हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 207 – हस्तरेखा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “हस्तरेखा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 202 ☆

🌻लघु कथा🌻 हस्तरेखा 🌻

तीसरी मंजिल पर छोटा सा कमरा। गर्मी का समय सिर्फ ऊपर पंखा लगा था। किनारे पर टेबिल पर एक भरा हुआ पानी का जग दो गिलास।

नीचे बहुत बड़ा बंगला। बोर्ड लगा था। महान ज्योतिषाचार्य मिलने का समय दोपहर 1:00 से शाम 6:00 बजे तक। जब सीमा को पता चला कि ज्योतिषाचार्य जी के आँख का मोतियाबिंद ऑपरेशन हुआ है।

वह देखने पहुंच गई। वैसे भी उसका आना-जाना लगा रहता था। जैसे ही वह घर पहुंची। आचार्य जी ने गदगद मन से कहा… आओ कुछ पूछना है क्या? या यूँ ही अपने काम के सिलसिले में आई हो? सीमा ने कहा- नहीं नहीं.. आचार्य जी, मैं तो आपकी कुशलता के बारे में पूछने आई हूँ।

– हाँ, तुम तो  समाज सेवा कर रही हो।

एक हँसी सी कुटिल मुस्कान के साथ। उसने धीरे से कहा… और आज आप अपनी हस्त रेखा के बारे में भी बता दीजिए।

ज्योतिषाचार्य के आँखों से आँसू गिरने लगे। यदि मैं कहूं कि मेरा भविष्य अंधकार में है तो आप क्या कहना चाहेंगी। हस्तरेखा बता रही हैं।

सीमा ने कहा तो आप कुछ उपाय क्यों नहीं कर लेते। आचार्य जी ने कहा.. बेटा दुनिया को बताना और अपने लिए करना और कहना आज सबसे बड़ा कार्य होता है। पर देखना तुम आज आई हो अब मेरे लिए कुछ अच्छा होगा।

उनकी असमर्थता समझते देर न लगी। भारी मन से सीमा लौट चली। कुछ रुपयों को उनके सिरहाने रखकर।

कुछ अच्छा ही होगा क्या कुछ कहती है हस्तरेखा मन ही मन विचार करती रही। क्या सचमुच जीवन हस्तरेखा पर निर्भर!!!! नहीं- नहीं दुनिया पैसों पर चलती है। सीमा ने कसकर मुट्ठी बंद कर लिया और मन में बोलने लगी…

– यह पैसों की दुनिया है।

– यह पैसों की दुनिया है।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – मंजिल अभी दूर है – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है श्रद्धेय अमृतलाल नागर जी के उपन्यास ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ को समर्पित लघुकथा “मंजिल अभी दूर है।) 

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — मंजिल अभी दूर है — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

(श्रद्धेय अमृतलाल नागर जी के उपन्यास ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ को समर्पित लघुकथा)

आदिवासी जैसे इलाके के पंद्रह साल के लड़के ने अपने घर से पैसा चुरा कर सुदूर शहर की ओर पलायन किया था। पैसा तो कुछ ही दिनों में खत्म हो गया। पर अब तक उसे इस शहर के बहुत हद तक अच्छे खासे अनुभव हो गए थे। वह सूखी नदी के पुल के नीचे तमाम लड़कों के साथ रात के वक्त सोता था। उसने राशन की एक दुकान में झाँड़ पोंछ का काम किया। उसने पढ़ाई में ध्यान दिया और उसे एक अध्यापक का पूरा सहयोग मिला। दो चार साल में वह पूरा जवान हुआ। पढ़ना तो उसे कुछ कुछ आता ही था। भगवान ने उसे गरीब घर का बेटा तो बनाया था, लेकिन दिया था तो एक सुन्दर चेहरा ही। यही सुन्दर चेहरा उसके अंधेरे जीवन का प्रकाश बना। फिल्म वालों का ध्यान उस पर गया और वह अभिनेता बन गया। उसने कुछ ही दिनों के बीच पैसे और शोहरत में एक अद्भुत गरिमा हासिल कर ली।

