हिंदी साहित्य – कविता ☆ बाल कथा ♣ खुल जा सिमसिम! ♣ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ बाल कथा खुल जा सिमसिम! ♣ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी 

‘मिल गया! पन्द्रह का एक बता रहा था। बीस में दो दे दिया। यानी दस की एक फूल गोभी!’ बेनीबाबू जंगफतह करनेवाले सेनापति के अंदाज में खुश हो गये। आलू, बैगन, अदरक, छीमी एवं सर्वोपरि गोभी से भरे झोले को सँभालते हुए वे जल्दी जल्दी घर लौट रहे थे।

दोनों तरफ सड़क पर सब्जीवाले बैठे हैं। कोई हाँक रहा है, ‘बीस में डेढ़, टमाटर ढेर।’ उधर ठेले के पास खड़ा फलवाला नारा बुलंद कर रहा है, ‘बहुत हो गया सस्ता, अमरूद ल ऽ भर बस्ता!’

तार पर बैठे कपिकुल सोच रहे हैं – मौका मिले तो झपट कर अमरूद उठा लावें। सौ फीसदी फोकट में।

वैसे, भाशा विज्ञान का एक प्रश्न है – पेड़ की शाखा पर विचरने के कारण अगर बंदरों का नाम शाखामृग पड़ा, तो आजकल के टेलिफोन और बिजली के तारों पर चलने के कारण उनका नाम तारमृग भी क्यों न हो?

बाबू बेनीपूरी ने ख्याल नहीं किया – भीड़ में कोई उनके पीछे पीछे चलने लगा था। उनको ‘फॉलो’ कर रहा था एक विशालकाय काला साँड़-‘बच्चू, तू अकेले अकेले सब खायेगा? हजम नहीं होगा बे। एक फूलगोभी तो मुझे देते जा।’ भच्च्…भच्च्…..उसके नथूने फूलने लगे  ……

ध्वनि से चौंककर बेनीपुरी ने पीछे मुड़कर देखा – अरे सत्यानाश हो! झोले में पैर भरकर भागे। कुछ कुछ उड़ते हुए ……

‘अबे भाग कहाँ रहा है? सरकार का टैक्स है, पुलिस गुंडे – सबका टैक्स है। हमारा टैक्स नहीं देगा? चल गोभी निकाल।’ साँड़ दौड़ा उनके पीछे …..

बेनीबाबू भागे आगे -‘ना मानूं, ना मानूं, ना मानूं रे! दगाबाज तेरी बतिया ना मानूँ रे!’

‘अबे तुझे हजम नहीं होगा। तेरे पेट से निकलेगी गंगा। तेरा खानदान न रहेगा चंगा।’ सांड को गुस्सा आ गया। विलम्बित से द्रुत लय में उसके कदम चलने लगे ……

एक राही ने कहा, ‘भाई साहब, भागिए -’

दूसरे ने यूएनओ स्टाइल में समझौता करवाना चाहा, ‘एक गोभी उसके आगे फेंक कर घर जाइये।’ यानी संधिपत्र पर हस्ताक्षर।

जाऊँ तो जाऊँ कहाँ? ऐ दिल, कहाँ तेरी मंजिल ? तड़पने लगे बेनीबाबू। तभी ध्यान आया दाहिने बिस्नाथ गल्ली के ठीक सामने पुलिस चौकी  है। और कोई न बचाये, – खाकी, अपनी रख लो लाज! बचा लो मुसीबत से आज।

सीन नंबर टू। दौड़ते हाँफते हुए हाथ में थैला लटकाये बेनीबाबू का थाने में प्रवेश ……

सुबह सुबह नहा धोकर बलीराम दरोगा अंगोछा यूनिफार्म में उस समय हनुमानजी की तस्वीर के सामने दीया घुमा रहे थे – ‘श्री गुरुचरन सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि ……’

थम गये उनके हाथ,‘अरे रे रे – इ का हो रहा है? तुम – आप कौन हैं? ए पाँड़ेजी, इ कौन अंदर दाखिल हो गया? देखिए तो -’

‘वो साँड़ मुझे फॉलो कर रहा है, सर।’

‘साँड़ ? फॉलो? वो कोई गुंडा बदमाश होता तो कोई बात होती।’

‘अरे साब, इ तो गुंडा बदमाश से भी बीस नहीं, बाईस है।’

बाहर से पाँड़ेजी की मुनादी,‘लीजिए, उ पधार चुके हैं।’

इसी बीच दरोगा के ऑफिस  के अंदर काला पहाड़ का प्रवेश।

चौंक कर बलीराम ने दीया वहीं टेबुल पर रख दिया। ‘प्रभु, जब तुम छलांग  लगा कर सागर लाँघ सकते हो, तो आज अपनी आरती खुद नहीं कर लीजिएगा? टोटल हनुमान चालीसा खुदे नहीं कंप्लीट  कर लीजिएगा ?’

