हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 171 – मूरत में ममता – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित अप्रतिम कल्पना से परिपूर्ण एक लघुकथा “मूरत में ममता🙏”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 171 ☆

☆ लघुकथा – 🌷 मूरत में ममता 🙏. 

भरी कालोनी में सजा हुआ दुर्गा मैया का पंडाल। अद्भुत साज सज्जा जो भी देख रहा था मन प्रसन्नता से भर उठता था। दुर्गा जी की प्रतिमा ऐसी की अभी बोल पड़े। गहनों से सजा हुआ शृंगार, नारी शक्ति की गरिमा, दुष्ट महिषासुर का वध करते दिखाई दे रही थी।     

आलोक कालोनी में एक फ्लैट, जिसमे सुंदर छोटा सा परिवार। धर्म पत्नी बड़ी ही होनहार सहनशील और ममता की मूरत। दो बच्चों की किलकारी घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।

आलोक प्राइवेट कंपनी में जाब करता था। परंतु कहते हैं ना कि सब कुछ संपन्न होने के बाद कहीं ना कहीं कुछ रह ही जाता है। उसे शक या वहम की बीमारी थी। इस कारण सभी से कटा- कटा सा रहता था।

पत्नी कल्पना भी किसी से मेल मिलाप नहीं कर पाती थी, क्योंकि यदि बात भी कर ले तो… क्यों आया? कैसे आया? किस लिए आया? कहां से आया? और सवाल ऊपर सवाल करते? दो से चार हाथों की झड़ी भी लग जाती थी।

मोटी-मोटी आँसू की बूँदें लिए कभी कल्पना चुपचाप रहती, कभी सिसकी लेते हुए रोती दिखाई देती थी।

परंतु उसमें अपने पति से लड़ने या बहस कर उसे सच्चाई बताने की ताकत नहीं थी। क्योंकि वह एक गरीब परिवार से ब्याह कर आई। एक बेचारी बनकर रह गई थी।

आज कालोनी में बताया गया की दुर्गा मैया का आज विशेष शृंगार होगा। सभी महिलाएं खुश थी अपने-अपने तरीके से सभी शृंगार सामग्री ले जा रही थी। परंतु कल्पना बस कल्पना करके रह गई।

उसे न जाने का न मन था और न ही उसे कुछ खरीदने की चाहत थी। आलोक के डर के कारण वह जाना भी नहीं चाह रही थी। बच्चों की जिद्द की वजह से आलोक अपने दोनों बच्चों को लेकर माता के पंडाल पर गया।

भजन, आरती और गरबा सभी कुछ हो रहे थे। परंतु आलोक का मन शांत नहीं था। एक दोस्त ने पूछा… क्यों भाई इतनी सुंदर माता की मूरत और आयोजन हो रहा है। आप खुश क्यों नहीं हो।

आलोक ने हिम्मत करके उसे एक कोने में ले जाकर पूछा…. भाई जरा बताना क्या? तुम्हें दुर्गा माता की आँखों से गिरते आँसू दिखाई दे रहे हैं।

उसने जवाब दिया क्या बेवकूफी भरी बातें कर रहा है इतनी प्रसन्नता पूर्वक ममता में माता भला क्यों आँसू गिरायेगी। फिर वह एक दूसरे से पूछा क्या तुम्हें दुर्गा माता के आँसू दिखाई दे रहे हैं। उसने जवाब दिया मुझे तो सिर्फ ममतामयी वरदानी और अपने बच्चों के लिए हँसती हुई प्यार बांँटने वाली दिखाई दे रही है।

वह बारी-बारी से कई लोगों को पूछा सभी ने जवाब में दिया कि भला माता क्यों रोएगी। अब तो उसके सब्र का बाँध टूट गया।

बच्चों को पंडाल में सुरक्षित जगह पर बिठाकर। वह दौड़कर अपने घर की ओर भागा। जैसे ही दरवाजा खुला लाल साड़ी से सजी उसकी कल्पना आँसुओं की धार बहते दरवाजा खोलते दिखाई दे गई।

बस फिर क्या था वह कसकर उससे लिपट गया और कहने लगा मैं आज तक समझ नहीं सका तुमको मुझे माफ कर दो। चाहो तो मुझे कोई भी सजा दे सकती हो परंतु मुझे कभी छोड़कर नहीं जाना।

कल्पना इससे पहले कुछ कह पाती वह झट से अलमारी खोल लाल चुनरी निकाल लिया और कल्पना के सिर पर डाल कर उसके मुखड़े को देखने लगा।

आज मूरत में जो ममता और करुणा नजर आया था। वह कल्पना के मुखड़े पर साकार देखा और देखता  ही जा रहा था। बस उसकी आँखों से पश्चाताप अंश्रु धार बहने लगी। कल्पना सब बातों से अनभिज्ञ थी। पर उसे आज अच्छा लगा।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 214 ☆ कथा कहानी – सवारी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक सार्थक कहानी ‘सवारी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 214 ☆

☆ कहानी – सवारी 

जग्गू अपना रिक्शा लेकर सुबह पाँच बजे स्टेशन पहुँच गया। ट्रेन साढ़े पाँच बजे आती है। कई बार लेट भी हो जाती है। सर्दियों में यह ट्रेन तकलीफ देती है। पाँच बजे पहुँचने के लिए चार बजे उठना पड़ता है। एक तरफ अँधेरे और दूसरी तरफ ठंड से जूझना पड़ता है। गनीमत यह है कि स्टेशन छोटा होने की वजह से उसे सब जानते हैं, इसलिए रेलवे के साहब लोग अगर किसी कोने में अलाव जलाकर तापते मिल गये तो वहीं धीरे से घुस जाता है। उसकी पूछ-कदर इसलिए भी है कि स्टेशन पर दो ही रिक्शे हैं, इसलिए बाबुओं को अटके-बूझे उन्हीं का सहारा लेना पड़ता है। लेकिन ट्रेन आने पर रिक्शे पर रहना ही सुरक्षित होता है क्योंकि सवारी सीधे रिक्शे पर पहुंचकर उसकी घंटी टुनटुनाती है।

उसके अलावा दूसरा रिक्शा रघुवीर का है। उन दोनों को छोड़कर कोई तीन किलोमीटर दूर गाँव में जाना चाहे तो पाँवगाड़ी इस्तेमाल करने के अलावा कोई चारा नहीं होगा।

