हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #52 – गुरु दक्षिणा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #52  ? गुरु दक्षिणा  ?  श्री आशीष कुमार☆

एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा- ‘गुरु जी, कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है, कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं। इनमें कौन सही है?’

गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया- ‘पुत्र, जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं, मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं।’

यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट न था। गुरु जी को इसका आभास हो गया।वे कहने लगे- ‘लो, तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ। ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे।’

उन्होंने जो कहानी सुनाई, वह इस प्रकार थी-

एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए। गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे- ‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’

वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे। सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले- “जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा।’’

अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहूंच चुके थे।लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं, उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया।वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे। अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था। अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके। वहाँ पहूंच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी। पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी।।अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये।

गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेह पूर्वक पूछा- ‘पुत्रो, ले आये गुरुदक्षिणा?’ 

तीनों ने सर झुका लिया।

गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा-  ‘गुरुदेव, हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये। हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं।”  

गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते हो? प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो।’

तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये।

वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था, अचानक बड़े उत्साह से बोला- ‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं।आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है।’

गुरु जी भी तुरंत ही बोले- ‘हाँ, पुत्र, मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके। दूसरे, यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप, स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें।’

“यदि हम मन, वचन और कर्म- इन तीनों ही स्तरों पर इस कहानी का मूल्यांकन करें, तो भी यह कहानी खरी ही उतरेगी। सब के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त मन वाला व्यक्ति अपने वचनों से कभी भी किसी को आहत करने का दुःसाहस नहीं करता और उसकी यही ऊर्जा उसके पुरुषार्थ के मार्ग की समस्त बाधाओं को हर लेती है। वस्तुतः, हमारे जीवन का सबसे बड़ा ‘उत्सव’  पुरुषार्थ ही होता है-ऐसा विद्वानों का मत है।

अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #6 – न -नारियल का ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथा न -नारियल का। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #6 – न – नारियल का ☆

बच्चे का पेट चल गया था। माँ  उसे न – नारियल का पढ़ा रही थी।

बेटे का मन पढ़ाई में कैसे लगता भला?

बोला – ‘वैदय जी ने नारियल पीनी पिलाने के लिए बोला था और तू मुझे न – नारियल का पढ़ा रही है। तू बिल्कुल अच्छी माँ नहीं  है।’

माँ क्या बताती कि उसका शराबी पिता उसके सारे पैसे छीन ले गया है। उसके पास न – नारियल का पढ़ाने के सिवाय कोई चारा नहीं रह गया है।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #5 – ये तो नारियल है ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथा  ये तो नारियल है। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #5 – ये तो नारियल है ☆

गंगा घाट पर श्रद्धालुओं की भीड़ जयकारे लगा रही थी – जय गंगा मैया, जय हो पाप नासनी।

भीड़ गंगा में साबुत नारियल फेंक रही थी।

खूब नारियल बिक रहे थे।दूकानदार मौज में गा रहा था- ‘ये तो नारियल है रे__ये तो नारियल है ये।’

श्रद्धालु साबूत नारियल गंगा में फेंक रहे थे।

लोग बहती गंगा से बटोरकर दूकानदार को आधे में नारियल बेच रहे थे।

दुकानदार उन्हें फिर पूरी कीमत में बेच रहा था। मुनाफा ही मुनाफा।

उसका दो मंजिला मकान नारियलों ने बनवा दिया था।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 83 – लघुकथा – नियति ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “लघुकथा  – नियति।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 83 ☆

☆ लघुकथा – नियति ☆ 

“सुन बेटा! आम मत लाना। मगर, मेरे घुटने दर्द कर रहे हैं, उसकी दवा तो लेते आना,”  बुजुर्ग ने घुटने पकड़ते हुए कहा।

“हुँ! ” बेटे ने बेरुखी से जवाब दिया, ” दिन भर बिस्तर पर पड़े रहते हो। घुटने दर्द नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?  यूं नहीं कि थोड़ा घूम लिया करें। हाथपैर सही हो जाए।”

बुजुर्ग चुप हो गए मगर पास बैठे हुए दीनदयाल ने कहा, ” सुनो बेटा। यह आपके पिताजी हैं। बचपन में…..”

