हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #189 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 189 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

मना रहे इस वर्ष में, दो -दो सावन माह।

बम भोले का नाम ले, नाचे झूमे राह।।

सावन में सखियाँ कहे, मन भावन त्योहार।

खुशियाँ साजन संग हैं, मिले पिया का प्यार।।

झड़ी प्यार की बरसती, झूमे धरती आज।

हमको तो होने लगा, धरती पर है  नाज़।।

बादल कैसे घुमड़ते, फैले श्यामल रंग।

लगता है जैसे अभी, लग जायेंगे अंग।।

घिरे मेघ अब कह रहे, सुनो गीत मल्हार।

बरसेंगे हम झूम के, नाचेगा संसार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #175 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “संतोष के दोहे…”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 175 ☆

 ☆ “संतोष के दोहे…☆ श्री संतोष नेमा ☆

सुनो टमाटर  आज कहानी

आने  लगा  आँख  में पानी

कहे  विदेशी कोई   तुझको

कोई   कहता   पाकिस्तानी

घर  गरीब  का  छोड़ा  तूने

दूभर  की उनकी जिंदगानी

गुटनिरपेक्ष    कहानी   तेरी 

बैगन  आलू  गोभी    जानी

फेर  में आकर  राजनीति के

करे  खूब  तू  भी    मनमानी

महंगाई     के   आसमान   से

उतर  करो  सबकी  अगवानी

ठेस  न हो “संतोष” किसी को

छोड़ो   अब    सारी    नादानी

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “वर्षा ऋतु का गीत…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

 

☆ “वर्षा ऋतु का गीत…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

  धूम मचाती जल बरसाती,  वर्षा रानी आई ।

आज मगन मन वृक्ष ले रहे, झूम-झूम अँगड़ाई।।

वसुधा की सब प्यास बुझ गई, हुआ आज मन हर्षित। 

मौसम में खुशियों की हलचल, पोर-पोर है पुलकित।। 

हरियाली की बजी आज तो, मीठी-सी शहनाई। 

आज मगन मन वृक्ष ले रहे, झूम-झूम अँगड़ाई।।

मेघों की तो दौड़भाग है, मोरों का है नर्तन। 

हरियाया वन निज सत्ता का, करता ख़ूब प्रदर्शन।। 

पावस के इस ख़ास दौर में, पोषित है तरुणाई। 

आज मगन मन वृक्ष ले रहे, झूम-झूम अँगड़ाई।।

आतप का तो दौर ढल गया, जलबूँदों की महिमा। 

आज बरसते जल में तो है, सुधा सरीखी गरिमा।। 

दमक रही है नभ में बिजली, भय की सिहरन आई। 

आज मगन मन वृक्ष ले रहे, झूम-झूम अँगड़ाई।।

कुँए, झील, तालाब भर गये, खेतों में है पानी। 

अब किसान के मुखड़े पर है, खेले नई जवानी।। 

सावन-भादों हर्षाये हैं, शिवपूजा मन भाई। 

आज मगन मन वृक्ष ले रहे, झूम-झूम अँगड़ाई।।

वरुण देव की दया हो गई, आज प्रकृति आनंदित। 

आकर्षण, सम्मोहन दिखता, हुआ नेह परिभाषित।। 

उमड़ी-घुमड़ी सरिताओं में, दिखी नवल प्रभुताई। 

आज मगन मन वृक्ष ले रहे, झूम-झूम अँगड़ाई।।

विरह जगाती है यह वर्षा, प्रियतम बिन मायूसी।

मिलना कैसे होगा अब तो, क़िस्मत हुई रुआँसी।। 

इस सावन ने बैर भँजाया,  तन में आग लगाई। 

आज मगन मन वृक्ष ले रहे, झूम-झूम अँगड़ाई।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अभिमन्यु ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अभिमन्यु ??

मेरे इर्द-गिर्द

कुटिलता का चक्रव्यूह

आजीवन खड़ा रहा,

सच और हौसले

की तलवार लिए

मैं द्वार बेधता रहा,

कितने द्वार बाकी

कितने खोल चुका

क्या पता….,

जीतूँगा या

खेत रहूँगा

क्या पता….,

पर इतना

निश्चित है;

जब तक

मेरा श्वास रहेगा,

अभिमन्यु ;

मेरे भीतर वास करेगा..!

© संजय भारद्वाज 

अपराह्न 3:23 बजे, 13.9.2018

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #5 ☆ कविता – “उसूल…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #5 ☆

 ☆ कविता ☆ “उसूल…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

अगर जलना है

तो जलना ही सही

दुनिया का उसूल है

तो वह भी सही

 

मुरझाए हैं फिर भी

फूल तो फूल ही कहलाते हैं 

टूटे हैं  फिर भी

काटें तो काटें ही कहलाते हैं 

 

कायनात के हम बाशिंदे हैं 

मन से उसे निभाते हैं 

गर कट भी जाएं

फ़िर भी काटें ही हैं 

 

क्या तुम कायनात के

उसूलों पर चल रही हो

मुरझाने पर भी

क्या फूल ही रहती हो

 

हम गर काटें हैं 

तो यूं ही कटते जाएंगे

तुम अगर खिल जाती हो

तो उसूल निभाते जाएंगे

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 167 ☆ बाल कविता – कैसे होते दिन और रात ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 167 ☆

बाल कविता – कैसे होते दिन और रात ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

टीचर जी समझाती हमको

कैसे होते दिन और रात।

आज समझ में सब कुछ आया

बहुत सरल – सी यह है बात।

 

