हिन्दी साहित्य – लघुकथा – ☆ एक छोटी भूल ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

☆ एक छोटी भूल ☆

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  की एक विचारोत्तेजक लघुकथा। )

 

हम एक शिविर में थे। शिविर बस्ती से दूर प्रकृति के अंचल में, वन विभाग की एक इमारत में लगा था। इमारत के अगल-बगल और सामने दूर  तक ऊँचे पेड़ थे। खूब छाया रहती थी।रात भर पेड़ हवा से सरसराते रहते।

उस सबेरे हम चार लोग इमारत के पास टीले पर बैठे थे। दूर दूर तक पेड़ ही पेड़ थे और हरयाली। उनके बीच से बल खाती काली सड़क। कहीं कहीं इक्के दुक्के कच्चे घर। कुछ दूर पुलियाँ बन रही थीं। वहाँ कुछ हरकत दिखायी पड़ रही थी। शायद कोई इमारत बनाने की तैयारी थी।

पटेल की सिगरेट ख़त्म हो गयी थी। उसे तलब लगी थी। करीब एक फर्लांग दूर सड़क के किनारे दूकान थी,  लेकिन पटेल अलसा रहा था।

तभी पास से एक पंद्रह सोलह साल का लड़का निकला। पुरानी, गंदी, आधी बाँह की कमीज़ और पट्टेदार अंडरवियर।

पटेल ने उसे बुलाया। पचास का नोट दिया, कहा, ‘ज़रा एक सिगरेट का पैकेट ले आओ।’

लड़का बोला, ‘साहब, मुझे काम पर पहुँचना है।देर हो जाएगी।’

पटेल बोला, ‘अरे, नहीं होगी देर। दौड़ के ले आओ।’

लड़का नोट लेकर चला गया। हम वहीं बैठे गप लड़ाते रहे।

थोड़ी देर में लड़का लौटा।उसने पटेल को पैकेट और बाकी पैसे दिये।पटेल ने पैसे जेब में डाल लिये और पैकेट खोलने लगा।

लड़का एक क्षण खामोश रहा। फिर बोला, ‘साहब, दूकान पर ठेकेदार मिल गया था। हमें वहाँ देखकर नाराज हो गया। बोला अब काम पर आने की जरूरत नहीं है। यहीं आराम करो।’

पटेल ने ओठों में सिगरेट दबाये, माथा सिकोड़कर पूछा, ‘तो?’

लड़का बोला, ‘हमारी आज की मजूरी चली गयी, साहब।’

पटेल अपना असमंजस छिपाने के लिए माचिस जलाकर सिगरेट सुलगाने लगा।

आधे मिनट हम सब खामोश बैठे रहे। फिर पटेल उठ कर खड़ा हो गया, बोला, ‘चलो,नाश्ते का वक्त हो गया।’

हम सब उस लड़के से आँखें चुराते धीरे धीरे इमारत की तरफ बढ़ने लगे।

लड़का वहीं खड़ा हमें देखता रहा। इमारत में घुसने से पहले हमने घूम कर देखा। वह हमारी तरफ देखता वहीं खड़ा था।

 

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ ठगी ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

☆ ठगी ☆ 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा  भारत के लोकतन्त्र के महापर्व  “चुनाव” की पृष्ठभूमि  पर  रचित कटु सत्य को उजागर करती है। )

“काय कलुआ के बापू, इत्ती देर किते लगाये दई । वा नेता लोगन की रैली तो तिनै बजे बिला गई हती ना । दो सौ रुपैया तो मिलइ गए हुइहें?”

रमुआ कुछ देर उदास  बैठा रहा, फिर उसने बीवी से कहा – “का बताएं इहां से तो वो लोग लारी में भरकर लेई गए थे और कही भी हती थी कि रैली खतम होत ही दो सौ रुपइया और खावे को डिब्बा सबई को दे देहें, मगर उन औरों ने हम सबई को ठग लऔ। मंत्री जी की रैली खतम होवे के बाद ठेकेदार ने खुदई सब रुपया धर लओ और हम  सबई को धता बता दओ । हम  ओरें  शहर से गांव तक निगत निगत आ रए हैं । लौटत में बा लारी में भी हम औरों को नई बैठाओ । बहुतै थक गए हैं । आज की मजूरी भी गई और कछु हाथे न लगो,अब तो तुम बस एकइ लोटा भर पानी पिलाए देओ – ओई से पेट भर लेत है ।”

