(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं प्रेरणास्पद लघुकथा “दूसरी शादी”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 105 ☆
☆ लघुकथा- दूसरी शादी ☆
“मैं दूसरी शादी करके रहूंगी,” यह सुनते हैं घर में सन्नाटा पसर गया। ससुर समान पिता ने कहा, “बेटी! अभी तेरे शहीद पति की चिता भी ठंडी नहीं हुई और तूने यह फैसला कर लिया।”
“हां पिताजी, मैं नहीं चाहती हूं कि मैं अपने इरादे से डिग जाऊं।”
“इस बारे में एक बार और सोच लेती बेटी,” पिता बोले, “माना कि अभी शादी को एक बसंत भी नहीं बीता है मगर इस बच्चे के बारे में कुछ तो सोच लेती।”
“हां बेटी,” कब से चुप बैठी सासु ने कहा, “शादी के फैसले थोड़े दिनों के लिए टाल दो बेटी?”
“नहीं सासु मां, अब मैं इसे नहीं टाल सकती हूं। मैं तो शादी करने जा रही हूं,” कहते हुए शहीद की विधवा ने एक पत्र आगे बढ़ा दिया, “यह रहा मेरा विवाह का अनुबंध पत्र।”
उस अनुबंध पत्र को पढ़कर ससुर का हाथ आशीर्वाद के लिए उठ गया। वह अनुबंध पत्र नहीं फौज में विधवा की नियुक्ति का पत्र था।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– परम संतोषी के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा – कहानी # 17 – परम संतोषी भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
जब संतोषी साहब उर्फ सैम अंकल ब्रांच में घुलमिल गये तो उनको पता चला कि यहाँ ३ और ६ दोनों तरह के महापुरुष पाये जाते हैं. 3 याने मिलनसार, मस्तमौला और मनोरंजक व्यक्तित्व के स्वामी और दूसरे विमुख और विरक्त रहने वाले आत्मकेंद्रित पुरुष जिन्हें ६ भी कहा जाता है. ३ अंक वाले तो जहाँ होते हैं, महफिलें गुलजार हो जाती हैं, विनोदप्रियता इनका सहज स्वभाव होता है जो मनोरंजन के साथ साथ सहजता भी संप्रेषित करता रहता है. लोग इनका सानिध्य और उन्मुक्त स्वभाव पसंद करते हैं. संतोषी जी स्वयं भी इसकी जीती जागती मिसाल थे और स्वाभाविक रूप से ऐसी कंपनी पसंद भी करते थे पर वे, इसे आप गुण या दुर्गुण कुछ भी कहें पर ६ अंक वालों को “मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए, मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो” गाना गाने का मौका कभी नहीं देते थे.
ऐसे ६ अंक वाले सज्जन “सेल्फ कंप्लेंट सेक्शन” का प्रमुख पद पाने की योग्यता के धनी होते हैं. इनकी शिकायतें शायद जन्म से ही शुरु हो जाती हैं पर माता इसे स्वाभाविक शिशु रुदन मानकर इन्हें दुग्धपान कराते रहती हैं और पिताजी इनकी हर उचित/अनुचित मांग पूरी करते रहते हैं कि बच्चा अब तो खुश होगा. पर बच्चा कभी खुश नहीं होता क्योंकि उसका फोकस पाने से ज्यादा नहीं पा सकने पर रहता है. शिकायत करना पहले मनचाहा फल पाने का प्रयास होता है जो बाद में स्वभाव कब बन जाता है, पता नहीं चलता.ऐसे लोगों का जन्म से यह विश्वास बन जाता है कि अगर रोयेंगे नहीं तो मां दूध नहीं पिलायेगी. असंतोष अपने साथ ईर्ष्या भी लेकर आता है जब सामने वाले की उपलब्धियां इन्हें कुंठित कर देती हैं और ये कभी मानने को तैयार ही नहीं होते कि सफलता हमेशा निष्ठा, योग्यता और श्रम का ही वरण करती है. जो सफल होते हैं, उच्च पदों को सुशोभित करते हैं वे वास्तव में चयनकर्ताओं और चयन प्रक्रिया में उपलब्ध व्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ ही होते हैं. ये बात अलग है कि ६अंक वालों का नेगेटिव एटीट्यूड इसे मानने को तैयार नहीं होता और उन्हें अयोग्य मानकर उनका उपहास करता रहता है. पर जीतने वाला ही सिकंदर कहलाता है भले ही ६ अंक वालों की नज़र में वो मुकद्दर का सिकंदर हो. ऐसे लोगों को हमेशा सैम अंकल यही कहते कि रेस में दौड़ने से ही जीत मिलती है, धावकों की आलोचना करने से नहीं. अगर यह क्षेत्र तुम्हारे लायक नहीं है तो रेस का मैदान बदलने का हक और मौका हमेशा सबके पास होता है. या तो फिर जहाँ रहो जो मिला उस पर मेरी तरह खुश रहो या अपने अंदर मैदान बदलने का साहस पैदा करो.सुरक्षा कायरों का कवच होती है, अभिमन्यु साहस का प्रतीक थे जो महाभारत में अपनी चक्रव्यूह भेदने की अधूरी शिक्षा के बाद भी रणभूमि में कूद गये और अपने कर्तव्य का पालन किया. युद्ध हमेशा सैनिकों के साहस, आशा, उम्मीद और कर्त्तव्य परायणता की भावना से लड़े जाते हैं. इसलिए ही शहीद, अमरत्व और सम्मान दोनों पाते हैं.
