हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ महाकवि गुणाढ्य और उसकी बड्डकहा (बृहत्कथा) – भाग ३ ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ महाकवि गुणाढ्य और उसकी बड्डकहा(बृहत्कथा) – भाग ३ ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆

(सातवाहन नरेश गुणाढ्य और उसके महान* साहित्य को सम्मान के साथ राजधानी वापस ले आया।) अब आगे……

इस कहानी के बारे में संदर्भ…. एक लोक कथा!

मूल बृहत्कथा के बारे में यह एक किंवदंती है कि भगवान शिवजी एक बार माता पार्वती को बृहत्कथा सुना रहे थे। दुनिया की सारी की सारी कथा- कहानीयाॅं, काव्य, नाटक, दंत कथा सबका उसमें समावेश था।वह सारी बृहत्कथा शिव जी के एक ‘गण’ ने योग सामर्थ्य से गुप्त होकर सुन ली थी।इसी बात का पता चलने पर माता पार्वती ने उस गण को ,साथ में इस बात के लिए माफी माॅंगने वाले उसके एक दोस्त को और एक यक्ष जो इसमें शामिल था, तीनों को शाप दिया था। परिणाम स्वरुप उन तीनों को मानव योनि में पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा था और अभिशाप यह था कि वे  यह कथा जन सामान्य तक पहुॅंचाते है ,तो उन्हें फिर से दिव्य लोक की प्राप्ति होगी।उस गण के दोस्त का मानव जन्म में नाम था गुणाढ्य!

वरदान, शाप, अभिशाप, पूर्व जन्म का ज्ञान, पुनर्जन्म आदि बातों पर हम लोग यकीन ना भी करें तो भी …. इस किंवदंती के अनुसार वररुची नामक व्यक्ति ने ( गण) काणभूती को (यक्ष) और उसने आगे चलकर यह बृहत्कथा गुणाढ्य को सुनाई थी। जिसने आगे जाकर उसका सामान्य लोगों में प्रचार, प्रसार करने के लिए उसको पैशाची भाषा में लिखा था।  इस बात पर तो हम भरोसा कर सकते हैं।

…. क्योंकि यह पुराण की कथा नहीं है। उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। ऐतिहासिक साक्ष्यों से सातवाहन शासकों का काल ईसा पूर्व 200 से 300 तक माना जाता है। उनमें से एक शासक ने गुणाढ्य को अपना मंत्री बनाया था।

गुणाढ्य की बड्डकहा मूल रूप में उपलब्ध नहीं है। लेकिन सन 931 में कवि क्षेमेंद्र ने 7500 श्लोकों का ‘बृहत्कथा मंजिरी’ नामक एक श्लोक संग्रह लिखा। तत्पश्चात कवि सोमदेव भट्ट ने 1063 से 1082 इस कालखंड में 2400 श्लोकों का ‘कथासरित्सागर’ यह ग्रंथ लिखा। दोनों ने अपने ग्रंथ गुणाढ्य के एक लाख श्लोक से जो उनको उपलब्ध हो गए थे, संस्कृत में अनुवादित किए।उनको ही’गुणाढ्य की बृहत्कथा’ कहते हैं ।बृहत्कथा भारतीय परंपरा का महाकोष है। सब प्राचीन दंतकथा व साहित्य का उद्गम स्थान है ।बाण,

त्रिविक्रम, धनपाल आदि श्रेष्ठ साहित्यकारों ने बृहत्- कथा को एक अनमोल, उपयुक्त ग्रंथ संग्रह के रूप में माना है ।जो अद्भुत है, और आम लोगों का मनोरंजन करता है ।वह सागर के समान विशाल है, यह उनका बयान है। इसी सागर की एक बुॅंद मात्र से बहुत से कथाकारोंने कवियों ने अपनी साहित्य रचना की है ।

वेद, उपनिषदों, पुराणों में प्राप्त होने वाली कथा कहानियाॅं वगैरह सब उच्च वर्ग, उच्च वर्ण के साहित्यिक धाराओं के माध्यम से भारतीय इतिहास के सांस्कृतिक अतीत से जुड़ी थी ।उसकी समानांतर दूसरी सर्व सामान्य लोगों में प्रचलित लोक साहित्य की धारा भी आदिकाल  से अस्तित्व में थी।सबसे पहले गुणाढ्य ने इस दूसरे साहित्य धारा को बहुत बड़े पैमाने पर लोगों की उनकी अपनी भाषा में संग्रहित किया ।बृहत्कथा सामान्य लोगों के जिंदगी से वास्ता रखती है।जुआरी,चोर, धूर्त, लालची,ठग,व्यभिचारी,

भिक्षु ,अध:पतित महिला, ऐसे कई पात्र कहानियों में है ।उसमें मिथक और इतिहास, यथार्थ और काल्पनिक लोक, सत्य और भ्रम का अनोखा मिश्रण है।

