हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 20 – अधूरा ख्वाब ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “अधूरा ख्वाब”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  एक सन्देश दिया है कि – ख्वाब देखना चाहिए। यह आवश्यक नहीं की सभी ख्वाब अधूरे ही होते हों । कभी कभी अधूरे ख्वाब भी  पूरे हो जाते हैं। ईमानदारी से प्रयास का भी अपना महत्व है।) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 20 ☆

 

☆ अधूरा ख्वाब ☆

 

जीवन लाल और धनिया दोनों मजदूरी करते थे। दिन भर काम करने के बाद जो मिल जाता उसे बड़े प्रेम से ग्रहण कर भगवान को धन्यवाद करते थे। उनकी एक छोटी सी बिटिया थी। वह भी बहुत धीरज वाली थी। कभी किसी चीज के लिए परेशान नहीं करती थी। बहुत कम उम्र में ही उसने अपने आप को संभाल लिया और सहनशक्ति, संतोष की धनी बन गई। उसके दिन भर इधर-उधर चहकने और खेलने कूदने के कारण जीवन लाल और धनिया अपनी बेटी को ‘चिरैया’ कहते थे।

चिरैया धीरे-धीरे बड़ी होने लगी आसपास के घरों में मां के साथ जाती। बड़े बड़े झूले लगे देख उसके बाल मन में बहुत खुशी होती कि, उसका अपना भी कोई बड़ा सा झूला हो, जिसमें बैठकर वह पढ़ाई करती, गाना गाती और माँ-बापू को भी झूला झूलाती। पर किसी के घर उसको झूले में बैठने की अनुमति नहीं मिलती थी।

गार्डन में लगा झूला देख मन  ही मन प्रसन्न हो जाती थी। कभी-कभी बापू के साथ झूल आया करती थी। पर उसका ख्वाब उसके मन में घर बना चुका था।

चिरैया बड़ी हो गई पास में ही एक अच्छे परिवार के लोग किराए से रहने आए। उनका सरकारी स्थानांतरण हुआ था। चिरैया की माँ उनके घर काम पर जाती थी। पर अब चिरैया बड़ी हो गई थी। उसे किसी के यहाँ जाना अच्छा नहीं लगता था।

एक बार बाहर से उनका पुत्र आया, रास्ते में जाते हुए चिरैया को देख उसे पसंद कर अपने मम्मी पापा से शादी की इच्छा बताई। पूछने पर पता चला वह तो अपनी धनिया की बिटिया है। मम्मी पापा अपने इकलौते बेटे की खुशी को तोड़ना नहीं चाह रहे थे। उन्होंने धनिया से उसकी लड़की का पसंद जानना चाहा। परन्तु, गरीब की क्या पसंद और क्या नापसंद।

चिरैया तैयार हो गई। घर में ही सगाई हो गई, और जीवनलाल ने हाथ जोड़कर समधी जी से कहा “मेरी बिटिया को बड़े झूले में बैठने का बहुत शौक है। अब आपके घर पूरा होगा। मैं आपको कुछ भी नहीं दे सकता। अब बिटिया आपकी बहू हो गई।” शहर में शादी होनी थी। जीवनलाल धनिया और चिरैया सभी को लेकर शहर आ गए।

उनका आलीशान बंगला देख कर इन लोगों का मन भर आया। सभी आसपास पूछने लगे कि लड़की के घर से क्या आया है। सज्जन व्यक्ति ने सभी से कहा “शाम को आइए घर  पर सब दिख जाएगा।”  माँ बापू दोनों एक कमरे में बैठे थे बंगला चारों तरफ से सजा हुआ था। शाम को बड़े से गार्डन के बीच बहुत बड़ा झूला लगा था। बहुत कीमती उस पर सोने चांदी, हीरो की हार पहने चिरैया बैठी थी। किसी राजकुमारी की तरह कीमती पोशाक पहन। दुल्हन को कीमती झूले पर बैठे देख सबकी आंखें देखती रह गई।

चिरैया तो बस अपनी सुंदरता लिए बड़ी- बड़ी आंखों से सब देख रही थी। बेटे के पिताजी ने सबका ध्यान आकर्षित कर कहा “यह खूबसूरत सी बिटिया और यह कीमती झूला हमारे समधी साहब के यहाँ से आया है।” पास खड़े जीवनलाल और धनिया बस अपनी बिटिया को झूले पर सोलह सिंगार किए बैठे अपलक देख रहे थे।

