हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 26 – गुलाबी  गुड़िया ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अत्यंत भावुक लघुकथा    “गुलाबी  गुड़िया ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 26 ☆

☆ लघुकथा – गुलाबी  गुड़िया ☆

 

‘आरुषि’ अपने मम्मी-पापा की इकलौती संतान। उसे बहुत ही प्यार से रखा था। सब कुछ आरुषि के मन का होता था। कहीं आना-जाना  क्या पहनना, क्या खाना। छोटी सी आरुषि की उम्र 6 साल थी। खिलौने से दिनभर खेलना और मम्मी पापा से दिन भर बातें करना। सभी को अच्छा लगता था। खिलौने में सबसे प्यारी उसकी एक गुड़िया थी। प्यार से उसका नाम उसने गुलाबी रखा था। दिन भर गुड़िया से बातें करना, उसको कपड़े पहनाना, कभी छोटी सी साइकिल पर बिठा कर चलाना। गुलाबी से मोह इतना कि रात में भी उसे अपने साथ सुलाती थी।

एक दिन मम्मी-पापा के साथ घूमने निकली। आरुषि अपनी गुड़िया को भी ले गई थी। रास्ते में अत्यधिक भीड़ होने की वजह से मम्मी ने कहा “आरू, गुड़िया हम रख लेते हैं। आप संभल कर गाड़ी (दुपहिया वाहन) पर बैठो”। आरुषि गुड़िया को मम्मी को पकड़ा कर पापा के सामने जा बैठी। सब खुश होकर गाना गाते हुए चले जा रहे थे। अचानक सामने से आती ट्रक की चपेट में तीनों बुरी तरह घायल हो गए। अस्पताल में आरुषि और पापा तो बच गए परंतु मम्मी का देहांत हो गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आरुषि को कैसे समझाया  जाए। अंतिम विदाई के समय सभी की आंखें नम थी। परंतु आरुषि चुपचाप सब कुछ देख रही थी। सभी ने कहा मम्मी भगवान के घर चली गई। जब अर्थी ले जाने लगे, तभी आरुषि दौड़कर अपने कमरे में गई और अपनी प्यारी गुड़िया को लेकर आई और मम्मी के पास रखते हुए बोली “भगवान घर मम्मी अकेले जाएगी, मैं नहीं रहूंगी तो कम से कम गुलाबी के साथ बात करेंगी। सभी शांत और भाव विभोर थे आखिर इस नन्ही बच्ची को कैसे समझाएं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – चयन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  चयन

 

‘न रूप न रंग, न स्टाइल न स्मार्टनेस, न हाई पैकेज न गवर्नमेंट जॉब, न खानदानी रईस, न जागीरदार..,’ खीजकर उसकी सहेली बोले जा रही थी।..’कैसे हाँ कह दी? आख़िर क्या देखा तुमने इस लड़के में?’

 

‘…साथ चलने और साथ जीने की संभावना..,’  मुस्कराते हुए उसने उत्तर दिया।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

सुबह 10.45 बजे,27.11.19

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ नीरव प्रतिध्वनि ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर सार्थक  लघुकथा   “नीरव प्रतिध्वनि”.)

 

☆ लघुकथा – नीरव प्रतिध्वनि ☆ 

 

हॉल तालियों से गूँज उठा, सर्कस में निशानेबाज की बन्दूक से निकली पहली ही गोली ने सामने टंगे खिलौनों में से एक खिलौना बतख को उड़ा दिया था। अब उसने दूसरे निशाने की तरफ इशारा कर उसकी तरफ बन्दूक उठाई। तभी एक जोकर उसके और निशानों के बीच सीना तान कर खड़ा हो गया।

निशानेबाज उसे देख कर तिरस्कारपूर्वक बोला, “हट जा।”

जोकर ने नहीं की मुद्रा में सिर हिला दिया।

निशानेबाज ने क्रोध दर्शाते हुए बन्दूक उठाई और जोकर की टोपी उड़ा दी।

लेकिन जोकर बिना डरे अपनी जेब में से एक सेव निकाल कर अपने सिर पर रख कर बोला “मेरा सिर खाली नहीं रहेगा।”

निशानेबाज ने अगली गोली से वह सेव भी उड़ा दिया और पूछा, “सामने से हट क्यों नहीं रहा है?”

