हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 263 ☆ कथा-कहानी – संकट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक मनोवैज्ञानिक कथा  – ‘संकट । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 263 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ संकट

वह पचास का नोट चंपालाल की जेब में किसी गोजर जैसा सरसराता था। किसी भी वक्त वह उसकी उपस्थिति को भूल नहीं पाता था। उसे अपने बचपन की एक घटना याद आती थी। उसके गांव के ज़मीदार साहब गांव के किसी भी व्यक्ति की जेब में बिच्छू छुड़वा दिया करते थे और फिर उसकी बदहवासी देखकर हंसते-हंसते बेहाल हो जाते थे। उनके मज़ाक का शिकार न हंस सकता था, न रो सकता था। वह पचास का नोट भी चंपालाल की जेब में बिच्छू जैसा रेंगता था।

वह नोट उसे पिछले दिन एक शराबी ने पकड़ा दिया था। जब वह सवारी के इंतज़ार में मालवीय चौक पर अपने रिक्शे की सीट पर बैठा था, तभी वह शराबी जाने कहां से आकर धप से रिक्शे पर बैठ गया था। बैठते ही वह सीट पर फैल गया था। उसके बैठने का ढंग उसकी हालत को ज़ाहिर करता था। बैठकर अधखुली आंखों से शून्य  में ताकते हुए वह अस्फुट स्वर में बोला, ‘चल’।

चंपालाल ने पूछा, ‘कहां?’

लेकिन शराबी को उसकी बात से कोई गरज़ नहीं थी। वह आंखें बन्द किये थोड़ी देर चुप बैठा रहा, फिर आधी आंखें खोलकर दुबारा कुछ गुस्से से बोला ‘चल’।

परेशानी में चंपालाल ने सामने की तरफ रिक्शा बढ़ा दिया। वह धीरे-धीरे रिक्शा चलाता रहा। थोड़ी दूर चलकर वह रुकता और पूछता, ‘अब किधर चलूं ?’ और शराबी थोड़ी आंखें खोलकर जवाब देता, ‘आगे चल’।

इसी तरह वह करीब आधे घंटे तक सड़कों पर भटकता रहा। एक जगह रिक्शा रोकने पर शराबी ने आंखें खोलकर आसपास गौर से देखा और बोला, ‘यह कहां ले आया? मिलौनीगंज चल।’

संकेत पाकर चंपालाल ने रिक्शा मिलौनीगंज की तरफ बढ़ा दिया। एक जगह शराबी बोला, ‘रोक!’ और वह लड़खड़ाता हुआ उतर गया। उतरकर वह दो मिनट तक अपनी जेबों में हाथ ठूंसता रहा, इसके बाद उसने वह पचास रुपये का मुड़ा-तुड़ा नोट उसके हाथ में पकड़ा दिया।

बिजली के खंभे की रोशनी में चंपालाल ने वह नोट खोलकर देखा। देखकर उसका खून सूख गया। नोट गन्दा तो था ही, बीच में आधी दूर तक फटा था ।साक्षात मुसीबत। उसने शराबी की तरफ देखा। वह आंखें बन्द किये, टांगें पसारे, सामने वाले खंभे के नीचे बैठा था। वह उसके पास तक गया, उसे कंधे से हिलाया। शराबी ने आधी आंखें खोलीं। चंपालाल बोला, ‘यह नोट फटा है।’ शराबी ने ‘हूं’ कह कर फिर आंखें बन्द कर लीं।

तभी एक घर का दरवाज़ा खोलकर एक नौजवान निकला। चंपालाल ने उसे नोट दिखाया, कहा, ‘देखो, इन्होंने यह फटा नोट दिया है। अब कुछ बोल नहीं रहे हैं।’

नौजवान हंसा, बोला, ‘जो मिल गया उसे गनीमत समझो। भीतर गली में इनका घर है। वहां शिकायत करने जाओगे तो यह नोट भी छिन जाएगा। भला चाहते हो तो फौरन बढ़ जाओ।’

चंपालाल रिक्शा लेकर बढ़ गया, लेकिन वह नोट उसकी जेब में कांटे जैसा चुभने लगा। दिन भर में तीन चार सौ रुपये की आमदनी होती थी। उसमें से अगर पचास का नोट बट्टे-खाते में चला जाए तो कमाई का बड़ा हिस्सा बराबर हो गया। वह नोट उसके दिमाग पर बैठ गया। उसका सारा चैन खत्म हो गया।

उसे रास्ता चलना दूभर हो गया। पहले तो उसने कोशिश की कि नोट को किसी सवारी पर ही थोप दे। वह इसी चक्कर में था कि कोई सवारी उसे सौ या दो सौ का नोट दे और वह उसे बाकी के रूप में वह  पचास का नोट थमा दे। लेकिन उसकी मंशा पूरी नहीं हुई। दो सवारियां मिलीं, लेकिन दोनों ने उसे फुटकर रुपये ही थमाये। वह नोट जैसे उसके पास रहने की कसम खाये था।

एक जगह उसने बीड़ी का बंडल खरीदा और उस नोट को मोड़कर दुकानदार की तरफ बढ़ा दिया। वह ऊपर से लापरवाही का भाव दिखा रहा था, लेकिन उसका दिल धड़क रहा था। दुकानदार ने नोट को गुल्लक में फेंकने के बजाय उसे खोलकर गौर से देखा, फिर उसे चंपालाल की तरफ बढ़ा दिया। बोला, ‘इसेअपने पास रखो।’ चंपालाल ने थोड़ा आश्चर्यचकित होने का अभिनय किया, फिर उसे झख मार कर दूसरा नोट देना पड़ा। मन-ही-मन उसने दुकानदार को एक अंतरंग गाली दी।

वह घर की तरफ चल दिया, लेकिन उस नोट ने उसके सोच को एक ही दिशा में ला पटका था। वह सारे वक्त इसी उधेड़बुन में लगा था कि कैसे उससे छुटकारा पाये। आसपास की चीज़ें  और दृश्य उसके मन पर कोई छाप नहीं छोड़ रहे थे।

घर पहुंच कर वह रिक्शा खड़ा करके अनमने भाव से खटिया पर बैठ गया। उसके पहुंचने पर घर में उल्लास का वातावरण छा जाता था क्योंकि उसकी रोज़ की कमाई पर ही गृहस्थी की गाड़ी लुढ़कती थी। पांच साल की उसकी बच्ची उसकी गोद में चढ़ गयी और कुछ पाने की आशा में उसकी जेबें टटोलने लगी। लेकिन चंपालाल को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। उसने खीझकर बच्ची को गोद से उतार दिया और बच्ची उसकी मन:स्थिति को समझ कर उदास होकर मां की गोद में मुंह छिपाकर लेट गयी।

घर पहुंच कर चंपालाल ने सबसे पहले पत्नी से दूसरे दिन के लिए खरीदी जाने वाली चीज़ों के बारे में पूछा। कारण वही था— उस नोट से पिंड छुड़ाना।

वह नुक्कड़ वाले सिंधी की दुकान पर पहुंचा। वहां तीन ग्राहक उपस्थित थे। चंपालाल चुपचाप उनके पीछे खड़ा हो गया। ग्राहक  सौदा लेते रहे। सभी उसी मोहल्ले के थे। उसने देखा कि शर्मा जी ने कुछ सामान लेकर सिंधी को सौ का नोट दिया। नोट एकदम खस्ताहाल था। सिंधी ने उसे बल्ब की रोशनी में देखा, फिर हंस कर बोला, ‘इसकी हालत तो खराब है, साहब।’