वैसे तो ये कथा बैंक के प्रांगण की कहानी है पर इसके माध्यम से जीवन और मानव स्वभाव पर भी कलम चल रही है.
कथा रंग ला रही है तो रंग में भंग होगा नहीं. विश्वास रखिए जारी रहेगी, दवा के डोज़ के रूप में ….
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।
☆ कथा-कहानी #94 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 5- दोई दीन से गए … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
॥ दोई दीन से गए पाँडे , हलुवा मिला ना माँडे ॥
इस कहावत का अर्थ है दोनों इच्छाओं में से किसी एक भी का पूर्ण न होना और इसके पीछे जो कहानी है वह इस प्रकार है:
गाँव में एक पाण्डेजी रहते थे । ज्यादा पड़े लिखे न थे अत: पूजा पाठ में तो न बुलाए जाते पर जब कभी आसपास के गावों में ब्राह्मण भोजन होता तो उन्हे भी बुलावा भेजा जाता। ऐसा ही एक निमंत्रण पांडेजी को अपने गाँव से कुछ दूर स्थित दूसरे गाँव से मिला। रास्ते भर वे सुस्वादु भोजन की कल्पना करते जा रहे थे कि आज हलुवा और पूरी को भोग लगेगा। पांडेजी को रास्ते में चलते चलते अचानक चावल बनने की खुशबू आई और चावल का माँड, जो उन्हे अत्यंत प्रिय था, पीने की लालच में उस घर की ओर मुड़ गए। गृह मालकिन ने किवाड़ की ओट से पांडेजी को पायं लागी करी और आने का मंतव्य पूंछा। पांडेजी ने घर तक पहुँचने की बात बताते हुये माँड पीने की इच्छा बताई। गृह मालकिन कुछ कह पाती तभी पांडेजी ने गाँव में आयोजित भोज की चर्चा करते हुये कुछ लोगों को सुना और वे उन्ही के पीछे पीछे भोज स्थल की ओर चल पड़े। भोज स्थल पर लोगों ने पांडेजी को देखा और कह उठे अरे ये तो फलाने के दरवाजे पर खड़े थे और उसके यहाँ माँड पीने की बात कर रहे थे। इतना सुनना था की भोज के लिए आमंत्रित अन्य ब्राह्मणों ने पांडेजी को खान पान की मर्यादाओं का पालन न करने का दोषी मानते हुये उनके साथ भोजन करने का बहिष्कार कर दिया और पांडेजी भोजन करने से वंचित हो गए। इस प्रकार उन्हे न तो माँड पीने मिला और ना ही हलुवा खाने। तभी से यह कहावत चलन में है कि
(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी की समसामयिक विषय पर आधारित एक विशेष लघुकथा “सार्थक”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन । )
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – सार्थक ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆
देश स्वतंत्र हुये 75 वर्ष बीत रहे थे, ऐसे में स्वर्ग में महात्मा गांधी जी को लगा कि चलो, एक बार चल कर मेरे भारत को देख आया जाये। ईश्वर से विशेष अनुमति लेकर बापू एक अत्यंत वृद्ध के वेश में भारत में आये। दो मिनट बाद जब नेत्र खोले तो देखा एक विशालकाय खंभों वाले पुल के नीचे वे खडे हैं। ऊपर अचानक कुछ ध्वनि सुनाई दी तो देखा पांच छह डिबों वाली ट्रामनुमा रेल बड़ी तेजी में निकल गई। उन्होंने देखा इसमें तीसरे दर्जे का डिब्बा तो है ही नहीं, फिर सोचा कि ट्राम है-मतलब मैं कलकत्ता आ गया हूं। धोती लाठी को संभालते हुये आगे बढे कि एक बस उनके बाजू से निकली जिस पर संसद भवन से कनॉट प्लेस लिखा था तो वे एकदम प्रसन्न हो गये अरे, ये तो दिल्ली है। वाह, कितनी बदल गई है मेरी दिल्ली।
