(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #75 – अपनी पड़ताल स्वयं करे☆ श्री आशीष कुमार☆
“दूसरों की आलोचना करने वालों को इस घटना को भी स्मरण रखना चाहिए।”
एक व्यक्ति के बारे में मशहूर हो गया कि उसका चेहरा बहुत मनहूस है। लोगों ने उसके मनहूस होने की शिकायत राजा से की। राजा ने लोगों की इस धारणा पर विश्वास नहीं किया, लेकिन इस बात की जाँच खुद करने का फैसला किया। राजा ने उस व्यक्ति को बुला कर अपने महल में रखा और एक सुबह स्वयं उसका मुख देखने पहुँचा। संयोग से व्यस्तता के कारण उस दिन राजा भोजन नहीं कर सका। वह इस नतीजे पर पहुंचा कि उस व्यक्ति का चेहरा सचमुच मनहूस है। उसने जल्लाद को बुलाकर उस व्यक्ति को मृत्युदंड देने का हुक्म सुना दिया।
जब मंत्री ने राजा का यह हुक्म सुना तो उसने पूछा,”महाराज! इस निर्दोष को क्यों मृत्युदंड दे रहे हैं? राजा ने कहा,”हे मंत्री! यह व्यक्ति वास्तव में मनहूस है। आज सर्वप्रथम मैंने इसका मुख देखा तो मुझे दिन भर भोजन भी नसीब नहीं हुआ। इस पर मंत्री ने कहा,”महाराज क्षमा करें, प्रातः इस व्यक्ति ने भी सर्वप्रथम आपका मुख देखा। आपको तो भोजन नहीं मिला, लेकिन आपके मुखदर्शन से तो इसे मृत्युदंड मिल रहा है।
अब आप स्वयं निर्णय करें कि कौन अधिक मनहूस है। “राजा भौंचक्का रह गया। उसने इस दृष्टि से तो सोचा ही नहीं था। राजा को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर मंत्री ने कहा, “राजन्! किसी भी व्यक्ति का चेहरा मनहूस नहीं होता। वह तो भगवान की देन है। मनहूसियत हमारे देखने या सोचने के ढंग में होती है।
आप कृपा कर इस व्यक्ति को मुक्त कर दें। राजा ने उसे मुक्त कर दिया। उसे सही सलाह मिली।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है वृद्धावस्था पर आधारित मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘धूल छंट गई’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 82 ☆
☆ लघुकथा – धूल छंट गई ☆
दादा जी! – दादा जी! आपकी छत पर पतंग आई है, दे दो ना !
दादा जी छत पर ही टहल रहे थे उन्होंने जल्दी से पतंग उठाई और रख ली ।
हाँ यही है मेरी पतंग, दादा जी! दे दो ना प्लीज– वह मानों मिन्नतें करता हुआ बोला। लड़के की तेज नजर चारों तरफ मुआयना भी करती जा रही थी कि कहीं कोई और दावेदार ना आ जाए इस पतंग का।
वे गुस्से से बोले — संक्रांति आते ही तुम लोग चैन नहीं लेने देते हो । अभी और कोई आकर कहेगा कि यह मेरी पतंग है, फिर वही झगड़ा। यही काम बचा है क्या मेरे पास ? पतंग उठा – उठाकर देता रहूँ तुम्हें? नहीं दूंगा पतंग, जाओ यहाँ से। बोलते – बोलते ध्यान आया कि अकेले घर में और काम हैं भी कहाँ उनके पास? जब तक बच्चे थे घर में खूब रौनक रहा करती थी संक्रांति के दिन। सब मिलकर पतंग उड़ाते थे, खूब मस्ती होती थी। बच्चे विदेश चले गए और —
दादा जी फिर पतंग नहीं देंगे आप – उसने मायूसी से पूछा। कुछ उत्तर ना पाकर वह बड़बड़ाता हुआ वापस जाने लगा – पता नहीं क्या करेंगे पतंग का, कभी किसी की पतंग नहीं देते, आज क्यों देंगे —
तभी उनका ध्यान टूटा — अरे बच्चे ! सुन ना, इधर आ दादा जी ने आवाज लगाई — मेरे पास और बहुत सी पतंगें हैं, तुझे चाहिए?