उसके बारे में तो बहुत लिखा जाता था। लिखने वालों ने ऐसा भी किया उसके परिवार के बारे में पता लगा लिया। उसके परिवार के लोग कभी भंगी हुआ करते थे। अब उन्होंने अपना जीवन स्तर काफी ऊँचा कर लिया था। पर मानो दाग रह गया ये लोग तो भंगी के वंशज हैं। फिल्मकारों ने तो निचले तबके के लोगों पर तमाम फिल्में बनायीं और विश्व व्यापी ख्याति अर्जित की। पर उन्हीं के अपने कलाकार के पूर्वजों के जीवन को इस रूप में जाना तो उस पर छींटाकशी करने लगे। इस विद्रूपता से खीज कर उसने उन लोगों का साथ छोड़ा और अपने माँ – बाप के यहाँ लौट गया। यहाँ उसने एक चमत्कार देखा। यहाँ लोगों को एक दिन पहले पता चला था वह शहर में बहुत बड़ा ऐक्टर बन गया है। उसने देखा उसके पिता को ऊँची कुरसी पर बिठाया गया है और उसके गले में फूलों की मालाएँ डाली जा रही हैं। नाच गानों से पूरा वातावरण गूँज रहा था।

गाँव का सेठ जो उसके पिता को भंगी का वंशज जानने से उसे देखने पर बुदबुदाते हुए मुँह टेढ़ा कर के घुमा लेता था वह खुशी मना रहे इन लोगों के बीच तो न था। पर उसे पता चल गया था भंगी कुल का बेटा वापस आया है। अगली सुबह वह भंगी कुल के बेटे से मिलने उसके घर आया और हाथ जोड़ कर कहा जाते वक्त उसके बेटे को साथ ले जाए। बेटे ने कह रखा है उसे न भेजेगा तो आत्म हत्या कर लेगा। उसे बचपन से ऐक्टर बनने के सपने आते थे। अब उसे लग रहा है गाँव का यह दुलारा बेटा, शहर का वह ख्यातिलब्ध ऐक्टर उस के बेटे का हाथ पकड़ कर उसे उस दुनिया में ले जाने के लिए वापस आया है।

© श्री रामदेव धुरंधर

17 – 08 – 2019

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #183 – बाल कहानी – नकचढ़ा देवांश ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- “दौड़ता भूत

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 183 ☆

बाल कहानी – नकचढ़ा देवांश ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

देवांश की शैतानियां कम नहीं हो रही थी। वह कभी राजू को लंगड़ा कह कर चढ़ा दिया करता था, कभी गोपी को गेंडा हाथी कह देता था। सभी छात्र व शिक्षक उससे परेशान थे।

तभी योगेश सर को एक तरकीब सुझाई दी। इसलिए उन्होंने को देवांश को एक चुनौती दी।

“सरजी! मुझे देवांश कहते हैं,” उसने कहा, “मुझे हर चुनौती स्वीकार है। इसमें क्या है? मैं इसे करके दिखा दूंगा,”  कहने को तो देवांश ने कह दिया। मगर, उसके लिए यह सब करना मुश्किल हो रहा था।

ऐसा कार्य उसने जीवन में कभी नहीं किया था। बहुत कोशिश करने के बाद भी वह उसे कर नहीं पा रहा था। तब योगेश सर ने उसे सुझाया, “तुम चाहो तो राजू की मदद ले सकते हो।”

मगर देवांश उससे कोई मदद नहीं लेना चाहता था। क्योंकि वह उसे हमेशा लंगड़ा-लंगड़ा कहकर चिढ़ाता था। इसलिए वह जानता था राजू उसकी कोई मदद नहीं करेगा।

