हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 165 ☆ बाल कविता – पंख लगाओ पेड़ सखा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 165 ☆

☆ बाल कविता – पंख लगाओ पेड़ सखा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

पेड़ सखा तुम उड़ते वैसे

       जैसे बादल हैं उड़ते ।

डाल तुम्हारी बैठ-बैठ कर

      सैर मजे से हम करते।।

 

बादल राजा सैर कर रहे

         धरती और गगन में नित।

कहीं बरसते, कहीं सरसते

             सबका करते बादल हित।।

 

खुशबू फैलाते दुनिया में

        सुन्दर – सुंदर फूलों की।

सब बच्चों को फल खिलवाते

       पैंग बढ़ाते झूलों की।।

 

बातें करते हर पंछी से

        मिल-जुलकर ही हम सारे।

भोर सदा ही हम जग जाते

             गीत सुनाते नित न्यारे।।

 

खेल-कूद ,योगासन करना

        सबको रोज पढ़ाते हम।

हिंदी, इंग्लिश सब कुछ पढ़कर

        नया ज्ञान बढ़वाते हम ।।

 

कभी न लड़ते आपस में हम

         सदा प्रेम से ही रहते।

हर मुश्किल का समाधान कर

         नदियों जैसा ही बहते।।

 

सुख जैसे तुम सबको देते

       नहीं किसी से लड़ते हो।

धूप, ताप तुम सब सह जाते

       आगे-आगे बढ़ते हो ।।

 

वैसे ही हम बढ़े चलें नित

     कभी न हिम्मत हारेंगे।

सबके ही हितकारी बनकर

      सबको ही पुचकारेंगे।।

 

पंख लगाओ पेड़ सखा तुम

      सैर करें पूरे जग की।

हँसी-खुशी से जीवन जीना

     मूल्यवान पूँजी सबकी।।

  

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #187 – कविता – विक्रय हेतु रचा नहीं है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “विक्रय हेतु रचा नहीं है)

☆  तन्मय साहित्य  #187 ☆

☆ विक्रय हेतु रचा नहीं है☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

मैंने अपनी रचनाओं को

विक्रय हेतु रचा नहीं है

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

 

गहन मनन-चिंतन से उपजी

बड़े जतन से इन्हें सँवारा

सत्यनिष्ठ ये सहनशील

निष्पक्ष, निर्दलीय समरस धारा

सुख अव्यक्त दे,

जब भावों को शब्द शब्द

साकार बुनूँ तो।

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

 

मेले-ठेले बाजारों में

नहीं प्रदर्शन की अभिलाषा

करे उजागर समय सत्य को

शिष्ट, विशिष्ट, लोकहित भाषा,

अन्तस् का तब ताप हरे

जब काव्य पथिक बन

इन्हें चुनूँ तो।

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

 

करुणा, दया, स्नेह ममता

शुचिता सद्भावों से वंचित हैं

कहो! काव्य के सौदागर

कितना झोली में धन संचित है

है अमूल्य यह सृजन धरोहर

पढ़ पढ़ इनको

और गुनूँ तो।

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

 

तुमने दिए प्रशस्तिपत्र नारियल,

उढ़ाये शाल-दुशाले

पर मन ही मन दाता होने के

गर्वित भ्रम, मन में पाले,

ऐसे सम्मानों के पीछे छिपे इरादे

जान, अगर मैं

शीष धुनूँ तो

फिर भी मोल लगाओगे क्या?

जरा सुनूँ तो!

