हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ लॉकडाउन ☆ श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’

( ई- अभिव्यक्ति में  श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’जी का हार्दिक स्वागत है।साहित्य की सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर। प्रकाशन – 4 पुस्तकें प्रकाशित 2 पुस्तकें प्रकाशनाधीन 3 सांझा प्रकाशन। विभिन्न मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं में लघु कथाएं, कविता, कहानी, व्यंग्य, यात्रा वृतांत आदि प्रकाशित होते रहते हैं । कवि सम्मेलनों, चैनलों, नियमित गोष्ठियों में कविता आदि  का पाठन तथा काव्य  कृतियों पर समीक्षा लेखन। कई सामाजिक कार्यक्रमों में सहभागिता। भोपाल की प्राचीनतम साहित्यिक संस्था ‘कला मंदिर’ के उपाध्यक्ष। प्रादेशिक / राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों / अलंकरणों  से  पुरस्कृत /अलंकृत। आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक प्रेरक लघुकथा ‘लॉकडाउन ‘. )

☆ लघुकथा  – लॉकडाउन ☆

सीमा ने अपना पर्स उठाया और बच्ची सानू से कहा:-

” सानू, खाना खा लेना। मुझे देर हो रही है। आज चार बत्ती चौराहे पर मेरी ड्यूटी है। वहां कुछ लोग इकट्ठे हो रहे हैं। लाकडाउन टूटने की पूरी- पूरी संभावना है। यदि एक भी संक्रमित व्यक्ति वहां पहुंच गया तो कोरोना के फैलने का 100% खतरा है।”

सीमा स्वास्थ्य विभाग की कर्मचारी थी तथा हमीदिया अस्पताल में सीनियर नर्स के रूप में काम करती थी। सेवा क्षेत्र में उसका बड़ा नाम था। उसकी वरिष्ठता और कार्य के प्रति समर्पण के कारण आज संवेदनशील स्थान पर ड्यूटी लगाई गई थी।

“पर मम्मी! लाकडाउन चल रहा है। लाकडाउन में किसी को भी घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं है। यह कोरोना वायरस किसी को भी चपेट में ले सकता है। मम्मी! प्लीज , तुम ड्यूटी पर मत जाओ। अपनी तबीयत खराब की सूचना अस्पताल में दूरभाष पर दे दो।  विभाग कोई और व्यवस्था कर लेगा।”-सानू ने स्कूटी बाहर निकालती हुई मम्मी से कहा।

” बेटा, ऐसा ही सब करने लगें तो फिर शासन-प्रशासन का काम कैसे चलेगा? जब देश पर शत्रु देश आक्रमण करता है तो सभी फौजियों की छुट्टियां निरस्त हो जाती हैं। सारे फौजी देश की रक्षा के लिए स्वयं उपस्थित हो जाते हैं। आजकल तो जो यह महामारी फैली है , यह युद्ध से भी ज्यादा खतरनाक है। कोई देश एक दूसरे की सहायता नहीं कर पा रहा है। जब देश को हमारी आवश्यकता हो और उसी समय हम छुट्टी ले लें। इससे बड़ा पाप और देश के प्रति गद्दारी का कार्य और कुछ नहीं हो सकता।”- सीमा ने अपनी बेटी सानू को समझाया।

“लेकिन मम्मी, टीवी पर जो खबर आ रही है, वह बहुत ही खतरनाक है। जिन बीमारों को बचाने के लिए आप लोग जाते हैं, वही आप लोगों पर थूकते हैं, मारने के लिए दौड़ते हैं, इस तरह से तो आप सभी लोग भी संक्रमित हो जाएंगे। दूसरों को बचाने के लिए जानबूझकर संकट क्यों बुलायें? मम्मी कुछ लोग बहुत खतरनाक हैं। आप लोग इनकी जान बचायें और ये आप लोगों की जान लेने पर आमादा हो जाएं। नहीं ! नहीं !! मम्मी प्लीज, आप ऐसे लोगों के बीच मत जाइए।”

“बेटा, आदमी कैसे भी हों , हैं  तो अपने ही देश के नागरिक। उन्हें कोई गलतफहमी हो गई है। धीरे-धीरे सब समझ जाएंगे और फिर बेटा ऐसा ही फौज में युद्ध के समय होता है।  यह तय होता है कि किसी ना किसी दुश्मन की गोली से सैनिक को मरना है। अब यह सोचकर सैनिक मोर्चे पर ना जाए , क्या यह संभव और उचित है ? युद्ध के समय तो सैनिक के अंदर देश की रक्षा के लिए दोहरी ताकत काम करने लगती है। वह खुशी-खुशी मोर्चे पर जाने के लिए उपस्थित हो जाता है। ना …..ना ……..बेटा ! तुम पाप कर्म के लिए मुझे प्रेरित मत करो। अपना ध्यान रखना। घर से बाहर मत निकलना और खाना समय पर खा लेना।”– यह कहते-कहते सीमा ने अपनी स्कूटी स्टार्ट कर ली।

“मम्मी, एक मिनट रुकना। मैं अभी आई। यह कह कर सानू ने घर के अंदर दौड़ लगा दी और घर से कुछ फूल हाथों में लाकर उसने मम्मी के ऊपर बरसा दिये। अब वह मुस्कुराते हुए मम्मी को ड्यूटी के लिए विदा कर रही थी।

 

© अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’

भोपाल म प्र

मो0-9893494226

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पथराई आंखों का सपना भाग -1 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  दो भागों में एक लम्बी कहानी  “पथराई  आँखों के सपने ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“ आदरणीय पाठक गण अभी तक आप सभी ने मेरी लघु उपन्यासिका “पगली माई दमयन्ती” को पूरे मनोयोग से पढा़ और उत्साहवर्धन किया। आपकी मिलने वाली फोनकाल प्रतिक्रिया तथा वाट्सएप, फेसबुक के लाइक/कमेंट से  शेयरों की सकारात्मक प्रतिक्रिया ने लेखन के क्षेत्र में जो उर्जा प्रदान की है, उसके लिए हम आप सभी का कोटिश: अभिनंदन करते हुएआभार ब्यक्त करते हैं। इस प्रतिक्रिया ने ही मुझे लेखन के लिए बाध्य किया है।  उम्मीद है इसी प्रकार मेरी रचना को सम्मान देते हुए प्रतिक्रिया का क्रम बनाए रखेंगें।  प्रतिक्रिया सकारात्मक हो या आलोचनात्मक वह हमें लेखन के क्षेत्र में प्रेरणा तथा नये दृष्टिकोण का संबल प्रदान करती है।

इस बार पढ़े पढ़ायें एक नई कहानी “पथराई आंखों का सपना” और अपनी अनमोल राय से अवगत करायें। हम आपके आभारी रहेंगे। पथराई आंखों का सपना न्यायिक ब्यवस्था की लेट लतीफी पर एक व्यंग्य है जो किंचित आज की न्यायिक व्यवस्था में दिखाई देता है। अगर त्वरित निस्तारण होता तो वादी को न्याय की आस में प्रतिपल न्याय के नैसर्गिक सिद्धांतों का दंश न झेलना पड़ता। रचनाकार  न्यायिक व्यवस्था की इन्ही खामियों की तरफ अपनी रचना से ध्यान आकर्षित करना चाहता है।आशा है आपको पूर्व की भांति इस रचना को भी आपका प्यार समालोचना के रूप में प्राप्त होगा, जो मुझे एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत कर सकेगा।

? धारावाहिक कहानी – पथराई आंखों का सपना  ? 

