☆ कथा-कहानी ☆ अतीत की खिड़की से रुपहली धूप – भाग – 2 ♥ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆
दो चार चिठ्ठिओं के बाद एक और चिठ्ठी पूर्णिमा पढ़ रही थी …‘‘यह भी कैसी विडंबना है! सारा किया कराया मेरा है, मगर सारी मुसीबतें तुम्हें झेलनी पड़ रही है। अकेले। तुम्हें उल्टी करते देख मैं तो घबड़ा ही गया था। कहीं पीलिआ सिलिया न हो जाए! मगर भाभी ने मुझे चिकोटी काटते हुए कहा था,‘‘यह रोग तो तुम्हीं ने लगाया है।’’ अब कैसी हो? वहाँ जाकर क्या ऐसे ही सब ठीक हो गया? अच्छा, तो हमारे ही यहाँ तुमको जितनी तकलीफें हैं? मायका तो स्वर्ग का और एक नाम है – क्यों? अच्छा, मुन्ना होगा तो उसका नाम क्या रखोगी ?और अगर बेटी हुई तो? दोनों नाम सोच कर रखना …।’’
धूप के साथ छाँव, तो सुख के साथ दुख भी। अम्माजी की एक चिठ्ठी में कुछ वैसी ही बातें-। ‘‘अब इसमें मेरा क्या दोष है? मिथलेश चाची मुझे ही कोस रही थी ‘‘बहू आयी, साल बीता नहीं कि लगी लगायी नौकरी छूट गयी।’’ ‘‘मेरी ही किस्मत फूटी है, तो मैं क्या करूँ?’’
इसके जवाब में हृदयनारायण -‘‘लो, उस दिन तो तुम अपनी किस्मत पर रो रही थी। अब? वो नौकरी गयी, तभी न मैं एड़ी चोटी एक करके यहाँ से वहाँ दौड़ता रहा। देखो, पाँच महीने के अंदर मुझे लेक्चरर का पोस्ट मिल गया। अब मैं शान्ति से डाक्टरेट भी पूरा कर लूँगा। तो?
अब पूर्णिमा चिठ्ठिओं को सहेजने लगी।
‘‘क्या कर रही हो दीदी?’’
‘‘कहीं बाबूजी अम्माजी वापस आ जायें तो -?’’
‘‘चोरी तो नहीं की है, डाका तो नहीं डाला। हंगामा है क्यूॅ ?’’अनामिका खिलखिलाने लगी,‘‘बस, प्रेमपत्र ही तो पढ़ रही हूँ -’’
‘‘यह चोरी नहीं तो और क्या है?’ ’चॉदनी ने उसे कसके चिकोटी काट दी।
‘‘ऊफ् माँ! दीदी, दीदी जरा देखो न अम्माजी के मधुशाला में और कितना नशा है? इसे – इसे पढ़ो !’’
कई साल के अन्तराल के बाद की चिठ्ठी थी। तीनों संतानें हो गई थीं …….
‘‘देखिए, जल्दी जल्दी में मैं मुन्नी का फ्राक उतार ले आना भूल ही गई। छत पर पड़ा है। बंदर फाड़ न दे। मिठाई से कह कर बच्चों का ड्रेस इस्तिरी करवा दीजिएगा …’’
‘‘लो, चिठ्ठी में बंदर से लेकर धोबी सबका जिक्र है। मगर -’’अनामिका के अरमान का गुब्बारा फुस्स् हो गया, ‘‘आगे क्या है?’’
‘‘भूलिएगा नहीं। बाबूजी की दवा रात में दे दीजिएगा। और अम्माजी रोज रोज पूड़ी कचौड़ी न बनायें। अब इस उमर में बाबूजी के लिए ये सब ठीक नहीं हैं। वैसे आपका मना करना भी तो शोभा नहीं देगा। लगेगा मैं सीखा पढ़ा कर आयी हूँ। मगर ख्याल रहे उनको दिल की बीमारी है। ….’’
‘‘दिल का हाल सुने दिलवाला -उसका क्या होगा, नायिके ?’’
‘‘कल सारी रात छुटकी रोती रही -’’दोनों भाभिओं ने ननद की ओर देखा -‘‘शायद पेट में दर्द हो रहा था। पेट में गैस वैस हो गया था -’’
‘‘छिः!’ ’सशक्त विरोध पक्ष में चाँदनी -‘‘अब यह सब नहीं पढ़ना है। वह मेरे पेट में दर्द था या कान में – कैसे मालूम ?’’
‘‘हाँ, हाँ, तुझे तो आज तक सब याद है!’’ बड़ी भाभी ने ननद की खिंचाई की।
‘‘बन्दर और दवा से लेकर गैस तक सब हैं। मगर -‘दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा….’। कहाँ सोचा था ‘फूलों के रंग से दिल की कलम से कुछ बातें लिखीं होगी…’’
इतने में बेल बजी। तीनों चोर जोर से चौंक गयीं -‘‘अरे बापरे! कितना बजा? अल्मारी बन्द कर।’’ दोनों देवरानियॉ जल्दी जल्दी चिठ्ठियॉ सहेजने लगीं।
चाँदनी ने बरामदे से देखा, ‘‘अम्मा और बाबूजी आये हैं।’’
पूर्णिमा ऑचल के नीचे एक पुलिंदा दबा कर भागी नीचे – दरवाजा खोलने। इसके पास मानिनी की चिठ्ठियां थीं।
उधर अनामिका के हिस्से में हृदयनारायण की पत्रावली आ गयीं। उन्हें सिल्क के कपड़े में लपेट कर झट से अपने बिस्तर के नीचे दबा दिया।
दो तीन दिन ऐसे ही बीत गये…। फिर एक दिन शाम की चाय के बाद तीनों की महफिल जम उठी। चोरी करना आसान है। मगर चोरी का सामान लौटाना सचमुच मुश्किल काम होता है। अब चिठ्ठिओं को यथास्थान यथावत् रखना भी तो था। सबने सोचा अम्माजी जब बाथरुम जायेंगी तो सबकी पुनः स्थापना कर दी जायेगी। तभी अनामिका ने पूछा, ‘‘दीदी, तुमने भी अम्माँजी की बाकी चिठ्ठियॉ पढ़ ली कि नहीं ?’’
