हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मराठी कथा – निर्णय… – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

श्री भगवान वैद्य प्रखर

☆ मराठी कथा – निर्णय… – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

वह छज्जे पर खड़ी है। बेचैन-सी। सड़क पर आंख लगाए।उसकी बाट जोहते। पंदरह -बीस मिनट पहले वह छत पर आयी थी तब दिन ढलने लगा था। पर साफ नजर आ रहा था। अब सब ओर से अंधियारा छाने लगा है। पश्चिमी आकाश का नारंगी टुकड़ा गहरा सुर्ख होता हुआ काला पड़ता जा रहा है।… अब तक तो आ जाना चाहिए था,उसने !… वैसे कोई जल्दी नहीं है। जितनी देर से आए, उतना अच्छा! …आज पहली बार घर में अकेले होंगे, वे दोनों! कल राहुल को पाचगणी पहुंचाकर दोनों आज सुबह ही घर लौटे हैं। राहुल नौ- साल का, गोलमटोल।सच कहें तो ‘बड़बड़ करनेवाला, थोड़ा शरारती है’, ऐसा कहा था उसने। पर उसे नहीं लगा वैसा शरारती! उसके साथ कोई विशेष बात भी नहीं की। औरों से कैसे खुलकर बातें करता रहता था! … समीप आनेपर कुछ सिंकुड़ -सा जाता है, ऐसा महसूस किया उसने। एक विचित्र दूरी का अहसास होता रहता। मेरे मन में ममता, आत्मीयता उमड़ी ही नहीं। ‘संग रहने से आज लगनेवाली दूरी कम होगी । अपनापन लगेगा।’ उसने कहा था। कौन कहें? पंदरह दिन लगा जैसे जबरन बिठा दिया गया है। मुझे भी घर में विचरण करते कैसा असहज, असामान्य-सा महसूस होता रहा! कभी लगता, राहुल मेरी ओर ऐसे देखता है जैसे उसके हक़ की कोई चीज मैं छीनकर बैठी हूं। कभी लगता, वैसा कुछ नहीं होगा, ये सब मेरे मन का भ्रम  है…! अपराध-बोध मेरे ही मन में घर कर बैठा है, शायद! कभी लगता, उसकी आंखों में  क्रोध, आक्रोश  है! कभी सोचती, वह विलक्षण, स्वाभाविक प्रेम क्या कभी उसके नैनों में, उसके मन में उपजेगा? …ये  विचार मन में आने भर- से कितनी बेचैनी लग रही है!

सौ. उज्ज्वला केळकर

आज राहुल नहीं है। उसकी मुंहबोली चाची भी आज सुबह ही अपने घर लौट गयी। रमेश सुबह आठ बजे घर से बाहर गया और वह एकदम सहज हो गयी। सहज और निश्चिंत।

आज पूरा दिन उसने घर संवारने में लगा दिया। बैठक के फर्निचर की रूपरेखा बदल दी। दरवाजे-खिड़कियों में चमकीले, नारंगी रंग के बड़ी मॉडर्न आर्ट-प्रिंट के परदे थे। उन्हें हटाकर नायलॉन पर बारीक नीले फूलों की डिजाइन वाले हलके नीले रंग के बड़ी-बड़ी झालरवाले परदे लगाए।  शेखर को नीला रंग खूब भाता था। घर को नाम भी उसने ‘नीलश्री’ दिया था। भीतर-बाहर सब ओर नीलाभ छटा। परदे, बेडशीट्‍स, कुशन-कवर्स…सब कुछ गहरे, हलके नीले रंग से सजा हुआ। आज उसने घर का विन्यास बदला और जाने-अनजाने में उसे नागपुर के घर का स्वरूप प्राप्त हो गया। बैठक के कॉर्नर के चौकोनी टी-पॉय पर एक फोटो-फ्रेम थी। बायीं ओर रमेश का पूर्णाकृति फोटो। दायीं ओर राहुल की मम्मी का। उसने राहुल की मम्मी का फोटो हटाया और उसके स्थान पर अपना फोटो रख दिया।

शेखर को बहुत पसंद था वह फोटो। विवाह की सालगिरह पर शेखर ने गहरे नीले रंग की प्रिंटेड जार्जेट लायी थी, उसके लिए। उसी दिन शाम को वह साड़ी पहनकर लंबी, काली चोटी पर मोगरे के फूलों का मोटा-सा गजरा सजाकर, घूमने गयी थी वह। शेख्रर बोला था,

“क्या क्यूट दिख रही हो आज तुम! चलो , फोटो निकालते हैं।”

बगीचे में ही जूही की बेला के नीचे उसने फोटो निकाला।

सोचने लगी, फिजूल लगाया मैंने यह फोटो! कोई दूसरा निकालकर लगाना चाहिए था।

देखते-देखते उसे फ्रेम में रमेश के चेहरे के स्थान पर शेखर का चेहरा दिखायी देने लगा। हँसमुख, तेजस्वी आंखों का शेखर। था तो काला-सांवला ही। पर तीखे नाक-नक्श। इतना बड़ा हो गया फिर भी चेहरे पर बाल-सुलभ भोलापन कायम! हँसता तो शुभ्र-धवल दंत-पंक्ति चमक उठती।

शाम को जलपान के लिए कुछ बनाया जाए कि भोजन ही जल्द तैयार करें? रमेश की क्या पसंद है, जान लेना चाहिए था। विगत आठ -दस दिनों से सब साथ-साथ ही रह रहे थे। पर रमेश की पसंद-नापसंद कुछ ध्यान में न आयीं मेरे। कहने को यहां सब के साथ थी मैं पर अपनी अलग दुनिया में रहे समान  ही थी । अपनेआप में मगन! आज वास्तव में अकेली हूं । आज घर व्यवस्थित करते-करते बुरीतरह  थक गयी हूं। चाय पीने से शायद ठीक लगे! पर उठकर उतना भी करने को मन नहीं हो रहा है।- तब भी वह उठी। रमेश थका-मांदा आएगा। खाने के लिए कुछ बनाया जाए!

स्कूटर पार्क करके रमेश ने कॉल-बेल दबायी। ‘टिंग…टिंग’ की आवाज घर की सीमा लांघकर छत पर पहुंच गयी। तब कहीं उसे वस्तुस्थिति पता चली। कोई घंटे भर से वह छत पर खड़ी थी। अपनेआप में उलझी हुई-सी। कॉलबेल की आवाज सुनकर वह नीचे आयी। उसने दरवाजा खोला। रमेश ने घर में प्रवेश किया। वहां का हाल देखकर वह कुछ हकबका गया।। अपना ही घर उसे बेगाना लगने लगा।हां, बैठक कुछ प्रशस्त लग रही थी। किनारे का दीवान, अपने स्थान पर न था। लंबाई में रखी हुई गोदरेज अलमारी और प्रशस्त ड्रेसिंग-टेबिल भीतरी दीवार के समीप शिफ्ट किये गये थे। विशेष बात यह थी कि दरवाजे-खिड़कियों के नीले रंग के परदों के कारण एक उदास गंभीरता घर में चक्कर काट रही है, ऐसा उसे लगा। उस पर स्टीरियो से उठते उदास गंभीर सुर उस पर बरस रहे हैं, ऐसा लगा उसे। ऋता थी तब यह कमरा तेज गति की चंचल, चैतन्यमयी स्वरलहरी से सराबोर होता। उसका स्वागत करने का तरीका भी कितना अद्‍भुत…! आते बराबर गले में बांहें डालकर चुंबन की वर्षा। जब देखो, इर्दगिर्द बतियाती, चहकती रहती। हंसना, रूठना, गुस्सा होना, झुंझलाना,प्यार करना, -सबकुछ बेपनाह।वह तो घर छॊड़कर चली गयी। पर उसकी पसंददीदा तमाम चीजें उसने सहेजकर रखी हुई थीं। आज वे कहीं नजर  नहीं आ रही थीं।उस कारण वह कुछ असहज -सा हो गया।

