(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – नए ज़माने की दुआ।)
☆ लघुकथा – नए ज़माने की दुआ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
“इस घर में कुलदीपक पैदा हुआ है, इस साधु को भी कुछ बधाई दो बच्चा!” गेरुए वस्त्र धारण किए एक बाबा ने घर के भीतर प्रवेश करते हुए कहा। नवजात शिशु के पिता ने पूछा, “आपको कैसे पता चला बाबा कि लड़का हुआ है?”
“तुम्हारे घर के दरवाज़े पर नीम के पत्ते और खिलौने टँगे हैं। बाबा का भी मुँह मीठा कराओ।”
नवजात का पिता भीतर से मिठाई ले आया, साथ ही दो सौ का एक नोट भी बाबा की हथेली पर रख दिया। बाबा ने ख़ुश होकर दुआ दी, “ईश्वर बच्चे और उसके माँ-बाप की उम्र लम्बी करे। मेरी दुआ और आशीर्वाद है कि बच्चा बड़ा होकर बाहर के देश में जाए।”
“यह कैसी दुआ है बाबा, वह बाहर क्यों जाए भला?” बच्चे के बाप ने जैसे नाराज़ होते हुए कहा।
“तुम्हें बुरा लगा हो तो क्षमा करना बच्चा, पर आजकल तो हर युवा बाहर मुल्क में जाने की जीतोड़ कोशिश कर रहा है। कितने युवा हैं जो बाहर जाने में सक्षम होने के बावजूद इस देश में रहना चाहते हैं?”
बाबा चला गया था पर बच्चे का पिता समय के साथ आकार लेने वाली भविष्य की कई दुआओं के बारे में एक साथ सोच गया- बच्चा नशे और माफ़ियाओं से बचा रहे, बच्चा धर्मांध भीड़ का हिस्सा होने से बचा रहे, उसके बड़े होने तक रोज़गार बचे रहें, पीने के लिए पानी बचा रहे… और… और… सर्दी का मौसम था और बच्चे का पिता पसीने से भीग गया था।
☆ हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – और, मंजिल मिल गयी… ☆ श्री विजयानन्द विजय ☆ ☆
” स्साली नौकरी न हुई, बेगारी हो गयी है। सुबह से शाम तक बस चाय पिलाओ, नाश्ता कराओ। जैसे और कोई काम ही नहीं है। ” – रामबाबू चाय की केतली लिए बड़बड़ाता हुआ दुकान से ऑफिस की ओर जा रहा था।
राज्य पुलिस में पाँच वर्षों से वह सिपाही के रूप में काम कर रहा था।मगर उसका काम था बस, कुछ फाईल वर्क करना और साहब लोगों को नाश्ता कराना और चाय पिलाना। रोज – रोज के इसी काम से वह ऊब-सा गया था।वह भी चाहता था कि हाथों में बंदूक लेकर दूसरे सिपाहियों की तरह डीएसपी साहब के साथ बाहर जाए।अपराध और अपराधियों का खात्मा करने में अपना भी योगदान दे।आखिर उसकी नियुक्ति भी तो इसी काम के लिए हुई है ? मगर इन पाँच वर्षों में ऐसा मौका उसे कभी मिला ही नहीं।
घर की आर्थिक स्थिति खराब रहने की वजह से माँ-बाबूजी उसे पढ़ा नहीं पाए।किसी तरह उसने मैट्रिक की परीक्षा पास की और पुलिस विभाग में सिपाही बन गया, ताकि घर और माँ-बाबूजी को सँभाल सके। बहन की शादी कर सके।
धीरे-धीरे उसकी कमाई से घर की स्थिति भी सुधरने लगी।बाबूजी ने गाँव में कुछ जमीन खरीद ली।वे उस पर खेती करने लगे। वे मजदूर से खेतिहर बन गये। बहन की शादी भी उसने धूमधाम से अच्छे घर में कर दी।
अपनी इच्छा को मारकर ऑफिस में उसे वह सब कुछ करना पड़ता था, जो वह नहीं चाहता था। मगर वह कर भी क्या सकता था ? हाँ, इस बीच उसने पढ़ाई से अपना मन नहीं हटाया और दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से स्नातक की परीक्षा पास कर ली।
उस दिन पहले ही की तरह डीएसपी साहब ने उसे चाय लाने के लिए भेजा था।दुकान पर जाकर उसने केतली दी और चार चाय का आर्डर दिया। तभी उसका मोबाईल फोन बजा। उसके दोस्त का फोन था।
चाय की केतली और कप लेकर जब वह पुलिस स्टेशन पहुँचा, तो सभी उसे देखकर खड़े हो गये।
सामने दीवार पर लगी टीवी पर न्यूज चल रही थी – ” जिले में पदस्थापित पुलिस के जवान रामबाबू आईएएस बने। “
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘लड़की की माँ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 103 ☆
☆ लघुकथा –लड़की की माँ — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