कई दिनों तक वह प्रयास करता रहा। मगर वह नहीं कर पाया। तब वह राजू के पास गया। राजू उसका मंतव्य समझ गया था। वह झट से तैयार हो गया। बोला, “अरे दोस्त! यह तो मेरे बाएं हाथ का काम है।” कहते हुए राजू अपने एक पैर से दौड़ता हुआ आया, झट से हाथ के बल उछला। वापस सीधा हुआ। एक पैर पर खड़ा हो गया, “इस तरह तुम भी इसे कर सकते हो।”

देवांश का एक पैर डोरी से बना हुआ था। वह एक लंगड़े छात्र के नाटक का अभिनव कर रहा था। मगर वह एक पैर पर ठीक से खड़ा नहीं हो पा रहा था। अभिनव करना तो दूर की बात थी।

तभी वहां योगेश सर आ गए। तब राजू ने उनसे कहा, “सरजी, देवांश की जगह यह नाटक मैं भी कर सकता हूं।”

“हां, कर तो सकते हो,” योगेश सर ने कहा, “इससे बेहतर भी कर सकते हो। मगर उसमें वह बात नहीं होगी, जिसे देवांश करेगा। इसके दोनों पैर हैं। यह इस तरह का अभिनव करें तो बात बन सकती है। फिर देवास ने चुनौती स्वीकार की है। यह करके बताएगा।”

यह कहते हुए योगेश सर ने देवांश की ओर आंख ऊंचका कर कर पूछा, “क्यों सही है ना?”

“हां सरजी, मैं करके रहूंगा,” देवांश ने कहा और राजू की मदद से अभ्यास करने लगा।

राजू का पूरा नाम राजेंद्र प्रसाद था। सभी उसे राजू कह कर बुलाते थे। बचपन में पोलियो की वजह से उसका एक पैर खराब हो गया था। तब से वह एक पैर से ही चल रहा था।

वह पढ़ाई में बहुत होशियार था। हमेशा कक्षा में प्रथम आता था। सभी मित्रों की मदद करना, उन्हें सवाल हल करवाना और उनकी कॉपी में प्रश्नोत्तर लिखना उसका पसंदीदा शौक था।

उसके इसी स्वभाव की वजह से उसने देवांश की भरपूर मदद की। उसे खूब अभ्यास करवाया। नई-नई तरकीब सिखाई। इस कारण जब वार्षिक उत्सव हुआ तो देवांश का लंगड़े लड़के वाला नाटक सर्वाधिक चर्चित, प्रशंसनीय और उम्दा रहा।

देवांश का नाटक प्रथम आया था। जब उसे पुरस्कार दिया जाने लगा तो उसने मंचन अतिथियों से कहा, “आदरणीय महोदय! मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूं।”

“क्यों नहीं?” मंच पर पुरस्कार देने के लिए खड़े अतिथियों में से एक ने कहा, “आप जैसे प्रतिभाशाली छात्र की इच्छा पूरी करके हमें बड़ी खुशी होगी। कहिए क्या कहना है?” उन्होंने देवांश से पूछा।

तब देवांश ने कहा, “आपको यह जानकर खुशी होगी कि मैं इस नाटक में जो जीवंत अभिनव कर पाया हूं वह मेरे मित्र राजू की वजह से ही संभव हुआ है।”

यह कहते ही हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। देवांश ने कहना जारी रखा, “महोदय, मैं चाहता हूं कि आपके साथ-साथ मैं इस पुरस्कार को राजू के हाथों से प्राप्त करुं। यही मेरी इच्छा है।”

इसमें मुख्य अतिथि को भला क्या आपत्ति हो सकती थी। यह सुनकर वह भावविभोर हो गए, “क्यों नहीं। जिसका मित्र इतना हुनरबंद हो उसके हाथों दिया गया पुरस्कार किसी परितोषिक से कम नहीं होता है,” यह कहते हुए अतिथियों ने ताली बजा दी।

“कौन कहता है प्रतिभा पैदा नहीं होती। उन्हें तराशने वाला चाहिए,” भाव विह्वल होते हुए अतिथियों ने कहा, “हमें गर्व है कि हम आज ऐसे विद्यालय और छात्रों के बीच खड़े हैं जिनमें परस्पर सौहार्द, सहिष्णुता, सहृदयता,सहयोग और समन्वय का संचार एक नदी की तरह बहता है।”