टी-पॉय पर चाय और हलवे की प्लेट रखकर वह भोजन की व्यवस्था के लिए भीतर मुड़ी।

‘अब खाना मत पकाओ। हम लोग बाहर ही चलते हैं भोजन के लिए ।वहां से किसी पिक्चर के लिए चलेंगे। शाहरुख खान-माधुरी की नयी पिक्चर लगी है।’

पिक्चर ऋता का वीक -पाइंट। हिंदी -अंगरेजी, कोई पिक्चर छोड़ती न थी वह! घर लौटने पर फिल्म की अभिनेत्रियां उस पर सवार होतीं और रातभर रंगरेलियां मनातीं।

‘मुझे हिंदी फिल्में बिल्कुल अच्छी नहीं लगतीं। उछलकूद,फूहड़,वही घिसा-पिटा कथानक। नृत्य ऐसे जैसे कवायद की जा रही हो! वही भाग-दौड़, मारपीट, असंभव घटनाओं की खिचड़ी। उसकी बजाए, सरस्वती हॉल में किशोरी अमोणकर का गायन है। वहां चले तो?’

‘पर मुझे क्लासिकल पसंद नहीं है। समझ में नहीं आता। तुम्हारी इच्छा हो तो आऊंगा पर केवल तुम्हें कंपनी देने की खातिर…।’

‘छोड़ो, जाने दो…।’ उसे सवाई गंधर्व की पुण्यतिथि के अवसरपर शेखर के साथ बितायीं रातें याद  आ गयीं।

वह रसोई में चली गयी। रमेश ने फ्रीज में से बर्फ निकाली। गिलास में विस्की उंडेली और धीरे-धीरे महफिल में रंग चढ़ने लगा। …उसने देखी। अनजाने में ही क्यों न हो, नापसंदगी, तिरस्कार की एक तीव्र लहर सरसरा उठी। खाना वैसे ठीक ही था। पर उसे उसमें कुछ मजा नहीं आया। ऋता को नॉन -वेज पसंद था। उसका सबकुछ कैसे चटकदार, स्पाइसी हुआ करता था।

‘कल से सब्जी, आमटी जरा चटकदार बनाओ’, उसने कहा।

‘हंऽ…’ बह बुदबुदायी। शेखर मिष्टान्न-प्रेमी था। उसे अधिक मिर्च भाती न थी। मिर्च , मसाले कमतर डालने की आदत पड़ गयी थी उसके हाथों को। अब यह आदत बदलनी पड़ेगी! इसके साथ और भी पता नहीं कौन-कौन सी आदतें बदलनी पड़ेगी…!

भोजन करके वह बैठक में आ गयी। प्लेअर पर भीमसेन की पुरिया की एल. पी. लगा दी और  सामनेवाले बरामदे में जाकर खड़ी हो गयी। बगिया की रातरानी की गंध उसके रोम-रोम में पुलक जगा रही थी। वह बैठक में आ गया।क्लासिकल की टेप सुनकर उसके माथे पर अनायास बल पड़ गए। उसे बरामदे में खड़ी देखकर वह बेडरूम की ओर मुड़ गया। बेड़-रूम की व्यवस्था भी बदल गयी थी। बेड-कवर्स भी उदास नीले रंग पर फूलों की बारीक प्रिंट वाले…कोने के टी-पॉय पर रखी न्यूड उठाकर वहां एक फ्लॉवर-पॉट रख दिया गया था। उसमें बगीचे में के इस्टर के फूल और बीचोबीच रातरानी की 2-3 ऊंची डंडियां। बैठक में बज रहे पुरिया के स्वर यहां भी दस्तक दे रहे थे।ये उदास स्वर धक्के-से दे रहे हैं, उसे लगा! कहीं की गरुड कथा लेकर वह अराम कुर्सी पर बैठ गया। उसकी बाट जोहते। …ऋता कभी ऐसी देर न करती!

‘भीतर जाना चाहिए, रमेश राह देख रहा होगा!’ उसने सोचा। पर वह घड़ी जितनी टलती जाए उतना बेहतर, दूसरी तरफ उसे लग रहा था। यह रातरानी की गंध जैसे चिमटती है वैसे ही चिमटता था शेखर। सूरज की कोमल किरणों से जैसे एकेक पंखुड़ी खिलती जाती है उसी प्रकार खिलता जाता, रोम-रोम…!

कैसे भला होगा रमेश का करीब आना…?

रमेश तलाकशुदा था तो शैला विधवा। एक शाम को घटित मोटर-सायकिल दुर्घटना में शैला का जीवन ध्वस्त हो गया। उसे भी अब चार साल हो चुके हैं। बहुत से जख्म भर चुके हैं। अकेलेपन की भी आदत पड़ चुकी। पुन: सिरे- से प्रारंभ नहीं। उसने तय कर लिया। …एक ही कमी थी जो भीतर कभी सालती रहती थी। बच्चा चाहिए था जिसे देखकर अगला जीवन जीया जा सकेगा। जीने का कोई अर्थ रहेगा। उमंग रहेगी। बेटा…बेटी कुछ भी …पर शेखर उसे अकेला छोड़ गया! …‘विवाह के बाद पांच साल प्लानिंग करेंगे। मौज-मस्ती करना। जीवन का आनंद लेना। फिर बच्चा। एक बार बच्चा हुआ कि पूरा ध्यान उसकी देखभाल पर देते आना चाहिए। दो तरफ ध्यान नहीं बंटना चाहिए’, वह कहता। वह भी सहमत थी। वह शेखर को मानती थी। पर जो नहीं होना चाहिए था, वह हो गया। अब लगता है, उस समय शेखर की बात का विरोध करना चाहिये था!

शैला सर्विस करती थी। इस लिहाज से, वह किसी पर बोझ न थी। तब भी रिश्तेदारों को चिंता लगी ही रहती थी। और जिम्मेवारी भी। सारा जीवन पड़ा था…युवा-वस्था…।

आरम्भ में उसका तीव्र विरोध था। पर अनुभव से समझ में आने लगा, जरा मुश्किल ही है। रिश्तेदारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। बिल्कुल सगा भाई भी हो तो क्या…? उसकी अपनी गृहस्थी, अपनी अड़चनें  हैं ही।

नैसर्गिक आवेग भी कभी-कभी बेचैन कर डालता। …उसी दौरान भाई के किसी मित्र ने रमेश के बारेमें बतलाया। जहां भी हो, कुछ-न-कुछ समझौता तो करना ही होगा! वह चुप्पी साधे रही। उसके इनकार न करने को ही भाई ने ‘स्वीकार’ समझ लिया और आगे सब कर डाला। … उसे जैसे छुटकारा मिल गया!

रमेश बुद्धिमान था। हरफनमौला था। सैंको सिल्क मिल्स के प्रोसेसिंग विभाग में चीफ टेक्निशियन था। पद अच्छा था। भविष्य में अच्छे प्रॉस्पेक्ट्‍स्‍ थे। दोनों ने परस्पर परिचय कर लिया। स्वभाव, आदतों से अवगत कराया। इस उम्र में और इन हालातों में दोनों को समझौता करना जरूरी था। उसके लिए दोनों ने मन बना लिया था। एक-दूसरे का साथ निभा पाएंगे, इस निर्णय पर पहुंच चुके थे, दोनों। उसने रमेश की ड्रिकिंग, स्मोकिंग के बारेमें कुछ नाराजगी व्यक्त की थी। पर उस समय मम्मी ने कहा था,

‘अरे, कुछ भी कहो, आखिर है तो पुरुष ही न! उस पर, घर में अकेला! आत्मीयता से, अपनेपन से देखनेवाला कोई भी नहीं। मन…शरीर बहलाने के लिए कोई तो साधन होना चाहिए न!…  हो जाएगा धीरे-धीरे कम। मालूम…जिन लोगों में रहना पड़ता है, जिनके साथ काम करना पड़ता है उनकी खातिर भी कुछ चीजें करनी पड़ती हैं!’