रमुआ की बीवी ऐसे ठगों को बेसाख्ता  गाली बकती हुई अंदर पानी लेने चली गई ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ सर्जिकल स्ट्राइक ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

सर्जिकल स्ट्राइक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा एक सत्य घटना पर आधारित है। उनकी इस लघुकथा का शीर्षक अपने आप में एक सार्थक, सामयिक एवं सटीक शीर्षक है।)

महानगर के अस्पताल में गहमा गहमी मची थी।

एक हिन्दू परिवार तथा एक मुस्लिम परिवार में उनके पतियों की किडनी खराब हो जाने के कारण किडनी प्रत्यारोपण की सख्त आवश्यकता थी । दोनों ही परिवारों के रिश्तेदार, परिचित बारी बारी से अपना ब्लड टेस्ट करवा चुके थे, किंतु ब्लड ग्रुप मैच न होने के कारण उनमें निराशा बढ़ती जा रही थी ।

उदासी भरे वातावरण में दोनों की पत्नियां एक दूसरे से आपस में चर्चा कर रही थीं । चर्चा के दौरान उन्हें ज्ञात हुआ कि संयोगवश उनका ब्लड ग्रुप एवं किडनियां एक दूसरे के पतियों से मैच हो रही थीं । उन्होंने आपस में चर्चा की ।

अपने अपने रिश्तेदारों के आरंभिक विरोध के बावजूद अत्यंत साहसिक कदम उठाते हुए एक दूसरे के पतियों को अपनी किडनी दान कर धर्म सम्प्रदाय की कट्टरपंथी सोच पर जबरदस्त सर्जिकल स्ट्राइक कर दोनों परिवार के मध्य रक्त सम्बंध भी स्थापित कर इंसानियत की मिसाल कायम कर दी ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

 

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ फर्ज़ ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

फर्ज़

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की जीवन में मानवीय अपेक्षाओं और फर्ज़ (कर्तव्य) के मध्य हमारी व्यक्तिगत सोच पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा। )

आज संजय का इंटरव्यू था एक जानी मानी कंपनी में। एमबीए किया था उसने मार्केटिंग में। पूरा आत्मविश्वास से भरा हुआ था, बल्कि उसने तो भविष्य के सपने भी बुनने शुरू कर दिये थे, उस कंपनी को लेकर। इसी कंपनी में उसका बड़ा भाई विशाल भी वाइस प्रेसीडेंट था जो कि अपनी ईमानदारी व वफादारी के लिए मशहूर था।संजय को पूरा विश्वास था कि उसके भाई का इतना ऊँचा ओहदा है कि  उसका तो तुरंत सेलेक्शन हो ही जाएगा।

बड़े रोब के साथ कंपनी में चले जा रहा था।मैनेजर की पोस्ट के लिए इंटरव्यू था 5 लोग आये हुए थे। तीन तो पहले ही रांउड में बाहर हो गए। संजय और एक दूसरा लड़का और बचे थे।संजय को पहले बुलाया गया,वह यह देख बड़ा खुश हुआ कि इस बार इन्टरव्यू लेने वालों में उसका भाई भी था। उसने यहाँ अपने भाई का अलग रूप देखा, उसके भाई ने तो सवालों की झड़ी लगा दी। वह सकपका गया। पर उसके बाहर आने के बाद भी उसको विश्वास था कि चयन तो उसी का होने वाला है। फिर दूसरे बंदे को अंदर बुलाया गया और उसको वहीं चयनित होने की सूचना दे दी गई। संजय निराश व गुस्से से भरा घर लौट आया यह सोच कर कि भाई को खूब खरीखोटी सुनायेगा।