मुन्ना बोले आओ समझें

रवि , धरा की सत्य कहानी।

ईश्वर की सृष्टि है न्यारी

सबने यही बातें मानी।।

 

पृथ्वी घूमे एक धुरी पर

सदा यह घूमा करती है।

चौबीस घंटे में ये नित ही

चक्कर पूरा करती है।।

 

सूर्यदेव हैं अंतरिक्ष में

सदैव उजाला करते हैं।

स्थिर रहते एक जगह पर

पर लगे कि जैसे चलते हैं।।

 

घूम रही धरती का हिस्सा

जब रवि के सम्मुख आता।

उसी अंश में खूब उजाला

रवि किरण से जगमगाता।।

 

जहाँ न पहुँचे रवि उजाला

वह भाग तम से भर जाता।

वहाँ हो जाती रात घनेरी

सूर्य धरा को रोज नचाता।।

 

नित्य घूमती धरा इस तरह

छोटी – सी विज्ञान की बात।

समझ में सभी आज आ गया

कैसे होते दिन और रात।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #189 – कविता – चौकन्ने रहो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “चौकन्ने रहो)

☆  तन्मय साहित्य  #189 ☆

☆ चौकन्ने रहो☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कब कहाँ किस ओर से

तुम पर करेंगे वार

चौकन्ने रहो।

है इन्हीं में से कोई

जो कर रहे हैं

आज अतिशय प्यार

चौकन्ने रहो।

 

है जगत का सत्य

उगते सूर्य को

सब अर्घ्य देते हैं

खड़ा वन में

जो सीधा बाँस

पहला वार सब

उस पर ही करते हैं।

झूठ का लेकर सहारा

कर रहे जो

सत्य पर तकरार, चौकन्ने रहो…

 

ये धवल देशी धतूरे

फूल हैं निर्गन्ध

फल इनके कँटीले

शीष पर शिव के चढ़े

मदमस्त मन में

भूल कर औकात

अपनी ये नशीले।

लक्ष्मी पूत सब आज

जन सेवक बने हैं

दो मुँही सरकार चौकन्ने रहो…

 

प्रिय, सदा से पुत्र रहता

हर पिता का,

वंश को

आगे बढ़ाये

डोर टूटे साँस की तब

 वही प्यारा पूत

अग्नि में जलाये।

प्यार के पीछे

छिपी रहती निरन्तर

संशयी तलवार चौकन्ने रहो…

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 14 ☆ मुठ्ठी को बाँधो कसकर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “मुठ्ठी को बाँधो कसकर।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 14 ☆  मुठ्ठी को बाँधो कसकर… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

अपने ही हाथों से

फिसल रही उम्र

मुठ्ठी को बाँधो कसकर।

 

समय कहाँ रह पाया

बस में अपने

आँखों में डूब गए

सारे सपने

 

दीपक की लौ जैसी

पिघल रही उम्र

नेह को सहेजो गलकर ।

 

बच्चों के हाथों दे

बचपन की सीख

माँग रहे अब उनसे

जीवन की भीख

 

दूर खड़ी यादों में

बहल रही उम्र

फूलों के आँगन तजकर।

 

सब कुछ बाँटा पाने

है अपनापन

मिला नहीं अब तक पर

मन से ही मन।

 

रोज-रोज चेहरे को

बदल रही उम्र

भीड़ खड़ी देखे हँसकर।

          ***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘भूमिकाएँ…’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Basic Nature…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem ~ भूमिकाएँ ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – भूमिकाएँ ??

उसने याद रखे काँटे;

पुष्प देते समय

अनायास जो

मुझसे, उसे चुभे थे,

मेरे नथुनों में

बसी रही

फूलों की गंध सदा;

जो सायास

मुझे काँटे

चुभोते समय

उससे लिपट कर

चली आई थी,

फूल और काँटे का संग

आजीवन है,

अपनी-अपनी भूमिका पर

दोनों कायम हैं।

© संजय भारद्वाज 

16 सितम्बर 2018

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ Basic Nature… ??

He remembered

the thorns,

pricking him,

while receiving the

flowers from me,

though unintentionally;

 

While the smell of

flowers perennially

remained in my nostrils

that came cuddling

while he deliberately

pricked thorns to me…

 

Accompaniment of flowers

and thorns is lifelong…

Both are firm on their

respective roles, unflinchingly..!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ चाहतें हमने न पाली… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “चाहतें हमने न पाली“)

✍ चाहतें हमने न पाली… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ज़िन्दगीं अपनी तरह से हम बसर करते रहे

पास रख अपनी अना का बस गुज़र करते रहे

चाहतें हमने न पाली कोठियाँ गाड़ी बनें

जिसमें खुशियाँ डेरा डाले ऐसा घर करते रहे

रौनकें दुनिया की भाईं हो गई वो बेवफा

प्यार की पर हम इबादत उम्र भर करते रहे

काट देते बेरहम हो आदमी जल्लाद बन

आक्सीजन को अता फिर भी शज़र करते रहे

दोसती को हाथ बढ़ते किस तरह से बीच में

तुम उधर नफरत करो और हम इधर करते रहे

मुश्किलों से सामना मैंने नहीं हरगिज़ किया

मेरे ऊपर तुम इनायत की नज़र करते रहे

जब हुआ राजा निकम्मा चाटुकारों से घिरा

ज़ुल्म मासूमों पे जालिम बे- ख़तर करते रहे

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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