इतने में साँड़ झपटा बेनीपुरी की ओर। वह छुप गये दरोगा के पीछे। शुरु हो गया म्युजिकल चेयर रेस। टेबुल के चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं तीनों। सबसे पहले बेनीपुरी, उनके पीछे बलीराम, और दोनों  को खदेड़ता हुआ काला पहाड़….

‘अरे पाँड़ेजी इसको भगाओ। नहीं तो तुम सबको लाइन हाजिर कराऊँगा।’ मिलिट्री स्टाइल में बलीराम का आर्तनाद।

‘सा‘ब, हम का करें? मामूली चोर उचक्के तो हाथ से छूट जाते हैं। इ तो महादेव का नंदी है। कैसे सँभाले?’ पाँड़ेजी की सत्यवादिता।

उधर झूम झूम कर, घूम घूम कर चल रहा है तीनों का चक्कर। बीच में मेज को घेर कर ……

दरोगा ने आदेश दिया, ‘हवालात का दरवाजा खोल कर इसे अंदर करो।’

‘हमलोग दरवाजा खोल रहे हैं, हुजूर। आप अंदर से उसे बाहर हाँकिए।’

‘यह तो मुझे दौड़ा रहा है। मैं कैसे हाँकूंगा? इस आदमी को यहाँ से निकाल बाहर करो।’

‘आपही लोग जनता की रक्षा नहीं कीजिएगा, तो कौन हमें बचायेगा?’

‘निकलते हो कि -’बेनीपुरी पर बलीराम झपटे कि झोला समेत उसे निकाल बाहर करें। साँड़ लपका उनपर। तुरंत बेनीपुरी ने टेबुल के नीचे आसन जमा लिया। हाथ में झोला सँभाले हुए।

साँड़ भौंचक रह गया। गोभीवाला बाबू गया कहाँ ? उसे दरोगा पर गुस्सा आ गया – कहीं इसी ने तो गोभी नहीं खा ली? खट्…खट्…..खट्….. वह बलीराम के पीछे, ‘छुप गये तारे नजारे सारे, ओय क्या बात हो गयी! तुमने गोभी चुरायी तो दिन में रात हो गयी !’

बलीराम के ऑफिस  के सामने हवालात का दरवाजा था खुला। वह पहुँचे अंदर, ‘अरे पाँड़े, हवालात का दरवाजा बंद करो। जल्दी।’

पाँड़े ने तुरन्त आदेश का पालन किया।

साँड़ बंद हवालात के सामने फुँफकारने लगा, ‘हुजूर, अब खोलो दरवाजा। मैं प्रजा हूँ, तुम हो राजा। भूखे की गोभी मत छीनो। सुना नही क्या अरे कमीनो?’

इसके बाद क्या हुआ, मत पूछिए। दूसरे दिन अखबार में इस सीन की फोटो समेत स्टोरी छपी थी।

हाँ, इतना बता सकता हूँ कि मिसेज बेनिपुरी को दोनों फूलगोभी मिल गयी थीं। सही सलामत!

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 97 ☆ पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा ‘पेट की दौड़ ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 97 ☆

☆ लघुकथा – पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कामवाली बाई अंजू ने फ्लैट में अंदर आते ही देखा कि कमरे में एक बड़ी – सी मशीन रखी है। ‘दीदी के घर में रोज नई- नई चीजें ऑनलाईन आवत रहत हैं।अब ई कइसी मशीन है?‘ – उसने मन में सोचा। तभी उसने देखा कि साहब आए और उस मशीन पर दौड़ने लगे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सड़क पर तो सुबह – सुबह दौड़ते देखा है लोगों को लेकिन बंद कमरे में मशीन पर? साहब से तो कुछ पूछ नहीं सकती। वह चुपचाप झाड़ू–पोंछा करती रही पर कभी – कभी उत्सुकतावश नजर बचाकर उस ओर देख भी लेती थी। साहब तो मशीन पर दौड़े ही जा रहे हैं ?  खैर छोड़ो, वह रसोई में जाकर बर्तन माँजने लगी। दीदी जी जल्दी – जल्दी साहब के लिए नाश्ता बना रही थीं। साहब उस मशीन पर दौड़ने के बाद नहाने चले गए। दीदी जी ने खाने की मेज पर साहब का खाना रख दिया। साहब ने खाना खाया और ऑफिस चले गए।

