हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 126 ☆ हिंदी दिवस विशेष – अदालत में हिंदी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘आग ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 126 ☆

☆ लघुकथा – अदालत में हिंदी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

अदालत में आवाज लगाई गई – हिंदी को बुलाया जाए। हिंदी बड़ी सी बिंदी लगाए भारतीय संस्कृति में लिपटी फरियादी के रूप में कटघरे में आ खड़ी हुई।

मुझे अपना केस खुद ही लड़ना है जज साहब ! – उसने कहा।

अच्छा, आपको वकील नहीं चाहिए ?

नहीं, जज साहब ! जब मेरी आवाज बन भारत  विदेशियों से जीत गया तो मैं अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ सकती ?

ठीक है, बोलिए, क्या कहना चाहती हैं आप ?

जब देश स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था तब मैंने कमान संभाली थी। देशभक्ति की ना जाने कितनी कविताएं मेरे शब्दों में लिखी गईं। जब मैं कवि के शब्दों में कहती थी – जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह ह्रदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं,  तब इसे सुनकर नौजवान  देश के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर देते थे।  मैं सबकी प्रिय थी,  कोई नहीं कहता था कि तुम मेरी नहीं हो। लेकिन अब  मेरे अपने देश के माता – पिता अपने बच्चों को मुझसे दूर रखते हैं, देश के नौजवान मुझसे मुँह चुराते हैं। इतना ही नहीं महाविद्यालयों में तो युवा मुझे पढ़ने से कतराते हैं। मेरे मुँह पर तमाचा- सा लगता है जब वे कहते हैं कि क्या करें तुम्हें पढ़कर ?  हमें नौकरी चाहिए, दिलवाओगी तुम ? जीने के लिए रोटी चाहिए,  हिंदी नहीं ! मैं उन्हें दुलारती हूँ, पुराने दिन याद दिलाती हूँ, कहती हूँ अच्छे दिन आएंगे परंतु वे मेरे वजूद को नकारकर अपना भविष्य संवारने चल देते हैं। जज साहब! मैं अपने ही देश में पराई हो गई। इस अपमान से मेरी  बहन बोलियों ने अपनी जमीन पर ही दम तोड़ दिया। मुझे न्याय चाहिए जज साहब! – हिंदी हाथ जोड़कर उदास स्वर में बोली।

अदालत में सन्नाटा छा गया। न्यायधीश महोदय खुद भी दाएं- बाएं झांकने  लगे। उन्होंने आदेश दिया –  गवाह पेश किया जाए।

हिंदी सकपका गई, गवाह कहाँ से लाए ? पूरा देश ही तो गवाह है, यही तो हो रहा है हमारे देश में – उसने विनम्रता से कहा।

नहीं, यहाँ आकर कटघरे में खड़े होकर आपके पक्ष में बात कहनेवाला होना चाहिए – जज साहब बोले।

हिंदी ने बहुत आशा से अदालत के कक्ष में  नजर दौड़ाई,  बड़े – बड़े नेता, मंत्री, संस्थाचालक वहाँ बैठे थे, सब अपनी – अपनी रोटियां सेंकने की फिक्र में  थे। किसी ने उसकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं।

गवाह के अभाव में मुकदमा खारिज कर दिया गया।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – सह अस्तित्व की भावना ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “सह अस्तित्व की भावना“.)

☆ लघुकथा – सह अस्तित्व की भावना ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

वे दोनों ही कई दिनों से अस्पताल में भर्ती थे। दोनों के बिस्तर भी आमने-सामने थे। उनकी समस्याएं भी तकरीबन एक जैसी थीं। उनके इलाज डॉक्टरों के वश में थे और नहीं भी थे।

दरअसल, एक की दोनों किडनी खराब थीं। एक किडनी मिल जाती तो स्थापित कर दी जाती। किडनी डोनेशन का विज्ञापन अखबारों में एक अर्से से दिया जा रहा था। दूसरे की दोनों आंखें रोशनी के लिए तरस रही थीं। एक आंख मिल जाती तो जीवन सुधर जाता। उसने भी नेत्रदान की अपील अखबारों के माध्यम से की थी।

‘किंतु संभावना शून्य ही है’ – एक दिन एक निराश होकर बोला।

‘इस तरह कब तक अस्पताल का बिल बढ़ाते रहेंगे’।

दूसरा बोला- ‘तो’

‘तो क्या?’

