हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 9 ☆ उलझन ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक  सार्थक लघुकथा  “उलझन”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 9 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ उलझन 

 

“मैं कई दिनों से बड़ी उलझन में हूँ।  सोच रहा हूँ क्या करूँ  क्या न हूँ। आज न चाहते हुए भी आपसे कहने का साहस कर रहा हूँ क्योंकि आप माँ जैसी है आप समझोगी और रास्ता भी बताओगी।”

“क्या हुआ है तुझे, निःसंकोच बता, मैं हूँ तेरे साथ!”

“आप तो जानती हैं कि हमारी शादी को 15 वर्ष हो चुके है हमें संतान नहीं है और हमारी बीबी को कोई गंभीर बीमारी है सन्डे के दिन ये सास बहू की जाने क्या खिचड़ी पकती है और मेरा घर में रहना दूभर हो जाता है।”

“क्या करती हैं वे?”

“क्या करूं, बीबी कहती है तुम्हारी प्रोफाइल शादी डॉट कॉम में डाल दी है मैं चाहती हूँ फोन आयेंगे तो तुम लड़की सिलेक्ट कर लो और हमारे रहते शादी कर लो और माँ  का भी यही कहना है।”

“तो, तुमने क्या कहा?”

“हमने कहा यह नहीं हो सकता।  भला तुम्हारे रहते ऐसा कैसे कर सकते हैं,  तुम पागल तो नहीं हो गई हो?”

“फिर?”

“फिर क्या, वह कहती है, नहीं, मैं कुछ नहीं जानती मैं तलाक दे दूंगी सामने वाले अपने दूसरे घर में रह जाऊँगी पर मैं तुम्हें खुश देखना चाहती हूँ तुम्हारे बच्चे को खिलाना चाहती हूं।”

 

“उसका कहना भी सही है।”

“पर मासी, यह समझ नहीं रही मेरे मन की हालत, इसके रहते मैं कैसे यह कदम उठा सकता हूं।”

“मेरी मानो तो एक ही सामाधान है इसका!”

“क्या?”

“मातृछाया से एक नवजात शिशु गोद ले लो!”

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #11 ☆ न्याय ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “न्याय ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #11☆

 

☆ न्याय ☆

 

“तेरे पिता ने कहा था कि मेरे जीते जी बराबर बंटवारा कर ले तब तू ने कहा था ,’ नहीं बाबूजी ! अभी काहे की जल्दी है ?’ अब उन के मरते ही तू चाहता है की बंटवारा हो जाए ?” माँ ने पूछा तो रवि ने जवाब दिया ,” माँ ! उस समय मोहन खेत पर काम करता था.”

“और अब ?”

“उसे पिताजी की जगह नौकरी मिल गई . इसलिए बंटवारा होना ज्यादा जरुरी है ?”

“ठीक है ,” कहते हुए माँ ने मोहन को बुला लिया ,” आज बंटवारा कर लेते है.”

“जैसी आप की मर्जी माँ ?” मोहन ने कहा और वही बैठ गया .

“इस मकान के दो कमरे तेरे और दो कमरे इसके. ठीक है ?”

दोनों ने गर्दन हिला दी.

“अब  खेत का बंटवारा कर देती हूँ,” माँ ने कहा,” चूँकि मोहन को पिता की जगह  नौकरी मिली है, इसलिए पूरा पांच बीघा खेत रवि को देती हूँ.”

“यह तो अन्याय है मांजी ,” अचानक मोहन की पत्नि के मुंह से निकल, ” इन्हों ने मेहनत कर के पढाई की और इस लायक बने की नौकरी पा सके. इस की तुलना खेत से नहीं हो सकती है. यदि रवि जी पढ़ते तो ये नौकरी इन को मिलती.”

“मगर बहु ,यह तो एक माँ का न्याय है जो तुझे भी मानना पड़ेगा”, सास ने कहा .