हाँ आँ — वह अचकचाते हुए बोला।
तिल के लड्डू भी मिलेंगे पर मेरे साथ यहीं छ्त पर आकर पतंग उड़ानी पड़ेंगी – दादा जी ने हँसते हुए कहा ।
लड़के की आँखें चमक उठीं, जल्दी से बोला — दादा जी! मैं अपने दोस्तों को भी लेकर आता हूँ, बस्स – यूँ गया, यूँ आया। वह दौड़ पड़ा।
दादा जी मन ही मन मुस्कुराते हुए बरसों से इकठ्ठी की हुई ढेरों पतंग और लटाई पर से धूल साफ कर रहे थे।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “विकल्प”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 102 ☆
☆ लघुकथा — विकल्प ☆
जैसे ही वाह-वाह करके भीड़ छटी मित्र ने पूछा,” तुझे यह विचार कहां से आया?”
“इन लोगों को अनाप-शनाप पैसा खर्च करते हुए देखकर।”
“कब?” मित्र ने पूछा।
“5 साल पहले,” उस मध्यस्थ ने कहा, “उस समय भी उनके मोहल्ले की सड़क नहीं सुधरी थी और आज भी वैसी की वैसी हैं।”
“अच्छा!”
“हां,” मध्यस्थ बोला, “उसी के सुधार के लिए वे पंच पद पर चुनाव लड़ना चाहते थे।”
“और तूने सभी को बैठाकर समझौता करवा दिया।”
“हां,” मध्यस्थ बोला, “जिस पैसे से वे चुनाव लड़ना चाहते थे उसी पैसे को अब वे यहां खर्च करके गली की सड़क बनवा देंगे।”
“इससे तुझे क्या फायदा मिला?” मित्र ने पूछा तो मध्यस्थ बोला,”मैंने अपने टैक्स के लाखों रुपए बर्बाद होने से बचा लिए।”
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – निश्चय
उसे ऊँची कूद में भाग लेना था पर परिस्थितियों ने लम्बी छलांग की कतार में लगा दिया। लम्बी छलांग का इच्छुक भाला फेंक रहा था। भालाफेंक को जीवन माननेवाला सौ मीटर की दौड़ में हिस्सा ले रहा था। सौ मीटर का धावक, तीरंदाजी में हाथ आजमा रहा था। आँखों में तीरंदाजी के स्वप्न संजोने वाला तैराकी में उतरा हुआ था। तैरने में मछली-सा निपुण मैराथन दौड़ रहा था।
जीवन के ओलिम्पिक में खिलाड़ियों की भरमार है पर उत्कर्ष तक पहुँचने वालों की संख्या नगण्य है। मैदान यहीं, खेल यहीं, खिलाड़ी यहीं दर्शक यहीं पर मैदान मानो निष्प्राण है।
एकाएक मैराथन वाला सारे बंधन तोड़कर तैरने लगा। तैराक की आँंख में अर्जुन उतर आया, तीर साधने लगा। तीरंदाज के पैर हवा से बातें करने लगे। धावक अब तक जितना दौड़ा नहीं था उससे अधिक दूरी तक भाला फेंकने लगा। भालाफेंक का मारा भाला को पटक कर लम्बी छलांग लगाने लगा। लम्बी छलांग वाला बुलंद हौसले से ऊँचा और ऊँचा, बहुत ऊँचा कूदने लगा।
दर्शकों के उत्साह से मैदान गुंजायमान हो उठा। उदासीनता की जगह उत्साह का सागर उमड़ने लगा। वही मैदान, वही खेल, वे ही दर्शक पर खिलाड़ी क्या बदले, मैदान में प्राण लौट आए।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– असहमत आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ असहमत…! भाग – 14 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
आज बहुत दिनों के बाद असहमत की फिर से तफरीह करने की इच्छा हुई तो उसने विजयनगर या संजीवनी नगर की ओर जाने का प्लान बनाया. पर उसके प्लान में बनने वाले फ्लाई ओवर ने उसे गड्ढों की गहराई मेंं उतार दिया. जबलपुर वालों को दिये जाने वले झुनझुनों में ये भी एक है जिसके आभासी वीडियो देख देख कर लोगों के सीने 36″ से 63″ हो गये और उन्होंने वाट्सएप पर जबलपुर के मूल निवासियों को “Dream project of dream city ” के टाइटल से भेजना शुरु कर दिया. ये संदेश भोपाल, इंदौर, भिलाई, रायपुर, पुणे, मुंबई, जयपुर, दिल्ली जब पहुंचे तो पाने वालों की पहले तो नज़र लाला रामस्वरुप के 70-71-72 वाले कैलेंडर पर गई (लोग कहीं भी रहें पर प्राय: ये केलेंडर तो उनके घर में मिल ही जाता है जो रोज याद दिलाता रहता है कि जबलपुर की पहचान रूपी ये केलेंडर अभी भी बेस्ट है) पर वहां अप्रैल नहीं जुलाई चल रहा था. भेजने वाले को तुरंत ब्लाक करने की लिखित चेतावनी दी गई. इसके पहले भी किसी वाट्सएप ग्रुप के जन्मदिन की शानदार पार्टी के फर्जी निमंत्रण भेजे गये थे. पर चूंकि पार्टी का वेन्यू गुप्त था और निमंत्रण में आने जाने रुकने तथा स्टार्टर पेय पदार्थों का कहीं कोई जिक्र नहीं था तो “delete for all” के जरिये ये मैसेज़ भी वीरगति को प्राप्त हुआ.
