डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी कहानी – ‘खोया हुआ कस्बा‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 236 ☆
☆ कहानी – खोया हुआ कस्बा ☆
रामप्रकाश ऊँचे सरकारी ओहदे से रिटायर हो गये। यानी अर्श से गिर कर खुरदरे फर्श पर आ गये। दिन भर उठते सलाम, ख़ुशामद में चमकते दाँत, झूठी मिजाज़पुर्सी, सब ग़ायब हो गये। ड्राइवर द्वारा उनके लिए अदब से कार का दरवाज़ा खोलने का सुख भी ख़त्म हुआ। जो उन्हें देखकर कुर्सी से उठकर खड़े हो जाते थे अब उन्हें देखकर नज़रें घुमाने लगे। मुख़्तसर यह कि रिटायरमेंट के बाद बहुत से रिश्ते बदल गये। रामप्रकाश जी को अब समझ में आया कि उन्होंने रिश्तो की पूँजी की उपेक्षा करके गलती की। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। अब नये रिश्ते बनाना संभव नहीं था।
रिटायरमेंट के बाद सरकारी कार विदा हो जाने वाली थी और कार से उतर कर स्कूटर पर आने की त्रासद स्थिति को वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे, इसलिए उन्होंने रिटायरमेंट से तीन महीने पहले एक कार खरीद ली। हमारे देश में असंगठित क्षेत्र में श्रम बहुत सस्ता है इसलिए पाँच हज़ार रुपये में एक ड्राइवर भी रख लिया। इस तरह इज़्ज़त के कुछ हिस्से को महफूज़ कर लिया गया।
राम प्रकाश जी ने नौकरी के दौरान कहीं मकान नहीं बनाया क्योंकि कई बार हुए ट्रांसफर के कारण अंग्रेज़ी मुहावरे के अनुसार उनके पैरों के नीचे घास नहीं उग पायी। उनके कस्बे में उनका पुश्तैनी मकान था जो अब भी उन्हें शरण देने के लायक था। रिटायरमेंट से पहले उनके बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने ठिकाने बनाने के लिए उड़ गये थे और उन्होंने बच्चों के साथ ज़िन्दगी ‘शेयर’ करने के बजाय अपने कस्बे में फैल कर रहने का चुनाव किया था।
नौकरी में रहते हुए उनका अपने कस्बे में आना कम ही हो पाता था। जब तक उनके माता-पिता वहाँ रहे तब तक चार छः महीने में चक्कर लग जाता था। पिताजी की मृत्यु के बाद माँ उन्हीं के साथ रहने लगीं थीं, इसलिए साल में मुश्किल से एक चक्कर लग पाता था। घर की देखभाल के लिए एक सेवक रख छोड़ा था।
जब पिताजी जीवित थे तब रामप्रकाश कस्बे में आते ज़रूर थे, लेकिन उनका आना वैसा ही होता था जिसे ‘फ्लाइंग विज़िट’ कहते हैं। ज़्यादातर वक्त वे घर में ही महदूद रहते थे। घर से बाहर निकल कर कस्बे की सड़कों पर घूमने में उन्हें संकोच लगता था। उनके ओहदे की ऊँचाई कस्बे की गलियों में पैदल घूमने में आड़े आती थी। वे उम्मीद करते थे कि उनके परिचित उनसे मिलने के लिए उनके घर आयें। इसीलिए कस्बे से ताल्लुक बना रहने के बाद भी कस्बा उनके हाथ से फिसलता जा रहा था। अब कार से झाँकने पर दिखने वाले ज़्यादातर चेहरे अजनबी होते थे। कस्बे की सूरत इतनी बदल गयी थी कि उसमें पुराने निशान ढूँढ़ पाना खासा मुश्किल हो गया था।
अपने कस्बे में आने पर वे पुराने साथियों को फोन करके मिलने का आग्रह करते थे और उनके बचपन के तीन चार साथी उनसे मिलने आ जाया करते थे। ज़ाहिर है ये वही साथी होते थे जो किसी न किसी वजह से कस्बे की सीमाएँ नहीं लाँघ पाये थे और वहीं महदूद होकर रह गये थे। दरअसल ये ऐसे साथी थे जिनका पढ़ाई-लिखाई में लद्धड़पन उनके पाँव की बेड़ियाँ बन गया था। इनमें त्रिलोकी अपवाद था जिसके ज़हीन होने के बावजूद उसके पिता ने गर्दन पकड़कर उसे कपड़े की दूकान पर बैठा दिया था। परिवार की इस ज़्यादती के बावजूद वह शिकायत नहीं करता था, लेकिन मायूसी और संजीदगी उसके चेहरे पर साफ पढ़ी जा सकती थी।
