(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है ‘‘दिव्यांगता – दो लघुकथाएं ’।)
ट्रेन के इंजन के साथ ही लगा था विकलांगों का डिब्बा। एक यात्री, ट्रेन में जगह ढूंढते ढूंढते उसी डिब्बे के सामने से गुजरा। तभी विकलांग कोच में से उसका एक परिचित चिल्लाया- ‘अरे आ जाओ इसी डिब्बे में, और कहीं तिल भर जगह मिलने से रही’।
‘पर यह तो विकलांगों के लिए है’।
‘तो क्या हुआ हम किसी विकलांग से कम हैं जो पूरी ट्रेन में अपने लिए एक अदद जगह तक नहीं ढूंढ पाए।’
मानसिक विकलांगता का एक अच्छा उदाहरण था यह।
🔥 🔥 🔥
दो -> ट्राईसिकिल
विकलांगों के लिए बांटी जाने वाली ट्राईसिकिल भले चंगों में बांट दी गई तो मीडिया पीछे पड़ गया। हलचल मच गई। मामला आगे तक जा पहुंचा।
यहां से खबर भेजी गई- ‘मीडिया पीछे पड़ गया है’।
वहां से खबर आई- ‘घबराने की जरूरत नहीं है। मीडिया को बता दो कि ट्राईसिकिल कुछ बदमाशों ने छीन ली है। उन से छुड़ाकर जल्दी ही विकलांगो को दे दी जाएंगी। बदमाशों को सबक भी सिखाया जाएगा।’
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘भगवान का क्या सरनेम है?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 116 ☆
☆ लघुकथा – भगवान का क्या सरनेम है? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
कक्षा में टीचर के आते ही विद्यार्थी ने एक सवाल पूछा – मैडम! नेम और सरनेम में क्या ज़्यादा इम्पोर्टेंट होता है?
‘मतलब’? – मैडम सकपका गईं फिर थोड़ा संभलकर बोली – यह कैसा सवाल है निखिल?
पापा कहते हैं कि किसी को उसके सरनेम से बुलाना चाहिए, नाम से नहीं। सरनेम इम्पोर्टेंट होता है।
लेकिन क्यों? नाम से बुलाने में कितना अपनापन लगता है। नाम हमारी पहचान है। माता- पिता कितने प्यार से अपने बच्चे का नाम रखते हैं।
मैम! पर पापा कहते हैं कि सरनेम हमारी सच्ची पहचान होता है। हम किस जाति के हैं, धर्म के हैं, यह सरनेम से ही पता चलता है। दूसरों को इसका पता तो चलना चाहिए।
अच्छा स्कूल में आपस में दोस्ती करने के लिए नाम पूछते हो या सरनेम? वैशाली! तुम बताओ।
मैम! नेम पूछते हैं।
मेरे पापा ने बताया कि सरनेम हमारा गुरूर है, नेम से बुलाओ तो सरनेम हर्ट हो जाता है। वह बड़ा होता है ना! – अक्षत ने कहा।
कक्षा के एक बच्चे ने कुछ कहने के लिए हाथ उठाया। हाँ बोलो क्षितिज! मैडम ने कहा।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – मित्रता
मैं इसका निकटतम मित्र हूँ…, धीमी आवाज़ में उसने एक से कहा।
मैं श्रद्धावनत हो उठा।
मैं इसका निकटतम मित्र हूँ…, कुछ ऊँचे स्वर में उसने दो से कहा।
मैं मुस्करा दिया।
मैं इसका निकटतम मित्र हूँ…, उसने और ऊँचे स्वर में चार लोगों से कहा।
आगे यही बात उसने क्रमशः बढ़ते स्वर और लगभग चिल्लाते हुए आठ, सोलह, चौबीस और अनगिनत लोगों से कहीं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कहानी ‘एतबार’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 189 ☆
