हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 36 ☆ लघुकथा – देवी नहीं, इंसान है वह ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक सामाजिक त्रासदी पर विमर्श करती लघुकथा  “देवी नहीं, इंसान है वह। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 36 ☆

☆  लघुकथा – देवी नहीं, इंसान है वह

 

उसे देवी मत बनाओ, इंसान समझो- आजकल ये पंक्तियां  स्त्री के लिए कही जा रही हैं. हाँ खासतौर से भारतीय नारी के लिए जिसे आदर्श नारी के फ्रेम में जडकर  दीवार पर टाँग दिया जाता है, उसकी जिंदा मौत किसी को नजर नहीं आती, खुद उसे भी नहीं, क्योंकि ये तो घर – घर की बात है.

उसे भी मायके से विदा होते समय यही समझाया गया था कि पति परमेश्वर होता है, मायके की बातें ससुराल में नहीं कहना और ससुराल में तो जैसे रखा जाए, वैसे रहना.  वह भूलती नहीं थी अपने पिता की बात – डोली में जा रही हो ससुराल से अर्थी ही उठनी चाहिए. सुनने में ये बातें साठ के दशक की किसी पुरानी फिल्म के संवाद लगते हैं, पर नहीं, ये उसका  जीवन था जिसे उसने जिया. इतनी गहराई से जिया कि अपनी बीमारी में वह सब भूल गई लेकिन यह ना भूली कि पति परमेश्वर होता है. उसे ना अपने खाने – पीने की सुध थी, ना अपनी, बौराई- सी इधर – उधर घूमती  बोलती रहती – आपने खाना खाया कि नहीं ? बताओ किसी ने अभी तक इन्हें खाने के लिए नहीं पूछा, हम अभी बना देते हैं. वह सिर पीट रही थी –  हे भगवान बहुत पाप लगेगा हमें कि पति से पहले हमने खा लिया.  थोडी देर बाद वही बात दोहराती, फिर वही, वही —.

सिलसिला थमता कैसे ? वह अल्जाइमर की रोगी है.  इस रोग ने भी उसे ससुराल जाते समय दी गई सीख को भूलने नहीं दिया. शायद वह सीख नहीं, मंत्र होता था जिसे अनजाने ही स्त्रियां जीवन भर जपती रहतीं थीं.  धीरे – धीरे उसमें अपना अस्तित्व ही खत्म कर लेती थीं, अपना  खाना- पीना, सुख – दुख सब  होम . उससे मिलता क्या था उन्हें ? आईए यह भी देख लेते हैं –

वह अब घर की चहारदीवारी में कैद है, कहने को मुक्त, पर उसे कुछ पता नहीं . बूढे पति देव छुटकारा पाने के लिए निकल लेते हैं दोस्तों – यारों से मिलने.  उनके आने पर वह कोई शिकायत ना कर कभी उन्हें पुचकारती है, कभी सिर पर हाथ फेरती है, कहती है बहुत थक गए होंगे आओ पैर दबा दूँ, क्या खाओगे ? वे झिडक देते हैं – हटो, जाओ यहाँ से अपना काम करो —

अपना काम??? वह दोहराती है, इधर- उधर जाकर फिर लौटती है उसी प्यार और अपनेपन के साथ, पूछती है – थक गए होगे, पैर दबा दूँ, क्या खाओगे ——  फिर झिडकी —————-.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 55 – तनाव ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “तनाव। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 55 ☆

☆ लघुकथा – तनाव ☆

 

“ रंजना ! ये मोबाइल छोड़ दे. चार रोटी बना. मुझे विद्यालयों में निरीक्षण पर जाना है. देर हो रही है.”

रंजना पहले तो ‘हुहाँ’ करती रही. फिर माँ पर चिल्ला पड़ी, “ मैं नहीं बनाऊँगी. मुझे आज प्रोजेक्ट बनाना है. उसी के लिए दोस्तों से चैट कर रही हूँ. ताकि मेरा काम हो जाए और मैं जल्दी कालेज जा सकू.”

तभी पापा बीच में आ गए, “ तुम बाद में लड़ना. पहले मुझे खाना दे दो.”