जब शाम को भाई लौटा संजय भाई पर बरस पड़ा। विशाल छोटे भाई के गुस्से का बुरा न मान हँसते हुए उसे समझाने लगा, ” देख संजू मैं भाई होने से पहले एक इंसान व कंपनी का जिम्मेदार कर्मचारी पहले हूँ । इस नाते जो बंदा इस ओहदे के लायक था, मैनें उसे यह पद दे दिया। अगर भाई का फर्ज निभाना ही होगा तो मैं घर पर अब निभाऊंगा। देख मेरे भाई मेरी उंगली पकड़ कर आगे बढ़ना छोड़,अब तू बड़ा हो गया है तेरे ऊपर और जिम्मेदारियां भी आने वाली हैं। तू समझने की कोशिश कर मेरे भाई। मैं तैरा भला नहीं चाहूंगा तो और कौन चाहेगा। “संजय काफी देर तक तो परेशान रहा फिर एहसास होने लगा कि उसका भाई सही ही तो बोल रहा है।अब उसे अपने बलबूते पर ही आगे बढ़ना चाहिए।

© ऋतु गुप्ता

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * दरार * – डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

दरार

डॉ कुंवर प्रेमिल जी का e-abhivyakti में स्वागत है। 
(विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन। अब तक दस पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन)

एक माँ ने अपनी बच्ची को रंग-बिरंगी पेंसिलें लाकर दीं तो मुन्नी फौरन चित्रकारी करने बैठ गई। सर्वप्रथम उसने एक प्यारी सी नदी बनाई। नदी के दोनों किनारों पर हरे-भरे दरख्त, एक हरी-भरी पहाड़ी, पहाड़ी के पीछे से ऊगता सूरज और एक प्यारी सी हट। बच्ची खुशी से नाचने लगी थी। तालियाँ बजाते हुए उसने अपनी मम्मी को आवाज लगाई -‘ममा देखिये मैंने कितनी प्यारी सीनरी बनाई है।’

चौके से ही मम्मी ने प्रशंसा कर बच्ची का मनोबल बढ़ाया। कला जीवंत हो उठी।

थोड़ी देर बाद मुन्नी घबराई हुई सी चिल्लाई – ‘ममा गज़ब हो गया, दादा-दादी के लिए तो इसमें जगह ही नहीं बन पा रही है।’

ममा की आवाज आई- आउट हाउस बनाकर समस्या का निराकरण कर लो। दादा-दादी वहीं रह लेंगे।’

मम्मी की सलाह सुनकर बच्ची एकाएक हतप्रभ होकर रह गई। उसे लगा कि सीनरी एकदम बदरंग हो गई है। चित्रकारी पर काली स्याही फिर गई है। हट के बीचों-बीच एक मोटी सी दरार भी पड़ गई है।

© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * लंगोटी की खातिर * – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

लंगोटी की खातिर 

            आदिवासी जिले में भ्रमण के दौरान बैगाओं की दयनीय स्थिति देख प्रशांत का मन द्रवित हो गया  । क्योंकि आदिवासी समाज के विकास एवं उन्नति हेतु सरकार के द्वारा आजादी के बाद से ही विभिन्न योजनाओं  के अंतर्गत करोड़ों रुपये खर्च किये जा चुके हैं ।

बैगाओं की इस स्थिति हेतु उसने वहां के आदिवासी विकास अधिकारी से पूछ ही लिया — ” आजादी के 65 वर्षों के बाद भी आदिवासियों के तन पर सिर्फ लंगोटी ही क्यों ? ”

अधिकारी ने जवाब दिया — ” यदि हम आदिवासियों को लंगोट के स्थान पर पेंट शर्ट पहना देंगे तो हममें और उनमें क्या अंतर रह जावेगा ? उनकी पहचान नष्ट हो  जावेगी , फिर हम विदेशी पर्यटकों को बैगा आदिवासी कैसे दिखावेंगे और वे उनकी लंगोटी वाली  वीडियो फ़िल्म , फ़ोटो कैसे उतारेंगे ? अतः उनकी पहचान बनाये रखने  उन्हें लंगोटी में ही रहने देने के लिए सरकार द्वारा करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हैं । इसमें आदिवासियों का विकास हो या न हो , हमारा तो हो रहा है । ” कहते हुये उन्होंने बेशर्मी से ठहाका लगाया ।

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * वात्सल्य * – डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता

वात्सल्य

(डॉ . मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक लघुकथा   ‘वात्सल्य ’)

 