कादंबरी, दशकुमार चरित्र, पंचतंत्र, विक्रम वेताल की पच्चीस कथाऍं, सिंहासन बत्तीसी, शुकसारिका ऐसे कथा चक्र; स्वप्नवासवदत्ता, प्रतिज्ञा यौगंधरायण इस तरह के नाटक, कथा, काव्य, किंवदंतियाॅं और उपाख्यान सम्मिलित है।

इस वजह से उनके रचनाकार, जैसे की बाणभट्ट,भास, धनपाल, सौंडल, दंडी, विशाखादत्त, हर्ष …और बहुत सारे रचनाकार बृहत्कथा के याने गुणाढ्य के ऋणी है ।जितना पौराणिक कथा संग्रहों को उतना ही लोक कथा संग्रहों को भी असाधारण महत्व प्राप्त है। इसी वजह से गोवर्धन आचार्य जी ने वाल्मीकि और वेदव्यास के बाद महाकवि गुणाढ्य को तीसरा महान रचनाकार माना है। वे उसको व्यास का अवतार भी मानते थे। यही बात गुणाढ्य का असामान्यत्व सिद्ध करती है।

— समाप्त —

© सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ महाकवि गुणाढ्य और उसकी बड्डकहा (बृहत्कथा) – भाग २ ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ महाकवि गुणाढ्य और उसकी बड्डकहा(बृहत्कथा) – भाग २ ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆

(व्याकरण सहित संस्कृत पढ़ाने के बारे में शर्ववर्मा और गुणाढ्य में शर्तें तो लग गई,) अब आगे…

अब यह शर्त जितना बड़े प्रतिष्ठा का विषय बन गया। शर्ववर्मा ने कुमार स्वामी जी से ‘कातंत्र व्याकरण’ सीखा था।यह वही दैनंदिन कामकाज में सहाय करने वाला व्यावहारिक व्याकरण था। उसकी मदद से शर्ववर्मा ने सचमुच ही राजा को छह महीने में इस तरह से संस्कृत और व्याकरण सिखाया की संस्कृत बोलते वक्त राजा को किसी के सामने शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं थी।

राजा बहुत खुश हुआ। बहुत धन दौलत देकर उसने शर्ववर्मा की पूजा की। उसे नर्मदा तट पर स्थित भृगु- कच्छ (भडोच) देश का राजा घोषित किया।  

केवल वह जल क्रीडा की घटना और उसकी अगली कड़ी– शर्त हारने की घटना, दोनों ने गुणाढ्य के उर्वरित जीवन को उलट पलट कर रख दिया। उसके जिंदगी की दशा और दिशा ही बदल गई। वहाॅंसे उसके जीवन का बुरा दौर शुरू हो गया।

शर्त के अनुसार उसने संस्कृत, पाली, प्राकृत भाषा त्याग दी।मौन धारण कर कर वह विंध्य पर्वत पर जाकर विंध्यवासिनी की पूजा अर्चना में मग्न हो गया। कुछ समय पश्चात वहाॅं के वनवासियों से उसने ‘पैशाची’भाषा सीख ली। यह पैशाची भाषा प्राकृत का ही उपभेद थी।

गुणाढ्य ने वहाॅं बृहत्कथा की रचना की ।सात साल के अथक प्रयासों से  सात लाख छंदों में उसने वह लिखी ।…..वह भी पैशाची भाषा में!….. इसलिए उसका नाम बड्डकहा!  

विंध्याचल के घने जंगल में स्याही या भूजपत्र उपलब्ध नहीं थे।परिणाम स्वरुप मनस्वी गुणाढ्य ने मृत प्राणियों के चमड़े पर खुद के खून की स्याही से यह विशाल कथा लिख डाली। लिखते लिखते वह छंदों का उच्चारण भी करता रहता था।उसे सुनने के लिए वहां सिद्ध विद्याधरों  की भीड़ इकट्ठी होने लगी। उसमें से गुणदेव और नंदी देव उसके शिष्य बन गए ।

सात साल बाद जब बड्डकहा पूरी हो गई तब उसका प्रसार प्रचार किस तरह से किया जाए ,यह सवाल गुणाढ्य के सामने उपस्थित हो गया। उसके शिष्यों के मत के अनुसार सिर्फ सातवाहन नरेश जैसा व्यक्ति ही यह काम कर सकता था। गुणाढ्य को भी यह सलाह अच्छी लगी। फिर उसके दोनों शिष्य राजधानी में

सातवाहन के दरबार में पहुॅंच गए ।उन्होंने  गुणाढ्य के कालजई कृति पर राजा को विस्तार से जानकारी दी।….