स्टेशन के बाहर गुलाब का स्टोव भर्र-भर्र जल रहा है। गुलाब सवेरे साढ़े चार बजे तक दूकान में जम जाता है। सोता भी दूकान में ही है। दोपहर से शाम तक मदद करने के लिए एक लड़का आ जाता है जिसे उसने असिस्टेंट के तौर पर रख लिया है। गुलाब की दूकान अच्छी चल जाती है। गाँव के लड़कों और बूढ़ों को करने धरने को कुछ होता नहीं, इसलिए जब जिसका मुँह उठा, स्टेशन चला आता है। कुछ ऐसे हैं जो दिन भर गुलाब की बेंच पर जमे रहते हैं। भूख लगने पर कागज़ पर नमकीन लेकर खाया, ऊपर से एक ‘कट’ चाय। घर में सोने से तो भला, स्टेशन पर कुछ चहल-पहल रहती है। ट्रेनों की खिड़कियों से झाँकते बहुत से नये चेहरे दिख जाते हैं, जिन्हें देखकर ज़िन्दगी में थोड़ी रौनक आ जाती है। गाँव के युवक ट्रेनें आने पर उनके सामने जा खड़े होते हैं, फिर उनके चले जाने पर वापस दूकानों की बेंचों पर आ जमते हैं।
उस दिन ट्रेन रुकी तो जग्गू उम्मीद से सवारियों की तरफ देखता रहा। अचानक उसकी आँखें चमकीं। साफ-सफेद कुर्ते धोती में एक सयाने, गोल-मटोल सज्जन छोटा सूटकेस लिये बाहर निकल रहे थे। शरीर के रख-रखाव, सुनहरे फ्रेम वाले चश्मे, घड़ी की चेन और हाथ की अँगूठियों से ज़ाहिर था कि आदमी ऊँचे तबके का, सुख-सुविधा संपन्न है। जग्गू ने देखा उनका चेहरा मक्खन से तराशा हुआ लगता था, हाथों की हथेलियाँ गुलाबी और मुलायम। उसके जैसी खुरदरी और गुट्ठल वाली नहीं।

जग्गू ने बढ़कर उनके हाथ से सूटकेस ले लिया। बोला, ‘आइए बाबूजी, कहाँ जाएँगे?’

वे सज्जन धोती के छोर से चेहरा पोंछते हुए बोले, ‘चतुर्वेदी जी के यहाँ जाना है। आज उनकी तेरही है। जानते हो?’

जग्गू बोला, ‘गाँव में सब को एक दूसरे के घर की गमी और खुसी का पता रहता है। चौबे जी का घर हमें मालूम है। चौबाइन के साथ अकेले तो रहते थे। अभी तो खूब भीड़-भाड़ है। सब लोग आये हैं।’

वे सज्जन थोड़ा सावधान हुए, बोले, ‘पैसे कितने होंगे?’

जग्गू बोला, ‘तीस रुपया होगा। बँधा बँधाया रेट है। यही मिलता है।’

सज्जन ने अपने शहरी चातुर्य को जग्गू की ग्रामीण व्यवहारिकता से भिड़ाया, बोले, “ज्यादा है। वह तो गाँव दिखता है।’

जग्गू बोला, ‘दिखता तो है, पर रास्ता बहुत खराब है। बहुत मसक्कत करनी पड़ती है। टाइम भी ज्यादा लगता है।’

सज्जन बोले, ‘बीस रुपये में चलना हो तो चलो।’

जग्गू ने हाथ जोड़े, कहा, ‘नहीं होगा साहब। बहुत कम है।’

सज्जन ने थोड़ी दूर पर खड़े दूसरे रिक्शे पर नज़र डाली। बोले, ‘दूसरे रिक्शेवाले से भी पूछ लेते हैं।’

जग्गू हँसा, बोला, ‘कोई फायदा नहीं है बाबूजी। रघुवीर का बाप सवेरे पाँच बजे उसे ढकेल कर  घर से बाहर कर देता है। वह यहाँ आकर रिक्शे में सो जाता है। आप कोसिस कर लीजिए, वह उठेगा नहीं। थोड़ी देर बाद उठकर चाय पियेगा, फिर बीड़ी के सुट्टे लगाएगा। उसके बाद ही किसी सवारी को बैठने देगा।’

सज्जन ने पैंतरा बदला, बोले, ‘अच्छा, चौबे जी के लड़के जो कहेंगे वह दे देंगे।’

जग्गू ऐसे लोगों को जानता है। वे गरीबों का पेट मारने के बहुत तरीके जानते हैं। ठंडी आवाज़ में बोला, ‘तीस रुपये से कम नहीं होगा बाबूजी। सोच लें।’

सज्जन हार गये। झुँझलाकर बोले, ‘ठीक है, चलो। अकेले होने का फायदा उठा रहे हो।’

जग्गू ने कोई जवाब नहीं दिया। उसका काम हो गया था। अब फालतू की झिकझिक करने से क्या फायदा?

सज्जन आकर रिक्शे के बगल में खड़े हो गये। जग्गू ने दो बार सीट पर हाथ मार कर उसकी धूल झाड़ी, फिर कहा, ‘आइए, बैठिए।’

लेकिन उन सज्जन के लिए बैठना आसान नहीं था। सीट की पुश्त और सामने लगी पट्टी को पकड़कर वह बड़ी मुश्किल से सीट की ऊँचाई तक अपने को उठा सके। सीट पर बैठ जाने तक उनके हाथ और पाँव थरथर काँपते रहे। ज़ाहिर था कि उन्हें रिक्शे में बैठने का अभ्यास नहीं था। सीट पर बैठ कर उन्होंने फिर मुँह पोंछा, साथ ही बुदबुदाये— ‘क्या सवारी है!’

जग्गू ने घुमा कर रिक्शा पुलिया से बाहर निकाला और कीचड़, गढ्ढों और गोबर से बचाता चल दिया। गढ्ढों से बचाने के उपक्रम में रिक्शा सर्पाकार चल रहा था और वे सज्जन आलू के बोरे की तरह दाहिने बाएँ हिल रहे थे। आखिरकार जब उनकी बर्दाश्त से बाहर हो गया तो गुर्राये, ‘जरा ठीक से चलो। पेट की अँतड़ियाँ हिली जा रही हैं।’
जग्गू को ऐसी नकचढ़ी सवारियों से चिढ़ होती है। वह मौजी आदमी है। दिन भर रिक्शा चलाने के बाद शाम से इधर-उधर कीर्तन- भजन की बैठकों में मस्त रहता है। उस वक्त कोई रिक्शा खींचने के लिए बुलाये तो उसे भारी चिढ़ लगती है। लिहाज न हो तो कितना बुलाने पर भी नहीं जाता। दिवाली के टाइम आठ दस दिन की पक्की छुट्टी लेता है। ‘मौनियाँ ‘ के दल के साथ कमर में कौड़ियों की करधनी पहने, हाथ में मोरपंख लिये गाँव-गाँव घूमता और नाचता है। नाच के कपड़ों पर तीन चार सौ खर्च करने में उसे कोई तकलीफ नहीं होती।

उन सज्जन के चेहरे पर अरुचि और तकलीफ का भाव साफ झलक रहा था। गाँव की सड़क शुरू हो गयी थी। तीन चार साल पहले बनी थी, लेकिन बैलगाड़ियों, ट्रैक्टरों और ट्रकों के चलने के कारण बिल्कुल चौपट हो गयी थी। अब तो रिक्शे को एक एक कदम सँभाल कर ले जाना पड़ता है। कई जगह उतर कर खींचना पड़ता है। बस पैदल आदमी ही सुकून से चल सकता है।

