(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – किसान ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
मित्रो, यह मेरी लेखन यात्रा की सबसे पहली लघुकथा है , जो अपने ही संपादन में प्रकाशित प्रयास पत्रिका के लघुकथा विशेषांक में सन् 1970 में लिखी और प्रकाशित की । कहते हैं कि पुराने चावल बहुत स्वादिष्ट होते हैं । क्या, इस लघुकथा में ऐसी कोई महक आ रही है ? बताइएगा जरूर।
-कमलेश भारतीय
जब उसने बैलाें काे खेताें की तरफ हांका ! तब उसे लगा कि उसमें असीम शक्ति है । वह बहुत कर सकता है ! बहुत कुछ । जब उसने बीज बाेया ! तब उसे लगा कि उसने अपने दिल से छाेटा हिस्सा खेत में बिखेर दिया । जब उसने सिंचाई की ! तब उसे लगा अपना स्नेह बहा दिया । और फ़िर अंकुर फूटे-उसके सपने जन्मने लगे । और फसलें लहलहाने लगीं । उसके सपने लहलहाने लगे । उसे लगने लगा कि समूचा आकाश रंगीन ताराें सहित उसके खेताें में उतर आया है ।
फसल लाद कर घर से बैल-गाड़ी हांकने लगा ताे पत्नी ने अपनी फ़रमाइशें रख दीं । वह मुस्कराता रहा । मंडी में उसने बैलगाड़ी राेकी ताे उसे महसूस हुआ मानाें किसी श्मशान में आ रुका है ! जहां छाेटे-बड़े गिद्ध पहले से उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ।
फसल बिक़ी – हिसाब बना ।
जाने किसने किससे बेईमानी की थीं । वह उधार के हाथाें नक़द का दांव हार गया । ब्याज के हाथाें मूल गंवा आया । वह फ़िर खाली हाथ था । फटे हाल था । बैल भूखे थे । वह भूखा था । वह लालपरी के संग काेई लाेक-संगीत गुनगुनाता हुआ वापिस जा रहा था आैर उसे लग रहा था कि आकाश बहुत ऊंचा है तथा तारे कितने फ़ीके हैं ! रात कितनी अजब अंधेरी है । गांव तक पहुंच पायेगा कि नहीं?
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #103 ननद-भाभी और रक्षाबंधन ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक बहन ने अपनी भाभी को फोन किया और जानना चाहा …”भाभी, मैंने जो भैया के लिए राखी भेजी थी, मिल गयी क्या आप लोगों को” ???
भाभी : “नहीं दीदी, अभी तक तो नहीं मिली”।
☆
बहन : “भाभी कल तक देख लीजिए, अगर नहीं मिली तो मैं खुद जरूर आऊंगी राखी लेकर, मेरे रहते भाई की कलाई सूनी नहीं रहनी चाहिए रक्षाबंधन के दिन”।
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अगले दिन सुबह ही भाभी ने खुद अपनी ननद को फोन किया : “दीदी आपकी राखी अबतक नहीं मिली, अब क्या करें बताईये”??
ननद ने फोन रखा, अपने पति को गाड़ी लेकर साथ चलने के लिए राजी किया और चल दी राखी, मिठाई लेकर अपने मायके ।
दो सौ किलोमीटर की दूरी तय कर लगभग पांच घंटे बाद बहन अपने मायके पहुंची।
फ़िर सबसे पहले उसने भाई को राखी बांधी, उसके बाद घर के बाक़ी सदस्यों से मिली, खूब बातें, हंसी मजाक औऱ लाजवाब व्यंजनों का लंबा दौर चला ।
अगले दिन जब बहन चलने लगी तो उसकी भाभी ने उसकी गाड़ी में खूब सारा सामान रख दिया… कपड़े, फल, मिठाइयां वैगेरह।
विदा के वक़्त जब वो अपनी माँ के पैर छूने लगी तो माँ ने शिकायत के लहजे में कहा… “अब ज़रा सा भी मेरा ख्याल नहीं करती तू, थोड़ा जल्दी जल्दी आ जाया कर बेटी, तेरे बिना उदास लगता है मुझें, तेरे भाई की नज़रे भी तुझें ढूँढ़ती रहती हैं अक़्सर”।
बहन बोली- “माँ, मैं समझ सकती हूँ आपकी भावना लेकिन उधर भी तो मेरी एक माँ हैं और इधर भाभी तो हैं आपके पास, फ़िर आप चिंता क्यों करती हैं, जब फुर्सत मिलेगा मैं भाग कर चली आऊंगी आपके पास”।
आँखों में आंसू लेकर माँ बोली- “सचमुच बेटी, तेरे जाने के बाद तेरी भाभी बहुत ख्याल रखती है मेरा, देख तुझे बुलाने के लिए तुझसे झूठ भी बोला, तेरी राखी तो दो दिन पहले ही आ गयी थी, लेकिन उसने पहले ही सबसे कह दिया था कि इसके बारे में कोई भी दीदी को बिलकुल बताना मत, राखी बांधने के बहाने इस बार दीदी को जरुर बुलाना है, वो चार सालों से मायके नहीं आयीं”।
बहन ने अपनी भाभी को कसकर अपनी बाहों में जकड़ लिया और रोते हुए बोली… “भाभी, मेरी माँ का इतना भी ज़्यादा ख़याल मत रखा करो कि वो मुझें भूल ही जाए”।
भाभी की आँखे भी डबडबा गईं।
बहन रास्ते भर गाड़ी में गुमसुम बेहद ख़ामोशी से अपनी मायके की खूबसूरत, सुनहरी, मीठी यादों की झुरमुट में लिपटी हुई बस लगातार यही प्रार्थना किए जा रही थी… “हे ऊपरवाले, ऐसी भाभी हर बहनों को मिले!”