‘हंऽऽ…’ वह बोली। शेखर को किसी चीज का शौक न था।… उसने भी वचन दिया था, ‘अपनी आदतें कम करने का प्रयत्न करूंगा।’ इतने साल की आदतें। शरीर को, मन को। एकदम भला कैसे छूटेगीं? ऋता ने कभी विरोध नहीं किया था। कई बार तो वह खुद उसे ‘कंपनी’ दिया करती। पर तब सबकुछ  सीमित था।  ऋता के जाने के बाद ड्रिंक लेना ‘प्लेझर’ तक सीमित न रहकर एक आदत बन गयी थी। वह समझ रहा था पर इलाज न था।… मन बेकाबू हो गया कि सारा अकेलापन विस्की के पेग में डुबो देना! राहुल को, बजाए होस्टल में रखने के, घर में रखा होता तो आदतों पर जरा अंकुश होता। पर घर में कोई नहीं। राहुल पर नजर रखनेवाला, उसकी देखभाल करनेवाला। रमेश की शिफ्ट-ड्यूटी।आखिर होस्टल में रखना ही सुरक्षित, श्रेयस्कर  लगा। … वही तो सबकुछ है। उसकी देखभाल ठीक से होनी चाहिए!

ऋता चली गयी, इस कारण से देह की भूख थोड़े ही न समाप्त हो जाएगी? कब तक बाहर जाएंगे ? उसमें से कुछ कॉम्प्लिकेशंस…!

धीरे-धीरे राहुल बड़ा होगा। समझदार होगा। लोग तरह-तरह की बातें करने लगेंगे, अपने बारेमें…। उसकी बजाए…दोबारा विवाह…बतौर एक समझौता…और उसके एक मित्र ने रखा हुआ शैला का प्रस्ताब उसने स्वीकार कर लिया।दोनों समदु:खी…भुगते हुए…!

भीमसेन की एल. पी. समाप्त हो गयी। ‘रंग कर रसिया आओ अब…’ गुनगुनाते हुए उसने दरवाजा बंद किया। कदम भारी हो चुके थे। पर कभी न कभी तो भीतर जाना ही था…! विगत दो-तीन वर्षों में धुंधली पड़ रहीं शेखर की यादें इस घर में प्रवेश के बाद, विशेषकर पिछले पंदरह दिनों से, फिर  आने लगी थीं। मानो, उनकी चपेट में आ गयी थी वह! अच्छा हुआ, राहुल ने क्षणमात्र के लिए भी रमेश को अपने से दूर नहीं होने दिया। वह अपनी भावनाओं में खोयी रह सकी। अपितु अब वह पल निकट आ चुका है। यद्यपि शेखर की छाया कस कर पकड़ रही है, ऐसा उसे लगने लगा।

उसने बेडरूम में प्रवेश किया। उसकी आहट पाते ही रमेश मे अपनी ‘गरुड कथा’ एक ओर डाल दी। सिगरेट का टुकड़ा मसलकर ऐश-ट्रे के हवाले कर दिया। टेबल-लैम्प बुझाकर नाइट-लैम्प जला लिया। उसे अपने समीप खींचा। उसके मुंह से आती शराब की तीव्र गंध और उसमें मिली हुई सिगरेट की तेज तमाकू की दुर्गंध से उसे उबकाई-सी आने लगी। उसने अनजाने में ही गर्दन घुमा ली। ‘मैंने फिजूल इतनी जल्द हामी भर दी’, वह सोचने लगी।

‘ऋता कितनी उत्कटता से पास आया करती…ज्वार में उठी लहर की भांति लुटा दिया करती थी खुद को। सबकुछ सराबोर…!

जबकि यह ऐसी… बुझी-बुझी…बर्फ की तरह ठण्डी …चेतना शून्य…

वह भी बुझता…बुझता चला गया। उसकी ओर पीठ करके सो गया। मेरा निर्णय गलत तो नहीं न हो गया, यह सोचते हुए पुन: पुरानी यादों में खो गया। ऋता के साथ विवाह होने के बाद के पहले साल की उसकी यादों में खो गया…हमेशा की तरह!

 मूल लेखिका – -उज्ज्वला  केळकर

पता – वसंतदादा साखर कामगारभवन के पास, सांगली 416416

मो. 9403310170 Email-id – [email protected]

भावानुवाद  श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

30, गुरुछाया कालोनी, साईंनगर, अमरावती  444607

संपर्क : मो. 9422856767, 8971063051  * E-mail[email protected] *  web-sitehttp://sites.google.com/view/bhagwan-vaidya

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ लघुकथा – राज्य – लिप्सा – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम लघुकथा “राज्य – लिप्सा”।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ लघुकथा – राज्य – लिप्सा – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

राजा चंद्रललाट अपनी प्रजा की खुशहाली के लिए जंगल में तपस्या कर रहा था। उसके चेहरे पर घनीभूत दाढ़ी थी। तूफान के थपेडों और बरसात के निरंतर प्रहार से उसके शरीर के कपड़े चिथड़े हो गये थे। सहसा एक राक्षस उसके सामने प्रकट हुआ। तपस्या में लीन राजा ने आँखें न खोलीं तो राक्षस ने क्रोधित हो कर दावानल का हाहाकार मचा दिया। पर ईश्वर भक्त राजा का तो बाल बाँका न हुआ। राक्षस को अब निवेदन से कहना पड़ा, “राजन, आँखें खोलिये। मैं भूख से बिलख रहा हूँ। मैं जानता हूँ आप ही मेरी क्षुधा तृप्त कर सकते हैं। ”

किसी की क्षुधा का प्रश्न था तो दयावान राजा चंद्रललाट तपस्या से बाहर आ ही जाता। उसने आँखें खोलने पर अपने सामने भीमकाय राक्षस को खड़ा देखा। उसने भयमुक्त रह कर राक्षस से कहा, “मुझे दुख है मेरी तपस्या अपूर्ण रह गयी। पर तुम्हारी भूख भी तो मेरे लिए अर्थवान है। मैं तुम्हारे लिए भोजन का प्रबंध करता हूँ। ”

राक्षस ने यह सुनते ही गरज कर कहा, “तुम मुझे क्या खिलाओगे चावल तरकारी और फल। ना राजन, मुझे इससे तृप्ति नहीं होगी। मुझे तुम्हारी प्रजा का मांस चाहिए। मेरी भूख मिटाने के लिए अभी ही बीस तक अपनी प्रजा मुझे दो। ”

राजा ने मांस भक्षण का उसका इरादा जानते ही कहा, “तुम्हारी तृप्ति के लिए मैं अपनी प्रजा का बलिदान करने वाला राजा नहीं हूँ। यही बात है तो मेरा भक्षण कर लो। ”

राजा इतना कहते ही उसके सामने बैठ गया। पर यह तो ईश्वरीय माया थी। राक्षस विस्मयकारी दीप्ति से युक्त भगवान में बदल गया। उसने राजा पर फूलों की वृष्टि की और कहा — “लोग सच ही कहते हैं तुम प्रजा वत्सल राजा हो। राजन, अपनी तपस्या को पूर्ण समझो। मैं तुम्हें और तुम्हारी प्रजा को वरदान देता हूँ सफलता और खुशहाली से जगमगाते रहो। ”

