हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ पुरस्कृत कथा – काठ की हांडी ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय 

जन्म – मेघनगर (जिला झाबुआ, मध्यप्रदेश)

प्रकाशन 

  • उपन्यास – “बंदमुट्ठी”,  “कुबेर” व “केसरिया बालम”। उपन्यास “बंदमुट्ठी” गुजराती भाषा में अनूदित।
  • कहानी संग्रह : “चष्मे अपने अपने ”, “प्रवास में आसपास”, “शत प्रतिशत”, “उम्र के शिखर पर खड़ेलोग।” सातसाझा कहानी संग्रह। कहानियाँ मराठी, पंजाबी व अंग्रेजी में अनूदित।  
  • संपादन – कथा पाठ में आज ऑडियो पत्रिका का संपादन एवं कथा पाठ।  
  • पंजाबी में अनुवादित कहानी संग्रह – पूरनविराम तों पहिलां
  • भारत में आकाशवाणी से कई कहानियों व नाटकों का प्रसारण।
  • कई अंग्रेज़ी फ़िल्मों के लिए हिन्दी में सब-टाइटल्स का अनुवाद।
  • कैनेडियन विश्वविद्यालयों में हिन्दी छात्रों के लिए अंग्रेज़ी-हिन्दी में पाठ्य-पुस्तकों के कई संस्करण प्रकाशित।
  • सुप्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित।

सम्प्रति – यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो (कैनेडा) में लेक्चरार के पद पर कार्यरत।

न्यूयॉर्क, अमेरिका की कुछ संस्थाओं में हिन्दी शिक्षण, यॉर्क विश्वविद्यालय टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर। भारत में भोपाल विश्वविद्यालय और विक्रम विश्वविद्यालय के महाविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक।

 ? पुरस्कृत कथा – काठ की हांडी ☆ डॉ. हंसा दीप  ?

? डॉ हंसा दीप जी को  “कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020”  के लिए ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से हार्दिक शुभकामनायें ?

(आज  प्रस्तुत है डॉ हंसा दीप जी की समसामयिक विषय पर आधारित एक अति संवेदनशील कहानी ‘काठ की हांडी’डॉ हंसा दीप जी की इस कहानी को हाल ही में ‘कथाबिंब’ पत्रिका द्वारा आयोजित “कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020” से पुरस्कृत किया गया है। यह एक संयोग है कि ई-अभिव्यक्ति में इस कथा का मराठी भावानुवाद को क्रमशः चार भागों में ‘समर्पण’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया था। यह भावानुवाद मराठी की सुप्रसिध्द साहित्यकार श्रीमती उज्ज्वला केळकर जी सम्पादिका (ई-अभिव्यक्ति (मराठी) द्वारा किया गया था। आप मराठी भावानुवाद निम्न लिंक के विभिन्न भागों पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।) 

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ समर्पण (अनुवादीत कथा) – ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर  >>   ☆ भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4 

अफरा-तफरी मची हुई थी। शहर के हर कोने से भय और घबराहट की गूँज सुनायी दे रही थी। एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे तक पहुँचते कोरोना वायरस अब एलेग्ज़ेंडर नर्सिंग होम की दहलीज पर कदम रख चुका था जहाँ कई उम्रदराज़ पहले से ही बिस्तर पर थे। सीनियर सिटीज़न के इस केयर होम में अधिकांश रहवासी पचहत्तर वर्ष से अधिक की उम्र के थे। कई लोग आराम से घूम-फिर सकते थे तो कई बिस्तर पर ही रहते। कई को अपनी दिनचर्या निपटाने में किसी की मदद की आवश्यकता नहीं होती तो कई पूरी तरह से मदद पर निर्भर थे। कई शारीरिक व मानसिक दोनों रूप से अस्वस्थ थे, तो कई सिर्फ मानसिक रूप से अस्वस्थ थे। वे चलते-फिरते तो थे पर ऐसे जैसे कि कोई जान नहीं हो उनमें। उन्हें देखकर लगता था कि जिंदगी टूट-फूट गयी है, जैसे-तैसे उसे समेट कर चल तो रहे हैं पर किसी भी क्षण बिखर सकती है।     

कोरोना के प्रहार को सहने की ताकत इन सीनियर सिटीज़न में बहुत कम थी इसीलिये यह वायरस इसका फायदा उठाकर शहर के अधिकांश ऐसे नर्सिंग होम को निशाना बना रहा था। अब तक सुरक्षित रहा यह केयर होम अब इसके शिकंजे में फँस चुका था। एक के बाद एक कई लोगों की रिपोर्ट पॉज़िटिव आ रही थी और उन्हें अस्पताल भेजा जा रहा था। चौबीस घंटे खत्म होते-होते दस लोगों की मौत की खबर उनके साथियों में निराशा और दहशत फैलाते हुए दीवारों से टकराकर साँय-साँय कर रही थी। मौत का मंजर आँखों के करीब आकर दस्तक दे रहा था।

खौफ़ और खतरों से जूझते यहाँ के कर्मी अपनी जान की चिंता लिये जैसे-तैसे इस खतरे से निपट रहे थे। कुछ पॉज़िटिव होने से घर पर एकांतवास में थे, कुछ इसकी आशंका में घर रुकना चाहते थे पर मजबूरी में काम कर रहे थे। एक के बाद एक आती इन खबरों ने रोज़ा को विचलित किया था। बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही थी कि अपने पड़ोसी स्टीव की कोई खबर मिल जाए उसे।  

जीवन के छियासी बसंत पार कर चुकी रोज़ा पर मौत की खबरों का आतंक इस तरह छाया था कि नज़रें टीवी स्क्रीन से हट नहीं रही थीं। गत दस वर्षों से यही नर्सिंग होम उसका घर था। पिछले कुछ दिनों से सारे कर्मी इस तरह डरे हुए अपना काम कर रहे थे मानो बिस्तर पर लेटे ये रहवासी मौत का पैगाम लिये खड़े हों उनके लिये। सबने अपने आपको पूरी तरह कवर किया हुआ था, पता ही नहीं चलता कि “यह है कौन”। आज तक कभी ऐसी स्थिति नहीं आयी थी कि काम करने वाले उन सबके इर्द-गिर्द किसी रोबाट की तरह आएँ। हल्के नीले रंग के प्लास्टिक के कवर से ढँके या यों कहें कि प्लास्टिक का गाउन पहने हुए, हाथों में दास्ताने, मुँह पर मास्क, पारदर्शी चश्मे में छिपी आँखों के सिवाय कुछ दिखाई नहीं देता था।

सूज़न, नर्सिंग होम की रिसेप्शनिस्ट ने आकर आज दिवंगत हुए सदस्यों के नाम बताये। स्टीव का नाम भी था उनमें। रोज़ा की आँखें जैसे झपकना ही भूल गयी हों। कई साथियों के साथ उसका खास दोस्त स्टीव उसे छोड़ कर चला गया था। अक्सर वे दोनों आपस में बातें करते रहते थे। दोनों ने यहाँ के जीवन को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया था। किसी को अब परिवार, बच्चों की प्रतीक्षा नहीं होती क्योंकि वे दोनों एक दूसरे के अच्छे साथी बन गये थे। उस बड़े कमरे में जहाँ चार लोगों के पलंग थे। एक ओर से दूसरी ओर सिर्फ कपड़े का परदा था जो उनके अपने कमरे की सीमा था, उनका अपना घर था। कोई किसी की चारदीवारी में नहीं झाँकता था। बैठे-बैठे, सोए-सोए बातें कर लेते थे, ठहाके लगा लेते थे, लंच-डिनर की टेबल पर साथ निभाते और टहलने साथ में चले जाते थे।

कल स्टीव की रिपोर्ट कोरोना पॉज़िटिव आयी और उसे अस्पताल ले जाया गया था, आज वह चल बसा था। बगैर कुछ कहे इस तरह उसका चले जाना मन को स्वीकार ही नहीं हो रहा था। लग रहा था कि अभी कपड़े की दीवार के उस पार से आवाज आएगी – “हे, रोज़, सब ठीक है? चलो, घूमने चलें।”

“पाँच मिनट बाद चलते हैं स्टीव।”

उन पाँच मिनटों में वह अपने बाल ठीक करेगी, रूखे होठों पर चॉपस्टिक लगाएगी और चप्पल पहन कर चल देगी उसके साथ। नीचे बरामदे तक जाएँगे। फिर मौसम अच्छा होगा तो थोड़ा बाहर निकलेंगे, उसके बाद उसकी मजेदार बातों पर हँसते हुए ताश खेलने बैठेंगे। अखबार पढ़ेंगे और फिर से अपने-अपने कमरे में कैद हो जाएँगे। 

इस तरह तो कोई दुनिया छोड़ कर चला नहीं जाता। रोज़ा के लिये यह सिर्फ एकाकीपन ही नहीं था, बहुत कुछ था जो तकलीफ दे रहा था। साथ वाले परदे की हिलती दीवारों को घूरते हुए महसूस हो रहा था कि न जाने कल किसका नंबर है। कितने और लोग अस्पताल के लिये ही नहीं, अपनी आखिरी यात्रा के लिये प्रस्थान कर रहे हों। वही हुआ, अगली सुबह तक लगभग सारे लोग या तो जा चुके थे या बची हुई अपनी चंद साँसें गिन रहे थे।

शायद जीवन का सबसे दुखद दिन था यह, जब आसपास के सारे जाने-पहचाने चेहरे कूच कर गए थे। रोज़ा न खा पायी थी, न सो पायी थी। वह रात काटे नहीं कट रही थी। बहुत अंधेरी थी, इतनी अंधेरी कि लग रहा था आज सूरज नहीं उगेगा। उसे भी महसूस होने लगा था कि कुछ गलत है शरीर में, साँस लेने में तकलीफ होने लगी थी। अजीब किस्म की बेचैनी थी। तमाम सामाजिक दूरियों के बावजूद सूरज निकलने तक रोज़ा के शरीर में कोरोना के सारे लक्षण मौजूद थे। उसे भी अस्पताल भेज दिया गया। कई मित्रों के हँसते हुए चेहरों से भरा वह नर्सिंग होम मौत का अड्डा बन चुका था। वे पलंग जो दिन हो या रात मदद की गुहार लगाते रहते थे, अब मौन थे। एक साथ पैंतीस लोगों की मौत अब छत्तीस का आँकड़ा पूरा करने के इंतज़ार में थी।

इस महामारी में अस्पताल जाना तो बीमार को और बीमार ही करता। वह जो देख रही थी, आँखें उसे कभी देखना नहीं चाहतीं। बाहर की लॉबी में कहीं उल्टी करने की तो कहीं थूकने की आवाजें आ रही थीं। चार-पाँच घंटों का इंतज़ार साइन-इन करने के लिये था। कुछ दीवार का सहारा लेकर खड़े थे, कुछ फर्श पर ही लेट गए थे। अगले चार-पाँच घंटों का इंतज़ार कॉरीडोर में पलंग के लिये था। रूम तो खाली थे नहीं, सारी खाली जगहें, चाहे वह डॉक्टरों के बैठने की हो या नर्सों के बैठने की, मरीजों के वार्ड में तबदील हो गयी थीं।

खत्म होते संसाधनों के साथ अस्पताल प्रशासक एक साथ कई मोर्चों से निपटते मरीजों के क्रोध से भी निपट रहे थे। गुस्से में एक मरीज ने नजदीक से गुजरते एक डॉक्टर का मास्क खींच लिया था; यह कहते हुए कि – “हम बीमार हैं तो तुम भी साथ में बीमार हो जाओ ताकि हम मरेंगे तो साथ में मरेंगे।”

डॉक्टरों, नर्सों की सुरक्षा के साथ, घबराहट व निराशा में धकेले गए इन रोगियों के आक्रोश को मुस्तैदी से रोकना भी एक ज़्यादा जरूरी काम हो गया था। जान बचाने वाले उन फरिश्तों को गालियाँ दी जा रही थीं। एक ओर मानवीयता अपना क्रूरतम रूप दिखा रही थी तो दूसरी ओर उदात्त मानवीयता के चरम की परीक्षा थी, लाशों को उठाने के लिये भी लोग नहीं मिल रहे थे। जीवित लोग इलाज की प्रतीक्षा कर रहे थे व लाशों का ढेर अस्पताल के प्रांगण में पड़ा अपने गंतव्य तक जाने की प्रतीक्षा कर रहा था। पहले दिन के प्रकोप के बाद अस्पताल के वेन से लाशें जा रही थीं। फिर वेन छोटे पड़ने लगे। बड़े कार्गो ट्रक बुलवाए गए। यह भी बहुत मुश्किल हो रहा था। अस्पताल इमारत की हर मंजिल से ट्रक तक पहुँचती लाशों को अस्पताल के कई दरवाजों से निकलना पड़ रहा था, इससे ले जाने वालों के लिये, रास्ते के मरीजों के लिये, सबके लिये खतरा था। अब खुले कार्गो ट्रक इस तरह खड़े किए गए कि प्लास्टिक में लपेट कर, हर मंजिल की बालकनी से ऊपर से नीचे सीधे लाश को ट्रक में डाला जा सके। यह किसी भी तरह से मानवता का तिरस्कार नहीं था, यह तो ज़िन्दा बचे शेष लोगों को बचाने की कोशिश भर थी, जिंदा लोगों को सम्मान देने का एक प्रयास भर था।    