इधर मोहन कभी माँ को, कभी रवि को और कभी अपनी पत्नी को निहार रहा था .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – ☆ दृष्टिकोण ☆ – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

 

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं। आज प्रस्तुत है  बेटे और बेटी में अंतर जैसी एक सामाजिक विचारधारा पर आधारित कहानी बेटियाँ ।)

☆ बेटियाँ ☆

 

अर्पणा दूसरी बार माँ बनने वाली थी। उसकी सासू माँ, “स्नेहा” पिछले नौ माह से एक ही रट लगाए हुए थी, “बहू, इस बार पोती नहीं,मुझे पोता चाहिये, मैंने तुझसे पहले ही कह दिया है!”

“माँ जी, यह तो ऊपर वाला ही जानें कि आपको पोता मिलेगा या पोती, इस पर मेरा क्या वश है।” अर्पणा का उत्तर होता।

आखिर वह घड़ी भी आ गयी, जब अर्पणा को प्रसव पीड़ा प्रारम्भ हो गयी और उसे अस्पताल ले जाया गया। साथ में उसका पति ‘माधव’ और स्नेहा भी थी। वह पीड़ा से दोहरी हुई जा रही थी, अतः नर्स ने उसे तुरंत वील-चेयर पर बिठाया और सीधे लेबर-रूम की ओर तेज़ी से ले जाने लगी। पीछे-पीछे स्नेहा भी चली जा रही थी। उसने लेबर-रूम के दरवाज़े के बाहर ही रुककर एक बार पुनः अर्पणा को स्मरण कराया कि उसे इस बार पोता ही चाहिये। परन्तु अर्पणा को इतनी सुध कहाँ थी कि वह स्नेहा की बात का उत्तर देती, अतः वह चुप रही।

स्नेहा और उसका पुत्र माधव बड़ी उत्सुकता से शुभ समाचार की प्रतीक्षा कर रहे थे। आखिर वह घड़ी आ गयी, जब अंदर से नर्स शुभ समाचार के रूप में रुई-सी मुलायम और अतिसुन्दर बालिका को गोद में लेकर उपस्थित हुई और चहकती हुई बोली, “बधाई हो, बेटी हुई है, लाइये इनाम दीजिये!”

स्नेहा ने सुनते ही अपना माथा ठोक लिया और बड़बड़ाती हुई गैलरी में एक ओर चली गयी।  माधव ने शर्माशर्मी पाँच सौ का नोट निकाल कर नर्स को दे दिया।

“बस पाँच सौ?” नर्स ने कहा।

“अरे, और क्या तेरे नाम अपनी पूरी सम्पत्ती लिख दें, कौन-सा लाल जना है उसने? और हाँ, उसका बच्चे बंद करने वाला ऑपरेशन मत कर देना!” स्नेहा ने गुस्से से लाल-पीली होते हुए नर्स से कहा। नर्स बेचारी चुपचाप अंदर चली गयी।

लगभग एक-डेढ़ घंटे के पश्चात् मूर्छित अवस्था में अर्पणा को वार्ड में लाया गया। जैसे ही अर्पणा की मूर्छा टूटी, स्नेहा ने उसपर प्रश्न तथा शिकायतों की झड़ी लगा दी। उसे सबसे अधिक गुस्सा इस बात पर था कि अर्पणा ने ऑपरेशन क्यों करवाया। अर्पणा ने मुस्कुराते हुए कहा,

माँ जी, आज बेटियाँ बेटों से अधिक ज़िम्मेदार हैं। वे किसी भी प्रकार बेटों से कम नहीं हैं।  इसके अलावा इसकी क्या गारंटी थी कि अगली बार बेटा हो ही जाता? मैं बहुत भाग्यशाली हूँ कि मुझे ईश्वर ने दो-दो परियाँ दी हैं। इसे देखिये तो सही, आपको कितने प्यार से देख रही है! क्या आपको इसपर प्यार नहीं आ रहा?”

“बहू, तू ने मेरी आँखें खोल दीं, मैं पोते पाने की चाह में इस नन्ही परी के साथ वास्तव में अन्याय कर रही थी।” कहते हुए स्नेहा ने नवजात बालिका को प्यार से गोद में उठा लिया।

 

© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार’ 

दिल्ली

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – बाल कथा – ☆ किस्सा सियार और जुलाहे का ☆ – डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

 

(आज प्रस्तुत है डॉ कुंवर प्रेमिल जी  की एक  बाल कथा “किस्सा सियार और जुलाहे का “। ) 

 

☆ बाल कथा – किस्सा सियार और जुलाहे का

 

एक जुलाहा था।

हाँ…..