एक साथी गोपाल था जिसके परिवार की दवा की दूकान थी। रामप्रकाश गोपाल से घबराते थे क्योंकि उसकी ख़तरनाक आदत बात करते-करते सामने वाले के कंधे या जाँघ पर धौल जमाने की थी। ऐसे मौके पर यदि आसपास उनका ड्राइवर या चपरासी होता तो रामप्रकाश असहज हो जाते। उनकी उपस्थिति से बेफिक्र गोपाल घरहिलाऊ ठहाके लगाता और रामप्रकाश बार-बार पहलू बदलते रहते। अन्य साथी प्रमोद और प्रभुनाथ थे। गोपाल को छोड़कर सभी रामप्रकाश के व्यक्तित्व के सामने दबे दबे रहते क्योंकि उनकी असाधारण सफलता के सामने सभी अपने को पिछड़ा हुआ महसूस करते थे। उन्हें इस बात का गर्व ज़रूर था कि वे इतने सफल और महत्वपूर्ण आदमी के दोस्त थे।
रिटायरमेंट के बाद से रामप्रकाश ने सोच लिया था कि अब कस्बे के पुराने संबंधों को पुख्ता बनाना है क्योंकि अब ये ही लोग उनकी बाकी ज़िन्दगी के हमसफर रहने वाले थे। लेकिन अब मुश्किल यह थी कि अपने घर से बाहर निकलने पर वे पाते थे कि कस्बा उनकी पकड़ से बाहर हो गया है और उससे पहचान बनाने का कोई सिलसिला उन्हें नज़र नहीं आता था। कस्बे की पुरानी खाली ज़मीनें ग़ायब हो गयी थीं और सब तरफ बेतरतीब मकान और दूकानें उग आये थे। पुराने मकान ढूँढ़ पाना ख़ासा मुश्किल हो रहा था। जो पुराने लोग अब मिलते थे उनके चेहरे इतने बदल गये थे कि उनमें पुराना चेहरा ढूँढ़ निकालने के लिए ख़ासी मशक्कत करनी पड़ती थी। लोग पहले की तुलना में बहुत व्यस्त और कारोबारी दिखने लगे थे।
रामप्रकाश अपने घर के आँगन में लेटते तो आकाश का जगमगाता वितान देखकर उनकी आँखें चौंधया जातीं। यह इतना विशाल आकाश अब तक कहाँ था? शहरों में तो मुद्दत से इतना बड़ा आकाश नहीं देखा, या फिर उन्हें ही उस तरफ सर उठाकर देखने की फुरसत नहीं मिली। बड़े शहरों के लोगों को आकाश और ज़्यादा ज़मीन की ज़रूरत महसूस नहीं होती।
कस्बे में आकर रामप्रकाश ने फुरसत से सुबह घूमना भी शुरू कर दिया था। घने पेड़ों से घिरे, भीड़-भाड़ से मुक्त खुले रास्ते थे। चाहे जैसे चलो, कोई टोकने वाला नहीं। तकलीफ यही होती थी कि यहाँ रास्ते में सलाम करने वाला कोई नहीं मिलता था। रामप्रकाश ही पुराने परिचित लोगों को अपनी कैफियत बताकर संबंधों पर जमी धूल साफ करने की कोशिश करते थे। उन्हें साफ लग रहा था कि लोगों से आत्मीयता बनाने में समय लगेगा।
रामप्रकाश ने निश्चय कर लिया था कि अब घर में रोज़ पुराने दोस्तों की महफिल जमाएँगे। कस्बे में आते ही उन्होंने पुराने दोस्तों से संपर्क करना भी शुरू कर दिया था। दिक्कत यही थी कि टेलीफोन पर जवाब नहीं मिल रहा था। एक त्रिलोकी से ही बात हुई थी और वे बात होने के दूसरे दिन मिलने भी आ गये थे। रामप्रकाश को गोपाल की शिद्दत से याद आ रही थी। अब उसके धौल-धप्पे से बचने की ज़रूरत नहीं थी। त्रिलोकी से मिलते ही उन्होंने गोपाल के बारे में पूछा।
त्रिलोकी ने उनके मुँह की तरफ देख कर जवाब दिया, ‘उसे मरे तो साल भर हो गया। तगड़ा हार्ट अटैक आया था। आधे घंटे में सब खतम हो गया।’
रामप्रकाश ने सुना तो हतप्रभ रह गये। उनका सारा शीराज़ा बिखर गया। कस्बे में सुकून से ज़िन्दगी काटने के समीकरण गड़बड़ हो गये। हसरत जागी कि काश, पहले गोपाल का हाल-चाल लिया होता!
बुझे मन से प्रमोद और प्रभुनाथ के बारे में पूछा। त्रिलोकी ने बताया, ‘प्रमोद भोपाल चला गया। बड़े बेटे ने वहाँ बिज़नेस जमा लिया है। वह बाप का खयाल रखता है। छोटा बेटा यहाँ है।
‘प्रभुनाथ तीन चार महीने पहले स्कूटर से गिर गया था। सिर में चोट लगी थी। तब से दिमागी हालत ठीक नहीं है। बात करते करते बहक जाता है। इसीलिए घर से बाहर कम निकलता है। इलाज चल रहा है।’
रामप्रकाश का सारा प्लान चौपट हो रहा था। अब यहाँ नये सिरे से संबंध बनाना कैसे संभव होगा? स्थिति जटिल हो गयी थी। उनकी पुरानी दुनिया ने उनसे हाथ छुड़ा लिया था और यह नयी दुनिया इसलिए अपरिचित हो गयी थी कि उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की थी।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