जोकर ने उत्तर दिया, “क्योंकि… मैं तुझसे बड़ा निशानेबाज हूँ।”

“कैसे?” निशानेबाज ने चौंक कर पूछा तो हॉल में दर्शक भी उत्सुकतावश चुप हो गए।

“इसकी वजह से…” कहकर जोकर ने अपनी कमीज़ के अंदर हाथ डाला और एक छोटी सी थाली निकाल कर दिखाई।

यह देख निशानेबाज जोर-जोर से हँसने लगा।

लेकिन जोकर उस थाली को दर्शकों को दिखा कर बोला, “मेरा निशाना देखना चाहते हो… देखो…”

कहकर उसने उस थाली को ऊपर हवा में फैंक दिया और बहुत फुर्ती से अपनी जेब से एक रिवाल्वर निकाल कर उड़ती थाली पर निशाना लगाया।

गोली सीधी थाली से जा टकराई जिससे पूरे हॉल में तेज़ आवाज़ हुई – ‘टन्न्न्नन्न…..’

गोली नकली थी इसलिए थाली सही-सलामत नीचे गिरी। निशानेबाज को हैरत में देख जोकर थाली उठाकर एक छोटा-ठहाका लगाते हुए बोला, “मेरा निशाना चूक नहीं सकता… क्योंकि ये खाली थाली मेरे बच्चों की है…”

हॉल में फिर तालियाँ बज उठीं, लेकिन बहुत सारे दर्शक चुप भी थे उनके कानों में “टन्न्न्नन्न” की आवाज़ अभी तक गूँज रही थी।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 8 ☆ लघुकथा – आईने में माँ ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण  लघुकथा “ आईने  में माँ ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 8 ☆

☆ लघुकथा – आईने में माँ  ☆ 

 

आईने के सामने खड़ी होती हूँ तो मुझे उसमें माँ का चेहरा नजर आता है, ये आँखें देखो…..माँ की ही तो हैं — वही ममतामयी पनीली आँखें, कुछ सूनापन लिए हुए। बार-बार पीछे पलटकर देखती हूँ – नहीं, कहीं नहीं है माँ आसपास, फिर ?

फिर देखा आईने की ओर, आँखें कुछ कह रही थीं मुझसे – रह गई न तुम भी अकेली अपने घर में ? बच्चे पढ़ लिखकर अपने काम में लग गए होंगे, किसी दूसरे शहर में या क्या पता विदेश में? आजकल तो एजूकेशन लोन लेकर बड़े गर्व से तुम लोग बच्चों को विदेश भेज देते हो। बच्चे विदेश पढने जाते हैं और वहीं बस जाते हैं फिर जिंदगी भर राह तकते बैठे रहो उनके आने की।

आँखें बिना रुके निरंतर बोल रही थीं मानों आज सब कुछ कहे बिना चुप ही न होंगी – जय तो शाम को ही आता होगा ? उसके आने के बाद तुम बहुत कुछ कहना चाहती होगी, दिन भर की बातें, जो तुमने मन ही मन बोली हैं अकेले में,  लेकिन वह सुनता है क्या ?

हमारे समय में तो मोबाईल भी नहीं था फिर भी तेरे  पिता के पास समय नहीं होता था मेरी बातें सुनने का। क्या पता इच्छा ही न होती हो मेरी बात सुनने की ? चाय-नाश्ता करके फिर निकल पड़ते थे अपने दोस्त यारों से गप्पे मारने। अरे हाँ ! अब तो व्हाट्सअप का समय है। खासतौर से पतियों को इसने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। अच्छा लगता है उन्हें अपनी दूर की भाभियों को मैसेज फारवर्ड करते रहना,  पत्नी की क्या सुने ? घर में ही तो है कहाँ जाने वाली है? फारवर्डेड मैसेज से दूसरों पर इम्प्रेशन डालना जरुरी है, भई।

बोलते-बोलते आँखें आँसुओं से लबालब हो रही थीं। शादी के बाद बच्चों और परिवार में औरतें अपने को भूल ही जाती हैं और जब उसका पूरा अस्तित्व  परिवार में समा जाता है तब उसे अकेला छोड़ दिया जाता है यह कहकर – बहुत शिकायत करती थीं ना ‘समय नहीं मिलता अपने लिए’ ? अब लो समय ही समय है ? करो, क्या करना चाहती थीं अपने लिए ?