बरसों का अधूरा ख्वाब आज पूरा हुआ दोनों की आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – आग ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – आग

 

दोनों कबीले के लोगों ने शिकार पर अधिकार को लेकर एक-दूसरे पर धुआँधार पत्थर बरसाए। बरसते पत्थरों में कुछ आपस में टकराए। चिंगारी चमकी। सारे लोग डरकर भागे।

बस एक आदमी खड़ा रहा। हिम्मत करके उसने फिर एक पत्थर, दूसरे पर दे मारा। फिर चिंगारी चमकी। अब तो जुनून सवार हो गया उस पर। वह अलग-अलग पत्थरों से खेलने लगा।

वह पहला आदमी था जिसने आग बोई, आग की खेती की। आग को जलाया, आग पर पकाया। एक रोज आग में ही जल मरा।

लेकिन वही पहला आदमी था जिसने दुनिया को आग से मिलाया, आँच और आग का अंतर समझाया। आग पर और आग में सेंकने की संभावनाएँ दर्शाईं। उसने अपनी ज़िंदगी आग के हवाले कर दी ताकि आदमी जान सके कि लाशें फूँकी भी जा सकती हैं।

वह पहला आदमी था जिसने साबित किया कि भीतर आग हो तो बाहर रोशन किया जा सकता है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – घटना नयी : कहानी वही ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – घटना नयी : कहानी वही

 

मित्रता का मुखौटा लगाकर शत्रु, लेखक से मिलने आया। दोनों खूब घुले-मिले, चर्चाएँ हुईं। ईमानदारी से जीवन जीने के सूत्र कहे-सुने, हँसी-मज़ाक चला। लेखक ने उन सारे आयामों का मान रखा जो मित्रता की परिधि में आते हैं।

एक बार शत्रु रंगे हाथ पकड़ा गया। उसने दर्पोक्ति की कि मित्र के वेष में भी वही आया था। लेखक ने सहजता से कहा, ‘मैं जानता हूँ।’

चौंकने की बारी शत्रु की थी। ‘शब्दों को जीने का ढोंग करते हो। पता था तो जानबूझकर मेरे सच के प्रति अनजान क्यों रहे?’

‘सच्चा लेखक शब्द और उसके अर्थ को जीता है। तुम मित्रता के वेश  में थे। मुझे वेश और मित्रता दोनों शब्दों के अर्थ की रक्षा करनी थी’, लेखक ने उत्तर दिया।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रात: 4:57 बजे, 16.10.2019)

( एक पौराणिक कथासूत्र पर आधारित। अज्ञात लेखक के प्रति नमन के साथ।)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 2 ☆ खरा सौदा ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(हम  डॉ. ऋचा शर्मा जी  के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे  सम्माननीय पाठकों  के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक अनुकरणीय लघुकथा “खरा सौदा ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 2 ☆

 

☆ लघुकथा – खरा सौदा  ☆ 

 

गरीब किसानों की आत्महत्या की खबर उसे द्रवित कर देती थी।  कोई दिन ऐसा नहीं होता कि समाचार-पत्र में किसानों की आत्महत्या की खबर न हो।  अपनी माँगों के लिए किसानों ने देशव्यापी आंदोलन किया तो उसमें भी मंदसौर में कई किसान मारे गए। राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने आश्वासन दिए लेकिन उनके कोरे वादे किसानों को आश्वस्त नहीं कर पाए और आत्महत्या का सिलसिला जारी रहा।

कई बार वह सोचता कि क्या कर सकता हूँ इनके लिए ? इतना धनवान तो नहीं हूँ कि किसी एक किसान का कर्ज भी चुका सकूँ ।  बस किसी तरह दाल – रोटी चल रही है परिवार की।  क्या करूं कि किसी किसान परिवार की कुछ तो मदद कर सकूं।  यही सोच विचार करता हुआ वह घर से सब्जी लेने के लिए निकल पड़ा।

सब्जी मंडी बड़े किसानों और व्यापारियों से भरी पड़ी  थी।  उसे भीड़ में एक किनारे बैठी हुई बुढ़िया दिखाई दी जो दो – चार सब्जियों के छोटे – छोटे ढेर लगा कर बैठी थी।  इस भीड़- भाड़ में उसकी ओर कोई देख भी नहीं रहा था।  वह उसी की तरफ बढ़ गया।  पास जाकर बोला सब्जी ताजी है ना माई ?