…लेकिन सात लाख छंदों(श्लोकों) की इतनी बड़ी पोथी?…. नहीं,बडा पोथा… वह भी जानवरों की खाल पर….. पैशाची जैसे नीरस भाषा में….. और तो और, ….इंसान की लहू से लिखा गया हुआ…. पूरे दरबार में जिसकी बदबू फैल गई थी!….. ऐसे कृति की ओर देखना भी राजा ने मुनासिब नहीं समझा।  शिष्यों के साथ बुरा व्यवहार करकर उनको अपमानित करकर राजा ने उनको वापस भेज दिया ।

राजा के इस व्यवहार से कवि गुणाढ्य बहुत दुखी हो गया। राजधानी के पास की एक पहाड़ी पर उसने अग्नि कुंड बनाया। ऊॅंची उठती आगकी लपटों में उसने  अपने महान कलाकृति का एक के बाद एक पन्ना गाकर फिर उसमें अर्पण करना शुरू कर दिया। उन श्लोकों के गायन में इतनी मधुरता थी, कि पासपडोस के जंगल में रहने वाले पशु पक्षी उसके पास इकट्ठे हो गए ।एक-एक करके पन्ना अग्निकुंड में जलकर भस्म हो रहा था। यह दृश्य देखने वाले शिष्यों के ऑंखों में पानी था… और पशु पक्षी खाना पीना भूल कर ऑंसू भरी ऑंखों से स्तब्ध होकर बड्डकहा का श्रवण कर रहे थे।

इधर सातवाहन के राजमहल में सामिष भोजन के लिए अच्छा मांस उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। क्योंकि सारे पशु पक्षियों की निराहार रहने की वजह से हड्डियां निकल आई थी। शरीर का सारा मांस नष्ट होने लगा था।  प्रयास करने पर इसका कारण ज्ञात हुआ  और उसके साथ ही गुणाढ्य के  काव्य- कथा हवन की बात भी सामने आ गई।सारी बीती बातें राजा को याद आ गई ।उसको बहुत पछतावा हुआ। अपनी गलती  सुधारने के  लिए वह तुरंत उस पहाड़ी पर गया। कितनी भी कोशिश करने पड़े, गुणाढ्य को और उसकी बड्डकहा को बचाने का राजा ने प्रण ही किया था। राजा ने साष्टांग प्रमाण  कर कर गुणाढ्य से क्षमा याचना की। बहुत मिन्नतें की। वहीं बैठकर आमरण अन्न जल त्याग कर मरने का अपना निश्चय बताया। आखिर में गुणाढ्य ने अपने रचनाओं को अग्नि मेंअर्पित करना बंद किया। …लेकिन तब तक कथा का सातवाॅं हिस्सा, सिर्फ एक लाख श्लोक ही बच पाए थे। राजा ने उसके प्रचार प्रसार का वचन दे दिया और गुणाढ्य को उसके अमूल्य साहित्य के साथ सम्मान सहित अपने राजधानी वापस ले आया।

क्रमशः… 

© सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ महाकवि गुणाढ्य और उसकी बड्डकहा (बृहत्कथा) – भाग १ ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ महाकवि गुणाढ्य और उसकी बड्डकहा (बृहत्कथा) – भाग १ ☆ सुश्री सुनीता गद्रे ☆

लगभग ईसा पूर्व 200 या 300 साल का कालखंड उस समय विंध्य पर्वत के दक्षिण में… मतलब आज का गुजरात, दक्षिण मध्य प्रदेश, उत्तर महाराष्ट्र का हिस्सा… वहाॅं सातवाहन वंश के राजाओं का राज्य था। उसमें से एक सातवाहन राजा के कालावधी में घटी हुई यह कहानी! प्रतिष्ठान (पैठण) प्रदेश में एक छोटा सा गाॅंव था, नाम सुप्रतिष्ठित !वहाॅं सोमनाथ शर्मा नाम के एक विद्वान पंडित रहते थे। उनका पोता गुणाढ्य! बचपन से ही वह बहुत बुद्धिमान था। दक्षिणापथ से विद्या ,ज्ञान अर्जित कर कर वह अपने गाॅंव वापस आया। इस प्रतिभावंत, विद्वान युवक को सातवाहन नरेश ने अपने राज्य का मंत्री पद बहाल किया।

एक दिन की बात!  सातवाहन राजा अपने रानियों के साथ राजमहल के पास बने हुए जलाशय में  जलक्रीड़ा का आनंद ले रहा था। उसकी एक रानी राजा ने किए हुए पानी के वर्षाव से परेशान हो गई थी। वह अचानक बोल पड़ी “मोदकैस्ताडय।” इस संस्कृत वाक्य का जो अर्थ राजा के समझ में आया वह था मुझे मोदकों से मारना। उसने तत्काल सेविकाओं से बहुत सारे मोदक(लड्डू) मंगवाऍं। यह देखकर रानी जोर से हॅंस पड़ी और कहने लगी,” राजन् यहाॅं जल क्रीडा में मोदकों का क्या काम ?मैंने तो आपसे कहा था,”मा उदकै: ताडय!” मतलब मुझ पर पानी मत उड़ाईए। आपको तो संस्कृत व्याकरण के संधि के नियम भी मालूम नहीं है।और तो और… आप परिस्थिति का संदर्भ समझकर मेरे वाक्य का अर्थ भी समझ नहीं सके।”वह रानी संस्कृत की बहुत बड़ी विदुषी थी। उसकी बातें सुनकर दूसरी रानियाॅं हॅंसने लगी। राजा बहुत शर्मिंदा हो गया। पानी से चुपचाप बाहर निकल कर वह अपने महल में चला गया।