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – लैंस
….दादू, स्कैनर ख़राब हो गया है। कैमरा की इमेज कैप्चर कैपेसिटी ख़त्म हो गई है। स्टोरेज भी फुल हो गया है। अब फोटो नहीं आएगी।
वह सोचने लगा, आँख का लैंस तो ताउम्र फोटो खींचता है। बल्कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, दिखना भले कम होता जाये, स्कैनिंग की क्षमता बढ़ती जाती है। स्टोरेज कभी फुल नहीं होता। चित्र धुँधलाते ज़रूर हैं पर याद का लेप लगाने पर गहरे होकर उभरते हैं।
…दादू, टेक इट ईजी। कूल…आजकल टेक्नोफास्ट एज है। लेटेस्ट टेकनीक है। इंजीनियरिंग इज ऑन इट्स टॉप। कल ठीक करा लाऊँगा।
सचमुच तकनीक और इंजीनियर में फ़र्क तो है, उसने सोचा और आँख का लैंस हौले से मूँद लिया।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #102 मन के पार जाना ☆ श्री आशीष कुमार☆
मन के पार जाना, उन्मन होना। जिसको झेन सन्त नो माइंड कहते हैं।
एक ऐसी दशा अपने भीतर खोज लेनी है जहां कुछ भी स्पर्श नहीं करता। और वैसी दशा भीतर छिपी पड़ी है। वही है आत्मा। और जब तक उसे न जाना तब तक उस एक को नहीं जाना, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। उस एक को जानने से फिर द्वंद्व मिट जाता है। फिर दो के बीच चुनाव नहीं रह जाता, अचुनाव पैदा होता है। उस अचुनाव में ही आनंद है, सच्चिदानंद है।
जनक के जीवन में एक उल्लेख है।
जनक रहते तो राजमहल में थे, बड़े ठाठ— बाट से। सम्राट थे और साक्षी भी। अनूठा जोड़ था। सोने में सुगंध थी। भगवान बुद्ध साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं। भगवान महावीर साक्षी हैं यह कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात नहीं, सरल बात है। सब छोड़ कर साक्षी हैं। जनक का साक्षी होना बड़ा महत्वपूर्ण है। सब है और साक्षी हैं।
एक गुरु ने अपने शिष्य को कहा कि तू वर्षों से सिर धुन रहा है और तुझे कुछ समझ नहीं आती। अब तू मेरे बस के बाहर है। तू जा, जनक के पास चला जा। उसने कहा कि आप जैसे महाज्ञानी के पास कुछ न हुआ तो यह जनक जैसे अज्ञानी के पास क्या होगा? जो अभी महलों में रहता, नृत्य देखता है। आप मुझे कहां भेजते हैं? लेकिन गुरु ने कहा, तू जा।
गया शिष्य। बेमन से गया। न जाना था तो भी गया, क्योंकि गुरु की आज्ञा थी तो आज्ञानवश गया। था तो पक्का कि वहां क्या मिलेगा। मन में तो उसके निंदा थी। मन में तो वह सोचता था, उससे ज्यादा तो मैं ही जानता हूं।
जब वह पहुंचा तो संयोग की बात, जनक बैठे थे, नृत्य हो रहा था। वह तो बड़ा ही नाराज हो गया। उसने जनक को कहा, महाराज, मेरे गुरु ने भेजा है इसलिए आ गया हूं। भूल हो गई है। क्यों उन्होंने भेजा है, किस पाप का मुझे दंड दिया है यह भी मैं नहीं जानता। लेकिन अब आ गया हूं तो आपसे यह पूछना है कि यह अफवाह आपने किस भांति उड़ा दी है कि आप ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं?