शर्मा चतुराई से हंसा, बोला, ‘रखो,रखो। निकल जाएगा। न चले तो कल हमको देना।’

सिंधी ने एक क्षण सोचकर नोट गुल्लक में फेंक दिया और बाकी पैसे निकाल कर शर्मा को दे दिये। इस दृश्य से चंपालाल को कुछ ढाढ़स हुआ।

 

 

जब उसका नंबर आया तो उसने रोज़ की अपनी मांग बता दी। सिंधी तटस्थ भाव से सामान तौलने लगा और चंपालाल का दिल धड़कने  लगा। सिंधी ने सामान काउंटर पर रख दिया। चंपालाल  ने वह नोट दूसरे नोटों से अलग  करके पहले से ही हाथ में ले रखा था ताकि सिंधी को दूसरे नोट न दिखें। उसने लापरवाही से नोट सिंधी की तरफ बढ़ाया। सिंधी ने नोट का कोना पड़कर उसे मरे चूहे की तरह ऊपर उठाया और उसी तरह उसे चंपालाल की तरफ बढ़ा दिया। व्यंग्य से बोला, ‘इतना बढ़िया नोट कहां से ढूंढ़ कर लाये? इसे संभाल कर रखो।’

चंपालाल को शर्मा का वाक्य याद था। बोला, ‘रख लो साईं, न चले तो हमको दे देना।’

सिंधी ने हाथ को और लंबा करके नोट  बिलकुल उसकी छाती तक पहुंचा दिया। बोला, ‘हां हां,जानता हूं, तू बड़ा धन्नासेठ है। तेरे पास तो नोटों का ढेर लगा है। दूसरा नोट दे, नहीं तो अपना रास्ता पकड़।’

चंपालाल ने मरे मन से दूसरा नोट निकाला और सामान उठाकर घर लौट आया। उस रात उसे रोटी  बेस्वाद लगी। वह नोट उसके हर क्षण को कुतर रहा था।

बिस्तर पर बड़ी देर तक वह इसी उधेड़बुन में लगा रहा कि उस नोट से कैसे मुक्ति पायी जाए। फिर उसे नींद लग गयी। नींद में उसने देखा कि सिंधी ने उसका नोट बड़ी खुशी से ले लिया है और वह सामान लेकर खुश-खुश घर लौट रहा है। उसका मन प्रसन्न हो गया। जब उसकी नींद खुली तो थोड़ी देर तक वही भ्रम बना रहा। लेकिन बहुत जल्दी वह समझ गया कि वह केवल सपना था, और हकीकत अपनी जगह कायम  थी।

सवेरे उसकी चिंता कुछ कम हो गयी। उसने स्थिति से समझौता कर लिया और सोच लिया कि परेशान होने से कोई लाभ नहीं है, नोट देर-सवेर निकल ही जाएगा। लेकिन वह उस तरफ से निश्चिंत नहीं हुआ था। वह अब भी नोट से मुक्त होने के लिए सजग था।

दूसरे दिन उसने दो बार उस नोट से मुक्ति पाने की कोशिश की, लेकिन दोनों बार असफल रहा। वह समझ गया कि नोट के साथ-साथ कुछ दोष उसकी स्थिति का भी था। उसने कई सफेदपोशों को उसी तरह के नोटों का आराम से विनिमय करते देखा था। उसे दिक्कत इसलिए हो रही थी कि उसकी कोई साख नहीं थी, न ही वह किसी दुकान का बड़ा और बंधा ग्राहक था।

वह नोट उसी तरह उसके पुराने पर्स में बैठा रहा। चंपालाल जब पैसे रखने या निकालने के लिए पर्स खोलता तो उसे देखकर बुदबुदाता, ‘बैठे रहो बेटा। मेरा पीछा मत छोड़ना। हओ?’

 

 

शाम को जब वह अपने मोहल्ले के चौराहे पर सवारी के इंतज़ार में खड़ा था तभी उसे दूर से दीपक आता दिखा। सफेद  झक कुर्ता और अलीगढ़ी पायजामा। दीपक मोहल्ले के ठेकेदार प्रीतम सिंह का इकलौता बेटा था। वह ऊंचा पूरा,गौरवर्ण, सुन्दर युवक था। कामकाज के प्रति उसकी अरुचि थी और इसलिए बाप कुछ परेशान रहता था। लेकिन दीपक निश्चिंत था। उसके  हाथ में हमेशा सिगरेट होती थी और ओठों के कोनों में पान की लाली। उसका ज़्यादातर वक्त कॉफी हाउस, होटलों और पान की दुकानों में गुज़रता था।

शाम को मोहल्ले के किसी परिचित रिक्शे पर बैठकर किसी तरफ निकल पड़ना दीपक के शौकों में से एक था। रिक्शे पर बैठकर वह अपनी प्रिय दुकानों का चक्कर लगा आता था। बीच में दोस्तों-परिचितों के मिलने पर रिक्शा  रुकवा लेता और आराम से बातें करता रहता। रिक्शेवाले को शिकायत नहीं होती थी क्योंकि वह मज़दूरी आशा से ज़्यादा देता था। इसके अलावा वह रिक्शेवाले को चाय, पान और सिगरेट में अपना साथी बना लेता। इसलिए मोहल्ले के रिक्शेवाले उससे खुश रहते थे।

रिक्शे पर चलते हुए दीपक रिक्शेवाले से बेतकल्लुफी से बातें करता रहता। अक्सर उसकी बात स्वगत भाषण जैसी होती। एक बात वह अक्सर कहता, ‘बाप को बड़ी शिकायत है कि मैं कुछ करता धरता नहीं। लेकिन मैं क्यों करूं, भई? बाप ने इतना कमा लिया है कि दो-तीन पीढ़ियों का काम बिना कमाये चल सकता है। घर में कोई खर्च करने वाला भी तो चाहिए। बोलो भई, ठीक कहा न?’

रिक्शेवाला उसकी मज़ेदार बातें सुनकर प्रसन्न होकर सहमति में सिर हिलाता।

उस शाम सौभाग्य से दीपक चंपालाल के रिक्शे पर आकर जम गया। चंपालाल खुश हो गया। दीपक के अड्डे सब रिक्शेवालों को मालूम थे। चंपालाल उसे लेकर करीब डेढ़ घंटे तक घूमता रहा और उसकी बातों और व्यवहार का मज़ा लेता रहा।

लौटने पर उतरते वक्त दीपक ने चंपालाल को दो सौ का नोट देकर दाहिना हाथ उठा दिया। मतलब— सारा रख लो, कुछ लौटाने की ज़रूरत नहीं है। चंपालाल के ओठों पर हल्की मुस्कान आ गयी।

दीपक रिक्शे से उतर कर चला और चंपालाल ने दो सौ का नोट रखने के लिए जेब से निकाल कर पर्स खोला। पर्स खोलते ही उसे उस संकटकारक पचास के नोट का कोना दिखा। उसके दिमाग़ में एक विचार आया।

दीपक को आवाज़ देकर वह बोला, ‘भैया, थोड़ा काम था।’

दीपक घूम कर खड़ा हो गया। इत्मीनान से बोला, ‘बोलो यार।’

चंपालाल ने वह नोट उसे दिखाया, फिर बोला, ‘यह नोट एक दारूखोर ने दे दिया। अब इसे कोई लेता नहीं। यह  आफत गले पड़ गयी है। आप तो बैंक वैंक जाते रहते हो। इसे बदलवा दो।’