यह राजा चंद्रललाट के चारण का लिखा हुआ नाटक था जो पूरे देश में मंचित होता रहता था। जब कि वास्तविक धरातल पर चंद्रललाट तो निरंकुश राजा था। पूर्णरूपेण क्रोधी, ईर्ष्या का खौलता सा अंगारा। लोगों को देखे तो प्यार से, लेकिन उसकी आंतरिक परिभाषा हो अपने शत्रु को देखने का उसे कष्ट झेलना पड़ रहा है।

राजा के हाथों बिके हुए क्रांतिकारी, सिपाही, राजा के मनगढंत कार्यकलापों को महिमा मंडित बना कर नित उसकी जीवनी लिखते रहने वाले शब्दों के मसीहे, राजा के लिए पालकी ढोने वाले पंडे पुजारी वगैरह घूम — घूम कर टोह लगाते रहते थे राजा चंद्रललाट पर आधारित नाटक का आम जनता पर प्रभाव पड़ता है कि नहीं।

© श्री रामदेव धुरंधर

15 – 10 – 2023

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 129 ☆ उंगली उठी तो ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है तेज भागती जिंदगी परआधारित एक विचारणीय लघुकथा उंगली उठी तो। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 129 ☆

☆ लघुकथा – उंगली उठी तो ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘चेतन! उधर देखो – ये क्या कर रहे हैं सब ? एक- सी मुद्रा में खड़े हैं, एक दूसरे की ओर उंगली दिखाते हुए।‘

‘कुछ कहना चाह रहे हैं क्या ?’ -सुयश बोला

‘हाँ, कुछ तो बोल रहे हैं, चेहरे पर गुस्सा दिख रहा है। पर सब एक ही तरह से खड़े हैं ?’

‘कोई मोर्चा निकल रहा है क्या ?’ – सुयश बोला

‘पता नहीं।’

चेतन! वे सब तो हँस रहे हैं लेकिन मुद्रा वैसी ही है एक दूसरे की ओर उंगली दिखाते हुए।

चेतन ने चारों ओर नजर दौड़ाई, इधर दौड़ा – उधर भागा, पर सब तरफ वही दृश्य, वैसी ही मुद्राएं । स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर, राजनीति का कार्यालय या —–। टेलीविजन के कार्यक्रमों में भी तो नेता, मंत्री सब एक- दूसरे की ओर उंगली दिखाते हैं। उसे बचपन का खेल याद आया स्टेच्यू वाला। ये सब स्टेच्यू हो गए हैं क्या ?

पर खेल में तो जो जिस मुद्रा में रहता था उसी में स्टेच्यू हो जाता था, हाँ अच्छे से याद है उसे। बचपन में बहुत खेला है यह खेल। लेकिन यहाँ तो सब एक – सी ही मुद्रा में दिख रहे हैं।

 किसी की उंगली अपनी तरफ उठती क्यों नहीं दिख रही ?

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #154 – लघुकथा – “सरकारी बल्ब” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  “सरकारी बल्ब)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 154 ☆

 ☆ लघुकथा – “सरकारी बल्ब” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

कमल को अपनी पुत्री का नाम कूपन से कटवाना था। वह नगर पालिका में बैठा था। तभी रोहित ने आकर कहा, “साहब! मेरा घर गांव से एक तरफ है। स्ट्रीट लाइट पर बल्ब लगवा दीजिए।” 

यह सुनकर कमल बोला, “साहब! मेरा घर भी वहां पर है। आप बल्ब मत लगाइएगा।”

यह सुनकर सीएमओ साहब ने रोहित के साथ-साथ कहा, “क्यों भाई! क्या बात हैं?”

“साहब, वह वापस फूट जाएगा,” कमल ने कहा तो रोहित बोला, “अजीब आदमी हो। अपने घर की गली में बल्ब लगवाने का मना कर रहे हो।”

सीएमओ साहब ने कमल को देखकर आंखें ऊंचका कर इशारे में पूछा-क्या बात है भाई?

“साहब! इनका पुत्र स्ट्रीट लाइट बल्ब को पत्थर से निशाना लगाकर फोड़ देता है। फिर मेरे जैसा व्यक्ति उनके पुत्र को बल्ब फोड़ने से रोकता है तो ये साहब कहते हैं- आपके बाप का क्या जाता है? सरकारी बल्ब है। फोड़ने दीजिए।”

यह सुनकर रोहित ने गर्दन नीचे कर दी और सीएमओ साहब बारी-बारी से दोनों को देखे जा रहे थे।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

23-09-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 236 ☆ लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 236 ☆

? लघुकथा – ब्रांड एम्बेसडर ?

काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट, हल्की नीली शर्ट, गले में गहरी नीली टाई, कंधे पर लैप टाप का काला बैग, और हाथ में मोबाइल… जैसे उसकी मोनोटोनस पहचान बन गई है. मोटर साइकिल पर सुबह से देर रात तक वह शहर में ही नही बल्कि आस पास के कस्बों में भी जाकर अपनी कंपनी के लिये संभावित ग्राहक जुटाता रहता, सातों दिन पूरे महीने, टारगेट के बोझ तले. एटीकेट्स के बंधनो में, लगभग रटे रटाये जुमलों में वह अपना पक्ष रखता हर बार, बातचीत के दौरान सेलिंग स्ट्रैटजी के अंतर्गत देश दुनिया, मौसम की बाते भी करनी पड़ती, यह समझते हुये भी कि सामने वाला गलत कह रहा है, उसे मुस्कराते हुये हाँ में हाँ मिलाना बहुत बुरा लगता पर डील हो जाये इसलिये सब सुनना पड़ता. डील होते तक हर संभावित ग्राहक को वह कंपनी का “ब्रांड एम्बेसडर” कहकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता जिसमें वह प्रायः सफल ही होता. डील के बाद वही “ब्रांड एम्बेसडर” कंपनी के रिकार्ड में महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता. बाद में कभी जब कोई पुराना ग्राहक मिलता तो वह मन ही मन हँसता, उस एक दिन के बादशाह पर. उसका सेल्स रिकार्ड बहुत अच्छा है, अनेक मौकों पर उसकी लच्छेदार बातों से कई ग्राहकों को उसने यू टर्न करवा कर कंपनी के पक्ष में डील करवाई है. अपनी ऐसी ही सफलताओ पर नाज से वह हर दिन नये उत्साह से गहरी नीली टाई के फंदे में स्वयं को फंसाकर मोटर साइकिल पर लटकता डोलता रहता है, घर घर.

इयर एंड पर कंपनी ने उसे पुरस्कृत किया है, अब उसे कार एलाउंस की पात्रता है,

आज कार खरीदने के लिये उसने एक कंपनी के शोरूम में फोन किया तो उसके घर, झट से आ पहुंचे उसके जैसे ही नौजवान काला क्रीज किया हुआ फुलपैंट, हल्की भूरी शर्ट, गले में गहरी भूरी टाई लगाये हुये… वह पहले ही जाँच परख चुका था कार, पर वे लोग उसे अपनी कंपनी का “ब्रांड एम्बेसडर” बताकर टेस्ट ड्राइव लेने का आग्रह करने लगे, तो उसे अनायास स्वयं के और उन सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नौजवानो के खोखलेपन पर हँसी आ गई.. पत्नी और बच्चे “ब्रांड एम्बेसडर” बनकर पूरी तरह प्रभावित हो चुके थे.. निर्णय लिया जा चुका था, सब कुछ समझते हुये भी अब उसे वही कार खरीदनी थी. डील फाइनल हो गई. सेल्स रिप्रेजेंटेटिव जा चुके थे. बच्चे और पत्नी बेहद प्रसन्न थे. आज उसने अपनी पसंद का रंगीन पैंट और धारीदार शर्ट पहनी हुई थी बिना टाई लगाये, वह एटीकेट्स का ध्यान रखे बिना धप्प से बैठ गया अपने ही सोफे पर. . आज वह “ब्रांड एम्बेसडर” जो था.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 171 – मूरत में ममता – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित अप्रतिम कल्पना से परिपूर्ण एक लघुकथा “मूरत में ममता🙏”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 171 ☆

☆ लघुकथा – 🌷 मूरत में ममता 🙏. 