“हां हां, जानता हूं अंकल,”  कहते हुए बेटे ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ा और बोला,” चल बेटा!  तुझे बाजार घुमा लाता हूं।”

यह देखसुन कर दीनदयाल से रहा नहीं गया और अपने बुजुर्ग दोस्त से बोला, ” क्या यार! क्या जमाना आ गया? ऐसे नालायक बेटों से उनका पुत्र क्या सीखेगा?”

“वही जो मैंने अपने बाप के साथ किया था और आज मेरा बेटा मेरे साथ कर रहा है। कल उसका बेटा वही करेगा,”  कह कर बिस्तर पर लेटे हुए बुजुर्ग दोस्त अपने हाथों से अपनी आंखों को पौंछ कर अपने घुटने की मालिश करने लगा।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31-05-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र
ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #4 – घूसखोर ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथा  घूसखोर। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #4 – घूसखोर ☆

‘भगवान जी यदि मैं पास हो गया तो पूरे ग्यारह नारियल चढ़ाऊंगा।’

एक लड़का भगवान को प्रलोभन दे रहा था।

दूसरा कोई- ‘प्रभु तुम अंतर्यामी हो, मेरी उस लड़की से दोस्ती करा दो, पूरे इंकयावन नारियल चढ़ाऊंगा।’

एक तीसरा भी आ गया- ‘नौकरी लग गयी तो भगवान जी आपकी बल्ले बल्ले हो जाएगी, पूरे एक सो एक नारियल का जुगाड़ है मेरे पास।’

भगवान तो भगवान है, हँसकर भक्तों की भेंट कबूल करते हैं। वे क्या जाने कि आदमी ने उन्हें भी घूसखोर बना दिया है।’

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” हिन्दी पद्यानुवाद #  ॥ श्री रघुवंशम कथासार ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम् ” हिन्दी पद्यानुवाद #  ॥ श्री रघुवंशम कथासार ॥ ☆

(प्रिय प्रबुद्ध पाठक गण – अभिवादन! आपने अब तक प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी के सत्साहित्य श्रीमद्भगवतगीता एवं महाकवि कालिदास रचित मेघदूतम का पद्यानुवाद आत्मसात किया। आज से हम आपके साथ महाकवि कालिदास रचित महाकाव्य रघुवंशम का पद्यानुवाद साझा करेंगे। आशा है हमें आपका ऐसा ही अप्रतिम स्नेह एवं प्रतिसाद  मिला रहेगा।)   

कथासार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

रघुवंश महाकाव्य कवि कुल गुरू कालिदास की एक प्रमुख तथा प्रौढ़ रचना है . मेघदूत महाकवि की कल्पना की उड़ान का दर्शन कराता है । अभिज्ञान शाकुंतलम् अप्रतिम नाटक है किन्तु रघुवंश और कुमारसंभव उनके वर्णन प्रधान महाकाव्य हैं । जिनमें कल्पना के साथ प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन , मनुष्य के विभिन्न मनोभावों का चित्रण , आदर्श स्थापना और उसके पाने के मानवीय प्रयासों के साथ ही सामाजिक परिवेश में स्वाभाविक कमजोरियों का भी दर्शन होता है । रघुवंश में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में आश्रमों का महत्व , गौ – भक्ति , राजा का अभीष्ट आचरण , दानशीलता , शूरवीरता , जन्मोत्सव , स्वयंवर समारोह , दाम्पत्य प्रेम , युद्ध क्षेत्र का वर्णन , वनस्थलों की शोभा , सरल हृदय ऋषि कन्याओं की वृक्षों और मृग छौनों से सहज आत्मीयता और मृत्यु के दारूण दुख पर संसार की असारता का बोध और स्वजन के वियोग में करूण रूदन आदि जीवन की अनेकानेक मनोदशाओं का सुंदर मधुर भाषा में चित्रण है ।