अरे! जल्दी चलो सब, बारात दरवाजे पर आ गई है। भारी भरकम साड़ी पहने और कंधे पर बड़ा सा पर्स टांगे वह तेज कदमों से मुख्य द्वार की ओर चल दी। बैंड-बाजों की तेज आवाजें उसकी धड़कन बढ़ा रही थीं। द्वार तक पहुंचते पहुंचते वह कई बार मन में दोहरा चुकी थी – लड़के के माता – पिता, बहन – बहनोई सबके पाँव पखारने हैं, पहले जल से, फिर दूध से और कपड़े से पैरों को पोंछना है। उसके बाद सभी महिलाओं को हल्दी – कुंकुम लगाना है। ना जाने कितनी परीक्षाएं उसने पास की थीं पर आज का यह पाठ पता नहीं क्यों बड़ा कठिन लग रहा है। बेटी के ससुरालवालों ने कहलाया था कि हमारे यहाँ द्वार- पूजा में लड़की की माँ ही सबके पाँव पखारती है। बेटी का खुशी से दमकता चेहरा देख वह यंत्रवत काम करती जा रही थी।
वह हांफ रही थी तेज चलने से नहीं, भीतरी द्वंद्व से। सब कुछ करते हुए कहीं कुछ खटक रहा है। दिमाग के किसी एक कोने में उथल –पुथल मची हुई थी जिसने उसे बेचैन कर रखा है। उसके विचार और वास्तविकता के बीच भयंकर द्वंद्व चल रहा है। परंपरा और अपनी आधुनिक सोच के मकड़जाल में वह घुट रही थी। दिल कहा रहा था – जैसा बताया है, करती जा चुपचाप, अपनी बेटी की खुशी देख, बस –। ये सब परंपराएं हैं, सदियों से यही हो रहा है लेकिन दिमाग वह तो मानों घन बजा रहा था – सारी रस्में लड़की की माँ के लिए ही बनी हैं? क्यों भाई? दान – दहेज, लेना – देना सब लड़कीवालों के हिस्से में? वह बेटी की माँ है तो? क्यों बनाईं ऐसी रस्में?‘ कन्यादान’ शब्द सुनते ही ऐसा लग रहा है मानों किसी ने छाती पर घूंसा मार दिया हो, रुलाई फूट पड़ रही है बार- बार, कुछ उबाल सा आ रहा है दिल में। ऐसा अंतर्द्वंद्व जिसे वह किसी से बाँट भी नहीं सकती। जिससे कहती वही ताना मारता – अरे ! यही तो होता आया है। लड़कीवालों को झुककर ही रहना होता है लड़केवालों के सामने। हमारे यहाँ तो — इसके आगे सामनेवाला जो रस्मों की पिटारी खोलता, वह सन्न रह जाती। उसके पिता का कितना रोब- दाब था समाज में लेकिन फेरे के समय वर पक्ष के सामने सिर झुकाए समर्पण की मुद्रा में बैठे थे।
उसने अपने को संभाला – नहीं- नहीं, यह ठीक नहीं है। इस समय अपनी शिक्षा,अपने पद को दरकिनार कर वह एक लड़की की माँ है, एक सामान्य स्त्री और कुछ नहीं ! पर दिमाग कहाँ शांत बैठ रहा था उसकी बड़ी – बड़ी डिग्रियां उसे कुरेद रही थीं, उफ! काश डिलीट का एक बटन यहाँ भी होता, उसने विचार झटक दिए। वह तेजी से मुख्य द्वार पर पहुँची। द्वार पर वर, बेटी के सास – ससुर, नंद – ननदोई, उनके पीछे रिश्तेदार और पूरी बारात खड़ी थी। सजे – संवरे, उल्लसित चेहरे। पाँव पखारने की रस्म के लिए वे सब अपनी चप्पल उतारकर खड़े थे। मुस्कुराते हुए चेहरे से उसने मेहमानों का स्वागत किया और झुक- झुककर, वर, उसके माता – पिता , बहन – बहनोई के पाँव धोए, पहले पानी से फिर दूध से और साफ कपड़े से पोंछती जा रही थी। उसे लग रहा तथा कि पढ़े – लिखे जवान बच्चों में से कोई तो कहेगा – नहीं, आप हमारे पैर मत छुइए। पर कोई नहीं बोला। समाज द्वारा लड़की की माँ के लिए बनाई गई रस्मों पर उसकी आँखों में आँसू छलक उठे।
उसकी छलकती आँखें खुद को अपने बेटे की शादी में वधू के माता – पिता के पैर पखारते, आरती करते देख मुस्कुरा रही थीं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख लघुकथा – “कमरे का रिश्ता”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 124 ☆
☆ लघुकथा – कमरे का रिश्ता ☆
“क्या बात है सुमन जी, पहली बार हाथ से सब्जी-रोटी बना रहे हो” घनश्याम ने आते ही पूछा तो सुमन ने कहा, “ताकि मेरा पुत्र मुझे अपने साथ न ले जा सके।”
“मैं समझा नहीं,” घनश्याम ने कहा,” खाने का पुत्र के साथ ले जाने से क्या संबंध है?”