जग्गू का मन हुआ रास्ता काटने के लिए कोई तान छेड़े। एक रोमांटिक गाना ‘साढ़े तीन बजे मुन्नी जरूर मिलना’ उसका प्रिय है। अक्सर उसी को छेड़ता है। लेकिन सवारी के चेहरे पर साच्छात सनीचर बैठा देख उसकी उमंग को लकवा लग गया। भगवान ऐसी मनहूस सवारी न भेजे।

गाँव की राह पर आने के बाद उन सज्जन का जबड़ा खुलता है। लगता है उन्हें भी ज्यादा देर चुप रहने की आदत नहीं है। जैसे अपने आप से कहते हैं—‘ पंद्रह साल बाद रिक्शे पर बैठा हूँगा। जरूरत ही नहीं पड़ती। घर में दो कारें हैं, ड्राइवर है। थोड़ी दूर भी जाना हो तो कार से जाते हैं।’

जग्गू मुँह फेरकर ‘अच्छा’ कहता है, लेकिन वह जान जाता है कि रिक्शे पर बैठना सवारी को भाया नहीं। उसका मन खट्टा हो जाता है।

कारन यह है जग्गू को अपने रिक्शे पर बड़ा नाज़ है। बैंक से लोन ले कर लिया है। गाँव में सिर्फ दो रिक्शे होने से वैसे भी वह अपने को विशिष्ट समझता है। धर्मी-कर्मी आदमी है, इसलिए जैसे शरीर को साफ-सुथरा रखता है, वैसे ही रिक्शे को भी धो-पोंछ कर रखता है। रिक्शे के बारे में कोई ऊटपटाँग टिप्पणी कर दे तो उसका मन आहत हो जाता है।

वे सज्जन आगे बोल रहे थे— ‘चतुर्वेदी जी हमारे समधी होते थे। अभी दो साल पहले रिटायर होने पर यहाँ आ बसे थे। इसीलिए हमारा यहाँ कभी आना नहीं हुआ।’
जग्गू ने फिर मुँह फेर कर ‘हाँआँ ‘ कहा।

वे कुछ और बोलने जा रहे थे, तभी रिक्शे के गढ्ढे में फँसने से उनकी देह पूरी हिल गयी।जग्गू के रिक्शे की सीट आगे की तरफ थोड़ा ढालू थी। कोई गढ्ढा आ जाए तो शरीर आगे की तरफ भागता था, और आदमी सावधान न हो तो घुटने आगे पटिये में टकराते थे। यही उन सज्जन के साथ हुआ। वे ज़ोर से चिल्लाये, ‘क्या करता है? देख के चल। घुटने टूटे जा रहे हैं।’

जग्गू का मन बुझ गया। गाँव के लोग उसके रिक्शे पर बैठना सौभाग्य समझते हैं। चिरौरी कर कर के बैठते हैं। गाँव के लालता बनिया का लड़का तो चाहे जब आ बैठता है और रिक्शा खाली हो तो घंटों घूमता है। कहता है, ‘बहुत मजा आता है।’ उसे घुमाने में जग्गू को भी मज़ा आता है क्योंकि उसके मुँह से तारीफ सुनकर जग्गू गदगद हो जाता है। रिक्शे ने गाँव में जग्गू की पोजीशन बना दी है। रोज दो चार लोग उसकी खुशामद करते हैं। और एक यह सवारी है जो उसे कोसे जा रही है।

गढ्ढे से बाहर निकले तो उन सज्जन ने घड़ी देखी, बोले, ‘सात आठ मिनट तो हो गये।कहाँ है तुम्हारा गाँव?’

जग्गू चिढ़कर बोला, ‘गाँव जहाँ है वहीं है, बाबूजी। रास्ता खराब है इसलिए देर हो रही है।’

रिक्शा फिर रास्ते के हिसाब से डगमग होता चल दिया।

सज्जन थोड़ी देर में बोले, ‘दो-चार दिन यहाँ रिक्शे पर बैठेंगे तो हड्डियों का चूरा हो जाएगा। महीना भर अस्पताल सेना पड़ेगा।’

जग्गू का मन बिलकुल बुझ गया। ऐसी सवारी मिल जाए तो पूरा दिन खराब हो जाता है। यह आदमी पन्द्रह मिनट से उसकी रोजी को कोस रहा है।

उसने धीरे से कहा, ‘कार से ही आ जाते बाबूजी।’

बाबूजी उसके व्यंग्य को नहीं समझ पाये। दुखी भाव से बोले, ‘कार से इतनी दूर कहाँ आएँगे? सब तरफ सड़कों की हालत खस्ता है।’

जग्गू मन में बोला, तो फिर गाँव की सड़क और उसके रिक्शे को क्यों कोस रहे हो? प्रकट बोला, ‘चौबे जी के यहाँ खबर करके गाड़ी बुलवा लेते। वहाँ तो दो तीन गाड़ियाँ खड़ी थीं।’

सज्जन फिर दुखी भाव से बोले, ‘दो तीन बार फोन लगाया, लेकिन किसी ने उठाया नहीं। लगता है सब सो रहे हैं।’

रिक्शा खींचते खींचते जग्गू को हाँफी  चढ़ रही थी। रास्ते में एक घर के सामने चाँपाकल के पास रिक्शा रोक दिया,बोला, ‘ एक मिनट जरा पानी पी लूँ।’

सज्जन और चिढ़ गये, बोले, ‘हाँ हाँ, जरूर पियो। बीड़ी वीड़ी भी पी लो। क्या जल्दी है?’

जग्गू खिसिया कर बोला, ‘बीड़ी वीड़ी हम नहीं पीते। गला सूख रहा है इसलिए थोड़ा पानी पी लेते हैं।’

सज्जन ने भी पिछले स्टेशन से खरीदी बोतल से दो घूँट पानी पिया। रास्ते में कहीं पानी नहीं पिया जा सकता। यहाँ बीमार पड़ जाएँ तो तीमारदारी के लिए डॉक्टर भी नहीं मिलेगा।

रिक्शा फिर किसी आर्थ्राइटिस के मरीज़ जैसा दाहिने बायें झूमता आगे बढ़ा। सज्जन का चेहरा तकलीफ और आक्रोश से विकृत हो रहा था। थोड़ा आगे बढ़ने पर वे बोले,

‘यहाँ कम से कम एक ऑटो होना चाहिए। रिक्शे में तो हाथ-पाँव टूटना है।’

जग्गू को और चिढ़ लगी। एक तो ढो कर ले जा रहे हैं, ऊपर से बार-बार गाली दे रहा है। बोला, ‘यहाँ ऑटो खरीदने के लिए पैसा किसके पास है? आप जैसे बड़े आदमी ही खरीद सकते हैं। फिर ऑटो के लायक कमाई भी तो होना चाहिए।’   

सज्जन कुछ नहीं बोले। अगली चढ़ाई चढ़ते ही झुटपुटे में आधा ढँका गाँव सामने आ गया। सज्जन के चेहरे पर राहत का भाव आया।

अचानक गाँव के बीच से एक कार ‘पें पें ‘ हॉर्न बजाती, धूल उड़ाती, रिक्शे के सामने आकर रुक गयी। कार में से दो युवक उतरे। सज्जन के पाँव छूकर बोले, ‘आ गये, बाबूजी? माफ करें, हमें निकलने में थोड़ी देर हो गयी। रास्ते में तकलीफ तो नहीं हुई?’