भरी कालोनी में सजा हुआ दुर्गा मैया का पंडाल। अद्भुत साज सज्जा जो भी देख रहा था मन प्रसन्नता से भर उठता था। दुर्गा जी की प्रतिमा ऐसी की अभी बोल पड़े। गहनों से सजा हुआ शृंगार, नारी शक्ति की गरिमा, दुष्ट महिषासुर का वध करते दिखाई दे रही थी।     

आलोक कालोनी में एक फ्लैट, जिसमे सुंदर छोटा सा परिवार। धर्म पत्नी बड़ी ही होनहार सहनशील और ममता की मूरत। दो बच्चों की किलकारी घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।

आलोक प्राइवेट कंपनी में जाब करता था। परंतु कहते हैं ना कि सब कुछ संपन्न होने के बाद कहीं ना कहीं कुछ रह ही जाता है। उसे शक या वहम की बीमारी थी। इस कारण सभी से कटा- कटा सा रहता था।

पत्नी कल्पना भी किसी से मेल मिलाप नहीं कर पाती थी, क्योंकि यदि बात भी कर ले तो… क्यों आया? कैसे आया? किस लिए आया? कहां से आया? और सवाल ऊपर सवाल करते? दो से चार हाथों की झड़ी भी लग जाती थी।

मोटी-मोटी आँसू की बूँदें लिए कभी कल्पना चुपचाप रहती, कभी सिसकी लेते हुए रोती दिखाई देती थी।

परंतु उसमें अपने पति से लड़ने या बहस कर उसे सच्चाई बताने की ताकत नहीं थी। क्योंकि वह एक गरीब परिवार से ब्याह कर आई। एक बेचारी बनकर रह गई थी।

आज कालोनी में बताया गया की दुर्गा मैया का आज विशेष शृंगार होगा। सभी महिलाएं खुश थी अपने-अपने तरीके से सभी शृंगार सामग्री ले जा रही थी। परंतु कल्पना बस कल्पना करके रह गई।

उसे न जाने का न मन था और न ही उसे कुछ खरीदने की चाहत थी। आलोक के डर के कारण वह जाना भी नहीं चाह रही थी। बच्चों की जिद्द की वजह से आलोक अपने दोनों बच्चों को लेकर माता के पंडाल पर गया।

भजन, आरती और गरबा सभी कुछ हो रहे थे। परंतु आलोक का मन शांत नहीं था। एक दोस्त ने पूछा… क्यों भाई इतनी सुंदर माता की मूरत और आयोजन हो रहा है। आप खुश क्यों नहीं हो।

आलोक ने हिम्मत करके उसे एक कोने में ले जाकर पूछा…. भाई जरा बताना क्या? तुम्हें दुर्गा माता की आँखों से गिरते आँसू दिखाई दे रहे हैं।

उसने जवाब दिया क्या बेवकूफी भरी बातें कर रहा है इतनी प्रसन्नता पूर्वक ममता में माता भला क्यों आँसू गिरायेगी। फिर वह एक दूसरे से पूछा क्या तुम्हें दुर्गा माता के आँसू दिखाई दे रहे हैं। उसने जवाब दिया मुझे तो सिर्फ ममतामयी वरदानी और अपने बच्चों के लिए हँसती हुई प्यार बांँटने वाली दिखाई दे रही है।

वह बारी-बारी से कई लोगों को पूछा सभी ने जवाब में दिया कि भला माता क्यों रोएगी। अब तो उसके सब्र का बाँध टूट गया।

बच्चों को पंडाल में सुरक्षित जगह पर बिठाकर। वह दौड़कर अपने घर की ओर भागा। जैसे ही दरवाजा खुला लाल साड़ी से सजी उसकी कल्पना आँसुओं की धार बहते दरवाजा खोलते दिखाई दे गई।

बस फिर क्या था वह कसकर उससे लिपट गया और कहने लगा मैं आज तक समझ नहीं सका तुमको मुझे माफ कर दो। चाहो तो मुझे कोई भी सजा दे सकती हो परंतु मुझे कभी छोड़कर नहीं जाना।

कल्पना इससे पहले कुछ कह पाती वह झट से अलमारी खोल लाल चुनरी निकाल लिया और कल्पना के सिर पर डाल कर उसके मुखड़े को देखने लगा।

आज मूरत में जो ममता और करुणा नजर आया था। वह कल्पना के मुखड़े पर साकार देखा और देखता  ही जा रहा था। बस उसकी आँखों से पश्चाताप अंश्रु धार बहने लगी। कल्पना सब बातों से अनभिज्ञ थी। पर उसे आज अच्छा लगा।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 214 ☆ कथा कहानी – सवारी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक सार्थक कहानी ‘सवारी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 214 ☆

☆ कहानी – सवारी 

जग्गू अपना रिक्शा लेकर सुबह पाँच बजे स्टेशन पहुँच गया। ट्रेन साढ़े पाँच बजे आती है। कई बार लेट भी हो जाती है। सर्दियों में यह ट्रेन तकलीफ देती है। पाँच बजे पहुँचने के लिए चार बजे उठना पड़ता है। एक तरफ अँधेरे और दूसरी तरफ ठंड से जूझना पड़ता है। गनीमत यह है कि स्टेशन छोटा होने की वजह से उसे सब जानते हैं, इसलिए रेलवे के साहब लोग अगर किसी कोने में अलाव जलाकर तापते मिल गये तो वहीं धीरे से घुस जाता है। उसकी पूछ-कदर इसलिए भी है कि स्टेशन पर दो ही रिक्शे हैं, इसलिए बाबुओं को अटके-बूझे उन्हीं का सहारा लेना पड़ता है। लेकिन ट्रेन आने पर रिक्शे पर रहना ही सुरक्षित होता है क्योंकि सवारी सीधे रिक्शे पर पहुंचकर उसकी घंटी टुनटुनाती है।

उसके अलावा दूसरा रिक्शा रघुवीर का है। उन दोनों को छोड़कर कोई तीन किलोमीटर दूर गाँव में जाना चाहे तो पाँवगाड़ी इस्तेमाल करने के अलावा कोई चारा नहीं होगा।