(जब लेखक किसी चरित्र का निर्माण करता है तो वास्तव में वह उस चरित्र को जीता है। उन चरित्रों को अपने आस पास से उठाकर कथानक के चरित्रों  की आवश्यकतानुसार उस सांचे में ढालता है।  रचना की कल्पना मस्तिष्क में आने से लेकर आजीवन वह चरित्र उसके साथ जीता है। श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने अपने प्रत्येक चरित्र को पल पल जिया है। रचना इस बात का प्रमाण है। उन्हें इस कालजयी रचना के लिए हार्दिक बधाई। )  

पूर्वी भारत का एक ग्रामीण अंचल।  उस अंचल का एक गांव जो विकास की किरणों से अब भी कोसों दूर है। जहाँ आज भी न तो आवागमन के अच्छे साधन है न तो अच्छी सड़कें, और न तो विकसित समाज के जीवन यापन की मूलभूत सुविधाएं।  लेकिन फिर भी वहां के ग्रामीण आज भी प्राकृतिक पर्यावरण, अपनी लोक संस्कृति लोक परंपराओं को सहेजे एवम् संजोये हुए हैं। भौतिक संसाधनों का पूर्ण अभाव होते हुए भी उनकी आत्मसंतुष्टि से ओतप्रोत जीवन शैली, जीवन के सुखद होने का एहसास कराती है।

उस समाज में आज भी संयुक्त परिवार का पूरा महत्व है, जिसमें चाचा चाची दादा ताऊ बड़े भइया भाभी के रिश्ते एक दूसरे के प्रति प्रेम, दया, करूणा का भाव समेटे भारतीय संस्कृति के ताने बाने की रक्षा तो करती ही है, पारिवारिक सामाजिक ढ़ांचे को मजबूती भी प्रदान करती हुई, ग्रामीण पृष्ठभूमि की रक्षा का दायित्व भी निभाती है।

ऐसे ही एक संयुक्त परिवार में मंगली का जन्म हुआ था।  मंगलवार के दिन जन्म होने से बड़ी बहू ने प्यार से उसका नाम मंगरी  (मंगली)  रखा था। परिवार में कोई उसे गुड़िया, कोई लाडो कह के बुलाता था।

वह सचमुच गुड़िया जैसी ही प्यारी थी, उसका भी भरापूरा परिवार था जो उसके जन्म के साथ ही बिखरता चला गया। मां उसे जन्म देते ही असमय काल के  गाल में समा गई। पिता सामाजिक जीवन से बैराग ले संन्यासी बन गया।  उसकी माँ असमय मरते मरते तमाम हसरतें लिए ही इस नश्वर संसार से विदा हुई। जाते जाते उसने अपनी नवजात बच्ची को बडी़ बहू के हाथों में सौपते हुये कहा था – “आज से इसकी माँ बाप तुम्ही हो दीदी। इसे संभालना”।

उस नवजात गुड़िया को सौंपते हुये उसके हांथ और होंठ कांप रहे थे।  उसकी आंखें छलछला उठी थी।  उसके चेहरे की भाव भंगिमा देख उसके हृदय में उठते तूफानों का अंदाज़ा लगाया जा सकता था। उसके मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे, फिर भी क्षीण आवाज कांपते ओठों एवम् अस्फुट स्वरों में उसने बडी़ बहू से अपनी इच्छा व्यक्त कर दी थी और हिचकियों के बीच उसकी आंखें मुदती चली गई थी। वह तो इस नश्वर संसार से चली गई लेकिन अपने पीछे छोड़ गई करूणक्रंदन करता परिवार जो बिछोह के गम तथा पीडा़ में डूबा हुआ था।

धार्मिक कर्मकाण्ड के बीच उसके मां की अर्थी को कंधा तथा चिता को मुखाग्नि मंगरी के पिता ने ही दे जीवन साथी होने का फर्ज पूरा किया था तथा उसे सुहागिन बिदा कर अपने पति होने का रस्म पूरा किया।

धीरे धीरे बीतते समय के साथ उसके पिता के हृदय की वेदनायें बढ़ती जा रही थी।  वह प्राय: गुमसुम रहने लगा था।  परिवार तथा रिश्ते वालों ने उसे दूसरी शादी का प्रस्ताव भी दिया था, लेकिन उसने मंगरी के जीवन का हवाला दे शादी से इंकार कर दिया था।  वह फिर से घर गृहस्थी के जंजाल में नहीं फंसना चाहता था।  वह पलायन वादी होगया था।

इन परिस्थितियों में बड़ी बहू ने धैर्य का परिचय देते हुए सचमुच ही मंगरी के माँ बाप दोनों के होने का फर्ज निभाया, और मंगरी को अपनी ममता के दामन में समेट लिया और पाल पोस बड़ा किया। यद्यपि उस जमाने में स्कूली शिक्षा पर बहुत जोर नहीं था, फिर भी उसे बडी़ बहू ने आठवीं कक्षा तक की शिक्षा दिलाई थी। बड़ी ही स्वाभिमानी तथा जहीन लड़की थी मंगरी। बड़ी बहू ने अपनी ममता के साये में पालते हुए अपनी गोद में सुला गीता रामायण तथा भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों की घुट्टी घोंट घोंट पिलाई थी।

अब बीतते समय के साथ मंगरी बड़ी बहू को ताई जी के, संबोधन से संबोधित  करने लगी थी।  बड़ी बहू ने भी उसे कभी मां की कमी खलने नहीं दी थी। मंगरी सोते समय बड़ी बहू के हांथ पांव दबाती, सिर में तेल मालिश करती तो बड़ी बहू उसे दिल से दुआयें देती और वह बड़ी बहू के गले में गलबहियां डाले  लिपट कर सो  जाती।

इस प्रकार मंगरी बड़ी बहू के ममता एवम् प्यार के साये में पल बढ़ कर जवान हुई थी। बड़ी बहू ने अच्छा खासा संपन्न परिवार देख  उसकी शादी भी कर दी थी।  मंगरी के बिवाह में बड़ी बहू ने अपनी औकात से बढ़कर खर्चा किया था। अपने कलेजे के टुकड़े को खुद से अलग करते हुए बिदाई की बेला में फूट फूट कर रोई थी।

उसके कानों में बार बार  मंगरी के मां के कहे शब्द गूंज रहे थे और उसकी मां का चेहरा उसके स्मृति पटल पर उभर रहा था। लेकिन तब तक किसी को भी यह पता नही था कि मंगरी जिस परिवार में जा रही है, वो  साक्षात् नर पिशाच है। उम्मीद से ज्यादा पाने पर भी उनकी इच्छा अभी पूरी नहीं हुईं हैं। और ज्यादा पाने  कि चाह उन नरपिशाचों की आंख में उभरती चली गई।