यह क्या हो रहा है यहां? यह राग—रंग चल रहा है। इतना बड़ा साम्राज्य, यह महल, यह धन—दौलत, यह सारी व्यवस्था, इस सबके बीच में आप बैठे हैं तो ज्ञान को उपलब्ध कैसे हो सकते हैं? त्यागी ही ज्ञान को उपलब्ध होते हैं।
सम्राट जनक ने कहा, तुम जरा बेवक्त आ गए। यह कोई सत्संग का समय नहीं है। तुम एक काम करो, मैं अभी उलझा हूं। तुम यह दीया ले लो। पास में रखे एक दीये को दे दिया और कहा कि तुम पूरे महल का चक्कर लगा आओ। एक—एक कमरे में हो आना। मगर एक बात खयाल रखना, इस महल की एक खूबी है; अगर दीया बुझ गया तो फिर लौट न सकोगे, भटक जाओगे।
बड़ा विशाल महल था। दीया न बुझे इसका खयाल रखना। सब महल को देख आओ। तुम जब तक लौटोगे तब तक मैं फुरसत में हो जाऊंगा, फिर सत्संग के लिए बैठेंगे। वह गया युवक उस दीये को लेकर। उसकी जान बड़ी मुसीबत में फंसी। महलों में कभी आया भी नहीं था। वैसे ही यह महल बड़ा तिलिस्मी, इसकी खबरें उसने सुनी थीं कि इसमें लोग खो जाते हैं, और एक झंझट। और यह दीया अगर बुझ जाए तो जान पर आ बने। ऐसे ही संसार में भटके हैं, और संसार के भीतर यह और एक झंझट खड़ी हो गई। अभी संसार से ही नहीं छूटे थे और एक और मुसीबत आ गई।
लेकिन अब महाराजा जनक ने कहा है और गुरु ने भेजा है तो वह दीये को लेकर गया बड़ा डरता—डरता। महल बड़ा सुंदर था; अति सुंदर था। महल में सुंदर चित्र थे, सुंदर मूर्तियां थीं, सुंदर कालीन थे, लेकिन उसे कुछ दिखाई न पड़ता।
वह तो इसे ही देख रहा है कि दीया न बुझ जाए। वह दीये को सम्हाले हुए है। और सारे महल का चक्कर लगा कर जब आया तब निश्चित हुआ। दीया रख कर उसने कहा कि महाराज, बचे। जान बची तो लाखों पाए, लौट कर घर को आए। यह तो जान पर ऐसी मुसीबत हो गई, हम सन्यासी आदमी और यह महल जरूर उपद्रव है, मगर दीये ने बचाया।
सम्राट ने कहा, छोड़ो दीये की बात; तुम यह बताओ, कैसा लगा? उसने कहा, किसको फुरसत थी देखने की? जान फंसी थी। जान पर आ गई थी। दीया देखें कि महल देखें? कुछ देखा नहीं।
सम्राट ने कहा, ऐसा करो, अब आ गए हो तो रात रुक जाओ। सुबह सत्संग कर लेंगे। तुम भी थके हो और यह महल का चक्कर भी थका दिया है। और मैं भी थक गया हूं। बड़े सुंदर भवन में बड़ी बहुमूल्य शय्या पर उसे सुलाया। और जाते वक्त सम्राट कह गया कि ऊपर जरा खयाल रखना। ऊपर एक तलवार लटकी है। और पतले धागे में बंधी है—शायद कच्चे धागे में बंधी हो। जरा इसका खयाल रखना कि यह कहीं गिर न जाए। और इस तलवार की यह खूबी है कि तुम्हारी नींद लगी कि यह गिरी।
उसने कहा, क्यों फंसा रहे हैं मुझको झंझट में? दिन भर का थका—मादा जंगल से चल कर आया, यह महल का उपद्रव और अब यह तलवार! सम्राट ने कहा, यह हमारी यहां की व्यवस्था है। मेहमान आता है तो उसका सब तरह का स्वागत करना।
रात भर वह पड़ा रहा और तलवार देखता रहा। एक क्षण को पलक झपकने तक में घबडाए कि कहीं तलवार भ्रांति से भी समझ ले कि सो गया और टपक पड़े तो जान गई। सुबह जब सम्राट ने पूछा तो वह तो आधा हो गया था सूखकर, कि कैसी रही रात? बिस्तर ठीक था?
उसने कहा, कहा की बातें कर रहे हैं! कैसा बिस्तर? हम तो अपने झोपड़े में जहां जंगल में पड़े रहते थे वहीं सुखद था। ये तो बड़ी झंझटों की बातें हैं। रात एक दीया पकड़ा दिया कि अगर बुझ जाए तो खो जाओ। अब यह तलवार लटका दी। रात भर सो भी न सके, क्योंकि अगर यह झपकी आ जाए.. .उठ—उठ कर बैठ जाता था रात में। क्योंकि जरा ही डर लगे कि झपकी आ रही है कि तलवार टूट जाए। कच्चे धागे में लटकी है।
गरीब आदमी हूं कहां मुझे फंसा दिया! मुझे बाहर निकल जाने दो। मुझे कोई सत्संग नहीं करना। सम्राट ने कहा, अब तुम आ ही गए हो तो भोजन तो करके जाओ। सत्संग भोजन के बाद होगा। लेकिन एक बात तुम्हें और बता दूं कि तुम्हारे गुरु का संदेश आया है कि अगर सत्संग में तुम्हें सत्य का बोध न हो सके तो जान से हाथ धो बैठोगे। शाम को सूली लगवा देंगे। सत्संग में बोध होना ही चाहिए।
उसने कहा, यह क्या मामला है? अब सत्संग में बोध होना ही चाहिए यह भी कोई मजबूरी है? हो गया तो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ। यह मामला…। सम्राट जनक ने कहा तुम्हें राजाओं—महाराजाओं का हिसाब नहीं मालूम। तुम्हारे गुरु की आज्ञा है। हो गया बोध तो ठीक, नहीं हुआ बोध तो शाम को सूली लग जाएगी। अब वह भोजन करने बैठा। बड़ा सुस्वादु भोजन है, सब है, मगर कहां स्वाद? अब यह घबड़ाहट कि तीस साल गुरु के पास रहे तब बोध नहीं हुआ, इसके पास एक सत्संग में बोध होगा कैसे?