‘मुझे जल्दी ही प्रस्थान करना पड़ेगा। कोई दो-चार महीने में ही।’

‘और  मैं कौन सा ज्यादा टिकूंगा, सड़क पर गया और किसी ने मार दी टक्कर।’

‘कोई रास्ता’

‘अच्छा बताओ, तुमने किसी की मदद की है’।

‘इसी में तो इन आंखों की यह दुर्गति हुई है’।

‘मैं तुम्हें एक आंख दान कर दूं तो’!

‘मैं भी तुम्हें एक किडनी देने से नहीं चूकूंगा’।

दूसरे दिन दोनों खुश थे। तरो ताजा भी दिख रहे थे। सह अस्तित्व की भावना से उनके जीवन में बहार जो आ गई थी।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अकल बड़ी कि भैंस ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “अकल बड़ी कि भैंस “.)

☆ लघुकथा – अकल बड़ी कि भैंस ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

‘अकल बड़ी कि भैंस’? – मास्टर जी ने पूछा तो किशोर का जवाब था – भैंस बड़ी.

‘यह क्या उल्टा-पुल्टा जवाब दे रहे हो किशोर? मैंने क्या यही अर्थ बताया था तुम्हें.’ मास्टर जी गरम होते हुए बोले.

‘सर  हकीकत तो यही है, अब भैंस बड़ी है अकल से, यह स्वीकार कर लेना चाहिए.’

‘कैसे’?

‘मेरे पिताजी बी ए  पास थे. नौकरी मांगने चले तो मुंह की खानी पड़ी. चारों कोने चित् गिरे.’

‘अच्छा फिर!’

‘फिर क्या? भैंस के तबेले से जुड़ गए. अब पूरी एक दर्जन भैंसे हैं हमारे तबेले में.’

‘भाई वाह!’.

‘जी हां, भैंसें बाकायदा अकल को मुंह चिढ़ाती  रहीं. हम लोग आगे बढ़ते रहे.’

‘बड़ी दिलचस्प कहानी है–आगे बढ़ो.’

‘अब हमारे पास एम ए पास तबेले का मैनेजर है. वह बेचारा एक पाव दूध भी मुश्किल से खरीद पाता था. काली चाय पीकर गुजारा करता था. अब उसके पास दो मुर्रा भैंसें हैं और वह पिताजी का पार्टनर बन गया है.’

‘गोया- लब्बोलुबाब यह है कि भैंसें उसकी जिंदगी बना रही हैं.’ मास्टर जी ने पूछा?

‘जी सर. इसलिए तो मैं कह रहा हूं की भैंस बड़ी है अकल से, पुरानी कहावत बदली जानी चाहिए गुरुवर.’

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – लीडरी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “लीडरी“.)

☆ लघुकथा – लीडरी ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

दृश्य वही था। लोमड़ी नदी में पानी पी रही थी। उसके ऊपर की ओर भेड़िया था।

भेड़िया गुर्राया – ‘गंदा पानी इधर भेज रही है–ऐं। फिर तेरा झूठा पानी भी पीना पड़ेगा-ऐं।’

‘गंदा और झूठा तो आप कर रहे हैं महाराज। पानी का बहाव तो उधर से इधर की ओर है।’

भेड़िया गुर्र्रा कर बोला – ‘चोप्प।’

‘चोप्प क्यों महाराज। इसमें मेरी गलती कहां है महाराज।’

‘चोप्प, मुंह लडाती है, चोटटी कहीं की।’

अब लोमड़ी ने अपना रूप दिखाया – ‘चोटटा होगा तू—तेरी सात पीढ़ी—तू मुझसे ही खेल रहा है सांप सीढ़ी।’

अब भेड़िया घबराया। यह तो तो उलटी गंगा बहने लगी थी। लोमड़ी भेड़िए को आंखें दिखाने लगी थी। तब तक लोमड़ी ने भेड़िए को फिर हवा भरी। अपनी आंखें तरेरते हुए बोली –