☆ कथा – कहानी ☆ एतबार ☆
वीरेन्द्र जी ऊँचे प्रशासनिक पद से रिटायर हुए। वे रोब-दाब वाले अफसर के रूप में विख्यात रहे। चाल-ढाल और बोली में हमेशा कड़क रहे। उनके ऑफिस के आसपास कभी किसी को ऊँची आवाज़ में बोलने की हिम्मत नहीं हुई। रिटायरमेंट के बाद भी उनका स्वभाव वैसा ही बना रहा। घर के लोग उनसे उलझने से बचते रहते हैं।
वीरेन्द्र जी हमेशा चुस्त-दुरुस्त रहना पसन्द करते हैं। सबेरे स्मार्ट वस्त्रों और जूतों में पत्नी के साथ सैर को निकल जाते हैं। घूम कर आराम से घर लौटते हैं। कहीं अच्छा लगता है तो बैठ जाते हैं। उनका नित्य का क्रम बँधा हुआ है। उसमें व्यतिक्रम उन्हें पसन्द नहीं।
अपने जीवन और अपनी ज़रूरतों के बारे में वीरेन्द्र जी सख़्त हैं। अपने कपड़ों, खाने- पीने और दूसरी ज़रूरतों में फेरबदल उन्हें पसन्द नहीं। वे उन पिताओं में से नहीं हैं जो अपने परिवार की ज़रूरतों के लिए अपनी ज़रूरतों को होम कर देते हैं। इस मामले में वे ज़्यादा भावुक नहीं होते।
वीरेन्द्र जी के साथ उनका छोटा बेटा और बहू रहते हैं। बड़ा बेटा ऑस्ट्रेलिया में और बेटी बैंगलोर में अपने पति के साथ है। छोटा बेटा और उसकी पत्नी शहर में ही जॉब करते हैं। वीरेन्द्र जी ने बंगला बड़ा बनाया है, इसलिए जगह की कमी नहीं है।
वीरेन्द्र जी का दृढ़ विश्वास है कि दुनिया में पैसे से ज़्यादा भरोसेमन्द कोई चीज़ नहीं है। उन्हें किसी मनुष्य में भरोसा नहीं है, अपनी सन्तानों पर भी नहीं। उनकी सोच है कि आदमी के लिए अन्ततः पैसा ही काम आता है, इसलिए भावुकता में उसे बाँटकर खाली हाथ नहीं हो जाना चाहिए। मित्रों के बीच में वे जब भी बैठते हैं तब भी यही दुहराते हैं कि पैसे से बड़ा दोस्त कोई नहीं होता, इसलिए उसे हमेशा सँभाल कर रखना चाहिए। वे अपने पैसे का हिसाब-किताब, अपने एटीएम कार्ड, अपनी मियादी जमा की रसीदें अपने पास ही रखते हैं। अपनी संपत्ति के बारे में खुद ही निर्णय लेते हैं। बेटे-बहू को कभी ज़रूरत से ज़्यादा जानकारी नहीं देते। पैसे निकालने, जमा करने का काम खुद ही करते हैं। उनके स्वभाव को जानते हुए बेटा-बहू भी उनसे जानकारी लेने की कोशिश नहीं करते।
वे अक्सर एक बड़े उद्योगपति का किस्सा सुनाते हैं जिसने भावुकता में अपनी सारी संपत्ति अपने बेटे के नाम कर दी थी और जो फिर अपना घर छोड़कर किराये के मकान में रहने को मजबूर हुआ था।
बैंक और एटीएम वीरेन्द्र जी के घर के पास ही हैं। कई बार पत्नी के साथ टहलते हुए चले जाते हैं। बेटे और बहू से पैसा नहीं निकलवाते। अपने पैसे के बारे में भरसक गोपनीयता बनाये रखने की कोशिश करते हैं।