सज्जन का चेहरा अब बिलकुल तनावमुक्त हो गया था। जग्गू की तरफ देख कर बोले, ‘तकलीफ तो बहुत हुई, लेकिन अब तुम लोग आ गये हो तो सब ठीक है। बाकी यहाँ रिक्शे पर चढ़ना सजा जैसा है।’

युवकों ने उनका सूटकेस उठाकर कार में रख लिया। वे पैसे देने लगे तो युवकों ने उन्हें बरज दिया। जग्गू से बोले, ‘घर से ले लेना।’

सज्जन ने कार में बैठकर ज़ोर की साँस ली, बोले, ‘चलो भैया, मुक्ति मिली।’

कार मुड़कर गाँव की तरफ बढ़ी तो धूल का ग़ुबार आकर जग्गू के शरीर और रिक्शे पर बैठ गया। वह अँगौछे से मुँह पोंछता कभी दूर जाती कार और कभी अपने रिक्शे को देखता रहा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #153 – लघुकथा – “विकल्प” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  विकल्प)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 153 ☆

 ☆ लघुकथा – “विकल्प” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

दिसंबर की ठण्डी रात को अचानक पानी बरसने पर मां की नींद खुल गई, “तूझे कहा था गेहूं धो कर छत पर मत सुखा, पर, तू मानती कहा हैं।”

” तो क्या करती? इस में धनेरिये पड़ गए थे।” 

“अब सारे गेहूं गीले हो रहे हैं।”

” तो मैं क्या करूं?” बेटी खींज कर बोली, “मेरा कोई काम आप को पसंद नहीं आता। ऐसा क्यों नहीं करते- मेरा गला घोट दो। आप को शांति मिल जाएगी।”

” तुझ से बहस करना ही बेकार है,” मां जोर से बोली। तभी पिता की नींद खुल गई, “अरे भाग्यवान! क्या हुआ ? रात को भी….”

” पानी बरस रहा है। छत पर गेहूं गीले हो रहे है। इस को कहा था- गेहूं धो कर मत सुखा, पर यह माने तब ना,” कहते हुए माँ ने वापस अपनी बेटी की बुराई करना शुरू कर दिया। 

मगर पिता चुपचाप उठे। बोले, “चल ‘बेटी’! उठ। छत पर चलते हैं,” कहते हुए पिता ने छाता उठा कर खोल लिया।

छाता खुलते ही मां-बेटी की जुबानी जंग बंद हो गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-12-21

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 170 – श्राद्ध में संशय – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समाज के परम्पराओं और आधुनिक पीढ़ी के चिंतनीय विमर्श पर आधारित एक लघुकथा श्राद्ध में संशय”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 170 ☆

☆ लघुकथा – 🌷 श्राद्ध में संशय 🙏. 

उषा और वासु दोनों भाई बहन ने जब से होश संभाले, अपनी मम्मी को प्रतिवर्ष पापा के श्राद्ध के दिन पंडित और रसोई का काम संभालते देखते चले आ रहे थे।

बिटिया उषा तो जैसे भी हो संस्कार कहें या रीति रिवाज अपनी मम्मी के साथ-साथ लगी रहती थी, परंतु बेटा वासु इन सब बातों को ढकोसला जली कटी बातें या सिद्धांत विज्ञान के उदाहरण देने लगता था।

समय बीता, बिटिया ब्याह कर दूर प्रदेश चली गई और बेटा अपने उच्च स्तरीय पैकेज की वजह से अपनों से बहुत दूर हो चला। उसकी अपनी दुनिया बसने लगी थी। मम्मी ने अपना काम वैसे ही चालू रखा जैसे वह करतीं चली आ रही थी।

परंतु समय किसी के लिए कहाँ रुकता है। आज सुबह से मम्मी मोबाइल पर रह रहकर मैसेज देखती जा रही थी। उसे लगा शायद बच्चे पापा का श्राद्ध भूल गए हैं।

वह अनमने ढंग से उठी अलमारी से कुछ नए कपड़े निकाल पंडित जी को देने के लिए एक जगह एकत्रित कर रही थी।

तभी दरवाजे पर घंटी बजी।

लगा शायद पंडित जी आ गए हैं। वह धीरे-धीरे चलकर दरवाजे पर पहुंची। आँखों देखी की  देखती रह गई।

दोनों बच्चे अपने-अपने परिवार के साथ खड़े थे। घबराहट और खुशी कहें या दर्द दोनों एक साथ देखकर वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर बात क्या है??? अंदर आते ही दोनों ने कहा… मम्मी आज और अभी पापा का यह आखिरी श्राध्द है। इसके बाद आप कभी श्रद्धा नहीं करेंगी।

क्योंकि हमारे पास समय नहीं है और इन पुराने ख्यालों पर हम कभी नहीं आने वाले। मम्मी ने कहा… ठीक है आज का काम बहुत अच्छे से निपटा दो फिर कभी श्रद्धा नहीं करेंगे।

पूजा पाठ की तैयारी पंडितों का खाना सभी तैयार था। बड़े से परात पर जल रखकर बेटे ने तिलांजलि देना शुरू किया। बहन भी पास ही खड़ी थी पंडित जी ने कहा… मम्मी के हाथ से भी तिल, जौ को जल के साथ अर्पण कर दे। पता नहीं अब फिर कब पिृत देव को जल मिलेगा।

पूर्वजों का आशीर्वाद तो लेना ही चाहिए। आवाज लगाया गया फिर भी मम्मी कमरे से बाहर नहीं निकली।

तब कमरे में जाकर देखा गया मम्मी धरती पर औधी पड़ी है। उनके हाथ में एक कागज है। जिस पर लिखा था.. श्राद्ध पर संशय नहीं करना और कभी मेरा श्रद्धा नहीं करना। तुम दोनों जिस काम से आए हो वह सारी संपत्ति मैं वृद्ध आश्रम को दान करती हूँ।

आज के बाद हम दोनों का श्राद्ध वृद्धा आश्रम जाकर देख लेना।

वक्त गुजरा…. आज फिर उषा और वासु ने मोबाइल के स्टेटस, फेसबुक पर पोस्ट किया… मम्मी पापा का श्राद्ध एक साथ वृद्धाश्रम में मनाया गया परंतु अब श्राद्ध पर संशय नहीं सिर्फ पछतावा था।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 128 ☆ पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है तेज भागती जिंदगी परआधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘पेट की दौड़’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 128 ☆