“ क्यों ? आप का कहाँ जाना है ? कम से कम आप ही दो रोटी बना दो ?” माँ ने किचन में प्रवेश किया.

“ हूँउ  ! तुझे क्या पता. आज मेरे ऑफिस में आडिटर आ रहा है. इसलिए जल्दी जाना है.”

यह सुनते ही वह चिल्लाते हुए पलटी , “ पहले कहना था. सब ठेका मेरा ही है.”

पापा पीछे थे. उन के हाथ के गिलास से पानी छलका. गर्म तवे पर गिर कर उछलने लगा. कटोरे में पड़ी रोटी पेट में जाने का इंतजार करती रह गई और माँ के कान में भी अपने कहे यही शब्द गूंजते रहे, “ पहले कहना था.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०७/०८/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ घर के न  घाट के ☆ डॉ श्याम बाला राय

डॉ श्याम बाला राय

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार , पत्रकार  एवं सामाजिक कार्यकर्ता डॉ श्याम बाला राय जी  का ई-अभिव्यक्ति  में हार्दिक स्वागत हैं। आपकी उपलब्धियां इस सीमित स्थान में उल्लेखित करना संभव नहीं है। कई रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पत्र- पत्रिकाओं  में  प्रकाशित। कई राष्ट्रीय / प्रादेशिक /संस्थागत  पुरस्कारों /अलंकारों से पुरस्कृत /अलंकृत ।  लगभग 20 पुस्तकें प्रकाशित। कई साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं  का प्रतिनिधित्व। आकाशवाणी से समय समय पर रचनाओं का प्रसारण । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण लघुकथा   ‘घर के न  घाट के’।)

☆ लघुकथा – घर के न  घाट के ☆ 

भागता हुआ रजिन्दर राय साहब के यहां आकर कहने लगा कि मालिक चलिए। प्रधान जी से कह दीजिए।

राय साहब ने कहा कि मैं क्या कहूँ प्रधान जी से?

चलिए बताता हूँ।

अरे! ऐसे कैसे जाऊं ? क्या करना है? क्या कहना है? ये पता तो होना चाहिए। मेरी बात भला प्रधान जी क्यों सुनेगे?

रजिन्दर संकोच करते हुए बोला कि मुम्बई से मेरा बबुआ आया है.

अच्छा ! आया है तो जाओ उसका स्वागत करो, खिलाओं पिलाओं, प्रधान जी से क्या कहना है?

नहीं मालिक! प्रधान जी गांव में घुसने के लिए मना कर रहे हैं। कह रहे है कि मैं स्वयं को नहीं फसाऊंगा। तुम लोग भागकर शहर से छिपने गांव आये हो। भला आप ही बताइये। कोई अपने घर में नहीं आयेगा।

राय साहब ने कहा कि तुम नहीं जानते हो कि कोरोना नाम की जानलेवा बिमारी पूरे विश्व में फैली है। उसका पभाव गांव में भी हो जायेगा तो गांव वाले कहाँ जायेगे इलाज कराने।

रजिन्दर निराश होकर बोला कि तब तो कोई साथ नहीं देगा। शहर में कोई काम नहीं था। ट्रेन का टिकट नहीं मिला तो ट्रक से ही बबुआ दिन-रात धूप में तपते हुआ गांव आया है। मैं उसे पानी भी नहीं पिला पा रहा हूँ। कोई मदद करने वाला नहीं है।

राय साहब रजिन्दर को समझाते हुआ कहे कि बिमारी जानलेवा है, शहर से गांव आने के बेचैन बहुत अधिक लोग बिमारी को लोगों में फैलाये है, इसलिए सरकार ने प्रधान को चेतावनी दी है कि गांव पहुँचने वाले पर ध्यान देना प्रधान की जिम्मेदारी है। यदि गांव में एक भी मरीज मिला तो प्रधान की जिम्मेदारी होगी। अतः प्रधान जी विवश है।

रजिन्दर रोते हुए कहने लगा कि गांव से शहरी देखकर शहर कमाने गया था बबुआ। आज न घर का रहा न घाट का। ये कैसी मेरी मूर्खता थी कि उसे घर छोड़कर शहर भेजा उससे अधिक मै यहा कमा लेता हूँ।

 