मँगरी जब ससुराल पंहुची तो अपनी प्रकृति के विपरीत लोगों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाई।  इस, कारण सालों साल तक उपेक्षित व्यवहार तथा तानों के बीच उसने अपनी सेवा तथा तथा मृदुल व्यवहार से उनका दिल जीतने का पूरा प्रयास किया था। लेकिन वह सफल न हो सकी अपने उद्देश्य में क्योंकि ससुराल वाले लोगों की मंशा तो कुछ और थी उनके इरादे नेक नहीं थे।

ससुराल में पारिवारिक कलह मनमुटाव कुछ इस तरह बढा कि ससुराली एक दिन गर्भावस्था में ही मायके की सीमा में उसे छोड़ चलते बनें। उस दिन उसके सारे सपने टूट कर बिखर गये।  विवश मंगरी न चाहते हुये भी रोती बिलखती मायके में अपने घर के दरवाजे पर पहुंची। उसे देखते ही बड़ी बहू नें दौड़ कर गले लगा  ममता के आंचल में  समेट लिया था और मंगरी जोर जोर से दहाड़े मार कर रो पड़ी थी।

इसके साथ ही बड़ी बहू की  अनुभवी निगाहों ने सब कुछ समझ लिया था। उन्हें इस  बात का बखूबी एहसास हो गया था कि आज एक बार फिर पुरुष प्रधान समाज नें किसी दूसरी सीता को जीवन की जलती  रेत पर अकेली तड़पनें के लिए छोड़ दिया हो। उसके बाद बड़ी बहू नें रिश्तेदारों परिवार तथा समाज के वरिष्ठ जनों को साथ ले सुलह समझौते का अंतिम प्रयास किया, लेकिन बात बनी नहीं बिगडती ही गई।  सारे प्रयास असफल साबित हुए दवा ज्यों ज्यों की मर्ज बढ़ता गया।  सुलह समझौते का कोई प्रयास काम नहीं आया तो थक हार कर बड़ी बहू नें  न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक दी और इसी के साथ शुरू हो गया न्यायालय में दांव पेंच की लड़ाई के साथ तारीखों का अंतहीन सिलसिला जो बड़ी बहू के जीवन में खत्म नही हुआ और मंगरी के न्याय की आस मन में लिए ही एक दिन भगवान को प्यारी हो गई।

मंगरी अकेली रह गई जमाने से संघर्ष करने के लिए, उसके हौसलों में फिर भी कोई कमी नहीं आई।

बड़ी बहू की असामयिक मृत्यु ने बहुत कुछ बदल कर रख दिया था। बड़ी बहू नहीं रही। मंगरी अकेली हो गई।  ससुराल से मायके छोडे़ जाने के बाद उसे पुत्र की प्राप्ति हुई, सिर से ममता की छाया उठने के बाद उसने अपने तथा बच्चे के भविष्य के लिए बड़ी बहू द्वारा शुरू की गई न्यायिक लड़ाई को उसके आखिरी मुकाम तक पंहुचाने का निर्णय ले लिया था मंगरी ने और उन नर पिशाचों से अपना हक पाने पर आमादा हो गई थी।

न्याय पाने के लिए हर कुर्बानी देना स्वीकार किया था उसने।  वह तारीख़ दर तारीख बच्चे को गोद उठाये सड़कों की धूल फांकती रही। न्याय की आस में न्यायालय के चक्कर पे चक्कर लगाती गई लेकिन न्याय से भेंट होना उतना ही छलावा निकला जितना अपनी परछाई पकड़ना।

कभी हड़ताल, तो कभी न्यायाधीश का अवकाश लेना, कभी वादी प्रति वादी अधिवक्ताओं का तारीख लेना।  इन्ही दाव पेंचो के बीच फंसी मंगरी की जिन्दगी उस कटी फटी पतंग की तरह झूल रही थी, जो झुरमुटों में फंसी फड़फड़ा तो सकती थी, लेकिन उन्मुक्त हो नीलगगन में उड़ नहीं सकती।

कुछ भी करना बस में नहीं, हताशा और निराशा के क्षणों में डूबती उतराती मंगरी का उन बिपरीत परिस्थितियों से उबरने का संघर्ष जारी था। बड़ी बहू की मृत्यु के बाद एकाकी जीवन के पीड़ा दायक जीवन जीने को विवश थी।  आमदनी का कोई जरिया नहीं घर में गरीबी के डेरे के बीच मंगरी उतना ही कमाई कर पाती जितनें में माँ बेटों के दोनों जून की रोटी का जुगाड़ हो पाता।

वह पैतृक जमीन तथा बटाई की जमीन पर हाड़तोड़ मेहनत करती, लेकिन उसकी फसल कभी सूखा, तो कभी बाढ़ की भेंट चढ़ जाती।  उपर से रखवाली न होने से ऩंदी परिवार  तथा नील गायों का आतंक अलग।  इस प्रकार खेती किसानी मंगरी के लिए घाटे का सौदा साबित होती रही।  महाजनों का कर्जा मूल के साथ सूद समेत सुरसा के मुंह की तरह बढता जा रहा था। मंगरी की सारी पैतृक संपदा लील गया था और उसकी संपत्ति सूदखोरों के चंगुल मे फसती चली गई।

अब उसके पास सहारे के रुप में टूटा फूटा घर तथा सिर ढकने को मात्र आंचल का पल्लू ही बचा था, जिसमें वह कभी दुख के पलों में अपना मुंह छुपा रो लेती और अपना गम थोड़ा हल्का कर लेती।  उसका शिशु अब शैशवावस्था से निकल किशोरावस्था में कदम रखने वाला था।  उसकी आंखों में बच्चे को पालपोस पढा लिखा एक अच्छा वकील बनाने का सपना मचल रहा था।

वह रात दिन इसी उधेड़ बुन में रहती थी कि जिस अन्याय की आग में वह तिल तिल कर रोज जली है और लोग न जलने पाये उसका बेटा उन हजारों दीन दुखियों को न्याय दिला सके जो सताये हुए लोग है।

इसी बीच न्यायालय से मंगरी को चार हजार मासिक गुजारा भत्ता देने का आदेश पारित हुआ था, उस दिन मंगरी बड़ी खुश थी।  उसे लगा कि अब उसे न्याय मिल जायेगा उसका बेटे को पढाने लिखाने का सपना साकार हो जायेगा।  उसके जीवन की राहें आसान हो जायगी।

यह सोच उसका न्यायिक ब्यवस्था पर भरोसा दृढ हो गया था। पर हाय रे किस्मत! यथार्थ के धरातल पर उसका सपना सपना ही रहा।  न्यायिक आदेश भ्रष्ट पुलिसिया तंत्र की भेंट चढ़ फाईलों में दब महत्व हीन हो रह गया।  न्यायिक आदेश तो सिर्फ जायज हक पर मोहर ठोकता है और फिर उसे भूल जाता है, क्योंकि न्यायिक आदेश के अनुपालन कराने के लिए जिस पैसे और पैरवी की जरूरत होती है वे दोनों ही मंगरी के पास नहीं थे,  जिसके चलते आदेश की प्रति फाइलों के अंबार में दबी दम तोड़ गई और उसे न्याय न दिला सकी, गुजारे की राशि मंगरी न पा सकी।

मंगरी चकरघिन्नी बन कभी वकील की चौकी, कभी न्यायालय परिसर, कभी भ्रष्ट पुलिसिया तंत्र के आगे हाथ जोड़कर रोती गिड़गिड़ाती दिखाई देती।  कभी कोई उसके जवान जिस्म को खा जाने वाले अंदाज में घूरता नजर आता तो वह सहम नजरें झुका कर खुद में सिमटते नजर आती।  उसे समझ नहीं आता कि आखिर वह करे भी तो क्या करे,?