‘यहां की मादा यूनियन की सेक्रेटरी हूं मैं। किसी भी मादा से अशिष्टता की सजा जानता है तू।’

‘घेराव, जुलूस, पुलिस, अदालत फिर सजा। जंगल से बहिष्कार मादाओं की भी इज्जत होती है आखिरकार।’

भेड़िया घबराया। यह कहां का बबाल उसने बना डाला। किस मुसीबत से पड़ गया है पाला। अपना गिरगिट जैसा रंग बदलकर बोला – ‘माफी दें लोमड़ी बहन, अब ऐसी गलती कभी नहीं होगी।’ लोमड़ी की बन आई थी इसलिए रौब झाड़ कर बोली- ‘चल फूट नासपीटे—पानी पीने का मजा ही किरकिरा कर दिया।’

भेड़िए के दुम दबाकर भागने पर वह अकड़ती हुई जंगल में घुसती चली गई।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 125 ☆ लघुकथा – आग ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘आग ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 125 ☆

☆ लघुकथा – आग ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

मेरी नजर उसके पैरों पर थी। तपती धूप में वह नंगे पैर कॉलेज आता था । एक नोटबुक हाथ में लिए चुपचाप आकर क्लास में पीछे बैठ जाता। क्लास खत्म होते ही सबसे पहले बाहर निकल जाता। 

‘पैसेवाले घरों की लड़कियां गर्मी में सिर पर छाता लेकर चल रही हैं और इसके पैरों में चप्पल भी नहीं।‘ एक दिन वह सामने पड़ा तो मैंने उससे कुछ पूछे बिना चप्पल खरीदने के लिए पैसे दे दिए। उसने चुपचाप जेब में रख लिए। दूसरे दिन वह फिर बिना चप्पल के दिखाई दिया। ‘अरे! पैर नहीं जलते क्या तुम्हारे? चप्पल क्यों नहीं खरीदी?’ मैंने पूछा। बहुत धीरे से उसने कहा – ‘पेट की आग ज्यादा जला रही थी मैडम!’

© डॉ. ऋचा शर्मा

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – जज्बा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा जज्बा“.)

☆ लघुकथा – जज्बा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

(१६ दिसंबर से पहले)

शहर के पार्क में कुछ महिलाएं, कुछ युवतियां, सुबह-सुबह इकट्ठे होकर योगाभ्यास किया करतीं.

सब कुछ ठीक-ठाक होता पर ‘सिंह आसन’ में जीभ बाहर निकालकर हुंकार करने के प्रयत्न में कमजोर पड़ जातीं. मैं अक्सर सोचता ‘सिंह आसन’ में आखिर ये सब शेरनी जैसा दमखम कहां से लाएंगीं भला. मुंह से करारी आवाज निकलेगी तब न, महिलाएं पुरुषों जैसा साहस कहां से लाएंगीं आखिर आखिर.

(16 दिसंबर के बाद)

कुछ दिनों बाहर रहने के बाद पुन: शहर लौटा, तब तक दिल्ली में निर्भया के साथ वह भीषण वहशी कांड हो चुका था. उस रूह कंपकंपाने वाली दास्तान से पूरा देश उबल रहा था. महिलाओं-युवतियों ने एकजुट होकर अपनी ताकत दिखा दी थी.

मैं फिर एक दिन उसी पार्क में था. महिलाओं का सिंह आसन चल रहा था. पहले की अपेक्षा इस बार का दृश्य पूरी तरह बदला हुआ था. अपनी लंबी जीभ निकाले यह वामा दल शेरनियों में तब्दील हो चुका था. मानो, किसी ने इन्हें छेड़ने की हिमाकत की तो यह सब चीर फाड़ कर रख देंगीं. निर्भया के बलिदान ने इन्हें इतना निर्भय तो कर ही दिया था.

– और तब मेरा हाथ इन्हें सलाम करने की मुद्रा में अपने आप ऊपर उठ गया था.