वीरेन्द्र जी किसी का एहसान लेना पसन्द नहीं करते। उनकी सोच है कि दुनिया में बिना स्वार्थ के कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता। उनके विचार से निःस्वार्थ सेवा जैसी कोई चीज़ नहीं होती। कोई उनके लिए कुछ करता है तो वह तुरन्त उसका मूल्य चुकाने की कोशिश करते हैं। एक बार उनके ऑफिस का चपरासी महेश उनके घर अपने गाँव से लायी मटर दे गया था। वीरेन्द्र जी ने तुरन्त मटर का मूल्य महेश के हाथों में ज़बरदस्ती खोंस दिया था। उनके इस आचरण से महेश का मुँह छोटा हो गया था। अपनी श्रद्धा का मूल्यांकन उसे दुखी कर गया था, लेकिन वीरेन्द्र जी ने उसे उचित समझा था।
वीरेन्द्र जी घूमने-घामने के शौकीन हैं। देश के ज़्यादातर महत्वपूर्ण स्थानों को देख चुके हैं। पत्नी के साथ सिंगापुर और जापान भी हो आये हैं। उनका सोचना है कि जब तक हाथ-पाँव चलते हैं, दुनिया का लुत्फ़ ले लेना चाहिए। साल में पत्नी के साथ कहीं न कहीं का चक्कर लगा आते हैं।
वे मुहल्ले के ‘लाफ्टर क्लब’ के भी सदस्य बन गये हैं। पार्क में दस-पंद्रह बुज़ुर्ग इकट्ठे होकर पहले झूठी और फिर एक दूसरे की हँसी देख कर सच्ची हँसी हँस लेते हैं। आसपास की इमारतों की महिलाएँ इनकी झूठी-सच्ची हँसी देखकर आनन्दित हो लेती हैं।
ऐसे ही वीरेन्द्र जी के रिटायरमेंट के तीन चार साल गुज़र गए। स्वास्थ्य के मामले में वह हमेशा ‘फिट’ रहे थे और इस बात का उन्हें गर्व भी रहा था। नौकरी के आख़िरी दिनों में कुछ ‘ब्लड प्रेशर’ की शिकायत ज़रूर हुई थी। तब से नियमित रूप से ‘ब्लड प्रेशर’ की दवा लेते थे।
एक दिन वीरेन्द्र जी पत्नी के साथ बैंक गये थे। काम करके सीढ़ी से उतरने लगे कि अचानक लगा दुनिया घूम रही है। रेलिंग पकड़कर अपने को सँभाला, फिर वहीं सीढ़ी पर बैठ गये। पत्नी घबरायी। फोन करके बेटे को बुलाया। वह कार लेकर आया और दोनों को घर ले गया। वीरेन्द्र जी को पलंग पर लिटा दिया। थोड़ी देर में तबियत कुछ सँभली तो पास ही के अस्पताल ले गया। डॉक्टर ने जाँच की, फिर बोला, ‘भर्ती करा दीजिए।चौबीस घंटे ऑब्ज़र्वेशन में रखना पड़ेगा। अभी ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है। आराम ज़रूरी है।’
वीरेन्द्र जी अस्पताल में भर्ती हो गये। पहली बार अस्पताल की ज़िन्दगी का अनुभव हुआ। वहाँ के कर्मचारियों और डॉक्टरों को तटस्थ और मशीनी ढंग से काम करते देखा। देखा कि कैसे यहाँ आकर जीवन और मृत्यु के बीच का फर्क धूमिल हो जाता है। वीरेन्द्र जी को वहाँ चौबीस घंटे में बहुत कुछ सीखने-समझने को मिला।
चौबीस घंटे में वीरेन्द्र जी के अनगिनत ‘टेस्ट’ हो गये। कई विशेषज्ञ उनकी जाँच पड़ताल कर गये। दूसरे दिन शाम को अस्पताल से उनकी छुट्टी हो गई। डॉक्टर ने कहा, ‘ब्लड प्रेशर में फ्लक्चुएशन होता है। अभी कोई खास वजह समझ में नहीं आयी। दवाएँ लिख दी हैं। एक हफ्ते बाद फिर बताइए।’
दो दिन में ही करीब आठ हज़ार का बिल बन गया। वीरेन्द्र जी ने बेटे को अपना एटीएम कार्ड दिया,कहा, ‘निकाल कर जमा कर देना।’