क्रमश: पथराई आंखों का सपना भाग-2

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ ज़मीन ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

( ई- अभिव्यक्ति में डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी का हार्दिक स्वागत है।  आप बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आज ससम्मान  प्रस्तुत है आपकी एक बेहद खूबसूरत और संजीदा कहानी ज़मीन। जीवन के कई सत्य और पुरस्कारों के संसार की ज़मीन के सत्य को उजागर करती इस बेबाक कहानी के लिए डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी की लेखनी को सदर नमन।)  

☆ कथा-कहानी ☆ ज़मीन ☆

चारु संमुदर के किनारे बैठकर अपनी बीती जिंदगी को याद कर रही है । चारु अपने यौवन में बहुत ही सुंदर दिखाई दे रही थी । उसके चेहरे पर तेज भी सूरज को कमज़ोर और चांद भी उसके सामने फीके पड जाते है । आप सोच नहीं सकते इतनी सुंदर थी । विश्वसुंदरी को भी मात देनेवाली एक लड़की चारु थी । उसके परिवार के लोगों ने उसे कभी भी विश्वसुंदरी की प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए सहायता नहीं की थी । उसका परिवार परंपरागत रुढिवादी से भरा था । उसके पिता जी की बात पूरे परिवार में चलती थी । चारु को कुछ भी काम होता तो वह पहले अपने पिताजी को मनाती थी । घर में पुरुष का वर्चस्व अधिक था । रमेश रोज सुबह पूजा करते थे । उसकी माँ चांदनी उनके लिए पूजा की सामग्री सब सजाकर रखती थी । एक दिन भी उनसे नहीं होता तो रमेश चिल्लाते थे । चारु को कॉलेज में आगे पढ़ना था ।

रमेश ने साफ मना कर दिया था कि अब आगे चारु पढाई नहीं करेगी । चांदनी मुझे लगता है कि उसे घर के काम सीखने चाहिए । उसे सारी औरतों के काम सीखा देना । अपना फैसला सुनाकर  वे अपने ऑफिस के लिए निकल गए ।

उनके जाते ही चारु उनकी नकल करते हुए अपनी माँ से पूछती है, माँ, आप इस इन्सान के साथ कैसे रह लेती हो?  मेरे लिए कभी भी ऐसा पति मत ढूँढना । माँ मुझे आगे पढना है । आप लोग क्यों नहीं समझ रहे हो? मुझे समाज में बहुत सारे काम करने है । आप बताइए माँ, क्या मैं घर की चाहरदीवारी में बैठकर चूल्हा चौका करने ही पैदा हुई हूँ ? आप बताइए । अगर ऐसा ही था तो मुझे पैदा ही क्यों किया ? माँ…माँ… बात क्यों नहीं कर रही हो, कहते हुए चारु अपनी माँ को ज़ोर से हिलाती है ।

चांदनी की आँखों में आंसू बह रहे थे । उसने आंसू पौंछाकर कहा, सही कहा तुमने । सबसे परे मैं माँ हूँ । मैं कैसे अपनी फूल सी बच्ची को किसी कसाई के हवाले कर देती, बताओ । बडी आई कहनेवाली कि मुझे मार दिया होता तो अच्छा होता कहनेवाली । तुम तो बहुत बड़ी हो गई हो बिटिया ।  हाँ, मानती हूँ  कि  तुम्हारे पिताजी को लड़की पहले से पसंद नहीं है । वह हंमेशा लड़की को जिम्मेदारी ही समझते है । मतलब यह तो नहीं कि बच्ची को मार दिया जाय । रमेश डरते है कि उनकी सुंदर बच्ची पर किसीकी नज़र न पड़ जाय । उन्होंने तुम्हें गंदी नज़रों से बचाकर रखा है । तुम यह सोच रही होगी कि पापा को क्या लेना-देना जब वह लड़की का पैदा होना ही पसंद नहीं है, तुम्हें पता है… दुखी ज़रुर हुए थे जब तुम पैदा हुई थी । धीरे-धीरे तुम्हारे प्यार ने ही उन्हें बदल दिया है । यह ज़रुर है कि हमारे घर में उनका शासन चलता है । घर में किसी एक शासन चलना ज़रुरी होता है । रमेश की बातें मुझे भी चुभती है फिर भी मैं सुन लेती हूं । क्यों पता है? वे हमारे लिए जीते है । क्या ज़रुरत है उनको बाहर जाकर काम करने की ? क्या ज़रुरत हैं कि वे अपना परिवार छोडकर शहर में आकर कमा रहे है? क्या उनको इतनी मेहनत करने की ज़रुरत है कि वे हमारे लिए मकान और गहने बनाये? नहीं । फिर… हमें भी समझना चाहिए । कह देना आसान है कि उनके जैसा पति नहीं चाहिए । सच बताऊँ तो उनके जैसा पति मिलना भी मुश्किल है ।

चारु अपनी माँ की बात सुनकर कहती है, अच्छा माँ यह सोच लिया जाय कि वे बहुत अच्छे है । जो भी कर रहे है, मात्र अपने परिवार की सुरक्षा के लिए कर रहे है । पर माँ प्यार नाम भी कुछ होता है । जो इन्सान के लिए महत्वपूर्ण है । रोज की इस मशीन की जिंदगी में अगर कोई प्रेम से बतिया दे तो कितना अच्छा लगता है । हंमेशा चिल्लाना और सिर्फ अपनी बात को मनवाना यह भी कोई बात हुई ।

चांदनी भी सोचते हुए कहती है, हां बिटिया, लगता तो पहले मुझे भी तुम्हारे जैसा ही था । अब हर व्यक्ति का जीने का तरीका अलग होता है । हम अगर उसे अपनाकर उनके साथ रहेंगे तो अच्छा है । वरना रोज रोते रहेंगे । अपनी ही जिंदगी से ऊब जाएंगे । रमेश हम लोगों को बहुत चाहते है, पर वह दिखाते नहीं है ।

माँ आप कुछ भी कह लीजिए, मुझे आगे पढना है । मैं पापा को मनवाकर रहूंगी । आखिर मैं भी उनकी बेटी हूं । देख लेना।