यह बात उसके दिल को  शुल की तरह चुभने लगी। वह एकदम मौनसा हो गया। उसने यहाॅं तक सोचा कि अगर संस्कृत भाषा पर वह प्रभुत्व हासिल नहीं कर सका, तो वह प्राण त्याग करेगा।उसने राज दरबार में जाना भी छोड़ दिया।

राजा आजकल उदास रहता है, दरबार में भी नहीं जाता। ये बातें  गुणाढ्य को मालूम थी। लेकिन उसकी वजह मालूम नहीं थी। राज दरबार में शर्ववर्मा नाम का एक मंत्री भी था, शर्ववर्मा और गुणाढ्य  दोनों मिलकर सही समय देखकर राजा से मिलने गए ।राजा का उदास चेहरा देखकर शर्ववर्मा उसको भोर के समय देखे  गए अपने सपने के बारे में बताने लगा ।उसके सपने में आसमान से पृथ्वी पर उतर आया हुआ कमल… उसके पंखुड़ियों को स्पर्श करने वाला देव कुमार… फिर कमल में से प्रकट हो गई हुई सरस्वती माता… वहां से राजा के मुख में प्रवेश करके वही वास्तव्य करने वाली वह माता…. इस तरह की बहुत मनगढ़ंत बातें थी। राजा ने उस पर यकीन भी नहीं किया, लेकिन मौन छोड़कर वह बोलने लगा,

“इतने बड़े राज्य का में नरेश हूॅं। मेरे पास अपार धन संपत्ति है।लेकिन विद्या-सरस्वती- के बिना लक्ष्मी शोभा नहीं देती।” फिर गुणाढ्य की ओर मुखातिब होकर राजा ने पूछा, “कोई एक व्यक्ति जो पूरा परिश्रम करने को तैयार हो, वह व्याकरण सहित संस्कृत कितने दिन में आत्मसात कर सकता है।” गुणाढ्य ने कहा, “राजन् व्याकरण भाषा का आईना होता है और कोई नियमित रूप से पढ़ाई करने को तैयार हो ,तो भी व्याकरण सीखने में बारा साल लग जाते हैं,लेकिन मैं आपको छह साल में व्याकरण सिखाऊॅंगा।” गुणाढ्य को राजा के मन में  संस्कृत अध्ययन करने की तीव्र इच्छा की वजह मालूम नहीं थी।वह इस बात का भी अंदाजा नहीं लगा पाया कि राजा को महा पंडित नहीं बनना है।उसको तो रोजमर्रा की जीवन में उपयुक्त हो इतनी ही संस्कृत पढ़नी है।शर्ववर्मा के मन में वैसे भी गुणाढ्य के प्रति द्वेष था। जलक्रीडा और उसमें हो गया राजा का अपमान इसके बारे में उसको पूरी जानकारी थी।

उस पर यह एक अच्छा मौका उसके हाथ लगा था। उसने बड़े आत्मविश्वास से कहा,”महाराज मैं आपको छह महीने में व्याकरण सहित संस्कृत पढ़ा सकता हूॅं।

गुणाढ्य को यह बात असंभव लगी। उसने भी बड़े आत्मविश्वास के साथ शर्त लगाई,…. अगर शर्ववर्मा आपको सचमुच ही छह महीने में व्याकरण सहित संस्कृत सिखा देगा, तो मैं संस्कृत, पाली, प्राकृत ये तीनों भाषाऍं छोड़ दूॅंगा।” जवाब में  शर्ववर्मा

ने कहा,” अगर मैं इस में सफल नहीं हो पाया, तो आगे बारह साल तक मैं आपके ,मतलब गुणाढ्य के, पादूकाओं को सर पर धारण करूॅंगा।

क्रमशः… 

© सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #236 ☆ लघुकथा – सत्य की राह ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा सत्य- की- राह)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 236 – साहित्य निकुंज ☆

☆ सत्य- की- राह ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

सलोनी ने अपने माता-पिता की मर्जी के खिलाफ अनमोल से शादी की थी। माता-पिता ने भी ज़्यादा कुछ नहीं बोला उन्होंने मंदिर में शादी कर दी। सलोनी के अलावा उनकी चार बेटियाँ और है। उन्होंने सोचा कोई बात नहीं अगर यह चाहती है तो उसे अपनी इच्छा करने दो जो होगा देखा जाएगा। 4 वर्ष हो गए शादी को एक बेटी भी है जिन्दगी खुशहाल है।

अनमोल और सलोनी दोनों की उम्र करीब 22-23 वर्ष की है। अनमोल किसी छोटी कंपनी में काम करता है और अपनी रोजी-रोटी दिल्ली में चलाता है। अभी कुछ दिन पहले परिवार की एक शादी में उससे मुलाकात हुई।