“यही कि अच्छा खाना देखकर वह समझे कि मैं यहां मजे से खा-पीकर रह रहा हूं। रोज खाना बनाता और खाता हूं।”
“मगर तुम तो कभी पौहे खाकर, कभी होटल में खाना खाकर, कभी चावल बना कर खा लेते हो। ताकि बचे हुए समय का उपयोग लेखन में कर सकों। मगर यह काम तो अपने पुत्र के साथ शहर में जाकर भी कर सकते हो।”
“कर तो सकता हूं,” सुमन ने कहा, “मगर शहर में मेरे पुत्र के पास एक ही कमरा है। मैं नहीं चाहता हूं कि मेरी वजह से मेरे पुत्र, उसकी पत्नी के जीवन नीरस हो जाए,” यह कहते हुए जल्दी-जल्दी स्वादिष्ट खाना बनाने लगे।
इधर घनश्याम इसी उलझन में उलझा हुआ था कि कमरे का पति-पत्नी के सरस व नीरस रिश्ते से क्या संबंध हो सकता है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – लघुकथा – अनिर्णय
यहाँ से रास्ता दायें, बायें और सामने, तीन दिशाओं में बँटता था। राह से अनभिज्ञ दोनों पथिकों के लिए कठिन था कि कौनसी डगर चुनें। कुछ समय किंकर्तव्यविमूढ़-से ठिठके रहे दोनों।
फिर एक मुड़ गया बायें और चल पड़ा। बहुत दूर तक चलने के बाद उसे समझ में आया कि यह भूलभुलैया है। रास्ता कहीं नहीं जाता। घूम फिरकर एक ही बिंदु पर लौट आता है। बायें आने का, गलत दिशा चुनने का दुख हुआ उसे। वह फिर चल पड़ा तिराहे की ओर, जहाँ से यात्रा आरंभ की थी।
इस बार तिराहे से उसने दाहिने हाथ जानेवाला रास्ता चुना। आगे उसका क्या हुआ, यह तो पता नहीं पर दूसरा पथिक अब तक तिराहे पर खड़ा है वैसा ही किंकर्तव्यविमूढ़, राह कौनसी जाऊँ का संभ्रम लिए।
लेखक ने लिखा, ‘गलत निर्णय, मनुष्य की ऊर्जा और समय का बड़े पैमाने पर नाश करता है। तब भी गलत निर्णय को सुधारा जा सकता है पर अनिर्णय मनुष्य के जीवन का ही नाश कर डालता है। मन का संभ्रम, तन को जकड़ लेता है। तन-मन का साझा पक्षाघात असाध्य होता है।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा श्रंखला “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)
☆ कथा कहानी # 54 – कहानियां – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
कभी,आज का दिन, वह दिन भी होता था जब सुबह का सूर्योदय भी अपनी लालिमा से कुछ खास संदेश दिया करता था.”गुड मार्निंग तो थी पर गुड नाईट कहने का वक्त तय नहीं होता था. ये वो त्यौहार था जिसे शासकीय और बैंक कर्मचारी साथ साथ मिलकर मनाते थे और सरकारी कर्मचारियों को यह मालुम था कि आज के दिन घर जाने की रेस में वही जीतने वाले हैं. इस दिन लेडीज़ फर्स्ट से ज्यादा महत्त्वपूर्ण उनकी सुरक्षित घर वापसी ज्यादा हुआ करती थी. हमेशा आय और व्यय में संतुलन बिठाने में जुटा स्टॉफ भी इससे ऊपर उठता था और बैंक की केशबुक बैलेंस करने के हिसाब से तन्मयता से काम करता था. शिशुपाल सदृश्य लोग भी आज के दिन गल्ती करने से कतराते थे क्योंकि आज की चूक अक्षम्य, यादगार और नाम डुबाने वाली होती थी. आज का दिन वार्षिक लेखाबंदी का पर्व होता था जिसमें बैंक की चाय कॉफी की व्यवस्था भी क्रिकेट मेच की आखिरी बॉल तक एक्शन में रहा करती थी.