तभी राजू अपने लकड़ी के सहारे के साथ चलता हुआ मंच पर उपस्थित हो गया।

अतिथियों ने राजू के हाथों देवांश को पुरस्कार दिया तो देवांश की आंख में आंसू आ गए। उसने राजू को गले लगा कर कहा, “दोस्त! मुझे माफ कर देना।”

“अरे! दोस्ती में कैसी माफी,” कहते हुए राजू ने देवांश के आंसू पूछते हुए कहा, “दोस्ती में तो सब चलता है।”

तभी मंच पर प्राचार्य महोदय आ गए। उन्होंने माइक संभालते हुए कहा, “आज हमारे विद्यालय के लिए गर्व का दिन है। इस दिन हमारे विद्यालय के छात्रों में एक से एक शानदार प्रस्तुति दी है। यह सब आप सभी छात्रों की मेहनत और शिक्षकों परिश्रम का परिणाम है कि हम इतना बेहतरीन कार्यक्रम दे पाए।”

प्राचार्य महोदय ने यह कहते हुए बताया, “और सबसे बड़ी खुशी की बात यह है कि राजू के लिए जयपुर पैर की व्यवस्था हमारे एक अतिथि महोदय द्वारा गुप्त रूप से की गई है। अब राजू भी उस पैर के सहारे आप लोगों की तरह समान्य रूप से चल पाएगा।” यह कहते हुए प्राचार्य महोदय ने जोरदार ताली बजा दी।

पूरा हाल भी तालियों की हर्ष ध्वनि से गूंज उठा। जिसमें राजू का हर्ष-उल्लास दूना हो गया। आज उसका एक अनजाना सपना पूरा हो चुका था।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

02-02-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रश्नपत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – प्रश्नपत्र ? ?

बारिश मूसलाधार है। ….हो सकता है कि इलाके की बिजली गुल हो जाए। ….हो सकता है कि सुबह तक हर रास्ते पर पानी लबालब भर जाए। ….हो सकता है कि कल की परीक्षा रद्द हो जाए।…आशंका और संभावना समानांतर चलती रहीं।

अगली सुबह आकाश निरभ्र था और वातावरण सुहाना। प्रश्नपत्र देखने के बाद आशंकाओं पर काम करने वालों की निब सूख चली थी पर संभावनाओं को जीने वालों की कलम पूरी रफ़्तार से दौड़ रही थी।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 35 – प्लास्टिक के फूल…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – प्लास्टिक के फूल ।)

☆ लघुकथा # 35 – प्लास्टिक के फूल श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अरे! भाग्यवान सावन त्योहार आया है और राखी का त्योहार है। खरीदारी करने मार्केट नहीं जा रही हो?

नहीं इस बार मैंने रवि और बहू को कह दिया है वे ऑनलाइन ही मेरे भाई को राखी भेज देगी। आजकल राखी के साथ मिठाई टॉफी पर काफी सामान ऑनलाइन मिल जाते हैं और खरीदने और भेजना में कोई परेशानी नहीं होती?

मार्केट की भीड़भाड़ से भी बच जाते हैं।

अरे भाग्यवान! जो सामान खुद जाकर खरीदने में मजा है वह यह ऑनलाइन में कहां है?

कोई नहीं, मैं तो अपनी बहन के घर जा रहा हूं और उसके हाथ की मिठाई खाऊॅंगा। दीदी खुद हाथ से राखी बांधती है और मेरे लिए रूमाल पूरे दो दर्जन मुझे साल भर के लिए देती है। साथ ही मुझे टॉवल भी देती है।

तुम्हें प्लास्टिक की दुनिया मुबारक हो? तुम प्लास्टिक के फूल की तरह हो गई हो।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 114 – जीवन यात्रा : 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 114 –  जीवन यात्रा : 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

