हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – गणित, कविता और आदमी..! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – गणित, कविता और आदमी..! ? ?

बचपन में पढ़ा था

X + X , 2X होता है,

 X × X,  X² होता है,

Y + Y,  2Y होता है

Y + Y,  Y² होता है..,

X और Y साथ आएँ तो

X  + Y होते हैं,

एक-दूसरे से

गुणा किये जाएँ तो

XY होते हैं..,

X और Y चर राशि हैं

कोई भी हो सकता है X

कोई भी हो सकता है Y,

सूत्र हरेक पर, सब पर

समान रूप से लागू होता है..,

फिर कैसे बदल गया सूत्र

कैसे बदल गया चर का मान..?

X पुरुष हो गया

Y स्त्री हो गई,

कायदे से X और Y का योग

X + Y होना चाहिए

पर होने लगा X – Y,

सूत्र में Y – X भी होता है

पर जीवन में कभी नहीं होता,

(X + Y)2 = X² + 2 XY + Y²

का सूत्र जहाँ ठीक चला है,

वहाँ भी X का मूल्य

Y की अपेक्षा अधिक रहा है,

गणित का हर सूत्र

अपरिवर्तनीय है

फिर किताब से

ज़िंदगी तक आते- आते

परिवर्तित कैसे हो जाता है.. ?

जीवन की इस असमानता को

किसी तरह सुलझाओ मित्रो,

इस प्रमेय को हल करने का

कोई सूत्र पता हो तो बताओ मित्रो!

?

© संजय भारद्वाज  

संध्या 7.35 बजे, 13.9.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 91 ☆ हाथों को मिलाना है महज रस्म निभाना… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “हाथों को मिलाना है महज रस्म निभाना“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 91 ☆

✍ हाथों को मिलाना है महज रस्म निभाना… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मतलब पे नहीं झूठ को तू सत्य कहा कर

इतना भी न किरदार से तू दोस्त गिरा कर

*

इंसान करे जैसा है अंजाम भी वैसा

मज़लूम पे ऐसे न सितम देख किया कर

*

मलहम न लगा सकते न कर सकते हवा गर

ज़ख्मों पे किसी के नहीं तू लौन मला कर

*

अल्लाह हर इक वंदे की करता है ख़ता मुआफ़

मतलब नहीं है ये कि ख़ताऐं तू किया कर

*

ये शौक़ ख़राबात के लाते है सड़क पर

फिर क्या तू करेगा बता विरसे को उड़ा कर

*

ये प्यार भी क्या चीज है दो ज़िस्म हों इक जां

खुद अश्क़ बहाते है सनम तुमको सता कर

*

दमकल के नहीं वश का बुझा पाना है देखो

नफ़रत के शरारों से कभी आग लगा कर

*

हाथों को मिलाना है महज रस्म निभाना

यक ज़हती को मजबूत करो दिल को मिला कर

*

भारी कोई हुंडी या खज़ाना मिला है क्या

जो आपने हासिल किया है मुझको भुला कर

*

खरसूदा रिवायात है सदियों से अभी तक

क्या पाया है दुनिया ने मुहब्बत को ज़ुदा कर

*

दे आया है बदले में तू ईमान व पगड़ी

क्या पास अरुण रह गया है ताज को पा कर

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 221 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 221 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

छायेंगीं

पुष्प सज्जित

सुवासित

रमण शैयाएँ ।

ध्यान आयेंगे

रमणकर्ता

उनके बाहुओं के

नागपाश ।

उद्वेलित करेगा

साँसों का संगम ।

एहसास होगा

गर्भ का

अनुभव करोगी

सही गई

प्रसव पीड़ा।

कानों में गूँजेगी 

नवजातों की चीखें ।

तुम्हें

धिक्कारेगा

आँचल का गीलापन ।

मानवी होकर भी तुमने

क्यों स्वीकारी जड़ता?

माधवी ।

सच बताना

क्या तुम

पत्नी रह सकोगी 

किसी की?

क्या

सार्थक कर पाई

अपना मातृत्व ?