शाखा प्रबंधक, पांडुपुत्र युधिष्ठिर के समान चिंता से पीले रहा करते थे और चेहरे पर गुस्से की लालिमा का आना वर्जित होता था.शासकीय अधिकारियों विशेषकर ट्रेज़री ऑफीसर से साल भर में बने मधुर संबंध, आज के दिन काम आते थे और संप्रेषणता और मधुर संवाद को बनाये रहते थे. ये ऐसी रामलीला थी जिसमें हर स्टॉफ का अपना रोल अपना मुकाम हुआ करता था और हर व्यक्ति इस टॉपिक के अलावा, बैंकिंग हॉल में किसी दूसरे टॉपिक पर बात करनेवाले से दो कदम की दूरी बनाये रखना पसंद करता था. कोर बैंकिंग के पहले शाखा का प्राफिट में आना, पिछले वर्ष से ज्यादा प्राफिट में आने की घटना,स्टाफ की और मुख्यतः शाखा प्रबंधकों की टीआरपी रेटिंग के समान हुआ करती थीं. हर शाखा प्रबंधक की पहली वार्षिक लेखाबंदी, उसके लिये रोमांचक और चुनौतीपूर्ण हुआ करती थी.
ये “वह”रात हुआ करती थी जो “उस रात” से किसी भी तरह से कम चैलेंजिंग नहीं हुआ करती थी. हर व्यवस्था तयशुदा वक्त से होने और साल के अंतिम दिन निर्धारित समय पर एंड ऑफ द डे याने ईओडी सिग्नल भेजना संभव कर पाती थी और इसके जाने के बाद शाखा प्रबंधक ” बेटी की शुभ विवाह की विदाई” के समान संतुष्टता और तनावहीनता का अनुभव किया करते थे. एनुअल क्लोसिंग के इस पर्व को प्रायः हर स्टॉफ अपना समझकर मनाता था और जो इसमें सहभागी नहीं भी हुआ करते थे वे भी शाखा में डिनर के साथ साथ अपनी मौजूदगी से मनोरंजक पल और मॉरल सपोर्टिंग का माहौल तैयार करने की भूमिका का कुशलता से निर्वहन किया करते थे और काम के बीच में कमर्शियल ब्रेक के समान, नये जोक्स या पुराने किस्से शेयर किया करते थे.
वाकई 31 मार्च का दिन हम लोगों के लिये खास और यादगार हुआ करता था.
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
🕉️ श्रीमहालक्ष्मी साधना 🌻
दीपावली निमित्त श्रीमहालक्ष्मी साधना, कल शनिवार 15 अक्टूबर को आरम्भ होकर धन त्रयोदशी तदनुसार शनिवार 22 अक्टूबर तक चलेगी।इस साधना का मंत्र होगा-
ॐ श्री महालक्ष्म्यै नमः।
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – लघुकथा – धनतेरस
इस बार भी धनतेरस पर चाँदी का सिक्का खरीदने से अधिक का बजट नहीं बचा था उसके पास। ट्रैफिक के चलते सिटी बस ने उसके घर से बाजार की 20 मिनट की दूरी 45 मिनट में पूरी की। बाजार में इतनी भीड़ कि पैर रखने को भी जगह नहीं। अलबत्ता भारतीय समाज की विशेषता है कि पैर रखने की जगह न बची होने पर भी हरेक को पैर टिकाना मयस्सर हो ही जाता है।
भीड़ की रेलमपेल ऐसी कि दुकान, सड़क और फुटपाथ में कोई अंतर नहीं बचा था। चौपहिया, दुपहिया, दोपाये, चौपाये सभी भीड़ का हिस्सा। साधक, अध्यात्म में वर्णित आरंभ और अंत का प्रत्यक्ष सम्मिलन यहाँ देख सकते थे।
….उसके विचार और व्यवहार का सम्मिलन कब होगा? हर वर्ष सोचता कुछ और…और खरीदता वही चाँदी का सिक्का। कब बदलेगा समय? विचारों में मग्न चला जा रहा था कि सामने फुटपाथ की रेलिंग को सटकर बैठी भिखारिन और उसके दो बच्चों की कातर आँखों ने रोक लिया। …खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।..गौर से देखा तो उसका पति भी पास ही हाथ से खींचे जानेवाली एक पटरे को साथ लिए पड़ा था। पैर नहीं थे उसके। माज़रा समझ में आ गया। भिखारिन अपने आदमी को पटरे पर बैठाकर उसे खींचते हुए दर-दर रोटी जुटाती होगी। आज भीड़ में फँसी पड़ी है। अपना चलना ही मुश्किल है तो पटरे के लिए कहाँ जगह बनेगी?