माना कि स्कूलिंग, नैसर्गिक विकास को अवरुद्ध करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है पर फिर भी यह नैसर्गिक से प्रायोजित, भौतिकता के लिए आवश्यक,और व्यक्तित्व निर्माण की ओर जाने की यात्रा कही जा सकती है.यहां शिशु न केवल शिक्षा और शिक्षण के दौर से गुजरता है बल्कि परिवार के दायरे को लांघकर बहुत सी और विभिन्न मित्रताओं के स्वाद से भी परिचित होता है. पहले सामान्य परिचय,फिर परिचय की प्रगाढ़ता जो कभी आजीवन या फिर समयकालीन मित्रता के रिश्तों में बदलती है. या फिर प्रतिस्पर्धा जो कभी प्रतिद्वंदिता और कभी नापसंदगी के रूप में अंकुरित होकर शत्रुता तक में बदले, यह स्कूल या फिर स्कूलिंग का दौर ही सिखाता है.हास्यबोध जो दोस्तों के मनोरंजन के लिए कभी खुद को भी हास्यास्पद स्थिति में डाल दे या फिर सेंस ऑफ ह्यूमर जो गाहे बगाहे चुटीली टिप्पणियों से माहौल को हल्के पर बौद्धिक मनोरंजन की डोज़ देता रहे,यह छात्रजीवन में ही उपजता है.यह तो सर्वमान्य और अटल सत्य है कि छात्रजीवन विशेषकर स्कूल लाईफ ही वह महत्वपूर्ण सुरंग होती है जहाँ एक सिरे से प्रविष्ट “अबोध,उत्सुक पर भयभीत,पेरेंट्स के सुरक्षाकवच से दूर शिशु”,दूसरे छोर से “आश्वस्त या अभ्यस्त,निर्भीकता से परिपक्व और निर्भरता को तिलांजलि देकर आत्मनिर्भरता से पगे हुये पकवान की तरह” बाहर आता है.नर्सरी को छोड़कर स्कूलिंग के ये बारह साल उसके “व्यक्तित्व निर्माण, मन:स्थिति और इच्छाशक्ति,चारित्रिक दृढ़ता या फिर दुर्बलता,मानसिक और शारीरक दक्षता” का निर्माण करते हैं.”प्रतिकूलता को भी सहजता से लेना” या फिर “अनुकूलता में भी तनावग्रस्त होना” उसे स्कूलिंग ही सिखाती है.संवेदनशीलता की मौजूदगी, उपेक्षा को पचाकर और ज्यादा मजबूती से संघर्षरत रहना उसे स्कूल ही सिखाते हैं.

स्थूल रूप से समाज में ये मान लिया जाता है कि स्कूल से डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर,एडवोकेट, बैंकर तैयार होते हैं पर ये मान्यता खोखली होती है.स्कूल प्रारंभिक शिक्षा के अलावा सिर्फ व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं जो आगे चलकर अपनी इस फाउंडेशन के बल पर ये प्रोफेशनल विशेषज्ञता हासिल करते हैं.सारी नामचीन हस्तियां जिन्होंने अपनी उपलब्धियों के बल पर समाज और दुनियां में जगह बनाई वो सब इस स्कूलिंग के दौर में हासिल गुणों को ही बाद में विकसित और परिमार्जित कर ही अपने अपने मुकाम को हासिल कर पाये.स्कूलिंग के इस दौर के बारे में जितना लिखा जाय कम ही होगा इसलिए

“जीवन यात्रा जारी रहेगी”

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मन की गाँठ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – मन की गाँठ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

-बाबू! बुरा तो नहीं मानोगे?

-नहीं! कहो, क्या बात है?

-अब आपकी चप्पल की लाइफ पूरी हो चुकी ! इस बार तो गांठ देता हूँ। ‌आगे मुश्किल है ! फिर नयी ले लेना! मैं  गांठ नहीं पाऊंगा!

-अरे! चप्पल को क्या हुआ? थोड़ी सी तो ठीक करनी है!