स्टेशन के बाहर गुलाब का स्टोव भर्र-भर्र जल रहा है। गुलाब सवेरे साढ़े चार बजे तक दूकान में जम जाता है। सोता भी दूकान में ही है। दोपहर से शाम तक मदद करने के लिए एक लड़का आ जाता है जिसे उसने असिस्टेंट के तौर पर रख लिया है। गुलाब की दूकान अच्छी चल जाती है। गाँव के लड़कों और बूढ़ों को करने धरने को कुछ होता नहीं, इसलिए जब जिसका मुँह उठा, स्टेशन चला आता है। कुछ ऐसे हैं जो दिन भर गुलाब की बेंच पर जमे रहते हैं। भूख लगने पर कागज़ पर नमकीन लेकर खाया, ऊपर से एक ‘कट’ चाय। घर में सोने से तो भला, स्टेशन पर कुछ चहल-पहल रहती है। ट्रेनों की खिड़कियों से झाँकते बहुत से नये चेहरे दिख जाते हैं, जिन्हें देखकर ज़िन्दगी में थोड़ी रौनक आ जाती है। गाँव के युवक ट्रेनें आने पर उनके सामने जा खड़े होते हैं, फिर उनके चले जाने पर वापस दूकानों की बेंचों पर आ जमते हैं।
उस दिन ट्रेन रुकी तो जग्गू उम्मीद से सवारियों की तरफ देखता रहा। अचानक उसकी आँखें चमकीं। साफ-सफेद कुर्ते धोती में एक सयाने, गोल-मटोल सज्जन छोटा सूटकेस लिये बाहर निकल रहे थे। शरीर के रख-रखाव, सुनहरे फ्रेम वाले चश्मे, घड़ी की चेन और हाथ की अँगूठियों से ज़ाहिर था कि आदमी ऊँचे तबके का, सुख-सुविधा संपन्न है। जग्गू ने देखा उनका चेहरा मक्खन से तराशा हुआ लगता था, हाथों की हथेलियाँ गुलाबी और मुलायम। उसके जैसी खुरदरी और गुट्ठल वाली नहीं।

जग्गू ने बढ़कर उनके हाथ से सूटकेस ले लिया। बोला, ‘आइए बाबूजी, कहाँ जाएँगे?’

वे सज्जन धोती के छोर से चेहरा पोंछते हुए बोले, ‘चतुर्वेदी जी के यहाँ जाना है। आज उनकी तेरही है। जानते हो?’

जग्गू बोला, ‘गाँव में सब को एक दूसरे के घर की गमी और खुसी का पता रहता है। चौबे जी का घर हमें मालूम है। चौबाइन के साथ अकेले तो रहते थे। अभी तो खूब भीड़-भाड़ है। सब लोग आये हैं।’

वे सज्जन थोड़ा सावधान हुए, बोले, ‘पैसे कितने होंगे?’

जग्गू बोला, ‘तीस रुपया होगा। बँधा बँधाया रेट है। यही मिलता है।’

सज्जन ने अपने शहरी चातुर्य को जग्गू की ग्रामीण व्यवहारिकता से भिड़ाया, बोले, “ज्यादा है। वह तो गाँव दिखता है।’

जग्गू बोला, ‘दिखता तो है, पर रास्ता बहुत खराब है। बहुत मसक्कत करनी पड़ती है। टाइम भी ज्यादा लगता है।’

सज्जन बोले, ‘बीस रुपये में चलना हो तो चलो।’

जग्गू ने हाथ जोड़े, कहा, ‘नहीं होगा साहब। बहुत कम है।’

सज्जन ने थोड़ी दूर पर खड़े दूसरे रिक्शे पर नज़र डाली। बोले, ‘दूसरे रिक्शेवाले से भी पूछ लेते हैं।’

जग्गू हँसा, बोला, ‘कोई फायदा नहीं है बाबूजी। रघुवीर का बाप सवेरे पाँच बजे उसे ढकेल कर  घर से बाहर कर देता है। वह यहाँ आकर रिक्शे में सो जाता है। आप कोसिस कर लीजिए, वह उठेगा नहीं। थोड़ी देर बाद उठकर चाय पियेगा, फिर बीड़ी के सुट्टे लगाएगा। उसके बाद ही किसी सवारी को बैठने देगा।’

सज्जन ने पैंतरा बदला, बोले, ‘अच्छा, चौबे जी के लड़के जो कहेंगे वह दे देंगे।’

जग्गू ऐसे लोगों को जानता है। वे गरीबों का पेट मारने के बहुत तरीके जानते हैं। ठंडी आवाज़ में बोला, ‘तीस रुपये से कम नहीं होगा बाबूजी। सोच लें।’

सज्जन हार गये। झुँझलाकर बोले, ‘ठीक है, चलो। अकेले होने का फायदा उठा रहे हो।’

जग्गू ने कोई जवाब नहीं दिया। उसका काम हो गया था। अब फालतू की झिकझिक करने से क्या फायदा?

सज्जन आकर रिक्शे के बगल में खड़े हो गये। जग्गू ने दो बार सीट पर हाथ मार कर उसकी धूल झाड़ी, फिर कहा, ‘आइए, बैठिए।’

लेकिन उन सज्जन के लिए बैठना आसान नहीं था। सीट की पुश्त और सामने लगी पट्टी को पकड़कर वह बड़ी मुश्किल से सीट की ऊँचाई तक अपने को उठा सके। सीट पर बैठ जाने तक उनके हाथ और पाँव थरथर काँपते रहे। ज़ाहिर था कि उन्हें रिक्शे में बैठने का अभ्यास नहीं था। सीट पर बैठ कर उन्होंने फिर मुँह पोंछा, साथ ही बुदबुदाये— ‘क्या सवारी है!’

जग्गू ने घुमा कर रिक्शा पुलिया से बाहर निकाला और कीचड़, गढ्ढों और गोबर से बचाता चल दिया। गढ्ढों से बचाने के उपक्रम में रिक्शा सर्पाकार चल रहा था और वे सज्जन आलू के बोरे की तरह दाहिने बाएँ हिल रहे थे। आखिरकार जब उनकी बर्दाश्त से बाहर हो गया तो गुर्राये, ‘जरा ठीक से चलो। पेट की अँतड़ियाँ हिली जा रही हैं।’
जग्गू को ऐसी नकचढ़ी सवारियों से चिढ़ होती है। वह मौजी आदमी है। दिन भर रिक्शा चलाने के बाद शाम से इधर-उधर कीर्तन- भजन की बैठकों में मस्त रहता है। उस वक्त कोई रिक्शा खींचने के लिए बुलाये तो उसे भारी चिढ़ लगती है। लिहाज न हो तो कितना बुलाने पर भी नहीं जाता। दिवाली के टाइम आठ दस दिन की पक्की छुट्टी लेता है। ‘मौनियाँ ‘ के दल के साथ कमर में कौड़ियों की करधनी पहने, हाथ में मोरपंख लिये गाँव-गाँव घूमता और नाचता है। नाच के कपड़ों पर तीन चार सौ खर्च करने में उसे कोई तकलीफ नहीं होती।

उन सज्जन के चेहरे पर अरुचि और तकलीफ का भाव साफ झलक रहा था। गाँव की सड़क शुरू हो गयी थी। तीन चार साल पहले बनी थी, लेकिन बैलगाड़ियों, ट्रैक्टरों और ट्रकों के चलने के कारण बिल्कुल चौपट हो गयी थी। अब तो रिक्शे को एक एक कदम सँभाल कर ले जाना पड़ता है। कई जगह उतर कर खींचना पड़ता है। बस पैदल आदमी ही सुकून से चल सकता है।

जग्गू का मन हुआ रास्ता काटने के लिए कोई तान छेड़े। एक रोमांटिक गाना ‘साढ़े तीन बजे मुन्नी जरूर मिलना’ उसका प्रिय है। अक्सर उसी को छेड़ता है। लेकिन सवारी के चेहरे पर साच्छात सनीचर बैठा देख उसकी उमंग को लकवा लग गया। भगवान ऐसी मनहूस सवारी न भेजे।

गाँव की राह पर आने के बाद उन सज्जन का जबड़ा खुलता है। लगता है उन्हें भी ज्यादा देर चुप रहने की आदत नहीं है। जैसे अपने आप से कहते हैं—‘ पंद्रह साल बाद रिक्शे पर बैठा हूँगा। जरूरत ही नहीं पड़ती। घर में दो कारें हैं, ड्राइवर है। थोड़ी दूर भी जाना हो तो कार से जाते हैं।’