दीपक ने नोट की तरफ देख कर बिना कुछ बोले अपनी जेब से पर्स निकाल कर एक पचास का नोट चंपालाल की तरफ बढ़ा दिया। इसके बाद उसने वह फटा नोट अपने हाथ में लेकर उसे उलटा पलटा। दूसरे क्षण उसने उस नोट के चार टुकड़े किये और उन्हें ज़मीन पर फेंक दिया। इसके बाद वह मुड़कर आराम से चल दिया।

चंपालाल सकते की हालत में खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – उसके रहने से – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– उसके रहने से –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — उसके रहने से — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

मैं एक दिन विश्व व्यापी शब्द स्रष्टा की कल्पना कर रहा था। बड़ा मन भावन लग रहा था। शब्द स्रष्टा ने अपनी एक निराशा के कारण भगवान से कहा, “मुझे ले चल भगवन।” भगवान ने कहा, “शब्द स्रष्टा के चले जाने से सृष्टि उदास हो जायेगी।” शब्द स्रष्टा यह सुनने पर संभल गया। वह गया नहीं। सचमुच उसके रहने से आज भी धरती और आकाश के आंगन हरे भरे हैं।
***
© श्री रामदेव धुरंधर
30 – 10 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 45 – खोकर पाया…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खोकर पाया।)

☆ लघुकथा # 45 – खोकर पाया श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

 मां तुम कैसी हो कन्या खिलाना हो गया क्या-क्या बनाया तुम्हारे हाथ की खीर पुरी और सब्जी तो लाजवाब रहती है आज भी स्वाद मुझे याद आ रहा है। भाई भाभी यदि गुस्सा ना हो तो मैं आ जाऊं क्या है तुम कुछ बोल नहीं रही हो?  कमल जी से सकते लग गई और उनकी आंखों से आंसू गिर रहा था बेटी ने सिसकी की आवाज सुनकर कहां मां क्या बात है तुम रो क्यों रही हो?  क्या भैया ने कन्या खिलाने के लिए पैसे नहीं दिए या मन कर दिया कोई दिक्कत है तो बताओ मैं आता हूं हम मंदिर चलेंगे?  बेटा मुझे सुबह 5:00 से अरुण मंदिर में छोड़कर चला गया और बोला मैं आऊंगा और पैसे दूंगा और यही तुम कन्या भोजन करना पंडित जी को तो हर नवरात्रि में हर साल बुलाती थी अब इस साल वही कन्या भोजन कारण और ऐसा कहकर वह चला गया गुस्से से और मेरा सारा सा मेरी दो अटैची भर के कपड़े भी यही रखकर चला गया बेटा।  मैं पंडित जी के पास गई पर पंडित जी ने भी मना कर दिया यहां रहने से और बोला कि मेरी बहन बहुत व्यस्त आए हैं आप अपने रहने की व्यवस्था कहीं और कर ले मुसीबत में किसी ने मेरा साथ नहीं दिया मैं जीवन से हार कर रोती हुई मंदिर की सीढ़िया में बैठी हूं। आज बेटा अपने पास बैठे भिखारी भी मुझे अमीर दिख रहे हैं सब अपने बच्चे और परिवार के साथ खुश है।  माता रानी की इतनी सालों की सेवा का मुझे यह पुण्य मिला है।  मां तुम चिंता मत करो तुम क्या उसी पुराने वाले अंबे मंदिर में हो मैं अभी आता हूं। कमल जी की बेटी माधुरी 1 घंटे बाद अपनी मां के पास पहुंचती है।  उनकी रो-रोकर सूजी आंखें देखकर वह मां को ऑटो रिक्शा में बैठने को बोलती। अचानक बा रोते हुए बोलती है बेटी रहने दो मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो हर किसी को अपने कर्म का दंड भोगना पड़ता है मैं भी अपने कर्म का दंड भोगूंगी । जब पिताजी घर और दुकान तुम्हारे भाई को दे रहे थे तब मुझे भी तुम्हें आधा हिस्सा देना चाहिए सब उसके हाथ पर सौंप दिया पिताजी के जाने के बाद तो उसके रंग-ढंग बदल गए घर कि मुझे नौकरानी बना के रखा कभी किसी से कुछ नहीं कहा लेकिन अब तो बेटा हद हो गई है अब अपने ही घर से मैं निकाल दी गई एक नौकर की तरह है आप किस मुंह से तुम्हारे और दामाद जी के पास जाऊं आज मुझे जीवन का असली जीवन का ज्ञान सब कुछ खोकर ही पाया …. और उनकी आंखों से आंसू बहने लगता है।

तब बेटी ने कहा मां कोई बात नहीं तुमने मुझे यह जाट में हिस्सा नहीं दिया तो क्या हुआ परवरिश तो तुमने ध्यान से की अब तुम सामाजिक सोच के कारण मजबूर रहोगे लेकिन मां बाप को पालने की जिम्मेदारी तो हम दोनों की है यदि भाई नहीं बोल देख रहा है तो क्या मैं भी उसकी तरह हो जाऊं और तुम्हारा आशीर्वाद से भगवान ने मुझे सब कुछ दिया है तुमने मुझे शिक्षा तो दी है ना मेरे लिए वही बहुत है अब तुम किसी बात की चिंता मत करो और मां का सामान अपने ऑटो रिक्शा में रखती है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – धनतेरस ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – लघुकथा – धनतेरस ??

इस बार भी धनतेरस पर चाँदी का सिक्का खरीदने से अधिक का बजट नहीं बचा था उसके पास। ट्रैफिक के चलते सिटी बस ने उसके घर से बाजार की 20 मिनट की दूरी 45 मिनट में पूरी की। बाजार में इतनी भीड़ कि पैर रखने को भी जगह नहीं। अलबत्ता भारतीय समाज की विशेषता है कि पैर रखने की जगह न बची होने पर भी हरेक को पैर टिकाना मयस्सर हो ही जाता है।

भीड़ की रेलमपेल ऐसी कि दुकान, सड़क और फुटपाथ में कोई अंतर नहीं बचा था। चौपहिया, दुपहिया, दोपाये, चौपाये सभी भीड़ का हिस्सा। साधक, अध्यात्म में वर्णित आरंभ और अंत का प्रत्यक्ष सम्मिलन यहाँ देख सकते थे।

….उसके विचार और व्यवहार का सम्मिलन कब होगा? हर वर्ष सोचता कुछ और…और खरीदता वही चाँदी का सिक्का। कब बदलेगा समय? विचारों में मग्न चला जा रहा था कि सामने फुटपाथ की रेलिंग को सटकर बैठी भिखारिन और उसके दो बच्चों की कातर आँखों ने रोक लिया। …खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।..गौर से देखा तो उसका पति भी पास ही हाथ से खींचे जानेवाली एक पटरे को साथ लिए पड़ा था। पैर नहीं थे उसके। माज़रा समझ में आ गया। भिखारिन अपने आदमी को पटरे पर बैठाकर उसे खींचते हुए दर-दर रोटी जुटाती होगी। आज भीड़ में फँसी पड़ी है। अपना चलना ही मुश्किल है तो पटरे के लिए कहाँ जगह बनेगी?

…खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।…स्वर की कातरता बढ़ गई थी।..पर उसके पास तो केवल सिक्का खरीदने भर का पैसा है। धनतेरस जैसा त्योहार सूना थोड़े ही छोड़ा जा सकता है।…वह चल पड़ा। दो-चार कदम ही उठा पाया क्योंकि भिखारिन की दुर्दशा, बच्चों की टकटकी लगी उम्मीद और स्वर में समाई याचना ने उसके पैरों में लोहे की मोटी सांकल बाँध दी थी। आदमी दुनिया से लोहा ले लेता है पर खुदका प्रतिरोध नहीं कर पाता।

पास के होटल से उसने चार लोगों के लिए भोजन पैक कराया और ले जाकर पैकेट भिखारिन के आगे धर दिया।

अब जेब खाली था। चाँदी का सिक्का लिए बिना घर लौटा। अगली सुबह पत्नी ने बताया कि बीती रात सपने में उसे चाँदी की लक्ष्मी जी दिखीं।

🙏 शुभ धन त्रयोदशी। 🙏

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 4:56 बजे, 25.10.2019 (धनतेरस)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 दीपावली निमित्त श्री लक्ष्मी-नारायण साधना,आश्विन पूर्णिमा (गुरुवार 17 अक्टूबर) को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी (मंगलवार 29 अक्टूबर) तक चलेगी 💥

🕉️ इस साधना का मंत्र होगा- ॐ लक्ष्मी नारायण नम: 🕉️ 

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – दुख का गणित – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– दुख का गणित  –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — दुख का गणित — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

निःसंतान बूढ़े पति – पत्नी अकसर रमी खेला करते थे। बीच – बीच में वे जान – बूझ कर हारते थे। एक दूसरे की खुशी के लिए वे ऐसा करते थे। पर ताश के पत्तों में जीत क्या, हार क्या ! वास्तव में दुख में होने से तो दुख ही अपने को दोहराता था। वे कभी – कभी दुख की भाषा में आपस में बोल लेते थे, “कम से कम एक संतान ने हमारा घर चुना तो होता !”
***
© श्री रामदेव धुरंधर

17 – 10 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा ☆ मौका पर चौका ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय लघुकथा – मौका पर चौका)

? लघुकथा ☆  मौका पर चौका ☆ श्री सुरेश पटवा ?

अनिरुद्ध सिंह पिछले तीन बार से पार्षद का चुनाव जीत रहे हैं, और हाई कमान के दरबार में लगातार विधायकी की अर्जी लगाते रहे हैं, लेकिन हर बार ख़ारिज हो जाती है। तीन महीने बाद चुनाव होने हैं।

उनकी पत्नी गौरांगी शिक्षा विभाग में उप-संचालक हैं। अनिरुद्ध सिंह अच्छी खासी कमाई कर लेते हैं। इस बार पार्टी फण्ड को भी सरसब्ज़ किया है। कुछ उम्मीद बंधी है। पत्नी ने दूध गर्म करके बैठक में इनके सामने तपीली रखते हुए कहा ‘आप तो पूरे समय मोबाइल पर बातों में उलझे रहते हैं, इतने व्यस्त तो प्रधानमंत्री भी नहीं रहते होंगे।’

अनिरुद्ध ने मोबाइल कान से हटा कर खीझते हुए पूछा ‘क्या करना है, ये बताओ जल्दी?’

गौराँगी तेजी से गाड़ी में बैठते हुए बोलीं – ‘सुनो, दूध अभी गरम है, ठंडा हो जाए तो फ्रिज में रख देना, नहीं तो बिल्ली चट कर जाएगी।’

गौरांगी के जाते ही, अनिरुद्ध ने मोबाइल कान से सटाकर बोलना शुरू किया – ‘हाँ भाई, अब बोलो, कौन है, कहाँ मिला है, बरामदी में क्या निकला है?’

तभी एक बिल्ली खिड़की की जाली खोलकर अंदर झांकने लगी। अनिरुद्ध ने उसे घूरकर देखा। हाथ से भगाने की कोशिश की, पर वह लगातार पतीली की तरफ़ देखे जा रही थी। उसी समय इत्तफ़ाक़ से एक मोटा चूहा उसके बाजू से निकला।

अनिरुद्ध मोबाइल पर बोले जा रहे हैं – ‘हाँ, तो यह वही है जो हमारे इलाक़े में नदी घाट से मछली मार कर ले जाता है। परंतु यह बताओ, उसकी मोटर साइकिल से प्रतिबंधित मांस निकला है, यह कैसे सिद्ध होगा।’

तभी बिल्ली दूध की पतीली से नज़र हटा चूहे की तरफ़ तेज़ी से झपटी और उसे पंजे में जकड़ लिया। अनिरुद्ध बिल्ली की तरफ़ से निश्चिंत हो गए।

अनिरुद्ध – ‘हाँ, तुम्हारा कहना सही है कि आरोप सिद्ध होने से हमें क्या लेना-देना। उसमें सालों लग जाएँगे। हमारा मतलब तो सिद्ध हो जाएगा। तुम एक काम करो, उसे रामप्रसाद चौराहे पर मय सबूतों के पहुँचो, हम पत्रकारों को लेकर आधा घंटा में वहीं मिलते हैं।

अगले दिन ख़ास-ख़ास अख़बारों में ख़बर थी ‘शहर के व्यस्त चौराहे पर प्रतिबंधित मांस सहित एक युवक गिरफ़्तार हुआ। बस्ती के सजग नागरिकों ने उसकी मरम्मत करके, पुलिस के हवाले कर दिया। सूत्रों के मुताबिक़ पुलिस तफ़तीस करके सबूत सहित कोर्ट में मुचलका पेश कर आरोपित की पुलिस कस्टडी लेगी।’

अनिरुद्ध मोबाइल को एक तरफ़ फेंक, सोफे पर पसर दार्शनिक मुद्रा में छत को निहारते हुए खुद से बोले, ‘साला, बिल्ली तक शिकार का मजा लेने को पतीली की सतह पर ज़मी दूध मलाई छोड़ देती है।’ वे छत पर एक छिपकली को कीड़े की घात लगाये देख रहे थे।

उसी समय मोबाइल की रिंग बजी। अनिरुद्ध को पार्टी मुख्यालय से खबर मिली कि ‘उन्हें दक्षिण क्षेत्र से विधायक की टिकट मिल गई है, मुकाबला चुनौतीपूर्ण होगा, तैयारी में ढील न हो।,

तभी अनिरुद्ध ने निर्निमेष दृष्टि से छत पर देखा, छिपकली ने गर्दन उठाकर एक झटके में कीड़े को निगल अपनी क्षुधा शांत कर ली।

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #191 – कहानी – “बाबा का घर” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कहानी  “बाबा का घर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 191 ☆

कहानी — बाबा का घर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

दीनानाथ अपने दोस्त केशवराम के घर आए हुए थे. उसी समय केशवराम अपने मकान के कागज पर हस्ताक्षर कर रहे थे. यह देख कर दीनानाथ कुर्सी से उठ बैठे. केशवराम के पास पहुंच गए. तुरंत हाथ पकड़ कर बोले, ” केशव ! भूल कर हस्ताक्षर मत करना.”

यह सुन कर केशवराम का पेन हाथ में रूक गया, ” अरे भाई ! क्या हुआ ? ” उन्हों ने दीनानाथ की आंखों में बरसती चिंगारी देख कर कहा,  ” ये सब संपत्ति इन्हीं की है. आज नहीं रो कल इन्ही के पास जाना है. फिर .. ”

” ना भाई ना ! जिदंगी में भूल कर ऐसा मत करना, ”  कहते हुए दीनानाथ ने हाथ से कागज और कलम छीन ली,  ” अन्यथा तूझे भी मेरी तरह अनाथ आश्रम में दिन काटना पड़ेंगे,” यह कहते हए उन की आंखों से आंसू निकल पड़े.

पास ही योगेश खड़ा था. उस ने दीनानाथ को पकड़ कर बिस्तर पर बैठाया. फिर उन से कहा, ” अरे बाबा ! सभी तो आप गिर जाते .” कहते हुए योगेश सीधा खड़ा हो गया.