©  डॉ श्यामबाला राय

द्वारा श्री यश्वन्त सिंह, यू- 28, प्रथम तल, उपाध्याय ब्लाक, शकरपुर, दिल्ली – 110092

मोबाइल न0 – 9278280879

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 56 ☆ लघुकथा – लॉकडाउन तोड़ने वाला बूढ़ा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक समसामयिक विषय पर आधारित कहानी  ‘लॉकडाउन तोड़ने वाला बूढ़ा ।  जहाँ एक ओर लॉक डाउन एक आवश्यकता है वहीँ दूसरी ओर उसके दुष्परिणाम भी सामने आये हैं। इस विचारणीय कहानी  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 56 ☆

☆ कहानी – लॉकडाउन तोड़ने वाला बूढ़ा
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पुरुषोत्तम जी उम्र के पचहत्तर पार कर गये। हाथ-पाँव ,आँख-कान अब भी दुरुस्त हैं। दिमाग़, याददाश्त भी ठीक-ठाक हैं। कोई बड़ा रोग नहीं है। आराम से स्कूटर चला लेते हैं, रात को भी दिक्कत नहीं होती।

लेकिन लॉकडाउन की घोषणा के बाद पुरुषोत्तम जी के पाँव बँध गये हैं। पैंसठ से ऊपर के बुज़ुर्गों के लिए घर से बाहर निकलना मना हो गया है। अब पुरुषोत्तम जी पर घरवालों की नज़र रहती है। चारदीवारी का गेट खुलने की आवाज़ होते ही कोई न कोई झाँकने आ जाता है। कपड़े बदलते हैं तो सवाल आ जाता है, ‘कहाँ जा रहे हैं?’
पुरुषोत्तम जी चिढ़ जाते हैं, कहते हैं, ‘कपड़े भी न बदलूँ क्या?’

दो बेटियाँ शहर से बाहर हैं। भाई भाभी के पास उनकी रोज़ हिदायत आती है—‘उन्हें कहीं जाने नहीं देना है। आप लोग तो हैं, फिर उन्हें बाहर निकलने की क्या ज़रूरत है?’ उनको सीधी हिदायत भी मिलती है—-‘प्लीज़, आप कहीं नहीं जाएंगे। भैया भाभी हैं न। वे आपके सब काम करेंगे। बिलकुल रिस्क नहीं लेना है। प्लीज़ स्टे एट होम। ‘
लाचार पुरुषोत्तम जी गेट के बाहर नहीं जाते। लॉकडाउन के कारण कोई आता भी नहीं। सब तरफ सन्नाटा पसरा रहता है। घरों के सामने कारें खड़ी दिखायी देती हैं, लेकिन चलती हुई कम दिखायी पड़ती हैं। पहले शाम को सामने की सड़क पर बच्चों की भागदौड़ शुरू हो जाती थी, अब वे भी घरों में कैद हो गये हैं। पुरुषोत्तम जी चिन्तित हो जाते हैं कि कहीं यह परिवर्तन स्थायी न हो जाए।

वक्त काटने के लिए पुरुषोत्तम जी घर में ही मंडराते रहते हैं। पुरानी चिट्ठियाँ, पुराने एलबम उलटते पलटते रहते हैं। कभी अपनी छोटी सी लाइब्रेरी से कोई किताब निकाल लेते हैं। पुराने संगीत का शौक है। सबेरे दूसरे लोगों के उठने से पहले सुन लेते हैं। लता मंगेशकर, बेगम अख्तर, तलत महमूद प्रिय हैं। लेकिन बाहर निकलने के लिए मन छटपटाता है।

एक शाम घरवालों को बताये बिना टहलने निकल गये थे। बहुत अच्छा लगा था। तभी एक पुलिस की गाड़ी बगल में आकर रुक गयी थी। उसमें बैठा अफसर सिर निकालकर बोला, ‘क्यों, घर के लिए फालतू हो गये हो क्या दादा? भगवान ने जितने दिन दिये हैं उतने दिन जी लो। जाने की बहुत जल्दी है क्या?’ पुरुषोत्तम जी कुछ नहीं बोले, लेकिन उस दिन के बाद गेट से बाहर नहीं निकले।