जग्गू मुँह फेरकर ‘अच्छा’ कहता है, लेकिन वह जान जाता है कि रिक्शे पर बैठना सवारी को भाया नहीं। उसका मन खट्टा हो जाता है।

कारन यह है जग्गू को अपने रिक्शे पर बड़ा नाज़ है। बैंक से लोन ले कर लिया है। गाँव में सिर्फ दो रिक्शे होने से वैसे भी वह अपने को विशिष्ट समझता है। धर्मी-कर्मी आदमी है, इसलिए जैसे शरीर को साफ-सुथरा रखता है, वैसे ही रिक्शे को भी धो-पोंछ कर रखता है। रिक्शे के बारे में कोई ऊटपटाँग टिप्पणी कर दे तो उसका मन आहत हो जाता है।

वे सज्जन आगे बोल रहे थे— ‘चतुर्वेदी जी हमारे समधी होते थे। अभी दो साल पहले रिटायर होने पर यहाँ आ बसे थे। इसीलिए हमारा यहाँ कभी आना नहीं हुआ।’
जग्गू ने फिर मुँह फेर कर ‘हाँआँ ‘ कहा।

वे कुछ और बोलने जा रहे थे, तभी रिक्शे के गढ्ढे में फँसने से उनकी देह पूरी हिल गयी।जग्गू के रिक्शे की सीट आगे की तरफ थोड़ा ढालू थी। कोई गढ्ढा आ जाए तो शरीर आगे की तरफ भागता था, और आदमी सावधान न हो तो घुटने आगे पटिये में टकराते थे। यही उन सज्जन के साथ हुआ। वे ज़ोर से चिल्लाये, ‘क्या करता है? देख के चल। घुटने टूटे जा रहे हैं।’

जग्गू का मन बुझ गया। गाँव के लोग उसके रिक्शे पर बैठना सौभाग्य समझते हैं। चिरौरी कर कर के बैठते हैं। गाँव के लालता बनिया का लड़का तो चाहे जब आ बैठता है और रिक्शा खाली हो तो घंटों घूमता है। कहता है, ‘बहुत मजा आता है।’ उसे घुमाने में जग्गू को भी मज़ा आता है क्योंकि उसके मुँह से तारीफ सुनकर जग्गू गदगद हो जाता है। रिक्शे ने गाँव में जग्गू की पोजीशन बना दी है। रोज दो चार लोग उसकी खुशामद करते हैं। और एक यह सवारी है जो उसे कोसे जा रही है।

गढ्ढे से बाहर निकले तो उन सज्जन ने घड़ी देखी, बोले, ‘सात आठ मिनट तो हो गये।कहाँ है तुम्हारा गाँव?’

जग्गू चिढ़कर बोला, ‘गाँव जहाँ है वहीं है, बाबूजी। रास्ता खराब है इसलिए देर हो रही है।’

रिक्शा फिर रास्ते के हिसाब से डगमग होता चल दिया।

सज्जन थोड़ी देर में बोले, ‘दो-चार दिन यहाँ रिक्शे पर बैठेंगे तो हड्डियों का चूरा हो जाएगा। महीना भर अस्पताल सेना पड़ेगा।’

जग्गू का मन बिलकुल बुझ गया। ऐसी सवारी मिल जाए तो पूरा दिन खराब हो जाता है। यह आदमी पन्द्रह मिनट से उसकी रोजी को कोस रहा है।

उसने धीरे से कहा, ‘कार से ही आ जाते बाबूजी।’

बाबूजी उसके व्यंग्य को नहीं समझ पाये। दुखी भाव से बोले, ‘कार से इतनी दूर कहाँ आएँगे? सब तरफ सड़कों की हालत खस्ता है।’

जग्गू मन में बोला, तो फिर गाँव की सड़क और उसके रिक्शे को क्यों कोस रहे हो? प्रकट बोला, ‘चौबे जी के यहाँ खबर करके गाड़ी बुलवा लेते। वहाँ तो दो तीन गाड़ियाँ खड़ी थीं।’

सज्जन फिर दुखी भाव से बोले, ‘दो तीन बार फोन लगाया, लेकिन किसी ने उठाया नहीं। लगता है सब सो रहे हैं।’

रिक्शा खींचते खींचते जग्गू को हाँफी  चढ़ रही थी। रास्ते में एक घर के सामने चाँपाकल के पास रिक्शा रोक दिया,बोला, ‘ एक मिनट जरा पानी पी लूँ।’

सज्जन और चिढ़ गये, बोले, ‘हाँ हाँ, जरूर पियो। बीड़ी वीड़ी भी पी लो। क्या जल्दी है?’

जग्गू खिसिया कर बोला, ‘बीड़ी वीड़ी हम नहीं पीते। गला सूख रहा है इसलिए थोड़ा पानी पी लेते हैं।’

सज्जन ने भी पिछले स्टेशन से खरीदी बोतल से दो घूँट पानी पिया। रास्ते में कहीं पानी नहीं पिया जा सकता। यहाँ बीमार पड़ जाएँ तो तीमारदारी के लिए डॉक्टर भी नहीं मिलेगा।

रिक्शा फिर किसी आर्थ्राइटिस के मरीज़ जैसा दाहिने बायें झूमता आगे बढ़ा। सज्जन का चेहरा तकलीफ और आक्रोश से विकृत हो रहा था। थोड़ा आगे बढ़ने पर वे बोले,

‘यहाँ कम से कम एक ऑटो होना चाहिए। रिक्शे में तो हाथ-पाँव टूटना है।’

जग्गू को और चिढ़ लगी। एक तो ढो कर ले जा रहे हैं, ऊपर से बार-बार गाली दे रहा है। बोला, ‘यहाँ ऑटो खरीदने के लिए पैसा किसके पास है? आप जैसे बड़े आदमी ही खरीद सकते हैं। फिर ऑटो के लायक कमाई भी तो होना चाहिए।’   

सज्जन कुछ नहीं बोले। अगली चढ़ाई चढ़ते ही झुटपुटे में आधा ढँका गाँव सामने आ गया। सज्जन के चेहरे पर राहत का भाव आया।

अचानक गाँव के बीच से एक कार ‘पें पें ‘ हॉर्न बजाती, धूल उड़ाती, रिक्शे के सामने आकर रुक गयी। कार में से दो युवक उतरे। सज्जन के पाँव छूकर बोले, ‘आ गये, बाबूजी? माफ करें, हमें निकलने में थोड़ी देर हो गयी। रास्ते में तकलीफ तो नहीं हुई?’

सज्जन का चेहरा अब बिलकुल तनावमुक्त हो गया था। जग्गू की तरफ देख कर बोले, ‘तकलीफ तो बहुत हुई, लेकिन अब तुम लोग आ गये हो तो सब ठीक है। बाकी यहाँ रिक्शे पर चढ़ना सजा जैसा है।’

युवकों ने उनका सूटकेस उठाकर कार में रख लिया। वे पैसे देने लगे तो युवकों ने उन्हें बरज दिया। जग्गू से बोले, ‘घर से ले लेना।’

सज्जन ने कार में बैठकर ज़ोर की साँस ली, बोले, ‘चलो भैया, मुक्ति मिली।’

कार मुड़कर गाँव की तरफ बढ़ी तो धूल का ग़ुबार आकर जग्गू के शरीर और रिक्शे पर बैठ गया। वह अँगौछे से मुँह पोंछता कभी दूर जाती कार और कभी अपने रिक्शे को देखता रहा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #153 – लघुकथा – “विकल्प” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  विकल्प)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 153 ☆

 ☆ लघुकथा – “विकल्प” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

दिसंबर की ठण्डी रात को अचानक पानी बरसने पर मां की नींद खुल गई, “तूझे कहा था गेहूं धो कर छत पर मत सुखा, पर, तू मानती कहा हैं।”

” तो क्या करती? इस में धनेरिये पड़ गए थे।” 

“अब सारे गेहूं गीले हो रहे हैं।”

” तो मैं क्या करूं?” बेटी खींज कर बोली, “मेरा कोई काम आप को पसंद नहीं आता। ऐसा क्यों नहीं करते- मेरा गला घोट दो। आप को शांति मिल जाएगी।”

” तुझ से बहस करना ही बेकार है,” मां जोर से बोली। तभी पिता की नींद खुल गई, “अरे भाग्यवान! क्या हुआ ? रात को भी….”

