपने और गिरधारी के रंग को लेकर बहुत परेशान हुआ करती थी।

कहते हैं सात समंदर पार पुत्री का विवाह, ठीक उसी तरह दिव्या भी बहुत दूर जा चुकी थी, अपने माता-पिता और परिवार से।

पग फेरे के लिए दिव्या को मायके आना था, उसे तो बस इसी दिन का इंतजार था कि अब वह जाएगी तो कभी भी वापस नहीं आएगी और अपनी दुनिया अलग बसा लेगी।

इस बात से गिरधारी परेशान भी था परंतु दिव्या की खुशी के लिए सब कुछ सहन कर लिया।

ट्रेन अपनी तीव्र गति से आगे बढ़ रही थी। दिव्या गिरधारी को जहां पर सीट मिली थी। वहाँपर कुछ मनचले नौजवान भी सफर कर रहे थे। हाव-भाव देकर वह समझ गए कि शायद वह अपने पति को पसंद नहीं करती।

बस फिर क्या था?? सब अपनी-अपनी शेखी  दिखाने लगे। काले रंग को लेकर छीटाकशी और सुंदरता की परख पर उतावले से चर्चा करने लगे।

दिव्या के कारण गिरधारी चुप रहा। शायद वह कुछ बोले तो दिव्या को खराब लगेगा। थोड़ी देर बाद जब हद से ज्यादा मजाक और अभद्र बातें निकलने लगी। उस समय दिव्या बड़ी ही सहज भाव से उठी और एक सुंदर गोरे नौजवान को इशारे से देख बोलने लगी सुनो…. “काले रंग-गोरे रंग पर इतना ज्यादा मत उलझो। मेरी सुंदरता मेरे पति के सुंदर काले रंग से और भी निखर रहा है। मैं तुम्हें समझाती हूं। मान लो मेरा गोरा रंग मेरे पति को लग जाएगा तो लोग उसे बिमारी और त्वचा रोग समझने लग जाएंगे।परन्तु , मेरे पति का थोड़ा सा काला रंग मुझे लग जाएगा, तो मेरे गोरे रंग पर ”काला तिल” बनकर निखर उठेगा। मेरे पति लाखों में एक है। गिरधारीअब तक चुपचाप बैठा था, उठकर दिव्या के पास खड़ा हो गया। आंखों ही आंखों में दोनों ने बातें कर ली। सब कुछ सामान्य और सहज हो गया। ट्रेन अपनी गति से आगे बढ़ती जा रही थीं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 61 ☆ लघुकथा – बदलाव ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक  समसामयिक लघुकथा  ‘बदलाव’।  वर्तमान महामारी ने प्रत्येक व्यक्ति में बदलाव ला दिया है । डॉ परिहार जी  ने इस मनोवैज्ञानिक बदलाव को बखूबी अपनी लघुकथा में दर्शाया है। इस  सार्थक समसामयिक लघुकथा के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 61 ☆

☆ लघुकथा – बदलाव

 फोन की घंटी बजी तो मिसेज़ चन्नी ने उठाकर बात की। बात ख़त्म हुई तो माँजी यानी उनकी सास ने चाय पीते पीते पूछा, ‘किसका फोन आ गया सुबे सुबे?’

मिसेज़ चन्नी ने जवाब दिया, ‘वही गीता है। कहती है अब बुला लो। कहती है अन्दर आकर झाड़ू-पोंछा नहीं करेगी, बर्तन धोकर बाहर बाहर चली जाएगी। आधे काम के ही पैसे लेगी। ‘

माँजी बोलीं, ‘बड़ी मुश्किल है। ये बीमारी ऐसी फैली है कि किसी को भी घर में बुलाने में डर लगता है। बाहर से आने वाला कहाँ से आता है, कहाँ जाता है,क्या पता। बड़ा खराब टाइम है भाई। ‘

मिसेज़ चन्नी बोलीं, ‘कहती है कि बहुत परेशान है। माँ की तबियत खराब है, उसकी दवा के लिए पैसे की दिक्कत है। ‘

माँजी कहती हैं, ‘सोच लो। हमें तो भई डर लगता है। ‘

मिसेज़ चन्नी बोलीं, ‘डर की बात तो है ही। ये बीमारी ऐसी है कि इसका कुछ समझ में नहीं आता। मैं तो टाल ही रही हूँ। कह दिया है कि एक दो दिन में बताती हूँ। बार बार रिक्वेस्ट कर रही थी। ‘