सामने वाले घर के बुज़ुर्ग शर्मा जी कभी कभी नाक मुँह पर ढक्कन लगाये दिख जाते हैं। मास्क में से ही हाथ उठाकर कहते हैं, ‘कहीं निकलना नहीं है, पुरुषोत्तम जी। हम स्पेशल कैटेगरी वाले हैं। हैंडिल विथ केयर वाले। ‘

उस दिन पुरुषोत्तम जी मन बहलाने के लिए गेट पर बाँहें धरे खड़े थे। उन्होंने देखा कि इस बीच बहू तीन बार दरवाज़े से झाँककर गयी। समझ गये कि उन पर नज़र रखी जा रही है। दिमाग़ गरम हो गया। भीतर आकर गुस्से में बोले, ‘मैं बच्चा नहीं हूँ। मुझे पता है कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना है। आप लोग क्यों बेमतलब परेशान होते हैं?’

बहू ‘ऐसा कुछ नहीं है, पापाजी, मैं तो सब्ज़ीवाले को देख रही थी’, कह कर दूसरे कमरे में चली गयी। लेकिन पुरुषोत्तम जी का दिमाग गरम ही बना रहा। एक तो घर में बँध कर रह गये हैं, दूसरे यह चौकीदारी।

बैठे बैठे बेचैनी होने लगी। बहू को आवाज़ देकर एक गिलास पानी लाने को कहा। बहू के आने तक उनकी गर्दन कंधे पर लटक गयी थी। बहू ने घबराकर पति को पुकारा और पति ने अपने दोस्त डॉक्टर को फोन लगाया। डॉक्टर ने आकर जाँच-पड़ताल की और बता दिया कि पुरुषोत्तम जी दुनिया को छोड़कर निकल गये।

तत्काल बेटियों को सूचित किया गया। उधर रोना-पीटना मच गया। लॉकडाउन में निकल पाना संभव नहीं। कहा कि बीच बीच में मोबाइल पर दिखाते रहें। झटपट विदाई की तैयारी हुई। बहुत नज़दीक के रिश्तेदार और दोस्त ही आये। बाकी को सूचित तो किया लेकिन समझा दिया कि सरकारी निर्देशों के अनुसार संख्या बीस से ज़्यादा नहीं होना चाहिए।

तीन चार घंटे में सब तैयारी हो गयी और पुरुषोत्तम जी अन्ततः घर से बाहर हो गये। जब उनकी सवारी बाहर निकली तो अपने गेट पर खड़े शर्मा जी नमस्कार करके बोले, ‘रोक तो बहुत लगी, लेकिन लॉकडाउन तोड़ कर निकल ही गये पुरुषोत्तम जी।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – सस्वर लघुकथा ☆ पूर्वाभ्यास – डॉ कुंवर प्रेमिल ☆ स्वरांकन एवं प्रस्तुति श्री जय प्रकाश पाण्डेय

डॉ कुंवर प्रेमिल

( संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम  साहित्यकारों ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  अग्रज श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने आपकी एक  कालजयी लघुकथा  ” पूर्वाभ्यास” का स्वरांकन प्रेषित किया है, जिसे हम अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं। )

☆ लघुकथा – पूर्वाभ्यास ☆  

श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के ही शब्दों में  
संस्कारधानी के ख्यातिलब्ध वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी का  लघुकथाकार के रूप में हिंदी साहित्य में एक विशेष स्थान है। आपने 350 से अधिक लघुकथाओं की रचना की है। यह अत्यंत गर्व का विषय है कि आपकी लघुकथा “पूर्वाभ्यास” को उत्तरी महाराष्ट्र के जलगांव विश्विद्यालय के पाठ्यक्रम वर्ष 2019-2020 में स्थान मिला है।
आप परम आदरणीय डॉ कुंवर प्रेमिल जी की कालजयी लघुकथा “पूर्वाभ्यास” उनके चित्र अथवा यूट्यूब लिंक पर क्लिक कर उनके ही स्वर में सुन सकते हैं।

 

आपसे अनुरोध है कि आप यह कालजयी रचना सुनें एवं अपने मित्रों से अवश्य साझा करें। ई- अभिव्यक्ति इस प्रकार के नवीन प्रयोगों को क्रियान्वित करने हेतु कटिबद्ध है।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ कोरोना क्या बिगाड़ लेगा? ☆ – सुश्री चंद्रकांता सिवाल “चंद्रेश”

