हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 88 – लघुकथा – फासले ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण लघुकथा  “फासले।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 88

☆ लघुकथा — फासले ☆ 

जय की शादी में मंच पर उस के पिता नहीं आए तो नवविवाहिता अपने को रोक नहीं पाई. अपने पति से पूछ बैठी, “ पापा जी !”

“मंच पर नहीं आएँगे,” जय की आँखों में आंसू आ गए, “ मैं भी चाहता हूँ कि वे यहाँ नहीं आएं.”

पत्नी की निगाहों में प्रश्न था. पति ने धीरे से कहा,“ उन्हें मेरी माँ ने ऐसे ही एक मंच पर, अपनी शादी में बुला कर अपने नए पति के सामने मुझे सौंप दिया था – मुझे अपना प्यार मिल गया और आप को अपना पूत. इसे  सम्हालना.” अभी बेटे की बात खत्म नहीं हुई थी कि पिताजी मंच पर खड़े मुस्करा रहे थे.

मानो कह रहे हो,” बेटा ! इस टीस को कब तक सम्हाल कर तो नहीं रख सकता हूँ ना ?”

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-08-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हिंदी दिवस विशेष – लघुकथा- हिंदी का लेखक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – हिंदी दिवस विशेष – लघुकथा- हिंदी का लेखक ?

हिंदी का लेखक संकट में है। मेज पर सरकारी विभाग का एक पत्र रखा है। हिंदी दिवस पर प्रकाशित की जानेवाली स्मारिका के लिए उसका लेख मांगा है। पत्र में यह भी लिखा है कि आपको यह बताते हुए हर्ष होता है कि इसके लिए आपको रु. पाँच सौ मानदेय दिया जायेगा..। इसी पत्र के बगल में बिजली का बिल भी रखा है। छह सौ सत्तर रुपये की रकम का भुगतान अभी बाकी है।

हिंदी का लेखक गहरे संकट में है। उसके घर आनेवाली पानी की पाइपलाइन चोक हो गई है। प्लम्बर ने पंद्रह सौ रुपये मांगे हैं।…यह तो बहुत ज़्यादा है भैया..।…ज़्यादा कैसे.., नौ सौ मेरे और छह सौ मेरे दिहाड़ी मज़दूर के।….इसमें दिहाड़ी मज़दूर क्या करेगा भला..?….सीढ़ी पकड़कर खड़ा रहेगा। सामान पकड़ायेगा। पाइप काटने के बाद दोबारा जब जोड़ूँगा तो कनेक्टर के अंदर सोलुशन भी लगायेगा। बहुत काम होते हैं बाऊजी। दो-तीन घंटा मेहनत करेगा, तब कहीं छह सौ बना पायेगा बेचारा।…आप सोचकर बता दीजियेगा। अभी हाथ में दूसरा काम है..।

हिंदी के लेखक का संकट और गहरा गया है। दो-तीन घंटा काम करने के लिए मिलेगा छह सौ रुपया।… दो-तीन दिन लगेंगे उसे लेख तैयार करने में.., मिलेगा पाँच सौ रुपया।…सरकारी मुहर लगा पत्र उसका मुँह चिढ़ा रहा है। अंततः हिम्मत जुटाकर उसने प्लम्बर को फोन कर ही दिया।…काम तो करवाना है। ..ऐसा करना तुम अकेले ही आ जाना।..नहीं, नहीं फिकर मत करो। दिहाड़ी मज़दूर है हमारे पास। छह सौ कमा लेगा तो उस गरीब का भी घर चल जायेगा।…तुम टाइम पर आ जाना भैया..।

फोन रखते समय हिंदी के लेखक ने जाने क्यों एक गहरी साँस भरी!

 

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 1.11 बजे, 27.7.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ हिंदी दिवस विशेष – लघुकथा – हिंदी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – हिंदी दिवस विशेष – लघुकथा – हिंदी ?

“…हिंदी की बात छोड़ दीजिए। कल्पनालोक से बाहर आइए। हिंदी कभी पढ़ाई-लिखाई, एडमिनिस्ट्रेशन, डिप्लोमेसी की भाषा नहीं हो सकती। हिंदी एंड इंग्लिश का अभी जो स्टेटस है, वही परमानेंट है…।”

उनकी बात सुनकर मेरी आँखों में चमक आ गई। यह वही शख्स है जिसने कहा था,…”जम्मू एंड कश्मीर की बात छोड़ दीजिए। जे एंड के का अभी जो स्टेटस है, वही परमानेंट है…।”

देश उम्मीद से है।

(5 अगस्त 2019 को सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक प्रस्तुत किये जाने से एक दिन पहले, 4 अगस्त को प्रातः 5:20 पर जन्मी रचना।)

 

हिंदी दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ। ?