गला सूखने लगा तो आसपास नजर दौडाई, सोचा- हमारे जमाने में धर्मार्थ प्याऊ थे उनमें से कोई तो बचा होगा। इधर-उधर खोजा तो एक भी नहीं दिखा, थोड़ी दूर उन्हें एक दुकान से कुछ लोग कांच की बोतलें ले जाते हुये दिखे तो बापू ने सोचा शायद शीतल पेय की दुकान है चलो कुछ मिल जायेगा। पास गये तो देखा वह बीयर की दुकान थी, नीचे पते में लिखा था गांधी रोड दिल्ली। दुखी होकर सूखा गला लेकर लाठी टेकते चल दिये।
धूप और प्यास से थक गये तो सोचा रिक्शा कर लिया जाये, कुछ समय प्रतीक्षा की तो एक रिक्शे वाला आया जिसे रोक कर बापू बोले भैया थोड़ा आसपास घुमा फिरा दो और पहले कहीं ठंडा पानी पिला दो। बूढे़ बाबा को देखकर रिक्शेवाले को भी दया आई बोला- बैठो दादा मैं सब दिखा दूंगा। कहां से आये हो, यूपी से या बिहार से ? अकेले ही इस उमर में निकल पड़े ?
अपनी बोतल से पानी पिला कर रिक्शावाला चल पड़ा। बापू ने भी उत्सुक दृष्टि से आसपास देखना शुरू किया।
थोड़ा चलने के बाद बापू ने उससे पूछा भैया, यहां गांधी की जितनी जगहें हैं वे जरूर दिखाना, रिक्शेवाले ने पूछा – राजीव या श्रीमती इंदिरा गांधी की ? बापू ने कहा- ये कौन हैं, क्या बापू के रिश्तेदार हैं? रिक्शेवाला हंसा और बोला- कौन देहात से हो बाबा, चुपैचाप बैठे रहो मैं सब दिखा दूंगा।
चलते चलते एक विशाल चौराहे पर उनकी मूर्ति के नीचे सफेद टोपीधारी धरने पर बैठे थे, बापू ने सोचा वाह, मेरा सत्याग्रह अभी भी चलता है। धन्य हो भारत ! पास से गुजरे तो देखा सब धरने वाले हंसी ठिठोली कर रहे हैं, सिगरेट चाय, अंडे, समोसे खाये जा रहे हैं। उन्होंने दूसरी ओर दृष्टि कर ली।
बात करने के हिसाब से रिक्शेवाले से पूछा भैया तुम रिक्शा चलाते हो तो कुछ काम धंधा या नौकरी क्यों नहीं करते हो ? उसने बड़े उखडे़ स्वर में कहा क्या करें दादा, कॉलेज पढे़ हैं पर हम आरक्षण वर्ग से नहीं हैं तो हमें कहां काम मिलेगा, खेती बाडी है नहीं तो पेट पालने के लिये रिक्शा खींचते हैं। मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। यह कहावत सुनकर गांधी जी सन्न रह गये। आरक्षण किस बात का है यह उन्हें समझ ही नहीं आया।
चलते चलते एक मैदान में नेता जोर जोर से भाषण दे रहा था उसके स्वर उन तक भी पहुंच रहे थे। वह कह रहा था- हम गांधीजी के अनुयायी हैं, अगर आपने मुझे जिता दिया तो मैं उनके नाम पर बड़ी बड़ी वातानुकूलित बंगलों की कॉलोनी आपके लिये बनवा दूंगा, सबके लिये कैंब्रिज जैसे इंगलिश स्कूल कॉलेज बनवा दूंगा, गांधी इंटरनेशनल मॉल में आपको सारा आयातित सामान मिला करेगा। बापू ने रिक्शेवाले से कहा भैया कहीं और ले चलो।
रिक्शेवाले ने समय बचाने के लिये एक पतली गली में रिक्शा मोड़ दिया उसे देख कर बापू को वे दिन याद आये जब वे ऐसी ही गलियों में लोगों के घर जाते थे। उस गली में घर, दरवाजे, दीवारें सब हरे रंग में रंगे हुये थे, पर वहां उन्हें कहीं भी अपनी कोई मूर्ति आदि नहीं दिखाई दी।
उनका मन खट्टा हो आया। गली पार करते करते रास्ते में भीड़ दिखाई दी, बाजू से रिक्शा निकला तो देखा दो तीन दाढी वाले और धोती कुर्ता पहने युवा मारपीट कर रहे थे। बापू से नहीं रहा गया, रिक्शा रुकवा कर भीड में घुसे और सबको अलग किया। समझाते हुये बोले बेटे झगडे़ मारपीट से कोई हल नहीं निकलता है, दोनों एक दूसरे की बात शांति से मान लो समस्या हल हो जायेगी। एक युवा ने आंखे तरेर कर कहा बूढे़ बाबा ज्यादा गांधीगिरी हमें मत सिखाओ, अब तो समय है एक मारे तोे लौट कर दो मारो, समझे आप! गांधी के जमाने गये, और अब आप भी निकल लो यहां से।