औरत मूक भाव से देखती रह जाती है पति और बच्चों के चेहरों को किसी अबूझ पहेली की तरह। जब परिवार को जरूरत थी एक माँ की, पत्नी की, तब सब कुछ भूलकर जुट रही, जरूरत खत्म होने पर आदेश- अब जियो जैसे जीना चाहती हो। कैसे बताए कि जिम्मेदारियों की बेड़ियों ने खुलकर जीने की आदत ही नहीं रहने दी अब। ऐसे में घर के हर कमरे में बिखरा समय, सिर्फ सन्नाटा और सजा है एक औरत के लिए।

खाली घर में चादर की सलवटें ठीक करती, कपड़े सहेजती, डाइनिंग टेबिल साफ करती बंद होठों वाली औरत कभी बुदबुदाती है अपने आप से, कभी पाती है अपने सवालों के जवाब खुद से, कभी कमरों में बिखरी बच्चों की खट्टी मीठी यादों के साथ मुस्कुराती है तो कभी आँसुओं की झड़ी गालों को तर कर देती है – पर कोई नहीं है इसे देखने वाला, ना आँसू पोंछनेवाला, ना साथ बैठ यादों को ताजा कर मुस्कुराने वाला।

आईने में दिखती आँखें मानों गुस्से में बरस पड़ीं – ना – ना रोना मत, बतियाना मत अकेले में खुद से, बाहर निकल इस सन्नाटे से, अकेलेपन से  वरना तेरे अपने तुझे पागल करार देंगे।

बेसिन में पानी बह रहा था, हाथों में लेकर मुँह पर ठंडा पानी डाला,  छपाक  – आईने में मेरा चेहरा था, मेरी आँखें ?

कहाँ गई माँ ? उसकी पनीली आँखे ? मैंने फिर पलटकर देखा, वह कहीं नहीं थी।

मेरे चेहरे पर माँ की आँखें उग आई थीं ?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #25 ☆ गिरगिट ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक अतिसुन्दर लघुकथा  “गिरगिट ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #25 ☆

☆ गिरगिट ☆

 

“सरजी! एक समय वह था जब उस ने आप से आप का कार्यालय खाली करवा कर कब्जा जमा लिया था. आज वह समय है कि जब आप के अधीन उसे काम करना पड़ रहा है.” महेश ने प्रधानाध्याक को प्राचार्य का प्रभार मिलते ही कहा, “वह अध्यापक हो एक साल तक एक प्रशासकीय अधिकारी के ऊपर रौब झाड़ता रहा था. अब उसे मालुम होगा कि नौकरी करना क्या होता है?”

“यह तो प्रशासकीय प्रक्रिया है. ऐसा होता ही रहता है,” प्रभारी प्राचार्य ने कहा तो महेश बोला, “आप उसे सबक सीखा कर रहना. उस ने आप को बहुत जलील किया था.”

“उस वक्त आप भी तो उस के साथ थे.”

“अरे नहीं साहब! उस वक्त उस की चल रही थी. अधिकारियों से उस की बनती थी. वह दलाली कर रहा था. मजबूरी में उस का साथ देना पड़ा. आप जैसे इमानदार आदमी से दुनिया चलती है. आप उस की दलाली बंद करवा ​दीजिए साहब,” यह सुनते ही प्राचार्य ने महेश को घूरा, “और उस वक्त ! आप भी तो तमाशा देख रहे थे. जब उस ने दादागिरी से मेरा कार्यालय खाली करवाया था.”

“उस वक्त चुप रहना मेरी मजबूरी थी सर,” महेश ने कहा, “मगर, इस वक्त आप साहब है. आप का हम पूरा साथ देंगे.”

उस की बात सुन कर प्राचार्य हंसे, “वाकई सही कहते हो. जब समय किसी से डांस करवाता है तो गाने बजाने वाले अपने ही होते हैं.”