सुश्री चंद्रकांता सिवाल “चंद्रेश”

(आदरणीया  सुश्री चंद्रकांता सिवाल “चंद्रेश” जी  कई राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों / अलंकरणों  से  पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपकी रचनाएँ कई  राष्ट्रीय / अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं  में सतत प्रकाशित होती रहती हैं। समय समय पर आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण। आप “भाषा सहोदरी हिन्दी” – की महासचिव हैं एवं गत वर्षो से “भाषा सहोदरी हिन्दी” द्वारा हिन्दी के प्रचार व प्रसार में निरंतर प्रयासरत  हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा “कोरोना क्या बिगाड़ लेगा?“। ) 

☆कोरोना क्या बिगाड़ लेगा ?☆ 

चाहे बड़का “विहान” कॉलिज से घर लौटता हो,चाहे छुटकू “ईशान” स्कूल से पसीने से सराबोर आता हो, या फिर कोचिंग क्लास से “इशिता” बाहर से जब भी जो आये सीधा फ्रिज की ओर ही भागना और अपनी-अपनी चिल्ड बॉटल, निकालना और गट गट कर एक ही साँस में पी जाना…

माँ का अक्सर बोलते ही रह जाना “सर्द गरम हो जाएगा खांसी जुखाम पीड़ा देगा.. पर सुनता कौन है… माँ” कब बोलती चली गई, पानी की घूंट के साथ माँ की परवाह भी घटक घटक… संगीता को अक्सर यूँ ही बच्चों के साथ जूझना पड़ता था।

मगर आजकल कोरोना काल में परिस्थिति कुछ बदली सी है, ठंडे पानी से ऐसा परहेज तो पहले देखने को नहीं मिला पीना तो दूर की बात अब कोई अपनी बॉटल भी नहीं संभालता…

गरम पानी से बच्चों का अथाह प्रेम संगीता को सकून तो देता था पर गरमी का कोप भी उसके मन मस्तिष्क पर हावी था।  पर संगीता मन ही मन आश्वस्त थी कि चलो अच्छा है, बच्चे स्वयं को सयंम बरतते हुए “दादी माँ” की कही बात का कड़ाई से पालन तो कर रहें हैं कि “कोरोना काल” में खांसी जुखाम को होने ही मत देना बस फिर देखना।

कोरोना क्या बिगाड़ लेगा।

 

© चंद्रकांता सिवाल “चंद्रेश”

5 ए / 11040 गली नम्बर -9 सत नगर डब्ल्यू ई ए करौल  बाग़ न्यू दिल्ली – 110005

8383096776, 9560660941

ई मेल आई डी– [email protected]

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हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #3 ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा की हिन्दी लघुकथा ‘दंतमंजन’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा जी की मूल हिंदी लघुकथा  ‘दंतमंजन ’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद  ‘दंतमंजन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #3 ☆ 

सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है । आपकी अब तक देश की सभी पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पिछले 40 वर्षों से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018 )

☆ दंतमंजन

महिला समिति की सदस्यों ने इस माह के प्रोजेक्ट के अंतर्गत झुग्गी वासियों की एक बस्ती के स्वास्थ्य जाँच शिविर के आयोजन का निर्णय लिया. तय हुआ कि बस्ती के लोगों का डेंटल चेकअप किया जाय तथा सभी को दंतमंजन निःशुल्क वितरित किए जाएँगे.

निश्चित दिन सभी झुग्गीवासियों को बुलाकर कतार में खड़ा किया गया. दो डॉक्टर उनके दांतों के परीक्षण में जुट गये. अधिकांश लोगों के दांत सड़े हुए, गंदे तथा रोगग्रस्त थे. सभी को दंतमंजन के डिब्बे दिए गये और रोज दांतों की सफाई की हिदायत दी गई. जिनके दांत रोगग्रस्त थे उन्हें दवाइयां भी दी गईं. लगभग पूरा दिन ही इस प्रोजेक्ट में गुजर गया. समिति की सदस्य बड़ी प्रसन्न थीं फोटोग्राफर, पत्रकार भी इस प्रोजेक्ट में उपस्थित थे. काफी सारे फोटोज लिए गये और लम्बी, प्रभावशाली खबर बनाई गई जो अगले दिन स्थानीय अख़बारों में छपनी थी. प्रोजेक्ट की समाप्ति पर सभी महिलाऐं होटल गईं और दिन भर की थकान उतारते हुए ठन्डे पेय,चाय कॉफ़ी और बढ़िया खाना खाया.