घंटों इधर से उधर धकेले जाने के बाद रोज़ा को कॉरीडोर में रखा गया था। कमरों की कमी, बिस्तरों की कमी, मास्क की कमी, संसाधनों की कमी, सबसे ज्यादा वेंटिलेटर्स की कमी। अनगिनत आवश्यक वस्तुओं की कमियों के चलते हर चेहरा परेशान था, काम के बोझ से, मौत के खौफ से और मन के शोक से। सर्वसंपन्न इंसान की सारी ताकतें इस वायरस ने झुठला दी थीं। ऐसा लगता जैसे इस बेबसी का मखौल उड़ाता कोरोना वायरस ठहाके लगा रहा हो।

रोज़ा का नंबर आ गया था, पलंग मिलने के साथ ही कॉरीडोर में जगह मिलना इस बात का संकेत था कि अब इलाज जल्द ही चालू हो जाएगा। उसका बिस्तर आरामदेह था। हर बेड के बीच आवश्यक दूरी के बाद दूसरा बेड लगा था। सामने की कॉरीडोर की लाइन भी पूरी भरी थी। रोज़ा के ठीक सामने एक और मरीज अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। बीच के रास्ते से नर्स, डॉक्टर आते-जाते मरीजों को संकेत दे देते कि बहुत कुछ चल रहा है वहाँ।

इस महामारी के चलते किसी भी परिवार वाले को साथ रखने की इजाजत तो थी ही नहीं। मरीजों के बीच घिरे स्वास्थ्यकर्मी मानों स्वयं मौत को अपने शरीर में घुसने का न्यौता दे रहे थे। दूरियों को निबाहते भी नजदीकियाँ तो थीं। ब्लड प्रेशर लेना, खून की जाँच करना वेंटिलेटर लगाना, ये सारे काम बगैर छुए तो कर नहीं सकते थे। कहाँ जाते बेचारे, मरते क्या न करते! जीवन-भर के अपने कड़े परिश्रम के बदले उन्हें डॉक्टर का सम्माननीय पेशा मिला था। आज वे उससे भागना चाह रहे थे, अपने उस फैसले पर शायद पछता भी रहे हों। सारी काबिलियत को नकार कर आज उसी पेशे की वजह से मौत उनके पीछे पड़ी थी।

रोज़ा हैरान थी यह देखकर कि उसके ठीक सामने वाले पलंग पर एक नवयुवक था जो गंभीर हालत में था। अभी तक तो वह यही सोच रही थी कि साठ के ऊपर की उम्र के लोग ही इससे परेशान हैं। यह नवयुवक तो अंदाजन पच्चीस-छब्बीस का होगा। रोज़ा को देख रही नर्स उसकी भी देखरेख कर रही थी। उसकी हालत गंभीर थी। वेंटिलेटर्स कहीं खाली नहीं थे। डॉक्टरों की फुसफुसाहट ने तय किया कि इन दोनों मरीजों को बारी-बारी से वेंटिलेटर पर रखा जाए। जरूरत के हिसाब से कभी रोजा को, कभी डिरांग को।

पूरे दिन नर्स यही करती रही। उसकी ड्यूटी बदलते ही दूसरी नर्स आयी। वह कह रही थी कि डिरांग की हालत ज्यादा खराब हो रही है। डॉक्टर को बुलाया गया। दोनों की फुसफुसाहट से सुनायी दे रहा था कि उसे ज्यादा समय के लिये वेंटिलेटर चाहिए वरना हम उसे बचा नहीं पाएँगे। हकीकत तो यह थी कि इस बार-बार के परिवर्तन से किसी को भी फायदा नहीं हो रहा था, रोज़ा और डिरांग दोनों ठीक होते-होते फिर साँस के मोहताज हो जाते। डॉक्टरों की पशोपेश समझ रही थी रोज़ा। अपने बिस्तर से वह डिरांग का चेहरा अच्छी तरह देख पा रही थी। बहुत मनमोहक नवयुवक था। सिर के घने-काले बाल और हल्की-सी दाढ़ी। चेहरा कुम्हलाया होने के बावजूद आकर्षक व्यक्तित्व का धनी होने के सारे प्रमाण दे रहा था।

नर्स परेशान थी। इधर रोज़ा को राहत मिलती उधर डिरांग की बेचैनी बढ़ जाती। उसकी व्याकुलता रोज़ा को बहुत परेशान कर रही थी। दोनों की उम्र का बड़ा अंतर था। एकाएक उसे ख्याल आया कि – “मैं तो वैसे ही छियासी पार करने वाली हूँ, न कोई आगे, न पीछे। और जीकर करना भी क्या है मगर इस लड़के के सामने तो पूरी उम्र पड़ी हुई है।” पास से निकलने वाले एक डॉक्टर से उसने कहा – “सर, सुनिए, एक निवेदन है।”

“मिस रोज़ा हम समझते हैं आपकी तकलीफ, जितना कर सकते हैं उतना कर रहे हैं।” उसे लगा कि शायद शिकायत के स्वर हैं ये।

“जी वही तो मैं भी कह रही हूँ। मुझे वेंटिलेटर की जरूरत अब नहीं है।”

“क्या मतलब?” वह एकाएक पलटा। चश्मे से बाहर आती आँखों ने न समझने का संकेत दिया।

“मैं ठीक हूँ। डिरांग को अधिक जरूरत है वेंटिलेटर की।”

“मिस रोज़ा, आप क्या कह रही हैं!”

“जी, मैं यही चाहती हूँ कि मुझे वेंटिलेटर लगाने के बजाय आप उसे ही लगा रहने दें। देखो, मैं तो वैसे भी अपनी उम्र से ज्यादा जी चुकी हूँ।”

डॉक्टर रोज़ा के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहा था।

उसे दुविधा में देख रोज़ा अपनी हकलाती आवाज पर जोर देकर कहने लगी – “मुझे इतना-सा कर्तव्य पूरा करने दें, उस नौजवान बच्चे को बचाने दें।”  

हतप्रभ-सा डॉक्टर डिरांग को देखने लगा। उसके लिये दोनों की चिंता बराबर थी। उम्र, रंग, धर्म, जाति का भेदभाव किए बगैर जीवन रक्षा करना उन सबकी ड्यूटी थी। लेकिन रोज़ा के प्यार भरे, इंसानियत के आग्रह को स्वीकार करने में उसे कोई झिझक भी नहीं थी।

युवक की तबीयत बिगड़ती जा रही थी।

“जल्दी कीजिए उसकी जान बचाइए”

न पेपर था, न हस्ताक्षर, न नौकरी की चिंता, अगर कोई चिंता थी तो वह थी एक जीवन बचाने की। बगैर किसी देरी के रोज़ा का समय भी डिरांग को दे दिया गया। एक ऐसा काम जिसके बारे में वह स्टीव को जरूर बताती, खैर, ऊपर जाकर बता देगी। वह भी खुश होकर कहेगा – “रोज़, तुम सचमुच रोज़ हो, जीवन की खुशबू फैलाती हो।”

यह सुनकर निश्चित रूप से रोज़ा के गाल लाल हो जाएँगे।

एक घंटे का समय बीत चुका था। आधी जगी, आधी सोयी वह स्टीव से बातें कर रही थी। डिरांग की आँखें धीरे-धीरे खुलने लगी थीं, रोज़ा की बंद होने लगी थीं। किन्तु उसके होठों पर मुस्कान थी क्योंकि सामने स्टीव खड़ा था, उसका हाथ पकड़ने के लिये। जीवन का लेन-देन हो गया था। मौत ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया था। ऊपर वाली छत धुंधलाने लगी थी। पल भर में लिया गया फैसला सुकून की मौत दे गया था।

अपनी मृत्यु वरण करने का सुख हर किसी को नहीं मिलता, रोज़ा को मिला था। काठ की हांडी स्वयं चूल्हे पर चढ़ गयी थी ताकि आग बरकरार रहे। 

********

© डॉ. हंसा  दीप 

Contact- Dr. Hansa Deep, 1512-17 Anndale Drive, North York, Toronto, ON – M2N2W7 Canada

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ कुछ कुछ होता है – तीन लघुकथाएं ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा – कहानी ☆ कुछ कुछ होता है – तीन लघुकथाएं ☆ श्री कमलेश भारतीय 

[1]

बहुत दिनों बाद

बहुत दिनों बाद अपने छोटे से शहर गया था । छोटे भाई के परिवार में खुशी का आयोजन था । बीते सालों में यह पहला ऐसा मौका था जब मैं वहां पूरी फुर्सत में रूका था । मैं अपने शहर घूमने निकला या शायद बरसों पुरानी अपनी पहचान ढूंढने निकल पडा । अपना चेहरा खोजने निकल पडा ।

पांव उसी छोटी सी गली की ओर चल पडे जहां रोज शाम जाया करता था । वही जिसे पा सकता नहीं था लेकिन देख आता था । कुछ हंसी , कुछ मजाक और कुछ पल । क्या वह आज भी वहीं ,,,? कितना भोलापन ? कैसे वह वहां हो सकती है ? घर तक पहुंच गया । मेरे सपनों का घर । उजडा सा मोहल्ला । वीरान सा सब कुछ । खंडहर मकान । उखडी ईंटें ।

क्या बरसों बाद प्यार का यही असली रूप हो जाता है ? क्या प्रेमिका का चेहरा किसी खंडहर में खोजना पडता है ? क्या प्रेम बरसों में कहीं खो जाता है ?

नहीं । खंडहरों के बीच बारिशों के चलते कोई अंकुर फूट रहा था । शायद प्रेम यही है जो फूटता और खिलता ही रहता है ,,,खंडहरों के बीच भी ,,,मैं कभी यहां से कहीं गया ही नहीं ,,,सदा यहीं था ,,,तुम्हारे पास ,,,

[2]

ऐसे थे तुम

बरसों बीत गये इस बात को । जैसे कभी सपना आया हो । अब ऐसा लगता था । बरसों पहले काॅलेज में दूर पहाड़ों से एक लड़की पढ़ने आई थी । उससे हुआ परिचय धीरे धीरे उस बिंदु पर पहुंच गया जिसे सभी प्रेम कहते हैं ।

फिर वही होने लगा । लड़की काॅलेज न आती तो लड़का उदास हो जाता और लड़का न आता तो लड़की के लिए काॅलेज में कुछ न होता । दोनों इकट्ठे होते तो जैसे कहीं संगीत गूंजने लगता , पक्षी चहचहाने लगते ।

फिर वही हुआ जो अक्सर प्रेम कथाओं का अंत होता है । पढ़ाई के दौरान लड़की की सगाई कर दी गयी । साल बीतते न बीतते लड़की अपनी शादी का काॅर्ड देकर  उसमें आने का न्यौता देकर विदा हो गयी ।

लड़का शादी में गया । पहाड़ी झरने के किनारे बैठ कर खूब खूब रोया पर ,,,झरने की तरह समय बहने लगा ,,,बहता रहा । इस तरह बरसों बीत गये ,,इस बीच लड़के ने आम लड़कों की तरह नौकरी ढूंढी , शादी की और उसके जीवन में बच्चे भी आए । कभी कभी उसे वह प्रेम कथा याद आती । आंखें नम होतीं पर वह गृहस्थी में रम जाता और कुछ भूलने की कोशिश करता ।

आज पहाड़ में घूमने का अवसर आया । बस में कदम रखते ही उसे याद आया कि बरसों पहले की प्रेम वाली नायिका का शहर भी आयेगा । उत्सुक हुआ वह कि वह शहर आने पर उसे कैसा कैसा लगेगा ? आकुल व्याकुल था पर,,,कब उसका शहर निकल गया,,, बिना हलचल किए , बिना किसी विशेष याद के ,,,क्योंकि वह सीट से पीठ टिकाये चुपचाप सो गया था ,,,जब तक जागा तब तक उसका शहर बहुत पीछे छूट चुका था ।

वह मुस्कुराया । मन ही मन कहा कि सत्रह बरस पहले एक युवक आया था , अब एक गृहस्थी । जिसकी पीठ पर पत्नी और गुलाब से बच्चे महक रहे थे । उसे किसी की फिजूल सी यादों और भावुक से परिचय से क्या लेना देना था ?

इस तरह बहुत पीछे छूटते रहते हैं शहर, प्यारे प्यारे लोग , ,उनकी मीठी मीठी बातें,,,,आती रहती हैं ,,,धुंधली धुंधली सी यादें और अंत में एक जोरदार हंसी -अच्छा । ऐसे थे तुम । अच्छा ऐसे भी हुआ था तुम्हारे जीवन में कभी

[3]

आज का रांझा

उन दोनों ने एक दूसरे को देख लिया था और मुस्कुरा दिए थे । करीब आते ही लड़की ने इशारा किया था और क्वार्टरों की ओर बढ़ चली । लड़का पीछे पीछे चलने लगा ।

लड़के ने कहा -तुम्हारी आंखें झील सी गहरी हैं ।

-हूं ।

लड़की ने तेज तेज कदम रखते इतना ही कहा ।

-तुम्हारे बाल काले बादल हैं ।

-हूं ।

लड़की तेज चलती गयी ।

बाद में लड़का उसकी गर्दन , उंगलियों, गोलाइयों और कसाव की उपमाएं देता रहा । लड़की ने हूं भी नहीं की ।

क्वार्टर खोलते ही लड़की ने पूछा -तुम्हारे लिए चाय बनाऊं ?