अरे! ई का? अब दीदी जी उस मशीन पर दौड़ने लगीं। अब तो उससे रहा ही नहीं गया। जल्दी से अपनी मालकिन दीदी के पास जाकर बोली – ए दीदी! ई मशीन पर काहे दौड़त हो? काहे मतलब? यह दौड़ने के लिए ही है, ट्रेडमिल कहते हैं इसको। देख ना मेरा पेट कितना निकल आया है। कितनी डायटिंग करती हूँ पर ना तो वजन कम होता है और ना यह पेट। इस मशीन  पर चलने से पेट कम हो जाएगा तो फिगर अच्छा लगेगा ना मेरा – दीदी हँसते हुए बोली।

पेट कम करे खातिर मशीन पर दौड़त हो? — वह आश्चर्य से बोली। ना जाने क्या सोच अचानक खिलखिला पड़ी। फिर अपने को थोड़ा संभालकर बोली – दीदी! एही पेट के खातिर हमार जिंदगी  एक घर से दूसरे घर, एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग काम करत – करत कट जात है। कइसा है ना! आप लोगन पेट घटाए के लिए मशीन पर दौड़त हो और हम गरीब पेट पाले के खातिर आप जइसन के घर रात-दिन दौड़त रह जात हैं।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – हार गए तो… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हार गए तो…।)

☆ लघुकथा – हार गए तो… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

इस बार नेता जी के चुनाव प्रचार में कुछ पुराने कार्यकर्ता तो थे ही, पर ज़्यादातर पिछले पांच साल में पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने वाले युवा ज़ोर-शोर से प्रचार में जुटे थे। काफ़ी समय से बेरोज़गार चले आ रहे इन युवाओं ने नेता जी की चापलूसी को ही रोज़गार मान लिया था। पार्टी के चुनाव चिह्न वाला पटका इनके गले में रहता। नेता जी की दबंग छवि के चलते आम लोग इन कार्यकर्ताओं से थोड़े दबते थे और इन्हें देखते ही उनके भीतर का डर सम्मान सनी मुस्कुराहट में बदल जाता था। कभी-कभी कोई व्यक्ति प्यार से इनका कंधा थपथपा कर कहता – और नेता जी! यह सुनते ही कार्यकर्ता गर्वित महसूस करते हुए अति विनम्र हो जाता।

नेता जी ने तमाम कार्यकर्ताओं को स्पष्ट संदेश दे दिया था कि यह चुनाव हमें किसी भी क़ीमत पर जीतना है। अंदरखाते उन्हें सुनील जी से मिल लेने की हिदायत भी दे दी गई थी। सुनील जी नेता जी के खजांची थे। कार्यकर्ता उनके पास अपने-अपने क्षेत्र के बिक सकने वाले मतदाताओं तथा उनकी क़ीमत का हिसाब-किताब जमा करवाते और पैसा ले आते। प्रचार के दौरान दो कार्यकर्ताओं की बात होने लगी। दोनों पुराने परिचित थे और दोनों खुलकर बात भी कर लिया करते थे। युवा कार्यकर्ता ने पूछा – आपने सुनील जी से कितनी रक़म ली?

– एक पैसा भी नहीं, मैं तो सुनील जी से मिला भी नहीं। हाँ, मेहनत कर रहा हूँ।

– सिर्फ़ मेहनत से क्या होता है, अब तो पैसा ही भगवान है। आपके गाँव में तो बिकाऊ वोटर भी बहुत हैं।

– हाँ, हैं तो सही।

– तो फिर पैसे लिए क्यों नहीं, अपना भी चाय-गुड़ बन जाता है तो हर्ज़ क्या है?

– कोई हर्ज़ नहीं है। वोट खरीदने के लिए ये लूट का पैसा ही तो देंगे। लूट के माल में कार्यकर्ता भी थोड़ा मुँह मार ले तो कोई पाप नहीं है।

– फिर आप सुनील जी से क्यों नहीं मिले?

– पिछली बार मिला था, अभी तक भुगत रहा हूँ। दुआ करो कि नेता जी चुनाव जीत जाएँ, हार गए तो…

– हार गए तो?