अवकाश के दिन पुरानी कंपनी के बॉस उसके घर आए और उससे कहा – “कि तुमने काम क्यों छोड़ा है इतना बढ़िया काम इतना अच्छा पैसा तुम्हें कहाँ मिलेगा।” अनमोल ने कहा – “नहीं सर मैंने दूसरी कंपनी ज्वाइन कर ली है मैं वह काम नहीं कर सकता।” थोड़ी देर बाद सलोनी चाय बनाकर लाती है और बॉस को नमस्ते कर अंदर चली जाती है। तभी उन्होंने मेरी बीवी को देखा और मुझसे कहा- “इतना बढ़िया खजाना तुमने घर में छुपा रखा है इसे क्या शोकेस में सजाओगे।” सर जब हमने शादी की थी तब मेरा मकसद कुछ और था लेकिन जैसे ही सलोनी की संगत मुझे मिली मेरा मन बदल गया मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कारा लड़कियाँ सप्लाई करने का मैं यह ग़लत काम कभी नहीं करूंगा। ठीक है ठीक है तुमने जो सोचा सही सोचा होगा। अगर कभी मन परिवर्तन हो तो तुम्हारे लिए दरवाजे खुले हैं।

अनमोल मन ही मन सोच रहा था कहीं सलोनी ने हम दोनों की बातें न सुन ली हो।

बॉस के जाने के बाद सलोनी अपनी बेटी को लेकर बाहर आती है और कहती है- “आज मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रही हूँ मैं गंदगी में जाने से बची और तुमने सत्य की राह पर चलने का निर्णय लिया।” अनमोल सलोनी की बात सुनकर निशब्द—-हो गया।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – पैसों का पेड़ ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। उनके ही शब्दों में – “1982 में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारम्भ, 2011 से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर अखिल विश्व गायत्री परिवार में स्वयंसेवक के रूप में 2022 तक सतत कार्य। माँ गंगा एवं हिमालय से असीम प्रेम के कारण 2011 से गंगा की गोद एवं हिमालय की छाया में शांतिकुंज आश्रम हरिद्वार में निवास। यहाँ आने का उद्देश्य आध्यात्मिक उपलब्धि, समाजसेवा या सिद्धि पाना नहीं वरन कुछ ‘ मन का और हट कर ‘ करना रहा। जनवरी 2022 में शांतिकुंज में अपना संकल्पित कार्यकाल पूर्ण कर गृह नगर भोपाल वापसी एवं वर्तमान में वहीं निवास।” आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की एक विचारणीय लघुकथा “पैसों का पेड़। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।) 

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – पैसों का पेड़ ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

नरेन्द्र और सुरेन्द्र एक पिता के दो पुत्र , सगे भाई,

नरेन्द्र ने शहर  से  इंजीनियरिंग किया,
सुरेन्द्र ने गांव के कॉलेज से बीए

नरेन्द्र ने एसएसबी की परीक्षा पास की और दिल्ली के केंद्रीय सचिवालय में राजपत्रित अधिकारी बन गया
सुरेन्द्र ने बूढे होते पिता की लगभग पांच बीघे की खेती संभाल ली

नरेन्द्र ने अपने अधिकारी मि थॉमस की बेटी जेनिफर से शादी कर ली
सुरेन्द्र ने पास के ही गांव में मामा के साले की बेटी से शादी कर ली

नरेन्द्र के घर कुछ समय बाद दो जुडवां बेटे हुये
सुरेन्द्र के यहां एक बेटा जन्मा

नरेन्द्र ने बैंक से ऋण लेकर दिल्ली में बंगला खरीदा जिसमें तीन एसी लगे थे
सुरेन्द्र ने गांव में ही सस्ते में दो एकड जमीन और ले ली और घर की छत पक्की करवा कर आसपास नीम पीपल जामुन के पेड लगवा लिये

नरेन्द्र ने बेटों को महंगे स्कूल में भर्ती किया और उनके लिये नौकर रखा
सुरेन्द्र ने बेटे को गांव की पाठशाला में भेजा और उसकी हर वर्षगांठ पर नई खरीदी जमीन पर दशहरी आम के पांच पौधे लगाये

नरेन्द्र की तीस वर्ष बाद सेवा निवृत्ति तक उसके दोनों बेटे पढने विदेश चले गये
सुरेन्द्र के अधेड होते होते उसके बेटे ने पिता की खेती और आम के बगीचे में लगे सौ पेडों का काम संभाल लिया

नरेन्द्र सेवानिवृत्ति के बाद दिन भर घर पर रहने लगा, कोई काम नहीं होने से खिन्नता के कारण नित्य ही पत्नी से चिकचिक होने लगी
सुरेन्द्र के खेती और अमराई का काम बेटा देखता और वह पूरे दिन आम की ठंडी छांह में शुद्ध वायु का सेवन करता साथ ही रखवाली भी करता

नरेन्द्र के नौकरी से छूटते ही घर के खर्चे, विदेश से दोनों बेटों की पैसों की मांग दिन ब दिन बढने लगी, सीमित आय में घर चलाना मुश्किल हो गया। तंग आकर उसने बच्चां से कहा मैं अब तुम्हारी मांगे पूरी नहीं कर सकता, यहां क्या पैसे पेडों पर उग रहे हैं ?