चाय कह देना ही उसकी कमजोर नस पर हाथ रख देने के समान है , दूसरा वह बनाये । लड़के ने हां कह दी । लड़की चाय चली गयी औ, लड़का सपने बुनने लगा । दोनों नौकरी करते हैं । एक दूसरे को चाहते हैं । बस । ज़िंदगी कटेगी ।

पर्दा हटा और ,,,,

लड़का सोफे में धंस गया । उसे लगा जैसे लड़की के हाथ में चाय का प्याला न होकर कोई रायफल हो , जिसकी नली उसकी तरफ हो । जो अभी गोली उगल देगी ।

-चाय नहीं लोगे ?

लड़का चुप बैठा रहा ।

लड़की से, बोली -मेरा चेहरा देखते हो ? स्टोव के ऊपर अचानक आने से झुलस गया । तुम्हें चाय तो पिलानी ही थी । सो दर्द पिये चुपचाप बना लाई ।

लड़के ने कुछ नहीं कहा । उठा और दरवाजे तक पहुंच गया ।

-चाय नहीं लोगे ?

लड़की ने पूछा ।

-फिर कब आओगे?

– अब नहीं आऊंगा ।

-क्यों? मैं सुंदर नहीं रही ?

और वह खिलखिला कर हंस दी ।

लड़के ने पलट कर देखा,,,

लड़की के हाथ में एक सड़ा हुआ चेहरा था और वह पहले की तरह सुंदर थी ।

लड़का मुस्कुरा कर करीब आने लगा तो उसने सड़ा हुआ चेहरा उसके मुंह पर फेंकते कहा -मुझे मुंह मत दिखाओ ।

लड़के में हिम्मत नहीं थी कि उसकी अवज्ञा करता ।

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ वन्य ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं। हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी की अंग्रेजी एवं हिंदी भाषा की अप्रतिम रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है वन्यजीवन से सम्बंधित आपकी एक अत्यंत संवेदनशील कथा ‘वन्य ‘।)

 ☆ कथा-कहानी ☆ वन्य ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(यह कहानी उन सजग संवेदनशील वनरक्षकों को समर्पित है जिन्होंने अपना सारा जीवन वन्यजीवन की सेवा में लगा दिया और कई बार सच की लड़ाई में निरपराध होते  हुए भी सजा पाई है।)

‘‘जानवर !’’

नाहर की आँखें बिल्कुल सूखी थीं। उनमें एक बूँद भी पानी न था।

 ‘‘जानवरों के साथ रहते रहते तुम भी जानवर हो गये हो? तुम्हारा करेजा फट नहीं रहा है?’’ उसकी बीबी भुर्रो गला फाड़ कर रो रही थी,‘‘अरे तुम्हारा बेटा मर गया है -!’’

 नाहर के मुँह से एक शब्द भी न निकला। उसने दीवार पर टँगी रायफल उठाकर कंधे पर रख ली।

 ‘‘तुम जा कहाँ रहे हो?’’ भुर्रो के बाल बिखर गये थे। दोनों हाथों से वह अपनी छाती पीट रही थी। मानो अपने दुर्भाग्य को धिक्कार रही थी। सिर पर का घूँघट जमीन पर लोट रहा था,‘‘विपिन को ले कौन जायेगा ? इसका किरिया करम –?’’

 विपिन का मामा बलवंत ध्रब्याल खबर मिलते ही अपने गंगापुर से रवाना होकर बस के लिए पौड़ी में रात भर ठहर कर तब कहीं जाकर आज सुबह कारबेटगंज पहुँच पाया हैं। उसने जीजा से कहा, ‘‘ऐसे हालात में आप ड्यूटी करने जा रहे हैं ? जरा सोचिए -!’’

 ‘‘सोच लिया है, तभी तो जा रहा हूँ।’’ नाहर ने साले के कंधों को अपनी उॅगलिओं से जकड़ लिया, ‘‘अब विपिन को मेरी कोई जरुरत नहीं। उसका मामा आ गया है। यहाँ तो सब कुछ खतम हो चुका है। मगर चांदनी को मेरी जरूरत है।’’

 ‘‘चाँदनी?’’ ध्रब्याल की भौंहें टेढ़ी हो गईं।

 उधर उसकी दीदी लगी छाती पीटने, ‘‘अरे, वही मेरी सौतन ! पता नहीं शिकारी कब उसे धर ले जायेंगे ! तब मेरा करेजा ठंडा होगा।’’

‘‘चुप!’’ नाहर का चेहरा तमतमाने लगा। फन्दें में फँसे बाघ की तरह उसकी आंखें चमक रही थीं। अपने साले को अहाते में ले जाकर वह समझाने लगा, ‘‘उस तेंदुए को पकड़ने के लिए शिकारी कई महीनों से चक्कर काट रहे हैं। इस बीच उसके तीन बच्चे भी हो गये हैं। हम न पहुंचे तो उनको बचाना मुश्किल हो जायेगा। जरा समझने की कोशिश करो।’’ कंधे पर रायफल लटका कर वह निकल गया।

हिमालय से निकल कर अलकनन्दा जहां भागीरथी से मिलकर गंगा बन जाती है, उसके कुछ पहले ही माँ की छाती के समान दो शीर्षवाले माद्री पहाड़ के पूरब से नंदिनी नदी निकल कर ससुराल से मैके आयी बेटी की तरह अलकनंदा से लिपट जाती है। उत्तर में माद्री पहाड़, पश्चिम में अलकनंदा और पूरब से नंदिनी – इस तरह कारबेटगंज एक तिकोना अभय अरण्य बन गया है। बाकी दीन दुनिया से संपर्क के लिए नंदिनी पर बस जीप जाने भर चौड़ा एक पुल बना है। वनकर्मी वगैरह इधर से ही आते जाते हैं। मगर फिर भी यहां के जीव जंतु पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। उनकी खाल, उनके पंजे या हड्डी के लिए माद्री पहाड़ के दर्रे से घुस कर चोर शिकारी उन्हें मार डालते हैं। वहां तक पहरा देना नामुमकिन ही नहीं, असंभव है। फिर उधर से ही सारा माल नेपाल या लद्दाख के रास्ते चीन भेज दिये जाते हैं।

परसों दोपहर कारबेटगंज बाजार में एक भीड़ इकठ्ठी हो गई थी। स्कूल से लौटते समय विपिन अपनी बहन के साथ वहीं खड़ा था। चिहू ने पूछा, ‘‘भैया, यहां मेला लगा है, क्या ?’’

इन दिनों कई बिजली परियोजनाओं पर काम शुरू हो गये हैं, जिसके चलते किसान अपने पुरखों के घर से बेघर हो रहे हैं। बांध का पानी सुरसा की तरह मुंह बा कर उनकी जमीन निगल जा रहा है। हाइड्रो परियोजनाओं को निजी कंपनिओं के हाथों बेची न जाए, इनमें ग्राम पंचायत और सहकारी समितिओं की यानी जनता की भी भागीदारी हो – इन्हीं मांगों को लेकर लोगों का सैलाब सड़क पर उमड़ पड़ा था।

देखते देखते मालिकों के गुंडों के साथ साथ सरकारी गुंडें भी आ धमके। खाकी हाथ में थमे लाउडस्पीकर से आवाज आ रही थी, ‘‘धारा 144 जारी है। धरना प्रदर्शन की मनाही है। सब अपने अपने घर जाओ।’’

जवाब में नारे बुलंद होने लगे। हिमालय की पथरीली छाती थरथराने लगी। गुंडे मारपीट पर उतर आये। हवाई फायरिंग हुई। पुलिस भी लाठी लेकर कूद पड़ी। भगदड़ में किसी का पैर जमीन पर था तो किसी का किसी की छाती पर……

विपिन भी धक्का खाते खाते भीड़ में आगे बढ़ गया था। चिहू चिल्ला रही थी, ‘‘भैया, वापस आओ।’’ वह एक किनारे खड़ी होकर भैया को देख रही थी। अचानक विपिन उसकी आंखों के सामने से ओझल हो गया। सीढ़िओं से उतरते हुए वह फिसल गया और जा गिरा नीचे गहरे खाई में –

वहां से उसे उठा लाना इतना आसान न था। खून बह निकला। आखिर उस अभागे ने अपनी दम तोड़ दी…..

अपघात में मृत्यु के बाद अन्त्येष्टि क्या होती ? बस, सहदेव पहाड़ के ऊपर से उसे नंदिनी की उफनती लहरों को सौंप दिया गया।

वन दफ्तर के गेट के पास रूपचंद खड़ा था। नाहर को आते देख उसने दबी जुबान से सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘आ गया ? आज भी –?’’

ढलते सूरज के प्रकाश में माद्री की दोनों चोटियां चमक रही थीं। पांडु पत्नी माद्री के दोनों बेटों के नाम पर पश्चिम चोटी को नकुल और पूरबवाले खंड को सहदेव कहा जाता है। नंदिनी के किनारे एक पगडंडीनुमा रास्ते पर दोनों आगे बढ़ गये। पेड़ों के झुरमुट के नीचे काजल फैल चुका था। बीच बीच में रुक रुक कर टार्च की रोशनी में वे जानवरों के पग मार्क यानी पद चिह्न देख रहे थे। इसी से पता चल जाता कि दोपहर के बाद से अब तक कौन कौन से जानवर यहां से गुजरे हैं। केवल उनके नाम गोत्र ही नहीं, उनकी संख्या भी। फिर मिट्टी पर बने पंजों के निशान से यह बतलाना कि वह नर है या मादा। मादा है तो क्या पेट से है, आदि।

आरण्यक हरियाली में अंध स्वार्थ का जो शतरंज बिछा हुआ है, उसमें जंगल के पेड़ पौधे और जानवरों के साथ साथ वनवासी – आदिवासी और ये वनरक्षक सभी मुहरें बने हुए हैं। परमिट से कई गुणा अधिक पेड़ों को काटो, फिर चढ़ावा चढ़ाते हुए निकल जाओ – यह तो रोज का किस्सा है। उधर उन अभागे अनबोले जानवरों के लिए तो प्रकृति की दी हुई उनकी अनुपम खाल ही अभिशाप बन जाती है। माद्री के पीछे से आराकोट या हतकोटी होते हुए उनकी हड्डी या खाल लद्दाख के रास्ते तिब्बत या चीन पहुँच जाते हैं। या नेपाल के रास्ते दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में….। बैरकपुर में बनी .315 की राइफल और 12 बोर की बंदूक लेकर नाहर और रूपचाँद जैसे लोग किस किसकी रक्षा करेंगे ? फिर चोर शिकारी अगर इन्हीं के सीनों पर निशाना साधे तो ?

रात गहराने के पहले ही दोनों को अंदर पाँच छह कि.मी. चल कर देवदार नाइट हाल्ट पहुँच जाना है। चीर, शीशम और देवदार के घने जंगलों के बीच इनके रात गुजारने के लिए ऐसे कई कुटिआनुमा चेकपोस्ट बने हैं। जंगली जानवरों से सुरक्षा के लिए कॉटेज के बाहर कँटीली झाड़िओं का बाड़ा बना है। किसी का नाम है मन्दाकिनी, तो किसी का अर्जुन !

रात का जंगल जागने लगा था। पेड़ों के नीचे जुगनुओं के दीये, तो पेड़ों के ऊपर उल्लू आदि निशाचर पक्षिओं का जमघट। नीचे मजीरे की महफिल, तो ऊपर पत्तों के बीच से तुरही का कर्कशराग…! बीच बीच में अंधकार यवनिका के पीछे अरण्य के रंगमंच से हुआँ हुआँ या दूसरा कोई नेपथ्य संगीत ….

देवदार’ के आगे नंदिनी के किनारे चलते चलते रुपचाँद ने अपनी टार्च को एक जगह फोकस किया, ‘‘नाहर, वो देख…!’’ वहां किसी तेंदुए के पंजों के निशान थे। उसके पीछे पीछे और तीन शावकों के पैरों की नन्ही नन्ही छाप।

‘‘बच्चे तो अभी बस तीन महीने के हैं। माँ के दूध पर ही जी रहे हैं। चाँदनी को कुछ हो जाए तो बेचारे जी भी न सकेंगे।’’ आखिरी शब्दों को कहते हुए नाहर का गला भारी होने लगा।

उसकी उदासी रूप को भी छू गई। आज ही जिस बाप की औलाद को नंदिनी में बहा दिया गया, दूसरे की औलाद – वह भी एक तेंदुए के बच्चों के लिए – उसके दिल में कितनी टीस उठ रही है – इससे रूप भी अन्जान न था। दोस्त को बातों में व्यस्त रखने के लिए उसने कहा, ‘‘जीप वालों का एरिया अब यहां तक फैल गया है ! नकुल और सहदेव के बीच के दर्रे से रात में वे यहां तक आ सकते हैं।’’ दोनों को ये बातें मालूम थीं। वे ‘देवदार’ के अंदर जाकर जरा सुस्ताने लगे।

रात के जंगल की खामोशी में एक अद्भुत शब्दहीन राग ध्वनित प्रतिध्वनित हो रहा था। गगन की महफिल में बैठे बैठे सितारे भी  निष्पलक नेत्रों से इस शब्दहीन संगीत में सराबोर हो रहे थे। तभी सहदेव की तलहटी से आती एक जीप की आवाज से रूपचांद की नींद टूट गई, ‘‘नाहर -!’’