☆ लघुकथा – पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कामवाली बाई अंजू ने फ्लैट में अंदर आते ही देखा कि कमरे में एक बड़ी – सी मशीन रखी है। ‘ दीदी के घर में रोज नई- नई चीजें ऑनलाईन आवत रहत हैं। अब ई कइसी मशीन है? ‘ उसने मन में सोचा। तभी उसने देखा कि साहब आए और उस मशीन पर दौड़ने लगे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सड़क पर तो सुबह – सुबह दौड़ते देखा है लोगों को लेकिन बंद कमरे में मशीन पर? साहब से तो कुछ पूछ नहीं सकती। वह चुपचाप झाड़ू – पोंछा करती रही पर कभी – कभी उत्सुकतावश नजर बचाकर उस ओर देख भी लेती थी। साहब तो मशीन पर दौड़े ही जा रहे हैं? खैर छोड़ो, वह रसोई में जाकर बर्तन माँजने लगी। दीदी जी जल्दी – जल्दी साहब के लिए नाश्ता बना रही थीं। साहब उस मशीन पर दौड़ने के बाद नहाने चले गए। दीदी जी ने खाने की मेज पर साहब का खाना रख दिया। साहब ने खाना खाया और ऑफिस चले गए।

अरे! ई का? अब दीदी जी उस मशीन पर दौड़ने लगीं। अब तो उससे रहा ही नहीं गया। जल्दी से अपनी मालकिन दीदी के पास जाकर बोली – ‘ए दीदी! ई मशीन पर काहे दौड़त हो?

‘काहे मतलब? यह दौड़ने के लिए ही है, ट्रेडमिल कहते हैं इसको। देख ना मेरा पेट कितना निकल आया है। कितनी डायटिंग करती हूँ पर ना तो वजन कम होता है और ना यह पेट। इस मशीन पर चलने से पेट कम हो जाएगा तो फिगर अच्छा लगेगा ना मेरा’ – दीदी हँसते हुए बोली।

 ‘पेट कम करे खातिर मशीन पर दौड़त हो? ’ — वह आश्चर्य से बोली। ना जाने क्या सोच अचानक खिलखिला पड़ी। फिर अपने को थोड़ा संभालकर बोली – ‘दीदी! एही पेट के खातिर हमार जिंदगी एक घर से दूसरे घर, एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग काम करत – करत कट जात है। कइसा है ना! आप लोगन पेट घटाए के लिए मशीन पर दौड़त हो और हम गरीब पेट पाले के खातिर आप जइसन के घर रात- दिन दौड़त रह जात हैं।‘

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 169 – मोबाइल में रस्म रिवाज – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है  समाज के चिंतनीय विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा मोबाइल में रस्म रिवाज”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 169 ☆

☆ लघुकथा – 📱मोबाइल में रस्म रिवाज 📱

शकुंतला देवी गांव में तो बस उसका नाम ही बहुत था। सारे गांव के लिए वह देवी के समान थी क्योंकि गांव की बिटिया थी और सभी की सहायता करती थी। जाने अनजाने सब का भला करती थी। बिटिया सयानी हो चली थी। कहने को तो उसकी शादी धूमधाम से रईस खानदान में दूर दराज शहर में एक नामी परिवार में हुआ था। परंतु पति की अय्याशी और गैर जिम्मेदारी के कारण उसका विवाह ज्यादा दिन नहीं चला।

उसे अपना भाग्य समझे या दुर्भाग्य दोनों का एक बेटा था। बेटे को लेकर वह सदा – सदा के लिए फिर से अपने गांव मायके आ गई। अपनी सूझबूझ से गांव की एक पाठशाला से आज वह गवर्नमेंट स्कूल की प्रिंसिपल बन चुकी थी। अपने बच्चे के लालन- पालन में कोई कसर नहीं रखी थी, परंतु कहते हैं कि खून का असर कहीं नहीं जाता है। बेटा भी उसी रंग ढंग का निकला।

वह उसे एक बड़े शहर में हॉस्टल में भर्ती कराकर कि शायद वह सुधर जाएगा, वह आ गई और अकेली समय काट रही थी। साथ में एक आया बाई हमेशा रहती थी।

उम्र का पड़ाव अब ढलान की ओर होने लगा। चिंता की गहरी रेखाएं उसके माँथे को ततेर रही थी। कभी जब बहुत कहने पर वक्त का बहाना बना देने वाला उसका बेटा आज माँ शकुंतला देवी से वीडियो कॉल पर बात कर रहा था….माँ शादी के रीति रिवाज मैं नहीं मानता। परन्तु यह देखो हम दोनों यहां शादी कर रहे हैं। तुम कहती… हो सिंदूर की गरिमा होती है। तो मैं इसके माँग पर सिंदूर भी लगा रहा हूँ। परंतु मुझे आपके रीति रिवाज में कोई दिलचस्पी नहीं है।

हाथ से हेलो करती दूसरी तरफ से कटे बाल वाली लड़की कहने लगी… हमें आशीर्वाद तो दे दो हमारी नई जिंदगी शुरू हो रही है।

शकुंतला देवी के सैकड़ो हजारों अरमान कांच के गिरकर टूटने जैसे एक ही बार में बिखर गए। सपने संजोए वह क्या-क्या सोच रही थी। परंतु बेटे ने तो एक बार में वीडियो कॉल से ही निपटा दिया। आज वह पूरी तरह टूट चुकी थी।

तभी कमरे के दरवाजे से पंडित जी की आवाज आई… बहन जी पिंडदान की पूरी तैयारी हो चुकी है। बस आप कहे तो हम आगे का कार्यक्रम शुरू करें।

शकुंतला देवी ने कहा पंडित जी आज जोड़े से पिंडदान कीजिएगा। मैं अपना स्वयं जीते जी पिंडदान करना चाहती हूँ। कुछ देर बाद वह निर्णय ले अपनी सारी संपत्ति, सामान गाँव के अनाथ बच्चों और बुजुर्गों के लिए रजिस्टर्ड कर अपना पिंडदान कर सारी रस्म – रिवाज पूरी करने लगी।

गांव में हलचल मच गई सभी ने कहा… यह कैसा मोबाइल में रस्म रिवाज चल गया जो आदमी को जीते जी मार रहा है। क्या? मोबाइल से रस्म रिवाज निभाए जाते हैं? शादी विवाह या और कुछ रीति रिवाज निभाए जाते हैं।

गांव में जितने लोग उतनी बातें होने लगी शकुंतला देवी के पास फिर कभी वीडियो कॉल नहीं आया। आज उसके मुखड़े पर चिंता की लकीर नही खुशियों की झलक दिखाई दे रही थी।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्यात्मक लघुकथा # 209 ☆ “टाइम पास…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्यात्मक लघुकथा – टाइम पास)

☆ व्यंग्यात्मक लघुकथा – ‘टाइम पास’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

पंडित जी कथा कराने टाइम से आ गये थे, देर घर वाले कर रहे थे। भीषण गर्मी थी, देर होते देख जजमान ने कहा – पंडित जी बेडरूम में एसी लगा है, जब तक थोड़ा देर आराम कर लीजिए। पंडित जी राजी हो गए और बेडरूम के सोफा में पसरकर टीवी देखने लगे।