– हार गए तो जितने पैसे तुम्हें वोटरों में बाँटने के लिए मिलेंगे, सब ब्याज़ समेत तुमसे वापस लिए जाएँगे। पिछले चुनाव में बीस लाख मिले थे मुझे। अट्ठारह-उन्नीस लाख तो मैंने बाँटे भी थे। मेरी बदक़िस्मती कि नेता जी हार गए। ज़मीन बेचकर पैसे चुकाए मैंने! इसलिए कहता हूँ, उनके जीतने की दुआ करो। हार गए तो…

– हार गए तो… हार गए तो… कार्यकर्ता आशंका में डूब रहा था। गर्मी नहीं थी, पर युवा कार्यकर्ता के माथे से पसीना चू रहा था।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वादा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

 ? संजय दृष्टि –  वादा ??

अपनी समस्याएँ लिए प्रतीक्षा करता रहा वह। उससे समाधान का वादा किया गया था। व्यवस्था में वादा अधिकांशतः वादा ही रह जाता है। अबकी बार उसने पहले के बजाय दूसरे के वादे पर भरोसा किया। प्रतीक्षा बनी रही। तीसरे, चौथे, पाँचवें, किसीका भी वादा अपवाद नहीं बना। वह प्रतीक्षा करता रहा, समस्या का कद बढ़ता गया।

आज उसने अपने आपसे वादा किया और खड़ा हो गया समस्या के सामने सीना तानकर।…समस्या हक्की-बक्की रह गई।..चित्र पलट गया। उसका कद निरंतर बढ़ता गया, समस्या लगातार बौनी होती गई।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – साक्षात्कार ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – साक्षात्कार।)

☆ लघुकथा – साक्षात्कार ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

संपादक महोदय ने कहा- जिस कवि का साक्षात्कार लेने जा रहे हो, वे हमारे लिए नायक हैं, उनकी गरिमा का ख़याल रहे। ‘तथास्तु’ कहने के बाद अब मैं कवि के सामने बैठा था।

मैं कवि से बहुत से सवाल पूछना चाहता था- साम्प्रदायिकता पर आपका स्टैंड, बदलता परिदृश्य और आपकी कविता, आपकी कविता के सरोकार वगैरह ; पर मैंने पूछा- खाने में आपको क्या अच्छा लगता है, आपका पसंदीदा साबुन कौन सा है, आप किस समय कौन से काग़ज़ पर किस पैन से लिखते हैं, कौन सी संस्थाओं ने आपको सम्मानित किया है, क्या आपकी कविता से प्रभावित होकर किसी लड़की ने आपको ख़त लिखा? और इसी तरह के कई मज़ेदार सवाल मैंने किए। कवि ने दर्पमिश्रित मुस्कुराहट के साथ जवाब दिए।

मैंने साहित्यिक ईमानदारी को क़ब्र में दफ़नाया और उस क़ब्र के ऊपर मक़बरे के रूप में शीशे का दमकता ताजमहल खड़ा कर दिया। कवि तथा संपादक दोनों प्रसन्न थे। दोनों ने मेरी क़ाबिलियत की भरपूर तारीफ़ की। संपादक जी ने भावुक होते हुए मुझे सलाह दी- तुम ऐसे ही कुछ और साक्षात्कार लेकर किताब छपवा लो, कोई न कोई पुरस्कार तो तुम्हें दिलवा ही देंगे।

अब आप ही बताइए क्या मुझे संपादक जी का कृतज्ञ नहीं होना चाहिये?

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – भरोसा ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना कौस्तुभ जी की एक विचारणीय लघुकथा भरोसा) 

 ☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – भरोसा ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’ ☆ 

मई की कड़क धूप में उसने दरवाजा खटखटाया बोली, उसके परिवार में कोई नहीं है उसे काम चाहिए। मैंने अपनी होशियारी दिखाते हुए उस सीधी साधी महिला का फोन नंबर लेकर उसे टाल दिया।

आखिरकार एक दिन तबीयत खराब होने पर मैंने उसे बुला ही लिया। आते ही ज्योति ने  हमारे घर के साथ दिलों में भी जगह बना ली थी। अब हम सब पूरी तरह से उस पर निर्भर हो गए थे उस पर पूरा भरोसा करने लगे थे।

घर, बाजार, बैंक के काम वह बड़ी फुर्ती से निपटा देती थी।

एक दिन काम से बाहर निकली 4/5 घंटे हो गए वापस ही नहीं आई। मेरे पैरों के नीचे से जमीन निकल गई। हाय आज तो लॉकर में जेवर रखने भेजा था।