‘‘मैं ने भी सुना। चल। फौरन।’’ दोनों दबे पाँव निकल पड़ते हैं। यहां के चप्पे चप्पे से दोनों वाकिफ हैं। ऊपर से चीर और देवदार के छप्पर से जुन्हाई चू रही थी। उस रोशनी में तो दिक्कत का सवाल ही नहीं।

शिकारिओं का मुखिया रानी मकड़ी की तरह राजधानी या किसी बड़े शहर में बैठ कर सारा कारोबार चलाता है। नाहर या उनके अफसर अगर उन तक पहुँच भी गये तो खाकी और खद्दर की तिकड़म के जाल में उलझ कर रह जाते हैं। जैसे सरिस्का के जंगल में चौबीस बाघ थे। बाद में कहा गया – अठ्ठारह बचे हैं। ढूंढ़ने पर एक भी न मिला। रणथम्भौर से लेकर पन्ना तक यही कहानी दोहरायी जा रही है…..

एक चितकबरी जीप सहदेव से उतर कर पेड़ों की ओट में खड़ी थी। डाल और पत्तिओं से छन कर आती चाँदनी की धूप छाँव में उसका रंग घुल मिल गया था। चार आदमी उससे उतर कर बड़ी ही सतर्कता के साथ जंगल में दाखिल होने लगे। दो के हाथों में राइफल थीं। एक की कमर से तमंचा लटक रहा था। चौथा शायद ड्राइवर था, जो हाथ में एक लाठी और टार्च लेकर आगे आगे चल रहा था। सभी कोशिश तो यही कर रहे थे कि जमीन पर पड़ी पत्तिओं पर उनके कदमों की आहट तक न हो, मगर आरण्य – रात्रि की खामोशी में शायद दिल धड़कने से भी आवाज सुनाई दे जाती….

बृन्दा, उस सागौन के नीचे मैं ने उसे देखा था। पेड़ से उतर कर अपने बच्चों को लेकर झाड़ी के अंदर चली गयी थी।’’ड्राइवर ने एक रायफलधारी से कहा।

बृंदा सावधानी से आगे बढ़ रहा था। पीछे मुड़ कर कहा,‘उस तेंदुए को खतम करना है। वरना हम चारों मारे जायेंगे।’’

‘‘सप्लाई न पहुँची तो हम सब मुसीबत में पड़ जायेंगे।’’दूसरे ने बताया,‘‘राँगड़ साहब बता रहे थे कारतूस का एक छेद न हो तो इस खाल की कीमत पाँच लाख तक हो सकती है। अरे हुजूर, बाघ को क्या फूँक मार कर मारें ?’’

इतने में चाँदनी के तीन बच्चे किॅऊ किँऊ करते हुए बिच्छू घास की झाड़िओं से निकल कर सामने की पगडंडी पर आ गये। षायद उन्हें झाड़ी के अंदर छुपे रहने की हिदायत देकर उनकी मां शिकार की खोज में आसपास कहीं निकल गई थी। मगर खतरों से अन्जान ये बच्चे – शायद मां की ही गंध सूँघते हुए – बाहर निकल आये। काले काले धब्बों के बीच उनका पीला रंग ऐसे चमक रहा था, मानो क्वांर की काली रात में कोजागरी पूर्णिमा की जुन्हाई फूल बन कर खिल उठी है।

‘‘इनका भी कोई शिकार कर सकता है?’’ दूर पेड़ों की ओट में छुप कर खड़े नाहर ने रूपचाँद के कंधों पर हाथ रक्खा, ‘‘वे तो जानवरों से भी गिरे हुए जानवर हैं।’’

दूर खड़े चीड़, सिन्दूर और देवदार के पेड़ों के तनों के बीच से आकाशदीप की तरह चीतल और साम्बर हिरणों की आँखें चमक रही थीं। हाथी घास के पर्दे के पीछे खड़े मूक दर्शक बने वे सारा तमाशा देख रहे थे।

इधर आते हुए चारों शिकारिओं की नजर भी इन पर पड़ी। गैण सिंह पस्वाण ने अपनी बंदूक उठा ली। जोतसिंह नेगी ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया, ‘‘इस समय बाघिन नहीं है। इन्हें जिंदा पकड़ लें तो राँगड़ सा’ब खुशहो जायेंगे।’’

पस्वाण ने राइफल नीचे कर ली।

मगर तब तक देर हो चुकी थी। उनके दाहिने पेड़ के पीछे से एकाएक बिजली कौंध गयी। बच्चों की मां सीधे छलांग लगा कर इनके सामने से रास्ता पार करती हुई अपने बच्चों के सामने खड़ी हो गई। एक निदारुण आक्रोशसे उस असहाय ममतामयी की आँखें धधक रही थीं, ‘‘ऐ आदमजाद, हमने तेरा क्या बिगाड़ा ?’’

पलक झपकते उसने एक शावक को दाँतों से उठा लिया, और छलाँग लगा कर हाथी घास के पीछे पहुँच गई। अब नेगी ने अपनी बंदूक उठा ली।

‘‘खबरदार !’’सिंदूर पेड़ के पीछे से नाहर के स्वर और बंदूक दोनों बुलंद हो गये। पैर पर गोली लगते ही नेगी लड़खड़ाकर सामने गिर पड़ा। तुरंत पस्वाण ने राइफल तान ली।

रुप ने उनकी बांई ओर से आवाज लगाई, ‘‘तुम लोग घिर चुके हो। कायदे से अपनी बंदूकें जमीन पर रख दो, वर्ना अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा।’’

मिट्टी पर पड़े पड़े नेगी कराह रहा था, ‘‘अबे, रायफल फेंक!’’ फिलहाल उसे अपनी जान ज्यादा प्यारी थी। क्योंकि वह भाग कर जीप तक पहुँच नहीं सकता था।

पस्वाण के हथियार डालते ही नाहर ने दोनों उठा लिए। रुप ने तुरंत अपनी कमर की रस्सी से चारों के हाथ बाँध दिये। इन्हें लेकर दोनों फारेस्ट ऑफिस की ओर चल पड़े। बीच बीच में चार सेल की टार्च जल उठती। पेड़ों के पीछे से अनगिनत आँखें इन्हें देख रही थीं। जंगल के मस्त पवन का एक एक झोंका पत्तिओं की पायल बजा बजा कर इनके कानों में फुसफुसा रहा था,‘‘शाबाश!’’

रात भर वे चारों वन दफ्तर में ही बंद रहे।

सुबह जब दोनों वहां पहुँचे तो देखा पुलिस की जीप बाहर खड़ी है। नाहर निश्चिंत हो गया। रुप उसकी ओर देखकर मुस्कुराया,  ‘‘हमने तो अपनी ड्यूटी पूरी कर ली। अब बाकी काम पुलिस का है।’’

ऑफिस के अंदर जाकर सभी को नमस्ते कह कर दोनों एक बगल खड़े हो गये। मगर उन्हें ताज्जुब हो रहा था कि उन चारों के हाथों में हथकड़ियाँ नहीं थीं। बल्कि एक बेंच पर बैठे बैठे चारों चाय पी रहे थे। दोनों को देखते ही उनके होंठ कुछ तिरछे हो गये। आँखों में एक शरारत भरी मुस्कान खिल गयी।

थानेदार रामरत्तन पानवर कुछ लिख रहा था। इनको देखते ही पपीते के बीये जैसी उसकी आँखें और छोटी हो गईं, ‘‘तो आ गये आप ?’’

‘‘जयहिन्द सर!’’

‘‘आपको मालूम भी है कि फारेस्ट गार्ड सिवाय आत्म रक्षा के कभी किसी पर गोली नहीं चला सकता?’’

‘‘ज्जी, सर !’’

‘‘तो? तुमने कल रात इन पर फायर कैसे कर दिया ?’’

‘‘सर, ये लोग चाँदनी की जान ले लेते। उस पर गोली चलाने ही वाले थे कि -’’

‘‘गोली चलाई तो नहीं।’’ पानवर चुपचाप थोड़ी देर उसे देखता रहा, ‘‘अब तुम अदालत में ही अपनी सफाई देना। मिस्टर नाहर, इन लोगों पर बेवजह गोली चलाने के जुर्म में हम आपको हिरासत में लेते हैं।’’

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं, सर?’’ रूप से चुप न रहा गया, ‘‘ये चाँदनी को जान से मार देते। उसकी खाल के लिए -’’

‘‘अरे तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे चांदनी कोई तेंदुवा नहीं, बल्कि तुम्हारी महबूबा है।’’ होठों के बीच से सूर्ती थूकते हुए पानवर खड़ा हो गया, ‘‘वकीलसाहब, आप इन लोगों को ले जा सकते हैं।’’

काला कोट पहने एक आदमी जो एक कुर्सी पर बैठा था, उनके पास जा खड़ा हो गया।

रूपचांद अपने वनविद ऑफिसर के सामने छटफटा रहा था, ‘‘सर, आप कुछ कीजिए। पुलिस नाहर को गिरफ्तार करके ले जा रही है। परसों ही इसके बेटे का इंतकाल हुआ था, फिर भी यह…’’

वन दफ्तर में एक अजीब सी खामोशी छा गयी। आखिर वनविद ने कहा, ‘‘इस समय तो कुछ नहीं हो सकता। वकील सा’ब सारे कागज हेड क्वार्टर से पक्का करवा कर लाये हैं। कल देखते हैं।’’

‘‘तब तक बहुत देर हो जायेगी, सा’ब।’’ जैसे आषाढ़ में पहाड़ी नदिओं में जब अचानक पानी उफान पर होता है, तो एक अद्भुत आवाज अनुगुंजित होती रहती है, उसी तरह भर्राये हुए गले से उसने चीखने की कोशिश की, ‘‘सर, हमारी सारी मेहनत पर पानी फिर जायेगा। आप लोग इन जल्लादों को खुला छोड़ दे रहे हैं।’’

‘‘खुल्ला नहीं। ये बेल पर छूटे हैं। इनको थाने में हाजिरी लगानी होगी।’’ काले कोट ने मुस्कुराते हुए कहा। ‘‘कुछ नहीं होगा, सा’ब। ये लोग चांदनी को मार डालेंगे।’’

‘‘बहुत देर हो गयी। अब हम चलते हैं।’’ रामरत्तन पानवर ने फारेस्ट आफिसर से हाथ मिलाया, उनसे कई कागजों पर दस्तखत लिए, फिर नाहर से कहा, ‘‘चलो, जीप में बैठो।’’

जीप चलने लगी।

 रूप उसके पीछे पीछे जा रहा था। जीप की गति तेज हो गई….रूप दौड़ने लगा….

अचानक जीप से मुँह बाहर निकाल कर नाहर दहाड़ उठा, ‘‘रूप, चाँदनी और उसके बच्चों को तेरे हवाले करके जा रहा हूँ। उनकी हिफाजत करना। ये जल्लाद उनकी जान न ले सके।’’

अपने एकमात्र बेटे की मौत के बाद भी जिन आँखों में एक बूँद आँसू भी न छलके थे, आज उस अभागिन ‘‘जानवर मां’’ और उसकी औलादों के लिए उनमें मानो नन्दिनी का सैलाब उमड़ पड़ा…..