रमेश के ऑफिस से लौटते ही चारु ने उनके लिए अदरकवाली चाय पेश की । रमेश ने कहा, आज क्या नई योजना हमारी बिटिया ने बनाई है ? वैसे चाय बहुत अच्छी है । अब बताइए क्या बात है ।

वो…पापा….वो …..पापा..मैं..मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ । मैं आपको वादा करती हू कि आपको किसी भी प्रकार की परेशानी मुझसे नहीं होगी । धीरे-धीरे कहती है, पापा मैं अपने ज़मीन की तलाश कर रही हूं । मुझे आपका सहारा चाहिए । मैंने आज तक कोई भी शिकायत का मौका नहीं दिया । आपने जैसा कहा वैसे करती गई । आज मैं सिर्फ अपने लिए कुछ करना चाहती हूँ । सच में पापा, प्लीज। इस दुनिया में थोड़ी सी जगह चाहती हूँ । आप मेरा साथ दोगे ना पापा कहते हुए अपने घुटनों के बल चारु रमेश  के पैर के पास बैठ जाती है ।

रमेश उसकी ओर देखते है फिर चांदनी की ओर । ठीक है, थोडी देर सोचकर कहते है, एक काम करना कल जाकर तुम बीएमएस वुमन्स कॉलेज का फॉम लेकर आना । अभी आखिरी तारीख बाकी है ।

चारु बहुत खुश हो जाती है और देखना पापा मैं मन लगाकर पढाई करुगी और आपको कभी भी शिकायत का मौका नहीं दूंगी । कहते हुए चारु अपनी दोस्त नीतु को फोन करके बताती है ।

चारु स्वतंत्र विचारोंवाली थी । वह अपने पैरों पर खडे होना चाहती थी । वह पढ़ाई में हमेशां से अव्वल आई है । भगवान ने जैसा रुप दिया वैसी ही बुद्धिमान और प्रतिभाशाली भी बनाया है । वह थोड़ी शरारती किस्म की थी । वह लड़कों को फेसबुक और बोट्‍सएप के माध्यम से उल्लू भी बनाती थी । उसे लगता था कि लोग उसे जाने और सराहे । बस उसमें एक जुनून था । उसने अपनी पढ़ाई पूरी की और रमेश ने उसकी शादी एक सम्पन्न परिवार कर दी थी । उसने वहां पर अपने पति से कहा कि उसने इतनी पढाई की है अब वह पढाना चाहती है । उनके पति किरण भी उसकी बातों को स्वीकार कर लिया । यही सारी बातों को सोचते हुए चारु समुंदर के किनारे बैठी हुई छोटे पत्थरों को पानी में फेंक रही थी । मंद-मंद हवा बह रही थी, उसका आनंद ले रही थी ।

अचानक पीछे से एक आवाज़ आती है । अरी ओ! चारु मैं तो पुकारकर थक गई । तुम यहाँ बैठी हो । तुम्हारा फोन कहाँ है ? मैं तो तुम्हें फोन करके भी थक गई । अब तुम चलो। कहते हुए उसका हाथ नीतु पकडती है ।

अरे!  नीतु तुम ? ऐसे  कैसे और क्यों? देखो न! यहाँ पर कितना अच्छा लग रहा है । कभी-कभी एकांत भी कितना अच्छा लगता है । देखो थोडी देर के लिए बैठोगी तो इन लहरों को भी सुन पाओगी । कहकर नीतु को  भी पास बिठाती है ।

नीतु जिद्द पर अड़ी थी । उसकी जिद्द को देखकर चारु कहती है, कहाँ जाना है हमें और क्यों?

नीतु ने कहा उसे बधाई देते हुए कहा, देखो तो तुम कैसे अनजान बनी बैठी हो ? तुम्हें इतने सारे सम्मान मिले अब तो हमे पार्टी चाहिए । नीतु चारु का हाथ पकडते हुए कहती है, अच्छा अब बताओ तुम्हें किस किताब के लिए सम्मानित किया गया । मैं बहुत खुश हूँ । अगर तुम मुझे किताब का नाम बताओगी तो मैं भी उसे पढूंगी । मुझे भी पढ़ने का बहुत शौक है ।

अरी! वो सम्मान मुझे कोई किताब के लिए नहीं दे रहे है । वो तो मेरे प्रपत्र वाचन के लिए दे रहे है । किताब तो मैंने अभी तक नहीं छपवाई । लेकिन हम आपको पार्टी ज़रुर देंगे । कहते हुए चारु अपनी दोस्त के साथ पानी-पुरी खाने चलती है ।

पानी-पुरी खाते हुए नीतु अपनी सहेली चारु से कहती है, मैं एक बात पूछू। बुरा मत मानना । तुम्हारे जैसे कितने ही लोगों ने प्रपत्र लिखें होंगे । तो उनको क्यों नहीं सम्मानित कर रहे है ?

पानी-पुरी अच्छी है अब गोल-गप्पे खाएगी? मुझे नहीं पता कि दूसरों को क्यों नहीं सम्मानित कर रहे है ? मुझे तो इतना पता है कि वे मुझे बुलाते है और सम्मान करते है ।

नीतु उसकी ओर देख रही थी कि उसने कितनी आसानी से अपनी बात रख दी उसे बुरा तक नहीं लगा । उसके चेहरे पर कुछ भी ऐसे भाव नहीं लग रहे थे कि उसे बुरा लगा हो । नीतु यही बात सोचते हुए अपनी सहेली के साथ उसके घर जाती है । नीतु को लगता है कोई बिना कुछ किए कैसे सम्मान ले लेता है । तो क्या किसीको सम्म्मान हासिल करने के लिए कुछ लिखने की ज़रुरत नहीं है । लोग मेहनत करके कविता या कहानी या साहित्य में कुछ लिखते ही क्यों है? बस कुछ प्रपत्र लिख दिए सम्मान मिल गया ।

चारु अपनी सहेली को हिलाती है और कहती है मेमसाब घर आ गया है । क्या इतना सोच रही हो । देखो अपना दिमाग यों नाहक खराब नहीं करते । जिंदगी में कुछ बातों को ऐसे रहने में ही सबकी भलाई है ।

फिर भी चारु तुमने यह सब कितनी आसानी से कह दिया । सच बताऊँ तो सब जो प्रपत्र लिख रहे है, सबको सम्मानित करना चाहिए । तुम अकेली नहीं हो ।

थोड़ी देर के लिए चारु चुप हो जाती है । नीतु की इस बात का उसके पास कोई उत्तर नहीं था । उसने कहा ठीक अब मैं अदरकवाली चाय बनाकर लाती हूँ । तुम्हें पता है, मैं बहुत अच्छी चाय बनाती हूँ । कहते हुए रसोईघर में चली जाती है ।