तो फ्लाई ओवर के सपनों रूपी जर्जर रास्तों को छोड़कर असहमत शार्टकट पकड़ने के चक्कर में विजयनगर और संजीवनी नगर के बदले जानकीनगर पहुंच गया. वहां कुछ भूतपूर्व बैंकर पर वर्तमान में भी अलसेट देने में सक्षम स*ज्जनों ने असहमत को पकड़ ही लिया. सवाल जवाब का सिलसिला शुरु हो गया.
“बहुत हीरो बनते हो, ग्रुप का भी क्या बर्थडे मनाया जाता है. ये कैसा जन्मदिन है, न बर्थडे केक, न पार्टी.
असहमत : सब वर्चुअल है, आभासी, रियल कुछ नहीं है. पार्टी नही है तो गिफ्ट भी नहीं है. ये सब हवाई किले हैं जो सोशल मीडिया पर चलते हैं. कोरोना लॉकडाउन पार्ट वन में भी तो लोगों ने बहुत सारी रेसेपी शेयर कर डाली जो कभी रियल लाईफ में नहीं बनी. जब सब कुछ बंद था और लोग सोचसमझ कर मितव्ययता से खर्च कर रहे थे तो ये सब कौन बना सकता था.
एक सज्जन को पुराना जमाना याद आ गया जब अखबार और पैट्रोल का खर्च बैंक बिल के आधार पर देती थी. तो reimbursement के लिये The Economic Times के बिल, उसकी मुद्रित प्रतियों से भी ज्यादा नंबर के बन जाते थे. पता चला कि शहर में तो मुश्किल से 50 कॉपी आती थीं और 100 लोग बिल के बेस पर क्लेम करते थे. कभी कभी डी.ए.नहीं बढ़ता था पर पैट्रोल के रेट बढ़ जाने से बजट संतुलित रहता था. मैन्युअल बैंकिंग के जमाने में जब स्टाफ का लेजर अलग होता था तो लेज़र का ग्रैंड टोटल कभी भी ग्रैंड नहीं होता था. जिनकी OD limit होती तो नीली स्याही में बेलैंस सिर्फ सपनों में आता था. सुना जरूर गया कि किसी जमाने में ओवरटाईम सबसे बेहतर टाईम हुआ करता था और बोनस किसी डिटरजेंट टिकिया का नाम नहीं होता था बल्कि हर साल परिवार के सदस्यों द्वारा देखा जाने वाला वो सपना था, जो चमकते दमकते फ्लाई ओवर जैसा ही आभासी हुआ करता था. टेक्नालाजी न तो साइंस है न इंजीनियरिंग, ये हमारे पास वह होने या पाने का आभास देती है जो हमें वर्तमान की कड़वाहट को गुड़ की आभासी चाय से कुछ पलों के लिये दूर कर देती है. यही तो जिंदगी है जब सपनों में पाने का सुख, हकीकत में न होने के दुख पर भारी पड़ता है और हम कोई गालिब तो है नहीं जो ये कह दें कि “हमको मालुम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल को बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है.”