 

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 95 – लघुकथा – अनंता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है भाई-भाई केसंबंधों पर आधारित एक लघुकथा  “अनंता। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 95 ☆

 ? लघुकथा – अनंता ?

गणपति का पूजन, अर्चन और अनंत रूप के दर्शन कर सभी बहुत प्रसन्न और शांत मन से अपने अपने घरों की ओर बढ़ रहे थे। एक ही अपार्टमेंट में दो भाइयों का घर, पर दोनों अनजान ऐसे रहते थे कि सभी को लगता था कि दोनों अलग-अलग है।

सुधीर इसी ख्याल को लेकर पंडाल में बैठे देख रहा था कि बिना परिवार के भी यहां सभी परिवार जैसा रहते हैं। परंतु मैंने  अपने छोटे भाई अधीर से क्यों दूरी बना लिया है । उधर आगे बढ़ते पैर ठिठक से गए ।  अधीर का बस यही विचार उसके मन में भी आ रहा था। परंतु दोनों जैसे किसी यंत्रचलित मानव की तरह चलते और देखे जा रहे थे।

हल्की- हल्की रोशनी में दोनों ने देखा कि मम्मी – पापा और सुधीर का बेटा वंश भी चलता आ रहा  हैं। जो कई सालों बाद घर आ रहा था। दोनों ने दौड़कर अगवानी की।

वंश (सुधीर के बेटे ने) गणपति बप्पा के हाथों बंधा हुआ अनंत का धागा निकाला और दिखा कर कहने लगा- “चाचा इसका मतलब आप जानते हैं? इसे अनंता धागा कहा जाता है। साल में अनंत चतुर्दशी के दिन अनंत शुभकामनाएं और सभी के लिए बप्पा से सुख, समृद्धि मांगते हैं। क्यों ना आज दादा-दादी से आप दोनों अपने हाथों पर अनंता  बंधवा कर सदा के लिए एक हो जाएं।”

दोनों यही तो चाह रहे थे। वंश बेटे को गले लगा लिया। मम्मी -पापा के चरणों पर सिर नवा भगवान गणेश की कृपा को सजते- संवरते देखने लगे। वंश ने जोर से ‘गणपति बप्पा’ की आवाज लगाई और सभी अपार्टमेंट वाले देखने लगे आज क्या हो रहा है। सुधीर और अधीर तो बड़े खुश और गले मिल रहे हैं। बात तो अनंत खुशियों की थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – सृजन  ?

जल शांत था। उसके बहाव में आनंदित ठहराव था। स्वच्छ, निरभ्र जल और दृश्यमान तल। यह निरभ्रता उसकी पूँजी थी, यह पारदर्शिता उसकी उपलब्धि थी।

एकाएक कुछ कंकड़ पानी में आ गिरे। अपेक्षाकृत बड़े आकार के कुछ पत्थरों ने भी उनका साथ दिया। हलचल मची। असीम पीड़ा हुई। लहरें उठीं। लहरों से मंथन हुआ। मंथन से सृजन हुआ।

कहते हैं, उसकी रचनाओं में लहरों पर खेलता प्रवाह है। पाठक उसकी रचनाओं के प्रशंसक हैं और वह कंकड़-पत्थर फेंकनेवाले हाथों के प्रति नतमस्तक है।

आपका दिन सार्थक हो ?

©  संजय भारद्वाज

( 1.9.2019, प्रातः 4:35 बजे।)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #57 – आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #57 –  आखिरी प्रयास ☆ श्री आशीष कुमार

किसी दूर गाँव में एक पुजारी रहते थे जो हमेशा धर्म कर्म के कामों में लगे रहते थे। एक दिन किसी काम से गांव के बाहर जा रहे थे तो अचानक उनकी नज़र एक बड़े से पत्थर पे पड़ी। तभी उनके मन में विचार आया कितना विशाल पत्थर है क्यूँ ना इस पत्थर से भगवान की एक मूर्ति बनाई जाये। यही सोचकर पुजारी ने वो पत्थर उठवा लिया। 