नीतु भी कहानी और कविता लिखती है । आज तक उसने जो भी सम्मान हासिल किया, उसकी लेखनी के लिए  था । वह अपने नियमों की पक्की थी । उसे बुरा लग रहा है क्योंकि दुनिया में ऐसे लोग भी रहते है । सिर्फ अपना नाम कॉलेज में कमाने के लिए ऐसे सम्मान लेते है । नीतु सोच रही थी कि अचानक चारु के फोन की घंटी बजती है । चारु चाय बनाने में व्यस्त थी । नीतु ने चारु का फोन उठाया ।नीतु बताने जा रही थी कि पता चला कि उसके धर्म भाई बात कर रहे है ।

धीरज भाई साब आप? हाँ, नीतु बहिना कैसी हो? अरी! बहिना आप ने बहुत ही अच्छी कविता लिखी है । हमने कविता पढ़कर चयन समिति को भेजा था । उन्होंने आपको श्री श्री श्री सम्मान के चयन किया है । बाकायदा आपको पत्र भी मिल जाएगा । आप २५ मई को भोपाल में आइएगा । भोपाल में आपका स्वागत है ।

भैया, शायद पारिवारिक परेशानियों की वजह से मैं नहीं आ पाऊँगी । तो क्या आप मेरा सम्मान घर पर भिजवा सकते है ? जी,बहिना मैं समिति से बात करके चारु के साथ भिजवा दूंगा । चिंता की कोई बात नहीं है । उनको भी सम्मानित किया जा रहा है । नीतु को अजीब लगा और बता दिया, कि भैया उन्होंने कोई किताब अभी तक छपवाई नहीं है और कोई कविता भी उनकी प्रकाशित नहीं हुई है । क्षमा कीजिएगा, लेकिन उनको ….मतलब….।

तो क्या हुआ बहिना कि उन्होंने कुछ नहीं लिखा है । आप जानती हो वह हमारी जगह से है । फलस्वरुप उनको सम्मानित करते है । लेकिन भैया यह तो गलत तरीका ही है। मतलब जो कोई आपकी जगह् से होगा या फिर रुपया देंगे तो आप उनको सम्मानित कर देंगे । यह भी कोई बात हुई । यह तो अन्याय है । जो सच में साहित्य की रचना कर रहे है, उसका कोई मूल्य ही नहीं रहेगा । जो सच में सम्मान के योग्य है, उनके साथ तो अन्याय ही हो रहा है । हमारे यहां पर भी साहित्य की चोरी करके खुद का नाम लिख देते है । ऐसी गलत हरकतों पर मुझे बहुत गुस्सा भी आता है । लेकिन मैं अकेली क्या कर सकती हूँ । सिर्फ लिख सकती हूँ । और हम भी किन-किनको रोकेंगे । आजकल विश्वविद्यालय में अपना नाम और स्थान बनाने हेतु लोग ऐसा कर रहे है। आप भी क्या कर सकते है? भैया आपने अपना बडप्पन ही दिखाया है । अब सोचना तो उनको है जो सम्मान ऐसे हासिल कर रहे है । अच्छा, भैया इस बार तो मैं नहीं आ पाऊँगी लेकिन अगली बार अवश्य आने की कोशिश करुँगी । कहते हुए नीतु फोन रख देती है ।

चारु अपनी सहेली के लिए चाय और बिस्कुट भी लेकर आती है । नीतु का मन नहीं करता, फिर भी वह चाय पीती है । फिर कहती है आपके भाई का फोन आया था । ऐसे ही बात कर रही थी । वे मेरे भी धर्म भाई है। फिर चाय का एक घूंट पीकर कहती है, मेमसाब आपका अगला पड़ाव कहाँ पर है । चारु कहती है, अगला पडाव मैं कुछ समझी नहीं । अरे! मैं सम्मान की बात कर रही थी ।

पता नहीं । कब, कौन बुलाएगा ? पता है तुम्हें मेरे पति भी मेरे साथ आते है । उनको भी मुझे सम्मानित होते देख बहुत अच्छा लगता है ।

यह तो बहुत अच्छी बात है । तुम्हें अपने पैरों तले की ज़मीन मिल गई ना चारु। कहते हुए नीतु व्यंग्य रुप से मुस्काती है । चारु उसके व्यंग्य को न समझने का अभिनय करती है । सही कहा तुमने मुझे थोडी ज़मीन तो मिल गई ।

 

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

२७२, रत्नगिरि रेसिडेन्सी, जी.एफ़.-१, इसरो लेआउट, बेंगलूरु-७८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कालजयी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – कालजयी ☆

…कितना धीरे धीरे चढ़ते हैं आप! देखो, मैं कैसे फटाफट दो-दो सीढ़ियाँ एक साथ चढ़ रहा हूँ..! लिफ्ट खराब होने के कारण धीमी गति से घर की सीढ़ियाँ चढ़ रहे दादा जी से नौ वर्षीय पोते ने कहा। दादा जी मुस्करा दिए। अनुभवी आँख के एक हिस्से में अतीत और दूसरे में भविष्य घूमने लगा।

अतीत ने याद दिलाया कि बरसों पहले, अपने दादा जी को मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ाते समय यही बात उन्होंने अपने दादा जी से कही थी। उनके दादा जी भी मुस्कुरा दिए थे।

भविष्य की पुतली दर्शा रही थी कि लगभग छह दशक बाद उनके पोते का पोता या पोती भी उससे यही कहेंगे। दादा जी दोबारा मुस्कुरा दिए।

जगत के पटल पर एक ही कथा का अनादि काल से मंचन हो रहा है। पात्र, श्रोता, दर्शक, पाठक निरंतर बदलते रहे हैं। कविता हो या कहानी, लघुकथा या  उपन्यास, जो सर्वदा समकालीन हो, वही साहित्य कालजयी कहलाता है।

 

# स्वस्थ रहें, घर पर रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

11.39 बजे, 8.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ डायरी के पन्ने मात्र नहीं हैं जिंदगी ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक अत्यंत प्रेरक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा डायरी के पन्ने मात्र नहीं हैं जिंदगी। निःशब्द, अतिसुन्दर लघुकथा, कथानक एवं कथाशिल्प। यह सत्य है कि यदि हम डायरी लिखते हैं ,तो वे दो डायरियां होती हैं। एक वह जो हम  कागज के पन्नों पर लिखते हैं और उसे आप पढ़ सकते हैं। दूसरी वह जो हम ह्रदय के पन्नों पर लिखते हैं जिसे सिर्फ हम ही पढ़ सकते हैं । ऐसी शख्सियत बिरली होती है जिनकी दोनों डायरियां एक सी होती हैं।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

☆ लघुकथा – डायरी के पन्ने मात्र नहीं हैं जिंदगी

सामने रखी पुरानी डायरी के पन्ने फड़ फडा़ रहे थे और जबरन दबाई गयी यादें उससे भी अधिक उफन रहीं थीं।