बापू ने लंबी सांस भरी और सोचा इस देश को आजादी दिलाने के लिये हजारों वीरों ने अपना जीवन होम दिया, क्या हमारी आहुति सार्थक हुई ? बहुत भारी मन से रिक्शे वाले से कहा- भैया किसी खाली जगह पर हमें उतार दो, अब हम बहुत थक गये हैं।
रिक्शावाले ने मंद गति से रिक्शा खींचना शुरू किया। दूर क्षितिज में सूर्य अस्त हो रहा था, थोड़ी दूर पर बापू ने देखा कि एक छोटा बच्चा आंखों पर पतली कमानी का चश्मा, सिर पर सफेद टोपी लगाये, अटपटी धोती लपेटे हाथ में लाठी और कागज का तिरंगा लिये नारा लगा रहा था- अंग्रेजों भारत छोडो, भारत माता की जय, महात्मा गांधी की जय। रिक्शेवाले ने कहा दादा, कल दो अक्टूबर है ना तो बच्चे उसकी ही तैयारी कर रहे हैं।
बापू ने मन ही मन कहा नहीं, हमारा त्याग सार्थक हुआ है। आकाश की ओर देख कर प्रभु से प्रार्थना की और अदृश्य हो गये।
आज देश आजादी का पचहत्तरवां अमृत महोत्सव मना रहा है, चारों तरफ उमंग है उत्साह है आजादी के अमृत महोत्सव का शोर है ।इस बिंदु पर देश के हजारों लेखकों बुद्धिजीवियों की कलमें चल रही है।आज एक बार फिर देश की आजादी , हिंदू हिंदी हिंदुस्तान खतरे में के शोर के बीच लगभग अस्सी वर्षिय झुकी कमर पिचके गाल और सगड़ी ठेले पर भरपूर बोझ लादे पसीने तर बतर भीगी शरीर लिए हीरा चच्चा दिखाई पड़े।
जब देश के आजादी की चर्चा चली और वर्तमान समय के विकास और राजनैतिक परिदृश्य और चरित्र पर चर्चा चली तो, कुरेदते ही उनके हृदय में पक रहा फोड़ा वेदनाओं के रूप में फूट कर बह निकला और मुंशी प्रेमचंद जी की कथा सवा सेर गेहूं के कथा नायक शंकरवा आज भी अमृत महोत्सव की पूर्व संध्या पर अपनी यादें लिए खड़ा दिखा था।
उनका ख्याल था कि भले ही देश में गरीबी बेरोजगारी थी लेकिन तब के लोगों में इमान धर्म दोनों था, लेकिन कभी-कभी उन्हीं के बीच नर पिशाच तब भी मिलते थे और आज भी मिलते हैं। चर्चा की पृष्ठभूमि राजनैतिक थी इसलिए मुझे भी उनसे बात करने में भरपूर आनंद आ रहा था लेकिन वहीं पर मेरे भीतर बैठा कहानी कार बीते दिनों की यादों को एक बार फिर अपने शब्दों में समेट लेना चाहता था। हीरा चच्चा को हम सब प्यार से हीरो बुलाते थे जिन्होंने बहुत कुरेदने पर बीते दिनों को याद करते हुए बोल पड़े कि बेटा जब देश गुलाम था, अंग्रेज सरकार अपना राजपाट समेटने के क़रीब थी देश में चारों ओर घोर अशिक्षा गरीबी बदहाली का नग्न तांडव था।
दिन भर मेहनत करने पर भी पेट भरने के लिए भोजन नहीं मिलता था, अब तो भला हो सरकार का कि लाख लूट पाट के बाद भी जीनें खाने के लिए कोटा से राशन मिल ही जाता है। चर्चा करते हुए सहसा उनकी आंखें छलक उठी और बीते दिनों को याद करते हुए उनके हृदय में झुरझुरी सी उठ गई थी। बोल उठे थे बेटा उस जमाने में सूदखोर पारस मिश्रा जी पेशे से प्रा०पाठशाला में अध्यापक थे, जिन्हें भगवान ने जीवन में सब कुछ दिया था रूपया पैसा मान मर्यादा सारा सुख लेकिन औलाद की कमी थी खाने पीने की कोई कमी नहीं, लेकिन स्वभाव से अति कृपण।