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – गोटेदार लहंगा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

पुनर्पाठ-

? संजय दृष्टि –  लघुकथा – गोटेदार लहंगा ??

..सुनो।

…हूँ।

…एक गोटेदार लहँगा सिलवाना है.., कुछ झिझकते, कुछ सकुचाते हुए उसके बच्चों की माँ बोली।

 ….हूँ……हाँ…फिर सन्नाटा।

…अरे हम तो मज़ाक कर रहीं थीं। अब तो बच्चों के लिए करेंगे, जो करेंगे।…तुम तो यूँ ही मन छोटा करते हो…।

प्राइवेट फर्म में क्लर्की, बच्चों का जन्म, उनकी परवरिश, स्कूल-कॉलेज के खर्चे, बीमारियाँ, सब संभालते-संभालते उसका जीवन बीत गया। दोनों बेटियाँ अपने-अपने ससुराल की हो चलीं। बेटे ने अपनी शादी में ज़िद कर बहू के लिए जरीवाला लहंगा बनवा लिया था। फिर जैसा अमूमन होता है, बेटा, बहू का हो गया। आगे बेटा-बहू अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचने लगे।

बगैर पेंशन की ज़िंदगी कुछ ही सालों में उसे मौत के दरवाज़े ले आई। डॉक्टर भी  घर पर ही सेवा करने की कहकर संकेत दे चुका था।

उस शाम पत्नी सूनी आँखों से छत तक रही थी।

….डागदर-वागदर छोड़ो। देवी मईया तुम्हें ठीक रखेंगी। तुम तो कोई अधूरी इच्छा हो तो बताओ.., सच को समझते हुए धीमे-से बोली।

अपने टूटे पलंग की एक फटी बल्ली में बरसों से वह कुछ नोट खोंसकर जमा करता था। इशारे से निकलवाए।

….बोलो क्या मंगवाएँ? पत्नी ने पूछा।

….तुम गोटेदार लहंगा सिलवा लो..! वह क्षीण आवाज़ में बोला।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा –  पागल ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा “पागल“.)

☆ लघुकथा –  पागल ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

बचपन के संगी – साथी तो कोई मिले नहीं – मिले ये दो पेड़। एक जामुन का दूसरा बेल का, इन दोनों के, फलने पर मैं इन पर कई कई बार चढ़ता – उतरता रहा हूं। दिनभर इन के इर्द-गिर्द घूमता रहता। चढ़ने – उतरने में अक्सर हाथ – पैर की चमड़ी छिल जाया करती।

दादी गुस्सा कर गालियां देती – ‘नासपीटे तू तो इन पेड़ों पर ही खटिया डाल ले, वही सो जाया कर – तुझे सोने के लिए घर तो नहीं आना पड़ेगा। वहीं ऊपर ही ऊपर टंगे रहियो। ‘

दादा हंसकर चिढ़ाते – ‘ठीक ही तो कहती है तेरी दादी। साफ-सुथरी हवा में नींद भी खूब आएगी। पेड़ होना अपने आप में एक अच्छी बात है। तिस पर उस पर सोना, सोने में सुहागा। ‘

मैं शर्मा कर रह जाता। शहर पढ़ने जाने लगा तो मैंने दादा जी से एक दिन कहा – ‘दादा, मेरे साथ इन पेड़ों को भी भेज दो ना। ‘ हा हा हा दादा जोर से हंसे। अपने पोपले मुंह से दादी भी क्या कम हंसी थी।

सेवानिवृत्ति के बाद पहली बार घर आया तो टूटे – बिखरे घर को देखकर रोना आ गया। घर की जगह – जगह से आसमान दिखने लगा था। गांव भर के गाय – बैलों का रेस्ट हाउस बन गया था यह। ट्रकों से गोबर भरा पड़ा था।