बेटा बोला, ‘मैंने जमा कर दिया है। अभी आप इसे रखिए।’ वीरेन्द्र जी ने सकुचते हुए कार्ड रख लिया।
घर आकर वीरेन्द्र जी ने फिर कार्ड बेटे की तरफ बढ़ाया। बेटे ने कहा, ‘आप थोड़ा ठीक हो जाइए, फिर देख लेंगे।’
ऑस्ट्रेलिया से बड़े बेटे का फोन आया। कहा, ‘पैसे की दिक्कत हो तो बताएँ। भेज दूँगा।’ बेटी के फोन हर चार छः घंटे में आते रहे, कभी कैफियत लेने के लिए तो कभी हिदायत देने के लिए।
तीन चार दिन के आराम के बाद वीरेन्द्र जी ने बाहर निकलने की सोची। सबेरे पत्नी को लेकर घूमने निकले, लेकिन धीरे धीरे, अपने को टटोलते हुए चले। मन में कहीं डर बैठ गया था, आत्मविश्वास दरक गया था।
लौटे तो पलंग पर लेटे बड़ी देर तक सोचते रहे। आदमी और परिवार के बारे में उनकी मान्यताएँ कमज़ोर पड़ रही थीं। थोड़ी देर बाद बेटे को बुलाया, बोले, ‘शाम को मेरे पास बैठना। अपने बैंक एकाउंट और फिक्स्ड डिपाज़िट्स वगैरः के बारे में तुम्हें जानकारी दे दूँगा। तबियत का कोई भरोसा नहीं है, पता नहीं कब फिर से बिगड़ जाए।’
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘ मक्खी – सा’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 115 ☆
☆ लघुकथा – मक्खी – सा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
उसने गिलास में दूध लाकर रखा ही था कि कहीं से एक मक्खी भिनभिनाती हुई आई और उसमें गिर पड़ी । उसने मक्खी को उंगली और अंगूठे से बड़ी सावधानी से पकड़ा और निकालकर दूर फेंक दिया । फर्श पर पड़ी मक्खी हँस पड़ी और बोली – ‘ कहावत बनी तो मुझ पर है लेकिन लागू तुम इंसानों पर होती है । मैं तो कभी- कभी गलती से तुम्हारे दूध में गिर जाती हूँ पर तुम तो काम निकल जाने पर जब जिसे चाहो दूध की मक्खी – सा निकाल बाहर करते हो। ‘
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा –काल
घातक हथियार लिए वह मेरे सामने खड़ा था। चिल्लाकर बोला, “मैं तुम्हें मार दूँगा। तुम्हारा काल हूँ मैं।”
मैं हँस पड़ा। मैंने कहा, “तुम मेरी अकाल मृत्यु का कारण भर हो सकते हो पर काल नहीं हो सकते।”
” क्यों, मैं क्यों नहीं हो सकता काल? मैं खुद नहीं मरूँगा पर तुम्हें मार दूँगा। मैं ही हूँ काल?”
” सुनो, काल शाश्वत तो है पर अमर्त्य नहीं है। ऊर्जा की तरह वह एक देह से दूसरी देह में जाकर चेतन तत्व हर लेता है। हारा हुआ अवचेतन हो जाता है, काल चेतन हो उठता है। खुद जी सकने के लिए औरों को मारता है काल।… याद रखना, जीवन और मृत्यु व्युत्क्रमानुपाती होते हैं। जीवन का हरण अर्थात मृत्यु का वरण। मृत्यु का मरण अर्थात जीवन का अंकुरण। तुम आज चेतन हो, अत: कल तुम्हें मरना ही पड़ेगा। संभव हो तो चेत जाओ।”
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “राजनीति”.)
☆ लघुकथा ☆ “राजनीति” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆
अंधो की सभा थी.