किसी तरह भोजन कर लिया। सम्राट ने पूछा, स्वाद कैसा— भोजन ठीक—ठाक? उसने कहा, आप छोड़ो। किसी तरह यहां से बच कर निकल जाएं, बस इतनी ही प्रार्थना है। अब सत्संग हमें करना ही नहीं है।
सम्राट ने कहा, बस इतना ही सत्संग है कि जैसे रात तुम दीया लेकर घूमे और बुझने का डर था, तो महल का सुख न भोग पाए, ऐसा ही मैं जानता हूं कि यह दीया तो बुझेगा, यह जीवन का दीया बुझेगा यह बुझने ही वाला है।
रात दीये के बुझने से तुम भटक जाते। और यह जीवन का दीया तो बुझने ही वाला है। और फिर मौत के अंधकार में भटकन हो जाएगी। इसके पहले कि दीया बुझे, जीवन को समझ लेना जरूरी है। मैं हूं महल में, महल मुझमें नहीं है।
रात देखा, तलवार लटकी थी तो तुम सो न पाए। और तलवार प्रतिपल लटकी है। तुम पर ही लटकी नहीं, हरेक पर लटकी है। मौत हरेक पर लटकी है। और किस भी दिन, कच्चा धागा है, किसी भी क्षण टूट सकता है। और मौत कभी भी घट सकती है। जहां मौत इतनी सुगमता से घट सकती है वहां कौन उलझेगा राग—रंग में न: बैठता हूं राग—रंग में; उलझता नहीं हूं।
अब तुमने इतना सुंदर भोजन किया लेकिन तुम्हें स्वाद भी न आया। ऐसा ही मुझे भी। यह सब चल रहा है, लेकिन इसका कुछ स्वाद नहीं है। मैं अपने भीतर जागा हूं। मैं अपने भीतर के दीये को सम्हाले हूं। मैं मौत की तलवार को लटकी देख रहा हूं। फांसी होने को है। यह जीवन का पाठ अगर न सीखा, अगर इस सत्संग का लाभ न लिया तो मौत तो आने को है।
मौत के पहले कुछ ऐसा पा लेना है जिसे मौत न छीन सके। कुछ ऐसा पा लेना है जो अमृत हो। इसलिए यहां हूं सब, लेकिन इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।
यह जो सम्राट जनक ने कहा: महल में हूं महल मुझमें नहीं है; संसार में हूं संसार मुझमें नहीं है, यह ज्ञानी का परम लक्षण है। वह कर्म करते हुए भी किसी बात में लिप्त नहीं होता। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, साक्षी होना। लिप्त न होने की प्रक्रिया है, निस्तर्षमानस:। मन के पार हो जाना।
जैसे ही मन के पार हुए, एकरस हुए। मन में अनेक रस हैं, मन के पार एकरस। क्योंकि मन अनेक है इसलिए अनेक रस हैं। भीतर एक मन थोड़े ही है,जैसा सभी सोचते हैं। भगवान महावीर ने कहा है, मनुष्य बहुचित्तवान है। एक चित्त नहीं है मनुष्य के भीतर, बहुत चित्त हैं। क्षण— क्षण बदल रहे हैं चित्त। सुबह कुछ, दोपहर कुछ, सांझ कुछ। चित्त तो बदलता ही रहता है। इतने चित्त हैं।
आधुनिक मनोविज्ञान कहता है, मनुष्य पोलीसाइकिक है। वह ठीक भगवान महावीर का शब्द है। पोलीसाइकिक का अर्थ होता है, बहुचित्तवान। बहुत चित्त हैं।
गुरजिएफ कहा करते थे, मनुष्य भीड़ है, एक नहीं। सुबह बड़े प्रसन्न हैं, तब एक चित्त था। फिर जरा सी बात में खिन्न हो गए और दूसरा चित्त हो गया। फिर कोई पत्र आ गया मित्र का, बड़े खुश हो गए। तीसरा चित्त हो गया। पत्र खोला, मित्र ने कुछ ऐसी बात लिख दी, फिर खिन्न हो गए; फिर दूसरा चित्त हो गया।
चित्त चौबीस घंटे बदल रहा है। तो चित्त के साथ एक रस तो कैसे उपलब्ध होगा? एक रस तो उसी के साथ हो सकता है, जो एक है। और एक भीतर जो साक्षी है; उस एक को जान कर ही जीवन में एकरसता पैदा होती है। और एकरस आनंद का दूसरा नाम है।