अपने नाम के अनुकूल ही संपूर्ण ग्रंथ इक्क्षाशु वंश के राजा रघु के वंश का वर्णन है । इसमें विभिन्न राजाओं के जीवन काल की घटनाओं का क्रमिक उल्लेख है । रघुवंश में कुल 19 सर्ग हैं । संक्षेप में प्रत्येक सर्ग का कथ्य इस प्रकार है ।

सर्ग 1 – राजा दिलीप पुत्रहीन होने के कारण दुखी हैं । पुत्र कामना से वे अपनी पत्नी सुदक्षिणा सहित कुल गुरू वशिष्ठ के आश्रम को प्रस्थान करते हैं । पुत्र प्राप्ति हेतु गुरुवर , कामधेनु की पुत्री नंदिनी , जो उनके आश्रम में धेनु है , की सेवा करने का परामर्श देते हैं ।

सर्ग 2 – राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा भक्ति भाव से श्रद्धापूर्वक गुरु की गौ , नंदिनी की सेवा में रत हो जाते हैं । नंदिनी को वनचारण के लिए प्रतिदिन ले जाते हैं और निरंतर सुश्रुषा करते हैं । नंदिनी उनकी परीक्षा लेती है जिसमें वे ह्रदय से सेवाभाव रखने के कारण सफल होते हैं । नंदिनी प्रसन्न हो उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान देती है और अपना क्षीरपान करने को कहती है । राजा और रानी वरदान प्राप्त कर गुरू आज्ञा ले राजधानी लौटते हैं ।

सर्ग 3 – उन्हें कालांतर में पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है । जिसका नामकरण रघु किया जाता है । रघु बड़ा होता है । अश्वमेघ यज्ञ किया जाता है जिसमें युवा रघु अपना पराक्रम प्रदर्शित करते हैं । राजा दिलीप रघु को राज्य प्रदान कर पत्नी सहित वन गमन करते हैं एवं वानप्रस्थ धारण करते हैं ।

सर्ग 4 – पराक्रमी राजा रघु दिग्विजय करते हैं ।

सर्ग 5 – इस सर्ग में राजा रघु की अद्वितीय दानशीलता का वर्णन है । राजा रघु अपना सर्वस्व दान में न्यौछावार कर चुके होते हैं , तब ब्रह्मचारी कौत्स अपने गुरू को दक्षिणा प्रदान करने हेतु राजा से धनराशि की याचना करने उनके समीप पहुंचते हैं । रघु उसे चौदह कोटि स्वर्ण मुद्राएँ देने हेतु कुबेर पर आक्रमण की तैयारी करते हैं किन्तु कुबेर स्वयं ही स्वर्ण वर्षा कर दान देने हेतु राजा रघु को पर्याप्त धन दे देते हैं । कौत्स को राजा सारा स्वर्ण दे देना चाहते हैं किन्तु कौत्स केवल अपनी आवश्यकता का ही धन लेकर रघु को यशस्वी एवं उनके समान ही सुयोग्य पुत्र पाने का आशीष देकर के बिदा हो जाते हैं । कालांतर में रघु को अज के रूप में सुयोग्य पुत्र प्राप्त होता है ।

सर्ग 6 – इस सर्ग में अज युवावस्था को प्राप्त करते हैं और विदर्भ- राज की पुत्री इंदुमती के स्वयंवर में आमंत्रित किये जाते हैं । इंदुमती उन्हें अपना वर चुनती है । विवाह हर्षपूर्वक सम्पन्न होता है ।

सर्ग 7 – इंदुमती स्वयंवर में विफल राजागण विवाहोपरान्त विदाई में लौटते हुए अज – इंदुमती के ऊपर अचानक आक्रमण कर देते हैं । जिससे कि भीषण युद्ध होता है । अज की विजय होती है । राजा अज इंदुमती सहित राजधानी में प्रवेश करते हैं ।