घर से घोर निराशा हुई तो खलिहान पहुंच गया। जहां दोनों पेड़ सही सलामत दिखे। भावावेश में, मैं इन पर चढ़ने उतरने की कोशिश करने लगा। हाथ पैर छिल गए, दूर कहीं गालियां बकती दादी का चेहरा दिखाई दे रहा था। …. नासपीटे पेड़ों पर ही खटिया डाल ले… वहीं ऊपर ही ऊपर टंगे रहियो…. हा हा हा ठठाकर दादा भी हंसते दिखाई दिए…. मैं भी ठठाकर हंसने लगा, हा हा हा गांव वाले मेरी इस हरकत पर मुझे पागल समझ रहे थे।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #207 ☆ कहानी – वीरगाथा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कहानी ‘वीरगाथा’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 207 ☆
☆ कहानी – वीरगाथा 

नरेश पत्नी के इन्तज़ार में बीड़ी फूँकता घर की चौखट पर बैठा है। भीतर आशा ज़ोर ज़ोर से अपना पाठ याद करने में लगी है। छोटा अशोक दीवार से टिका ऊँघ रहा है। सब मीना के इन्तज़ार में हैं कि काम से लौटे तो घर में भोजन की खटर-पटर शुरू हो।

मीना के आते ही अशोक उससे चिपक जाएगा। उसका आँचल पकड़े पूरे घर में ठुनकता रहेगा, तब तक जब तक उसके पेट में कुछ पड़ न जाए। उसके बाद फिर उसे नींद आने लगेगी।

अभी आशा अपना पाठ याद करती है, ‘वीरांगना, वीरांगना माने बहादुर स्त्री।’ अन्य शब्दों के साथ बार-बार लौटकर ‘वीरांगना’ पर आती है। याद कर के स्कूल में सुनाना है।

दरवाज़े पर बैठा नरेश अचानक हँसता है— ‘लो आ गयीं वीरांगना। बड़ी देर से वीरांगना को पुकार रही थी।’

मीना पति के बगल से गुज़र कर घर में प्रवेश करती है। चेहरे पर थकान और थकान से उत्पन्न तनाव। उसे पता है दूसरों के घर का काम खत्म होने पर अपने घर का काम शुरू होना है। पति बस बीड़ी फूँकता उसके इन्तज़ार में बैठा रहेगा कि कब वह आये और भोजन का जुगाड़ हो। बिना दस बार कहे वह किसी काम के लिए हिलता डुलता नहीं।

मीना तीन-चार घरों में झाड़ू- पोंछा करती है। एक घर में खाना भी बनाती है। लौटते-लौटते शाम के सात आठ बजते हैं। लौटने पर थोड़ा आराम करने की इच्छा होती है, लेकिन कहाँ हो पाता है? घर में घुसते ही पति और बच्चों की नज़रें उस पर टिक जाती हैं। थोड़ी देर हुई कि पति का भुनभुनाना और अशोक की चीख-पुकार शुरू हो जाती है। घर का काम निपटाये बिना पीठ टिकाना संभव नहीं।

नरेश के काम का कोई ठिकाना नहीं। दूकानों में काम करता है, लेकिन चार छः महीने में उसकी मालिक से खटपट हो जाती है। घर में बड़े गर्व से कहता है, ‘अपन इज्जत की नौकरी करते हैं। इज्जत नहीं मिलती तो एक मिनट में नौकरी को लात मार देते हैं।’ मीना जवाब देती है, ‘हाँ, मैं दिन भर छाती मार कर कमाती हूँ इसीलिए तुम्हें इज्जत की बड़ी फिकर रहती है। जिस दिन रोटियों के लाले पड़ जाएँगे उस दिन इज्जत को लेकर चाटते रहना।’

नरेश की बच्चों को पढ़ाने लिखाने में रुचि नहीं है। कहता है, ‘पढ़ने लिखने से क्या होता है? आजकल छोटे-छोटे बच्चे भी बढ़िया कमाई करते हैं और माँ-बाप की मदद करते हैं। रौनक लाल को देखो, उसके पाँच बच्चे हैं और सभी कमाने में लगे हैं। सबेरे से सब्जी की टोकरी लेकर निकल जाते हैं। पढ़ने लिखने से क्या मिलने वाला है? वक्त की बरबादी है।’

सुनकर मीना का पारा चढ़ जाता है। कहती है, ‘पढ़ लिखकर आदमी बन जाएँगे, नहीं तो लड़की सारी जिन्दगी मार खाएगी और लड़का कहीं बोझा ढोएगा। तुम्हारे दिमाग में यह बात नहीं घुसेगी।’