‘सर्वदा आकाशवत निर्विकल्प ज्ञानी को कहां संसार है, कहां आभास है, कहां साध्य है, कहां साधन है?’ वह जो अपने भीतर आकाश की तरह साक्षीभाव में निर्विकल्प होकर बैठ गया है उसके लिए फिर कोई संसार नहीं है।
संसार है मन और चेतना का जोड़। संसार है साक्षी का मन के साथ तादात्म्य। जिसका मन के साथ तादात्म्य टूट गया उसके लिए फिर कोई संसार नहीं। संसार है भ्रांति मन की; मन के महलों में भटक जाना। वह दीया बुझ गया साक्षी का तो फिर मन के महल में भटक जाएंगे। दीया जलता रहे तो मन के महल में न भटक पाएंगे।
इतनी सी बात है। बस इतनी सी ही बात है सार की, समस्त शास्त्रों में। फिर कहां साध्य है, कहां साधन है। जिसको साक्षी मिल गया उसके लिए फिर कोई साध्य नहीं, कोई साधन नहीं। न उसे कुछ विधि साधनी है, न कोई योग, जप—तप; न उसे कहीं जाना है, कोई मोक्ष, कोई स्वर्ग, कोई परमात्मा;न ही उसे कहीं जाना, न ही उसे कुछ करना। पहुंच गया।
साक्षी में पहुंच गए तो मुक्त हो गए। साक्षी में पहुंच गए तो पा लिया फलों का फल। भीतर ही जाना है। अपने में ही आना है।
(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो हिंदी तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती भाषाओं में अनुवाद हो चुकाहै। आप‘कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)
☆ बाल कथा ♣ खुल जा सिमसिम! ♣ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆
‘मिल गया! पन्द्रह का एक बता रहा था। बीस में दो दे दिया। यानी दस की एक फूल गोभी!’ बेनीबाबू जंगफतह करनेवाले सेनापति के अंदाज में खुश हो गये। आलू, बैगन, अदरक, छीमी एवं सर्वोपरि गोभी से भरे झोले को सँभालते हुए वे जल्दी जल्दी घर लौट रहे थे।
दोनों तरफ सड़क पर सब्जीवाले बैठे हैं। कोई हाँक रहा है, ‘बीस में डेढ़, टमाटर ढेर।’ उधर ठेले के पास खड़ा फलवाला नारा बुलंद कर रहा है, ‘बहुत हो गया सस्ता, अमरूद ल ऽ भर बस्ता!’
तार पर बैठे कपिकुल सोच रहे हैं – मौका मिले तो झपट कर अमरूद उठा लावें। सौ फीसदी फोकट में।
वैसे, भाशा विज्ञान का एक प्रश्न है – पेड़ की शाखा पर विचरने के कारण अगर बंदरों का नाम शाखामृग पड़ा, तो आजकल के टेलिफोन और बिजली के तारों पर चलने के कारण उनका नाम तारमृग भी क्यों न हो?
बाबू बेनीपूरी ने ख्याल नहीं किया – भीड़ में कोई उनके पीछे पीछे चलने लगा था। उनको ‘फॉलो’ कर रहा था एक विशालकाय काला साँड़-‘बच्चू, तू अकेले अकेले सब खायेगा? हजम नहीं होगा बे। एक फूलगोभी तो मुझे देते जा।’ भच्च्…भच्च्…..उसके नथूने फूलने लगे ……
ध्वनि से चौंककर बेनीपुरी ने पीछे मुड़कर देखा – अरे सत्यानाश हो! झोले में पैर भरकर भागे। कुछ कुछ उड़ते हुए ……
‘अबे भाग कहाँ रहा है? सरकार का टैक्स है, पुलिस गुंडे – सबका टैक्स है। हमारा टैक्स नहीं देगा? चल गोभी निकाल।’ साँड़ दौड़ा उनके पीछे …..
बेनीबाबू भागे आगे -‘ना मानूं, ना मानूं, ना मानूं रे! दगाबाज तेरी बतिया ना मानूँ रे!’