वह काम की तलाश में एक जंगल से होकर गुजर रहा था। उसने अपने कंधे पर रूई धुनकने वाला पींजन और हाथ में उसका मुठिया पकड़ रखा था।

हाँ….

बीच रास्ते में उसे एक सियार मिल गया।  अचानक दोनों का आमना-सामना हुआ तो सियार डर गया।  कहीं  जुलाहा अपने हाथ में पकड़े मुठिये से मारने लगा तो!

हूँ….

उसका दिमाग चला, उसने जुलाहे की शान में एक कविता पढ़ी –

हाँ …. कौन सी कविता पढ़ी?

 

कांधे धनुष हाथ लिए बाना (बाण)

कहाँ चले दिल्ली सुल्ताना।

 

जुलाहे  ने अपनी तुलना सुल्तान से करते देख सियार को बड़ी प्यारी-प्यारी नज़रों से देखा, वाह!  सियार तो बड़ा गुणी दिखाई देता है।

हूँ….

जुलाहे ने भी सियार की शान में कविता पढ़ी –

 

वन के राव (राजा) बेर  का खाना।

 

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल 
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 11 – घरौंदा ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “घरौंदा ”। यह लघुकथा हमें परिवार ही नहीं पर्यावरण को भी सहेजने का सहज संदेश देती है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  समाज  को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 11 ☆

 

☆ घरौंदा  ☆

 

गाँव कहते ही मन में बहुत ही अच्छी बातों का चित्रण हो आता है। बैलों की घंटी, मंदिर में पंडित जी का भजन-श्‍लोक, पनघट से पानी भरकर लाने वाली महिलाओं की टोली, नुक्कड़ पर चाय पकोड़े का छोटा सा टपरा और कई बातें । चारो तरफ हरियाली । ये बात अब और है कि अब गाँव भी ईट सीमेंट का हो गया । हरियाली और चौपाल जैसे खतम सी हो गई ।

बहरहाल गांव का चित्रण – सुन्दर छोटा सा एक गाँव। गाँव में मुखिया अपने परिवार सहित रहते थे । छोटे छोटे दो पुत्र और उनकी धर्मपत्नी । सभी उनका आदर सत्कार करते थे । मुखयानी तो पुरे गाँव को अपना सा प्रेम करती थी । हमेशा सेवा सत्कार में जुडी़ रहती थी । साफ सुथरा उनका घर और आँगन के बीच एक आम का वॄक्ष। जैसे-जैसे बच्‍चे बड़े हो रहे थे,  आम का पेड़ भी उनकी खुशियों पर दिन रात शमिल था। और हो भी क्यों न मुखिया जी थक हार कर आते और आम के पेड़ के नीचे ही खाट बिछा आराम करते और सब उसकी छांव में बैठे रहते । पेड़ पर बच्चों का झूला भी बंधा हुआ था। शाम को सभी आम के पेड़ के नीचे बातचीत करते और बच्चे खेलते नजर आते।

 