लेकिन नरेश के लिए इन बातों का कोई मतलब नहीं था। एक दिन वह बिना मीना को बताये अशोक को स्कूल से बीच में ही ले आया और उसे चाट-पकौड़ी खिलाने ले गया। अशोक मस्ती में बाप के साथ घूमता रहा। लेकिन गड़बड़ यह हुई कि बाप की सारी हिदायत के बावजूद वह इतनी बढ़िया खबर को माँ से छिपा नहीं सका। सुनने की देर थी कि घर में भूचाल आ गया। मीना ने हाथ के बर्तन दीवार पर मारे और चूल्हे में पानी डालकर पलंग पर सिर तक ओढ़ कर जा लेटी। सारे घर की सिट्टी पिट्टी गुम। अन्ततः नरेश को बेटे के सिर पर हाथ रखकर कसम खानी पड़ी कि दुबारा ऐसा नहीं होगा। तब जाकर मीना के सिर से भूत उतरे। लेकिन दूसरे दिन वह स्कूल जाकर प्राचार्य को हिदायत दे आयी कि उसके अलावा किसी अन्य के साथ बच्चे को बीच में न भेजा जाए।

नरेश एक दूसरा तीर चलाता है। कहता है, ‘चलो लड़के की पढ़ाई की बात तो समझ में आयी, लेकिन लड़की को पढ़ाने का क्या मतलब है? लड़की को दूसरे घर जाना है, उसकी पढ़ाई पर पैसे खर्च करने का क्या मतलब? कहीं काम करने लगे तो चार पैसे घर में आएँगे।’

मीना जवाब देती है, ‘नहीं पढ़ाओगे तो ससुराल में मार खाकर गूँगी गाय की तरह वापस आ जाएगी। पढ़ लिख जाएगी तो जिन्दगी में कहीं न कहीं अपना ठौर बना लेगी। मेरी तरह दूसरों के घर में बर्तन नहीं घिसेगी।’

नरेश प्रशंसा से उसकी तरफ देखता है, कहता है, ‘तू बड़ी सयानी है, भाई। तेरे पास हर बात का जवाब है।’

वैसे नरेश को पत्नी से यह शिकायत भी है कि वह अपने परिवार के आकार को बढ़ने नहीं देती। नरेश के विचार से जब तक घर में तीन चार बच्चे न हों तब तक घर घर नहीं लगता। घर को जीवन्त बनाने के लिए थोड़ी किलिर-बिलिर, थोड़ा हल्लागुल्ला ज़रूरी है। अभी घर सूना सूना लगता है।

मीना की सोच साफ है। कहती है, ‘तुम्हारे छः भाई-बहन थे, सो कोई पाँचवीं से आगे नहीं पढ़ा। अब सब की फजीहत हो रही है। बच्चों की लाइन लगाओगे तो इनकी भी वही हालत होगी। कीड़ों की तरह बिलबिलाते एक दिन दुनिया से चले जाएँगे।’

सुनकर नरेश दाँत निकाल कर मौन हो जाता है।

नरेश के मुहल्ले की हालत ठीक नहीं है। मुख्य सड़क की एक पतली गली में उसका मुहल्ला बसा है। खासी गन्दगी रहती है। स्ट्रीट- लाइट बहुत कम है। शाम देर से मीना लौटती है तो कई लोग शराब के नशे में गली के किनारे लेटे या बैठे दिख जाते हैं। हर दूसरे तीसरे घर से झगड़े और मारपीट की आवाज़ें उठती हैं। ऐसे में बच्चों को कैसे अच्छी शिक्षा मिले और कहाँ से अच्छे संस्कार मिलें? इतनी हैसियत नहीं कि कोई बेहतर जगह तलाश की जा सके।

नेताओं को इस मुहल्ले की याद हर पाँच साल बाद आती है, लेकिन उनकी रूचि कुछ सुधार करने में नहीं होती। रात को शराब और पैसे बँट जाते हैं और नेताओं का कर्तव्य पूरा हो जाता है। मुहल्ले के लोग भी पीकर अपना और सत्यानाश कर लेते हैं।