” मुझे हाथ मत लगा योगेश, ” दीनानाथ ने कहा,  ” सभी बेटे एक जैसे होते हैं. शुरूशुरू में ऐसी ही बातें करते हैं.”

इस पर दूर खड़ी कोमलांगी से रहा नहीं गया. वह बोली, ”  बाबा ! आप गलत सोच रहे हैं. वह बात नहीं है….”  उस ने कुछ कहना चाहा कि दीनानाथ बीच में ही बोले, ”  मुझे पता है कि बात क्या है,”  कहने के साथ उन्हों ने केशवराम को देख कर कहा,  ” भाभीजी नहीं दिख रही है. यदि वे होती तो ….”

योगेश ने आगे बात बढ़ाना ठीक नहीं समझा. उस ने अपनी पत्नी से कहा, ”  कोमल ! बाबा के लिए चाय बना ला.”  वह नहीं चाहता था कि बात का बतंगड बने. बिना बात के कोमलांगी दीनानाथ से उलझ पड़े. 

कोमलांगी उठी. चाय बनाने चली गई. योगेश ने वहां रूकना उचित नहीं समझा. वह पत्नी के पीछे चल दिया, ” मैं पानी ले कर आता हूं बाबा .”

उस के जाते ही दीनानाथ ने कहा, ” केशव ! तूझे मेरी कसम. कभी इन के चारे मत लगना. नहीं तो तूझे भी मेरी तरह अनाथ आश्रम में शरण लेनी पडेगी,” कहते हुए व्यथित मन से दीनानाथ चले गए.

वे बहुत दुखी थे. उन के दिल में समाए घाव हरे हो गए थे. उन के मन में एक ही वाक्य निकला- सभी औलादें ऐसी ही होती है. जो जन्म देता है उसे ही दुत्कार कर भगा देती है.

तभी उन के मन ने कहा. वे गलत हो सकते हैं. जो सोच रहे हैं वह सही हो जरुरी नहीं है. . यह भी जरूरी नहीं कि सब औलादें ऐसी हो. मगर  नहीं,  उन का मन इस बात की गवाही नहीं दे रहा था. योगेश भला लड़का होगा. वे भी उस की तरह अपने पिता को आश्रम में भेज देगा .

नहींनहीं. केशव ऐसी गलती नहीं करेगा. वह मेरी बात मानेगा. बिना सोचेसमझे कागज़ पर हस्ताक्षर नहीं करेगा.

मगर,  वह अपनी औलाद के विरूद्ध कैसे जा सकता हैं. औलाद चाहेगी तो उसे दस्तखत करना पड़ेंगे. तब उस की कसम भी कोई मायने नहीं रखेगी . फिर जरूरी नहीं है कि सब ओलादें एक जैसी ही हो. यह सोचते हुए वे अनाथालय के दरवाजे तक आ गए.

” क्या हुआ काका ! आज चुपचाप चले जा रहे हो ? कोई रामराम और श्यामश्याम नहीं की. ” गेट के दरवाजे पर बैठे रामूकाका ने जोर से आवाज दी.

दीनानाथ स्वभाव के विरुद्ध चुपचाप अन्दर जा रहे थे.

” कुछ नहीं भाई,”  दीनानाथ ने बिना रूके ही कहा, ” आज मुड़ ठीक नहीं है.” कह कर वे सीधे अपने कमरे में चले गए. बिस्तर के पास एक आराम कुर्सी पड़ी थी. उस पर बैठ गए. मन में विचारों का तूफान उमड़ने लगा.

यह उन का दोष नहीं है. कहीं दूर बैठा हुआ दिमाग बोला. जिस की आवाज सुन कर वे चौंक उठे.

” क्या कहा ?” वे स्वयं से बोल उठे.

यही कि यह करीयुग है. करों ओर भरो. भूल गए. एक अनजान आवाज ने उन्हें टोका. वह शायद उन के अंदर से आ रही थी. जो जैसा करता है वैसा भरता है. यदि तुम अपने पिता की सेवा नहीं करोगे तो पुत्र आप की सेवा नहीं करेगा.

नहींनहीं ! वह मेरा दोष नहीं था. वे विचारमग्न हो गए. मेरी पत्नी से मेरी मां की लड़ाई होती रहती थी. उन के बीच बनी नहीं. बस उसी से बचने के लिए मैं ने अलग घर ले लिया था. उन की सेवा तो करना चाहता था. मगर, सेवा कर नहीं पाया.

पत्नी नहीं जाने देना चाहती थी. इस वजह से. अन्यथा मैं तो मातापिता को चाहता था. उस के अंतर्मन ने उसे कचोटा. वह उस का विरोध करने लगा.

इस तरह बहुत देर तक विचारों के प्रवाह में वह गोते लगाते रहे . उन्हें कब नींद आ गई. पता ही नहीं चला.

यह बात बीते एक वर्ष हो गया था. वे भूल चुके थे. उन का कोई दोस्त था केशवराम . वे  दोबार उस के घर गए. किसी से पता चला कि वे घर बेच कर जा चुके थे. दीनानाथ ने अनुमान लगा लिया. केशवराम ने उस की बात नहीं मानी. उस ने संपत्ति के कागज पर हस्ताक्षर कर लिए.

योगेश ने संपत्ति बेच दी होगी. इसलिए वे दूसरे जगह चले गए. केशवराम उसे मिलना नहीं चाहता था. वह किस मुंह से उस के पास आता,  इसलिए वह दूसरी जगह चला गया होगा. यह सोच कर उन्हों ने धीरेधीरे केशवराम को भूला दिया.

अचानक दो साल बाद,  एक दिन दरवाजे पर एक गाड़ी आ कर रूकी. उस में से एक बूढ़ा व्यक्ति उतरा . वह सीधा उन्हीं की ओर चला आ रहा था. सफेद धोतीकुर्ता और हाथ में छड़ी लिए उसी चाल से चल रहा था. उस ने बड़ी ध्यान से देखा. चेहरा पहचाना हुआ लगा रहा था.

पास आने पर मालुम हुआ, ” अरे केशव ! तू,” वह चौंक कर खड़ा हो गया.

” हां दीनानाथ मैं ! ” केशवराम ने उन के कधे पर हाथ रख कर कहा,” तू ने ठीक कहा था. आजकल की औलादें ठीक नहीं होती है.”

” क्या ! ” दीनानाथ ने कहा, ” आखिर तूझे मेरी बात समझ में आ गई.”

” हां यार,” केशवराम ने कहा, ” इसीलिए तूझे लेने आया हूं. तेरी भाभी तूझे बहुत याद कर रही है. कहती है कि दीनानाथ को बुला लाओ.”

” क्या !” दीनानाथ ने चकित होते हुए कहा, ” मैं तो समझा ​था कि भाभी…”

” वह अभी जिंदा है,”  केशवराम ने कहा ओर दीनानाथ का हाथ पकड़ कर वह कार की ओर खींच लाया. दोनों गाड़ी में बैठे. गाड़ी चल दी.

”यार ! ये गाड़ी !”

” इस के मालिक की है,”  केशवराम ने कहा, ” तू सही कहता था औलादें अच्छी ….”

”… नहीं होती है,” दीनानाथ ने केशवराम की बात पूरी की.’ ‘ तूने मेरी बात नहीं मानी. संपत्ति के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए होंगे.”

” हां यार ! उस संपत्ति के अच्छी पैसे आ रहे थे. बेटे को व्यापार के लिए पैसे की जरूरत थी. इसलिए मजबूरन मुझे वह संपत्ति बेचना पड़ी.”