अगले दिन समिति की एक सदस्य रविवार के हाट में खरीदारी के लिए गई. सब्जी खरीदकर वह जैसे ही मुड़ी उसने देखा तीन चार लडके दंतमंजन के डिब्बों के ढेर को सजाए गुहार लगा रहे थे –‘दंतमंजन का पांच रूपये वाला डिब्बा चार रूपये में.’ यह उसी बस्ती के लडके थे जहाँ वे कल दन्त परीक्षण के लिए गयी थीं.और उनके मुफ्त बांटे गये दंतमंजन के डिब्बों के आसपास अब अच्छी खासी भीड़ जुटने लगी थी.

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

❃❃❃❃❃❃

☆ दंत मंजन  

(मूळ हिन्दी कथा –दंत मंजन   मूळ लेखिका – नरेंद्र कौर छाबडा  अनुवाद – उज्ज्वला केळकर)

महिला समीतीच्या सदस्यांनी  या महिन्यात एक प्रकल्प हाती घेतला. एका झोपडपट्टीतील लोकांची दंत तपासणी करायची. सगळ्यांची तपासणी झाल्यानंतर दंत मांजनाच्या डब्या तिथे मोफत वाटायच्या.

ठरलेल्या दिवशी तिथे लोकांना एकत्र बोलावले. त्यांना रांगेत उभे केले. डेन्टल सर्जन त्यांचे दात तपासू लागले. अनेकांचे दात किडले होते. हिरड्या रोगग्रस्त होत्या.  दांत तपासणीनंतर सगळ्यांना दंत मांजनाच्या डब्या दिल्या गेल्या. रोज दात स्वच्छ घासण्याची सूचनाही दिली गेली. हा कार्यक्रम संपण्यास पूर्ण दिवस लागला.

समीतीच्या सदस्या प्रसन्न होत्या. फोटोग्राफर, पत्रकारदेखील या कार्यक्रमासाठी उपस्थित होते. खूप फोटो काढले. लांबलचक बातमी तयार केली गेली. दुसर्‍या दिवशीच्या वृत्तपत्रात ती छापून येणार होती. कार्यक्रम संपल्यावर सगळ्या जणी हॉटेलात गेल्या. दिवसभराची थकावट दूर करण्यासाठी काही चविष्ट डिश मागवल्या गेल्या. चहा -कॉफी, थंड पेय पण झाले.

दुसर्‍या दिवशी समीतीच्या एक सदस्या बाजारात काही खरेदीसाठी गेली. खरेदी करून ती वळली आणि तिला दिसलं, तीन चार मुले दंत मांजनाच्या डब्यांचा ढीग लावून ओरडत होती. ‘दंत मांजनाची पाच रुपयाची डबी चार रुपयात…’ ही मुले त्या वस्तीतलीच होती, जिथे त्यांनी दंतमंजनाच्या डब्या मोफत वाटल्या होत्या. त्या डब्यांच्या आसपास चांगली गर्दी जमली होती.

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 35 ☆ लघुकथा – भेडिए ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक भयावह सामाजिक विडम्बना को उल्लेखित करती लघुकथा  “भेडिए”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 35 ☆

☆  लघुकथा – भेडिए

वह सिर झुकाए बैठी थी, निर्विकार. मैं उससे पहले भी मिली थी पर इतनी लाचार वह कभी नहीं लगी. लंबी कद- काठी और मजबूत शरीरवाली वह दूसरी औरतों की तुलना में मुझे सशक्त लगी थी. हाँ  लगी तो थी  — ?

उससे सवाल पूछे जा रहे थे एक के बाद एक —

क्या हुआ था ? कौन था वह ? चेहरा तो देखा होगा ?