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 12 ☆ सूखी  बगिया… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सूखी  बगिया।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 12 ☆ सूखी  बगिया… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

अपनेपन से ख़ाली-ख़ाली

है अपनी बगिया

रिश्तों की जाने कब सूखी

भरी हुई नदिया।

 

नदिया के हर घाट

रेत के बने मरुस्थल

नहीं आँख में पानी

सूख गये हैं काजल

 

जगह-जगह से उधड़ी सारी

सपनों की बखिया।

 

उल्टी गिनती गिनें

आज हम संबंधों की

शेष बचा जो

पीड़ा भोगे प्रतिबंधों की

 

पीस रही है बैठ उमर को

सुख-दुख की चकिया।

 

स्वार्थ-सिद्धियाँ और

आदमी बना खिलौना

संवेदन को भूल

लोभ का लगा डिठौना

 

सत्य खड़ा चुपचाप, झूठ है

पंचायत मुखिया।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ उस चश्मे मय का तोड़ कहाँ है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “उस चश्मे मय का तोड़ कहाँ है “)

✍ कविता ☆ उस चश्मे मय का तोड़ कहाँ है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

बोली थी मुझसे करिये मेरा इंतज़ार वो

पर लौट के न आई है फिर से बहार वो

उस चश्मे मय का तोड़ कहाँ है किसी के पास

तारी है उंसके हुस्न का अब भी ख़ुमार वो

ग़म का पहाड़ कैसे अकेले मैं लूँ उठा

मुझसे हुआ है दूर मेरा ग़म गुसार वो

होती ग़ज़ल न तुमसे जुदा होके क्या करें

सूखा पड़ा अहसास का है आबशार वो

दुनिया पे ऐतबार करे मुझको छोड़कर

मेरी अना को करता बहुत  शर्मसार वो

पतझड़ सा नौच लेता महाजन पकी फसल

नंगा खड़ा है खेत में लो काश्तकार वो

अपनी तरह मैं जिसपे यकीं कर सकूँ अरुण

अब तक नहीं मिला है मुझे राज़दार वो

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस – “योग से मिले नया जीवन…” ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस – “योग से मिले नया जीवन…” ☆ डॉ निशा अग्रवाल

ऋषि मुनियों और संतों की पावन भूमि कहा जाने वाला हमारा देश आज योग गुरु देश बन गया है। भारतीय योग गुरुओं ने विदेशी जमीन पर योग की उपयोगिता और महत्व के बारे में जागरूक किया है।

वर्ष 2015 से विश्व भर में 21जून को विश्व योग दिवस मनाया जा रहा है। योग दिवस मनाने की तारीख 21 जून ही निश्चित की गई है। इसका कारण भारतीय परंपरा के अनुसार, ग्रीष्म संक्रांति के बाद सूर्य दक्षिणायन होना है। सूर्य दक्षिणायन का समय ही आध्यात्मिक सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए असरदार माना गया है। इसलिए प्रतिवर्ष 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाते हैं।

कोरोना काल के बाद से योग का महत्व अधिक बढ़ गया है। संक्रमण से लड़ने के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से लोग योग अभ्यास करने लगे हैं। योग दिवस 2023 की थीम ‘वसुधैव कुटुंबकम के लिए योग’ है। धरती ही परिवार है। धरती जब ही स्वस्थ और शुद्ध रहेगी, जब मानव स्वस्थ रहेंगे। योग भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के सबसे बड़े प्रतीकों में से एक रहा है। यह एक प्राचीन अभ्यास है, जिसकी सृष्टि भारत में हुई है। योग शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विषयों को शामिल करता है। यह शरीर और मन के बीच सद्भाव को बढ़ावा देता है और व्यक्तियों को अच्छी तरह से एक संम्पूर्ण आधुनिक जीवन प्राप्त करने में मदद करता है।

जब भी दुनिया ने मानवता कल्याण के लिए समग्र स्वास्थ्य और जीवन के लिए आवाज उठाया है तो भारत के प्राचीन ज्ञान की हमेशा चर्चा की और सराहना की है. दुनिया भर में इस अभ्यास की एक बढ़ती स्वीकृति, इसकी व्यापक लोकप्रियता इसका एक साक्ष्य है, जिससे दुनिया में आध्यात्मिक गुरु के रूप में भारत का कद बढ़ रहा है. अब, दैनिक जीवन शैली के एक हिस्से के रूप में योग का तेज पश्चिमी दुनिया में भी देखा जा रहा है. इसकी लोकप्रियता कोविड महामारी के दौरान काफी बढ़ गई , जब शारीरिक और मानसिक फिटनेस को लेकर विश्व स्तर पर ज्यादा जोर दिया गया था, लाखों लोगों को इसी उद्देश्य के लिए योग में घुसना पड़ा।