तभी पुलिस की जीप की आवाज मेरे शक को यकीन में  बदल ही रही थी कि इंस्पेक्टर ने कहा …”हमारी जीप से टकराकर यह बेहोश हो गई थी। होश आने पर इन्हें छोड़ने आए हैं।”

ज्योति मुस्कुरा कर बोली..” दीदी घबराओ नहीं बैंक का काम होने के बाद ही टकराई थी।”

मैंने आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया।

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ‘कौस्तुभ’

मो 9479774486

जबलपुर मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 101 – ये मिट्टी किसी को नही छोडेगी! ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #101 🌻 ये मिट्टी किसी को नही छोडेगी! 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा बहुत ही महत्त्वाकांक्षी था और उसे महल बनाने की बड़ी महत्त्वाकांक्षा रहती थी उसने अनेक महलों का निर्माण करवाया!

रानी उनकी इस इच्छा से बड़ी व्यथित रहती थी की पता नही क्या करेंगे इतने महल बनवाकर!

एक दिन राजा नदी के उस पार एक महात्मा जी के आश्रम के पास से गुजर रहे थे तो वहाँ एक संत की समाधि थी और सैनिकों से राजा को सूचना मिली की संत के पास कोई अनमोल खजाना था और उसकी सूचना उन्होंने किसी को न दी पर अंतिम समय मे उसकी जानकारी एक पत्थर पर खुदवाकर अपने साथ ज़मीन मे गाड़ दिया और कहा कि जिसे भी वो खजाना चाहिये उसे अपने स्वयं के हाथों से अकेले ही इस समाधि से चौरासी हाथ नीचे सूचना पड़ी है निकाल ले और अनमोल सूचना प्राप्त कर लेंवे और ध्यान रखे उसे बिना कुछ खाये पिये खोदना है और बिना किसी की सहायता के खोदना है अन्यथा सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी !

राजा अगले दिन अकेले ही आया और अपने हाथों से खोदने लगा और बड़ी मेहनत के बाद उसे वो शिलालेख मिला और उन शब्दों को जब राजा ने पढ़ा तो उसके होश उड़ गये और सारी अकल ठिकाने आ गई!

उस पर लिखा था – “हॆ राहगीर संसार के सबसे भूखे प्राणी शायद तुम ही हो और आज मुझे तुम्हारी इस दशा पर बड़ी हँसी आ रही है, तुम कितने भी महल बना लो पर तुम्हारा अंतिम महल यही है एक दिन तुम्हे इसी मिट्टी मे मिलना है!

सावधान राहगीर, जब तक तुम मिट्टी के ऊपर हो तब तक आगे की यात्रा के लिये तुम कुछ जतन कर लेना क्योंकि जब मिट्टी तुम्हारे ऊपर आयेगी तो फिर तुम कुछ भी न कर पाओगे यदि तुमने आगे की यात्रा के लिये कुछ जतन न किया तो अच्छी तरह से ध्यान रखना कि  जैसै ये चौरासी हाथ का कुआं तुमने अकेले खोदा है बस वैसे ही आगे की चौरासी लाख योनियों मे तुम्हे अकेले ही भटकना है और हॆ राहगीर ये कभी न भूलना की “मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है बस तरीका अलग अलग है।””

फिर राजा जैसै तैसे कर के उस कुएँ से बाहर आया और अपने राजमहल गया पर उस शिलालेख के उन शब्दों ने उसे झकझोर के रख दिया।

राजा ने सारे महल जनता को दे दिये और “अंतिम घर” की तैयारियों मे जुट गया!

हमें एक बात हमेशा याद रखना की इस मिट्टी ने जब रावण जैसै सत्ताधारियों को नही बख्शा तो फिर साधारण मानव क्या चीज है इसलिये ये हमेशा याद रखना कि मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है क्योंकि ये मिट्टी किसी को नही छोड़ने वाली है!