‘‘हाँ, कुछ कुछ……’’
‘‘देखो न, बुआजी की शादी के समय अम्मां को शायद एक नीले रंग की पटोला साड़ी बहुत ही पसन्द आ गयी थी। मगर इतने ढेर सारे खर्च को देखते हुए बेचारी ने मन की साध मन में ही दबा ली। बाबूजी को किसी से पता चल गया था। एक चिठ्ठी में उसी बात का अफसोस कर रहे थे कि मैं तुमको वह साड़ी पहना न सका। उसके बाद भी इतनी सारी चीजें खरीदी गयीं – उससे महॅँगी भी – मगर गृहस्थी के बजट में उसका फिर नाम न आया। बाबूजी माताजी को वही साड़ी पहनाना चाहते थे।’’
‘‘हाँ रे! उसी तरह माताजी की एक चिठ्ठी में भी है’’
जब चाँदनी के भैया लोग छोटे थे, तो इन्हें और दादा दादी को लेकर बाबूजी और अम्मां केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा पर गये थे। पर गौरीकुंड पहुंचकर दादी की तबिअत काफी खराब हो गई। सो बाबूजी वहीं बैठे माँ की सेवा करते रहे। मजबूरन अम्माजी को बच्चों को लेकर दादाजी के साथ आगे चले जाना पड़ा। बस, वही बात अम्मांजी को सालती रही कि जिसकी इच्छा इतनी थी वही जा न सका। फिर दोबारा उधर का कार्यक्रम बन भी न सका।’’
तीनों चुप बैठी कुछ सोच रही थीं ……
आखिर पूर्णिमा बोली,‘‘क्यों रे छोटी, हम भी तो अपने सास ससुर के लिए कुछ कर सकती हैं। क्यों न बाबूजी और अम्माजी को एकसाथ फिर वहीं ले चलें। आज ही मैं तेरे बड़े भैया से बात करती हूँ।’’
‘‘हाँ, दीदी, और मैं अम्मा के लिए वही पटोला सिल्क की साड़ी खरीदूँगी। नीले रंग की।’’
अचानक चाँदनी उठ खड़ी हुई और दोनों भाभिओं के गाल चूम लिये …
कुछ दिनों बाद…
रेल टिकट को देख कर हृदयनारायण हॅँसने लगे, ‘‘यह तो मेरी कब की इच्छा थी। चलो, बेटे बहुओं ने पूरी कर दी। मैं तो भाई भाग्यवान हूँ -’’
‘‘और अम्मां, आप यही साड़ी पहन कर दर्शन करने जाइयेगा!’’ अनामिका ने सास के हाथों में वह साड़ी रख दी।
‘‘अरे! यह तू कैसे ले आई? सालों पहले ऐसी ही एक साड़ी पर मेरा मन आ गया था। मगर तेरे बाबूजी क्या करते? वो हो नहीं पायी। फिर भी, अब इस उमर में इसे पहनूँ ? छिः! लोग क्या कहेंगे?’’
‘‘नहीं अम्माँजी, आपको पहननी पड़ेगी! मन की साध अधूरी क्यों रहे? पूरी कर लीजिए …!’’
अचानक हृदयनारायण कुछ सोचने लगे, ‘‘मुन्ने की अम्मां, यह बताओ हम दोनों की असाध एक साथ इन्हें कैसे मालूम पड़ गयीं ? तुमने तो कभी कुछ नहीं बताया?’’
‘‘पागल हैं क्या? मैं क्यों बताने गयी?’’
‘‘तो?’’ हृदयनारायण दोनों बहुओं की ओर एकटक देखने लगे, ‘‘तुम लोगों को कैसे मालूम हुआ -?’’
दोनों अपराधी ऑँचल से मुँह दाब कर हॅँस रही थीं। चाँदनी ने ऑँखें नीची कर ली।
मानिनी के मन में क्या हुआ कि अचानक उठ कर गयीं और अपनी ड्रेसिंग टेबुल की अल्मारी को खोल कर उन्होंने देखा। बस, उल्टे पाँव सिर पीटते हुए वापस आ गयीं, ‘‘छिः! सत्यानाशी! तुम दोनों ने हमारी चिठ्ठी पढ़ी थी?’’
‘‘जाकर थाने में खबर करो!’’ हृदयनारायण चिल्लाकर बेटे को बुलाने लगे, ‘‘मुन्ना !जरा छत से बन्दर भगानेवाली लाठी तो लेते आ -’’
दोनों चोर घूँघट में मुँह छुपा कर हँसते हुए भाग खड़ी हुईं…।
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