” ओह !  फिर तू कहा चला गया था ?  ” दीनानाथ बोले, ” तूझे मेरे पास इस अनाथालय में आ जाना चाहिए था. ”

” नहीं यार ! वक्त खराब चल रहा था. मुझे बच्चे के साथ जाना पड़ा. वहां बहुत काम था- वही करना पड़ा. तेरी भाभी को भी काम करना पड़ा. हम ने बहुत मुसीबत देखी हैं .”

” वह तो देखना ही थी.”  दीनानाथ ने कहा, ” तू ने मेरी बात नहीं मानी थी. औलादों को कभी संपत्ति नहीं देना चाहिए. जब तक संपत्ति रहती है तब तक वे सेवा करते हैं. अन्यथा बाद में भगा देते हैं.”

” तू ठीक कहता है. ” केशवराम ने जवाब दिया, ” यह तेरा अनुभव है. यह गलत कैसे हो सकता है. मगर, परिस्थिति और स्वभाव एक जैसा नहीं होता है. ”

दीनानाथ ने कहा, ” मैं समझा नहीं,”

“ घर के अंदर चलते हैं. फिर समझाता हूँ,” केशवराम ने कहा.

तभी ड्राइवर ने ब्रेक लगाया. गाड़ी एक मोड़ पर मुड़ रही थी. सामने एक गेट था. जिस पर बड़े अक्षर में लिखा हुआ था— बाबा का घर— केशवनाथ.

उस पर निगाहें जाते ही दीनानाथ चौंक उठे, ” अरे केशव ! यह क्या लिखा है ?”

” बाबा का घर— केशवनाथ !”

” मगर,  तेरा नाम तो केशवराम है. फिर यह क्या है ?” दीनानाथ को कुछ समझ में नहीं आ रहा था , ”  क्या यह घर तेरा घर है ?”

” नहीं !”

” फिर किस का है ?”

” हमारा. यानी केशवराम का केशव और दीनानाथ का नाथ यानी केशवनाथ का घर .”

” क्या !” दीनानाथ आवाक रह गए.

” यह मेरे पुत्र का तौहफा है हम दोनों के लिए,” केशवराम के यह कहते ही दरवाजे पर कोमलांगी और उस की सास यानी दीनानाथ की भाभी स्वागत की थाली लिए खड़े थे.

” भाई साहब ! आप का इस नए घर में स्वागत है !” भाभी मुस्करा कर स्वागत कर रही थी.

यह सुन कर दीनानथ के आंखों में से ख़ुशी के आंसू निकल पड़े. उन्हों ने अपने दोनों हाथ कोमलांगी की ओर आशीर्वाद की मुद्रा में उठा दिए.

कोमलांगी आरती करने के बाद उन के चरण स्पर्श करने के लिए झुक गई थी. दीनानाथ के आंसूओं ने उस के हृदय का सारा मैल धो दिया था. उन का हाथ कोमलांगी के सिर पर चल गया, ” ऐसे मातापिता ओर बेटाबहू सभी को मिले.” वे केवल इतना ही बोल पाए. उन का गला रुंध गया.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14/04/2019

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 44 – सोने के खेत…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – सोने के खेत।)

☆ लघुकथा # 44 – सोने के खेत श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

रामकिशोर ने अपनी पत्नी आशा से कहा-  इस बार हमारे खेत में गेहूं की फसल बहुत अच्छी हुई है।  भाग्यवान हमारे खेतों में सोना उगले है।

हम सभी की सारी इच्छाएं पूरी हो जाएगी तुम सब के लिए मैं बाजार से अच्छे-अच्छे कपड़े लेकर आऊंगा। बेटे की  कॉलेज की फीस अच्छे से भर सकेंगें। किसी से कर्ज भी नहीं लेना पड़ेगा।

जो भी तुम सामान खरीदना चाहोगी,मुझे बता दो मैं शहर से लेता आऊंगा। हरि शंकर के साथ ट्रैक्टर में अपनी सारी फसलें लादकर जा रहा हूं, शाम को तो मेरा इंतजार करना।

तुम्हारे लिए मैं शाम को चांदी की पायल लेकर आऊंगा और तुम छम छम कर कर मेरे लिए खेतों में रोटी लेकर आना।

पत्नी ने कहा मजाक मत करो।

तुम बस शहर से मेरे लिए एक सुंदर सी साड़ी ले आना।

रामकिशोर और हरिशंकर दोनों फसल बेचने के लिए मंडी में पहुंचते हैं।

फसल खरीदने के लिए कोई भी व्यापारी नहीं दिख रहे हैं।

फसल बेचने के लिए मंडी में कम से कम 100 लोगों की कतार लगी है।

उसने एक आदमी से पूछा की भैया इतनी भीड़ क्यों है और फसल खरीदने के लिए कोई व्यापारी नहीं दिख रहा है।

उस अनजान व्यक्ति ने कहा कि भैया मैं भी किसान हूं और अपनी फसल को अब लेकर घर की ओर जा रहा हूं और तुम भी चले जाओ यहां पर यह लोग कह रहे हैं ,कि अभी सरकार हमारा गेहूं नहीं खरीदेगी। अनाज की कीमतें तय होने के बाद ही व्यापारी और सरकारी आदमी अनाज खरीदेंगे।

इतना सुनते ही रामकिशोर हाथ पैर सुन्न पड़ गए और उसने  हरिशंकर से कहा-अब क्या होगा तुम्हारी ट्रैक्टर का में किराया कैसे दूंगा ?

ये 50 बोरे गेहूं लेकर कहां जाऊं।  इसी से मेरे घर का खर्च चलता…।

सारी उम्मीदें थी …।

उसकी आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया और वह सोचने लगा कि मैं अपने खेत को सोना बोलता हूं पर क्या करूं जाने कब हरि की कृपा दृष्टि होगी लेकिन अब लगता है कि सरकार की कृपा दृष्टि का इंतजार मेरे खेतों को भी करना पड़ेगा और मुझे भी…।

यह सोचते सोचते उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा जाता है और वह मूर्छित गिर पड़ता है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 261 ☆ कथा-कहानी – कवच ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘जीवन और भोजन। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 261 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ कवच

बस-स्टैंड रात भर सोता नहीं। सब तरफ लगी तेज़ ट्यूबलाइट के बीच बसों के हॉर्न और यात्रियों की भाग-दौड़ गूंजती रहती है। पान की दुकानों पर लोगों के गुच्छे इकट्ठे होते और बिखरते रहते हैं। बीच-बीच में किसी बददिमाग़ आदमी से पुलिस वाले का संवाद सुनाई पड़ता है। कभी दो आदमियों या दो गुटों के बीच उठा-पटक हो जाती है, और कुछ देर के लिए वहां सोते या ऊंघते लोगों की नींद भाग जाती है।

बस-स्टैंड पर भैयालाल की चाय की दुकान रात बारह  एक बजे तक चलती है। फिर मुंह-अंधेरे ही वह हरकत में आ जाती है। भैयालाल दुकान के दोनों  छोकरों को जगा कर सरंजाम देखता घूमने लगता है। ज़्यादातर वक्त गुल्लक के बाजू में जमे रहने की वजह से उसकी  तोंद खासी बढ़कर झूलती रहती है। दुकान के खुलते ही बसों के कर्मचारी, मुसाफिर-खाने में इन्तज़ार करते यात्री और बस-स्टैंड को ही अपना घर मानने के लिए मजबूर लोग सवेरे की नींद भगाने वाले कप के लिए इकट्ठे होने लगते हैं।