ऐसा लगा अभी कल ही की तो बात है जब पिताजी ने कक्षा एक में नाम लिखवाया था – – कुछ दिनों पहले ही तो भैय्या ने रिजल्ट्स के पहले ही दोस्तों के पूछने पर कह दिया था कि राजी तो फ़र्स्ट क्लास पास हो गई है – कई बार ऊंचे खानदानों के रिश्ते  – -पिताजी ने लौटा दिए यह  कह कर कि “मेरी होनहार मेरिट वाली बिटिया है उसे चूल्हे चौके की भट्टी में नहीं झोंकना है उसे तो मैं बडी अफसर बनाऊंगा” – – – इतना भरोसा, इतना विश्वास, इतनी तमन्नाएं जहां जुड़ी हों वहां यकायक कैसे कह दे राजी कि वह पढाई अधूरी छोड़ कर दूसरी जाति के शिवम  के साथ सात फेरे ले चुकी है – – कि शिवम के वृद्ध बीमार माता-पिता की सेवा में उसे जीवन की रवानी मिल रही है

इसी उहापोह में एक दिन राजी ने डायरी में लिखा “भैय्या, मां और पिताजी बिस्तर पर पडे़ कराहते रहते हैं – टीनू मीनू गंदी यूनिफार्म में ही कई बार रोती हुई स्कूल चली जाती हैं। सबेरे नौ से पांच की ड्यूटी के बाद थक कर चूर भाभी बिखरे घर को समेटने में बेहाल सी लगी रहतीं हैं और रात को सोने से पहले पढीलिखी महिला की तरह डायरी लिखती हैं “आज का प्यारा दिन बीत गया – – आदि आदि। लेकिन भैया मैं ऐसा झूठा सच नहीं बनना चाहती। पढ लिख कर कामकाजी महिला की डायरी का झूठा पन्ना नहीं बनना चाहती। आप लोगों ने मुझे पढा लिखा कर बढ़िया पद पर कार्यरत महिला बनाने का सपना संजोया है लेकिन मखमली सपनों को कांटो के ताज में बदलते देखा है मैंने बुआ, भाभी और दीदी की जिंदगी में।

मैंने जीवन की डायरी का सच्चा पन्ना बनना स्वीकार किया है भैया। शिवम को उसके माता-पिता और बहन की चिंता से मुक्त करके उनके बिखरे घर को समेटने का संकल्प लिया है। आशीर्वाद दें कि मैं जिंदगी की इस परीक्षा में फर्स्ट क्लास फर्स्ट पास  होती रहूँ – – मैं डायरी का झूठा पन्ना नहीं बनना चाहती भैया आशीर्वाद दें कि जिंदगी का सच्चा प्रमाण पत्र बनूं”

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 42 ☆ समय की धार ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा  समय की धार।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 42 – साहित्य निकुंज ☆

☆ समय की धार

इंदू की बाहर पोस्टिंग हो जाने बाद आज उसका फोन आया. वहां के सारे हालचाल सुनाए और निश्चितता से कहा बहुत मजे से जिंदगी चल रही है.

हमने ना चाहते भी पूछ लिया अब शादी के बारे में क्या ख्याल है यह सुनते ही उसका गला भर आया.

उसने कहा..” मां बाबूजी भी इस बारे में बहुत फोर्स कर रहे हैं लेकिन मन गवाही नहीं दे रहा कि अब फिर से वही जिंदगी शुरू की जाए पुराने दिन भुलाए नहीं भूलते.”

हमने समझाया ” सभी एक जैसे नही होते, हो सकता है कोई इतना बढ़िया इंसान मिले कि तुम पुराना सब कुछ भूल जाओ.”

“दी कैसे भूल जाऊं वह यादें… ,कितना गलत था मेरा वह निर्णय, पहले उसने इतनी खुशी दी और उसके बाद चौगुना दर्द , मारना -पीटना, भूखे रखना. उसकी मां जल्लादों जैसा व्यवहार करती थी.

मां बाप की बात को अनसुना करके बिना उनकी इजाजत के कोर्ट मैरिज कर ली और हमारे जन्म के संबंध एक पल में टूट गये.”

“देखो इंदु , अब तुम बीती बातों को भुला दो और अब यह आंसू बहाना बंद कर दो.”

दी यह मैं जान ही नहीं पाई कि जो व्यक्ति इतना चाहने वाला था वह शादी के बाद ही गिरगिट की तरह रंग कैसे बदलने लगा.”

“इंदु  अब तुम सारी बातों को समय की धार में छोड़ दो.”

“नहीं दी यह मैं नहीं भूल सकती मैंने अपने माता पिता को बहुत कष्ट दिया,

इसका उत्तर भगवान ने हमें दे दिया.”

“इंदु एक बात ध्यान रखना माता -पिता भगवान से बढकर है, वे अपनी संतान को हमेशा मांफ कर देते है.”

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 25 ☆ लघुकथा – सोच — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “सोच —-”।  यह लघुकथा हमें  एक सकारात्मक सन्देश देती है।  परिवार के सभी सदस्यों को अपनी सोच बदलने की  आवश्यकता  है। वैसे  इस मंत्र को आज सभी  ने महसूस किया है एवं उसका अनुपालन भी हो रहा है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद खूबसूरत सकारात्मक रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 25 ☆

☆ लघुकथा – सोच —-

माँ ! भाभी की मीटिंग तो खत्म ही नहीं हो रही है.

तो तुझे क्या करना है? कुछ काम है भाभी से?

अरे नहीं,  लॉकडाउन की वजह से खाना बनानेवाली काकी तो नहीं आएगी ना? बर्तन, कपडे, झाडू-पोंछा सब करना पडेगा हमें?

हाँ, तो क्या हुआ? पहले नहीं करते थे क्या हम सब? कामवाली बाईयां तो अब कोरोना महामारी  खत्म होने के बाद ही आएगी. लॉकडाउन की वजह से कोई कहीं आ-जा नहीं सकता है.

हाँ वही तो मैं भी कह रही हूँ और भाभी हर समय अपने ऑफिस के काम में ही लगी रहती हैं, घर के काम कौन करेगा? निधि ने मुँह बनाते हुए कहा.

ओह, तो अब समझ आया कि तुझे भाभी की इतनी याद क्यों आ रही है – सुनयना मुस्कुराती हुई बोली- ये बता जब तक तेरे भैया की शादी नहीं हुई थी तो घर के काम कौन करता था ?

मैं और तुम, हाँ छुट्टी वाले दिन पापा और भैया भी हमारी मदद कर दिया करते थे.

तो आज भाभी का इतना इंतजार क्यों हो रहा है? हम सब आराम से घर में बैठे हैं और वो बेचारी सुबह से लैपटॉप पर आँखें गडाए काम कर रही है. उसमें से भी जब समय मिलता है तो उठकर घर के काम निपटा देती है. उसका भी तो मन करता होगा ना थोडा आराम करने का, वह इंसान नहीं है क्या ? चल उठ, हम दोनों जल्दी से रसोई का काम निपटा देते है. सबको मिलकर काम करना चाहिए,  बहू अकेले कितना काम करेगी?