सर्ग 8 – राजा अज के पुत्र दशरथ का जन्म होता है । रानी इंदुमती का पुष्पमाल के आघात से आकस्मिक निधन हो जाता है ।

सर्ग 9 से 15 – दशरथ के पुत्र राम और उनके तीन भाईयों का जन्म होता है । इन सर्गों में संक्षेप में समस्त रामायण की ही कथा कही गई है ।

सर्ग 16 – राम के पुत्र कुश का जन्म व तत्पश्चात् उनका नागकन्या कुमुद्वती से विावह व जलविहार का वर्णन है ।

सर्ग 17 – इस सर्ग में कुश के पुत्र अतिथि के जन्म और उनकी जीवन गाथा का सुन्दर वर्णन है ।

सर्ग 18 – राजा अतिथि के बाद की पीढ़ियों का वर्णन है । इसमें कुल 21 राजाओं की जीवन गाथा सोपानों में चित्रित हैं ।

सर्ग 19 – इसमें राजा सुदर्शन के पुत्र अग्निवर्ण की विलासिता वर्णित हैं व उनकी दुःखद मृत्यु का हृदय विदारक चित्रण है । राजा अग्निवर्ण  के वर्णन के साथ ही ” रघुवंश ” महाकाव्य की समाप्ति है ।

महाकवि कालिदास , महाकाव्य रघुवंश के माध्यम से राजा रघु की वंशावली का वर्णन करते हैं एवं राजाओं हेतु प्रजावत्सलता , दानशीलता , शूरवीरता और प्रजा के सदाचार व सद्भावना के कल्याणकारी संदेश देते हैं ।  आचार्यों ने  रघुवंश में वर्णित विषय विविधता को ही ध्यान में रखकर महाकाव्य के लक्षणों का निर्धारण स्थापित किया है एवं महाकाव्य की परिभाषा व्यक्त की है । महाकवि कालिदास की लेखनी से लगभग 1600 वर्षों से अधिक समय पूर्व जो काव्य निःसृत हुआ वह आज भी उतना ही रसमय एवं नवीनता लिये हुए है ।

शताब्दियों से संपूर्ण विश्व के विद्वानों ने महाकाव्य रघुवंश की भूरि – भूरि प्रशंसा की है । अनेकों विद्वानों ने काजलयी कृति रघुवंश के रसास्वादन के लिए संस्कृत भाषा का अध्ययन किया । महाकवि कालिदास अद्वितीय थे और आज भी अद्वितीय ही हैं ।

… विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #3 – निषेध ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथा  निषेध। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #3 – निषेध 

‘किसी लड़के को तो बुलाना बेटी, नारियल फोड़ना है।’

लड़की बोली – ‘ऐसा क्या मुश्किल भरा काम है। ला मैं तोड़ देती हूँ तेरा नारियल।’

‘नहीं ये नारियल फोड़ना लड़कियों के लिए निषेध है। दोष बताया गया है।’

लड़की विहंसकर बोली- ‘अरी मेरी भोली अम्मा, तबकी लड़कियां नाजुक कलाई वाली होती थीं, मोच खाने का डर होता था।’

‘मुझे देख मैं जृडो कराटे वाली हूँ । एक बार में  तेरा नारियल चटका देती हूँ। पिछले साल ही तो मुझे ब्लेक बेल्ट मिला है।’

माँ  न-न करती रही, लड़की ने एक ही बार मे नारियल चटका दिया। माँ विश्वास और अविश्वास के बीच झूलती रह गयी।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 87 – लघुकथा – अनमोल पल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “लघुकथा – अनमोल  पल। हम सब बच्चों को पढ़ाते लिखाते हैं और हमारा स्वप्न होता है कि वे दुनिया की सारी खुशियां पाएं । उनकी स्मृतियाँ तो स्वाभाविक हैं । अनमोल पल में अनमोल भेंट सारे परिवार के लिए सुखद है। एक संवेदनशील रचना बन पड़ी है। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 87 ☆

? लघुकथा – अनमोल पल ?