गाँव लौटते हुए पुजारी ने वो पत्थर के टुकड़ा एक मूर्तिकार को दे दिया जो बहुत ही प्रसिद्ध मूर्तिकार था। अब मूर्तिकार जल्दी ही अपने औजार लेकर पत्थर को काटने में जुट गया। जैसे ही मूर्तिकार ने पहला वार किया उसे एहसास हुआ की पत्थर बहुत ही कठोर है। मूर्तिकार ने एक बार फिर से पूरे जोश के साथ प्रहार किया लेकिन पत्थर टस से मस भी नहीं हुआ। अब तो मूर्तिकार का पसीना छूट गया वो लगातार हथौड़े से प्रहार करता रहा लेकिन पत्थर नहीं टूटा । उसने लगातार 99 प्रयास किये लेकिन पत्थर तोड़ने में नाकाम रहा।

अगले दिन जब पुजारी आये तो मूर्तिकार ने भगवान की मूर्ति बनाने से मना कर दिया और सारी बात बताई। पुजारी जी दुखी मन से पत्थर वापस उठाया और गाँव के ही एक छोटे मूर्तिकार को वो पत्थर मूर्ति बनाने के लिए दे दिया। अब मूर्तिकार ने अपने औजार उठाये और पत्थर काटने में जुट गया, जैसे ही उसने पहला हथोड़ा मारा पत्थर टूट गया क्यूंकि पत्थर पहले मूर्तिकार की चोटों से काफी कमजोर हो गया था। पुजारी यह देखकर बहुत खुश हुआ और देखते ही देखते मूर्तिकार ने भगवान शिव की बहुत सुन्दर मूर्ति बना डाली।

पुजारी जी मन ही मन पहले मूर्तिकार की दशा सोचकर मुस्कुराये कि उस मूर्तिकार ने 99 प्रहार किये और थक गया, काश उसने एक आखिरी प्रहार भी किया होता तो वो सफल हो गया होता।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 71 ☆ नॉट रिचेबल ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  वर्तमान परिस्थितयों में ह्रदय कठोर कर निर्णय लेने के लिए प्रेरित करती लघुकथा नॉट रिचेबलडॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 71 ☆

☆ लघुकथा – नॉट रिचेबल ☆

पत्नी का देहांत हुए महीना भर ही हुआ था । घर में बडा अकेलापन महसूस कर रहे थे । बेटा – बहू , बच्चे अपना – अपना लैपटॉप लेकर कमरों में बंद हो जाते थे । घर खाने को दौड रहा था । पत्नी के जाते ही हाथ- पाँव जैसे कट से गए थे , कुछ सूझ ही नहीं रहा था । अब समझ में आ रहा है कि बेटे बहू की बातें भी वह अपने तक ही रखती थी । समय रहते कद्र नहीं समझी मैंने उसकी , गुमसुम बैठ सोच रहे थे । तभी बेटा आकर बोला – पापा ! एक बात करनी थी आपसे । असल में ऑनलाइन क्लास के लिए सबको अलग कमरा चाहिए । मम्मी रही नहीं तो अब —– वे चश्मा उतारकर उसे देखने लगे – तो ?

क्या है सुमन आपके साथ कम्फर्टेबिल फील नहीं करती ।

गैरेज के पास जो कमरा है आप उसमें रह लेंगे क्या ?

हाँ — उन्होंने गहरी साँस ली । अगले दिन वे फ्लाईट्स के चार टिकट ले आए । बहू से बोले – बेटी! बहुत दिनों से तुम लोग कहीं घूमने नहीं गए हो । मैंने केरल में होटल की बुकिंग करवा दी है, खर्चे की चिंता मत करना । बच्चों की ऑनलाइन क्लासेस हैं और तुम दोनों का काम भी घर से ही हो रहा है तो तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी । सब खुश हो गए । बेटा भौचक्का था , बोला – पापा आप नाराज नहीं हैं ना मुझसे ? मुझे लगा था कि —

अरे ! अपने बच्चों से भी कोई नाराज होता है – वे मुस्कुराकर बोले ।

बेटे – बहू के जाने के बाद दूसरे दिन ही मकान के खरीददार आ गए । अपना बंगला बेचकर वे वन बेडरूम के छोटे फ्लैट में शिफ्ट हो गए । बेटा घूमकर लौटा तो वॉचमैन ने बेटे को एक पत्र दिया जिसमें बेटे के किराए के फ्लैट का पता लिखा हुआ था । पिता का फोन नॉट रिचेबल बता रहा था ।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 87 – लघुकथा – अंतिम इच्छा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण लघुकथा  “अंतिम इच्छा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 86 7

☆ लघुकथा अंतिम इच्छा ☆ 

“मेरी एक अंतिम बात मानोगे?”