शुभा आज बहुत थक गई थी, सिर में दर्द भी हो रहा था.  आठ दस घंटे काम करने के बाद भी मैनेजर का मुँह चढा ही रहता है, इसी बात को लेकर मैनेजर से झिक-झिक भी हो गई थी. कोरोना के कारण लोग घर बैठकर बिना काम के बोर हो रहे थे पर आई टी वालों को तो घर से काम करना था. वह अपने कमरे से निकल ही रही थी कि उसे अपनी सास और नंद निधि की बातचीत सुनाई दी. उसकी आँखें भर आईं वह सोचने लगी काश! ऐसी ही सोच समाज में सबकी हो जाए?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 43 – बुनियादी अंतर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बुनियादी अंतर। )

गौरव के क्षणयह हमारे लिए गर्व का विषय है कि – आदरणीय श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी को  हरियाणा में ‘आनंद सर की हिंदी क्लास’  नामक युटुब चैनल में आपका परिचय प्रसिद्ध साहित्यकार के रूप में छात्रों से कराया गया  जिसका प्रसारण गत रविवार  को हुआ।

स्मरणीय है कि आपकी रोचक विज्ञान की बाल कहानियों का प्रकाशन प्रकाशन विभाग भारत सरकार दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। वहीँ आपकी 121 ई बुक्स और इतनी ही लगभग कहानियां 8 भाषाओं में प्रकाशित और प्रसारित हो चुकी हैं और कई पुरस्कारों से नवाजा जा चूका है।

ई अभिव्यक्ति की और से हार्दिक शुभकामनाएं। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 43☆

☆ लघुकथा-  बुनियादी अंतर ☆

 

“जानते हो काका ! आज थानेदार साहब जोर-जोर से चक्कर लगा कर परेशान क्यों हो रहे है ?” रघु अपने घावों पर हाथ फेरने लगा, “मेरे रिमांड का आज अंतिम दिन है और वे चोरी का राज नहीं उगलवा सके.”

“तू सही कहता है रघु बेटा ! आज उन की नौकरी पर संकट आ गया है. इसलिए वे घबरा रहे है,” कह काका ने बीड़ी जला कर आगे बढ़ा दी.

“जी काका. इस जैसे-जलाद बाप ने मुझे मारमार कर बिगड़ दिया. वरना किसे शौक होता है, चोर बनने का.” यह कहते ही रघु ने अपना चेहरा घुमा लिया. उस के हाथ आंख पर पहुँच चुके थे.

मगर जैसी ही वह संयत हुआ तो काका की ओर मुड़ा, “काका हाथ पैर बहुत दर्द कर रहे है. यदि इच्छा पूरी हो जाती तो?”

“क्यों नहीं बेटा.” काका रघु के सिर पर हाथ फेर कर मुस्करा दिए. वे रघु की इच्छा समझ चुके थे.

कुछ ही देर में दारू रघु के हलक में उतर चुकी थी और ‘राज’ की मजबूत दीवार प्यार के स्नेहिल स्पर्श से भरभरा कर गिर चुकी थी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 20 ☆ लघुकथा – समझदारी …….. ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और शिक्षाप्रद लघुकथा समझदारी   ….।  पति पत्नी का सम्बन्ध एक नाजुक डोर सा होता है और विश्वास उसकी सबसे बड़ी कड़ी होती है।  इस तथ्य को श्रीमती कृष्णा जी ने  पति पत्नी के इस सम्बन्ध में निहित समझदारी  को बेहद  खूबसूरती से दर्शाया है। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 20 ☆

☆ लघुकथा  – समझदारी   …. ☆

 

पति  अजय ने आभा को अपने पास बैठाकर समझाया। बीती बातें एक बुरा सपना समझकर भूल जाओ मैं  तुम्हारे साथ हूँ   पर आभा नजरें नहीं मिला पा रही थी। अजय ने उसे गले लगाया बस फिर तो आभा के सब्र का बांध ही टूट गया हिचकी के साथ आँसू बहे और आँसुओं के साथ मित्र द्वारा की गयी गद्दारी  तार तार हो गई।

शाह ने पहले अजय से दोस्ती की और फिर बाद में आभा की गतिविधियों पर नजर रख उसका फायदा उठाया। अजय जानते थे। शाह बदमाश और गंदा व्यक्ति है पर उसकी  वाकपटुता से वे भी मोहित हो गये। किन्तु, उसका घर में घुसकर घरघुलुआ खेलना बहुत बुरा लगा। वे उस पर नजर रखते फिर भी शाह आभा से मिलना न छोड़ता।  अजय ने घर बर्बाद न हो, यह कोशिश शुरू कर दी।  अभी नयी नयी गृहस्थी थी एक दूसरे को समझ ही रहे थे, कि बीच में शाह का आ जाना  घर का टूटने जैसे होगा।

अजय ने आभा को बहुत प्यार और सम्मान, धीरज के साथ समझाया और शाह की कोई भी बुराई न कर आभा के मन को जीत  लिया।  नारी स्वभाव एक चढ़ती बेल ही तो होता है।  जो प्यार से संवारे,  उसी की हो ली।

अजय कुछ सामान लेने बाहर निकले ही थे कि झट से दूर खड़े शाह ने आभा के घर में प्रवेश किया।  अजय शाह को आते देख चुके थे।  वे आकर चुपचाप  बाहर कमरे में बैठ गये। शाह आभा से प्यार भरी बातें करने लगा। सब्जबाग दिखाने की कोशिश करने का प्रयास किया।  तभी आभा ने ऊंची आवाज में शाह को डाँटा कि आज के बाद इस घर में कदम मत रखना।  यह मेरा और मेरे पति का घर है, इसमें किसी तीसरे का कोई स्थान नहीं। और शाह अपनी चालबाजियों के आगे खुद ही हार गया। जब वह बाहर निकल रहा था, तभी अजय ने बड़े प्यार से उसकी ओर मुस्कुरा कर देखा। शाह सिर नीचे किए चुपचाप तेज कदमों से बाहर निकल गया।

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ आस्तीन के सांप ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा   “ आस्तीन के सांप”.  )

☆ लघुकथा – आस्तीन के सांप

कालोनी में सन्नाटा पसरा हुआ था । हर कोई अपने घर में बंद  था । तभी एक घर से शोरगुल उठा और घर के लोग बदहवास बाहर निकल कर सांप -सांप चिल्लाने लगे । कालोनी के लोग केम्पस में जमा हो गये । कुछ साहसी युवकों ने सांप को भगा दिया ।

लोग पुनः अपने घरों में दुबक गये और समाचार चैनलों से चिपक गये । संवाददाता बता रहा था कि भारत में कुछ पढे लिखे जाहिलों के द्वारा शासन के नियमों का पालन न करने से कोरोना के मरीजों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है ।

समाचार देखते हुए वह सोचने लगा – “कालोनी में घुसकर साँप तो यही जानना चाहता था  कि यहां इतना सन्नाटा क्यों है? वास्तविक सांप आजकल बहुत कम दिखते हैं । अब तो चारों ओर आस्तीन के सांपों की भरमार है । डर और दहशत का माहौल इन्हीं की वजह से है । यह शासन के आदेशों की अवहेलना कर मानवता के विरुद्ध क़ानून तोड़ने का ही कार्य करते हैं ।”

यह एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है कि-  “आखिर, इन आस्तीन के सांपों का क्या करना चाहिए?”

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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