पंडित जी के हाथ में रिमोट था,जब देखा कि कोई आसपास नहीं है तो फैशन टीवी चैनल चालू कर ‘देखने का सुख’ लेने लगे। थोड़ी देर बाद अचानक जब जजमान कथा के लिए बुलाने आए तो पंडित जी फैशन शो देखने में मग्न थे। पंडित जी अचानक जजमान को कमरे में घुसते देखकर सकपका गये और पट्ट से टीवी बंद कर बोले – ‘जजमान जी, आपको गलतफहमी न हो और श्रद्धा में कमी न हो, इसलिए बताना जरूरी है कि मैं इन्हें बहुत घृणा की दृष्टि से देख रहा था।’

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 213 ☆ कहानी – उड़ान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आपकी एक विचारणीय कहानी उड़ान। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 213 ☆

☆ कहानी – उड़ान 

नन्दो बुआ जब घर से बाहर निकलती हैं तो ऐसे ठसक से चलती हैं जैसे विश्व -विजय पर निकली हों। वजह यह है कि नन्दो बुआ एक काम की विशेषज्ञ हैं और यह काम है शादी कराना। यह नन्दो बुआ की ‘हॉबी’ है और इसके प्रति वे पूरी तरह समर्पित हैं। अगर उन्होंने ‘मैरिज ब्यूरो’ खोला होता तो भारी कमाई कर लेतीं। उनके बगल में उनका फूला हुआ बैग दबा रहता है जिसमें लड़कों- लड़कियों के फोटो, उनकी जन्मपत्रियाँ और अते-पते भरे रहते हैं।

जहाँ ब्याह लायक लड़कियाँ हैं वहाँ नन्दो बुआ को खूब आदर-सम्मान मिलता है। जहाँ बैठ जाती हैं वहाँ से घंटों नहीं उठतीं। घर में उनकी नज़र घूमती रहती है। हर लड़की में उन्हें संभावनाशील दुलहन नज़र आती है। घरों में उनका रोब भी खूब चलता है। इच्छानुसार चाय- भोजन की फरमाइश कर देती हैं। नाराज़ होने पर किसी को भी ‘बेसहूर’ ‘बेवकूफ’ कह देती हैं।

नन्दो बुआ के हिसाब से लड़का-लड़की की शादी की उम्र इक्कीस और अठारह साल मुकर्रर करना सरकार की सरासर ज़्यादती और बेवकूफी है। शादी-ब्याह के मामले में भला कानून का क्या काम? यह तो नन्दो बुआ जैसे लोगों की पारखी नज़र ही बता सकता सकती है कि कौन लड़की शादी-योग्य है और कौन नहीं। सरकार खामखाँ हर मामले में टाँग अड़ाती है।

नन्दो बुआ का दृढ़ मत है कि लड़की की सुरक्षा और चरित्र-रक्षा के लिए अगर कोई पुख़्ता मार्ग है तो वह शादी ही है। लड़की का चरित्र काँच  जैसा होता है, एक बार टूटा सो टूटा। फिर जोड़े नहीं जुड़ता। लड़की के माँ-बाप चौबीस घंटे तनावग्रस्त रहते हैं। इसलिए जितनी जल्दी गंगा- स्नान हो जाए उतना अच्छा।

लड़कियाँ नन्दो बुआ को वे ही पसन्द आती हैं जो नितान्त आज्ञाकारी, गऊ समान होती हैं,कि जिसके पल्ले माँ-बाप बाँध दें चुपचाप खुशी-खुशी चली जाएँ। स्कूटर पर फर-फर उड़ने वालीं, चबड़- चबड़ करने वालीं, हर बात में अपनी नाक घुसेड़ने वाली लड़कियाँ नन्दो बुआ को फूटी आँख नहीं सुहातीं। उनके हिसाब से आजकल की लड़कियों की आँख का शील मर गया है। आँख में आँख डाल कर बात करती हैं और मज़ाक उड़ाने से भी बाज़ नहीं आतीं। राह चलते अगर नन्दो बुआ को लड़कियाँ बैडमिंटन खेलतीं या हँसती-बोलती दिख जाएँ तो रुक कर हिदायत दे देती हैं—‘ए लड़कियो, कुछ लाज शरम रखो।यह क्या हुड़दंग मचा रखा है? क्या ज़माना आ गया है!’

सीधी-सादी, कम पढ़ी- लिखीं, आत्मविश्वास से हीन लड़कियाँ नन्दो बुआ को प्रिय हैं क्योंकि वे न कोई आपत्ति उठाती हैं, न कोई अपनी राय रखती हैं। ऐसी लड़कियों के सिर पर नन्दो बुआ का हाथ बार-बार घूमता है,कहती हैं, ‘फिकर मत करियो बिटिया। तुम्हारी शादी की जिम्मेदारी हमारी। ऐसे घर में भेजूँगी कि रानी बनकर राज करोगी।’

नन्दो बुआ की मानें तो दुनिया रसातल की तरफ जा रही है। पहले लड़कियाँ मर्यादा के साथ रहती थीं, अब झुंड की झुंड, बगल में किताबें दबाये घूमती हैं। जहाँ देखो लड़के-लड़कियाँ साथ खड़े हीही-ठीठी करते हैं। कपड़े देखो तो सब ऊटपटाँग। शर्म-लिहाज सब गया। पहले लड़कियाँ स्कूटर पर सिमट कर बाप या भाई के पीछे बैठती थीं, अब खुद माँ-बाप को पीछे बिठाये सर्र-सर्र दौड़ती हैं। दूसरी बात यह कि लड़कियों का मुँह खुल गया है। माँ-बाप की बात का सीधे विरोध कर देती हैं। वे उन लाजवन्तियों को हसरत से याद करती हैं जिन का मुँह तो क्या, हाथ-पाँव की उँगलियाँ देख लेना भी मुश्किल होता था। जो मुँह छिपाये ससुराल में आती थीं और मुँह छिपाये ही संसार से विदा हो जाती थीं। अब की लड़कियाँ तो आधी रात को भी घर से बेझिझक निकल पड़ती हैं।

पटेल परिवार की गीता पर बुआ की नज़र तब से थी जब वह दसवीं ग्यारहवीं में थी। लड़की सुन्दर, हाथ- पाँव से दुरुस्त थी। और क्या चाहिए? बारहवीं पास कर ले तो शादी के लिए बिल्कुल फिट हो जाएगी। गीता की माँ के पास बुआ की बैठकें जमती रहती थीं। उन्हें भी वे आश्वासन दे चुकी थीं कि गीता को रानी बना देंगीं।

गीता शोख थी। बुआ को चिढ़ाने में उसे मज़ा आता था। माँ के सामने ही बुआ से कहती, ‘बुआ, रानी कैसे बनाओगी? राजा- रजवाड़े तो सब खतम हो गये। अब तो देश में प्रजातंत्र है।’