वे सूद पर पैसा उधार देते थे। मैंने उस समय उनके ही पोखरी में सिंघाड़े की खेती के लिए सिंघाड़े का बीज खरीदने के लिए ढाई रूपए दो अन्नी ब्याज पर लिया था, मूल का दो रुपया चुका दिया था अब अठन्नी मूल की बाकी रह गई थी, मेरा और उनका पुरोहित और यजमान का रिश्ता था। सो मैं एक तरह से उनकी गुलामी करता, उन्हें जहां भी तगादे पर जाना होता मैं ही उनका सारथी होता उन्हें अपनी सगडी ठेला पर बैठा दिन दिन भर ढोता,कभी कभी तगादे के दौरान दिन दिन भर खाने को कुछ भी नहीं मिलता, न खुद खाते न मुझे खाने देते, उनके मूल की अठ्ठन्नी मैं भूल गया था लेकिन एक दिन उस अठ्ठन्नी की याद दिलाते हुए मेरी पत्नी जगनी ने कहा कि उनका आठ आना देकर अपनी कर्ज मुक्ति का रूक्का(प्रमाणपत्र) लिखवा लें, कि उन्हें याद रहे। लेकिनमैं सोचता था कि जहां मैं मालिक की इतनी जी हजूरी करता हूं तो क्या वे आठ आना माफ नहीं करेगें। लेकिन तब मैं नहीं जानता था कि वह अठ्ठन्नी खाते से खारिज नहीं होने का परिणाम क्या होगा, जिसके बदले दस बरस बाद ब्याज के रुप में मुझे पांच हजार रुपए मुझे उनकी पोखरी पाट कर ब्याज में चुकाना पड़ा था लेकिन उस समय दिन भर मेहनत के बाद कलेवा(नास्ते) के लिए आधा किलो गुड़ रोज मिलता था,अब उनके उपर साठ किलो खांड के रूप में मेरा कलेवा बकाया चढ़ गया था। लेकिन मैं जब भी उनसेअपने कलेवा का तगादा करता तो उपरोहिती यजमानी का हवाला देकर निकल लेते। लेकिन आज मैंने भी ठान लिया था कि आज भले ही मेरा धर्म कर्म छूट जाय लेकिन मैं आज बच्चू से कलेवा वसूल कर के ही रहूंगा।उस दिन मैं सबेरे से ही जा बैठा उनके घर पर उन्होंने मुझे फिर टालने की गरज से कहा कि हिरवा बे धर्म हो जाएगा कलेवा तुझे पचेगा नहीं, और खुद भोजन करने चौके में चले गए थे। और मजबूरी में पूरा दिन बैठाने के बाद कलेवा चुकाते बोल पड़े थे “हिरवा ई खांड़ बहुत बढ़िया है इसमें से बीस किलो मुझे उधार दे दे मैं बाद में तुझे दे दूंगा”, लेकिन मेहनत से वसूले गए कलेवा से मैं कुछ भी देने के लिए तैयार नहीं था और खुद को फंसता हुआ पाया था लेकिन कलेजे पर पत्थर रख कर बीस किलो खांड़ देना ही पड़ा था। लेकिन उस समय मेरी अंतरात्मा से आह निकली “जा महराज तूं कबहूं सुख से ना रहबा” आज पारस महराज तो जीवित नहीं लेकिन उनके घर के खंडहर आज भी उनकी कृपणता की कहानी कहते हैं,मैं आज भी जब उस राह से गुजरता हूं तो मेरे द्वारा पाटी गई पोखरी एक बार फिर उनकी याद दिला जाती है। और वह अठ्ठन्नी नांच उठती है मेरी स्मृतियों में।
लेकिन गरीबों का दिन न तब ही बदला था न आज भी क्षेत्रीय राजनीति आज भी गांव गरीब पात्रता नकदी लेन देन के बाद ही तय होती है और हावी होता है हमारा मतलब। इस प्रकार वे मुझे राजनिति का नया अध्याय ले मेरे सामनेअपने विकास का संकल्प मुठ्ठी में दबाकर वोटर के रूप में खड़ा था।
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादकश्री विजय कुमार जी की एक विचारणीय लघुकथा “इतना बदलाव कैसे?“।)
☆ लघुकथा – इतना बदलाव कैसे? ☆
राजू और दिनेश स्कूटर से कहीं जा रहे थे कि अचानक आगे से एक कार उनके ठीक सामने आ कर रुक गयी। दोनों ने एकदम से ब्रेक न लगाए होते तो अवश्य ही टक्कर हो जाती। राजू ने एक भद्दी-सी गाली निकाली, और गुस्से में स्कूटर से उतरकर कार वाले की तरफ कदम बढ़ाने ही लगा था, कि दिनेश ने उसे रोक दिया, “छोड़ न यार, हो जाता है कभी-कभी। अब सड़क पर चलेंगे तो इतना तो चलता ही रहेगा।”