“जी!”, डॉ ने अपने हाथ सैनिटाइजर्स धोते हुए पूछा।

वह कुछ देर चुप रही। फिर बोली, ” एक बार आपने एक इच्छा जाहिर की थी।”

“जी !”

“आपने कहा था- एक बार मुझे गले से लगा कर प्यार कर लो। मगर तब मैं मजबूर थी। मेरी सगाई हो चुकी थी।”

“जी।”

“अब पति भी जा चुका है। चाहती हूं मेरी भी इच्छा पूरी कर लूं।”

” क्या !”

” क्या आखरी बार मुझे आलिंगन करके प्यार नहीं करोगे? ताकि यहां नहीं मिल सके तो क्या हुआ वहां तो…..,”  कह कर वह डॉक्टर को निहारने लगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-05-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ छोटुली – भाग 5 (भावानुवाद) – डॉ हंसा दीप ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

?जीवनरंग ?

☆ छोटुली – भाग 5 (भावानुवाद) – डॉ हंसा दीप ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

(मागील भागात आपण पाहीलं – कलाकाराच्या प्रत्येक हावभावावर टिकून राहिलेली असते. आज तेच कौशल्य त्यांना त्या रुसलेल्या मुलीची समजूत काढण्यासाठी वापरायचं आहे. आता इथून पुढे)

जेव्हा त्यांना पडद्यामागे ती मुलगी दिसली, तेव्हा त्यांना वाटलं, तो पडदा म्हणजे कैकेयीचं कोपभवन झालय. या पडद्यामागे सगळ्या शोचं राज्य डावावर लागलय. तिच्याजवळ ते गेले, पण ती मुळी बोलायलाच तयार नव्हती. जेव्हा त्यांनी अवीचं नाव घेतलं, तेव्हा मात्र तिने लगेच वळून पाहीलं आणि अशा नजरेने बघितलं की अवीचं नाव ऐकताच ती शांतीपूर्वक बोलायला तयार आहे. ते तिच्याशी अतिशय प्रेमाने बोलले. वेळेची नाजुकता, मुलीचं नाजुक वय, आणि ग्रँड फिनालेची नाजुकता, सगळं मिळून त्यांच्या बोलण्याच्या शैलीला अतिशय नाजुक बनवत होतं. आपला राग बाजूला ठेवून त्यांनी त्या मुलीच्या डोक्यावरून हात फिरवला. दोघांच्यामध्ये काही खूस-फूस झाली आणि अनाउंसमेंट केली गेली, ‘काही तांत्रिक अडचणीमुळे यावेळी शूटिंग होऊ शकत नाही. बरोबर एक तासाने शूटिंग सुरू होईल.’

अनाउंसमेंट ऐकताच एकदम चांगलाच गोंधळ माजला. व्ही. आय. पी. संतापले. प्रत्येक मिनिटाचे पैसे गोळा करण्यासाठी त्यांचे बुभूक्षित डोळे निर्मिती विभागाकडे टवकारून पहात होते.  गॅलरीत बसलेले प्रेक्षक, काही न करताही बेचैन झाले होते. ज्यांनी इतका वेळ धाव-पळ करून सेट लावला होता, त्यांची स्थितीही वाईट होती. सजावट, तंत्रज्ञ, मुख्य अतिथी, परीक्षक सगळ्यांचीच आपापली शान होती. आपापला थाट होता. आपआपल्या मागण्या होत्या. सगळ्यांना वाटत होतं, चॅनेल करोडोंनी  खर्च करतेय, ते केवळ त्यांच्यामुळे. परीक्षकांचं ग्लॅमर ही जशी काही कार्यक्रमाला दिलेली फोडणी होती. आशा तर्‍हेने ही फोडणी दिली जात होती, की त्यामुळेच पैसे परतले जाताहेत… भाजीच जशी… तंत्रज्ञांना वाटत होतं, त्यांची प्रगत टेक्नॉलॉजीच असं दृश्य सादर करताहेत आणि तेच यशाचं रहस्य आहे. तिकडे स्पर्धकांच्या आई-वडलांना वाटतय, त्यांच्या मुलांच्या प्रतिभेमुळेच शो चाललाय. सगळ्यांचीच पाची बोटे तुपात होती. 