यह सुन कर महेश चौंका, “क्या कहा साहब जी!” यह बोल कर वह चुप हो गया. शायद इस का आशय उस के दिमाग ने पकड़ लिया था.

इधर प्रधानाध्यापक उस की चेहरे का रंग बदलते देख उस में कुछ ढूंढने का प्रयास कर रहे थे.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – ☆ ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 1 ☆लघुकथा ☆ सामाजिकता ☆ – श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

( श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है इस  कड़ी में आपकी एक लघुकथा “सामाजिकता ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 1 ☆

☆ लघुकथा – सामाजिकता ☆ 

“माँ… मा्ँ ….सुनो ना तुम मुझसे इतना नाराज मत हो। उस आदमी ने मेरे साथ गलत काम किया।  मै क्या करुँ? माँ बताओ न.” माँ…..दुखी.

माँ अपने सिर पर बार हाथ मारकर रो रही थी उसके आँखो में आँसुओं की झड़ी सी लगी थी। बेबस लाचार गरीबी से त्रस्त अपने और बेटी के भाग्य को कोस रही थी।

एक संभ़ात सी महिला उस छोटे से गांव, जो शहर का मिल जुला रुप था, वहां आकर बेटियों को उनके रहन सहन और नयी-नयी जानकारी देती थी। वह बेटियों को उन बातों की जानकारी भी देती थी जो माँ भी नहीं बता पाती।

“माँ….मीरा अंटी आई हैं चलो ना वे बुला रही हैं वे बहुत अच्छी हैं।” बेटी माँ को समझाने लगी। माँ ने बात छुपाने के लिए बेटी को समझाया – “उनसे कुछ भी मत कहना वरना हमारी बहुत बदनामी होगी।“

बेटी ने चुप रहने के संकेत में सिर हिला दिया। वहां की सभी माँ और बेटियाँ एकत्रित हुई सभी को समझाइस देकर सेविका जाने लगी तभी उसने इन दोनो माँ बेटी को उदास और हताश देख समाज सेविका मीरा जी  ने समझने मै देर न की और एकांत में उन्हें ले जा कर पूछ ही लिया।

सच्चाई जानकर उन्हें एक मंत्र दे गई। वह माँ से बोली …”देखो किसी ने अपनी भूख मिटाई और उसमें बच्ची का क्या दोष। वह तो दरिंदा था पर बेटी तो यह नहीं जानती थी न कि उसके साथ यह किया जा रहा है। वह सहज सरल थी, ठीक उस पूजा की थाल में रखे फूल की तरह जो भगवान के चरणो में अर्पित किया जाना था और कोइ बीच में ही उठाकर पैरों तले कुचल गया तो इसमें फूल का क्या कसूर वह तो पवित्र ही हुआ न?”

माँ की समझ में उनकी बातें आ गई और उसने अपने सीने से बेटी को लगा कर कहा “…तेरा कोई कसूर नहीं बेटी, मै तुझे क्यों गलत कहुँ। गलत तो वह है जिसने यह किया उसे  ईश्वर से सजा अवश्य मिलेगी।”  और पुरानी दकियनूसी बातें और समाज के डर को दिमाग से झटक कर घर की ओर चल दी..

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – हर समय ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  हर समय

समय सबसे धनवान है, समय बड़ा बलवान है। समय से दिन है, समय से रात है। जीवन समय-समय की बात है।

समय दौड़ता है। बच्चा प्राय: समय के आगे-आगे दौड़ता है। बच्चे की खिलखिलाहट से आनंद झरता है। युवा, समय के साथ चलता है। वह वर्तमान से जुड़ता है, सुख भोगता है। सुखभोगी मनुष्य धीरे धीरे तन और मन दोनों से धीमा और ढीला होने लगता है। यथावत दौड़ता रहता है समय पर  राग, अनुराग,भोग, उपभोग से बंधता जाता है मनुष्य। समय के साथ नहीं चल पाता मनुष्य। साथ न चलने का मतलब है कि पीछे छूटता जाता है मनुष्य।