विषय था किसे राजा बनाया जाय.
” मुझे बनाइये, मैं काना हूँ ” .एक अंधा बोला. ” चाहे तो आप देख लीजिए. “
” मगर हम देख नहीं सकते.” अंधे बोले.
” पर सुन तो सकतै हो ! आपने कहावत सुनी ही होगी कि ” अंधों में काना राजा होता है ” वैसे मैंने अपने घोषणापत्र में ब्रेललिपि में साफ लिख दिया है कि मेरे राजा बनते ही ” सरकारी आइ कॅम्पो” मे आपकी आंखों का मुफ्त इलाज होगा. तब देख भी लेना. “
सारे अंधे चुपचाप वोट देने चले गृए यह जानते हुए भी कि “सरकारी आइ कॅम्पो” के करण ही वे अंधे हुए थे। पर लोकतंत्र की मजबूती के लिए वोट देना उनका कर्तव्य है और संविधान की कहावत को मानना उनकी विवशता।
चुनावी विश्लेषण:- ” अंधो में “काना” राजा नहीं; अंधों में “सयाना” राजा होता है।”
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई प्रयोग किये हैं। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा ‘‘संपादक का घर’।)
☆ लघुकथा – एक मुर्दा गांव ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆
गांव से शहर पढ़ने चले गये लड़के को जल्दी ही अपने गांव की याद सताने लगी। वर्ष बीतते न बीतते वह गांव की यादों से महरूम होने लगा। एक दिन गांव से शादी के मिले निमंत्रण पत्र ने उसका गांव जाने का रास्ता आसान कर दिया। वह खुशी-खुशी अपने गांव पहुंच गया।
गांव पहुंचते ही उसे उदासी ने घेर लिया। बचपन में ढेरों ढेर पक्षी आंगन नदी तालाब में उड़ान भरते थे। पूरा बचपन पक्षियों की सोहबत में बीता था।
उसे वे तीतर, बटेर, गौरैया, फडकुल-गल गल देखने नहीं मिल रहे थे। चकवी चकवा का वह जोड़ा जो शाम होते ही नदी के इस पार उस पार चले जाते थे। उसने अपने अभिन्न मित्र के साथ पूरी कोशिश की थी की उस जोड़े को पकड़ कर क्यों ना एक साथ रखा जाए पर सदियों से बना प्रकृति का वह नियम कैसे टूटता भला?
खेत खलिहान, नदी तालाब सब खाली पड़े थे। पक्षी राज्य का नामोनिशान तक नहीं था। मित्र बोला-खेतों में कीटनाशक दवा के छिड़काव ने और शहर से आकर शिकारियों ने चोरी छुपे पक्षी मारना शुरू कर दिया तो बेचारे पक्षी कहां रहते भला?
‘यह गांव तो मुरदा हो गया है।’ मुश्किल से बोल पाया मित्र।
‘किस बात का गांव जहां पक्षियों का बसेरा ना हो—उनका कलरव ना हो–उनकी आकाश छूती उड़ान ना हो–‘ मित्र भावुक हुआ जा रहा था।
दूसरे दिन वह उदास-उदास गांव से शहर लौट गया। ऐसे मुर्दा गांव में अब एक पल भी ठहरना उसे मुश्किल हो रहा था।
☆ कथा-कहानी ☆ कृष्णस्पर्श भाग – 3 – हिन्दी भावानुवाद – सुश्री मानसी काणे ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆
आज उत्तरंग में माई जी कुब्जा की कथा सुनाने वाली थी। माई कहने लगी, ‘‘हमने पूर्वरंग में देखा, कि मनुष्य के बाह्य रूप की अपेक्षा उसके अंतरंग की भावना महत्त्वपूर्ण है। ईश्वर को भी भाव की भूख होती है। ईश्वर पर नितान्त श्रद्धा रखने वालों को कुब्जा की कथा ज्ञात होगी ही। चलो। आज हम सब मथुरा चलते हैं।
मथुरा में आज भगवान् कृष्ण पधार रहे हैं। आज कुछ खास होने वाला है। सबका मन अस्वस्थ है। दिल में अनामिक कुतुहल हैं, साथ-साथ कुछ चिंता, बेचैनी भी है। अष्टवक्रा (जिस का तन आट जगह टेढ़ा-मेढ़ा है) कुब्जा मन में विचार कर रही है,
‘‘आज मुझे कृष्णदर्शन होंगे ना? क्या मैं उनके पैरों पर माथा टेक सकूँगी? उन्हे चन्दन लगा सकूँगी?