‘अबे तुझे हजम नहीं होगा। तेरे पेट से निकलेगी गंगा। तेरा खानदान न रहेगा चंगा।’ सांड को गुस्सा आ गया। विलम्बित से द्रुत लय में उसके कदम चलने लगे ……
एक राही ने कहा, ‘भाई साहब, भागिए -’
दूसरे ने यूएनओ स्टाइल में समझौता करवाना चाहा, ‘एक गोभी उसके आगे फेंक कर घर जाइये।’ यानी संधिपत्र पर हस्ताक्षर।
जाऊँ तो जाऊँ कहाँ? ऐ दिल, कहाँ तेरी मंजिल ? तड़पने लगे बेनीबाबू। तभी ध्यान आया दाहिने बिस्नाथ गल्ली के ठीक सामने पुलिस चौकी है। और कोई न बचाये, – खाकी, अपनी रख लो लाज! बचा लो मुसीबत से आज।
सीन नंबर टू। दौड़ते हाँफते हुए हाथ में थैला लटकाये बेनीबाबू का थाने में प्रवेश ……
सुबह सुबह नहा धोकर बलीराम दरोगा अंगोछा यूनिफार्म में उस समय हनुमानजी की तस्वीर के सामने दीया घुमा रहे थे – ‘श्री गुरुचरन सरोज रज निज मन मुकुर सुधारि ……’
थम गये उनके हाथ,‘अरे रे रे – इ का हो रहा है? तुम – आप कौन हैं? ए पाँड़ेजी, इ कौन अंदर दाखिल हो गया? देखिए तो -’
‘वो साँड़ मुझे फॉलो कर रहा है, सर।’
‘साँड़ ? फॉलो? वो कोई गुंडा बदमाश होता तो कोई बात होती।’
‘अरे साब, इ तो गुंडा बदमाश से भी बीस नहीं, बाईस है।’
बाहर से पाँड़ेजी की मुनादी,‘लीजिए, उ पधार चुके हैं।’
इसी बीच दरोगा के ऑफिस के अंदर काला पहाड़ का प्रवेश।
चौंक कर बलीराम ने दीया वहीं टेबुल पर रख दिया। ‘प्रभु, जब तुम छलांग लगा कर सागर लाँघ सकते हो, तो आज अपनी आरती खुद नहीं कर लीजिएगा? टोटल हनुमान चालीसा खुदे नहीं कंप्लीट कर लीजिएगा ?’
इतने में साँड़ झपटा बेनीपुरी की ओर। वह छुप गये दरोगा के पीछे। शुरु हो गया म्युजिकल चेयर रेस। टेबुल के चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं तीनों। सबसे पहले बेनीपुरी, उनके पीछे बलीराम, और दोनों को खदेड़ता हुआ काला पहाड़….
‘अरे पाँड़ेजी इसको भगाओ। नहीं तो तुम सबको लाइन हाजिर कराऊँगा।’ मिलिट्री स्टाइल में बलीराम का आर्तनाद।
‘सा‘ब, हम का करें? मामूली चोर उचक्के तो हाथ से छूट जाते हैं। इ तो महादेव का नंदी है। कैसे सँभाले?’ पाँड़ेजी की सत्यवादिता।
उधर झूम झूम कर, घूम घूम कर चल रहा है तीनों का चक्कर। बीच में मेज को घेर कर ……
दरोगा ने आदेश दिया, ‘हवालात का दरवाजा खोल कर इसे अंदर करो।’
‘हमलोग दरवाजा खोल रहे हैं, हुजूर। आप अंदर से उसे बाहर हाँकिए।’
‘यह तो मुझे दौड़ा रहा है। मैं कैसे हाँकूंगा? इस आदमी को यहाँ से निकाल बाहर करो।’
‘आपही लोग जनता की रक्षा नहीं कीजिएगा, तो कौन हमें बचायेगा?’
‘निकलते हो कि -’बेनीपुरी पर बलीराम झपटे कि झोला समेत उसे निकाल बाहर करें। साँड़ लपका उनपर। तुरंत बेनीपुरी ने टेबुल के नीचे आसन जमा लिया। हाथ में झोला सँभाले हुए।
साँड़ भौंचक रह गया। गोभीवाला बाबू गया कहाँ ? उसे दरोगा पर गुस्सा आ गया – कहीं इसी ने तो गोभी नहीं खा ली? खट्…खट्…..खट्….. वह बलीराम के पीछे, ‘छुप गये तारे नजारे सारे, ओय क्या बात हो गयी! तुमने गोभी चुरायी तो दिन में रात हो गयी !’
बलीराम के ऑफिस के सामने हवालात का दरवाजा था खुला। वह पहुँचे अंदर, ‘अरे पाँड़े, हवालात का दरवाजा बंद करो। जल्दी।’
पाँड़े ने तुरन्त आदेश का पालन किया।
साँड़ बंद हवालात के सामने फुँफकारने लगा, ‘हुजूर, अब खोलो दरवाजा। मैं प्रजा हूँ, तुम हो राजा। भूखे की गोभी मत छीनो। सुना नही क्या अरे कमीनो?’
इसके बाद क्या हुआ, मत पूछिए। दूसरे दिन अखबार में इस सीन की फोटो समेत स्टोरी छपी थी।
हाँ, इतना बता सकता हूँ कि मिसेज बेनिपुरी को दोनों फूलगोभी मिल गयी थीं। सही सलामत!