बुढ़िया ने बड़ी आशा से पूछा-  का चाही बेटवा ?  जमीन पर बिछाए बोरे पर रखे टमाटर के ढेर पर नजर डालकर वह बोला –  ऐसा करो ये सारे टमाटर दे दो, कितने हैं ये ? बुढ़िया ने तराजू के एक पलड़े पर बटखरा रखा और दूसरे पलडे पर बोरे पर रखे हुए टमाटर उलट दिए, बोली – अभी तौल देते हैं भैया।  तराजू के काँटे को देखती हुई   बोली –  2 किलो हैं।

किलो क्या भाव लगाया माई ?

तीस रुपया ?

तीस रुपया किलो ? एकबारगी वह चौंक गया।  बाजार भाव से कीमत तो ज्यादा थी ही टमाटर भी ताजे नहीं थे।  वह मोल भाव करके सामान खरीदता था।  ये तो घाटे का सौदा है ? पता नहीं कितने टमाटर ठीक निकलेंगे इसमें, वह सोच ही रहा था कि उसकी नजर बुढ़िया के चेहरे पर पड़ी जो कुछ अधिक कमाई हो जाने की कल्पना से खुश नजर आ  रही थी।  ऐसा लगा कि वह मन ही मन कुछ हिसाब लगा रही है।  शायद उसके परिवार के लिए शाम के खाने का इंतजाम हो गया था।  उसने कुछ और सोचे बिना जल्दी से टमाटर थैले में डलवा लिए।

वह मन ही मन मुस्कुराने लगा, आज उसे अपने को ठगवाने में आनंद आ रहा था।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ मानव-मूल्य ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. आप लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा  “मानव-मूल्य”.)

संक्षिप्त  परिचय 

शिक्षा: पीएच.डी. (कंप्यूटर विज्ञान)

सम्प्रति: सहायक आचार्य (कंप्यूटर विज्ञान)

सम्मान :

  • प्रतिलिपि लघुकथा सम्मान 2018,
  • ब्लॉगर ऑफ़ द ईयर 2019 सहित कई अन्य पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत

 

 ☆  मानव-मूल्य ☆ 

वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।

उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, “यह क्या बनाया है?”

चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, “इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख – पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?”

आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।

“ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?” मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।

चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, “क्यों…? जेब किसलिए?”

मित्र ने उत्तर दिया, “ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं…”

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #19 ☆ नाम ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “नाम”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #19 ☆

 

☆ नाम ☆

 

पति को रचना पर पुरस्कार प्राप्त होने की खबर पर पत्नी ने कहा,  “अपना ही नाम किया करों. दूसरों की परवाह नहीं है.”

“ऐसा क्या किया है मैंने?” पति अति उत्साहित होते हुए बोला, “तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि तुम्हारे पति को पुरस्कार के लिए चुना गया है.”

“हूँ”, उस ने गहरी सांस लेकर कहा,  “यह तो मैं ही जानती हूँ. दिनरात मोबाइल और कंप्युटर में लगे रहते हो. मेरे लिए तो वक्त ही नहीं है आप के पास. क्या सभी साहित्यकार ऐसो ही होते हैं. उन की पत्नियां भी इसी तरह दुखी होती है.”’ पत्नी ने पति के उत्साह भाप पर गुस्से का ठंडा पानी डालने की कोशिश की.

“मगर, जब हम लोग साहित्यिक कार्यक्रम में शिलांग घुमने गए थे, तब तुम कह रही थी कि मुझे इन जैसा पति हर जन्म में मिलें.”

“ओह ! वो बात !” पत्नी ने मुँह मरोड़ कर कहा,  “कभी-कभी आप को खुश करने के लिए कह देती हूं. ताकि…”

“ताकि मतलब…”

“कभी भगवान आप को अक्ल दे दें और मेरे नाम से भी कोई रचना या पुरस्कार मिल जाए. ” पत्नी ने अपने मनोभाव व्यक्त कर दिए.