♣ ♣ ♣ ♣ ♣      

आभारःः पत्र पत्रिकायें, इंटरनेट, डिस्कवरी चैनेल एवं मित्रगण।

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #6 – शब्बो-राजा ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है   – शब्बो-राजा )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #6 – शब्बो-राजा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

ज्येष्ठ-आषाढ़ यानि मई-जून के महीनों में पलकमती नदी के तन का पानी सूख जाता है। किनारे  फटने लगते हैं। शहर के मवेशियों के झुंड सुबह-सुबह खुरों से धूल उड़ाते हुए जंगल में घास चरने जाते और शाम को वापस अपने ठौर पर लौटते हैं। बस्ती के लोग भी गरमी से बेहाल अपने घरों में क़ैद हो जाते थे। बारिश की आस में सोहागपुरी सुराहियों के ठंडे पानी से प्यास बुझाते थे।

सावन-भादों यानी जुलाई-अगस्त के महीनों में मानसूनी बादल पहाड़ों के शिखरों से नर्मदा की तलहटी तक पूरी ज़मीन को तर-बतर करके वातावरण को एक रूमानी ख़ुशबू से सराबोर कर देते हैं। पलकमती नदी किनारों को तोड़ती हुई बहने लगती थी। पहाड़ों से तेज़ बहाव के उन्माद में बहकर आतीं बड़ी छोटी इमारती और जलाऊ लकड़ी पकड़ने के लिए तारबाहर के कुछ दुस्साहसी युवक नदी में कूदकर लकड़ियों को पकड़ते थे। उनमें राजाराम, मुराद खान और  मुन्ना खान प्रमुख थे। साथ में लखन यादव, हरि शंकर ग्वालि, सुरेश पटवा भी मुझ उफनती नदी में एक किनारे से कूद लकड़ी पर सवार होकर दूसरे किनारे लग जाया करते थे। जैसा उन्माद मेरे बहाव में होता था वैसा ही ख़ून का उबाल उन जवानों के ख़ून और अरमानों में था। वे उफान से भरी नदी में कूद भँवर से बचते हुए लकड़ी के भारी लक्कड़ पर सवार होकर अपने आपको अकबर बादशाह समझते हुए दूसरी पार लग जाते थे।

आज़ादी के बाद अंग्रेज़ यहाँ से चले गए। लेकिन एक एडवर्ड डेरिक वॉन अपने पाँच लड़कों जॉर्ज, विन्स्टोन, एडवर्ड, एडविन और हेनरी व एक लड़की गार्ड़िनिया के साथ यहीं तारबाहर में रेल लाइन के किनारे बस गए। रनिंग-रूम के मुख्य ख़ानसामा शेख़ हयात और उनके दो सहायक असग़र और दिलावर भी परिवार बसा कर उनके पास ही जम गए थे। असग़र का मुराद और दिलावर का मुन्ना नाम का लड़का था। दिलावर की एक लड़की शबनम भी थी। घर-मुहल्ले में उसे शब्बो के नाम से बुलाते थे। उनके पीछे कल्लू और दम्मु धोबी के भरेपूरे परिवार रहते थे।

मुराद और मुन्ना रेल्वे लाइन के किनारे बने घरों में पड़ोसी थे। वे मुहल्ले की बकरियाँ और कुछ गाय-भैंस जंगल में ले जाकर चराया करते थे। रामचरन धोबी का लड़का राजाराम भी कभी-कभी उनके साथ जाया करता था। वे तीनो एक साथ गिल्ली-डंडा, गड़ा-गेंद सुआ-कंचा या अण्डा-डावरी खेला करते थे। तीनो की उम्र यही कुछ 18-20 के बीच थी। मार्च के  महीने में एक दिन राजाराम दोपहर में मुन्ना को खेलने के लिए बुलाने आया। मुन्ना और मुराद बकरी चराने गए हुए थे। माता-पिता भी काम से बाहर गए थे।

मुन्ना की बहिन शब्बो घर पर अकेली थी। उसकी उम्र यही 16-17 साल के आसपास थी। शादी की बात चलती लेकिन दहेज की रक़म न होने से बात बन नहीं पाती थी। यौवन उसका शबाब पर था। उसके उरोजों और नितम्बों में पुष्ट भराव और कटि पर दुबलापन उसकी चाल में एक लहर पैदा करता था। उसकी चाल की मस्ती जवान लड़कों के दिलों में तीर की तरह उतर जाती थी। ऋषि वात्सायन के हिसाब से वह मृगी जातक की कन्या थी। जब चलती थी तो उसके सुडौल गोलाकार नितम्ब आपस में टकरा कर देखने वाले के दिल में स्पंदन पैदा करते थे। उसे इसका अहसास रहता कि लड़के उसे पीछे से निहारते हैं। वह और भी लहरिया चाल से चलती थी।

राजाराम सुबह भट्टी से कपड़े उतारने से लेकर शाम को धुलाई से प्रेस तक के काम दिन भर करता था। माँ-बाप का सबसे छोटा लड़का होने से उसकी खिलाई पिलाई अच्छी थी। मटन-मछली उसके रोज़ के खाने में शामिल रहती थी। राजाराम औसत क़द का भरी-भरी पुष्ट माँसपेशियों वाला वृषभ जाति का गबरू जवान पुरुष था। क्रिकेटर सचिन और धोनी जैसा ऊर्जा और उत्साह से लबालब भरा।

जब राजा शब्बो के घर पहुँचा तब वो बोरों  से ढाँक कर बने कच्चे गुसलखाने में नहा रही थी। उसने बोरों की झीनी परत से राजा को आते देख लिया। राजा गुसलखाने के बिलकुल नज़दीक आकर आवाज़ लगा रहा था। शब्बो साँस थामकर बैठी रही। राजा की आवाज़ आनी बंद हो गई तो उसने नहाने के लिए बदन पर पानी उँडेला। राजा वहीं खड़ा था उसने चौंक कर गुसलखाने में झाँका तो वह शबनम में भीगे जादुई सौंदर्य को देखता ही रह गया। शब्बो ने उसी समय ऊपर देखा तो वह भी अपलक राजा की आँखों में खो गई। जिसे लोग पहले नज़र का इश्क़ कहते हैं, दोनो को वही हो गया था। राजा और शब्बो के दिलों में कामदेव विराजमान हो चुके थे। वे अपने आप में खोए-खोए रहने लगे। शब्बो आँटा गूँथते, कुएँ से पानी भरकर लाते, बकरियों को दुहते और चौका-बर्तन समेटते हर समय अनमनी और खोई-खोई सी रहने लगी। माँ के बुलाने पर उसे कुछ सुनाई नहीं देता था। कोई उससे बात करता तो एकटक उसे देखे जाती। उसकी आँखों में एक नशा सा छाया रहता था। उसका शबाब पहले से और भी ज़्यादा निखर आया था। मुहल्ले की सारी औरतें उससे जलतीं और उसकी ग़ज़ब की सुंदरता का राज पूछती वह बेचारी हल्की सी मुस्कान छोड़कर चली जाती।

ऐसा ही कुछ हाल राजा का था। वह नदी किनारे धोबी घाट की सिल पर कपड़े फींचता तो कपड़े फटने तक फींचता जाता था। प्रेस करता तो एक ही कपड़े पर स्त्री चलाता जाता था। काम से फ़ुरसत होकर वह केबिन से सिगनल खींचने वाले साँडे पर आकर बैठ जाता, जहाँ से शब्बो का घर सीधा दिखता था। शाम होते ही यह रिवाज सा था कि गोपाल सेठ की हवेली से पंडा बाबू और वॉन साहिब के घर से पोटर खोली तक लोग चड्डी-बनियान पर ही वहाँ आकर बतियाते रहते थे। लेकिन वॉन साहिब हमेशा ख़ाकी ड्रेस में घुटनों तक जुराबें पहनकर जूतों में टिपटाप आते थे। उनका हैट हमेशा सिर पर रहता था। नसवार सूँघी लाल नाक उसके ऊपर दो पैनी गोल आँखें सामने वाले को तौलती हुई सी देखतीं रहतीं थीं।

सोहागपुर में आज भी ऐसी जगह नहीं है जहाँ इश्क़ज़दा लोग एक दूसरे को जी भरकर देख सकें, बातें कर सकें, मिल सकें। एक ही उपाय है कि भाई-बहन का दिखावटी रिश्ता क़ायम कर लो तब मिलना सम्भव है। अब थोड़े लोग मड़ई तरफ़ मोटर साइकल पर निकलने लगे हैं। लेकिन उस ज़माने में मोटर साइकल के बारे में तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे। साइकिल भी लोगों के पास नहीं होती थी। दोनो कसमसाकर रह जाते थे। मुहब्बत न रिवाज जानती है, न धर्म और न हैसियत, बस हो जाती है। बिना कुछ सोचे-समझे। सोच-समझ कर रिश्ता तो हो सकता है पर मुहब्बत नहीं। जो मुहब्बत के पचड़े में पड़ते हैं उनमें से गिने चुने सफल होते हैं बाक़ी नाकाम होकर उसी नाकामी के साथ ज़िंदगी गुज़ारते हैं या उसे अंदरूनी ताक़त बनाकर सारी मुश्किलों से पार निकल जाते हैं। कुछ भाई-बहन के रिश्ते के रास्ते से मुहब्बत के बारीक धागे को ज़माने की सुई में पिरोकर इश्क़ का पैरहन उधेड़-उधेड़ कर ताज़िंदगी सीते रहते हैं। देखें, हमारे इन दो मुहब्बतज़दा किरदारों की क़िस्मत में क्या लिखा है।

मिलने की सूरत या तो डोल ग्यारस की रात को जब बच्चे बूढ़े जवान पूरी रात गणेश प्रतिमा और झाँकी देखने निकलते, तब सम्भव थी या मुहर्रम की रात या दशहरा की रात जब थाने के पीछे जहाँ अब दुकानें लग गयीं हैं वहाँ ताज़िये मुहर्रम पर या दुर्गा मूर्ति दशहरे पर पूरी रात रखी जातीं थीं। तब तक दिल में लगी आग सुलगते रहती रही। ऊपर राख जम जाती थी परंतु अंदर शोले भड़कते रहते थे।

उस साल मुहर्रम और दशहरा एक ही दिन पड़े थे। दुर्गा प्रतिमा थाने के पीछे और ताज़िये पलकमती नदी किनारे मछली बाज़ार तरफ़ रखे गए थे। हिंदू मुसलमान बिना किसी भेद-भाव के दुर्गा दर्शन और ताज़िये के नीचे से निकलने की रस्म निभा रहे थे। शब्बो अपनी अम्मी के साथ बस्ती के रिश्तेदारों के बीच वहाँ बैठी थी जहाँ ताज़िये रखे थे। राजा दुर्गा प्रतिमा देख कर दोस्तों के साथ ताज़िये की तरफ़ जा रहा था वहीं शब्बो ताज़िये देख कर दुर्गा प्रतिमा की तरफ़ जा रही थी। दोनों की नज़रें मिली। बात हो गई। राजा तबियत ठीक न होने का बहाना करके दोस्तों से विदा होकर घर की तरफ़ चला। थोड़ी दूर जाकर वह शब्बो को ढूँढने दशहरा मैदान की तरफ़ मुड़ लिया। उसकी आँखें शब्बो से मिलीं। आँखों-आँखों में मिलने का इकरार हुआ। थोड़ी देर बाद शब्बो निस्तार के बहाने एक छोटी लड़की के साथ निकली और रास्ते में से उसे वापस विदा करके राजा का हाथ थाम के पुल के नीचे आ पहुँची। दोनो आलिंगनबद्ध होकर सुधबुध भूल कर खड़े रहे। जैसे अब कभी जुदा नहीं होना है।

मुराद और मुन्ना पुल की दूसरी ओर से जहाँ ताज़िये रखे थे वहाँ से निस्तार के लिए पुल के नीचे पहुँचे तो वहाँ कुछ साये उनको दिखाई दिए। कौतूहल वश वे वहाँ पहुँचे तो राजा और शब्बो को एक दूसरे की बाहों में समाए देखा। राजा ने कहा कि वो शब्बो को निस्तार के लिए लाया था।

मुराद मन ही मन शब्बो को चाहता था। वह सब समझ गया। उसके तन बदन में आग लग गयी। बात आयी गई हो गई। मुराद राजा और शब्बो पर नज़र रखने लगा। उसका शक पक्का हो गया कि मुहब्बत का खेल चल रहा है। जो उसे पूरी चाहिए थी शायद बँट गई है। शब्बो की मुस्कान जूठी हो गई है। शब्बो का राजा से लिपटता साया सोते जागते उसकी आँखों के सामने नाचता रहता था। उसकी सांसें तेज़ और तेज़ होती जाती थीं। वह अपनी मज़बूत बाँहों में ऐसी ताक़त महसूस करता था कि यदि चाँद को पकड़ पाए तो उसे लोंच खरोंच कर रुई के फ़वबों की तरह आसमान में बिखेर दे। चाँद के हल्के काले दाग़ में हाथ घुसेड़ कर बीच से चीर दे। वह रोटी का एक टुकड़ा हड्डी वाले मटन टुकड़े के साथ मुँह में डालता और चबाता रहता जब तक कि गोश्त लिपटी हड्डी चूर-चूर होकर उसके ऊदर में न समा जाती। सुख-दुःख, मिलन-विछोह, रात-दिन की तरह  मुहब्बत-अदावत का भी चोली-दामन का साथ है। ये कभी अलग नहीं होती हैं। एक दूसरे के पीछे चिपकी चली आती हैं। ईसा से 600 साल पहले बुद्ध ने कहा था कि राग के साथ द्वेष भी सहज ही उत्पन्न होता है। दो लोग प्रेम में रहते हैं तो दुनिया के लोगों को सहज ही अच्छा नहीं लगता। माँ भी जब एक बच्चे को दुलार करती है तो दूसरे को अच्छा नहीं लगता। लोग प्रेम का जाप ज़रूर करते हैं लेकिन दुनिया को चलाने वाली चीज़ द्वेष है। राजा और शब्बो के प्रेम प्रसंग में भी राजा, मुराद और मुन्ना के बीच घातक द्वेष ने जन्म ले लिया। मुराद बार-बार मुन्ना से राजा और शब्बो के प्रसंग की बात उनके माता-पिता को बताने को कहता। मुन्ना के पिता को हृदय रोग था। तनावपूर्ण स्थिति उनकी जान ले सकती थी। इसलिए मुन्ना उन्हें नहीं बताना चाहता था। इस स्थिति से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझता था।