योग दुःखों को कम करने में मानवता प्रदान करता है और लोगों को एक साथ आनन्द की भावना को बढ़ावा देने और एक साथ दुनिया के बीच लचीलापन बनाने के अलावा लोगों को एक साथ लाता है. अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस ने विश्व स्तर पर विशाल लोकप्रियता प्राप्त की है, और लाखों लोग इस दिन योग-संबंधित घटनाओं में भाग लेते हैं. यह समग्र स्वास्थ्य और कल्याण की खोज में विभिन्न पृष्ठभूमि, संस्कृतियों और धर्मों से लोगों को एकजुट करने का अवसर बन गया है. योग दिवस के निरंतर समारोह को इस अभ्यास के बारे में लोगों के बीच जागरूकता फैलाने और यह सुनिश्चित करने के लिए किसी व्यक्ति की आंतरिक चेतना और बाहरी दुनिया के बीच निरंतर संबंध की भावना को गहरा करता है।

☆ योग से मिले नया जीवन ☆

नित उठ करो योग साधना।

   स्वस्थ रहने की यही प्रार्थना।।

 

सारे रोग योग से भागे।

    ह्रदय रोग भी पास ना आवै।।

 

योग से हो जीवन उजियारा।

    मिटे व्याधियों का अंधियारा।।

 

दर्द दवा और दुआ योग है।

    सुखी जीवन का यही संयोग है।।

 

योग उपचार और औषधि है।

    योग बढ़ाए जीवन अवधि है।।

 

योग साधना में जो जुट जाए।

     तनाव मुक्त जीवन हो जाए।।

 

रोग भगाए योग, करो साधना सारे।

     ताजा रहे मनोयोग मिट जाए सारे।।

 

योग प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाए।

   जीवाणु, विषाणु से लड़ना सिखाए।।

 

शक्तिवर्धक औषधि योग है।

     बुद्धि प्रबर्धक, चेतन्य योग है।।

 

काया प्रबल बनाता योग है।

       रूप सौंदर्य भी देता योग है।।

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 08 – जड़ा नियंत्रण है फौलादी… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – जड़ा नियंत्रण है फौलादी।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 08 – जड़ा नियंत्रण है फौलादी… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

अपनों से कट गये आज हम

साथ नहीं हैं दादा-दादी

 

मम्मी-डैडी बहुत व्यस्त हैं

अधिक कमाने की मजबूरी

स्वर्णिम सपने पूरे करने

हुई बुजुर्गों से भी दूरी

हमें प्रसन्‍न व्यस्त रखने को

कम्प्यूटर की गुड़िया ला दी

 

मिला नहीं ममतालू आँचल

आया ने हमको पाला है

वृद्धों का आशीष न पाया

अपनी मस्ती पर ताला है

कोमल मन, सुकुमार हृदय पर

जड़ा नियंत्रण है फौलादी

 

शिशु मन पर वात्सल्य बड़ों का

अब तक खुशबू सा अंकित है

किन्तु प्रथम आने की तृष्णा

प्रतिपल करती आतंकित है

नई फसल को उन्नत करने

क्यों जहरीली खाद मिला दी

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 85 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 85 – मनोज के दोहे… ☆

1 सच्चाई

सच्चाई परिधान वह, श्वेत हंस चितचोर।

धारण करता जो सदा, आँगन नाचे मोर।।

 