बुआ आँखें चढ़ाकर कहतीं, ‘बिट्टी, थोड़ा पढ़-लिख गयी हो तो जुबान पर मत बैठो। रानी बनने से मेरा मतलब है कि ऐसे घर में भेजूँगी जहाँ खूब आराम मिले। दस नौकर-चाकर सेवा में रहेंगे।’

लेकिन बुआ की मुराद पूरी नहीं हुई। गीता ने बारहवीं पास करने के बाद नीट की तैयारी शुरू कर दी और उसके माता-पिता ने फिलहाल उसकी शादी का विचार त्याग दिया। बुआ ने भी बात को समझ कर दूसरी, कम महत्वाकांक्षी, लड़कियों पर ध्यान देना शुरू कर दिया। बारहवीं में गीता के अंक अच्छे आये थे इसलिए उसे भरोसा था कि वह नीट में निकल जाएगी।

दुर्भाग्यवश गीता नीट पास नहीं कर पायी और उसकी आगे की पढ़ाई की सारी योजना गड़बड़ा गयी। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। कॉलेज की पढ़ाई से ध्यान हटाकर वह फिर नीट की तैयारी में लग गयी। एक साल गुज़र जाने के बाद परिणाम आया। इस बार भी सफलता नहीं मिली। अब गीता को मायूसी हुई। आत्मविश्वास डगमगा गया। कॉलेज छोड़ देने के कारण आगे की राह अनिश्चित हुई। लेकिन उसने उम्मीद पूरी तरह छोड़ी नहीं। एक बार और नीट में बैठने का निश्चय उसने कर लिया।

गीता का सपना था कि डॉक्टर बनकर समाज की खूब सेवा करेगी। अशिक्षा और अंधविश्वास से जकड़े समाज में वह असमर्थ लोगों को छोटे छोटे रोगों से मरते और पीड़ा भोगते देखती थी। उसका सोचना था कि बड़ी असमानताओं वाले इस देश में कम से कम शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवाएँ तो सबको सुलभ होना चाहिए। उसे लगता था कि अपने बूते के अनुसार उसे लोगों का दुख-निवारण ज़रूर करना चाहिए। लेकिन दो बार की असफलता के बाद उसे अपना सपना टूटता दिखता था।

दूसरी बार की असफलता के बाद नन्दो बुआ की नज़र फिर गीता पर टिक गयी। अब फिर उन्हें उसकी जगह एक सजी-धजी दुलहन दिखायी देने लगी थी। उसके घर में उनकी बैठकें बढ़ने लगीं।

गीता की माँ को भी अब लगने लगा था कि वक्त बेकार ज़ाया हो रहा था। लड़की की शादी हो जाए तो अच्छा। दो बार की असफलता से बेटी के चेहरे पर आयी मायूसी उन्हें तकलीफ देती थी। वे सोचती थीं कि ब्याह हो जाए तो यह सब पीछे छूट जाएगा। लड़की की उम्र बढ़ने से भविष्य में होने वाली परेशानियों से वे वाकिफ थीं। इसलिए उनकी तरफ से नन्दो बुआ को ज़्यादा सहयोग और प्रोत्साहन मिलने लगा था।

नन्दो बुआ के बटुए में हमेशा आठ दस लड़कों-लड़कियों के फोटो और ज़रूरी जानकारी रहती थी। उनके संपर्क के लड़के अक्सर साधारण पढ़े-लिखे और छोटी-मोटी नौकरियों या धंधे वाले होते थे। आधुनिक घरों में उनकी पैठ कम थी। ज़्यादा पढ़े-लिखे लोगों के हाव-भाव उन्हें पसन्द नहीं आते थे। उन्हें परंपरावादी, रूढ़िवादी लोग ज़्यादा रास आते थे। ज़्यादा पढ़े-लिखे लड़कों की डिग्रियाँ और योग्यताएँ उनकी समझ में नहीं आती थीं।

वे गीता की माँ को दो तीन लड़कों की जानकारी दे चुकी थीं। लड़के पढ़ने-लिखने में सामान्य थे लेकिन उनके परिवार मालदार थे, जो बुआ की नज़र में खास बात थी। बुआ गीता की माँ को आश्वासन देती रहती थीं कि उन लड़कों के परिवार इतने संपन्न थे कि लड़का ज़िन्दगी भर कुछ न करे तब भी उनकी बेटी को तकलीफ नहीं होगी।
गीता को बुआ की उसमें इतनी रुचि से चिढ़ होती थी। एक दिन उसने बुआ से कहा, ‘बुआ, थोड़ा गम खाओ। मुझे आदमी बन जाने दो।’

सुनकर बुआ ठुड्डी पर तर्जनी टिका कर बोलीं, ‘एल्लो, सुन लो पोट्टी की बातें! क्या अभी तू आदमी नहीं है?’

गीता ने जवाब दिया, ‘कहने को तो आदमी तब भी आदमी था जब वह गुफाओं में रहता था और पत्थर के हथियारों का इस्तेमाल करता था, लेकिन तब के आदमी और आज के आदमी में बहुत फर्क है।’

नन्दो बुआ ने अप्रतिभ होकर पूछा, ‘क्या मतलब है तेरा?’

गीता बोली, ‘मतलब यह कि लड़कियों को भी इतना मौका और वक्त दो कि वे दुनिया में अपने लिए जगह बना सकें। जिस दुनिया में रहती हैं उसे थोड़ा समझ सकें। लड़कियाँ उतनी कमजोर और लाचार नहीं होतीं जितना आप समझती हैं। वे अपने भविष्य का खयाल कर सकती हैं।’

बुआ पुचकार कर बोलीं, ‘अरे बिटिया, तू अभी नादान है। लड़की का जीवन बड़ा कठिन होता है। भले भले कट जाए तो गनीमत जानो। कब जरा सी बात पर बदनामी गले आ पड़े, कोई ठिकाना नहीं। हमारी सोसाइटी लड़कियों के लिए बड़ी निर्दयी होती है।’

गीता ने पलट कर प्रश्न किया, ‘यह बताओ बुआ कि आपकी सोसाइटी लड़कों और लड़कियों के बीच इतना भेद क्यों करती है? लड़कियों पर आप लोगों को भरोसा क्यों नहीं होता? सारी नसीहतें और सारे प्रतिबंध लड़कियों के लिए ही क्यों हैं? लड़कियों के आगे पीछे ताक- झाँक और जासूसी क्यों होती है? हमें अपने निर्णय करने की छूट क्यों नहीं मिलती?’