शुरू में जब गीता को काम पर आने से मना किया तो मिसेज़ चन्नी बहुत नर्वस हुई थीं। समझ में नहीं आया कि काम कैसे चलेगा। खुद उन्हें ऐसे मेहनत के काम करने की आदत नहीं। एक दिन झाड़ू-पोंछा करना पड़ जाए तो बड़ी थकान लगती है। बर्तन धोना तो पहाड़ लगता है।

राहत की बात यह है कि ये दोनों काम बच्चों ने संभाल लिये हैं। बच्चों के स्कूल बन्द हैं, व्यस्त रहने के लिए कुछ न कुछ चाहिए। मोबाइल में उलझे रहने के बजाय झाड़ू लगाने और बर्तन धोने में मज़ा आता है। इसे लेकर निक्कू और निक्की में लड़ाई होती है, इसलिए दोनों के अलग अलग दिन बाँध दिये हैं। एक दिन निक्कू बर्तन धोयेगा तो निक्की झाड़ू-पोंछा करेगी। दूसरे दिन इसका उल्टा होगा। आधे घंटे का काम एक घंटे तक चलता है। उनका काम देखकर मिसेज़ चन्नी और माँजी हुलसती रहती हैं। इनाम में बच्चों को चॉकलेट मिलती है। सब का मनोरंजन होता है।

माँजी ऐसे मौकों पर गीता को याद करती रहती हैं। महामारी फैलने से पहले गीता अपनी तुनकमिजाज़ी के लिए मुहल्ले में बदनाम थी। काम में तो तेज़ थी, लेकिन कोई बात उसके मन के हिसाब से न होने पर उसे काम छोड़ने में एक मिनट भी नहीं लगता था। मिसेज़ चन्नी का काम उसने दो बार छोड़ा था और दोनों बार उसे सिफारिश और खुशामद के बाद वापस लाया गया था।

पहली बार मिसेज़ चन्नी ने बर्तनों में चिकनाहट लगी रहने की शिकायत की थी और वह दूसरे दिन गायब हो गयी थी। फिर मिसेज़ शुक्ला से सिफारिश कराके उसे वापस बुलाया गया, और माँजी ने उसे ‘बेटी बेटी’ करके बड़ी देर तक पुचकारा। तब मामला सीधा हुआ। दूसरी बार बिना बताये छुट्टी लेने पर मिसेज़ चन्नी ने शिकायत की थी और वह फिर अंतर्ध्यान हो गयी थी। तब मिसेज़ चन्नी उसे घर से बुलाकर लायी थीं। आने के बाद भी वह तीन चार दिन मुँह फुलाये रही थी और मिसेज़ चन्नी की साँस ऊपर नीचे होती रही थी।

आखिरकार मिसेज़ चन्नी ने गीता को बुला लिया है। बच्चे घर के काम से अब ऊबने लगे हैं। चार दिन का शौक पूरा हो गया है। पहले काम करने के लिए जल्दी उठ जाते थे, अब उठने में अलसाने लगे हैं। बुलाने के साथ गीता को समझा दिया गया है कि गेट से आकर पीछे बर्तन धो कर चली जाएगी, घर के भीतर प्रवेश नहीं करेगी। गीता तुरन्त राज़ी हो गयी है। समझ में आता है कि रोज़ी की चिन्ता ने उसकी अकड़ को ध्वस्त कर दिया है।

मिसेज़ चन्नी देखती हैं कि दो तीन महीनों में गीता बहुत बदल गयी है। चुपचाप आकर काम करके निकल जाती है। पहले जैसे आँख मिलाकर बात नहीं करती। कभी बर्तन ज़्यादा हो जाएं तो आपत्ति नहीं करती। कभी देर से पहुँचने पर मिसेज़ चन्नी ने झुँझलाहट ज़ाहिर की तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसको लेकर अब मिसेज़ चन्नी के मन में कोई तनाव नहीं होता। उन्हें लगता है कि गीता को लेकर अब निश्चिंत हुआ जा सकता है। अब आशंका का कोई कारण नहीं रहा।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-2 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय  भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-2