और थोड़ा दिन फूटते ही दूर सड़क के किनारे लोकनाथ आता दिखायी पड़ता है, हमेशा की तरह झटका खाकर चलता हुआ और दाहिने पांव को थोड़ा  घसीटता हुआ। सवेरे बस-स्टैंड पहुंचने के बाद शाम की रोशनियां  जलने पर  ही उसका लौटना होता है। दोपहर के खाने के लिए वह रोटियों का थैला अपने साथ लाता है, जिसे वह पुरस्वानी बस सर्विस के केबिन में रख देता है।

लोकनाथ का काम यहां घूम-घूम कर विभिन्न प्राइवेट बसों के यात्रियों के लिए पुकार लगाते रहना है। वह चिल्ला-चिल्ला कर यात्रियों को विभिन्न मार्गो की तैयार बसों की सूचना और उन्हें अपनी अपनी बसों में बैठने की हिदायत देता रहता है। इस काम के लिए उसे मालिकों से रोज़ शाम को कुछ पैसे मिल जाते हैं।

इससे ज़्यादा कठिन काम के काबिल लोकनाथ नहीं है। कभी वह प्राइवेट बसों पर कुली का काम करता था। तब उसका काम सामान को रिक्शा-स्टैंड से लाकर बसों में चढ़ाने और बसों से उतार कर रिक्शा-स्टैंड तक ले जाने का था। तब वह अच्छी कमाई कर लेता था। एक दिन एक बस की छत से एक यात्री की छोड़ी हुई भारी भरकम पेटी उसके हाथों से चलती हुई उसकी टांग पर गिरी, और उसके घुटने के नीचे फ्रैक्चर हो गया। डॉक्टर ने डेढ़ महीने का प्लास्टर चढ़ाया और उसके बाद जांच कराने और एक्स-रे कराने को कहा। इतने में ही लोकनाथ की सब जमा-पूंजी खर्च हो गयी। पचीस दिन घर में पड़े रहने के बाद उसने हंसिया उठाकर प्लास्टर फाड़ डाला और वापस बस-स्टैंड पर आ गया। उसके बाद वह कोई भारी वज़न उठाने के काबिल नहीं रहा।

बस-स्टैंड तक पहुंचने के लिए लोकनाथ को करीब तीन किलोमीटर चलना पड़ता है। ट्रस्ट की ज़मीन में उगी झोपड़पट्टी में एक खोली उसकी भी है। पूरी झोपड़पट्टी पांच छः बार उजड़ चुकी है, लेकिन वह हर बार रक्तबीज की तरह वापस पैदा हो जाती है। जब नगर निगम के कर्मचारी और पुलिस वाले उसके घोंसले के तिनकों को खींच- खींच कर इधर-उधर फेंकते हैं तब वह बैठा तटस्थ भाव से देखता रहता है। जब यह फौज अपने ताम- झाम के साथ लौट जाती है तब वह अपनी पत्नी की तरफ मुड़ता है, जो ऐसे वक्त हमेशा बाहों में मुंह देकर आंसू बहाने के लिए बैठ जाती है। वह उसकी बांह पकड़कर उसे उठाता है और फिर से तिनके जमाने में लग जाता है।

लोकनाथ के तीन बेटों में से दो शादी करके उससे अलग हो चुके हैं। बहुएं बेहतर ज़िन्दगी की आकांक्षी हैं और इसीलिए वे बूढ़े सास- ससुर का बोझ ढोना नहीं चाहतीं। पंद्रह साल का छोटा बेटा स्कूल में पढ़ता है, लेकिन वह कितना पढ़ता है इसकी जानकारी हासिल करने की फुरसत लोकनाथ को नहीं है। बेटे की ज़्यादा दिलचस्पी फैशन के कपड़ों और सिनेमा में है। अपनी तरफ से वह अपने को फिल्मी हीरो बनाए रखने में कसर नहीं छोड़ता। अपनी नयी-नयी ज़रूरतों को लेकर उसकी रोज़ ही मां-बाप से किचकिच होती रहती है। लोकनाथ के मन में कहीं है कि यह लड़का भी बुढ़ापे में उसका साथ नहीं देगा, लेकिन वह इस आशंका को दिमाग में बैठने नहीं देता, न ही उसे पत्नी के सामने प्रकट करता है।

पास ही रघुबर की खोली है। रघुबर भीतर से कमज़ोर, जल्दी परेशान हो जाने वाला आदमी है। पुलिस और निगम के अमले को देखकर उसकी तबीयत बिगड़ने लगती है। शाम को अक्सर वह अपने भय और अपनी आशंकाओं को लेकर लोकनाथ के पास आकर बैठ जाता है। कहीं यह हो गया तो? कहीं वह हो गया तो? कई बार उसे भय होता है कि ट्रस्ट इस ज़मीन को किसी को बेच देगा और फिर उन्हें सिर छिपाने के लिए कोई नई जगह तलाशनी होगी।

लोकनाथ उससे कहता है, ‘ए भाई, तू अपने साथ-साथ मुझे कमजोर मत बना। अभी की सोच और अभी का इंतजाम कर। कल जो होगा उसका भी कुछ इंतजाम करेंगे। तू तो फालतू बातें सोच-सोच कर सूख ही रहा है, मुझे भी सुखाएगा। शरीर में बल तो रहा नहीं, मन का बल बचा रहने दे। यह भी टूट गया तो कुछ भी करने लायक नहीं रहेंगे।’

रघुबर सहमति में सिर तो हिलाता है, लेकिन उसकी आंखों में कोई चमक नहीं आती।

लोकनाथ कहता है, ‘देख भाई, सब चीजें मेरे तेरे खिलाफ हैं। न सरकार हमारी तरफ है, न पुलिस, न अफसर बाबू। सब रास्ते बन्द हैं। पैसे वालों की तरफ सब हैं। हवा ऐसी है कि हमारी सन्तान भी हमारी नहीं रह पाती। बड़े लोगों की दुनिया की चमक-दमक उन्हें भी हमसे खींच लेती है। वे भी इस नरक से छुटकारा चाहते हैं। इसलिए मन को मजबूत रखो और हालात का मुकाबला करो। चिन्ता करने से कोई फायदा नहीं।’

आज सवेरे जब लोकनाथ बस-स्टैंड पहुंचा तो वह हमेशा की तरह सीधे भैयालाल की दुकान पर रुका। बाहर पड़ी बेंच पर बैठकर बोला, ‘गुड मॉर्निंग, सेठ।’

भैयालाल का थोबड़ा उसे देखकर लटक गया। वह कुछ भुनभुना कर चुप हो गया।

लोकनाथ ने आवाज़ दी, ‘फटाफट चाय ला, छोकरे। एकदम गरम। फस्ट क्लास।’

भीतर से भैयालाल गुर्राया, ‘पैसे लाया है या मुफ्त में चाय पीने आया है?’

लोकनाथ गर्दन अकड़ा कर बोला, ‘ओ! एकदम कैश। हमको फटीचर समझता है? कह तो दस बीस हजार रुपया दे दूं।’

सेठ फिर भुन्नाया बोला, ‘रहने दे, रईस की औलाद।’

छोकरा चाय ले आया। लोकनाथ गुनगुनाता हुआ चाय पीता रहा। फिर उठकर उसने भैयालाल के सामने पांच रुपये फेंके, बोला, ‘ले पैसे। तू भी क्या याद करेगा।’

भैयालाल बोला, ‘और पिछले तीस रुपये?’