…खाना खिलाय दो बाबूजी। बच्चन भूखे हैं।…स्वर की कातरता बढ़ गई थी।..पर उसके पास तो केवल सिक्का खरीदने भर का पैसा है। धनतेरस जैसा त्योहार सूना थोड़े ही छोड़ा जा सकता है।…वह चल पड़ा। दो-चार कदम ही उठा पाया क्योंकि भिखारिन की दुर्दशा, बच्चों की टकटकी लगी उम्मीद और स्वर में समाई याचना ने उसके पैरों में लोहे की मोटी सांकल बाँध दी थी। आदमी दुनिया से लोहा ले लेता है पर खुदका प्रतिरोध नहीं कर पाता।
पास के होटल से उसने चार लोगों के लिए भोजन पैक कराया और ले जाकर पैकेट भिखारिन के आगे धर दिया।
अब जेब खाली था। चाँदी का सिक्का लिए बिना घर लौटा। अगली सुबह पत्नी ने बताया कि बीती रात सपने में उसे चाँदी की लक्ष्मी जी दिखीं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘ठूंठ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 102 ☆
☆ लघुकथा – ठूंठ — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
वह घना छायादार वृक्ष था हरे -भरे पत्तों से भरा हुआ। न जाने कितने पक्षियों का बसेरा, कितनों का आसरा। आने जानेवालों को छाया देता,शीतलता बिखेरता। उसकी छांव में कुछ घड़ी विश्राम करके ही कोई आगे जाना चाहता,उसकी माया ही कुछ ऐसी थी। ऐसा लगता कि वह अपनी डालियों में सबको समा लेना चाहता है निहायत प्यार और अपनेपन से। धीरे-धीरे वह सूखने लगा? उसकी पत्तियां पीली पड़ने लगी,बेजान सी। लंबी – लंबी बाँहों जैसी डालियाँ सिकुड़ने लगीं। अपने आप में सिमटता जा रहा हो जैसे। क्या हो गया उसे? वह खुद ही नहीं समझ पा रहा था। रीता -रीता सा लगता, कहाँ चले गए सब? अब वह अपनों की नेह भरी नमी और अपनेपन की गरमाहट के लिए तरसने लगा। गाहे-बगाहे पशु – पक्षी आते। पशु उसकी सूखी खुरदरी छाल से पीठ रगड़ते और चले जाते। पक्षी सूखी डालों पर थोड़ी देर बैठते और कुछ न मिलने पर फुर्र से उड़ जाते। वह मन ही मन कलपता कितना प्यार लुटाया मैंने सब पर, अपनी बांहों में समेटे रहा, दुलराता रहा पक्षियों को अपनी पत्तियों से। सूनी आँखों से देख रहा था वह दिनों का फेर। कोई आवाज नहीं थी, न पत्तियों की सरसराहट और न पक्षियों का कलरव। न छांव तले आराम करते पथिक और न इर्द गिर्द खेलते बच्चों की टोलियां, सिर्फ सन्नाटा, नीरवता पसरी है चारों ओर। काश! कोई उसकी शून्य में निहारती आँखों की भाषा पढ़ ले, आँसुओं का नमक चख ले। पर सब लग्गी से पानी पिला रहे थे। वह दिन पर दिन सूखता जा रहा था अपने भीतर और बाहर के सन्नाटे से। आसपासवालों के लिए तो शायद वह जिंदा था नहीं। सूखी लकड़ियों में जान कब तक टिकती ? हरा-भरा वृक्ष धीरे – धीरे ठूंठ बन रह गया |
एक अल्जाइमर पीड़ित माँ धीरे – धीरे मिट्टी में बदल गई।
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।
आप इस कथा का मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद निम्न लिंक्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
☆ कथा कहानी – बड़ों की दुनिया में – भाग – २ ☆ डॉ. हंसा दीप ☆