कितने दिन हो गए, उस पल को! सारा जग निद्रित था। मध्यरात्रि का समय था। मैं यमुनास्नान के लिए गई थी। कोई देखकर मेरे रूप का उपहास न करे, ताने न कसे, इसले लिए, मध्य प्रहर में ही स्नान करने का प्रण कितने ही दिनों से लिया था मैंने। उस दिन, नहीं. नहीं. उस मध्याह्नरात में, नदी के उस पार से आनेवाली कृष्ण जी की मुरली की धुन सुनी और मुझे लगा, मेरा जीवन सार्थक हो गया।”
सुश्री मानसी काणे
माई जी के रसीले विवेचन ने श्रोताओं के सामने साक्षात् कुब्जा खड़ी कर दी। उसका मन स्पष्ट हो रहा था। काली स्लेट पर लिखे सफेद अक्षरों की तरह श्रोता कुब्जा का मन पढ़ने लगे थे। हाथ पीछे करके माई जी ने कुसुम को ईशारा किया। वह गाने लगी।
अजून नाही जागी राधा अजून नाही जागे गोकुळ
अशा अवेळी पैलतिरावर आज घुमे का पावा मंजुळ।
(अभी राधा सोई हुई है। सारा गोकुल सोया है। ऐसे में उस पार बाँसुरी की यह मधुर धुन क्यों बज रही है।)
मुरली की वह धुन अब कुसुम को भी सुनाई देने लगी। उसके कान में वे सुर गूँजने लगे।
विश्वच अवघे ओठा लावून । कुब्जा प्याली तो मुरली रव।
(जैसे पूरा विश्व अपने होठों से लगाकर कुब्जा ने मुरली की ध्वनि पी ली।)
कुब्जा कहाँ? वह कुस्मी थी। या कृष्णयुग की वही कुब्जा, आज के युग की कुस्मी बनी थी और धीरे-धीरे अपने भूतकाल में प्रवेश कर रही थी।
माई जी कहने लगी, ‘‘मथुरा के राजमार्ग पर सभी श्रीकृष्ण् की राह देख रहे थे। इतनें में कुब्जा लड़खड़ाती हुई आगे बढ़ी। कुछ लोग बोलने लगे…”
कुसुम ने साकी गाना प्रारंभ किया,
नकोस कुब्जे येऊ पुढ़ती SSS करू नको अपशकुना SSS
येईल येथे क्षणी झडकरी नंदाचा कान्हा SSS
(कुब्जा तुम आगे मत बढ़ो। मनहूस न बनो। अपशकुन मत करो। अब यहाँ किसी भी क्षण नंद का कान्हा आएगा।)
माई जी ने विवेचन करना प्रारंभ किया… कुब्जा पूछने लगी, ‘‘क्या मेरे दर्शन से भगवान् को कभी अपशकुन होगा? भक्तन से मिलने पर भगवान् को कभी अपशकुन हुआ है? फिर वे कैसे भगवान्?”