“यार सीधी टक्कर हो जानी थी अभी। साले के आंखें नहीं हैं क्या? चलानी नहीं आती तो घर से निकलते ही क्यों हैं?” राजू ने फिर एक भद्दी-सी गाली दे दी।
दिनेश ने उसे चुप कराते हुए कहा, “चल रहने दे न, जाने दे। अब इतनी बड़ी गाड़ी को रास्ता भी तो चाहिए होता है उतना। यह तो मोड़ भी ऐसा है कि पता ही नहीं चलता कि आगे से कौन आ रहा है। गलती से हो गया”, दिनेश ने कार वाले को जाने का इशारा करते हुए राजू से कहा, “लिहाज किया कर कार वालों का…।”
राजू हैरानी से दिनेश को देख रहा था, और सोच रहा था, ‘यह वही दिनेश है, जो अगर कोई जरा-सा भी उसको या उसके स्कूटर-मोटरसाइकिल को छू भी जाता था, तो कार वाले से पूरी गाली-गलौच करता था, और मरने-मारने पर उतारू हो जाता था। फिर अब ऐसा क्या हो गया?’
दिनेश ने उसे स्कूटर पर बैठने का इशारा करते हुए कहा, “चल बैठ, समझ गया कि तू क्या सोच रहा है। अब अपने पास भी कार है यार, इसलिए…। थोड़ी इज्जत कर लिया कर कार वालों की, समझा।”
‘तभी मैं कहूं कि इतना बदलाव कैसे?…।’ राजू ने अपना सिर हिला दिया।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #77 – मन का राजा ☆ श्री आशीष कुमार☆
राजा भोज वन में शिकार करने गए लेकिन घूमते हुए अपने सैनिकों से बिछुड़ गए और अकेले पड़ गए। वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे। तभी उनके सामने से एक लकड़हारा सिर पर बोझा उठाए गुजरा। वह अपनी धुन में मस्त था। उसने राजा भोज को देखा पर प्रणाम करना तो दूर, तुरंत मुंह फेरकर जाने लगा।
भोज को उसके व्यवहार पर आश्चर्य हुआ। उन्होंने लकड़हारे को रोककर पूछा, ‘तुम कौन हो?’ लकड़हारे ने कहा, ‘मैं अपने मन का राजा हूं।’ भोज ने पूछा, ‘अगर तुम राजा हो तो तुम्हारी आमदनी भी बहुत होगी। कितना कमाते हो?’ लकड़हारा बोला, ‘मैं छह स्वर्ण मुद्राएं रोज कमाता हूं और आनंद से रहता हूं।’ भोज ने पूछा, ‘तुम इन मुद्राओं को खर्च कैसे करते हो?’ लकड़हारे ने उत्तर दिया, ‘मैं प्रतिदिन एक मुद्रा अपने ऋणदाता को देता हूं। वह हैं मेरे माता पिता। उन्होंने मुझे पाल पोस कर बड़ा किया, मेरे लिए हर कष्ट सहा। दूसरी मुद्रा मैं अपने ग्राहक असामी को देता हूं ,वह हैं मेरे बालक। मैं उन्हें यह ऋण इसलिए देता हूं ताकि मेरे बूढ़े हो जाने पर वह मुझे इसे लौटाएं।
तीसरी मुद्रा मैं अपने मंत्री को देता हूं। भला पत्नी से अच्छा मंत्री कौन हो सकता है, जो राजा को उचित सलाह देता है, सुख दुख का साथी होता है। चौथी मुद्रा मैं खजाने में देता हूं। पांचवीं मुद्रा का उपयोग स्वयं के खाने पीने पर खर्च करता हूं क्योंकि मैं अथक परिश्रम करता हूं। छठी मुद्रा मैं अतिथि सत्कार के लिए सुरक्षित रखता हूं क्योंकि अतिथि कभी भी किसी भी समय आ सकता है। उसका सत्कार करना हमारा परम धर्म है।’ राजा भोज सोचने लगे, ‘मेरे पास तो लाखों मुद्राएं है पर जीवन के आनंद से वंचित हूं।’ लकड़हारा जाने लगा तो बोला, ‘राजन् मैं पहचान गया था कि तुम राजा भोज हो पर मुझे तुमसे क्या सरोकार।’ भोज दंग रह गए।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है परंपरा और वास्तविकता के संघर्ष पर आधारित मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘प्रेम ना जाने कोय’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 84 ☆