इस सब के बीच मीना अपने संसार को सँवारने सुधारने में लगी रहती है। उसने अपने बल पर घर में फ्रिज, टीवी, सोफा जैसी चीज़ें जुटा ली हैं। नई चीज़ें लेने की गुंजाइश नहीं है इसलिए जहाँ काम करती है वहाँ से पुरानी चीज़ें खरीद लेती है। चीज़ें आधी से भी कम कीमत में मिल जाती हैं। पत्नी के इसी पुरुषार्थ के कारण नरेश पौरुष का ज़्यादा प्रदर्शन नहीं करता। अपनी गृहस्थी को देखकर मीना की छाती जुड़ाती है। बच्चों को स्कूल ले जाने के लिए उसने रिक्शा लगा रखा है।

मीना को इस बात की बहुत फिक्र रहती है कि बच्चों में कुटेव न पड़ें। एक बार बच्चों के मामा सूरज ने मज़ाक में अशोक को सिगरेट का कश लगवा दिया था। बच्चा खाँसते-खाँसते बेहाल हो गया। आँख और नाक से पानी बहने लगा। फिर मीना ने ऐसा रौद्र रूप दिखाया कि मामा जी को बिना भोजन-पानी के बहन के घर से भागना पड़ा। दो महीने तक उसे बहन को मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं हुई।

‘वीरांगना’ शब्द का अर्थ जानने के बाद से ही नरेश मीना को व्यंग्य से ‘वीरांगना’ कह कर पुकारने लगा था। घर आता तो आशा से पूछता, ‘क्यों, वीरांगना अभी नहीं आयी?’

मीना ने मुहल्ले को ठीक-ठाक रखने के लिए  स्त्रियों का एक समूह बना लिया है। जहाँ गड़बड़ होती है वहाँ यह समूह पहुँच जाता है। जब से यह समूह तैयार हुआ, गली के किनारे पड़े रहने वाले नशेबाज़ गायब हो गए हैं क्योंकि यह समूह उनके अखंड आनन्द में व्यवधान पैदा कर देता है। अभी तक निर्द्वंद्व पड़े रहने वालों की लानत- मलामत होने लगी है।

इस समूह का पहला शिकार वे शोहदे बने जो गली के नुक्कड़ की पान की दूकान पर जमा होकर लड़कियों और युवतियों पर फिकरे कसते थे। शोहदों पर समूह का आक्रमण ऐतिहासिक और बिलकुल अप्रत्याशित था। शोहदे जान और इज्ज़त बचाकर भागे और फिर वह स्थान निरापद हो गया।

मुहल्ले में तेजराम के घर रोज़ ही जुए की बैठक जमती थी। मुहल्ले के कई मर्द अपनी जमा- पूँजी  लुटाने वहाँ पहुँच जाते थे। तेजराम के पास कोई काम धंधा नहीं था। जुए में नाल काटने में कुछ आमदनी हो जाती थी। कुछ चाय-पकौड़े का इन्तज़ाम करने में मिल जाता था। इसीलिए घर के लोग आपत्ति नहीं करते थे।

नरेश को भी जुए की लत थी। वह कई बार बिजली के बिल और बच्चों की फीस के पैसे वहाँ चढ़ा चुका था। एक दिन मीना की बड़ी मुश्किल से खरीदी नयी साइकिल भी जुए की भेंट चढ़ गयी। ऐसे मौकों पर नरेश लौटकर गुमसुम लेट जाता था। मीना की बकझक का कोई जवाब नहीं मिलता था।

फिर एक दिन तेजराम के घर पर पुलिस का छापा पड़ा। जुआरी बाहर अँधेरे का फायदा उठाकर तितर-बितर हो गये। तीन पुलिस के हत्थे चढ़ गये। सौभाग्य से उस दिन नरेश वहाँ नहीं था। उस दिन से तेजराम का जुए का अड्डा अनिश्चितकाल के लिए बन्द हो गया।