2 परिधान

नवल पहन परिधान सब, चले बराती संग।

द्वार-चार में हैं खड़ेस्वागत के नव रंग।।

3 सौभाग्य

कर्म अटल सौभाग्य है, बनता जीव महान।

फसल काट समृद्धि से, जीता सीना तान।।

4 बदनाम

मानव को सत्कर्म से, मिल जाते हैं राम ।

फँसता जो दुष्कर्म में, हो जाता बदनाम।।

5 आहत

सरल देह-उपचार है, औषधि दे परिणाम।

आहत मन के घाव को, भरना मुश्किल काम।

6 यात्रा

अंतिम यात्रा चल पड़ी, समझो पूर्ण विराम।

मुक्ति-धाम का सफर ही, सबका अंतिम धाम।

 

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – धूप ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – धूप ??

एसी कमरे में अंगुलियों के

इशारे पर नाचते तापमान में,

चेहरे पर लगा लो कितनी ही परतें,

पिघलने लगती है सारी कृत्रिमता

चमकती धूप के साये में,

मैं सूरज की प्रतीक्षा करता हूँ,

जिससे भी मिलता हूँ;

चौखट के भीतर नहीं,

तेज़ धूप में मिलता हूँ !

© संजय भारद्वाज 

7:22 बजे, 25.1.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “दोहे – पितृ अभिव्यक्ति…” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

 

“दोहे – पितृ अभिव्यक्ति…☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

पिता कह रहा है सुनो, उसके दिल की बात।

जीवन पितु का फर्ज़ है, मत समझो सौगात।।

संतति के प्रति कर्म कर, रचता नव परिवेश।

धन-अर्जन का लक्ष्य ले, सहता अनगिन क्लेश।।

चाहत यह ऊँची उठे, उसकी हर संतान।

पिता त्याग का नाम है, भावुकता का मान।।

निर्धन पितु भी चाहता, सुख पाए औलाद।

वह ही घर की पौध को, हवा, नीर अरु खाद।।

भूखा रह, दुख को सहे, तो भी नहिं है पीर।

कष्ट, व्यथा की सह रहा, पिता नित्य शमशीर।।

है निर्धन कैसे करे, निज बेटी का ब्याह।

ताने सहता अनगिनत, पर निकले नहिं आह।।

धनलोलुप रिश्ता मिले, तो बढ़ जाता दर्द।

निज बेटी की ज़िन्दगी, हो जाती जब सर्द।।

पिता कहे किससे व्यथा, यहाँ सुनेगा कौन।

नहिं भावों का मान है, यहाँ सभी हैं मौन।।

पिता ईश का रूप है, है ग़म का प्रतिरूप।

दायित्वों की पूर्णता, संघर्षों की धूप।।

पिता-व्यथा सुन लें ज़रा, करें आज सब गौर।

मुश्किल का चलता सदा, संग पिता, नित दौर।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 143 – कुछ का कुछ कर गई चाँदनी… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कुछ का कुछ कर गई चाँदनी।)

  • ✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 144 – कुछ का कुछ कर गई चाँदनी…  ✍

ये आई, वो गई चाँदनी

कुछ का कुछ कर गई चाँदनी।

रात रोज आती है लेकिन

क्या थी कल की रात

खुली आँख से देख रहा था

सपनों की बारात

दुल्हिन जैसी लगी चाँदनी, वधूवेश में लगी मानिनी।

 

ये आई वो गई चाँदनी।

मेरे मन में भरी चाँदनी

फैला रही उजास

अब तो लगता आ जायेगा

मुट्ठी में आकाश।

जाने क्या कर गई चाँदनी, अमृत सा घर गई चाँदनी।

 

ये आई वो गई चाँदनी।

सबकी अपनी अलग चाँदनी

मेरी मेरे पास

प्राण हृदय नयनों में मेरे

है उसका अधिवास।

भक्ति मुक्ति दे गई चाँदनी, है मेरी आसक्ति चाँदनी।

ये आई वो गई चाँदनी।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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