समय बीतता गया, मुखिया जी ने बड़े बेटे का विवाह तय किया। घर में रौनक बड गई। बड़ी बहु के आने से मुखियानी को समय मिलने में राहत हुई। चौपाल ज्यादा समय तक लगने लगी थीं। समय आनंद से बीत रहा था। तीन साल बाद दूसरे बेटे की शादी भी बड़ी धूमधाम से हुआ। बड़े बेटे को प्रथम पुत्र प्राप्ति हुई। सभी बहुत खुश थे। परिवार पूर्ण रूप से भरा-भरा हो गया था। सभी अपने-अपने कामों पर लगे रहते थे। दिनभर के काम के बाद सभी आम के पेड़ के नीचे बैठ जाते जहाँ और भी महिलाएँ बच्चों सहित आकर बैठ जाते थे। समय बीत रहा था।  कहते हैं जहां चार बरतन होती हैं वहाँ खटकने की आवाज आने लगती है। घर में दिन रात किट-किट होने लगी बहुओं में जरा भी ताल मेल नहीं जम रहा था। सास बिचारी परेशान दिन भर अपना समय आम के पेड़ के नीचे ही बिताने लगी। उसका अपना घरौंदा बन गया। अब मुखिया जी भी बाहर से आते और घर के अंदर जाने के बजाय वही दोनों आम के पेड़ के नीचे खाट डाल कर बैठ जाते। परन्तु खिट-पिट  बन्द नहीं हुई। दोनों भाइयों ने घर का बटवारा कर डाला। आँगन की बारी आई तो बीच में आम का पेड़ आ रहा था। गाँव के पंचो ने सलाह दिया कि दोनों दिवाल बना ले पेड़ नहीं काटने देगें। दोनों ने वैसा ही किया पर बात बनी नहीं। आम के सीजन में जब फल लगने लगे बड़ा भाई छोटे भाई के तरफ के फल ही गिरा देता रात के अंधेरे में छोटा भाई भी फल क्या टहनियाँ भी काट कर गिरा देता था। कभी पूरा पेड़ आम से लदा रहता आज बस ठूंठ की तरह दिखाई दे रहा है। बहाना मिल गया दोनों को पेड़ काटने का। पेड़ काट कर उसका बंटवारा कर लिया गया।

मुखिया की पत्नी ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकी। उसका देहांत हो गया। घर से मुखिया जी भी निकल कर कहीं चले गये। पूरा घर वीरान हो चुका। न चिड़ियों की चहचहाहट न बच्चों की नटखट टोली और न महिलाओं का समूह।

दोनों भाइयों को अपने घरौंदे देख बहुत दुख और पश्चाताप हुआ। पर समय निकल चुका था। परन्तु दोनों ने अपनी गलती मान पेड़ और पर्यावरण को बचाने का संकल्प ले अपनी गलती सुधारने का मौका लिया। और आज उसी क्षेत्र में आगे बढ रहे हैं। दोनों बहुओं को भी समझ में आ गया था कि परिवार और घरौंदा दोनों सुख शांति के लिए आवश्यक है। एक बार फ़िर से मुखिया का घर हरा भरा हो गया।

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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 8 ☆ फैसला ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक  सार्थक लघुकथा  “फैसला”।

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 8 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ फैसला 

 

आज वर्षो बाद अजय का आना हुआ हमने कहा… “बेटा इतने सालों बाद शादी के बाद कहाँ गायब हो गए थे?”
“अंजलि इतनी भायी की तुम दुनिया जहान को भूल गये।”
अजय ने बताया। बस अंकल क्या कहूँ यूँ ही गृहस्थ संसार में उलझ गया।
हमने कहा… “अच्छा है पर ये उदासी कैसी? क्या बात है?”
अजय ने कहा …”क्या बताऊँ अंकल?”
हमने कहा…”नहीं बेटा कह ही डालो मन हल्का हो जायेगा।”
अजय ने बताना शुरू किया। शादी की रात को अंजलि ने कहा …”शादी के पहले हमने आपसे बहुत कुछ कहना चाहा लेकिन मुझे देखने के बाद आप कुछ सुनना ही नहीं चाहते थे। बस आप शादी का ही इंतजार कर रहे थे।”
“क्या हुआ …आज ये सब बातें…तुम किसी और से शादी करना चाहती थी क्या?”
अंजलि ने बताया…”हम हमारा परिवार शादी ही नहीं करना चाहते थे। लेकिन माँ की दोस्त आपका रिश्ता ले आई और दो दिन बाद आप लोगों को हम लोग कुछ कह सुन नहीं पाए. बहुत बार कोशिश की आपसे बात करने की पर आप टाल गये। हमने माँ से कहा जो ईश्वर को मंजूर होगा, वही होगा और आज वह दिन भी आ गया और हम आज बिना कहे नहीं रहेंगे …मैं न स्त्री हूँ न पुरुष …मेरा कोई अस्तित्व नहीं है।   मैं किन्नर जाति की हूँ।   पर मेरे माता पिता की अकेली संतान होने के कारण छुपा कर रखा और किसी को पता न चल जाये इसलिए आज तक बोला नहीं क्यों किन्नर लोग मुझे ले जायेंगे …लेकिन अब नहीं, मैं आपको इस कुएँ में नहीं धकेलना नहीं चाहती। आप सभी को मेरे विषय में कुछ भी कह दीजिये और मुझे छोड़ दीजिये।”
अंकल इतना सुनकर मुझे ऐसा लगा… “मेरे पैरों से जमीन खिसक गई है। थोड़ा सोचकर हमने कहा तुम लोग समाज के डर से चुप रहे। शायद ईश्वर को यही मंजूर था अब हम कुछ कहेंगे तो समाज परिवार का सामना कैसे करेंगे?  हमारा सम्बन्ध जन्म जन्मान्तर का है। हम तुम्हें अपनी पत्नी का दर्जा देंगे। उसके बाद हम लोग भोपाल गये वहाँ दो जुड़वाँ बच्चे गोद ले लिए किसी को नहीं बताया.  आज पहली बार आपको बताया। अंकल हमने सोचा हमारी किस्मत इसी के साथ जुडी है लाख कोशिश के बाद जो होना है वह होकर ही रहता है।”
हमने कहा …”। इतना बड़ा फैसला तुम्हें तो सेल्यूट करना चाहिए.” …
© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #10 ☆ ज़िंदगी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “ज़िंदगी ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #10☆