हर सवाल पर उसका एक ही जवाब था –  घना अँधेरा था, कुछ नी देकखा मैंने, पता नी कौन था.

वह क्या बोलती और कैसे ? दरवाजे के पीछे से कई जोडी आँखें उसे घूर रही थीं जिनमें धमकियां थीं, हिदायतें भी, घर की बात घर में ही रहने देने की.

ससुर ने साफ कह दिया था- जबान खोली तो देख ले, फिर घर में जगह ना मिलेगी.

किसी ने समाज सेवी संस्था को खबर कर दी थी, दो महिलाएं आई थीं जाँच पडताल करने के लिए, उनके ढेरों सवाल थे लेकिन इसे मानों कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था. वह  यही सोच रही थी कि घरवालों ने निकाल दिया तो नन्हीं बच्ची को लेकर  जाएगी कहाँ ?

एक महिला बोली- आप निडर होकर बोलिए, हम सब आपके साथ हैं. हमारे देश में निराश्रित स्त्रियों  और लडकियों के रहने के  लिए शेल्टर होम हैं, आपको कोई परेशानी नहीं होगी. शेल्टर होम का नाम सुनते ही वह मानों सोते से जगी हो, हाथ जोडकर दृढता से बोली – ना – ना जी मुझे कोई परेशानी ना है, मुझ पर कोई अत्याचार ना हुआ. पति के जाने के बाद इन सबने ही मुझे संभाला है. अब आप जाओ यहाँ से.

उसने  सुना था  शेल्टर होम में भी भेडिए ही बसते हैं.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 54 – थोथा चना ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “थोथा चना । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 54 ☆

☆ लघुकथा –  थोथा चना  ☆

आज वह तीसरे दिन भी खड़ा हो कर वही राग अलापने लगा “सर! मेरे पास एक पाण्डुलिपि है जिस में ऐसी ऐसी विधियां है जिस से छात्र एक दिन में गणित, तीन दिन में हिन्दी के शब्द और चार दिन में छात्र फर्राटें से अंग्रेजी बोलना सीख जाए. उसे किसी ग्रामर की आवश्यकता नहीं पड़ेगी”

उस का यही रटारटाया वाक्य सुन कर गणित का प्रशिक्षण ले रहे शिक्षकबोर हो गए थे.

साहब उस की मंशा समझ गए, “आप पाण्डुलिपि यहां ले आना. अगर, अच्छी लगी तो मेरे पहचान के प्रकाशक से छपवा दूंगा.”

“सर! कोरा आश्वासन तो नहीं है ना?” उस ने पुनः पूछा.

“आप ले आना उस के बाद देखेंगे.” कहते हुए साहब निकल गए.

मगर, मास्टर ट्रेनर को उस की बात अखर गई. वे बोले”  साथियों आज हम एक हासिल का घटाना सीखेंगे. देखते हैं कि कौन बच्चों को कैसे सवाल कराता है” यह कहते हुए मास्टर ट्रेनर ने उसी शिक्षक को उठा दिया.

वह आया. उस ने घटाव किया. देख कर सब हंस पड़े.

“क्यों भाई ! कोई गलती है क्या ?” उस ने हंसते हुए सदन से पूछा.

“कुछ नहीं” एक मनमौजी शिक्षक ने कहा “यदि आप दुकानदार होते तो सभी ग्राहकों को 90 रूपए में से 12 रूपए घटा कर 88 रूपए वापस कर देते.”

“क्या?”  वह शिक्षक अभी मनमौजी शिक्षक की बात समझ नहीं पाया था.

तभी तीसरा शिक्षक बड़बड़ाया, “थोथा चना………….”

सुन कर सदन में हंसी के फव्वारे छूट गए.

चले?”

“हाँ साहब ! मैं उन्हें तड़फता हुआ नही देख सकता था.”