मनुष्य बीते समय को याद करता है। मनुष्य जीते समय को कोसता है। ऊहापोह में जीवन बीत जाता है, जगत के मोह में श्वास रीत जाता है। आनंद और सुख के सामने अपने अतीत को सुनाता है मनुष्य, अपने समय को मानो बुलाता है मनुष्य। फिर मनुष्य का समय आ जाता है। समय आने के बाद क्षण के करोड़वें हिस्से जितना भी अतिरिक्त समय नहीं मिलता। मनुष्य की जर्जर काया  द्रुतगामी समय का वेग झेल नहीं पाती। काया को यहीं पटककर मनुष्य को लेकर निकल जाता है समय।

समय आगत है, समय विगत है। समय नहीं सुनता समय की टेर है। जीवन समय-समय का फेर है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

: 5.04 बजे, 23.11.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 25 – वेदना ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक  शिक्षाप्रद एवं भावनात्मक लघुकथा    “वेदना ”। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 25 ☆

☆ लघुकथा –  वेदना ☆

 

शहर से थोड़ी दूर अपार्टमेंट बनना शुरू हुआ। वहां पर पहले से थोड़ी दूर पर एक गरीब परिवार “सोनवा” रहता था। ठेकेदार ने उसके बारे में पता लगा वहां की देखरेख के लिए रख लिया और बदले में उसे थोड़ा बहुत काम करने को कहता। ठेकेदार अच्छी सोच वाला था। उसके लिए एक हाथ ठेला देकर बोला यहीं पर सब्जी भाजी बेचना शुरू करो। धीरे-धीरे तुम्हारी रोजी रोटी चलने लगेगी।

देखते-देखते कुछ सालों में अपार्टमेंट बनकर तैयार हो गया। सभी रहवासी उसमें आकर शिफ्ट हो गए। सोनवा को एक बेटा था। क्योंकि वही दिन भर खेलता और सभी को पहचानने लगा था इसलिए सभी ने प्यार से उसका नाम प्रीतम रख दिया।

प्रीतम धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। पढ़ने में होशियार था। इसी बीच ठेकेदार वहां से चला गया और सभी अपार्टमेंट वाले रहने लगे। सोनवा वहीं सब्जी का ठेला लगाता रहा। प्रीतम की पढ़ाई की फीस के लिए एक बार थोड़े बहुत पैसों की जरूरत थी। जो सोनवा के लिए इकट्ठे कर पाना मुश्किल हो रहा था। उसने सोचा कि मैंने यहां रहते रहते उम्र का पड़ाव तय कर लिया। सभी जानते पहचानते हैं। उनसे जाकर मांग लेता हूं। 25 फ्लैट वाले अपार्टमेंट में किसी ने दिया किसी ने कोई सहायता नहीं की। इसका सोनवा को कोई अफसोस नहीं था परंतु एक घर जिसको वो हमेशा अपना समझता था। उनका काम कर देता था वहां पर जाने पर मकान मालिक ने अपनी पत्नी के साथ कह दिया कि हम तुम पर विश्वास नहीं कर सकते। तुम हमारा पैसा कभी नहीं लौटा पाओगे। नौकर का बेटा नौकर ही रहेगा। यह बात सोनवा की वेदना बन गई और हार्टअटैक से उसका देहांत हो गया। मरने से पहले इस परिवार के बारे में अपने प्रीतम को बताया था।

