हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 91 ☆ शीतल हवाएँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “शीतल हवाएँ”।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 91 ☆ शीतल हवाएँ ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

माघ भीनी खुशबुओं से

भर गया है

चल रहीं शीतल हवाएँ।

 

भीगती है ओस में

बैठी हुई चिड़िया

पंख अपने निचोती है

बाड़ में कचनार का

आँचल उलझता सा

गिरा अधरों से मोती है

खिलखिलाती धूप आँगन

हँस रहा है

ले रहा सूरज बलाएँ।

 

फूल के मकरंद पर

छाया घना कुहरा

तितलियों के रंग परचम

सिहरते रूप फसलों के

पंछी चहकते हैं

आँख लेकर स्वप्न हरदम

फूल-पत्ते बाग मौसम

खिल गया है

झील में कलियाँ नहाएँ।

 

जंगलों में गंध के

पैग़ाम ले चलती हवा

राहों में स्वर लहरियाँ

जा रहीं स्कूल बस्ते

टाँग काँधों पर समय

गाँवों घर की बेटियाँ

पाँव से पगडंडियों का

मन मिला है

खेत ख़ुश हो गीत गाएँ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 95 ☆ रात दुख की अगर मुझे दी है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “रात दुख की अगर मुझे दी है“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 95 ☆

✍ रात दुख की अगर मुझे दी है… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

पर दिए है उड़ान भी देना

मुझको शीरी ज़ुबान भी देना

 *

औरतें मर्द के बराबर जब

उड़ने को आसमान भी देना

 *

हों न सैयाद जालकार कोई

ऐसा मुझको जहान भी देना

 *

सात जन्मों का जिससे वादा है

जानने कुछ निशान भी देना

 *

हादसे की न दें खबर थाने

लोग डरते बयान भी देना

 *

रात दुख की अगर मुझे दी है

सुख भरी तू विहान भी देना

 *

हर कदम पर है ज़ीस्त में ख़तरे

हर कदम पर वितान भी देना

 *

ख़्वाहिशें बेशुमार जब दी है

भेदने को कमान भी देना

 *

मुझको तूने अगर अना दी है

ज़हन में स्वाभिमान भी देना

 *

अहलिया लिख नसीब में दी  तो

साथ रहने मकान भी देना

 *

नेक वंदा अगर मैं हूँ तेरा

मुझको कोई अयान भी देना

 *

हिन्द सा जब  दिया “अरुण” को चमन

नेक तू बागवान भी देना

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 89 – बढ़ें अपन तूफानों में… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – बढ़ें अपन तूफानों में।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 89 – बढ़ें अपन तूफानों में… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

आग लगे अरमानों में 

खलल पड़े ईमानों में

*

चूम शमा को, मरने की 

होड़ लगी परवानों में

*

मेरा नाम करो शामिल 

तुम अपने दीवानों में

*

रूप का सागर मत बाँटो 

अलग-अलग पैमानों में

*

कभी अजीज रहे उनके 

अब, हम हैं अनजानों में

*

मंदिर-मस्जिद में, न मिली 

शांति मिली, मयख़ानों में 

*

तुम यदि साथ निभाओ तो 

बढ़ें  अपन, तूफानों में

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दिल को सुकूँ मिले… ☆ श्री हेमंत तारे ☆

श्री हेमंत तारे 

श्री हेमन्त तारे जी भारतीय स्टेट बैंक से वर्ष 2014 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृत्ति उपरान्त अपने उर्दू भाषा से प्रेम को जी रहे हैं। विगत 10 वर्षों से उर्दू अदब की ख़िदमत आपका प्रिय शग़ल है। यदा- कदा हिन्दी भाषा की अतुकांत कविता के माध्यम से भी अपनी संवेदनाएँ व्यक्त किया करते हैं। “जो सीखा अब तक,  चंद कविताएं चंद अशआर”  शीर्षक से आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक ग़ज़ल – दिल को सुकूँ मिले।)

✍ दिल को सुकूँ मिले… ☆ श्री हेमंत तारे  

दिलकश एहतिमाम हो, तो दिल को सुकूँ मिले

दिल में ग़ुबार ही न हो, तो दिल को सुकूँ मिले

*

आराम की हर शै तो है, पर कुछ कमी सी है

आश्ना गर साथ हो, तो दिल को सुकूँ मिले

*

चाहिता है वो, के हर सिम्त बस एक रंग हो

गर हर रंग का एज़ाज़ हो, तो दिल को सुकूँ मिले

*

मुश्किल सफ़र है सामने, और कोई न साथ है

दिलबर भी मेरे साथ हो, तो दिल को सुकूँ मिले

*

अखबार तक भी अब तो गोदाम ए ज़हर है

सुर्ख़ियों में दिल की बात हो तो दिल को सुकूँ मिले

*

मसरूफियत के चलते वो दूर हो गया

घर वापसी गर उसकी हो, तो दिल को सुकूँ मिले

*

उसके सितम का मुझको,  कोई गिला नही

मेहरबां गर ‘हेमन्त’ हो, तो दिल को सुकूँ मिले

(एहतिमाम = व्यवस्था, सिम्त = तरफ, सुकूँ = शांति, एज़ाज़ = सम्मान , शै = वस्तु, सुर्खियां = headlines, आश्ना = मित्र, मसरूफियत = व्यस्तता)

© श्री हेमंत तारे

मो.  8989792935

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ग्लेशियर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – ग्लेशियर ? ?