सुधीर विदेश में अच्छी कंपनी पर कार्यरत था। अपने परिवार पत्नी और दो बच्चों के साथ सम्पूर्ण सुख सुविधा के साधन बना लिए थे।

माँ  पिताजी एक शहर में अपने छोटे से घर पर रहते थे। बहुत सीधे- साधे और समय के अनुसार उनका समय जैसे – तैसे पंख लगा कर निकल रहा था। पिताजी की तबियत भी खराब होने लगी। माँ चिंता से व्याकुल और परेशान हो बेटे की राह देखने लगी, परंतु बेटा भी क्या करता अपनी जिम्मेदारी के कारण जल्दी से आ ना सका।

फिर ऐसा वक्त आया कि सदा सदा के लिए पिताजी शांत हो गए।  विदेश जाने के बाद सुधीर ने कभी घर आने की कोशिश नहीं की थी।

मोहल्ले पड़ोस वाले लोगों के साथ लोग मिलकर सभी कार्यक्रम को शांति पूर्वक किया गया । बेचारी बूढ़ी माँ बस देखती रही। बेटा भी बहुत विचलित था आखिर वह अपने पापा की इकलौती संतान और अंत समय तक नहीं पहुँच सका । उसे कुछ इसकी भी और चिंता खाए जा रही थी।

कुछ समय बाद बेटा- बहू अपने बच्चों के साथ आए तब तक सब कुछ बिखर गया था। माँ को तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वर्षों के बाद आए बेटा बहू का मुँह देखें कि अपने पति के बारे में सोचें। बेटे से लिपट कर फूट-फूट कर रो पड़ी। पोता- पोती सब कुछ सामान्य भाव से देख रहे थे। समझ रहे था कि पापा के नहीं आने से चिंता के कारण दादा जी की मृत्यु समय से पहले हो गई और दादी उसी के कारण परेशान है।

शाम के समय सभी बैठे थे। दादी ने एक छोटा सा कॉटन वाला तकिया लाकर दिया अपने बेटे को। बेटे ने कहा… यह क्या है मम्मी ने बताया… बेटा तुम्हारे जाने के बाद पापा तुम्हारी तस्वीर के सामने  बैठकर घंटो  इस तकिए से बातें करते थे और अपना समय गुजारते थे।

उन्होंने कहा… था अनमोल पल है क्या हुआ जो बेटा हम से बाहर गया है उसकी यादें संजोए मैं इस पर टिका हुआ हूं। बेटे ने अचानक देखा अभी कुछ सिलाई कच्ची दिखाई दे रही थी।

उसने तुरंत सिलाई खोलना शुरू किया। कुछ पुराने कागजात और बैंक अकाउंट था। सारी जमा राशि और एक अच्छी लंबे चौड़ी लिखी हुई चिट्ठी थी।

बेटे ने उठाकर पत्र पढ़ा। उस पर लिखा था मेरे प्रिय बेटे मैं जानता हूँ तुम मेरे मरने के बाद आओगे तुम्हें हम दोनों से लगाव भी बहुत है परंतु मैं नहीं चाहता कि मेरे मरने के बाद तुम्हारी मां को तुम किसी वृद्धाश्रम में डालकर मकान बेच कर यहाँ से सदा – सदा के लिए चले जाओ।

इसलिए मैंने जितना तुम्हारे हिस्से की साझेदारी है। सब इस पर है और हाँ मैं जो सुंदर पल तुम्हारे लिए इस तकिए के साथ बिताया हूँ वह तुम्हारा है। बाकी सभी तुम्हारी मम्मी का है।

उसे किसी प्रकार से कोई कष्ट न हो इसलिए मुझे ये करना पड़ा।

चिट्ठी को पोता भी साथ साथ पढ रहा था।  अपने पापा से बोला क्या??? सभी पापा को ऐसा करना पड़ता है।