 

☆ ज़िंदगी ☆

 

मैंने अपनी पत्नी को कहा, “आज उमेश चाय पर आ रहा है.”

“क्या !” पत्नी चौंकते हुए बोली, “पहले नहीं कहना चाहिए था ?”

मैंने पूछा, “क्यों भाई, क्या हुआ ?”’

“देखते नहीं, घर अस्तव्यस्त पड़ा है. सामान इधर उधर फैला है. पहले कहते तो इन सब को व्यवस्थित कर देती. वह आएगा तो क्या सोचेगा? मैडम साफ सुथरे रहते है और घर साफ सुथरा नहीं रखते हैं.”

“वह यहीं देखने तो आ रहा है. शादी के बाद की जिंदगी कैसी होती है और शादी के पहले की जिंदगी कैसी होती है ?”’

“क्या !” अब चौंकने की बारी पत्नी की थी, “क्या, वह भी शादी कर रह है.”

मैं ने कहा, “ हां,” और पत्नी घर को व्यवस्थित करने में लग गई. ताकि शादीशुदा जिंदगी व्यवस्थित दिखें.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ कागज की नाव ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा भी वर्तमान सामाजिक परिवेश के ताने बाने पर आधारित है। डॉ प्रदीप जी के शब्द चयन एवं शैली  मौलिक है। )

 

☆ कागज की नाव ☆

 

मनोहर लाल अपने कमरे की  खिड़की से बाहर का नजारा देख रहे थे, तपती गर्मी के बाद झमाझम बारिश हो रही थी जिससे वातावरण में ठंडक का अहसास घुल रहा था। बहुत दिनों की तपन के बाद धरती भी अपनी प्यास बुझाकर मानो तृप्ति का  अनुभव कर रही हो।

बारिश की बड़ी बड़ी बूंदों से लान में पानी भर गया था और वह पानी तेजी से बाहर निकल कर सड़क पर दौड़ रहा था । मनोहरलाल को अपना बचपन याद आ गया, जब वे ऐसी बरसात में अपने भाई बहनों के साथ कागज की नाव बनाकर पानी में तैराते थे और देखते थे कि किसकी नाव कितनी दूर तक बहकर जाती है। जिसकी नाव सबसे दूर तक जाती थी वह विजेता भाव से सब भाई बहनों की ओर देखकर खुशी से ताली बजाकर पानी में छप-छप करने लगता था।

उनकी इच्छा पुनः कागज की नाव बनाकर लान में तैराने की हुई , अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु उन्होंने अपनी आलमारी से एक पुरानी कॉपी निकालकर उसका एक पेज फाड़कर नाव बनाई और उसे कुर्ते की जेब में रखकर अपने कमरे से बाहर आये। आज रविवार होने से  बेटा, बहु और नाती भी घर पर ही थे। ये तीनों ड्राइंग रूम में अपने अपने मोबाइल में व्यस्त थे।