-वही तो कहा, बाबू जी! थोड़ी थोड़ी करते भी टांके लगाऊं तो आंखें जैसे इसी में टंक जाती हैं। आपको क्या है, नयी ले लेना, बाबू जी! अब तो बहुत ऑपरेशन कर लिये इसके ! अब इसकी लाइफ नहीं बची!

-ठीक है, मैं तो तुम्हारे बारे में सोच रहा था! अब काम ही कितना बचा है तुम्हारे पास!

-हां बाबू जी! काम तो पहले रेडिमेड जूतों, चप्पलों ने ले लिया ! अब रिपेयर भी कम ही आती है! लोग बाग घर पर ही जूते पालिश कर लेते हैं, पर आता हूँ  तो बाज़ार में आप जैसे लोगों से दिल बहल जाता है! और तो क्या! काम ही कहां बचा है?

-फिर गुजारा कैसे?

-बेटा पढ़ लिख गया, नौकरी लग गयी! बस, उसका सहारा ! आप बाबू जी! कैसे दिन बिताते हैं?

-बस, तुम्हारी तरह ! कुछ इधर बैठ लिया, कुछ उधर! निकल जाता है, दिन!

-कैसे?

-दिनों की मरम्मत करके, गांठें लगाते, कभी दुख की, कभी सुख की !

-लो, बाबू, आपकी चप्पल तैयार!

-ठीक है। पैसे कितने?

-अंतिम संस्कार के कैसे पैसे?

बाबू की आंखें भीग गयीं अपनी चप्पल को आखिरी बार देखकर !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – राज – भोग – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है  मारीशस में गरीब परिवार  में बेटी की शादी और सामजिक विडम्बनाओं पर आधारित लघुकथा राज – भोग।) 

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — राज – भोग — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

कहा जाता है पुराने ज़माने में राज्य संचालन के नाम पर राजाओं के कानों में उल्टे – सीधे मंत्र फूँकने के लिए उनके नौ रत्न होते थे। यह सच हो तो इतनों के ही पेट भरने की खातिर राजाओं को न जाने कितने गरीबों के पेट में लात मारने के लिए सिपाहियों को दौड़ाना पड़ता होगा। गरीब रो – रो कर जब कहे मेरे पेट में लात न मारो तो उनसे कहा जाता होगा लात न मारें तो नौ रत्नों को क्या घास खिला कर चिकन – चाकन मुस्टंडा बनाएँगे। अत: हर हालत में तुम लोग लात खाओ और प्रार्थना में दिल खोल कर कहो उन मुस्टंडों का पेट इतना भर जाए कि भविष्य के लिए भी उन के काम आ सके। उनके लिए यहाँ जो प्रार्थना करो तुम्हारे मरने पर वह प्रार्थना तुम्हारे साथ जाए। भगवान से कहना एक विशेष कारण से प्रार्थना साथ ले कर आए हो। भगवन, अगला जन्म दो तो यह प्रार्थना हमारे साथ ही धरती पर जाए। इस प्रार्थना का मर्म यह है प्रभु, वे जो ‘नौ रत्न’ नाम से जाने जाते हैं उनका स्वास्थ्य इसी तरह अजर अमर हो तभी तो वे अपने सत्ता भोगी राजा के यहाँ नौ रत्न का सुख भोग कर सकेंगे।

यह जिस राजा की कहानी लिखी जा रही है वह निराला राजा था। वह चाहे नौ रानियाँ नहीं रखता, लेकिन रखता तो अठारह रत्न अवश्य रखता। उसने जैसा सोचा वैसा किया। उसने अपने निरालेपन की जय के लिए अठारह रत्न रख कर गरीबों के पेट में दोहरी लात मरवायी। इन अठारह रत्नों के कारनामे तो और निराले हुए। सभी अपनी – अपनी परिभाषा की एक – एक कहानी थे। अठारह रत्नों में जो अंतिम था वह अंधा था। क्रम में जो पहला था वह बहरा था। बाकी जो सोलह रत्न थे वे जब असेंबली में प्रवेश करते थे तो उनका आतिथ्य बहरा करता था और निकलते वक्त अंधा उन्हें रास्ता दिखाता था। इन अठारह रत्नों की बदौलत राजा ने आजीवन राज किया। इस पर एक महाकाव्य लिखा गया है। पर उसका दाम लाखों रूपए है। हमारे वर्तमान में जो राजनेता इस तरह का राजा बनने का शौक रखता है अपने ज्ञान वर्द्धन के लिए जन – कोष से वह महाकाव्य ज़रूर खरीदता है।