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 96 ☆ जद्दोजहद ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक युवा विमर्श एवं एक समसामयिक विषय पर आधारित विचारणीय लघुकथा ‘जद्दोजहद’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 96 ☆

☆ लघुकथा – जद्दोजहद ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

भोपाल रेलवे स्टेशन, रात साढ़े ग्यारह बजे का समय। झेलम ट्रेन आनेवाली थी।  सत्रह – अठ्ठारह साल के दो लड़के दीन – दुनिया से बेखबर रेलवे प्लेटफॉर्म पर  एक कोने में जमीन पर सो रहे थे। वहीं पास में कुछ कुत्ते भी आराम से बैठे थे। किसी को किसी से कोई परेशानी नहीं दिख रही थी। शायद उनका रोज का साथ हो ?  लड़के तो ऐसी चैन की नींद सो रहे थे कि जैसे मलमल की चादर और मुलायम गद्दों पर लेटे हों। झेलम ट्रेन आई और चली गई पर उनकी नींद में कोई खलल पैदा ना  कर सकी। दिन भर के कामों ने शायद उन्हें इतना थका दिया था कि ‘नींद ना जाने टूटी खाट’ वाली कहावत  सार्थक हो रही थी।

पूरे देश  में सेना में ‘अग्निवीरों’ की भर्ती को लेकर चर्चाएं, धरने और आंदोलन  चल रहे थे। युवाओं का आक्रोश सरकारी संपत्ति पर  फूट पड़ा था। खासतौर पर ट्रेनों को निशाना बनाया जा रहा था। अग्निवीर योजना का विरोध करनेवाले युवा देश का भविष्य हैं।  वे सजग हैं अपने भविष्य और अधिकारों को लेकर।  वे लड़ रहे थे और पुरजोर कोशिश कर रहे थे अपनी बात मनवाने की। इधर रेलवे प्लेटफॉर्म के एक कोने में जमीन पर बेखबर सोए इन युवाओं को वर्तमान की जद्दोजहद ने ही चूर –चूर कर दिया।  वे भविष्य से अनजान अपने कंधों पर वर्तमान को ढ़ो रहे हैं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दो लघुकथाएँ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लेखन : दो लघुकथाएँ ??

एक 

न दिन का भान, न रात का ठिकाना। न खाने की सुध, न पहनने का शऊर।…किस चीज़ में डूबे हो ? ऐसा क्या कर रहे हो कि खुद को खुद का भी पता नहीं।

…कुछ नहीं कर रहा इन दिनों, लिखने के सिवा।

दो  

सुनो, बहुत हो गया यह लिखना-लिखाना। मन उचट-सा गया है। यों भी पढ़ता कौन है आजकल?….अब कुछ दिनों के लिए विराम। इस दौरान कलम को छूऊँगा भी नहीं।

फिर…?

कुछ अलग करते हैं। कहीं लाँग ड्राइव पर निकलते हैं। जी भरके प्रकृति को निहारेंगे। शाम को पंडित जी का सुगम संगीत का कार्यक्रम है। लौटते हुए उसे भी सुनने चलेंगे।

उस रात उसने प्रकृति के वर्णन और सुगम संगीत के श्रवण पर दो संस्मरण लिखे।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 132 – लघुकथा ☆ खुशियों का मोल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी  एवं विचारणीय लघुकथा खुशियों का मोल”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 132 ☆

☆ लघुकथा ☆ खुशियों का मोल 🌨️🌿

चंद्रशेखर एक छोटे से गाँव में पला बढ़ा। पढ़ – लिख कर अच्छी कंपनी में नौकरी मिल गई। विदेश जाने का मौका मिला और फिर लौटकर गाँव आने की उम्मीद भी कम हो गई।

गाँव में बूढ़े माँ बाप अपने एकमात्र संतान की खुशियों के आगे चुपचाप रह गए। वही की लड़की से शादी कर चंद्रशेखर विदेश का ही होकर रह गया।

कभी दो-तीन महीने में एक बार माँ-पिताजी को फोन कर हाल-चाल पूछ लिया करता था। पार्ट टाईम जॉब के लिए दोनों वहाँ वरिष्ठ आश्रम एन. जी. ओ. चला रहे थे।

जहाँ पर उम्र दराज महिला और पुरुष समय व्यतीत करने आते थे।और अपने समान सभी को देख खुश होते थे।

आज चंद्रशेखर को एक रजिस्टर्ड पत्र मिला। जिसमें लिखा था…. “बेटा बहुत मेहरबानी होगी मुझे और तेरी माँ को भी किसी वृद्धा आश्रम में यहाँ डाल दे। कम से कम उसमें अपना दुख – सुख तो बाँट लेंगे।

जब भी तुम आओगे हमें  भी सभी के साथ वहां पाओगे। और हमारा समय भी कट जायेगा। तुम्हें आने जाने के लिए हम लोग कभी भी नहीं कहेंगे।

तुम अपना एन. जी. ओ. अच्छे से चलाना। हमें भी खुशी होगी।”

चंद्रशेखर पत्र को पढ़कर आवाक था… क्या माँ पिताजी की खुशियों का मोल यही था!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print