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।
☆ कथा-कहानी #91 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 2- बिजूका ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
जगन मोहन पांडे बिजुरी से अपने मुख्यालय उमरिया आ तो गए पर दिन रात उन्हें जंगल में खेती किसानी करते आदिवासी दिखते। कभी कभी वे सोचते कि आदिवासियों को जबरन सलाह देकर वे ‘दार भात में मूसर चंद’ तो नहीं बन रहे हैं। अगले पल उन्हें लगता ‘बदरिया ऊनी है तो बरसें जरूर।‘ वे सोचते जिस प्रकार आसमान में उमड़ने वाले बादल जलवृष्टि करते हैं उसी प्रकार दिमाग में आया विचार अवश्य ही कोई उपाय सुझाएगा। दिन और रात बीतते बीतते शुक्रवार आ गया। उस रात पांडे जी सोते सोते अचानक जाग उठे और आर्कमिडीज की तर्ज पर यूरेका यूरेका चिल्ला उठे । हुआ यों कि रात के सपने में उन्हें अपने गाँव के कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार दिखाई दिए। वे दोनों पोला केवट के पास सन की रस्सी खरीदने जा रहे थे। मोल भाव में पोला केवट से हुई तकरार वाणी में थोड़ी हिंसक हुई ही थी कि पांडे जी की नींद खुल गई और उन्हें कलुआ बसोर के बनाए बिजूका से खेतों की रखवाली करते किसान याद आ गए। बस क्या था , शनिवार रविवार के अवकाश का पांडेजी ने फायदा उठाया और चल दिए हटा के निकट अपने गाँव झामर जहां जाकर उन्होंने सबसे पहले कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार को अपनी बखरी में बुलवाया। दोनों ने बखरी के बाहर लगे नीम के पेड़ के नीचे अपने जूते उतारे और फिर दहलान में बाहर खड़े होकर जोर से ‘पाएं लागी महराज’ कहकर अपने आगमन की सूचना पांडे जी को दे दी । पांडेजी अकड़ते हुए बाहर आए और नीचे जमीन में पैर सिकोड़ कर बैठे रमुआ और कलुआ ‘सुखी रहा’ का आर्शीवाद दिया और समाने चारपाई पर पसर गए। बचपन से ही अपने दद्दा को इन लोगों से बेगार कराते देखने वाले पांडेजी को उन्हें पटाकर अपना काम निकलवाने की कला आती थी। उन्होंने दोनों से कहा कि वे उनके साथ उमरिया चलें और पंद्रह दिन वहाँ रहकर आदिवासी युवाओं को बिजूका बनाने की कला सिखाने को कहा । पांडे जी का यह आमंत्रण दोनों ने एकसुर में यह कहते हुए खारिज कर दिया कि बिजूका बनाना कौन कठिन है । पांडेजी भी कहाँ हार मानने वाले थे झट बोले ‘जीकी बंदरिया ओई से नाचत है, अरे तुम लोग तो बिजूका बनाने की कला में माहिर हो, देखते नहीं जिस खेत में तुम्हारे बनाए बिजूका खड़े रहते हैं वहाँ पंछी तो छोड़दो चींटी भी फसल की बर्बादी नहीं करती।‘ इस ठकुरसुहाती का भी कोई असर दोनों पर जब नहीं हुआ तो पांडे जी ने आखरी दांव चला मजदूरी का, बोले की दोनों को सरकारी रेट से भी ज्यादा मजदूरी बैंक से दिलवाएंगे और ठहरने की सुविधा भी । यह दांव चल निकला और दोनों पांडेजी के साथ उमरिया जाने के लिए तैयार हो गए। पांडे जी ने भी दोनों से बिजूका बनाने की सामग्री और कीमत के बारे में जानकारी ली और उचित समय पर उन्हें उमरिया ले जाने का आश्वासन दिया ।
बिजूका बनाने की कला सिखाने का प्रशिक्षण शुरू करवाने के पहले पांडेजी को अपने मुख्यालय से अनुमति लेना आवश्यक था । उन्होंने एक प्रस्ताव बनाकर मुख्यालय भिजवा दिया । प्रस्ताव भेजे कोई दस दिन हुए ही थे कि हेड आफिस से फोन आ गया । सामने सहायक महाप्रबंधक लाइन पर थे। उन्होंने पांडेजी के मधुर वाणी में किए गए नमस्कार का तो कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया उलटे जोर से हड़का दिया । ‘ तुम्हारा दिमाग खराब है पांडे जो ऐसे बचकाने प्रपोजल हेड आफिस भेजते हो।‘