भय और भविष्य की घटना को सोच सुधीर ने झटके से अपने बेटे को गले से लगा लिया

लैपटाप खोल  कुछ टाईप करने बैठ गया माँ ने पूछा कुछ लिख रहा है??? सुधीर ने  कहा हाँ बताता हूँ। उसने अपने ऑफिस पर एक पत्र टाईप कर अपने कार्यभार से  इस्तीफा लिखा और माँ से कहा… मैं अब कहीं नहीं जाऊँगा सब यहीं पर आपके पास रहेंगे।

तुम्हारा पोता भी यहाँ रह कर पढ़ाई करेगा। मान जो अब तक जोरो से रही थी हंसते हुए बोली… मैं नाहक कि उनसे लड़ती थी इस तकिए के लिए। तकिए ने कमाल कर दिया मुझे मेरा बेटा सूद समेत लौटा दिया।

उनका अनमोल पल मुझे अब समझ आया। वे कहा… करते थे देखना यह अनमोल पल बहुत सुखद होगा। हँसते हुए माँ ने.. अपने पोते और बहू को गले से लगा लिया। बेटे के आंखों से अश्रुधार बह निकली।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #2 – चमत्कार ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथा  चमत्कार। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #2 – चमत्कार 

उस भाई ने अपनी सफलता के लिए खूब नारियल, फल देवी -देवताओं को चढ़ाए। दूकानें खाली हो गयीं। हल रहा शून्य।

किसी ने पूछा – ‘कोई चमत्कार हुआ?’

‘अजी कहाँ ! उल्टी जेब खाली हो गयी।’

‘अरे!  फिर।’

‘दूकानदारों की बल्ले-बल्ले हो गयी — पाँचों अंगुलियाँ घी में दूकानदारों की और मेरा सिर कढ़ाई में वाली कहावत भी तो चरितार्थ हो गयी ।’

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ अथ मुर्दा सम्वाद ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव

सुश्री अनीता श्रीवास्तव

☆ कथा कहानी ☆ अथ मुर्दा सम्वाद ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆

कई घंटे हो गए थे. साथ आए लोग ज़मीन पर अर्थी रख किनारे जा कर सुस्ताने लगे थे. एक मुर्दा आगे वाले को लक्ष्य कर बुदबुदाया – कितना समय और लगेगा. उसे कोई जवाब न मिला. मन तो किया जम कर फटकार लगा दे- आखिर हमें इतना इंतज़ार क्यों कराया जा रहा है? हम यहाँ न तो पार्टी के टिकट के लिए खड़े हैं न कोविड वैक्सीन के लिए , फिर देर क्यों? तभी उसे याद आया वह मुर्दा है. उसे मुर्दों की मर्यादा का पालन करना चाहिए और चुप रहना चाहिए. वो एक बार गलती कर चुका है. ये गलती उसने जिंदा रहते की थी तब उसका धर्म बोलना था मगर वो चुप रहा लिहाजा जीतेजी मुर्दों में  गिना गया. जीवितों में उसकी मात्र हेड कॉउंटिंग हुई. उसे याद है पडौस में एक मनचला किसी की नई नवेली दुल्हन पर नज़र रखता था. उसकी अंतरात्मा  ने उसे ‘पिंच’ किया – जा, जा कर उस भोले- भाले इंसान को बता दे कि इस नए दोस्त का घर में आना बंद कराए. वो अपनी स्मार्ट बीवी को भी पड़ोसन को समझाने के काम में लगा सकता था. मगर उसने ऐसा कुछ नहीं किया और चुपचाप कांड होने दिया. रिश्वत देने में उसे कभी दिक्कत नहीं हुई बल्कि उसका खयाल था पैसा देने से काम जल्दी होता है तो इसमें हर्ज़ क्या? समूचा तंत्र उसके लिए सुविधाजनक होना चाहिए. बस. उसने अपनी बोलने की शक्ति और अवसर को अपनी स्वयं की सुरक्षा में लगा दिया. इतना सब उसने मन ही मन बड़बड़ाया था पर भावावेग में कहीं- कहीं उसका स्वर पंचम हो गया l इससे पडौसी मुर्दे की निद्रा में विघ्न पड़ा.