दूसरी तरफ़ आशिक़ और माशूक़ के दिलों में मुहब्बत की आग भड़क रही थी। दशहरे की रात के आलिंगन से उनके बदन की ख़ुशबू एक दूसरे में समा चुकी थी। वह ख़ुशबू उन्हें एक दूसरे के पास खींच लाती थी। शब्बो का चेहरा और दमकने लगा था। जब राजा रेल्वे लाइन के नज़दीक कैबिन से निकल कर सिग्नल तक जाते सांडों पर आकर बैठता तो शब्बो दालान में बड़ा आईना लेकर ऐसे कोण पर रखकर  सँवरने लगती जहाँ से उसके पीछे बैठा राजा उसे पूरा दिखता और राजा वहाँ से उसका चेहरा देख पाता था। मुराद और मुन्ना यह देख कर जल-भुन कर रह जाते। मुन्ना शब्बो के बाल खींचकर आईना उठा उसे कमरे के अंदर धकेल कर कुँडी चढ़ा देता। प्रेमी-प्रेमिकाओं के मार्ग की बाधाएँ उनकी आग और भड़का देती।

पलकमती नदी सोहागपुर में घुसने के पहले ईसाई क़ब्रिस्तान तक पूर्व से पश्चिम की तरफ़ बहती है। वहाँ से उत्तर की ओर घूम जाती है। नदियों की चाल कुछ-कुछ साँपों जैसी होती है,  सीधी-सपाट न चलकर सर्पाकार चलती हैं। जहाँ ऊँची ज़मीन या रुकावट आई वहाँ से मुड़ जाती हैं। ऐसा लचीलापन आदमी को भी ज़िंदगी गुज़ारने  में सहायक होता है। डारविन ने भी विकासवाद का सिद्धांत गढ़ते समय जल की इसी विशेषता को ध्यान में लाकर उन जीवों की सूची बनाई थी जो सामने कठिनाई आने पर बदलना शुरू कर देते हैं। उसने दुनिया के सामने origin of species जैसी महानतम खोज दुनिया को दी जिससे आज के मानव जीवन को सरल स्वस्थ और आनंददायक बनाया जा  सके।

नदी किनारे क़ब्रिस्तान के बाद बाएँ हाथ पर तीन-चार घर चर्मकारों के फिर बसोडों  के थे। वे आसपास के गाँव में मरे मवेशियों का चमड़ा नदी किनारे पर डालकर ही उतारा करते थे। जानवर के शव को जंगली कुत्ते या सियार न ख़राब कर  पाएँ, उसके पहले ही उनको यह काम करना होता था क्योंकि हिंसक जानवर मृत पशु के चमड़े को जगह-जगह से काट कर ख़राब कर देते थे। चमड़ा उतारने वाले अपनी खुरपी से पुट्ठों की तरफ़ से चमड़ा उतरना शुरू करते थे। कंधों तक एक पूरा चमड़ा उतार लेते थे। जंगली कुत्ते, सियार, गिद्द, कौवे उनके ऊपर मँडराते रहते थे। वे किसी योगी की साधना से काम में रत रहते थे। काम कोई भी हो लगन से ही कुशलता आती है। जानवरों की हड्डियाँ एकत्र करके बड़े शहरों में उद्योगपतियों को बेच आते थे। वे उनको गोली-कैप्सूल पैक करने की जिलेटिन बनाने या शक्कर बनाने के लिए सल्फ़र के रूप में उपयोग कर लेते थे।

चमार-बसोड के घरों के बाद ग्वालियों की बस्ती शुरू होती थी। पहला घर जैरमा ग्वाली का पड़ता था। जिसकी ग्वालिन बहुत मोटी थी। साठ चुन्नट का बड़ा घेरदार लहंगा पहनती थी। सामने करबला घाट था। वहाँ उस समय चार-पाँच पुरुष पानी भरा रहता था। लड़के बीस फ़ुट ऊँचाई से डाई लगाकर नदी के अंदर ड़ुपकी लगाते थे। मुराद, मुन्ना, राजा, सुरेश, इमरत, लखन, मदन, सुमा सब वहाँ नहाने आते थे। घाट की दूसरी तरफ़ रेत का बड़ा सा मैदान था, जिसमें शंकर लाल पहलवान आठ दस पट्ठों को कुश्ती सिखाया करते थे। लड़के उन्हें शंकर भैया कह कर बुलाते थे। सोहागपुर के लोगों में यह चलन है कि वे जिसे सम्मान देना हो उसे भैया कहकर सम्बोधित करने लगते थे। जैसे अरविन्द भैया, रज्जन भैया, रवि भैया, शरद भैया, रम्मु भैया आदि-आदि।

कुश्ती सीखने वालों में राजा का बड़ा भाई गुड्डा भी आता था। एक दिन उसके साथ राजा भी आया। वो सुरेश के पास बैठ गया। कुश्ती-रियाज़ ख़त्म होने के बाद उसने अपनी प्रेम कहानी सुरेश को सुनाई और मुश्किल बताई कि मुराद और मुन्ना सब जान गए हैं। सुरेश उस समय लंगोट का पक्का और हनुमान भक्त पहलवान था। किताबें और कुश्ती उसके शौक़ थे। वह रोज़ हनुमान चालीसा और शनिवार को सुंदरकाण्ड का पाठ करता था। उसने राजा को अपनी सोच के हिसाब से और दोनो के अलग धर्म की दुहाई देकर शब्बो को भुलाने की समझाइश दी परंतु वह उलटे घड़े पर पानी डालने जैसा था। राजा के दिमाग़ के अंदर कुछ भी नहीं गया।

प्रेमांध लोग कुछ भी कर सकते हैं। तुलसीदास साँप को रस्सी समझ कर हवेली पर चढ़ रत्नावली के पास पहुँचे थे। उस समय गरमियों में लोग खटिया डालकर आँगन में सोया करते थे। वह चैत की चाँदनी भरी रात थी। राजा को नींद नहीं आ रही थी। वह आसमान में खिले चाँद सितारों को निहार रहा था। अचानक उठा और शब्बो के घर की तरफ़ चल दिया। साँड़े पर जाकर बैठ गया। सामने आँगन में शब्बो अपनी माँ के साथ सो रही थी। थोड़ी दूर से पलंग से उसके पिता उठे और शब्बो की माँ को धीरे से जगाकर घर के भीतर ले गए। खिली चाँदनी में राजा ने देखा तो उससे रहा नहीं गया वह उठा और खटिया के नज़दीक पहुँचा। देखा ज़माने से बेख़बर उसकी शब्बो गहरी नींद में सोई हुई थी। उसने शब्बो के चेहरे पर हाथ फेरा तो वो चौंककर उठ पड़ी। उसने राजा को भींचकर गले लगा लिया। अगले ही क्षण वह काँप उठी। उसने राजा को धक्के देकर भाग जाने को कहा। राजा खटिया से नीचे गिरा। आवाज़ से मुन्ना जाग गया। राजा उठ कर भागा। तब तक बाजु के आँगन में मुराद भी जाग गया था। दोनों ने राजा को भागते हुए देख लिया।

चीता जब शिकार पर झपट्टा मारता है तो थोड़ा पीछे झुक जाता है। मुराद और मुन्ना ने राजा पर कुछ भी प्रकट न होने दिया। खेलना कूदना सामान्य रखा। शाम को राजा को  घर बुलाया ताज़ी मछली सालन के साथ रोटी चावल खाया। उसके अगली दोपहर को बंशी लेकर मछली पकड़ने का कार्यक्रम बन गया। मुराद मुन्ना और राजा तीनों वंशी, तिलेंडा, केंचुए, आँटे की गोलियाँ और रोटियों के बीच में तली मिर्चियाँ रखकर ईसाई क़ब्रिस्तान के किनारे से निकलकर नयागाँव के बाहर-बाहर नदी किनारे बस्ती से तक़रीबन तीन मील दूर वहाँ पहुँचे जहाँ पानी गहरा था और मछली ख़ूब थीं।

तीनों अपनी वंशी डालकर तिलेंडा हिलने का इंतज़ार करते। जब गल का हुक मछली के गलफड़ें में फँस जाता तो ऊपर का तिलेंडा हिलता। ठीक उसी समय जिस दिशा में वह हिल रहा है उसकी उलटी दिशा में वंशी को  तेज़ी से खींच देते। मछली फड़फड़ातीं हुई हाथ में आ जाती। शाम हो चली थी। पक्षी अपने डेरों पर लौटने लगे थे। उन तीनो ने रोटी मिर्ची खाईं, फिर लेट गए। मुराद ने एक लम्बी रस्सी निकाली और एक खेल की पेशकश की। रस्सी से एक के हाथ पैर बाँध दिए जाएँगे उसे ख़ुद खोलना होगा। पहले कौन बँधेगा कहने भर की देर थी। राजा बोला मैं। उसे जोखिम भरे खेल खेलने का बहुत शौक़ था। मुराद और मुन्ना ने राजा को नदी किनारे ही एक ऊँची जगह पर पैर लटका कर बिठाया। मुन्ना राजा के हाथ पीछे बाँधने लगा। बाँधकर उसने रस्सी नीचे मुराद की तरफ़ फेंकी। हाथ पर रस्सी की कसावट से राजा को कुछ शक हुआ लेकिन वो बैठा रहा। मुराद उसके पैर में रस्सी खींचकर बाँधने लगा। उसका ग़ुस्से से तमतमाता चेहरा राजा के सामने था। राजा ने उसे देखा तो दहल गया। उसने पैर फेंकना शुरू ही किया था कि मुराद ने अपनी कमर में शर्ट के अंदर रखा हुआ ख़ंजर निकाला और राजा के पेट में सीधा भौंक दिया। राजा सीधा मुराद के ऊपर गिरा। मुराद ने ख़ंजर नहीं छोड़ा। राजा के पेट से निकाल कर तीन बार और उसकी आँतों में घुसा कर घुमा दिया। राजा की आँते बाहर लटक गईं। मुराद और मुन्ना सन्न रह गए। मुन्ना बोला- यार अपन ने तो सोचा था कि इसे रस्सी से बाँधकर नदी में डाल देंगे। दम निकल जाने पर रस्सी खोलकर डूबकर मर जाने की बात बता देंगे। फिर उन्होंने वहीं गड्डे में लाश को दबाया, काँटेदार झड़ियाँ लाकर उसके ऊपर रख दीं। नदी में ख़ंजर और कपड़े धोकर घर लौट गए।

रात को क़बरबिज्जु और सियारों ने राजा के शव को निकाल कर खाया। सुबह गिद्द मँडराने लगे। चमारों ने देखा की गिद्द कहाँ उड़ रहे हैं। वे खुरपी लेकर उस दिशा में चल दिए। जो देखा उसकी ख़बर पुलिस को दी। पोस्टमार्टम हुआ। प्रेमी की लाश सुपुर्देख़ाक कर दी गई। मुराद और मुन्ना को ख़ंजर सहित बंदी बनाया गया। सोहागपुर में सनसनी फैल गई। प्रकरण चला सरकारी वक़ील डब्लू. एन. शर्मा ने अभियोजन पक्ष की ओर से एवं मूसा वक़ील ने बचाव पक्ष की ओर से पैरवी की। घटना का कारण एक ख़ूनी-अदावत थी। अब घटना की चीरफाड़ एक अदालत में होने लगी। वह अदालत भी नदी किनारे पर ही है। राजा को जब ख़ंजर मारा तो वह मुराद के ऊपर गिरा उस समय ख़ंजर उसके फेंफड़ों तक गप गया था और उसकी तत्काल मौत हो गई थी। क़ब्रिस्तान के चौकीदार और नयागाँव ने खेतों में मौजूद किसानों ने उन तीनों को जाते देखा था और मुराद व मुन्ना ही लौटकर आए थे। ख़ंजर और ख़ून सने कपड़े अभियुक्तों से बरामद हुए थे। उनका इक़बालिया बयान पुलिस ने अदालत के सामने रखा था। हत्या का आरोप  सिद्ध हुआ। उस समय लोगों की उम्र बाप से पूछकर तय की जाती थी। जन्म प्रमाण पत्र नहीं होते थे। मूसा वक़ील ने मुराद और मुन्ना के वालिदान से एक शपथ-पत्र दिलवा कर यह सिद्ध करने की कोशिश की थी, कि आरोपी अपराध के समय नाबालिग़ थे। लेकिन अभियोजन पक्ष ने वालिदान द्वारा स्कूल में भर्ती करते समय लिखाई गई तारीख़ का साक्ष्य पेश कर दिया, जिस पर आरोपियों के वालिदान के दस्तखत थे।  मुराद और मुन्ना को बीस-बीस साल की बामशक़्क़त क़ैद की सज़ा सुनाई गई।