पांडे जी ने अनजान बनते हुए कहा कि ‘ सर कौन से प्रस्ताव की बात कर रहे हैं । ‘
उधर से जवाब आया ‘ अरे वही बिजूका के प्रशिक्षण का प्रस्ताव, मैंने सर्किल मेनेजमेंट कमेटी के सामने तुम्हारा प्रस्ताव रखा था। उसने तूफान मचा दिया सब लोग मेरे ऊपर चिल्ला पड़े ऐसे बेहूदा प्रस्ताव प्रस्तुत कर के हमारा समय क्यों बर्बाद कर रहे हो । ‘
खैर पांडेजी साहबों को भी पटाने में माहिर थे । उन्होंने तीन बार सारी कहा और धीमे से बोले ‘बादर देख कें पोतला नई फ़ोरो जात साहब। ‘
साहब को भी यह बुन्देलखंडी कहावत समझ में ना आती देख पांडे जी ने अर्ज किया कि हूजूर फल की आशा में कर्म नहीं छोड़ा जाता, मैं इसी आधार पर एक बार हेड आफिस आकर सर्किल मेनेजमेंट कमेटी के सामने इस प्रस्ताव की चर्चा करना चाहता हूँ ।‘
थोड़ी आनाकानी के बाद निर्णय पांडे जी के पक्ष में इस शर्त के साथ हुआ कि बड़े साहब से मिलवाने की जिम्मेदारी तो सहायक महाप्रबंधक की होगी पर प्रस्ताव का प्रस्तुतीकरण पांडेजी को ही करना पड़ेगा और साहब की डांट भी उन्हें ही झेलनी पड़ेगी । फोन रखते रखते पांडेजी को यह भी बता दिया गया कि बड़े साहब बहुत गुस्सैल हैं और जरा जरा सी गलतियों पर गालियां देना , फ़ाइल मुँह पर फेंक देना बहुत ही सामान्य घटनाएं हैं ।
पथरीले , दर्पीले बुंदेलखंड के वासी पांडे जी के स्वभाव को सुनार नदी के पानी ने गर्वीला बना दिया था। वे किसी भी आसन्न संकट से निपटना जानते थे । पांडे जी अगले सप्ताह भोपाल गए और बड़े साहब के सामने फ़ाइल लेकर हाजिर हो गए ।पांडेजी के भाग्य से उस दिन बड़े साहब का मूड अच्छा था। शुरुआती अभिवादन के बाद उन्होंने पांडेजी से पूरा प्रस्ताव प्रस्तुत करने को कहा , एक दो सवाल पूछे और फिर उनके गाँव में बिजूका बनाने वालों को मिलने वाली मजदूरी के बारे में जानकारी मांगी ।
पांडे जी ने छूटते ही जवाब दिया सर मजदूरी तो अनाज के रूप में फसल आने पर मिलती है और बिजूका खरीदने वाला किसान कलुआ बसोर और रमुआ कुम्हार को एक एक पैला गेंहू देता है ।
बड़े साहब को जब पैला समझ में ना आया तो पांडेजी ने बताया कि ‘पाँच किलो बराबर एक पैला।‘
साहब पाँच किलो की मजदूरी सुनकर गुस्सा गए और कड़कते हुए बोले ‘व्हाट नानसेन्स पाँच किलो गेंहू भी कोई मजदूरी हुई।‘
पांडेजी समझ चुके थे कि उनकी दाल बस गलने ही वाली है इसलिए धीरे से बोले ‘सर सरकार भी तो गरीबों को पाँच किलो गेंहू हर महीना देती है । ‘
पांडे जी के इस जवाब से बड़े साहब खुश हो गए , सहायक महाप्रबंधक को उन्होंने रिवाइज्ड प्रपोजल पांडेजी की सूचनाओं के आधार पर बनाने को कहा और साथ ही इस नवोन्मेष प्रस्ताव को भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय को भेजने का भी निर्देश दिया।
पांडेजी ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों की पूरी बातें तो ध्यान से नहीं सुनी बस गो अहेड मिस्टर पांडे की प्रतिध्वनि उनके कान में बारम्बार गूँजती रही ।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “अधिकार”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 109 ☆