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर विचारणीय लघुकथा ‘पेट की दौड़ ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 97 ☆
☆ लघुकथा – पेट की दौड़ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
कामवाली बाई अंजू ने फ्लैट में अंदर आते ही देखा कि कमरे में एक बड़ी – सी मशीन रखी है। ‘दीदी के घर में रोज नई- नई चीजें ऑनलाईन आवत रहत हैं।अब ई कइसी मशीन है?‘ – उसने मन में सोचा। तभी उसने देखा कि साहब आए और उस मशीन पर दौड़ने लगे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सड़क पर तो सुबह – सुबह दौड़ते देखा है लोगों को लेकिन बंद कमरे में मशीन पर? साहब से तो कुछ पूछ नहीं सकती। वह चुपचाप झाड़ू–पोंछा करती रही पर कभी – कभी उत्सुकतावश नजर बचाकर उस ओर देख भी लेती थी। साहब तो मशीन पर दौड़े ही जा रहे हैं ? खैर छोड़ो, वह रसोई में जाकर बर्तन माँजने लगी। दीदी जी जल्दी – जल्दी साहब के लिए नाश्ता बना रही थीं। साहब उस मशीन पर दौड़ने के बाद नहाने चले गए। दीदी जी ने खाने की मेज पर साहब का खाना रख दिया। साहब ने खाना खाया और ऑफिस चले गए।
अरे! ई का? अब दीदी जी उस मशीन पर दौड़ने लगीं। अब तो उससे रहा ही नहीं गया। जल्दी से अपनी मालकिन दीदी के पास जाकर बोली – ए दीदी! ई मशीन पर काहे दौड़त हो? काहे मतलब? यह दौड़ने के लिए ही है, ट्रेडमिल कहते हैं इसको। देख ना मेरा पेट कितना निकल आया है। कितनी डायटिंग करती हूँ पर ना तो वजन कम होता है और ना यह पेट। इस मशीन पर चलने से पेट कम हो जाएगा तो फिगर अच्छा लगेगा ना मेरा – दीदी हँसते हुए बोली।
पेट कम करे खातिर मशीन पर दौड़त हो? — वह आश्चर्य से बोली। ना जाने क्या सोच अचानक खिलखिला पड़ी। फिर अपने को थोड़ा संभालकर बोली – दीदी! एही पेट के खातिर हमार जिंदगी एक घर से दूसरे घर, एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग काम करत – करत कट जात है। कइसा है ना! आप लोगन पेट घटाए के लिए मशीन पर दौड़त हो और हम गरीब पेट पाले के खातिर आप जइसन के घर रात-दिन दौड़त रह जात हैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हार गए तो…।)
☆ लघुकथा – हार गए तो… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
इस बार नेता जी के चुनाव प्रचार में कुछ पुराने कार्यकर्ता तो थे ही, पर ज़्यादातर पिछले पांच साल में पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने वाले युवा ज़ोर-शोर से प्रचार में जुटे थे। काफ़ी समय से बेरोज़गार चले आ रहे इन युवाओं ने नेता जी की चापलूसी को ही रोज़गार मान लिया था। पार्टी के चुनाव चिह्न वाला पटका इनके गले में रहता। नेता जी की दबंग छवि के चलते आम लोग इन कार्यकर्ताओं से थोड़े दबते थे और इन्हें देखते ही उनके भीतर का डर सम्मान सनी मुस्कुराहट में बदल जाता था। कभी-कभी कोई व्यक्ति प्यार से इनका कंधा थपथपा कर कहता – और नेता जी! यह सुनते ही कार्यकर्ता गर्वित महसूस करते हुए अति विनम्र हो जाता।
नेता जी ने तमाम कार्यकर्ताओं को स्पष्ट संदेश दे दिया था कि यह चुनाव हमें किसी भी क़ीमत पर जीतना है। अंदरखाते उन्हें सुनील जी से मिल लेने की हिदायत भी दे दी गई थी। सुनील जी नेता जी के खजांची थे। कार्यकर्ता उनके पास अपने-अपने क्षेत्र के बिक सकने वाले मतदाताओं तथा उनकी क़ीमत का हिसाब-किताब जमा करवाते और पैसा ले आते। प्रचार के दौरान दो कार्यकर्ताओं की बात होने लगी। दोनों पुराने परिचित थे और दोनों खुलकर बात भी कर लिया करते थे। युवा कार्यकर्ता ने पूछा – आपने सुनील जी से कितनी रक़म ली?
– एक पैसा भी नहीं, मैं तो सुनील जी से मिला भी नहीं। हाँ, मेहनत कर रहा हूँ।
– सिर्फ़ मेहनत से क्या होता है, अब तो पैसा ही भगवान है। आपके गाँव में तो बिकाऊ वोटर भी बहुत हैं।
– हाँ, हैं तो सही।
– तो फिर पैसे लिए क्यों नहीं, अपना भी चाय-गुड़ बन जाता है तो हर्ज़ क्या है?
– कोई हर्ज़ नहीं है। वोट खरीदने के लिए ये लूट का पैसा ही तो देंगे। लूट के माल में कार्यकर्ता भी थोड़ा मुँह मार ले तो कोई पाप नहीं है।
– फिर आप सुनील जी से क्यों नहीं मिले?