शब्बो पथरा गई थी। उसने खाना छोड़ दिया था। उसका दिमाग़ फिर गया था। “आजा-राजा आजा-राजा” चिल्लाते पड़ी रहती थी। चार महीने जी सकी वो, फिर वो भी अल्लाह को प्यारी हो गई। जिसने जीवन दिया, प्रेम दिया लेकिन जीने नहीं दिया। उसने या रिवायत ने या दीवारों ने या ख़ुदगर्ज़ी ने या कपट ने। पता नहीं कैसी दुनिया और कैसा समाज बनाया है इन इंसानों ने। सतपुड़ा के आँचल में पलते गोंड़, भील और कोरखू लोगों में ऐसी रवायत नहीं है। प्यार होता है। पता भी नहीं चलता। एक दूसरे के हो जाते हैं। ज़िंदगी मज़े से गुज़ार के गुज़रते हैं। किसी को ख़बर तक नहीं होती। मुन्ना और मुराद के बाप और मुन्ना की माँ इस सदमे को बर्दाश्त न कर सके। सज़ा की एलानी के साथ वो भी क़ब्रिस्तान की नज़र हुए। मुराद की एक बहन मग्गो बची थी। जिसे मुहल्ले वालों ने सम्भाला। एक चिंगारी सात ज़िंदगी समय से पहले भस्म कर गई। कुछ लोगों ने उस घटना को मज़हबी रंग देने की कोशिश की थी लेकिन दोनों मज़हब के समझदार बुज़ुर्गों ने मामले को सम्भाला। वैसे भी सोहागपुर में समवेत संस्कृति शुरू से ही विकसित हुई है। हिंदू-मुसलमान-ईसाई-सिक्ख सभी यहाँ मिलकर रहते और त्योहार मानते रहे हैं।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #53 – समय का सदुपयोग ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #52  ? समय का सदुपयोग ?  श्री आशीष कुमार☆

किसी गांव में एक व्यक्ति रहता था। वह बहुत ही भला था लेकिन उसमें एक दुर्गुण था वह हर काम को टाला करता था। वह मानता था कि जो कुछ होता है भाग्य से होता है।

एक दिन एक साधु उसके पास आया। उस व्यक्ति ने साधु की बहुत सेवा की। उसकी सेवा से खुश होकर साधु ने पारस पत्थर देते हुए कहा- मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिय मैं तुम्हे यह पारस पत्थर दे रहा हूं। सात दिन बाद मै इसे तुम्हारे पास से ले जाऊंगा। इस बीच तुम जितना चाहो, उतना सोना बना लेना।

उस व्यक्ति को लोहा नही मिल रहा था। अपने घर में लोहा तलाश किया। थोड़ा सा लोहा मिला तो उसने उसी का सोना बनाकर बाजार में बेच दिया और कुछ सामान ले आया।

अगले दिन वह लोहा खरीदने के लिए बाजार गया, तो उस समय मंहगा मिल रहा था यह देख कर वह व्यक्ति घर लौट आया।

तीन दिन बाद वह फिर बाजार गया तो उसे पता चला कि इस बार और भी महंगा हो गया है। इसलिए वह लोहा बिना खरीदे ही वापस लौट गया।

उसने सोचा-एक दिन तो जरुर लोहा सस्ता होगा। जब सस्ता हो जाएगा तभी खरीदेंगे। यह सोचकर उसने लोहा खरीदा ही नहीं।

आठवे दिन साधु पारस लेने के लिए उसके पास आ गए। व्यक्ति ने कहा- मेरा तो सारा समय ऐसे ही निकल गया। अभी तो मैं कुछ भी सोना नहीं बना पाया। आप कृपया इस पत्थर को कुछ दिन और मेरे पास रहने दीजिए। लेकिन साधु राजी नहीं हुए।

साधु ने कहा – तुम्हारे जैसा आदमी जीवन में कुछ नहीं कर सकता। तुम्हारी जगह कोई और होता तो अब तक पता नहीं क्या-क्या कर चुका होता। जो आदमी समय का उपयोग करना नहीं जानता, वह हमेशा दु:खी रहता है। इतना कहते हुए साधु महाराज पत्थर लेकर चले गए।

शिक्षा:- जो व्यक्ति काम को टालता रहता है, समय का सदुपयोग नहीं करता और केवल भाग्य भरोसे रहता है वह हमेशा दुःखी रहता है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 67 ☆ जख्म ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित  एक विचारणीय एवं प्रेरक लघुकथा जख्म।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 67 ☆

☆ जख्म ☆

दोस्तों से आगे निकलने की होड़ में वह पिता की हिदायत भूल गया – उस बदनाम गली से कभी मत जाना। कंधे पर स्कूल का बैग लिए वह दौड़ रहा था और आँखों की कोरों से देख रहा था अजीब मंजर, तरह – तरह के इशारे करती लड़कियां, जवान औरतें, प्रौढा भी। होठों पर गहरी लाली, मुँह में पान – तंबाकू भरा हुआ।  चेहरे पर अजीब से हाव – भाव। अब तो आ गया था इस गली में? दोस्तों से रेस जीत गया था लेकिन आँखों की कोरों से दिखे नजारे उसे बेचैन कर रहे थे, कौन थीं वो औरतें?       

दूसरे दिन वह फिर निकला उस गली से, अनजाने में नहीं। वह दौड़ रहा था पर थोडा धीरे, सामने थे फिर वही दृश्य, वही हाव – भाव। यहाँ हर दिन सब कुछ एक सा क्यों है?  पिता की सख्त नाराजगी और उस गली की औरतों के ताने सुनने के बाद भी वह रोज उस गली से गुजरने लगा। अब दौड़ता नहीं था। दौड़ना है ही नहीं, ये ट्रेन की खिडकी से दिखते चित्र थोडे ही हैं जो ट्रेन की रफ्तार के साथ तेजी से गायब होते जाते हैं। बदनाम गली का एक चित्र उभरा – माँ ने सात आठ साल के लडके को पैसे दिये – जा बाजार से कुछ खा लेना और कमरे में चली गई किसी  के साथ। किसी प्रौढा स्त्री के लिए एक समय का खाना ही काफी था कमरे में बंद होने के लिए। आँचल में बच्ची को समेटे नाबालिग लड़की को कलपते सुना – दीमक लग गई  हमारे जीवन में तो, बच्ची का क्या होगा।

जख्म गहरा था, बदनाम गली कह देने से क्या होगा? ‘तिरे जे बूडे सब अंग’। वह फिर गया उस गली में और रुक गया उस बिलखती  माँ के सामने – बहन, ठीक समझो तो दे दो अपने बच्चों को, मैं पालूंगा। फिर एक नहीं, दो नहीं ना जाने कितने बच्चे उन बदनाम गलियों से उसके पीछे चल दिए। स्नेहालय बन रहा था —-

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 84 – लघुकथा – कारण ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “लघुकथा  – कारण।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 84 ☆

☆ लघुकथा – कारण ☆ 

“लाइए मैडम ! और क्या करना है ?” सीमा ने ऑनलाइन पढ़ाई का शिक्षा रजिस्टर पूरा करते हुए पूछा तो अनीता ने कहा, “अब घर चलते हैं । आज का काम हो गया है।” 

 इस पर सीमा मुँह बना कर बोली, ” घर! वहाँ चल कर क्या करेंगे? यही स्कूल में बैठते हैं दो-तीन घंटे।”

“मगर, कोरोना की वजह से स्कूल बंद है !” अनीता ने कहा, ” यहां बैठ कर भी क्या करेंगे ?”

“दुखसुख की बातें करेंगे। और क्या ?”  सीमा बोली, ” बच्चों को कुछ सिखाना होगा तो वह सिखाएंगे। मोबाइल पर कुछ देखेंगे।” 

“मगर मुझे तो घर पर बहुत काम है,” अनीता ने कहा, ” वैसे भी ‘हमारा घर हमारा विद्यालय’ का आज का सारा काम हो चुका है।  मगर सीमा तैयार नहीं हुई, ” नहीं यार। मैं पांच बजे तक ही यही रुकूँगी।”

अनीता को गाड़ी चलाना नहीं आता था। मजबूरी में उसे गांव के स्कूल में रुकना पड़ा। तब उसने कुरेद कुरेद कर सीमा से पूछा, ” तुम्हें घर जाने की इच्छा क्यों नहीं होती ?  जब कि तुम बहुत अच्छा काम करती हो ?” अनीता ने कहा।

उस की प्यार भरी बातें सुनकर सीमा की आंख से आंसू निकल गए, ” घर जा कर सास की जलीकटी बातें सुनने से अच्छा है यहां सुकून  के दो-चार घंटे बिता लिए जाए,” कह कर सीमा ने प्रसन्नता की लम्बी साँस खींची और मोबाइल देखने लगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

22-08-20

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – रामबाण ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – रामबाण ?

( 5 जून से आरम्भ पर्यावरण विमर्श की रचनाओं में आज पाँचवी रचना।)

बावड़ी को जाने वाले रास्ते पर खड़े विशाल पीपल में भूत बसता है। गाँव के लोग दोपहर के समय और शाम के बाद उस तरफ जाते ही नहीं। उसकी डालियाँ तोड़ना तो दूर, पत्तियाँ तक छूना वर्जित था। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में भय समान रूप से व्याप्त था। पीपल सदा हरा रहा, पत्तियों से सदा भरा रहा।…यह पिछली सदी की बात है।

सदी ने करवट बदली। मनुष्य ने अनुसंधान किया कि पीपल सबसे ज्यादा ऑक्सीजन देता है। फिर भौतिकता की आंधी चली। पेड़, पौधे, पर्यावरण, परंपरा सब उखड़ने लगे। बावड़ियाँ पाट दी गईं, पीपल काट दिये गए। ऑक्सीजन की हत्या कर साँस लेने का सपना पालनेवाला नया शेखचिल्ली पैदा हो चुका था।..शेखचिल्ली जिस डाली पर बैठता, उसे ही काट देता। शनैः- शनैः न जंगल बचे, न पीपल। शेखचिल्ली की देह भी लगभग मुरझा चली।

एकाएक पता चला कि सुदूर आदिवासी क्षेत्र में पीपल-वन है। पीपल ही पीपल। सघन पीपल, हरे पीपल, भरे पीपल। अनुसंधानकर्ता ने एक आदिवासी से पूछा- वहाँ ले चलोगे? आदिवासी ने साफ मना कर दिया। अधिक कुरेदने पर बोला- जाना तो दूर हम उस तरफ देखते भी नहीं।….क्यों?….वो भूतों की नगरी है। हर पीपल पर कई- कई भूत बसते हैं।

अनुसंधानकर्ता ने अनुसंधानपत्र में लिखा, ‘रामबाण टोटके कालजयी होते हैं।’

#लक्ष्य की दिशा में आज एक कदम बढ़े। शुभ दिवस#

©  संजय भारद्वाज

(शीघ्र प्रकाश्य लघुकथा संग्रह से।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ आँख खुल गयी ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। एच आर में कई प्रमाणपत्रों के अतिरिक्त एच. आर.  प्रोफेशनल लीडर ऑफ द ईयर-2017 से सम्मानित । आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” सहित और कई संग्रहों में प्रकाशित हुई है।  आज प्रस्तुत है आपकी एक शिक्षाप्रद कहानी – आँख खुल गयी। )

?  आँख खुल गयी ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान” ?

पापा की पोस्टिंग रेलवे की नौकरी की वजह से बदलती रहती थी और हमारा स्कूल भी। जब तक हम दोनों भाई बहन छोटे थे तब तक कोई समस्या नहीं थी पर जैसे-जैसे हम बड़े होने लगे हमे स्कूल बदलने में परेशानी होने लगी। हर बार नयी जगह नया सिलेबस, नए अध्यापक, नए दोस्त। ये सब हमे चिड़चिड़ा करने लगा. मेरा तो स्कूल में रिजल्ट भी गिरने लगा। मम्मी और पापा इस से चिंता में आ गए। स्कूल में पेरेंट्स मीटिंग के दौरान अध्यपक ने भी उनको स्कूल बार-बार चेंज नहीं करने की सलाह दी। आखिरकार ये तय हुआ की हम दिल्ली में ही रह कर अपनी पढ़ाई पूरी करेंगे और पापा अकेले ही अपनी पोस्टिंग के अनुसार अलग रहेंगे। पापा अपनी छुट्टियों के हिसाब से हमसे मिलने आया जाया करते थे। बढ़ती उम्र ने हमे आत्मनिर्भर बना दिया था और उसका मतलब हमारे लिए था “अपने फैसले खुद लेना और अपने हिसाब से ज़िंदगी जीना”। मम्मी भी ज्यादा रोक-टोक नहीं करती थी। पापा जब भी आते वो हमारी बेढंगी दिनचर्या नोटिस करते थे, पर कुछ बोलने पर मम्मी उन्हें ये कह कर चुप करा देती थी कि “बच्चे अब समझदार हो गए है नए ज़माने के है ज्यादा रोक-टोक अच्छी नहीं”।