लघुकथा – अधिकार
एक छोटे से गांव में अखबार से लेकर तालाब, मंदिर और सभी जगहों पर चर्चा का विषय था कि कमला का बेटा गांव का पटवारी बन गया है।
कमला ने अपने बेटे का नाम बाबू रखा था। कमला का बचपन में बाल विवाह एक मंदबुद्धि आदमी से करा दिया गया था। दसवीं पास कमला पहले ही दिन पति की पागलपन का शिकार हो गई और फिर मायके आने पर घर वालों ने भी अपनाने से इंकार कर दिया। पड़ोस में अच्छे संबंध होने के कारण उसने अपनी सहेली के घर शरण ली।
फिर आंगनबाड़ी में आया के रूप में काम करने लगी। अपना छोटा सा किराए का मकान ले रहने लगी।
कहते हैं अकेली महिला के लिए समाज का पुरुष वर्ग ही दुश्मन हो जाता है। गांव के ही एक पढे-लिखे स्कूल अध्यापक ने सोचा मैं इसको रख लेता हूं। इसका तो कोई नहीं है मेरी तीन लड़कियां है। उसका खर्चा पानी इसके खर्च से आराम से चलेगा और पत्नी को भी पता नहीं चलेगा।
गुपचुप आने जाने लगा। कमला मन की भोली अपनी तनख्वाह पाते ही उसे दे देती थी। सोचती कि मेरा कोई तो है जो सहारा बन रहा है।
धीरे-धीरे गांव में बात फैलने लगी मजबूरी में दोनों को शादी करनी पड़ी। एक वर्ष बाद कमला को पुत्र की प्राप्ति हुई, परंतु उसके दुख का पहाड़ तो टूट पड़ा। बच्चा जब साल भर का हुआ तब उसे शाम ढलते ही दिखाई नहीं देता था।
कमला ने सोचा मेरे तो भाग्य ही फूटे हैं। आदमी अब तो दूरी बनाने लगा कि खर्चा पानी इलाज करवाना पड़ेगा।
धीरे-धीरे दोनों अलग हो होने लगे वह फिर अपने परिवार के पास चला गया। रह गई कमला अकेले अपने बाबू को लेकर। समय पंख लगा कर उड़ा जैसे तैसे दूसरों की मदद से पढ़ाई कर बाबू बी.काम. पास हुआ।
तलाक हो चुका था, कमला और अध्यापक का। पटवारी फार्म भरने के समय वह चुपचाप पिताजी के नाम और माता जी के नाम दोनों जगह कमला लिखा था। हाथ में पटवारी की नियुक्ति का कागज ले जब वह घर जा रहा था। रास्ते में पिताजी ने सोचा शायद बेटा माफ कर देगा, परंतु बाबू ने पिताजी की तरफ देख कर गांव वालों के सामने कहा…. मरे हुए इंसान का अधिकार खत्म हो जाता है। अपने लिए मरा शब्द और अधिकार बाबू के मुंह से, सुनकर कलेजा मुंह को आ गया।
आरती की थाल लिए कमला कभी अपने बाबू को और कभी उसके नियुक्ति पत्र में लिखें शब्दों को देख रही थीं । अश्रुं की धार बहने लगी सीने से लगा बाबू को प्यार से आशीर्वाद की झड़ी लगा दी। पूरे अधिकार से स्वागत करते हुए कमला खुश हो गई।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘मजबूरी…!’ )
☆ संस्मरण # 120 ☆ मजबूरी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
गाँव में मास्साब ट्रांसफर होकर आए हैं, शहर से। गाँव में ट्रांसफर होने से आदमी चिड़चिड़ा हो जाता है। मास्साब कक्षा में आकर मेज में छड़ी पटकते हैं। छकौड़ी प्रतिदिन देर से आता है, इसलिए दो छड़ी पिछवाड़े और दो छड़ी हथेली पर खाने की उसकी आदत हो गई है। सख्त अध्यापक किसी विद्यार्थी का देरी से आना बर्दाश्त नहीं कर सकता, ऐसे नालायक विद्यार्थियों से उसे चिढ़ होती है। मजबूरी में छकौड़ी छड़ी की चोट से तड़पता रहा, सहता रहा और ईमानदारी से पढ़ता रहा।