“अच्छा. अब दोनों तड़फ़ना. एक बाहर और एक अन्दर.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

20/01/2015

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 53 – लघुकथा दिवस विशेष – ग्रहण ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा  ग्रहण । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 53 ☆

☆ लघुकथा दिवस विशेष – ग्रहण ☆  

इस वर्ष की पदोन्नति सूची आने में अभी एक दिन शेष था, इसके पूर्व ही रामदीन को मित्रों से बधाईयां मिलने लगी थी। यहाँ तक कि, उसके निकटस्थ अधिकारी तिवारी जी से भी प्रमोशन की पुष्टि के साथ उसे अग्रिम बधाई मिल गई थी।

परन्तु यह क्या —–? आज घोषित पदोन्नति  सूची में शुरू से अंत तक रामदीन का कहीं भी नाम नहीं था।

खिन्न मन से अधिकारी तिवारी जी के केबिन में जा कर उनसे पूछा—–

“सर, आपने तो कल ही मुझे बधाई दे दी थी, फिर ये कैसे हो गया! क्या आपने भी दूसरों की देखा-देखी अनुमान के आधार पर बधाई दी थी?”

“नहीं रामदीन! ये कैसे हो गया, मैं भी यही सोच रहा हूँ। कल सूची में मैंने स्वयं तुम्हारा नाम देखा था। रात्रि साढ़े नौ बजे तक मैं महाप्रबंधक जी के कक्ष में था, –  तब भी वही प्रमोशन लिस्ट हमे दिखाई गई थी। पता नहीं इसके बाद किस कारण से तुम्हारा नाम हटाया गया। अचम्भित हूँ मैं भी।”

हताश, रामदीन कारण जानने हेतु हिम्मत कर महाप्रबंधक के पास पहुंचा,——-

“मान्यवर जी—-! मैं जानना चाहता हूँ कि, पात्रता के बावजूद मुझे अयोग्य क्यों समझा गया,यदि आप मेरी कमियाँ बता सकें तो आगे मैं उन्हें सुधारने की कोशिश करूंगा।”

“नहीं रामदीन! — तुममें कोई कमी नहीं है। तुम हर प्रकार से योग्य हो, किन्तु हुआ यह कि, हमारी पदोन्नति सूचि में शासन के नियमानुसार आरक्षित वर्ग की एक संख्या कम रह जाने की भूल के चलते ऊपर से आदेश हुआ था, सूची में एक आरक्षित वर्ग के व्यक्ति को अनिवार्य रूप से शामिल करने का।”

“पर तुम चिंता नहीं करो रामदीन! अगले वर्ष के लिए अभी से तुम्हारा प्रमोशन पक्का है।”

“किन्तु श्रीमान जी—- मेरा ही नाम क्यों काटा गया? सूची में मुझसे कमतर और नाम भी तो थे। और फिर मेरे बदले में जिसे आपने पदोन्नति दी है उसके विषय में भी आप भलीभांति परीचित हैं।”

“हाँ रामदीन, —सब कुछ जानते हुए भी विवश हैं हम। और तुम्हारा ही नाम क्यों!   तो सुनो एक उदाहरण से—— यह एक सर्वविदित तथ्य है जिसे सब जानते हैं, और तुम भी, कि, कुल्हाड़ी लिए लकड़हारा जब जंगल मे घुसता है तो आड़े-टेढ़े व असामान्य बांसोंसे अपने को बचाते हुए जो सब से सीधा और सही बांस दिखता है, वह उसी पर कुल्हाड़ी से वार करता है। समझ रहे हो न रामदीन तुम, मेरे कहने का आशय?”

“जी मान्यवर,— समझ रहा हूँ और शायद नहीं भी।”

“नहीं भी से क्या तात्पर्य है तुम्हारा?” महाप्रबंधक ने उत्सुकता से पूछा।

“मान्यवर—! कटने के बाद भी ‘सीधे बांस’ की उपयोगिता कहाँ-कहाँ और क्या-क्या होती है इससे तो आप कदापि अनभिज्ञ नहीं होंगे।”

“वही आड़े-टेढ़े बांस “मौसम परिवर्तन”के साथ ही आपस मे टकराते हुए जल कर राख हो जाते हैं, या सूख कर वहीं ठूंठ बने इधर-उधर से थपेड़े खाते रहते हैं।”

महाप्रबंधक जी निरुत्तर हो,अपने दाएं-बाएं झांकने लगे।

झूठ की इस जंग में हार कर भी रामदीन विजयी मुस्कान के साथ अपने कार्यस्थल की और लौट रहा था।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

12/06/2020

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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