आठ माह पूर्व उसके बेटे कृष्ण का निधन हो गया था।
उसकी मां निरंतर आंसू बहा रही थी, उस बेटे के लिये जो उससे बात नहीं करता था,उसे गालियां देने व उस पर हाथ उठाने से तनिक गुरेज़ नहीं करता था,जिसने कभी अपने घर में कदम नहीं रखने दिया।
यह सब देख कर सपना हैरान थी।वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पायी और उसने उससे पूछ ही लिया…आप किसका मातम मना रही हैं?  वह बेटा…जिसने पिता के देहांत के पश्चात् अपनी विधवा मां की जायदाद हड़प कर रोने-बिलखने को छोड़ दिया और कभी बीमारी में भी  उसका हाल पूछने नहीं आया।
वह बेटा जिसने अपने बच्चों को कभी उससे बात तक नहीं करने दी और उसकी ज़िन्दगी को बद से बदतर बना डाला।
मां ने उस बेटे को कैसे माफ कर दिया… यह समझना उसके वश की बात नहीं थी।

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * अपराध बोध * – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

अपराध बोध 
रात के सन्नाटे में गुप्ता सर कोचिंग क्लास में  पढ़ाकर अपनी मोटरसाइकिल से घर जा रहे थे । अचानक एक मोड़ पर चार हथियारबंद युवकों ने सामने आकर उन्हें रोक लिया । एक युवक ने उन्हें छुरा पेट में अड़ाते हुए कहा ” जो भी माल हो फौरन निकाल कर दे दो , वरना ……… “
गुप्ता सर ने घबराई हुई आवाज में कुछ कहना चाहा, तभी उन्हें वह लड़का जाना पहचाना लगा । उन्होंने उसे गौर से देखा और आंखों में चमक लाते हुए बोले – ” अरे……… विनोद बेटे तुम……… मुझे पहचाना नहीं, मैं तुम्हारा गुरूजी, तुम्हें मैंने 12 वीं कक्षा में पढ़ाया था………”  विनोद नें बात बीच में ही काटकर गुर्राते हुए कहा ……… “चुप……… अपनी गन्दी जुबान से गुरुजी जैसे पवित्र शब्द मत निकालिये। आप जैसे शिक्षा के व्यापारियों ने वास्तविक गुरूजी के ज्ञान को पीछे धकेल कर शिक्षा का मजाक बनाकर सिर्फ रुपया कमाना अपना उद्देश्य बना लिया है और हम जैसे बेरोजगारों को सही रोजगारी शिक्षा के अभाव में ही अपराध के इस अंधेरे जंगल में भटककर अपना और अपने परिवार का पेट पालना पड़ रहा है । यदि आप जैसे गुरुओं ने शिक्षा को व्यापार न बनाया होता और हमें  सही शिक्षा  प्रदान की होती तो आज देश में हम जैसे अपराधी बेरोजगारों की फौज पैदा न होती ……… । इसके पहले कि हम लोगों का वहशीपन जागे, आप  तत्काल यहां से चले जाइये।”
गुप्ता सर शर्म से सिर झुकाये अपने शिक्षक धर्म के बोझ को ढोते हुए अपराधबोध से ग्रसित घर की ओर बढ़ गये ।
© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * एक्सीडेंट  * – डॉ . प्रदीप शशांक 