वे  धीमे कदमों से ड्राइंग रूम से बाहर निकल ही रहे थे कि बहु ने आवाज देते हुए पूछा – “पापाजी इतनी बारिश में बाहर कहाँ जा रहे हैं? जरा सी भी ठंडी हवा लग जावेगी तो आपको  सर्दी हो जाती है फिर पूरी रात छींकते, खांसते रहते हैं, देख नहीं रहे हैं कितनी तेज बारिश हो रही है ऐसे में लान में क्या करेंगे, अपने कमरे में ही आराम कीजिये।”

वह चुपचाप मुड़े एवं अपने कमरे की ओर बढ़ गये उनका एक हाथ कुर्ते की जेब में था जिसकी मुठ्ठी में दबी कागज की नाव बाहर आने को छटपटा रही थी।

बेटे, बहु और नाती अपनी आभासी दुनिया में खोये पहली बरसात की फ़ोटो पोस्ट कर उस पर मिल रहे लाइक कमेंट्स पर खुश हो रहे थे।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 10 – दावत ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “दावत”। इस लघुकथा ने  संस्कारधानी जबलपुर, भोपाल और कई शहरों  में गुजारे हुए गंगा-जमुनी तहजीब से सराबोर पुराने दिन याद दिला दिये। काश वे दिन फिर लौट आयें। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के लिए नमन।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 10 ☆

 

☆ दावत ☆

 

दावत कहते ही मुंह में पानी आ जाता है। एक भरी भोजन की थाली जिसमें विभिन्न प्रकार के सब्जी, दाल, चावल, खीर-पूड़ी, तंदूरी, सालाद, पापड़ और मीठा। किसी का भी मन खाने को होता है।

मोहल्ले में कल्लन काले खाँ चाचा की आटा चक्की की दुकान। अब तो सिविल लाइन वार्ड और मार्ग हो गया। पहले तो पहचान आटा चक्की, मंदिर के पास वाली गली। कल्लन  काले खाँ को सभी कालू चाचा कहते थे। क्योंकि उनका रंग थोड़ा काला था। कालू चाचा की इकलौती बेटी शबनम और हम एक साथ खेलते और पढ़ते थे।

शाम हुआ आटा चक्की के पास ही हमारा खेलना होता था। स्कूल भी साथ ही साथ जाना होता। दो दिन से शबनम स्कूल नहीं आ रही थी।

हमारे घर में क्यों कि मंदिर है उसका यहाँ आना जाना कम होता था। बड़े बुजुर्ग लड़कियों को किसी के यहाँ बहुत कम आने जाने देते हैं।

समय बीता एक दिन शाम को शबनम बाहर दौड़ते हुए आई और बताने लगी ” सुन मेरा ‘निकाह’ होने वाला है। अब्बू ने मेरा निकाह तय कर लिया। हमने पूछा “निकाह क्या होता है?”

उसने बहुत ही भोलेपन से हँसकर कहा “बहुत सारे गहने, नए-नए कपड़े और खाने का सामान मिलता है। हम तो अब निकाह करेंगे। सुन तुम्हारे यहां जो “शादी” होती है उसे ही हम मुसलमान में “निकाह” कहा जाता है।” इतना कहे वह शरमा कर दौड़ कर भाग गई। हमें भी शादी का मतलब माने बुआ-फूफा, मामा-मामी और बहुत से रिश्तेदारों का आना-जाना। गाना-बजाना और नाचना। मेवा-मिठाई और बहुत सारा सामान। उस उम्र में शादी का मतलब हमें यही पता था।

ख़ैर निकाह का दिन पास आने लगा कालू चाचा कार्ड लेकर घर आए। हाथ जोड़ सलाम करते पिताजी से कहे  “निकाह में जरूर आइएगा बिटिया को लेकर और दावत वहीं पर हमारे यहाँ  करना है।” बस इतना कह वह चले गए।

घर में कोहराम मच गया दावत में वह भी शबनम के यहाँ!! क्योंकि हमारे घर शुद्ध शाकाहारी भोजन बनता था। लेकिन पिताजी ने समझाया कि “बिटिया का सवाल है और मोहल्ले में है। हमारा आपसी संबंध अच्छा है, इसलिए जाना जरूरी है।”