☆ लघुकथा – प्रेम ना जाने कोय ☆
शादी के लिए दो साल से कितनी लडकियां दिखा चुकी हूँ पर तुझे कोई पसंद ही नहीं आती। आखिर कैसी लडकी चाहता है तू, बता तो।
मुझे कोई लडकी अच्छी नहीं लगती। मैं क्या करूँ? मैंने आपको कितनी बार कहा है कि मुझे लडकी देखने जाना ही नहीं है पर आप लोग मेरी बात ही नहीं सुनते।
तुझे कोई लडकी पसंद हो तो बता दे, हम उससे कर देंगे तेरी शादी।
नहीं, मुझे कोई लडकी पसंद नहीं है।
अरे! तो क्या लडके से शादी करेगा? माँ ने झुंझलाते हुए कहा।
हाँ – उसने शांत भाव से उत्तर दिया।
क्या??? माँ को झटका लगा, फिर सँभलते हुए बोली – मजाक कर रहा है ना तू?
नहीं, मैं सच कह रहा हूँ। मैं विकास से प्रेम करता हूँ और उसी से शादी करूंगा।
माँ चक्कर खाकर गिरने को ही थी कि पिता जी ने पकड लिया।
क्यों परेशान कर रहा है माँ को – पिता ने डाँटा।
माँ रोती हुई बोली – कब से सपने देख रही थी कि सुंदर सी बहू आएगी घर में, वंश बढेगा अपना और इसे देखो कैसी ऊल जलूल बातें कर रहा है। पागल हो गया है क्या? लडका होकर तू लडके से प्यार कैसे कर सकता है? उससे शादी कैसे कर सकता है? बोलते – बोलते वह सिर पकडकर बैठ गई।
क्यों नहीं कर सकता माँ? लडका इंसान नहीं है क्या? और प्यार शरीर से थोडे ही होता है। वह तो मन का भाव है, भावना है। किसी से भी हो सकता है।
माँ हकबकाई सी बेटे को देख रही थी। उसकी बातें माँ के पल्ले ही नहीं पड रही थीं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी “मोना जाग गई”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 104 ☆
☆ कहानी – मोना जाग गई ☆
मोना चकित थी। जिस सुंदर पक्षी को उसने देखा था वह बोल भी रहा था। एक पक्षी को मानव की भाषा बोलता देखकर मोना बहुत खुश हो गई।
उसी पक्षी ने मोना को सुबह-सवेरे यही कहा था,
“चिड़िया चहक उठी
उठ जाओ मोना।
चलो सैर को तुम
समय व्यर्थ ना खोना।।”
यह सुनकर मोना उठ बैठी। पक्षी ने अपने नीले-नीले पंख आपस में जोड़ दिए। मोना अपने को रोक न सकी। इसी के साथ वह हाथ जोड़ते हुए बोली, “नमस्ते।”
पक्षी ने भी अपने अंदाज में ‘नमस्ते’ कहा। फिर बोला,
“मंजन कर लो
कुल्ला कर लो।
जूता पहन के
उत्साह धर लो।।”
यह सुनकर मोना झटपट उठी। ब्रश लिया। मंजन किया। झट से कपड़े व जूते पहने। तब तक पक्षी उड़ता हुआ उसके आगे-आगे चलने लगा।
मोना का उत्साह जाग गया था। उसे एक अच्छा मित्र मिल गया था। वह झट से उसके पीछे चलने लगी। तभी पक्षी ने कहा,
“मेरे संग तुम दौडों
बिल्कुल धीरे सोना।
जा रहे वे दादाजी
जा रही है मोना।।”
“ओह! ये भी हमारे साथ सैर को जा रहे हैं,” मोना ने चाहते हुए कहा। फिर इधर-उधर देखा। कई लोग सैर को जा रहे थे। गाय जंगल चरने जा रही थी।
पक्षी आकाश में कलरव कर रहे थे। पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी थी। पहाड़ों के सुंदर दिख रहे थे। तभी पक्षी ने कहा,
“सुबह-सवेरे की
इनसे करो नमस्ते।
प्रसन्नचित हो ये
आशीष देंगे हंसते।।”
यह सुनते ही मोना जोर से बोल पड़ी, “नमस्ते दादा जी!”