कितने प्रवाह

कितनी धाराएँ,

असीम पीड़ाएँ

अनंत व्यथाएँ,

जटा में बंधी आशंकाएँ

जटा में जड़ी संभावनाएँ,

हिमनद पिए खड़ा है

महादेव-सा पग धरा है,

पंच तत्व की देन हो

पंच तांडव से डरो,

मनुज सम आचरण करो,

घटक हो प्रकृति के,

प्रकृति का सम्मान करो,

केदारनाथ की आपदा

का स्मरण करो,

मनुज, इस पारदर्शी

ग्लेशियर से डरो!

?

© संजय भारद्वाज  

अपराह्न 1.37 बजे, 4.9.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 162 – मनोज के दोहे – संदर्भ कुम्भ ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे – संदर्भ कुम्भ। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 162 – मनोज के दोहे – संदर्भ कुम्भ  ☆

कुंभ, प्रयाग, त्रिवेणी, संक्रांति, गंगा

भजो तुम प्रभु को भाई, करेंगे राम भलाई…

*

महा- कुंभ का आगमन, बना सनातन पर्व।

सकल विश्व है देखता, करता भारत गर्व।।

*

प्रयाग राज में भर रहा, बारह वर्षीय कुंभ।

पास फटक न पाएगा, कोई शुंभ-निशुंभ।।

*

गँगा यमुना सरस्वती, नदी त्रिवेणी मेल।

पुण्यात्माएँ उमड़तीं, धर्म-कर्म की गेल।।

*

सूर्य देव उत्तरायणे, मकर संक्रांति पर्व।

ब्रह्म-महूरत में उठें, करें सनातन गर्व।।

*

गंगा तट की आरती, लगे विहंगम दृश्य।

अमरित बरसाती नदी, कल-कल करती नृत्य।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 225 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 225 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

माधवी ।

तुम

देवी नहीं,

पाषाणी नहीं

मानुषी हो,

क्या

तुम्हारे मन में

कभी नहीं आया

कि कोई एक तुम्हारा हो

अपना हो

ऐसा अपना

जिसके वक्ष पर

विश्राम कर सको,

जिसके

बाहुओं में बँधकर

सुख का अनुभव करो

और जिसके कंधों पर

सिर रखकर

रो सको ।

अनुभव नहीं किया

तुमने

स्तनपान कराने

दुलारने

और

लोरी गाने का आनंद ।

माधवी,

तुम्हारे बारे में

सोचते सोचते

मैं

तुम्हारे काल से

आ जाता हूँ

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 225 – “झोंके छतनार सभी…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत झोंके छतनार सभी...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 225 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “झोंके छतनार सभी...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

ये पत्ते नीम के

कडवे लगते जैसे

नुस्खे हकीम के

 

दुबले पतले हिलते

लगे, हाथ हों मलते

भूखे प्यासे जैसे

बेटे यतीम के

 

डालडाल लहराते

टहनियों में फहराते

झूमते मचलते ज्यों

नशे में अफीम के

 

झोंके छतनार सभी

झुकते साभार , अभी

शाख पर लिखे जैसे

दोहे रहीम के

 

हरे भरे रहते हैं

खरी खरी कहते हैं

जैसे हों तकाजे

हवा के मुनीम के

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

08-02-2025

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – उलटबाँसी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – उलटबाँसी ? ?

लिखने की प्रक्रिया में

वांछनीय था

पैदा होते लेखन के

आलोचक और प्रशंसक,

उलटबाँसी तो देखिए,

लिखने की प्रक्रिया में

पैदा होते गए लेखक के

आलोचक और प्रशंसक!

?

© संजय भारद्वाज  

10.33. 13.11.18

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 207 ☆ # “तू अपना नाम तो लिख दे…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता तू अपना नाम तो लिख दे …”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 208 ☆

☆ # “तू अपना नाम तो लिख दे …” # ☆

उठा कलम के आसमान पर

नाम लिख सके

सुबह को सुबह 

शाम को शाम लिख सके

 

लिखने वालों की

दुनिया में कोई कमी नहीं है

दौड़ जारी है

अभी थमी नहीं है

 

पर तुझे अलग से लिखना है

दुनिया से अलग दिखना है

जो जख्म खाए हैं तूने रात दिन

उनसे हर पल अलग सीखना है

 

भूखे को भूखा

नंगे को नंगा लिख

व्यवस्था से लड़ने वालोंको

पंगा लिख

गरीब को गरीब

 चंगे को चंगा लिख

नफरत के उन्माद को

कट्टरता और दंगा लिख

 

कलम की धार तेज कर

बादलों को चीर

तपती हुई धरती पर

बरसा शीतल नीर

प्यासी प्यासी आंखों को

तुझसे उम्मीद है

तू ही दूर करेगा

उनकी जन्मों जन्मों की पीर

 

माना यह रास्ता

कांटों से भरा है

बचपन से जो रिसता है

वह जख्म अब भी हरा है

तूने जंगल की आग में

तपाया है खुद को

तू तो व्याघ्र है

कब दुनिया से डरा है

 

शिकारियों  की बंदूके

तुझ पर तनी है

तू कलमकार है

शब्दों का धनी है

मरकर भी अमर होगी

 कोख तेरी मां की

जिसने तुझ जैसी जांबाज औलाद जनी है

 

जाते-जाते तू

 हमको यह भीख दे

स्वाभिमान से जीने की

कला की सीख दे

सदियों तक तुझे

 हम याद करेंगे

सबके हृदय पर

तू अपना नाम तो लिख दे /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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