ती लहान मुलं, ज्यांना लहानपणापासूनच या तणावात ढकललं गेलय, ती कधी असा विचार करत नव्हती, की त्यांच्यामुळेच हा शो चाललाय. ती नेहमीच घाबरलेली, भेदरलेली असत. त्यांना कधी आईकडून, कधी परीक्षकांकडून ओरडून घ्यावं लागे. विशेषत: स्क्रिप्ट लिहिणार्‍याकडून रागावून घ्यावं लागे. जे लिहिलं आणि पाठ करून घेतलं, ते बोलायचं राहिलं तर किंवा चुकीचं बोललं गेलं तर त्यांची धडगत नसे. सुरुवातीच्या ३-४ शोमध्ये सगळ्यांकडूनच स्वयंशिस्त पाळली जात होती. हळू हळू शो पॉप्युलर होत गेला, तशी चॅनेलची हुकुमशाही वाढत गेली. टी.आर.पी. जसजसा वाढू लागला, तसतसे वेगवेगळे कयास बांधले गेले. शोचा प्रत्येक विभाग हे यश आपल्यामुळेच मिळतय, असं मानू लागला. दृश्यांच्या परिकल्पनेत रचनात्मकता आणण्यासाठी अनेकदा धोकादायक दृश्येही दाखवली जाऊ लागली. मुलांना बॉलप्रमाणे इकडून तिकडे ढकलले जाऊ लागले. प्रेक्षक श्वास रोखून ते दृश्य बघू लागले.

यावेळी मिस्टर अरोरा मात्र शांत होते. एका वेळी एकच समस्या सोडवायची, असा त्यांचा नियम होता. सगळ्यांना बाजूला सारत ते, ज्या ठिकाणी अवी बसला होता, तिथे येऊन पोचले. त्याला घेऊन छोटुलीकडे आले. कोपर्‍यात रुसून बसलेल्या छोटुलीचे डोळे त्याला बघताच चमकले. ती अविबरोबर खेळण्यासाठी धावत – पळत आली.

क्रमश:….

मूळ लेखिका – डॉ. हंसा  दीप 

Contact- Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

Ph. 001 647 213 1817  Email- [email protected]

अनुवाद –  श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #98 – सुख-दुख के आँसू…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक विचारणीय लघुकथा सुख-दुख के आँसू…… । )

☆  तन्मय साहित्य  # 98 ☆

 ☆ सुख-दुख के आँसू…… ☆

“चलिए पिताजी- खाना खा लीजिए” कहते हुए बहू ने कमरे में प्रवेश किया।”

“अरे–!आप तो रो रहे हैं, क्या हुआ पिताजी, तबीयत तो ठीक है न?”

“हाँ, हाँ बेटी कुछ नहीं हुआ तबीयत को। ये तो आँखों मे दवाई डालने से आँसू निकल रहे हैं, रो थोड़े ही रहा हूँ मैं, मैं भला क्यों रोऊँगा।”

“तो ठीक है पिताजी, चलिए मैं थाली लगा रही हूँ।”

दूसरे दिन सुबह चाय पीते हुए बेटे ने पूछा–

“कल आप रो क्यों रहे थे, क्या हुआ पिताजी, बताइये न हमें?”

“कुछ नहीं बेटे, बहु से कहा तो था मैंने कि, दवाई के कारण आँखों से आँसू निकल रहे हैं।”

“पर आँख की दवाई तो आप के कमरे में थी ही नहीं, वह तो परसों से मेरे पास है,”

“बताइए न पिताजी क्या परेशानी है आपको? कोई गलती या चूक तो नहीं हो रही है हमसे?”

“ऐसा कुछ भी नहीं है बेटे, सच बात यह है कि, तुम सब बच्चों के द्वारा आत्मीय भाव से की जा रही मेरी सेवा-सुश्रुषा व देखभाल से मन द्रवित हो गया था और ईश्वर से तुम्हारी सुख समृध्दि की मंगल कामना करते हुए अनायास ही आँखों से खूशी के आँसू बहने लगे थे, बस यही बात है।”

किन्तु एक और सच बात यह भी थी इस खुशी के साथ जुड़ी हुई कि, रामदीन अपने माता-पिता के लिए उस समय की परिस्थितियों के चलते  ये सब नहीं कर पाया था, जो आज उसके बच्चे पूरी निष्ठा से उसके लिए कर रहे हैं।

सुख-दुख की स्मृतियों के यही आँसू यदा-कदा प्रकट हो रामदीन के एकाकी मन को ठंडक प्रदान करते रहते हैं।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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