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

एक्सीडेंट 
“हुजूर, माई — बाप मुझे बचा लीजिये, वरना जनता मुझे मार डालेगी —-” कहते हुए ट्रक ड्राइवर थाने में प्रवेश कर सब- इंस्पेक्टर के कदमों में गिर गया।
सब – इंस्पेक्टर मेहरा ने कड़कदार आवाज में उसे गाली बकते हुए कहा –“किस को अपने ट्रक  की चपेट में ले लिया ?”
“हुजूर, अम्बेडकर चौक पर अचानक एक कॉलेज की लड़की गाड़ी सहित ट्रक के नीचे आ गई । सच कह रहा हूँ हुजूर, मेरा कोई दोष नहीं है । में वहां से सीधा ट्रक लेकर आपके पास आ गया, पब्लिक के पहुंचने से पहले हुजूर ये एक हजार रुपए  रखिये और मामला निपटा दीजिये ।”
“हूँ –”  सब इंस्पेक्टर ने चारों ओर देखा, दोपहर डेढ़ बजे का समय था, ड्यूटी पर तैनात सिपाही खाना खाने पीछे ही पुलिस लाइन के अपने क्वार्टर पर गए हुए थे और बड़े साहब भी नहीं थे, मौका अच्छा था । उसने सोचा – आज यह पूरी रकम उसकी है, किसी को भी हिस्सा नहीं देना है ।
सब इंस्पेक्टर मेहरा ने जल्दी से ट्रक ड्राइवर से रुपये लिये  और कहा – “जा जल्दी से फूट ले यहां से । पब्लिक के हाथों पड़ गया तो मार – मार कर भुरता बना देगी ।”
वह मन  ही मन खुश होकर जेब में रखे हजार रुपयों पर हाथ फेर रहा था, तभी टेलीफोन की  घन्टी बजी, उसने फोन उठाया , “हेलो — मेहरा सब इंस्पेक्टर स्पीकिंग।”
दूसरी ओर से आवाज आई — “सर, आपकी लड़की की कालेज से लौटते समय अम्बेडकर चौक पर  ट्रक से एक्सीडेंट हो जाने के कारण मौत हो गयी है।”
सब इंस्पेक्टर के हाथों से रिसीवर छूट गया और वह बेहोश होकर, कुर्सी पर एक ओर लुढ़क गया ।
© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – * जनरेशन गैप * – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

जनरेशन गैप

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की  एक विचारणीय लघुकथा। )

मोहित जब भी अपने पिताजी से बात करता किसी बात का सीधा उत्तर न देता। पिता रामदास परेशान हो उठते सोचने लगते क्या तीन लड़कियों के बाद इसी दिन को देखने के लिए पैदा किया था इसको,न जाने परवरिश में क्या कमी रह गई? जब भी बात करो टेढ़ेपन से जवाब देता है।मेरी तो कोई भी बात अच्छी नहीं लगती।

एक दिन जब वह मोहित से पूछने लगा कि घर लौटने में आज देर कैसे हो गई, कॉलेज में एक्सट्रा पीरियड था क्या? बस मोहित तो सुनते ही बस आगबबूला हो गया,”आपकी क्या आदत है,क्यूँ हर वक्त इन्क्वायरी करते रहते हैं?मैं कोई दूध पीता बच्चा थोड़े ही हूँ।अपना बुरा भला समझता हूँ।” रामदास तो उसको लेकर आज पहले ही परेशान था एक थप्पड़ झट से गाल पर जड़ चिल्लाने लगा,”बाप हूँ तेरा बोलने की तमीज नहीं है,माँ-बाप के लिए बच्चा कभी बड़ा नहीं होता है। हम चिन्ता नहीं करेंगे तो क्या बाहर वाले ख्याल रखेंगे।” बस मानो मोहित तो मौके की तलाश में ही था बोलने लगा ,”बड़ी जल्द समझ आई आपको ,जब दादा जी यही सब बातें आपको बोलते थे तो क्यों तिलमिला उठते थे,क्यों उनकी बातो का कभी सीधे मूहँ जवाब नहीं देते थे? मैं बच्चा जरूर था तब पर सब समझता था कैसे वो चुपके से जाकर आपके इस गंदे रवैये से रोते थे।मैं कहता था उनसे कि वो बात करें आपसे इस बारे में,पर डरते थे आपसे।फिक्र भी थी कि न जाने ऑफिस की क्या टैंशन रही होगी इसलिए ऐसे चिल्ला रहा है। बेचारे आपकी चिंता व आपके दो मीठे बोल को तरसते-तरसते ही चल बसे।”
रामदास तो यह सुनते ही भौचक्का रह गया व शर्मिंदा भी हो उठा क्योंकि कहीं न कहीं गलती तो उससे हुई ही थी।अब उसको एहसास था पर वक्त हाथ से निकल चुका था।यह बात सही थी कि बच्चे हम से ही सीखते हैं। उनके संस्कारों के हम ही तो रचयिता हैं।वक्त के साथ विचारों में भी अंतर आ जाता है।वह अपने सवाल का जवाब खुद ही ढूंढ़ने में लग गया कि शायद यही है जनरेशन गैप।

© ऋतु गुप्ता

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