सुरेन्द्र के बगीचे में इस बार सौ पेडों पर लगभग दो ट्राली आम हुये। बेटा उन्हें मंडी में बेचकर आया और रुपयों का बंडल पिता के हाथ में रख दिया। इतने रुपये देखकर पिता बोला –  बेटे, ये पैसे पेडों पर उगे हैं, इन्हें संभाल कर रखना।

– – o o – – 

©  सदानंद आंबेकर

म नं सी 149, सी सेक्टर, शाहपुरा भोपाल मप्र 462039

मो – 8755 756 163 E-mail : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #174 – हाइबन – कोबरा… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक हाइबन कोबरा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 174 ☆

☆ हाइबन- कोबरा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

रमन की नींद खुली तो देखा सावित्री के पैर में सांप दबा हुआ था। वह उठा। चौका। चिल्लाया,” सावित्री! सांप,” जिसे सुनकर सावित्री उठ कर बैठ गई। इसी उछल कूद में रमन के मुंह से निकला,” पैर में सांप ।”

सावित्री डरी। पलटी। तब तक सांप पैर में दब गया था। इस कारण चोट खाए सांप ने झट से फन उठाया। फुफकारा। उसका फन सीधा सावित्री के पैर पर गिरा।

रमन के सामने मौत थी । उसने झट से हाथ बढ़ाया। उसका फन पकड़ लिया। दूसरे हाथ से झट दोनों जबड़े को दबाया। इससे सांप का फन की पकड़ ढीली पड़ गई।

” अरे ! यह तो नाग है,” कहते हुए सावित्री दूर खड़ी थी। यह देख कर रमन की जान में जान आई ।

सांप ने कंबल पर फन मारा था।

*

पैर में सांप~

बंद आँखों के खड़ा

नवयुवक।

~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-08-20

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 27 – बचपन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बचपन।)

☆ लघुकथा – बचपन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

रीना एक पढ़ी-लिखी समझदार महिला है। वह सॉफ्टवेयर इंजीनियर है और अपने पति के समान ही नौकरी करती है फिर भी जानी क्यों अनुराग हमेशा दोस्त जमता रहता है अपने आप को  सुपीरियर दिखता है अपने ही हम में खोया रहता है। रोज-रोज के झगड़े और किस-किस से अब मेरे सब्र का बांध टूटने लगा है इस तरह रीमा विचार कर रही थी तभी अचानक अनुराग ने झगड़ा शुरू कर दिया तुम क्या करती रहती हो सारा काम करने के लिए घर में नौकर लगा के रखे हैं फिर भी ढंग से ना खाना मिलता है और ना घर में साफ सफाई होती है खुद ही चादर झटकना पड़ता है सोने के लिए और सारे कपड़े भी अपने खुद ही रखने पड़ते हैं रीना ने कहा तो अपना काम करने में क्या बुराई है मैं घर परिवार बच्चे क्या-क्या देखूं ठीक है तुम कुछ मत देखो मैं तुमसे तलाक ले लेता हूं। बिट्टू और पिंकी भी पास में खड़े होकर यह बातें सुन रहे थे वह डर के मारे चुपचाप अपने कमरे में चले गए थोड़ी देर के बाद उनके कमरे से चिल्लाने की आवाज आई दोनों पति-पत्नी भाग कर अपने बच्चों के पास आए तो देखिए बिट्टू ने कहा पापा मैं भी पिंकी से तलाक ले लूंगा यह बात सुनकर दोनों मां-बाप को आपस अपने आप में शर्मिंदगी महसूस हुई और उन्होंने कहा बेटा आप ऐसा नहीं कर सकती हो क्यों आपने तो कहा – अब तुम लोग बड़े हो गए हो और मैं बच्चा हो गया हूं। अनुराग और रीमा दोनों मुस्कुराने लग गए। बेटा हम लोग दोनों बच्चे हो गए थे और बचपन में हमसे यह गलती हो गई अब हम आपसे माफी मांगते हैं।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 195 – जल संरक्षण ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “जल संरक्षण”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 195 ☆

🌻लघु कथा🌻 🌧️जल संरक्षण🌧️

बिजली और पानी का मेल जन्म-जन्मांतर होता है। बिजली का चमकना और पानी का गिरना मानो ईश्वर का वरदान है मानव जीवन के लिए।

एक छोटा सा ऐसा गाँव जहाँ उंगली में गिने, तो सभी के नाम गिने जा सकते हैं।

उस गाँव में पीने के पानी के लिए एक तालाब और निकासी, स्नान, पशु पक्षी, और सभी कामों के लिए एक तालाब।