एक दिन मास्साब छकौड़ी के घर का पता पूछते पूछते उसके घर पहुंचे और यह जानकर स्तब्ध रह गए कि छकौड़ी के माता-पिता का कोरोना से निधन हो गया था और छकौड़ी अपनी बहन को रोज समय पर स्कूल छोड़ने जाता है और इसी कारण से वह अपने स्कूल पहुँचने में लेट हो जाता है।
अचानक मास्साब की आंखें नम हो गईं, उन्होंने छकौड़ी को गले लगाते हुए कहा- तुम जैसा लायक और होनहार विद्यार्थी पाकर मुझे गर्व है……
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा कहानी ☆ दो लघुकथाएं – [1] चेहरा [2] संस्कृति ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
[1]
चेहरा
देखा जाए तो बात कुछ भी नहीं । देखा जाए तो बात विश्वास की है । वे एक अधिकारी थे और मेरे ही किसी काम से घर आमंत्रित थे । छोटा सा काम था । उन्होंने करने में उदारता दिखाई । मैंने हार्दिक धन्यवाद कर चाय पेश की । नमकीन फांकते फांकते यों ही ध्यान आया कि चलो, आगे संपर्क जोड़े रखने के लिए मोबाइल नम्बर ही ले लूं ।
जवाब में बोले- मैं यह बीमारी नहीं पालता । कौन हर समय अधिकारियों की पकड़ में रहे। अब देखो न, यहां बैठे आराम से चाय की चुस्कियों के बीच मोबाइल की घंटी बज उठे तो सारा मजा,,,,,
इतना कहने की देर थी कि कोट की जेब में छिपाए उनके मोबाइल की घंटी बज उठी । उनका चेहरा देखने लायक था । पर वे अपना चेहरा छिपाना चाहते थे ।
[2]
संस्कृति
-बेटा , आजकल तेरे लिए बहुत फोन आते हैं ।
– येस मम्मा ।
-सबके सब छोरियों के होते हैं । कोई संकोच भी नहीं करतीं । साफ कहती हैं कि हम उसकी फ्रेंड्स बोल रही हैं ।
– येस मम्मा । यही तो कमाल है तेरे बेटे का ।
-क्या कमाल ? कैसा कमाल ?
– छोरियां फोन करती हैं । काॅलेज में धूम हैं धूम तेरे बेटे की ।
– किस बात की ?
– इसी बात की । तुम्हें अपने बेटे पर गर्व नहीं होता।
– बेटे । मैं तो यह सोचकर परेशान हूं कि कल कहीं तेरी बहन के नाम भी उसके फ्रेंड्स के फोन आने लगे गये तो ,,,?
– हमारी बहन ऐसी वैसी नहीं हैं । उसे कोई फोन करके तो देखे ?
– तो फिर तुम किस तरह कानों पर फोन लगाए देर तक बातें करते रहते हो छोरियों से ?
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #74 – दु:ख, पाप और कर्म☆ श्री आशीष कुमार☆
दु:ख भुगतना ही, कर्म का कटना है. हमारे कर्म काटने के लिए ही हमको दु:ख दिये जाते है. दु:ख का कारण तो हमारे अपने ही कर्म है, जिनको हमें भुगतना ही है। यदि दु:ख नही आयेगें तो कर्म कैसे कटेंगे?
एक छोटे बच्चे को उसकी माता साबुन से मलमल के नहलाती है जिससे बच्चा रोता है. परंतु उस माता को, उसके रोने की, कुछ भी परवाह नही है, जब तक उसके शरीर पर मैल दिखता है, तब तक उसी तरह से नहलाना जारी रखती है और जब मैल निकल जाता है तब ही मलना, रगड़ना बंद करती है।
वह उसका मैल निकालने के लिए ही उसे मलती, रगड़ती है, कुछ द्वेषभाव से नहीं. माँ उसको दु:ख देने के अभिप्राय से नहीं रगड़ती, परंतु बच्चा इस बात को समझता नहीं इसलिए इससे रोता है।
इसी तरह हमको दु:ख देने से परमेश्वर को कोई लाभ नहीं है. परंतु हमारे पूर्वजन्मों के कर्म काटने के लिए, हमको पापों से बचाने के लिए और जगत का मिथ्यापन बताने के लिए वह हमको दु:ख देता है।
अर्थात् जब तक हमारे पाप नहीं धुल जाते, तब तक हमारे रोने चिल्लाने पर भी परमेश्वर हमको नहीं छोड़ता ।
इसलिए दु:ख से निराश न होकर, हमें परमेश्वर से मिलने के बारे मे विचार करना चाहिए और भजन सुमिरन का ध्यान करना चाहिए..!!