बाद में बात खुली कि यह करतूत मुहल्ले के महिला मंडल की थी। जुआड़ियों ने मंडल की स्त्रियों को खूब कोसा, कुछ घरों में विवाद भी हुआ, लेकिन पुलिस के डर से मुहल्ले के वीर पुरुष खून का घूँट पीकर रह गये।

घर में नरेश ने मीना पर गुस्सा दिखाया। बोला, ‘मुहल्ले में थोड़ा सा टाइमपास हो जाता था, वह भी तुम लोगों से नहीं देखा गया। मैडम, गिरस्ती की गाड़ी दो पहियों से चलती है। मर्द औरत का साथ न दे तो गिरस्ती चल चुकी।’

मीना ने जवाब दिया, ‘मर्द-औरत का साथ घर को बनाने के लिए होना चाहिए, उसे मिटाने के लिए नहीं। मर्द मिटाने वाला रास्ता पकड़ेंगे तो औरतें भी सुधारने वाला रास्ता पकड़ेंगीं।’

नरेश बड़ी देर तक उसे गुस्से से घूरता रहा, फिर परास्त होकर बाहर चौखट पर जा बैठा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ दो लघुकथाएं – “दरार” और “वर्चस्व” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं “दरार” और “वर्चस्व”.)

☆ दो लघुकथाएं – “दरार” और “वर्चस्व” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

ये दो लघुकथाएं ‘दरार’ और ‘वर्चस्व’ बंगला भाषा में अनुवाद कर संपादक बेबी कारफोरमा ने अपनी संपादित कृति ‘निर्वाचित हिंदी अनुगल्प’ में प्रकाशित किया है। मूल लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए उपहार स्वरूप सादर प्रस्तुत हैं

कुंवर प्रेमिल

☆ लघुकथा एक – दरार ☆

एक मां ने अपनी बच्ची को रंग बिरंगी पेंसिलें लाकर दीं तो मुन्नी फौरन चित्रकारी करने बैठ गई। सर्वप्रथम उसने एक प्यारी सी नदी बनाई। नदी के दोनों किनारों पर

हरे भरे दरख़्त, एक हरी भरी पहाड़ी, पहाड़ी के पीछे से उगता सूरज और एक प्यारी सी झोपड़ी। बच्ची खुशी से नाचने लगी थी। तालियां बजाते हुए उसने अपनी मम्मी को आवाज लगाई।

‘ममा देखिए न मैंने कितनी प्यारी सीनरी बनाई है।’

चौके से ही मम्मी ने प्रशंसा कर बच्ची का  मनोबल बढ़ाया। कला जीवंत हो उठी।

थोड़ी देर बाद मुन्नी घबराई हुई सी चिल्लाई-

‘ममा गजब हो गया, दादा दादी के लिए तो इसमें जगह ही नहीं बन पा रही है।’

ममा की आवाज आई-

‘आउट हाउस बनाकर समस्या का निराकरण कर लो, दादा दादी वहीं रह लेंगे’।

मम्मी की सलाह सुनकर बच्ची एकाएक हतप्रभ होकर रह गई। उसे लगा कि सीनरी एकदम बदरंग हो गई है। चित्रकारी पर काली स्याही फिर गई है। झोपड़ी के बीचों बीच एक मोटी सी दरार भी पड़ गई है। ‌

☆ लघुकथा दो – “वर्चस्व” ☆

न जाने कितने कितने वर्षों से एक महिला सुप्रीम कोर्ट की जज बनी है।

अब तक मात्र छै महिलाएं ही तो बनी हैं।

इनकी गिनती सातवीं है।

हद कर दी इन पुरुषों ने, महिलाओं को आगे बढ़ने ही नहीं देते।

महिला मंडल में एक विचार विमर्श जोर पकड़ता जा रहा था। तब एक समझौतावादी महिला चुप न रह सकी।

‘बहनों जरा विराम लो, जो कुछ है, पुरुषों के बल पर ही तो हैं।

वर्चस्ववादी पुरुष ही हमें ऊंचाइयां प्रदान करते हैं। इसे नकारना मिथ्यावादी है। भाई, पिता, पति के बिना क्या हम एक कदम  भी बढ़ने में समर्थ हो सकेंगे।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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