इसी उहापोह में एक सप्ताह निकल गया, अभी तक कोई नया काम परी को सूझा नहीं है। आज शनिवार है। सब बाहर घूमने जा रहे हैं, रॉयल ओंटेरियो म्यूज़ियम देखने। जब वे लोग अंदर पहुँचे तो सब कुछ भव्य था। बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ, काँच के बॉक्स में बेहद नायाब तरीके से सजायी हुई थीं। लेकिन परी वहाँ के सुंदर, अनोखे संग्रहों को नहीं देख रही थी वह तो उस गाइड को देख रही थी जो मीठी आवाज़ में बहुत अच्छी तरह वहाँ का, उन चीज़ों का इतिहास बता रही थी और सभी बहुत ही शांति से उसे सुन रहे थे। कपड़े भी बहुत अच्छे पहने थे उस गाइड ने। काली स्कर्ट, काला ब्लैज़र और गले में लाल स्कार्फ। नैम टैग गले में टंगा था। नया आइडिया उसके दिमाग में कुलबुलाने लगा। ऐसे हील वाले जूते पहन कर वह भी गले में परी का नैम टैग डाल कर गाइड का काम कर सकती है।
वे वापस घर आए तो जो दिन भर किया था वह सब कुछ नानी को फोन पर बताना था। यह एक अच्छा मौका था उसके लिए। सामने टंगा मम्मी का ब्लैज़र पहन लिया, हाई हील के जूते भी पहने और ऊन की डोरी बना कर एक कागज उसमें पिरो लिया जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था “परी”। अपना नैम टैग गले में लटका कर सारी तैयारी पूरी करके नानी को फेस टाइम किया। हूबहू उस गाइड की तरह नानी को फोन पर बताने लगी जो-जो भी उसने वहाँ देखा था। यह भी बता दिया कि वह बड़ी होकर गाइड बनना चाहती है। नानी खूब हँसीं। कहने लगीं – “क्या बात है परी, बहुत बढ़िया। ओ हो मेरे बच्चे को यह काम करना है। गाइड क्यों बनोगे बच्चे आप, आपकी नानी प्रोफेसर है। बनना ही है तो प्रोफेसर बनो न। खूब पैसे मिलेंगे।”
वह तो इस आशा में थी कि नानी उसकी बात को समझेंगी, वे उससे बहुत प्यार करती हैं लेकिन नहीं, वह गलत सोचती थी। नानी को कैसे समझाए कि वह तो जानती तक नहीं कि प्रोफेसर कैसे पढ़ाता है, उसे बच्चे कितना पसंद करते हैं। जब कुछ मालूम ही नहीं तो वह उसके बारे में कैसे सोच सकती है। परी का काम करने का उत्साह उसके लिए एक पहेली बनता जा रहा था। कैसे सुलझाए इस पहेली को।
सामने मेज पर फैले उसके वाटर कलर और क्रेयान्स पर नज़र गई तो क्लिक हुआ कि उसे पेंटिंग का बहुत शौक है। उसका सबसे पसंदीदा काम तो पेंटिंग करना है। पूरी बुद्धू है वह। पहले क्यों नहीं सोचा इसके बारे में। चलो, अभी तो देर नहीं हुई है। अब उसके पास एक ऐसा काम है करने के लिए जो शायद सबको पसंद आए। उसके मम्मी-पापा उसे और छोटू को आर्ट गैलेरी ऑफ ओंटेरियो ले गए थे एक बार। वहाँ बड़े-बड़े चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी। ऐसे कई चित्र दिखाए गए थे उसे और कहा था – “देखो बेटा, रंगों का कमाल। कलाकार की मेहनत कैसे रंगों को खूबसूरती से सजाती है। चित्रकला कल्पनाओं और रंगों के बेहतरीन मिलाप से जन्म लेती है।”
आखिरकार, उसने एक अच्छा काम खोज ही लिया। इस काम से किसी को कोई आपत्ति हो ही नहीं सकती।
उसने अपने खाली समय में एक के बाद एक कई चित्रों को बनाया और मम्मी-पापा से कह दिया – “यह मेरा आखिरी फैसला है। मैं कलाकार बनूँगी।”
मम्मी-पापा ने एक दूसरे को देखा और फिर परी को देखा। वह एकटक मम्मी-पापा दोनों को देख रही थी। दोनों एक साथ बोल रहे थे या कोई एक बोल रहा था उसे पता नहीं पर कानों में आवाज़ आ रही थी – “कलाकार तो आप हो ही बच्चे। बहुत अच्छे चित्र बनाए हैं आपने। हमें पसंद भी है आपका यह काम। पर आपका खास काम, फुल टाइम का काम कुछ और होना चाहिए, कलाकार को पार्ट टाइम रखो। यह एक शौक हो सकता है पर आपका मुख्य काम नहीं। जो फुल टाइम कलाकार होते हैं वे तो भूखों मरते हैं।”