© श्री रामदेव धुरंधर

04 / 08 / 2017

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #182 – बाल-कथा – “दौड़ता भूत” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- “दौड़ता भूत

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 183 ☆

☆ कहानी- दौड़ता भूत ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

उनका गोला यहीं रखा था. कहां गया? काफी ढूंढा. इधर-उधर खुला हुआ था. उसे खींच खींचकर समेटा गया. तब पता चला कि वह ड्रम के पीछे पड़ा था.

पिंकी ने जैसे ही गोले को हाथ लगाना चाहा वह उछल पड़ी. बहुत जोर से चिल्लाई, “भूत!  दौड़ता भूत.”

यह सुनते ही घर में हलचल हो गई. एक चूहा दौड़ता हुआ भागा. वह पिंकी के पैर पर चढ़ा. वह दोबारा चिल्लाई, “भूत !”

दादी पास ही खड़ी थी. उन्होंने कहा, “भूत नहीं चूहा है.”

” मगर वह देखिए. ऊन का गोला दौड़ रहा है.”

तब दादी बोली, “डरती क्यों हो?  मैं पकड़ती हूं उसे, ”  कहते हुए दादी लपकी.

ऊन का गोला तुरंत चल दिया. दादी झूकी थी. डर कर फिसल गई.

पिंकी ने दादी को उठाया. दादी कुछ संभली. तब तक राहुल आ गया था. वह दौड़ कर गोले के पास गया.

राहुल को पास आता देख कर गोला फिर उछला. राहुल डर गया, “लगता है गोले में मेंढक का भूत आ गया है.”

तब तक पापा अंदर आ चुके थे. उन्हों ने गोला पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया. गोला झट से पीछे खिसक गया.

“अरे यह तो  खीसकता हुआ भूत है,”  कहते हुए पापा ने गोला पकड़ लिया.

अब उन्होंने काले धागे को पकड़कर बाहर खींचा, “यह देखो गोले में भूत!” कहते हुए पापा ने काला धागा बाहर खींच लिया.

सभी ने देखा कि पापा के हाथ में चूहे का बच्चा उल्टा लटका हुआ था.

“ओह ! यह भूत था,” सभी चहक उठे.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

21-04-2021

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 34 – अनमोल यादें…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनमोल यादें ।)

☆ लघुकथा # 34 – अनमोल यादें श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जब तुम्हारे पास कुछ काम नहीं रहता तो अलमारी को खोल कर अपनी साड़ियों देखती हो और उन्हें पहनती भी हो बच्चों की तरह अपने पूरे गहने भी पहन कर देखती हो?

बाहर नहीं जाती लेकिन घर में तुम इतना तैयार होती हो ऐसा क्यों? बाहर भी पहन कर जाया करो?

ओ मेरे स्वामी! प्यारे पतिदेव रवि आप हम नारी के मन की वेदना को समझ नहीं पाओगे?

यह बातें मुझे भी अब इस बुढ़ापे की उम्र में समझ में आ रही है। बाहर सब लोग मुझे देखकर हसेंगे ।

 इस उम्र में भी देखो बुड्ढी को ! कितना श्रृंगार किया है?

 जेवर और साड़ी के साथ मायके की याद जुड़ी है।

 हमारे मां पिताजी हमारे साथ न रहकर भी साथ है। ये भले किसी काम के जेवर तुम्हें नहीं लगते हैं, पर यह सब मेरे लिए अनमोल यादें है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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