लोकनाथ बोला, ‘वे भी मिल जाएंगे। मुझे एक जायदाद मिलने वाली है। मिलते ही तुझे तीस की जगह तीन  सौ दे दूंगा। फिकर मत कर। तू मर जाएगा तो तेरे चीटके पर रुपये रख दूंगा और तुझे डाक से खबर कर दूंगा। नहीं दूंगा तो तू भूत बनकर रोज मेरे पास तीस रुपये वसूलने आएगा।’

भैयालाल फिर भुनभुनाने लगा और लोकनाथ उठकर इधर-उधर घूमता हुआ आवाज़ें लगाने लगा।

शाम को जब वह पैसे मांगने बसों के मैनेजरों के पास पहुंचता है तो वे भी झिकझिक करने से बाज़ नहीं आते। अक्सर कहते, ‘आज तूने हमारी बस के लिए कम आवाज लगायी। हमें तो तेरी आवाज सुनायी ही नहीं पड़ी। आज तू आया कब था, हमें तो कुछ पता ही नहीं चला।’

जवाब में लोकनाथ कहता है, ‘आप यहां एक रिकार्डर लगवा दो। शाम को रिकार्डर चला कर सबूत ले लिया करो। मैं रोज-रोज कहां तक सबूत दूं ?’

पैसे वसूल कर वह लंगड़ाता हुआ घर की तरफ चल दिया। करीब एक घंटे में वह उस इलाके में पहुंच गया जहां रोशनी के नाम पर असंख्य ढिबरियां टिमटिमाती थीं। ढिबरियों की रोशनी पर हावी अंधेरे के बीच लोगों के खांसने, रोने, हंसने, चीखने और लड़ने की आवाज़ें गूंजती थीं। कई तरफ से टीन के डिब्बों पर ताल देकर गाने के स्वर उठ रहे थे। दूर से वह किसी प्रेत-नगरी का भ्रम देती थी, सिर्फ आवाज़ों की नगरी।

लोकनाथ अपनी खोली के सामने पहुंचा तो उसने पत्नी को बाहर बैठे पाया। उसे देखकर बोली, ‘छुटका सवेरे का निकला अभी तक नहीं आया। दोपहर को रोटी भी नहीं खायी। जाने कहां चला गया मरा।’

लोकनाथ भीतर घुसता हुआ बोला, ‘तू मुझे रोटी दे। बहुत थक गया हूं ।’

रोटी खाकर वह ज़मीन पर बिछे बिस्तर पर कुहनी के बल उठंगकर बीड़ी पीने लगा। पत्नी खाना ढककर उसके पास आकर बैठ गयी, बोली, ‘तुम कैसे बाप हो? लड़का दिन भर जाने कहां घूमता रहता है और तुम कुछ फिकर नहीं करते?’

लोकनाथ बोला, ‘मैं सब सोचता हूं और सब फिकर करता हूं। मैं वह भी सोचता हूं जो तू नहीं सोचती। बहुत फिकर करके मुझे जल्दी मरना नहीं है। लोग यही तो चाहते हैं कि  तेरे-मेरे जैसे लोग फिकर में घुलें और जल्दी खतम हों। तू जाकर रोटी खा ले और सो जा। उसके लिए ढककर रख दें। जब आएगा तब खा लेगा।’

इसके बाद वह करवट बदलकर सो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – जीने की राह… ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा जीने की राह

? लघुकथा – जीने की राह ? सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ?

9:25 की लोकल में आशा के विपरीत अमन को सीट मिल गई. वह बैठा ही था कि ताली पीटते हुए किन्नर रेशमा उसके सम्मुख आन खड़ी हुई- “क्या बात है अमन बाबू..  तीन-चार दिनों से दिखाई नहीं दिए… ”

“ हां, सर्दी बुखार हो गया था. वर्क फ्रॉम होम ही करता रहा. आप कैसे हो ?” अमन ने हमेशा की तरह अपनत्व जताते हुए कहा.

“ अच्छे हैं. आपको अच्छी खबर देनी थी इसलिए रोजाना आपका इंतजार करती रही….  ” रेशमा के चेहरे पर मुस्कुराहट भरी चमक उभर आई.

“हां बोलो ना… ” अमन के कहते ही वह उत्साहित हो बताने लगी- “आप हमेशा कहते थे ना कोई काम करो तो हमें काम मिल गया है. मैंने और कुसुम ने मिलकर चाय का ठेला लगा लिया है हम दोनों मिलकर चाय बनाते हैं मसाले वाली. शुरू में कुछ दिक्कतें आईं. लोग कन्नी काट निकल जाते थे. फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो गया. अब तो हमारी चाय को लोग बहुत पसंद कर रहे हैं. अच्छी बिक्री हो रही है. अब फुटपाथ, लोकल, रिक्शे की सवारियों को रोक कर पैसे मांगने का धंधा छोड़ दिया. बहुत जी ली लोगों की फटकार. ताने, मजाक, अश्लील इशारों से भरी जिल्लत भरी जिंदगी. अब किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे….. ” कहते रहते उसके चेहरे पर स्वाभिमान के भाव आ गए थे.

“ यह तो सचमुच बहुत खुशी की बात है… ” अमन ने 50 का नोट पर्स से निकाला तो रेशमा फ़ौरन बोली – “ बस अमन बाबू, आपने मेरी जो मदद की, मुझे जीने की राह दिखाई, सहयोग दिया वह कभी नहीं भूल सकती. इसी लोकल में हर व्यक्ति हमारी तरफ हिकारत से देखता था मानो हम इंसान ही नहीं. प्रकृति ने हमारे साथ अन्याय किया यह हमारा दोष तो नहीं ना ! पर आप सबसे अलग हो. हमारे दर्द को जाना, हमारी भावनाओं को समझा, हमें हमेशा कुछ मिनट का ही सही वक्त दिया, बातचीत की. एक दोस्त की तरह हमें समझाया, आर्थिक सहयोग दिया. मैंने तो यहां तक सुना मुझसे जब आप बातें करते थे लोग कहते थे – “ किसको मुंह लगा रहे हो ? तुम्हें नहीं पता ये लोग तुम्हारे पीछे ही पड़ जाएंगे..  ” कितनी हिकारत से हमें देखते थे. आप केवल मुस्कुरा देते थे.

फिर एक दिन आपने कह दिया था – “ वे भी तो इंसान हैं. क्या उन्हें इतना भी अधिकार नहीं कि हम लोगों से बातचीत कर सकें… अपने कुछ दर्द, परेशानियां हमें सुना कर अगर वे हल्कापन महसूस करते हैं तो उसमें क्या आपत्ति है… ? दस, बीस, पच्चीस, पचास रुपए उन्हें देने से हम गरीब तो नहीं हो जाएंगे. उनके पास आय का जरिया ही कहां है..  ? समाज को उनके बारे में भी तो सोचना चाहिए… ”  आपकी बातों का असर यह हुआ कि अब लोगों ने हिकारत से देखना छोड़ दिया था और हमारी आय भी बढ़ गई. फिर कुसुम के साथ सलाह की और चाय का ठेला लगाने की योजना बना ली. वह भी इस जिल्लत भरी जिंदगी से बहुत दुखी थी. हम दोनों बहुत खुश हैं… ”

अमन ने 50 का नोट उसके हाथ में थमाया – “ इसे रखो, तुम्हारी दुकान के लिए शगुन है. और हां, जब भी समय मिला मैं चाय पीने जरूर आऊंगा….  ” रेशमा ने अमन के सिर पर हाथ रख आशीर्वादों की झड़ी लगा दी. वह नखशिख तक उन दुआओं में भीगता रहा तृप्त होता रहा.

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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