निम्न‌ कुल में जन्म लेने के बाद भी उन्होंने अपना एक अलग‌ ही आभामंडल विकसित कर लिया था। इसी लिए वे उच्च समाज के महिला पुरुषों के आदर का पात्र बन कर उभरे थे। मुझे आज भी वो समय‌ याद है जब देश अंग्रेजी शासन की ग़ुलामी से आजादी का आखिरी संघर्ष कर रहा‌ था। महात्मा गांधी की अगुवाई में अहिंसात्मक आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था। हज़ारों लाखों भारत माता के अनाम लाल  हँसते हुए फांसी का फंदा चूम शहीद हो चुके थे। इन्ही परिस्थितियों ने रघु काका के हृदय को आंदोलित और  उद्वेलित कर दिया था। वे भी अपनी ढ़ोल‌क ले कूद पड़े थे। दीवानगी के आलम में आजादी के संघर्ष में अपनी भूमिका निभाने तथा अपना योगदान देने। अब उनके गीतों के सुर लय ताल बदले हुए थे। वे अब प्रेम विरह के गीतों के बदले देश प्रेम के गीत गाकर नौजवानों के हृदय में देशभक्ति जगाने लगे थे। अब उनके गीतों में भारत माँ के अंतर की‌ वेदना मुख्रर हो रही थी।

इसी क्रम में एक दिन वे गले में ढोल लटकाये आजादी के दीवानों के दिल में जोश भरते जूलूस की अगुवाई ‌कर रहे थे। उनके देशभक्ति के भाव‌ से  ओत-प्रोत ओजपूर्ण गीत सुनते सुनते जनता के हृदय में देशभक्ति का ज्वार उमड़ पड़ा था। देशवासी भारत माता की जय, अंग्रेजों भारत छोड़ो के नारे लगा रहे थे। तभी अचानक उनके जूलूस का सामना अंग्रेजी गोरी फौजी टुकड़ी से हो गया। अपने अफसर के आदेश पर फौजी टुकड़ी टूट पड़ी थी।  निहत्थे भारतीय आजादी के दीवानों  पर सैनिक घोडे़ दौड़ाते हुए हंटरो तथा बेतों से पीट रहे थे। तभी अचानक उस जूलूस का नजारा बदल गया। भारतीयों के खून की प्यासी फौजी टुकड़ी का अफसर  हाथों से तिरंगा थामे बूढ़े आदमी को जो उस जूलूस का ध्वजवाहक था अपने आक्रोश के चलते  हंटरो से पीटता हुआ  पिल  पड़ा था   उस पर। वह बूढ़ा आदमी दर्द और पीड़ा से बिलबिलाता बेखुदी के आलम में भारत माता की जय के नारे लगाता चीख चिल्ला रहा था। वह अपनी जान देकर भी ध्वज झुकाने तथा हाथ से छोड़ने के लिए तैयार न था  और रघू काका उस बूढ़े का अपमान सह नहीं सके।  फूट पड़ा था उनके हृदय का दबा आक्रोश। उनकी आँखों में खून उतर आया था।

उन्होंने झंडा झुकने नहीं दिया। उस बूढ़े को पीछे धकेलते हुए अपनी पीठ आगे कर दी थी।  आगे बढ़ कर सड़ाक सड़ाक सड़ाक  पीटता जा रहा था अंग्रेज अफसर। तभी रघु काका ने उसका हंटर पकड़ जोर से झटका दे घोड़े से नीचे गिरा दिया था । जो उनके चतुर रणनीति का हिस्सा थी। उन्होंने अपनी ढोल को ही अपना हथियार बना अंग्रेज अफसर के सिर पर दे मारा था।  अचानक इस आक्रमण ने उसको संभलने का मौका नहीं दिया। वह अचानक हमले से घबरा गया। फिर तो जूनूनी अंदाज में पागलों की तरह पिल पड़े थे उस पर  और मारते मारते भुर्ता बना दिया था उसे। उसका रक्त सना चेहरा बड़ा ही वीभत्स तथा विकृत भयानक दीख रहा था। वह चोट से बिलबिलाता गाली देते चीख पड़ा था।  “ओ साला डर्टीमैन टुम अमको मारा। अम टुमकों जिन्डा नई छोरेगा। और फिर तो उस गोरी टुकड़ी के पांव उखड़ ‌गये थें। वह पूरी टुकड़ी जिधर से आई थी उधर ही भाग गई थी और रघु काका ने ‌अपनी‌ हिम्मत से स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक नया अध्याय ‌लिख दिया था। आज की जीत का सेहरा‌ रघु काका के सिर सजा था और उनका सम्मान और कद लोगों के बीच बढ़ गया ‌था। वे लोगों की श्रद्धा का केन्द्र ‌बन बैठे थे।