वह मन ही मन कहने लगी, ‘‘कितने साल हो गए, इस क्षण की प्रतिक्षा में ही मैं जिंदा रही हूँ। इसी क्षण के लिए मैंने अपनी ज़िंदगी की हर साँस ली है…।”
सभामंडप में उपस्थित श्रोता निश्चलता से साँस रोककर माई जी को सुन रहे थे। कुब्जा की भावना चरम सीमा पर पहुँची थी।
माई आगे की कथा सुनाने लगी। इतने में ‘‘आया, आया, कृष्णदेव आ गया। गोपालकृष्ण महाराज की जय।” मथुरा के प्रजाजन ने कृष्णदेव का जयजयकार किया।”… इसी समय माई जी के आवाज में अपनी आवाज मिलाकर सभामंडप में उपस्थित श्रोताओं ने भी जयजयकार किया।
‘‘…कृष्णदेव आ गए। कुब्जा आगे बढ़ी। सैनिकों ने उसे पीछे खींच लिया। पर आज उसमें न जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गई थी, उन्हें ढकेलकर कुब्जा आगे बढ़ी। हाथ में चाँदी की कटोरी, कटोरी में चंदन, दूसरे हाथ में मोगरे की माला… यह सब बनाने के लिए उसे सारी रात कष्ट उठाना पड़ा था। कृष्ण को यह सब अर्पण करके उस का कष्ट सार्थक होने वाला था।”
माई जी ने कुसुम को इशारा किया। वह गाने लगी।
शीतल चन्दन उटी तुझिया भाळी मी रेखिते
नवकुसुमांची गंधित माला गळा तुझया घालते
भक्तवत्सला भाव मनीचा जाणून तू घेई
कुब्जा दासी विनवितसे रे ठाव पदी मज देई
(मैं तुम्हारे माथे पर चन्दन टीका लगा रही हूँ। नवकोमल सुगन्धित पुष्पमाला तुम्हें पहना रही हूँ। हे भक्तवत्सल, मेरे मन का भाव तू जान ले। यह कुब्जा दासी तुम्हें विनती करती है, कि अपने चरणों में मुझे जगह दे।)
‘कुब्जा को भगवान् को चन्दन लगाना था। उसके गले में माला पहनानी थी, किन्तु वह इतनी लड़खड़ा रही थी, कि उसके हाथ और कृष्ण का माथा, गला इनका मेल नहीं हो रहा था। जब कृष्ण ने अपने पैर के अंगूठे से कुब्जा का पैर दबाया, तो लड़खड़ाने वाली कुब्जा स्थिर हो गई। उसने चन्दन लगाकर कृष्ण को माला पहनाई और अनन्य भाव से कृष्ण की शरण में आई। अपना सिर कृष्ण के पैरों पर रख दिया। उस के बाहु पकड़कर कृष्ण ने उसे उठाया और कितना आश्चर्य…
‘स्पर्शमात्रे कुरूप कुस्मी रूपवती झाली
अगाध लीला भगवंताची मथुरे ने देखिली
देव भावाचा भुकेला… भावेवीण काही नेणे त्याला’
(उसके स्पर्श से कुरूप कुस्मी रूपवती बन गई। भगवान् की अगाध लीला मथुरा के समस्त नागरिकों ने देख ली। भगवान् भक्त के मन का भाव, श्रद्धा देखते हैं। श्रद्धाभाव के सिवा भगवान् को कुछ भी नहीं चाहिये।)
कुसुम ने भैरवी गाने का प्रारम्भ किया था। उसके अबोध मन ने कुब्जा की जगह स्वयं को देखा था और भैरवी में कुब्जा न कहते हुए, कुस्मी कहा था। माई के ध्यान में सब गड़बड़ी आ गई, किन्तु श्रोताओं की समझ में कुछ नहीं आया। शायद उन्हें पूर्व कथानुसार कुब्जा ही सुना दिया हो।
कुसुम गाती रही… गाती रही… गाती ही रही। माई ने कई बार इशारे से उसे रोकने का प्रयास किया, पर कुसुम गाती ही रही। मानो, कुस्मी ने भगवान् के चरणों पर माथा टेका हो। वह उनके चरणों में लीन हो गई हो। भगवान् ने अपने हाथों से उठाया, और क्या? कुसुम रूपवती हो गई। अब भगवान् के गुणगान के सिवा उसकी ज़िंदगी में कुछ भी बचा नहीं था। कुछ भी… कुसुम गाती रही… गाती रही… गाती ही रही।