– पिछली बार मिला था, अभी तक भुगत रहा हूँ। दुआ करो कि नेता जी चुनाव जीत जाएँ, हार गए तो…
– हार गए तो?
– हार गए तो जितने पैसे तुम्हें वोटरों में बाँटने के लिए मिलेंगे, सब ब्याज़ समेत तुमसे वापस लिए जाएँगे। पिछले चुनाव में बीस लाख मिले थे मुझे। अट्ठारह-उन्नीस लाख तो मैंने बाँटे भी थे। मेरी बदक़िस्मती कि नेता जी हार गए। ज़मीन बेचकर पैसे चुकाए मैंने! इसलिए कहता हूँ, उनके जीतने की दुआ करो। हार गए तो…
– हार गए तो… हार गए तो… कार्यकर्ता आशंका में डूब रहा था। गर्मी नहीं थी, पर युवा कार्यकर्ता के माथे से पसीना चू रहा था।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – वादा
अपनी समस्याएँ लिए प्रतीक्षा करता रहा वह। उससे समाधान का वादा किया गया था। व्यवस्था में वादा अधिकांशतः वादा ही रह जाता है। अबकी बार उसने पहले के बजाय दूसरे के वादे पर भरोसा किया। प्रतीक्षा बनी रही। तीसरे, चौथे, पाँचवें, किसीका भी वादा अपवाद नहीं बना। वह प्रतीक्षा करता रहा, समस्या का कद बढ़ता गया।
आज उसने अपने आपसे वादा किया और खड़ा हो गया समस्या के सामने सीना तानकर।…समस्या हक्की-बक्की रह गई।..चित्र पलट गया। उसका कद निरंतर बढ़ता गया, समस्या लगातार बौनी होती गई।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – साक्षात्कार।)
☆ लघुकथा – साक्षात्कार ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
संपादक महोदय ने कहा- जिस कवि का साक्षात्कार लेने जा रहे हो, वे हमारे लिए नायक हैं, उनकी गरिमा का ख़याल रहे। ‘तथास्तु’ कहने के बाद अब मैं कवि के सामने बैठा था।
मैं कवि से बहुत से सवाल पूछना चाहता था- साम्प्रदायिकता पर आपका स्टैंड, बदलता परिदृश्य और आपकी कविता, आपकी कविता के सरोकार वगैरह ; पर मैंने पूछा- खाने में आपको क्या अच्छा लगता है, आपका पसंदीदा साबुन कौन सा है, आप किस समय कौन से काग़ज़ पर किस पैन से लिखते हैं, कौन सी संस्थाओं ने आपको सम्मानित किया है, क्या आपकी कविता से प्रभावित होकर किसी लड़की ने आपको ख़त लिखा? और इसी तरह के कई मज़ेदार सवाल मैंने किए। कवि ने दर्पमिश्रित मुस्कुराहट के साथ जवाब दिए।
मैंने साहित्यिक ईमानदारी को क़ब्र में दफ़नाया और उस क़ब्र के ऊपर मक़बरे के रूप में शीशे का दमकता ताजमहल खड़ा कर दिया। कवि तथा संपादक दोनों प्रसन्न थे। दोनों ने मेरी क़ाबिलियत की भरपूर तारीफ़ की। संपादक जी ने भावुक होते हुए मुझे सलाह दी- तुम ऐसे ही कुछ और साक्षात्कार लेकर किताब छपवा लो, कोई न कोई पुरस्कार तो तुम्हें दिलवा ही देंगे।
अब आप ही बताइए क्या मुझे संपादक जी का कृतज्ञ नहीं होना चाहिये?
मई की कड़क धूप में उसने दरवाजा खटखटाया बोली, उसके परिवार में कोई नहीं है उसे काम चाहिए। मैंने अपनी होशियारी दिखाते हुए उस सीधी साधी महिला का फोन नंबर लेकर उसे टाल दिया।
आखिरकार एक दिन तबीयत खराब होने पर मैंने उसे बुला ही लिया। आते ही ज्योति ने हमारे घर के साथ दिलों में भी जगह बना ली थी। अब हम सब पूरी तरह से उस पर निर्भर हो गए थे उस पर पूरा भरोसा करने लगे थे।
घर, बाजार, बैंक के काम वह बड़ी फुर्ती से निपटा देती थी।
एक दिन काम से बाहर निकली 4/5 घंटे हो गए वापस ही नहीं आई। मेरे पैरों के नीचे से जमीन निकल गई। हाय आज तो लॉकर में जेवर रखने भेजा था।
तभी पुलिस की जीप की आवाज मेरे शक को यकीन में बदल ही रही थी कि इंस्पेक्टर ने कहा …”हमारी जीप से टकराकर यह बेहोश हो गई थी। होश आने पर इन्हें छोड़ने आए हैं।”
ज्योति मुस्कुरा कर बोली..” दीदी घबराओ नहीं बैंक का काम होने के बाद ही टकराई थी।”