लेकिन कुछ ही दिन बाद रघु काका अपने ही‌ स्वजनों-बंधुओं के ‌धोखे का शिकार बने थे। वे मुखबिरी व गद्दारी के चलते रात के छापे में पकड़े गये थे।  लेकिन उनके चेहरे पर भय आतंक व पश्चाताप का कोई भाव नहीं थे। वे जब घूरते हुए अंग्रेज अफसर की तरफ दांत पीसते हुए देखते तो उसके शरीर में झुरझुरी छूट जाती। ‌उस दिन उन पर अंग्रेज थानेदार अफसर ने बड़ा ‌ही बर्बर अत्याचार किया था। लेकिन वह रघु के‌ चट्टानी हौसले ‌‌को तोड़ पाने में ‌विफल रहा। वह हर उपाय‌ साम दाम दंड भेद अपना चुका था लेकिन असफल रहा था मुंह खुलवाने में। न्यायालय से रघु काका को लंबी ‌जेल की सजा सुनाई गई थी। उन्हें कारागृह की अंधेरी तन्ह काल कोठरी में डाल दिया ‌गया था। लेकिन वहाँ जुल्म सहते हुए भी उनका जोश जज्बा और जुनून कम नहीं हुआ। उनके जेल जाने पर उनके एकमात्र वारिस बचे पुत्र  राम खेलावन‌ के पालन पोषण की ‌जिम्मेदारी  समाज के वरिष्ठ मुखिया लोगों ने अपने उपर ले लिया था। राम खेलावन ने भी अपनी विपरित परिस्थितियों के नजाकत को समझा था और अपनी पढ़ाई पूरी मेहनत के ‌साथ की तथा उच्च अंकों से परीक्षा ‌पास कर निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ते हुए अपने ही जिले के शिक्षा विभाग  में उच्च पद पर आसीन हो गये थे। वे जिधर भी जाते स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र होने के नाते उनको भरपूर सम्मान मिलता जिससे उनका हृदय आत्मगौरव के प्रमाद से ग्रस्त हो गया था। वे भुला चुके थे अपने गरीबी के दिनों को।

क्रमशः …. 3

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ स्त्री ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा स्त्री । इस रचना के सन्दर्भ में श्री कमलेश भारतीय जी के ही शब्दों में “डाॅ कमल चोपड़ा के संपादन में आई संरचना के सन् 2019 के संकलन में प्रकाशित यह लघुकथा। फेसबुक ने की रिपीट। यानी इसे लिखे हो गया एक साल।” कृपया आत्मसात करें।

☆ लघुकथा : स्त्री 

वह जार जार रोये जा रही थी और फोन पर ही अपने पति से झगड़  रही थी । बार बार एक ही बात पर अड़ी  हुई थी कि आज मैं घर नहीं आऊँगी। बहुत हो गया । संभालो अपने बच्चे । मुझे कुछ नहीं चाहिए ।

पति दूसरी तरफ से मनाने की कोशिश में लगा था और वह  आँसुओं में डूबी कह रही थो कि आखिर मैं कलाकार हूं तो बुराई कहाँ  है ? क्या मैं घर का काम नहीं करती ? क्या मैं आदर्श बहू नहीं ? यदि कला का दामन छोड दूं और मन मार कर रोटियां थापती और बच्चे पालती रहूँ तभी आप बाप बेटा खुश होंगे ? नहीं । मुझे अपनी खुशी भी चाहिए । मेरो कला मर रही है । आज मेरा इंतजार मत करना । मैं नौकरी के बाद सीधे मायके जाऊँगी। मेरे पीछे मत आना ।

इसी तरह लगातार रोती बिसूरती वह ऑफिस का टाइम खत्म होते ही सचमुच अपने मायके चली गयी।

माँ  बाप ने हैरानी जताई । अजीब सी नजरों से देखा । कैसे आई ? कोई जरूरी काम आ पड़ा ? कोई स्वागत नहीं । कहीं बेटी के घर आने की कोई खुशी नहीं । चिंता, बस चिंता । क्या करेगो यहां बैठ कर ? मुहल्लेवाले क्या कहेंगे ? हम कैसे मुँह दिखायेंगे ?

शाम को पति मनाने और लिवाने आ गया । कहाँ है मेरा घर ? यह सोचती अपने रोते बच्चों के लिए घर लौट गयी । पर कौन सा घर ? किसका घर ? कहाँ खो गयी कला ? किसी घर में नहीं ?

©  कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

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