गाँव वाले इसका बखूबी पालन करते। चाहे कोई देखे या ना देखें।

“बिजली” वहाँ की एक तेज तर्रार उम्र दराज समझदार महिला। जैसा नाम वैसा गुण। पानी का संग्रहण पानी बचाओ और पानी की योजनाओं को थोड़ा बहुत समझती और उस पर अमल भी करती।

बातों से भी सभी को ठिकाने लगाने वाली। उसकी एक बहुत ही अच्छी आदत पानी संग्रह करने की।

घर में उसके यहां सीमेंट की बड़ी टंकी और जितने भी बड़े बर्तन, गंजी, गगरी, कसेडी, बाल्टी और जो भी बर्तन उसे समझ में आता, बस पानी से भरकर रख लेती। और कहती पानी को उतना ही फेंकना, जिससे औरों को तकलीफ न हो।

जब कभी पानी की परेशानी आती लोग दूर दूसरे गांव में सरपंच को खबर देते और फिर शहर से पानी का टैंक आता।

पानी का मोल गाँव वाले भली-भाँति जानते थे। कहने को तो सरकारी टेप नल लगा था, परंतु पथरीले गाँव और पानी का स्तर नीचे होने के कारण वहाँ पानी नहीं के बराबर आता।

आज अचानक लगा कि गाँव में पीने का पानी दूषित हो गया है।सभी एक दूसरे का मुँह तक रहे थे। सरपंच से बात होने में पता चला कि कुछ हो जाने के कारण तालाब का पानी पीने योग्य नहीं रहा। और पानी का टैंक शाम तक ही आ पाएगा।

बच्चे बूढ़े सभी परेशान। तभी किसी ने हिम्मत कर बिजली से जाकर कहा कि… “आज वह सभी को पानी पिला दे। साँझ टैक्कर से सब तुम्हारे घर में पानी भर देंगे।” गाँव वाले हाथ जोड़ बिजली से पानी मांग रहे थे।

आज तो बिजली अपने पानी बचाने और संग्रह कर रखने के लिए अपने आप को धन्य मानने लगी। सभी को पीने का पानी, निस्तार का पानी थोड़ा-थोड़ा मिल गया। राहत की सांस लेने लगे।

खबर हवा की तरह फैल गई। मीडिया वाले शहर से आ गए। सरपंच अपने मूंछों पर ताव देते अपने गाँव की तारीफ करते बिजली के साथ शानदार तस्वीर खिंचवाई ।

‘जल ही जीवन है, जल है अनमोल, समझे इसका मोल।’

जिस गाँव को कभी कोई जानता नहीं था। कभी पेपर पर नाम नहीं छपा था। आज बिजली के पानी बचाकर, अपने गाँव का नाम रौशन कर दिया।

बिजली और पानी संरक्षण। आज एक नई दिशा। सभी बिजली के गुण गा रहे हैं। सरपंच की तरफ से गाँव के मध्य बिजली को सम्मानित किया गया।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 87 – देश-परदेश – गर्मी की छुट्टियां ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 87 ☆ देश-परदेश – गर्मी की छुट्टियां ☆ श्री राकेश कुमार ☆

गर्मी की दो माह की छुट्टियां याने बच्चों को आगामी वर्ष के लिए रिचार्ज होने का सुनहरा अवसर होता था।

गर्मी की छुट्टी मतलब ” ननिहाल चलो” मै और मेरे बड़े भाई अम्मा जी के साथ अपने अस्थाई निवास मुम्बई से रेल द्वारा दिल्ली आकर बस यात्रा से ननिहाल जोकि बुलंदशहर जिले के डिबाई नामक छोटे से कस्बे में स्थित है,पहुंच जाते थे।

पूरा कस्बा हमारे आने का इंतजार कर रहा होता था।घर पहुंचते ही बड़े भैया तो खेत में लगे हुए रहट पर जल क्रीड़ा करते रहते थे। हमारे लिए घर का  कुआं होता था।आरंभ में कुएं से पानी निकलना हमारे लिए कठिन कार्य होता था। दो तीन दिन में तो दस्सीयों बाल्टी पानी की खींच लेते थे।वो बात अलग थी,कई बार बाल्टी पानी में गिर जाती थी।

मामा लोग लोहे के कांटे से बाल्टी बाहर निकाल कर प्यार से कहते थे, हमारी नाजुक मुम्बई की गुड़िया, ये तेरे बस का नहीं है। हमें बता दिया कर।एस

आज तो घर के हर कोने में नल है,पर गर्मी में कुएं के ठंडे जल का स्नान दिन भर आज के ए सी से भी ठंडा रखता था।

कुएं में शाम के समय तरबूज़ को पानी में तैरने दिया जाता था। प्रातः काल का वो ही कलेवा होता था। नाना जी की पहेली”खेलने की गेंद,गाय का चारा,पीने को शरबत,खाने को हलवा… याने की तरबूज़।