उन्हें हमारी दिनचर्या बिलकुल पसंद नहीं आती थी वो पुराने ख्याल के जो थे और हमें उनका टोकना पसंद नहीं आता था। हम दोनों ही पक्ष “जनरेशन गैप” को कोस कर अपने-अपने विचार लिए आगे बढ़ जाते. शायद हमे धीरे-धीरे उनके बिना रहने की आदत होती जा रही थी। फिर वो वक़्त आया जब पापा की आखिरी पोस्टिंग दिल्ली में ही हो गयी। अब तो बस रोज़ की टोका-टाकी तय थी। छोटी मोटी चिक-चिक तो रोज़ की दिनचर्या हो गयी थी। एक दिन इसी बात को लेकर मैं और मेरी बहन बात कर रहे थे ” रोज़ की टोका-टोकी मुझे पसंद नहीं आती, आखिर हम भी बड़े हो गए है हमे भी सब समझता है। इस से तो पापा बाहर ही अच्छे थे कम से कम शान्ति तो थी ” तभी मेरी बहन का रंग उड़ा चेहरा देख कर मैं पीछे पलटा और देखा पापा और मम्मी ठीक मेरे पीछे खड़े थे। मेरा चेहरा शर्म से पीला पड़ गया। पापा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चले गए। मैं भी सर झुकाये अपने कमरे में चला गया। अब रोज़ पापा बिना कुछ कहे सीधे ऑफिस चले जाते और आने के बाद भी बात नहीं करते। उनकी खामोशी मुझे अच्छी नहीं लग रही थी, पर अब शान्ति देख मैं कही न कहीं चैन की सांस भी ले रहा था।

एक दिन अचानक मैं जब घर लौटा तो सभी टीवी चैनल पर न्यूज़ देख रहे थे, जिस पर कोरोना की वजह से बंद की खबर दिखाई जा रही थी। अब सबको बंद की वजह से घर में ही रहना पड़ रहा था. मुझे तो ये काला-पानी की सजा लग रही थी। रोज़ की खबरों ने दिमाग ख़राब कर रखा था और धीरे-धीरे ये डर में तब्दील होने लगा, जब अचानक मुझे एक दिन लगा की मुझे गले में खराश महसूस हो रही है और हल्का बुखार भी। मैं अंदर ही अंदर बहुत डर गया और मुझे रोना आ गया। मेरे रोने की आवाज़ सुनकर पापा जो की रात को पानी पीने रसोई में आये थे मेरे कमरे में आ गए। मुझे घबराया हुआ देख उन्होंने पूछा “क्या हुआ बेटा” उन शब्दों ने जैसे मेरे अंदर एक सुकून की लहर दौड़ा दी। पापा ने जब हाथ सर पर रखा तो मानो मुझे लगा कि मैं अब ठीक हूँ और कोई है जो मुझे संभाल लेगा। पापा ने टेम्प्रेचर चेक किया मुझे कोई बुखार नहीं था, रोज़ की खबर सुन-सुन कर मेरे दिमाग में वहम ने घर कर लिया था। पापा ने मुझे गरम दूध में हल्दी मिला कर पिलाया और सुला दिया। सुबह जब मेरी आँख खुली तो मैंने देखा पापा वहीँ कुर्सी पर ही सो गए। मुझे ये देख कर खुद पर बहुत शर्म आ रही थी।

मुझे समझ आ गया अपनों का साथ और बड़ो का हाथ हमारे सर पर कितना जरुरी होता है। उनकी हमारी बिगड़ी हुई दिनचर्या पर टोका-टाकी हमारे भले के लिए थी। जो दिनचर्या हम लॉकडाउन में मज़बूरी में निभा रहे थे वही तो पापा हमे हमेशा से समझाते थे , टाइम पे उठना , टाइम पे सोना , घर का खाना , जल्दी उठकर व्यायाम करना कुल मिला कर अपने पुराने तौर तरीको से स्वस्थ्पूर्ण। जीवन जीना, जो हमे बंदिश लगता था। पर अब इस बंद के दौर ने संयुक्त परिवार और हमारे देश के प्रति हमारे कर्तव्य और उनके महत्व को अच्छी तरह से समझा दिया था। अब हम सब वो चीज़ें करने लगे थे जो हमारी ही देश की धरोहर है, और हमे स्वस्थ और खुशहाल जीवन जीना सिखाती है।

आज हम मॉडर्न बनाने के चक्कर में अपनों से दूर हो रहे है, गलत दिनचर्या अपना रहे हैं ऊपर से खुश रहने के लिए अंदर से खोखले होते जा रहे है। ये हम सब के लिए आँखे खोलने का वक़्त है हमे अपनी संस्कृति चाहे वो संयुक्त परिवार में रहना हो या हमारी देसी दिनचर्या इन सब को अपनाना चाहिए। ये मूल-मन्त्र ही हमें हर समस्या से निकालने में मदद कर सकता है।

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #5 – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे  ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है   – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे  )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #5 – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

एक हिंदू ब्राह्मण परिवार में 26 दिसंबर 1914 को हिंगनघाट, वर्धा में देवीदास के घर एक बच्चे का जन्म हुआ। उसका नाम मुरलीधर रखा गया। देवीदास ब्रिटिश सरकार के जिला प्रशासन और राजस्व विभाग में अधिकारी थे। मुरलीधर को अंग्रेज़ी तौर तरीक़ों की तर्ज़ पर बचपन में बाबा करके पुकारा जाता था। वह आठ बच्चों में सबसे बड़ा था। उसका बचपन एक अच्छी हैसियत के ब्रिटिश नौकरशाह के सबसे बड़े बेटे के रूप में शिकार और खेलों की रोमांचक  घटनाओं के बीच बीता था। वह चौदह वर्ष की उम्र में बंदूक लेकर भालू और हिरण का शिकार करता था। जब वह गाड़ी चलाने योग्य हुआ तो पिता ने उसे पैंथर की खाल से बनी कुशन की गद्दियों वाली स्पोर्ट्स कार भेंट की थी। यद्यपि वह एक धनी परिवार में पैदा हुआ था, लेकिन हमेशा भारतीय समाज में व्याप्त  असमानता के बारे में सोचता रहता था। वह अपने पिता की नाराज़गी के बावजूद नौकरों के बच्चों के साथ नियमित रूप से खेलता था। दीवाली के दिन जब पूरा शहर जगमगा रहा था तब दोस्तों के साथ बाज़ार में मटरगश्ती करते हुए उसका एक अंधे भिखारी से सामना हुआ। उसने मौज में आकर अपनी सिक्कों से भरी जेब को भिखारी के कटोरे में खाली कर दिया। भिखारी को बहुत सारे सिक्कों की खनक से और कटोरे के भार से महसूस हुआ कि उसे मूर्ख बनाया जा रहा है। वह बोला- “मै एक मजबूर भिखारी  हूँ। मेरे कटोरे में पत्थर मत डालो, बाबा।”, लड़के ने जवाब दिया “ये चोखे सिक्के हैं, पत्थर नहीं। आप चाहें तो कुछ ख़रीद कर इन्हें परख लें।”

इस घटना ने लड़के के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ा कि इस तरह के दुःखी इंसान  उसकी ज़िंदगी के बिलकुल करीब मौजूद हैं, जिनकी जिंदगियों में आशा और विश्वास सिरे से नदारद हो चुके हैं। उसे अपने पिता की विलासिता से भरी दुनिया में ग़रीबों के प्रति मौजूद उपेक्षापूर्ण निर्दयता से चिढ़ होती थी। लोग इतने बेरहम कैसे हो सकते हैं कि आसपास बजबजाती ग़रीबी और भूखमरी से अनजान बने रहकर गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं। 

मुरलीधर एक डॉक्टर बनने की इच्छा रखता था, लेकिन उसके पिता ने उसे वकील बनने के लिए मजबूर किया। वह चाहते थे कि उनका बेटा बड़ा वकील बनकर परिवार की मिल्कियत को संभाले। लड़के ने धनाढ्य वातावरण के जीवन को बहुत अच्छी तरह से अपना लिया। अपने दिन घुड़सवारी, शिकार, क्लब में ताश के पत्तों और टेनिस खेलने में बिताता था। वह अमीरों का एक समृद्ध जीवन जी रहा था जो मानते हैं कि पैतृक विशेषाधिकार केवल भाग्यशाली को जीने का मौका देते हैं और उनका ग़रीबों के भाग्य के प्रति कोई दायित्व नहीं है। इस विलासिता पूर्ण जीवन के बीच वह बेचैन रहता था। एक दिन उसे लगा जैसे उसे दुनिया में एक बड़ा उद्देश्य पूरा करना है।

मुरलीधर कानून में प्रशिक्षित होकर वर्धा में वकालत शुरू करके एक सफल वकील बन गया। वह महात्मा गांधी और बिनोवा भावे से प्रभावित होकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के कारण अंग्रेज सरकर द्वारा कैद में डाला गया। उन्होंने भारतीय नेताओं के लिए एक बचाव वकील के रूप में काम करना शुरू किया। महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए सेवाग्राम आश्रम में कुछ समय बिताया और गांधीजी के अनुयायी बन गए। उन्होंने चरखे से बनाई खादी पहनकर गांधीजी  के विचारों प्रचार किया। जब गांधीजी को पता चला कि मुरलीधर ने एक ब्रिटिश अफ़सर के अत्याचार व उत्पीड़न  से एक भारतीय लड़की को बचाया है, तब उन्होने उसे “सत्य का निडर साधक” नाम दिया था।

उन दिनों कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को एक सामाजिक कलंक माना जाता था। ऐसे रोगी समाज की मुख्य धारा से कटकर उपेक्षित जीवन जीने को अभिशप्त थे। मुरलीधर ने इस विचारधारा को, कि कोढ़ एक संक्रामक छुआछूत रोग है, को दूर करने का प्रयास किया। यहां तक कि उन्होंने एक कोढ़ी को साथ रहने की अनुमति दी। यह साबित करने के उद्देश्य से एक प्रयोग के हिस्से के रूप में उन्हें इंजेक्शन भी लेने पड़े थे। तुलसीराम नाम के कुष्ठ पीड़ित व्यक्ति के साथ मुलाक़ात ने उनकी आत्म-छवि को चकनाचूर कर दिया। उसने देखा तुलसीराम कुष्ठ रोग के अंतिम चरण में वह एक मांस के टुकड़ों के साथ हाथ-पैर की उंगलियों के बिना कीड़े और घावों के साथ वास्तव में एक जीवित लाश था। वह संक्रमण से घबरा गया। उसने खुद को निडर बनाने के बारे में सोचा। अगले 6 महीनों के लिए वह इस संकट की बेदर्द पीड़ा में रहा। उसने सोचा “जहाँ भय है वहाँ प्रेम नहीं है, और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ कोई भगवान नहीं है।” भय और घृणा से घिरे कोढ़ियों की इस समस्या पर काबू पाने का उसे केवल एक ही तरीका लग रहा था कि उसे कुष्ठ पीड़ित लोगों के साथ रहना और काम करना होगा। उन्होंने सोचा और संकल्प किया “मुझे किसी भी चीज़ से कभी डर नहीं लगा जब मैंने एक भारतीय महिला का सम्मान बचाने के लिए ब्रिटिश ठोकरों से लड़ाई लड़ी, गांधी जी ने मुझे ‘अभय साधक’ कहा, जो सत्य का निर्भीक साधक था। जब वरोरा के सफाईकर्मियों ने मुझे नाले की सफाई के लिए चुनौती दी, तो मैंने ऐसा किया, लेकिन जब मैंने तुलसीराम की जीवित लाश देखी, मैं डर गया। मुझे इस डर पर क़ाबू पाकर कुष्ठ पीड़ितों के प्रति प्रेम में बदलना होगा।”

मुरलीधर ने कुष्ठ रोगियों की सेवा करने का निर्णय इस कारण लिया कि उन्हें एक ऐसे समाज का हिस्सा बनने में घृणा महसूस होती थी जो ऐसे दलित मनुष्यों की दुर्दशा के प्रति बहुत ही उदासीन था। उन्होंने इस उदासीनता को ‘मानसिक कुष्ठ’ के रूप में माना, जो कि सबसे भयावह बीमारी है जो किसी के अंगों को ही नहीं गला रही है, लेकिन अन्य मनुष्यों के लिए दया और करुणा महसूस करने के लिए प्रेम की  ताकत खो रही है।

उन्होंने लिखा:- “मैंने भगवान से अपनी आत्मा मांगी, लेकिन मेरी आत्मा नदारत थी। मैंने अपने में भगवान की तलाश की, लेकिन मेरे भीतर भगवान भी नदारत था, तब मैंने सेवा हेतु भाई-बहनों की मांग की, मुझे उनमें आत्मा, भगवान और जीवन लक्ष्य मिल गया।”

उन्होंने 1949 में 4 रुपये, 6 कुष्ठ रोगियों और एक लंगड़ी गाय के साथ वरोरा में आश्रम स्थापित करके पूरे महाराष्ट्र में अपना काम फैलाया है। अब वे बाबा कहलाने लगे थे। कई संगठनों ने बाबा के कार्यों से प्रेरणा ली है और देश भर में और यहां तक कि पूरी दुनिया में काम करते रहे हैं। दुनिया भर में मुरलीधर ने जो प्रभाव डाला, वह अचूक है और उनकी आत्मा एक दुर्लभ रत्न है जिसे दुनिया भाग्यशाली मानती थी।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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