प्रीतम अपनी मां को लेकर शहर चला गया। पढ़ाई खत्म होने पर अच्छे व्यक्तित्व के कारण और उसकी योग्यता को देखते हुए अच्छी कंपनी में उसे नौकरी मिल गई। उन दिन जिस कंपनी में काम कर रहा था वहां पर भर्ती के लिए आवेदन पत्र जमा हो रहे  थे। और लाइन में सभी प्रतिभागी खड़े थे। नियुक्ति करने वाला और कोई नहीं प्रीतम ही था। अपार्टमेंट से वही सज्जन जो कभी नौकर का बेटा कहकर प्रीतम को अपमान किया था वह भी अपने बेटे को लेकर पेड़ के नीचे खड़े थे। बड़े होने और ऊंची पदवी के कारण वह प्रीतम को नहीं पहचान सके। प्रीतम ऑफिस में जा रहा था उसी समय वह महिला पुरुष दिखाई दिए। प्रीतम तो पहचान गया परंतु वे लोग नहीं पहचान सके। चलते चलते दोनों प्रीतम को हाथ जोड़कर खड़े हो गए और पैरों पर झुक कर बोले सर हमारे लिए जीना मुश्किल हो रहा है। कहीं से कोई आसरा नहीं है। बेटे को नौकरी पर रख लीजिए। अनसुना कर प्रीतम ऑफिस चेंबर में जाकर बैठ गए। जब लड़के का नंबर आया तो उनको बुलाया गया। तीनों को सामने खड़े देख वह अपने पिताजी की वेदना को याद कर थोड़ा परेशान और दुखी हुआ परंतु अपने ओहदे को ध्यान में रखते हुए प्रीतम ने कहा -“आंटी में वही नौकर का बेटा हूं जिसको आपने थोड़े से रुपए के लिए घर से भगा दिया था। मेरे पिताजी तो इस वेदना को सह ना सके और खत्म हो गए परंतु पिताजी का साया उठने के बाद क्या होता है यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मैं आप दोनों को इस वेदना से मरने नहीं दूंगा। कह कर प्रीतम चेंबर से वापस निकल गए। प्रीतम को पहचान दोनों दंपत्ति शर्म और पश्चाताप से हाथ जोड़े खड़े उसको जाते देखते रहे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – डर के आगे जीत है ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  डर के आगे जीत है

गिरकर निडरता से उठ खड़े होने के मेरे अखंड व्रत से बहुरूपिया संकट हताश हो चला था। क्रोध से आग-बबूला होकर उसने मेरे लिए मृत्यु का आह्वान किया। विकराल रूप लिए साक्षात मृत्यु सामने खड़ी थी।

संकट ने चिल्लाकर कहा, ‘ अरे मूर्ख! ले मृत्यु आ गई। कुछ क्षण में तेरा किस्सा खत्म! अब तो डर।’ इस बार मैं हँसते-हँसते लोट गया। उठकर कहा, ‘अरे वज्रमूर्ख! मृत्यु क्या कर लेगी? बस देह ले जाएगी न..! दूसरी देह धारण कर मैं फिर लौटूँगा।’

मृत्यु से न डरने का अदम्य मंत्र काम कर गया। मृत्यु को अपनी सीमाओं का भान हुआ। आहूत थी, सो भक्ष्य के बिना  लौट नहीं सकती थी। अजेय से लड़ने के बजाय वह संकट की ओर मुड़ी। थर-थर काँपता संकट भय से पीला पड़ चुका था।

भयभीत विलुप्त हुआ। उसकी राख से मैंने धरती की देह पर लिखा,‘ डर के आगे जीत है।’

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(रविवार 5.11.17, रात्रि 2.10 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 22 – खिचड़ी और खुचड़ ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक लघुकथा  “खिचड़ी और खुचड़। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 22☆

 

☆ लघुकथा – खिचड़ी और खुचड़  

 

जब उनकी राजनीतिक खिचड़ी पक रही थी तो वे दर्द से कराह उठे, बड़े नेता थे तो लोग दौड़े और उनको अस्पताल में भर्ती कर दिया। डाक्टर ने जैसई देखा कि ये तो पैसे कमाने वाले भूतपूर्व मंत्री भी रहे हैं तो डॉक्टर की नियत खराब हो गई, झट से कह दिया गंभीर हार्ट अटैक।

नेता जी का खाना पीना बंद  खिचड़ी चालू……. चटोरी जीभ में गरीब खिचड़ी रास नहीं आई तो रात को चुपके से उनके भक्त ने गर्मागर्म बटर मसाला वाला मुर्गा सुंघा दिया, छुपके पेट भर खा गए और सो गए फिर सबेरे सबेरे खुदा को प्यारे हो गए। दूसरे दिन भीड़ उबरी। दाह संस्कार हुआ फिर पूरे खानदान और भक्तों ने बिना नमक की खिचड़ी बेमन से खायी। खानदान के जो लोग उस रात बिना नमक की खिचड़ी खाने नहीं आए उनको जाति से निकाल दिया गया।

कई भक्तों ने इच्छा जतायी थी कि जब भविष्य में खिचड़ी को राष्ट्रीय व्यंजन का दर्जा मिलेगा तो योजना उनके नाम पर चलायी जावे।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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