यह सुनते ही पति को पत्नी के पेटदर्द की असली वजह मालुम हो गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 19 – निपूती (निःसंतान ) ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक अतिसुन्दर लघुकथा “निपूती (निःसंतान )”।  श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी  ने  इस लघुकथा के माध्यम से  एक सन्देश दिया है कि – निःसंतान स्त्री का भी ह्रदय होता है और उसमें भी बच्चों के प्रति अथाह स्नेह होता है।   क्षण भर को सब कुछ असहज लगता है किन्तु दुनिया में ऐसा भी होता है।  ) 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 19 ☆

 

☆  निपूती (निःसंतान) ☆

 

निर्मला अपने ससुराल आई। पति बहुत ही गुणवान और समझदार, दोनों की जोड़ी को सभी बहुत ही सुंदर मानते थे। घर परिवार भी खुश था। धीरे-धीरे साल बीता। घर में अब सास-ससुर बच्चे को लेकर चिंता करने लगे क्योंकि निर्मला का पति स्वरूप चंद्र घर में इकलौता था। परंतु विधान देखिए पता नहीं सब कुछ सही होने पर भी निर्मला को संतान सुख नहीं मिल पा रहा था। बहुत डॉक्टरी इलाज के बाद निर्मला अब थक चुकी थी। और सास-ससुर भी समय से पहले स्वर्ग सिधार गये। दोनों का जीवन अकेलेपन का कारण बनने लगा। अब निर्मला का पति घर से बाहर ज्यादा समय बिताने लगा।

निर्मला बहुत ही भरे पूरे परिवार से थी। घर में भाई भतीजे का, घर में सभी के बच्चों की देखभाल करती। मायके में उसे सब बहुत मानते थे। कोई कुछ नहीं कहता। परंतु निर्मला मन ही मन बहुत दुखी रहती थी। भाई की बिटिया उमा की शादी हुई घर में सभी प्रसन्नता पूर्वक कार्यक्रम होने लगा। अपनी बुआ के पास बैठी भतीजी बुआ का दर्द समझ रही थी। क्योंकि बचपन से बुआ जी से उसका ज्यादा लगाव था। विदाई हुई और ससुराल चली गई। बुआ निर्मला भी अपने घर आ गई। फिर से गुमसुम सी रहने लगी। मुहल्ले में उसने आना जाना बंद कर दिया।

धीरे-धीरे समय सरकता चला गया। निर्मला की भतीजी उमा  ने दो साल बाद सुंदर स्वस्थ बच्चे को जन्म दिया। सभी आए, परंतु उसके ससुराल वालों के कारण निर्मला बुआ और फूफा जी को नहीं बुलाया गया। कहने लगे निपूती का इस अच्छे शुभ काम में क्या काम? यह बात भतीजी उमा को अच्छी नहीं लगी। परंतु कुछ कर ना सकी।

अचानक कुछ दिनों बाद बच्चे की तबीयत बहुत खराब हो गई। खून की आवश्यकता पड़ रही थी। रिश्तेदार दूर-दूर तक नहीं दिखाई दिए। निर्मला बुआ फूफा जी को जैसे ही खबर मिली वे  आ गए। उन्होंने चुपके से जाकर खून का सैंपल मिलवाया। बच्चे के खून से निर्मला का खून मैच कर गया। डॉक्टर ने तुरंत खून का इंतजाम कर लिया। बच्चा खतरे से बाहर हो गया। डॉक्टर ने कहा बच्चे की मां को कुछ समझाना है। अंदर आइए कौन है? उमा ने बिना कुछ सोचे समझे तुरंत कहा निर्मला है बच्चे की मां। डॉक्टर ने समझाकर केबिन से बाहर किया। निर्मला की आंखों में सारे जहां की खुशी और आंसू थे। उसकी गोद पर सुंदर बच्चा था और उमा कह रही थी “बच्चे का ध्यान रखिएगा, आप बहुत अच्छी मां है। हम सबको पता है इसका भी विशेष ध्यान रख सकती हैं।” कहकर उमा अस्पताल से बाहर चली गई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – क्रोध – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – क्रोध

 