छ: बज चुके थे। कीर्तन समाप्त करने का समय हो गया था। कुसुम का गाना रुक नहीं रहा था। आखिर उसे वैसे ही गाते छोड़कर माई जी कथा समाप्ति की और बढ़ी।
‘हेचि दान देगा देवा। तुझा विसर न व्हावा। विसर न व्हावा। तुझा विसर न व्हावा।’
(हे भगवान्! हमें इतना ही दान दे दे, कि हम तुम्हें कभी भूले नहीं।)
ऐसा कहते हुए उन्होंने प्रार्थना की और आरती जलाने को कहा।
आरती शुरू हो गई, तो कुसुम को होश आ गया। वह गाते गाते रुक गई। गाना रुकने के साथ-साथ, उसके चेहरे की चमक भी लुप्त हो गई। अपनी भूल का उसे अहसास हो गया। वह डर गई। हड़बड़ा गई। और ही बावली लगने लगी। तितली की शायद इल्ली बनने की शुरुआत होने लगी।
आरती का थाला घुमाया गया। उसमें आए पैसे, फल, नारियल, किसी ने समेटकर माई जी को दे दिए। देशमुख जी ने माई जी को रहने के लिए जो कमरा दिया था, उसकी ओर माई जाने लगी। उनके पीछे-पीछे डरती-सहमती, पाँव खींचती, खींचती, इल्ली की तरह कुसुम भी जाने लगी।
आज पहली बार माई को महसूस हुआ, कि कुसुम इतनी विरूप नहीं है, जितनी लोग समझते हैं। वह कुरूप लगती है, इसका कारण है, आत्मविश्वास का अभाव। गाते समय वह कितनी अलग, कितनी तेजस्वी दिखती है, मानो कोश से निकलकर इल्ली, तितली बन गई है… रंग विभारे तितली।
माई नें ठान ली, अब इस तितली को वे फिर से कीड़े-मकोड़े में परिवर्तित नहीं होने देगी। आत्मविश्वास का ‘कृष्णस्पर्श’ उसे देगी। अब वह उसे किसी अच्छे उस्ताद के पास गाना सिखाने भेजेगी। कीर्तन सिखाएगी। उसे स्वावलंबी, स्वयंपूर्ण बनाएगी। उनके दिल में कुसुम के प्रति अचानक प्यार का सागर उमड़ आया।
क्या आज माई के विचारों को भी ‘कृष्णस्पर्श’ हुआ था?
(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित। पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा शाश्वत प्रेम।
☆ लघुकथा – शाश्वत प्रेम ☆
अपनी जिंदगी का लंबा सफर मिलकर तय कर चुके हैं अशोक तथा गायत्री जी। 50 सालों के वैवाहिक जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों को महसूस करते आज भी अपने दमखम पर जीवन यापन कर रहे हैं। शाम की सैर करने के बाद जब अशोक जी घर आए तो उनके हाथ में एक पैकेट था।पत्नी को बोले- “जरा आईने के पास चलो।“ उसने हैरानी से पूछा- “क्या बात है?” अशोक जी बोले – “तुम चलो तो सही…”
वहां जाकर उन्होंने पैकेट खोला और उसमें से फूलों का महकता गजरा निकालकर पत्नी के बालों में लगा दिया। एक लाल गुलाब का फूल उसके हाथों में थमा दिया। वे बोलीं- “ इस बुढ़ापे में यह सब क्या! “ अशोक जी बोले – “आज वैलेंटाइन डे है प्रेम का प्रतीक और प्रेम कोई जवानों की बपौती नहीं। प्रेम तो शाश्वत निर्मल धारा है जो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में बहती है।“ पत्नी तो प्रेम से अभिभूत हो गई।