वह थोड़ा कसमसाया. फिर बोला शट अप. अभी हमारे लिए लकड़ी का इंतज़ाम हो रहा है. लोग कितने परेशान हैं. ट्राई टू अंडरस्टैंड. पहले वाला अब खुल कर बोल सकता था क्योंकि मर्यादा का उल्लंघन दूसरी ओर से हुआ था. वह तो सिर्फ रिएक्ट कर रहा था. बोला- तू मरा कैसे? नकली रेमडेसीवीर से – दूसरे ने तटस्थ भाव से कहा. तब तक तीसरा बोल पड़ा – नकली था तो क्या.. कम से कम मिला तो. मुझे देखो न नकली  मिला न असली.

पहला- क्यों?

तीसरा- चालीस हजार में मिल रहा था. फोन कर के बीवी को समझाया. ऑटो चला कर चालीस हज़ार बड़ी मुश्किल से जोड़ा है. मेरा बीमा भी है. निकलने दे. कहकर वो भूतिया हँसी हँसा.

अब तक दूसरा मुर्दा उठ कर बैठ गया था. वह अपेक्षाकृत लम्बा जीवन मृत्यु लोक में बिता आया था इसलिए अच्छी खासी समझ और अनुभव रखता था. उसने कुछ श्लोक गा कर सुनाए जिनका आशय सिर्फ यह बताना था कि उसे धर्म- अधर्म की समझ है. उसने प्रवचन सा किया- सौ बरस में एक बार ऐसी विपदा किसी न किसी बहाने से आती है, शास्त्र में लिखा है. उन्होंने मुँह खोला ही था कि तीसरा कफन फेंक कर बोला –  ज्ञान नहीं पेलने का दादू. आखिर धर्मात्मा हो कर भी तुझे कोरोना हुआ न! नकली इंजेक्शन से तड़प कर मरा न! इस बार थोड़ी दूर सोए मुर्दे में हरकत हुई. बोलने वालों में ये चौथा था. बोला- कोरोना ने एक बड़ा मार्केट खड़ा कर दिया है. सारे बातूनी मुर्दे चौकन्ने हो कर उसका मुख देखने लगे. उसे अपनी वेल्यू समझ में आई तो बकायदा लेक्चर के मूड में आ गया- अब देखो कोरोना से बचाव के लिए मास्क और सेनेटाइज़र तो चाहिए ही लेकिन इसके अलावा भी तरह तरह के काढ़े और घरेलू दवाइयाँ हैं. क्योंकि कोरोना की कोई दवा नहीं है इसलिए ये सब दवाएँ हैं. अगर आप भी कुछ जानते हैं- घरेलू नुस्खे से ले कर टोना टोटका तक, तो उतरिये बाज़ार में. आपके लिए भी सम्भावनाएँ हैं.  कुछ नहीं तो मंत्रोच्चार ही कर लें. व्यायाम सिखाएं. वीडियो बना कर यूट्यूब पर डालें. पैसा कमाएँ. नाम कमाएँ.

एक मुर्दा तैश में आ गया, बोला – कोई नाक में तेल डाल रहा है, कोई नीबू निचोड़ रहा है, कोई प्याज खाने को बोलता है,  किसीने कहा सेंधा नमक जलाओ, कहते – कहते वो तन कर बैठ गया. अब जो हो सो हो. मुर्दा बोल उठा. जिंदा लोगों का दुःख और मौकापरस्ती उससे सहन नहीं हो रही थी. पहले वाले ने अबके बहुत देर बाद कुछ पूछा-  तू क्या हर्ट अटैक से मरा?

हाँ. मगर तूने कैसे जाना- चौथा अब आपे में लौट आया था.

पहला- तू बात करते- करते सेंटी हो गया, इसीसे जाना.  तू बातों को दिल पर ले लेता है. अपने इसी स्वभाव के चलते तू दिल का रोगी बना.

 

© सुश्री अनीता श्रीवास्तव

टीकमगढ़

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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