नन्दो बुआ निरुत्तर हो गयीं। ठंडी साँस लेकर बोलीं, ‘क्या कहें बिटिया, यह समाज ऐसा ही है। सदियों से यही होता रहा है।’

वैसे इस तरह की बातों से नन्दो बुआ को कोई फर्क नहीं पड़ता था। लड़कियों की शादी कराना उनके लिए मिशन था। इस काम से उन्हें घरों में जो मान-सम्मान मिलता था वह उनकी पूँजी थी और उसे वे किसी कीमत पर गँवाना नहीं चाहती थीं। इसलिए उन्होंने गीता की बातों को झाड़ कर दिमाग से निकाल दिया।

गीता तीसरी बार नीट की परीक्षा में बैठ गयी थी लेकिन अब उसे ज़्यादा उम्मीद नहीं थी। आँखों के सपने बुझ गये थे। इस बार असफल होने पर शायद शादी के सिवा कोई रास्ता न बचे। वह ऊपर से खुश दिखती थी, लेकिन मन पर उदासी की घेराबन्दी निरन्तर बढ़ रही थी। उसकी हार में नन्दो बुआ की जीत छिपी थी।

उस दिन गीता की माँ के पास नन्दो बुआ की बैठक जमी थी। नन्दो बुआ बताने आयी थीं कि एक लड़के ने गीता की फोटो को पसन्द कर लिया था। लड़के ने बी. कॉम. पास किया था और अब घर के धंधे में लगा था। नन्दो बुआ का विचार था कि एक बार गीता के पापा लड़के वालों से मिल लें तो बात आगे बढ़े।

तभी भीतर फोन की घंटी बजी। गीता ने फोन उठाया। उसकी सहेली का फोन था। फोन सुनती गीता की खुशी से भरी आवाज़ सुनायी पड़ी— ‘वाउ, ग्रेट न्यूज़। आई एम सो हैप्पी।’

गीता बाहर निकली तो उसकी मुट्ठियाँ फैली हुई थीं और आँखें चमक रही थीं। चिल्ला कर बोली, ‘मम्मी, मैं नीट में पास हो गयी। मैं कितनी खुश हूँ!’

नन्दो बुआ हकला कर बोलीं, ‘बड़ी खुशी की बात है। तेरी मेहनत सफल हो गयी।’

गीता बोली, ‘हाँ बुआ! मेरी जान बच गयी। अब आप पिंजरे में डालने के लिए दूसरी लड़की ढूँढ़ो। मैं तो आकाश में उड़ने चली।’

बुआ का मुँह उतर गया, बोलीं, ‘उड़ो बेटा, खूब उड़ो। हम तो लड़कियों का भला करते हैं। तुम नहीं, और सही।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – दुगुना लाभ ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

☆  लघुकथा ☆ दुगुना लाभ ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

(सौ. उज्ज्वला केळकर जी की इस मराठी लघुकथा का  Baby Karforma द्वारा बांग्ला भावानुवाद ढाका, बांग्ला देश के “दैनिक गण मानुषेर आवाज़” (दैनिक आम आदमी की आवाज़) में प्रकाशित हुआ है। हार्दिक बधाई।) 

राष्ट्रपति भवन से एक अध्यादेश जारी किया गया। इस अध्यादेश द्वारा लोक प्रतिनिधि,  कार्यकर्ता, शासकीय अधिकारी, कर्मचारी सभी को भ्रष्टाचार प्रतिबंधक टीका लगाना अनिवार्य किया गया। निविदाएँ आमंत्रित की गई। कम कीमत वाली निविदा स्वीकृत की गई। औषधि मँगवाई गई। औषधि की बोतलें आई। डॉक्टर साहब भी आए।

यह सब इतनी तेजी से हुआ, कि किसी को कुछ पता ही नहीं चल रहा था, कि क्या हो रहा है? शासकीय स्तर पर इतनी शीघ्रता से घटित होने वाली यह पहली ही घटना होगी शायद। जब इसका नतीजा ध्यान में आया, तो मंत्री – संत्री, सचिव – अधिकारी, चपरासी, कार्यकर्ता,-अनुयायी सारे सकपका गए। सन्न होकर रह गए।

‘अब क्या फायदा मंत्री होने का?‘ मंत्री फुसफुसाने लगे।

‘अब क्या फायदा सचिव होने का? ‘सचिव भुनभुनाने लगे।

‘अब क्या फायदा अफसर  होने का?’ अफसर कहने लगे।

‘अब क्या फायदा चपरासी होने का?’ चपरासी बड़बड़ाने लगे।

‘अब क्या फायदा लार टपकाने का?’ अनुयायी शिकायत करने लगे।

सभी जनों को टीका लगाकर हाथ धोकर नैपकिन से पोंछते हुए डॉक्टर साहब बाहर आ गए।

‘क्यों, क्या हो गया? इस तरह मुँह लटकाए हुए क्यों बैठे हो?’ उन्होँने पूछा।

‘आप की करतूत….’

‘मेरी करतूत? क्यों भाई, मैँने क्या किया?’

‘सब कुछ जानते हुए भी यूँ अनजान मत बनो डॉक्टर साब।‘

‘अरे भाई, खुलकर बोलो तो, क्या हो गया? ‘

‘अभी अभी आपने भ्रष्टाचार प्रतिबंधक टीका जो लगाया है….’

‘ओह…! उसकी चिन्ता आप ना करें। टीके का कोई परिणाम नहीं दिखने वाला…’

‘वो कैसे?’

‘औषधि मिलावटी है। कम कोटेशन वाली निविदा जो दी थी ।

‘मगर ऐसा क्यों डॉक्टर साब?‘

‘दुगुना लाभ! कोटेशन कम होने के कारण निविदा स्वीकृत हो गई। अब आप लोग मेरी ईमानदारी का खयाल करेंगे ही! करेंगे ना…’

☆  ☆  ☆  ☆  ☆ 

© सौ. उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170ईमेल  – [email protected]

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – सबसे ऊँची ज़मीन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – सबसे ऊँची ज़मीन)

☆ लघुकथा – सबसे ऊँची ज़मीन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

लुटे पिटे, पस्त लोगों का क़ाफ़िला सरहद पार करते ही रुक गया। सबने एक दूसरे को देखा – किसी की उँगली कटी हुई थी, किसी के कंधे पर ज़ख़्म था तो किसी के सिर पर। कोई लंगड़ाता हुआ चला आया था तो कोई रोता हुआ। लगभग सभी के जिस्मों पर ख़ून के सूख चुके या सूख रहे धब्बे थे। ख़ैरियत सिर्फ़ इतनी थी कि जान बच गई थी। अब सब इस तरफ़ की धरती को देख रहे थे, जहाँ उनका बसेरा होने वाला था। एक शख़्स ने कहा – इधर की ज़मीन उधर से ऊँची तथा पवित्र लग रही है।

ज़्यादातर लोगों ने उसकी बात से सहमति जताई। तभी एक छः महीने का बच्चा भूख से रोया। उसकी माँ की एक छाती बलवाइयों ने काट दी थी। माँ ने बच्चे को बची रह गई छाती से चिपका लिया और उसे दूध पिलाती हुई उसके सिर पर हाथ फिराने लगी।

उसी शख़्स ने फिर कहा – मैं ग़लत था, कोई भी ज़मीन बच्चे को दूध पिलाती माँ की छाती से ऊँची तथा पवित्र नहीं हो सकती। फिर सभी ने सिर झुकाकर सहमति जताई। इस बार सबके हाथ जुड़े हुए थे, आँखें चू रही थीं।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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