तभी उधर से भी आवाज आई, “नमस्ते मोना! सदा खुश रहो।”
यह सुनकर मोना चौंक उठी। उसने आंखें मल कर देखा। वह बिस्तर पर थी। सामने दादा जी खड़े थे। वे मुस्कुरा रहे थे, “हमारी मोना जाग गई!”
“हां दादा जी,” कहते हुए मोना झट से बिस्तर से उठी, “दादा जी, मैं भी आपके साथ सैर को चलूंगी,” कह कर वह मंजन करके तैयार होने लगी।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
गणतंत्र दिवस की मंगलकामनाएँ ? ??
एक उत्तर भारतीय लोकगीत में होली-दीपावली के साथ स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस का उल्लेख देखा तो श्रद्धावनत हो उठा। अशिक्षित पर दीक्षित महिलाओं द्वारा राष्ट्रीय पर्वों को लोकजीवन में सम्मिलित कर लेना ही वास्तविक गणतंत्र है।
क्या अच्छा हो कि राष्ट्रीय पर्वों पर सांस्कृतिक त्यौहारों की तरह घर-घर रंगोली सजे, मिष्ठान बनें और परिवार सामूहिक रूप से देश की गौरवगाथा सुने।
अवसर है कि हम आज से ही इसका आरंभ करें।
वंदे मातरम्।
– संजय भारद्वाज
संजय दृष्टि –लघुकथा – तीन
तीनों मित्र थे। तीनों की अपने-अपने क्षेत्र में अलग पहचान थी। तीनों को अपने पूर्वजों से ‘बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न कहो’ का मंत्र घुट्टी में मिला था। तीनों एक तिराहे पर मिले। तीनों उम्र के जोश में थे। तीनों ने तीन बार अपने पूर्वजों की खिल्ली उड़ाई। तीनों तीन अलग-अलग दिशाओं में निकले।
पहले ने बुरा देखा। देखा हुआ धीरे-धीरे आँखों के भीतर से होता हुआ कानों तक पहुँचा। दृश्य शब्द बना, आँखों देखा बुरा कानों में लगातार गूँजने लगा। आखिर कब तक रुकता! एक दिन क्रोध में कलुष मुँह से झरने ही लगा।
दूसरे ने भी मंत्र को दरकिनार किया, बुरा सुना। सुने गये शब्दों की अपनी सत्ता थी। सत्ता विस्तार की भूखी होती है। इस भूख ने शब्द को दृश्य में बदला। जो विद्रूप सुना, वह वीभत्स होकर दिखने लगा। देखा-सुना कब तक भीतर टिकता? सारा विद्रूप जिह्वा पर आकर बरसने लगा।
तीसरे ने बुरा कहा। अगली बार फिर कहा। बुरा कहने का वह आदी हो चला। संगत भी ऐसी ही बनी कि लगातार बुरा ही सुना। ज़बान और कान ने मिलकर आँखों पर से लाज का परदा ही खींच लिया। वह बुरा देखने भी लगा।
तीनों राहें एक अंधे मोड़ पर मिलीं। तीनों राही अंधे मोड़ पर मिले। यह मोड़ खाई पर जाकर ख़त्म हो जाता था। अपनी-अपनी पहचान खो चुके तीनों खाई की ओर साथ चल पड़े।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