घर से कोई नहीं गया। पिताजी हमें लेकर शबनम के यहाँ पहुँचे। उसका मिट्टी का घर खपरैल वाला बहुत ही सुंदर सजा हुआ था। चारों तरफ लाइट लगी थी शबनम भी चमकीली ड्रेस पर चमक रही थी। जहां-तहां मिठाई और मीठा भात बिखरा पड़ा था। हमें लगा हमारी भी शादी हो जानी चाहिए। जोर-जोर से बाजे बज रहे थे और कालू चाचा कमरे से बाहर आए उनके हाथ में नारियल औरकाजू-किशमिश का पैकेट था। उन्होंने पिताजी को गले लगा कर कहा “जानता हूँ भैया, आप हमारे यहाँ दावत नहीं करेंगे पर यह मेरी तरफ से दावत ही समझिए।”

पिताजी गदगद हो गए आँखों से आँसू बहने लगे। ये खुशी के आँसू शबनम के निकाह के थे या फिर दावत की जो कालू चाचा ने कराई। हमें समझ नहीं आया। पर आज भी शबनम का निकाह याद है।

शबनम का निकाह और दावत दोनों कुबूल हुई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – आलेख – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सीढ़ियाँ ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )

 

☆ संजय दृष्टि  – सीढ़ियाँ

“ये सीढ़ियाँ जादुई हैं पर खड़ी, सपाट, ऊँची, अनेक जगह ख़तरनाक ढंग से टूटी-फूटी। इन पर चढ़ना आसान नहीं है। कुल जमा सौ के लगभग हैं। सारी सीढ़ियों का तो पता नहीं पर प्राचीन ग्रंथों, साधना और अब तक के अनुसंधानों से पता चला है कि 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच एक दरवाज़ा है। यह दरवाज़ा एक गलियारे में खुलता है जो धन-संपदा से भरा है। इसे ठेलकर भीतर जानेवाले की कई पीढ़ियाँ अकूत संपदा की स्वामी बनी रहती हैं।

20वीं से  35वीं सीढ़ी के बीच कोई दरवाज़ा है जो सत्ता के गलियारे में खुलता है। इसे खोलनेवाला सत्ता काबिज़ करता है और टिकाये रखता है।

साधना के परिणाम बताते हैं कि 35वीं से 50वीं सीढ़ी के बीच भी एक दरवाज़ा है जो मान- सम्मान के गलियारे में पहुँचाता है। यहाँ आने के लिए त्याग, कर्मनिष्ठा और कठोर परिश्रम अनिवार्य हैं। यदा-कदा कोई बिरला ही पहुँचा है यहाँ तक”…, नियति ने मनुष्यों से अपना संवाद समाप्त किया और सीढ़ियों की ओर बढ़ चली। मनुष्यों में सीढियाँ चढ़ने की होड़ लग गई।

आँकड़े बताते हैं कि 91प्रतिशत मनुष्य 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच भटक रहे हैं। ज़्यादातर दम तोड़ चुके। अलबत्ता कुछ को दरवाज़ा मिल चुका, कुछ का भटकाव जारी है। कुबेर का दरवाज़ा उत्सव मना रहा है।

8 प्रतिशत अधिक महत्वाकांक्षी निकले। वे 20वीं से 35वीं सीढ़ी के बीच अपनी नियति तलाश रहे हैं। दरवाज़े की खोज में वे लोक-लाज, नीति सब तज चुके। सत्ता की दहलीज़ श्रृंगार कर रही है। शिकार के पहले सत्ता, श्रृंगार करती है।

1 प्रतिशत लोग 35 से 50 के बीच की सीढ़ियों पर आ पहुँचे हैं। वे उजले लोग हैं। उनके मन का एक हिस्सा उजला है, याने एक हिस्सा स्याह भी है। उजले के साथ इस अपूर्व ऊँचाई पर आकर स्याह गदगद है।

संख्या पूरी हो चुकी। 101वीं सीढ़ी पर सदियों से उपेक्षित पड़े मोक्षद्वार को इस बार भी निराशा ही हाथ लगी।

 

हरेक की  जीवनयात्रा सार्थक हो। 

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

 

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