फुल टाइम, पार्ट टाइम कुछ पल्ले नहीं पड़ा उसके। भूखे मरने की बात भी गले से नीचे नहीं उतरी। कल तक तो बहुत तारीफ करते थे उन विशालकाय चित्रों की, आज तो भाषा बदल गयी है।
परी बहुत उदास है। बहुत कोशिश कर ली उसने अपना काम चुनने की। इन सब बड़े लोगों की बातें बहुत बड़ी हैं। ये समझते ही नहीं कि जो उसने देखा है और जो पसंद आया है वही तो कर सकती है वह, उसी का ख़्वाब देख सकती है। जो उसने देखा ही नहीं है, और अगर देखा भी है और उसे पसंद नहीं है तो वह काम परी कैसे कर सकती है। उसके हर पसंदीदा काम को ये सब लोग रिजेक्ट कर देते हैं।
अब परी ने बड़े होने का ख़्याल दिमाग से निकाल दिया है वह छोटी ही ठीक है। अपने दूध के दाँत ढूँढ रही है वह ताकि उन्हें फिर से लगा सके।
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।
आप इस कथा का मराठी एवं अङ्ग्रेज़ी भावानुवाद निम्न लिंक्स पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
☆ कथा कहानी – बड़ों की दुनिया में – भाग – १ ☆ डॉ. हंसा दीप ☆
परी आठ साल की है। उसे बड़े होने का बहुत शौक है। वह जल्दी बड़ी होना चाहती है। अभी–अभी उसके दूध के दाँत टूटे हैं जिन्हें एक छोटी-सी डिब्बी में सम्हाल कर रखा है उसने। छोटे-छोटे उभरते वयस्क दाँतों को दिखाते हुए वह अपने आपको बड़े लोगों में शामिल करने लगी है। वह रोज़ स्कूल के बाद कई ऐसे काम करना चाहती है जो उसे बड़ा बना दें। वही करना चाहती है जो वह देखती है और जो काम करना उसे पसंद है।
जैसे कि उसे अपनी टीचर बहुत पसंद है। वे एक जापानी गुड़िया की तरह दिखती हैं। उसे बहुत अच्छी लगती हैं। वे सब बच्चों को अच्छी लगती हैं। उनका नाम है मिस वांग। तो उसकी पहली पसंद है मिस वांग बनना। वैसे ही पढ़ाना, वैसे ही कपड़े पहनना और वैसे ही मुस्कुराना। हाथ में स्केल लेकर बोर्ड पर लिखे गए शब्दों को समझाना। साइंस के बारे में बताना। उन्हें सब कुछ आता है। जब उन्होंने बताया था कि बादल कैसे पानी बरसाते हैं तो पूरी कक्षा दंग रह गयी थी।
वही बात वैसी की वैसी जब घर आकर उसने अपने भाई निक जिसे वह कभी-कभी छोटू भी कहती है, को समझाने की कोशिश की तो वह ध्यान ही नहीं दे रहा था। परी को समझ में नहीं आया कि यही सब जब मिस वांग ने कक्षा में कहा था तो पूरी कक्षा “ओ वाह” कर रही थी। मगर उसके छोटू ने तो इतनी अच्छी बात पर ध्यान भी नहीं दिया। सच तो यह है कि छोटू पूरा का पूरा बुद्धू है, खेलने में लगा रहता है बस। बड़े उत्साह से उसने मम्मी-पापा को बताया तो वे भी “हूँ हाँ” करते रहे। शायद इसीलिये परी को लगा कि उसे अभी मिस वांग की तरह समझाना नहीं आता है। वे बहुत अच्छी तरह समझाती हैं तो ही सब “ओ वाह” करते हैं।
अपनी मम्मी को बताया कि अब वह बहुत मेहनत करेगी, लिखने की, पढ़ने की और खास तौर से समझाने की प्रेक्टिस करनी पड़ेगी क्योंकि उसे मिस वांग की तरह कक्षा दो की टीचर बनना है। पता नहीं क्यों मम्मी को यह अच्छा नहीं लगा, बोलीं – “तुम प्रायमरी स्कूल की टीचर कैसे बन सकती हो परी, तुम्हें तो डॉक्टर बनना है।”
“नहीं मम्मी, मुझे डॉक्टर नहीं बनना। मुझे किसी को सुई लगाना अच्छा नहीं लगेगा और कड़वी-कड़वी दवाई खिलाना तो बिलकुल भी अच्छा नहीं लगेगा। डॉक्टर तो बहुत खराब होता है। सब बच्चे डॉक्टर को देखकर रोते हैं।”