तरबूज़ के छिलके को काटते समय सफाई से कार्य कर ही घर में रखी हुई गाय को चारा दिया जाता था ।घर में सभी गाय को “राधा” के नाम से बुलाते थे। हम सब भी उसके शरीर पर हाथ फेर कर प्रतिदिन उससे आशीर्वाद लेते थे।

प्रकृति,पशु धन का सम्मान होते हमने अपने ननिहाल में ही देखा था। उत्तर प्रदेश को”आम प्रदेश” कहना भी गलत नहीं होगा। दिन भर आमों को बर्तन में डूबो कर, उनकी गर्मी निकाल कर ही ग्रहण किया जाता था।

रात्रि खुले आंगन में बर्फ से ठंडा दूध और आम ये ही भोजन होता था। आम दशहरी से आरंभ होकर बनारसी लंगड़े तक हज़म किए जाते थे।बसआम बिना गिनती के खाने का चलन था,हमारे ननिहाल के आंगन में।

रात्रि शयन खुली छत में बिना पंखे के सोना,आज सिर्फ स्वपन में ही संभव है।दोपहर के भोजन में पड़ोसियों के विभिन्न व्यंजन,कच्चे आम के आचार के साथ कब पच जाते थे,पता ही नही चलता था।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – आदिवासी – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है पारिवारिक डोर की एक सत्य बयानी पर आधारित लघुकथा “आदिवासी।) 

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — आदिवासी — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

{ पारिवारिक डोर की एक सत्य बयानी पर आधारित लघुकथा }

आधुनिक सभ्यता के दीवानों ने अपने लिए अनिवार्यता बना ली थी कि जहाँ भी खड़े हों वहाँ झूमता, गाता, खनकता सा शहर हो। यही नहीं, ये लोग जहाँ भी जाएँ शहर की कल्पना इनके साथ जाए। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की बात थी। शहर के रहने वाले कुछ लोग हवाई जहाज से सुदूर यात्रा पर निकले थे। नीचे एक सुरम्य स्थान दिखने पर उन्होंने अपना हवाई जहाज एक मैदान में उतारा था। वास्तव में ऊपर से तो सुरम्य स्थान की झलक मात्र मिली थी। हवाई जहाज से उतरने पर जब वहाँ उनके पाँव पड़े थे तब उन्हें वास्तविक सुरम्यता का पता चला था। विशाल पर्वत के प्रपात से दुग्ध जैसी जलधारा नीचे की ओर सरकती आती थी। प्रदूषण के मटमैले धुएँ से अछूता आसमान और शांत वातावरण दोनों मानो समंवित रूप से ऐसी प्रतीति लिख कर थमा रहे थे कि पढ़ कर देख लो तुम लोगों के स्वागत के लिए तैयारी पहले हो चुकी थी। गलती तुम्हारी है जो अब आए हो।

वह ठौर ऊँचे पेड़ों और छतनार जंगल के बीच होने से शहरियों का मत हुआ था यहाँ की जमीन आदिम युग से मानवी पाँवों से अनछुई पड़ी हुई है। पर ऐसा नहीं था। वास्तव में यहाँ की जमीन मानवी पाँवों की जानकारी रखती थी। पेड़ों की घनी छाँव में छोटे छोटे घर थे। शहरियों ने आगे बढ़ने पर यहाँ के जन जीवन की बड़ी ही कुतूहलता से साक्षात्कार किया था। यह आदिवासियों का बसेरा था। कंद मूल पर इनका जीवन पलता था। नदी होने से इन्हें पानी का अभाव पड़ता नहीं था। शायद पानी का वरदान इनके माथे पर पहले लिखा गया हो इसके बाद ये लोग यहाँ आए हों। कहीं से विस्थापन भी इनका दुर्भाग्य हो सकता था। कपडों का ढाँचा इन्हें मालूम तो न था। पर तन ढँकना इन्हें आता था। छोटे बच्चे, औरतें, किशोर लडके लड़कियाँ और पुरुष भिन्न — भिन्न घरों के हो कर भी एक परिवार जैसे लगते थे।

आगन्तुकों ने शहर की कल्पना में पगे होने से तत्काल अपनी योजना बना ली थी। आदिवासियों को कहीं और बसा दिया जाता या खदेड़ दिया जाता। इसके बाद यहाँ उनका अपना शहर उगा होता। जैसा सोचा गया वैसा होना बहुत जल्द शुरू हो जाता। पर पहले ही दिन आगन्तुकों में से दो मर्दों की हत्या हो गई थी। आगन्तुकों के साथ औरतें तो थीं। फिर भी यहाँ की औरतों पर उनकी नजर थी। इसी नृशंसता के परिणाम में उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। खून से लथपथ दोनों शवों को जानवरों के जबड़ों के लिए फेंक दिया गया था।

कुछ ईश्वर प्रदत्त प्रज्ञा और कुछ अपनी सामाजिकता से इन आदिवासियों को बोध था अपनी औरतों की रक्षा करना इनका अखंड उत्तरदायित्व है।

***

© श्री रामदेव धुरंधर

08 – 06 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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