” पानी बरस रहा है। छत पर गेहूं गीले हो रहे है। इस को कहा था- गेहूं धो कर मत सुखा, पर यह माने तब ना,” कहते हुए माँ ने वापस अपनी बेटी की बुराई करना शुरू कर दिया। 

मगर पिता चुपचाप उठे। बोले, “चल ‘बेटी’! उठ। छत पर चलते हैं,” कहते हुए पिता ने छाता उठा कर खोल लिया।

छाता खुलते ही मां-बेटी की जुबानी जंग बंद हो गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-12-21

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 170 – श्राद्ध में संशय – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समाज के परम्पराओं और आधुनिक पीढ़ी के चिंतनीय विमर्श पर आधारित एक लघुकथा श्राद्ध में संशय”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 170 ☆

☆ लघुकथा – 🌷 श्राद्ध में संशय 🙏. 

उषा और वासु दोनों भाई बहन ने जब से होश संभाले, अपनी मम्मी को प्रतिवर्ष पापा के श्राद्ध के दिन पंडित और रसोई का काम संभालते देखते चले आ रहे थे।

बिटिया उषा तो जैसे भी हो संस्कार कहें या रीति रिवाज अपनी मम्मी के साथ-साथ लगी रहती थी, परंतु बेटा वासु इन सब बातों को ढकोसला जली कटी बातें या सिद्धांत विज्ञान के उदाहरण देने लगता था।

समय बीता, बिटिया ब्याह कर दूर प्रदेश चली गई और बेटा अपने उच्च स्तरीय पैकेज की वजह से अपनों से बहुत दूर हो चला। उसकी अपनी दुनिया बसने लगी थी। मम्मी ने अपना काम वैसे ही चालू रखा जैसे वह करतीं चली आ रही थी।

परंतु समय किसी के लिए कहाँ रुकता है। आज सुबह से मम्मी मोबाइल पर रह रहकर मैसेज देखती जा रही थी। उसे लगा शायद बच्चे पापा का श्राद्ध भूल गए हैं।

वह अनमने ढंग से उठी अलमारी से कुछ नए कपड़े निकाल पंडित जी को देने के लिए एक जगह एकत्रित कर रही थी।

तभी दरवाजे पर घंटी बजी।

लगा शायद पंडित जी आ गए हैं। वह धीरे-धीरे चलकर दरवाजे पर पहुंची। आँखों देखी की  देखती रह गई।

दोनों बच्चे अपने-अपने परिवार के साथ खड़े थे। घबराहट और खुशी कहें या दर्द दोनों एक साथ देखकर वह समझ नहीं पा रही थी कि आखिर बात क्या है??? अंदर आते ही दोनों ने कहा… मम्मी आज और अभी पापा का यह आखिरी श्राध्द है। इसके बाद आप कभी श्रद्धा नहीं करेंगी।

क्योंकि हमारे पास समय नहीं है और इन पुराने ख्यालों पर हम कभी नहीं आने वाले। मम्मी ने कहा… ठीक है आज का काम बहुत अच्छे से निपटा दो फिर कभी श्रद्धा नहीं करेंगे।

पूजा पाठ की तैयारी पंडितों का खाना सभी तैयार था। बड़े से परात पर जल रखकर बेटे ने तिलांजलि देना शुरू किया। बहन भी पास ही खड़ी थी पंडित जी ने कहा… मम्मी के हाथ से भी तिल, जौ को जल के साथ अर्पण कर दे। पता नहीं अब फिर कब पिृत देव को जल मिलेगा।

पूर्वजों का आशीर्वाद तो लेना ही चाहिए। आवाज लगाया गया फिर भी मम्मी कमरे से बाहर नहीं निकली।

तब कमरे में जाकर देखा गया मम्मी धरती पर औधी पड़ी है। उनके हाथ में एक कागज है। जिस पर लिखा था.. श्राद्ध पर संशय नहीं करना और कभी मेरा श्रद्धा नहीं करना। तुम दोनों जिस काम से आए हो वह सारी संपत्ति मैं वृद्ध आश्रम को दान करती हूँ।

आज के बाद हम दोनों का श्राद्ध वृद्धा आश्रम जाकर देख लेना।

वक्त गुजरा…. आज फिर उषा और वासु ने मोबाइल के स्टेटस, फेसबुक पर पोस्ट किया… मम्मी पापा का श्राद्ध एक साथ वृद्धाश्रम में मनाया गया परंतु अब श्राद्ध पर संशय नहीं सिर्फ पछतावा था।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 128 ☆ पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है तेज भागती जिंदगी परआधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘पेट की दौड़’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 128 ☆

☆ लघुकथा – पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कामवाली बाई अंजू ने फ्लैट में अंदर आते ही देखा कि कमरे में एक बड़ी – सी मशीन रखी है। ‘ दीदी के घर में रोज नई- नई चीजें ऑनलाईन आवत रहत हैं। अब ई कइसी मशीन है? ‘ उसने मन में सोचा। तभी उसने देखा कि साहब आए और उस मशीन पर दौड़ने लगे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सड़क पर तो सुबह – सुबह दौड़ते देखा है लोगों को लेकिन बंद कमरे में मशीन पर? साहब से तो कुछ पूछ नहीं सकती। वह चुपचाप झाड़ू – पोंछा करती रही पर कभी – कभी उत्सुकतावश नजर बचाकर उस ओर देख भी लेती थी। साहब तो मशीन पर दौड़े ही जा रहे हैं? खैर छोड़ो, वह रसोई में जाकर बर्तन माँजने लगी। दीदी जी जल्दी – जल्दी साहब के लिए नाश्ता बना रही थीं। साहब उस मशीन पर दौड़ने के बाद नहाने चले गए। दीदी जी ने खाने की मेज पर साहब का खाना रख दिया। साहब ने खाना खाया और ऑफिस चले गए।

अरे! ई का? अब दीदी जी उस मशीन पर दौड़ने लगीं। अब तो उससे रहा ही नहीं गया। जल्दी से अपनी मालकिन दीदी के पास जाकर बोली – ‘ए दीदी! ई मशीन पर काहे दौड़त हो?

‘काहे मतलब? यह दौड़ने के लिए ही है, ट्रेडमिल कहते हैं इसको। देख ना मेरा पेट कितना निकल आया है। कितनी डायटिंग करती हूँ पर ना तो वजन कम होता है और ना यह पेट। इस मशीन पर चलने से पेट कम हो जाएगा तो फिगर अच्छा लगेगा ना मेरा’ – दीदी हँसते हुए बोली।

 ‘पेट कम करे खातिर मशीन पर दौड़त हो? ’ — वह आश्चर्य से बोली। ना जाने क्या सोच अचानक खिलखिला पड़ी। फिर अपने को थोड़ा संभालकर बोली – ‘दीदी! एही पेट के खातिर हमार जिंदगी एक घर से दूसरे घर, एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग काम करत – करत कट जात है। कइसा है ना! आप लोगन पेट घटाए के लिए मशीन पर दौड़त हो और हम गरीब पेट पाले के खातिर आप जइसन के घर रात- दिन दौड़त रह जात हैं।‘

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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