पता था उसे जब-जब वे शॉट्स के लिए जाते थे डॉक्टर के पास तो बहुत देर बाहर बैठना पड़ता था। उसके बाद जब उनका नंबर आता तो डॉक्टर आकर घुप्प से सुई डाल देती थी उसकी बाँह में। उफ़ कितना दर्द होता था। ऐसे कोई कैसे बच्चे को सुई चुभा सकता है। ऐसा काम तो वह कभी नहीं करेगी।
परी या छोटू दोनों में से किसी को भी कभी बुखार आता था तो वे डॉक्टर के क्लिनिक जाते थे। बेचारा छोटू तो उस कमरे में घुसते से ही रोने लग जाता और तब तक रोता रहता जब तक कि वे वापस बाहर नहीं आ जाते। जो बच्चों को रुलाए ऐसे लोग उसे बिल्कुल पसंद नहीं हैं इसीलिए उसे डॉक्टर नहीं बनना, कभी नहीं।
डॉक्टर नहीं, टीचर नहीं तो क्यों न वह सैलून वाला काम करने के बारे में सोचे। सब लोग सैलून जाते हैं। उसे भी तो बाल कटवाने जाना पड़ता है। पापा तो हर सप्ताह जाते हैं। मम्मी भी आईब्रो बनवाने जाती हैं। तो आज उसने सैलून खोलकर दादी, मम्मी दोनों को अपने सैलून में बुलाया। दोनों मेम को चाय-कॉफी के लिए भी पूछा। दोनों के बाल बनाने की कोशिश की। झूठमूठ नेल पालिश लगायी। धागे से आईब्रो बनाने की कोशिश की। धागा छुआ और हटा लिया उतने में भी मम्मी “ऊं आं” करने लगी थीं। उनका असली क्रेडिट कार्ड लेकर नकली तरीके से स्वाइप किया। बहुत खुश थी वह।
तभी पापा आ गए। उसने उन्हें भी बाल में जेल लगाकर ठीक करने को कहा। पापा ने मना कर दिया, कहने लगे – “क्या परी, तुम भी न! तुम ये काम नहीं कर सकतीं। मेरी राजकुमारी लोगों के बाल बनाएगी! आईब्रो बनाएगी! नहीं, कभी नहीं।”
उसने सोचा अब यह काम भी मेरी लिस्ट से कट गया है, तो फिर करे तो क्या करे। क्यों न कोई अच्छी-सी दुकान शुरू करे। घर में इतने बेकार खिलौने हैं जिन्हें कोई छूता भी नहीं है। वे दोनों अब उन पुराने खिलौनों से तो खेलते नहीं हैं। तो उसने अपने पुराने खिलौनों की दुकान लगा ली और बेचने लगी। उसका छोटा भाई भी इसमें मदद करने लगा। जिनके काम के हैं वे इनके पैसे दे दें और अपनी पसंद का खिलौना खरीद लें। हर खिलौना अगर डॉलर शॉप की तरह एक डॉलर में बेच देती है तो अच्छी कमाई हो जाएगी। बाज़ार में कभी, कहीं इतना सस्ता खिलौना नहीं मिलेगा।
लेकिन यह काम उसकी दादी को पसंद नहीं आया। दादी कहती हैं – “दुकान खोलना भी हो तो नैम ब्रांड की खोलो परी, सेकंड हैंड की नहीं, यूज़्ड चीज़ों की नहीं।”
अब क्या करे वह। हाँ, आइडिया, दादी की पसंद का काम करने के बारे में सोचने लगी। सोचा गर्मी के दिन हैं बाहर टेबल लगा कर सही का लैमोनेड बना कर बेचेगी। एक डॉलर में एक गिलास बेचे तो गर्मी में इधर से निकलने वाले लोग खरीद ही लेंगे। नींबू निचोड़ लो, खूब सारा पानी डाल दो और शक्कर डाल दो। यह तो हमारी कक्षा ने स्कूल में भी किया था और सबसे ज़्यादा हमारी कक्षा के पैसे इकट्ठे हुए थे।
वह मेज, गिलास आदि सामान जुटा ही रही थी कि दादाजी ने टोका। शायद अब उनकी बारी थी ना कहने की, बोले – “तुम इतने छोटे काम के बारे में मत सोचो बेटा। अपना तो बड़ा फाइव स्टार रेस्टोरेंट है, पूरे शहर में नंबर वन। इसलिए बड़े काम के बारे में सोचो।”
परी जानती है दादाजी घर में सबसे बड़े हैं। वे सारे बड़े काम ही पसंद करते हैं। फिर भी वह समझने की चेष्टा कर रही थी कि ये काम रियल में कई लोग करते हैं उन लोगों के मम्मी-पापा या दादा-दादी उन्हें कभी मना नहीं करते। मैं कोई भी काम करना चाहती हूँ तो मेरा ऐसा काम किसी को पसंद ही नहीं आता। यह मेरे साथ अन्याय है, बहुत निराशाजनक है।