दोनों में बहस होने लगी थी। विवाद की तीक्ष्णता बढ़ती गई। आक्रोश में दोनों थे पर पहला मनुष्य था, दूसरा क्रोधी था। क्रोध, तर्क का पथ तज देता है, मर्म को चोट पहुँचाने की राह चलता है। इस राह के विनाशकारी मोड़ पर तिलमिलाहट टकराती है।

तिलमिलाहट में क्रोधी ने एक बड़ा पत्थर मनुष्य के सिर पर दे मारा। मनुष्य की मौत हो गई। क्रोधी को फाँसी चढ़ना पड़ा।

यश, संपदा, नेह, सम्बंध, अंतत: समूचे अस्तित्व की बलि ले लेता है क्रोध।

 

मनुष्यता बनी रहे।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अक्षय – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

We present an English Version of this poem with the title  ☆ Inexhaustiblepublished today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

 

☆ संजय दृष्टि  – अक्षय ☆

बचपन में उसने तीन ‘द’ की कहानी पढ़ी थी।  दानवों से दया, देवताओं से इंद्रिय दमन और मनुष्यों से दान अपेक्षित है।वह अकिंचन था। देने के लिए कुछ नहीं था उसके पास। फिर वह अपनी रोटी में से एक हिस्सा दूसरों को देने लगा। प्यासों में बाँटकर पानी पीने लगा। छोटों को हाथ और बड़ों को साथ देने लगा।

सुनते हैं, अकिंचन का संचय सदा अक्षय रहा।

जीवन ऊर्जा अक्षय रहे।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 1 ☆ अम्माँ को पागल बनाया किसने? ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(हम  डॉ. ऋचा शर्मा जी  के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे  सम्माननीय पाठकों  के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक लघुकथा “अम्माँ को पागल बनाया किसने?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 1 ☆

 

☆ लघुकथा – अम्माँ को पागल बनाया किसने ?  ☆ 

 

“भाई! आज बहुत दिन बाद फोन पर बात कर रही हूँ तुमसे। क्या करती बात करके? तुम्हारे पास बातचीत का सिर्फ एक ही विषय है कि ‘अम्माँ पागल हो गई हैं’। उस दिन तो मैं दंग रह गई जब तुमने कहा – अम्माँ बनी-बनाई पागल हैं। भूलने की कोई बीमारी नहीं है उन्हें।”

“मतलब” – मैंने पूछा

“जब चाहती हैं सब भूल जाती हैं, वैसे फ्रिज की चाभी ढूँढकर सारी मिठाई खा जाती हैं। तब पागलपन नहीं दिखाई देता? अरे! वो बुढ़ापे में नहीं पगलाई, पहले से ही पागल हैं।”

“भाई! तुम सही कह रहे हो – वह पागल थी, पागल हैं और जब तक जिंदा रहेगीं पागल ही रहेंगी।अरे! आँखें फाड़े मेरा चेहरा क्या देख रहे हो? तुम्हारी बात का ही समर्थन कर रही हूँ।” ये कहते हुए अम्माँ के पागलपन के अनेक पन्ने मेरी खुली आँखों के सामने फड़फड़ाने लगे।

“भाई! अम्माँ का पागलपन तुम्हें तब समझ में आया जब वह तुम्हारे किसी काम की नहीं रह गई, बोझ बन गई तुम पर | पागल ना होती तो मोह के बंधन काटकर तुम पति-पत्नी को घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया होता। तुम्हारी मुफ्त की नौकर बनकर ना रहतीं अपने ही घर में। सबके समझाने पर भी अम्माँ ने बड़ी मेहनत से बनाया घर तुम्हारे नाम कर दिया। कुछ ही समय में उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया था।  इसके बाद भी ‘मेरा राजा बेटा’ कहते उनकी जबान नहीं थकती, पागल ही थीं ना बेटे-बहू के मोह में? जब जीना दूभर हो गया तुम्हारे घर में तब मुझसे एक दिन बोली – ‘बेटी! बच्चों के मोह में कभी अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी ना मार बैठना, मेरी तरह। मैं तो गल्ती कर बैठी, तुम ध्यान रखना।”

“भाई! फोन रखती हूँ। कभी समय मिले तो सोच लेना अम्माँ को पागल बनाया किसने??”

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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