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 221 – “क्या चिड़ियों के नये घोंसले…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत क्या चिड़ियों के नये घोंसले...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 221 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “क्या चिड़ियों के नये घोंसले...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

टोरांटो से छोटा बेटा

पूछ रहा तत्पर………

क्या चिड़ियों के नये घोंसले

बनते इमली पर

क्या अबभी हलचल को लेकर

खुश है पुतली घर

टोरांटो से छोटा बेटा

पूछ रहा तत्पर

 

क्या अब भी सुबरातन चाची

अपने शौहर से

पूछा करती हैं चिट्टी में

यही अबोहर से –

 

नये शॉल को भिजवाने की

जिद करती खत में

नाच नचाती रहती जबतब

टेढ़ी उँगली पर

 

क्या अब भी रमजान मियाँ

का वह बिगड़ा इंजन

सुधर गया ? तो बेच डालता

नया दंत मंजन

 

जो नुकसान दिलाता रहता

था आये दिन को

या उसका व्यापार सिमट

आया अब मछली पर

 

क्या अबभी उस बड़े मोहल्ले

की महिलायें भी

याद किया करती हमसब को

योंही कभी कभी

 

क्या अबभी उसकुनबे के

सब मर्दोंकी आखें

गड़ी रहा करती हैं उनकी

भावज मझली पर

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

12-01-2025

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – रिश्ता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – रिश्ता ? ?

मिलते कभी नहीं,

जुलते कभी नहीं,

कहते कुछ नहीं,

सुनते कुछ नहीं,

तब भी, एक-दूसरे से

दिन-रात बतियाते हैं हम..,

न होकर भी जो है,

ये रिश्ता कितना पुख़्ता है..!

?

© संजय भारद्वाज  

दोपहर 3:33 बजे, 11.01.2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 576 ⇒ सूरज के तेवर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सूरज के तेवर।)

?अभी अभी # 576 ⇒ सूरज के तेवर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ये महाशय सूरज,

ऊंचे घोर अंबर में रहाते हैं

जेठ की भरी दुपहरी में

तो तमतमाते हैं ,

और जब पौस माह में

आसमान में ड्यूटी देते हैं

तो ठंड में कंपकंपाते हैं ।

अजीब फितरत है इनकी

कभी आग का गोला

तो कभी बर्फ का गोला !

दिन के चौकीदार हैं ये

खुद रात को तानकर सोते हैं;

कल तो इन्होंने हद कर दी

दिन भर बादलों का

कंबल ओढ़कर पड़े रहे

और अपनी रोशनी को

भी कंबल में छुपा लिया ।।

तलवार में जंग नहीं लगती

तलवार जंग लड़ने के लिए होती है ;

सूरज भी रोशनी देने के लिए होता है,

उसे भी कहीं जाड़ा लगता है !

लेकिन समय का फेर देखिए,

दिन में भी कभी यह सूरज

मुंह छुपाता है

तो कभी बारिश के रूप में

घड़ियाली आंसू बहाता है ।।

कभी तो मन करता है

एक रूमाल से इसके आंसू

पोंछ दूं,

थोड़ी इसको भी विक्स

की भाप दे दूं

इस बेचारे का कौन है

उस बेरहम आसमान में ।

फिर खयाल आता है

जब सूरज को ग्रहण लगता है

तो पुजारी भगवान का मंदिर भी नहीं खोलता !

कौन देवता बड़ा है

मंदिर वाला अथवा

आसमान वाला यही

हमारा आदित्यनाथ ।।

सर्वशक्तिमान भुवन भास्कर की

यह दशा हमसे देखी नहीं जाती ।

इस धरा के हर प्राणी की निगाह आसमान पर ही लगी रहती है ।

उसका तेज ही हमारा तेज है ।

काश गलत हो हमारा अनुमान !

आज नहीं ऐसा कोई बाल हनुमान,

जो फिर सूरज को बर्फ का गोला समझ मुंह में धर ले ।

समस्त वसुन्धरा की ओर से हमारा सूर्य नमस्कार

स्वीकार करें ।

यह ईश्वर का कोप हो

अथवा प्रकृति का प्रकोप

प्रकृति से खिलवाड़ करने वाले हम इंसान ही हैं ।

हमारी खता माफ़ हो ।

अपनी लीला समेटें !

स्वयं प्रकाशित हों

और समस्त चराचर को भी अपनी स्वर्ण रश्मियों से आलोकित एवं आल्हादित करें ।

ॐ सूर्याय नम:

ॐ हिरण्यगर्भाय नम‌:

ॐ रवये नम:

ॐ खगाय नम:

ॐ मित्राय नमः

ॐ पूष्णे नमः

ॐ मारीचाय नम:

ॐ सावित्रे नम:

ॐ अर्काय नमः

ॐ भानवे नम:

ॐ आदित्याय नमः:

ॐ भास्कराय नमः

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 204 ☆ # “मिलकर बात करो…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मिलकर बात करो…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 203 ☆

☆ # “मिलकर बात करो…” # ☆

जीवन में रिश्ते हैं अनमोल

इन पर ना आघात करो

छोड़ो झूठी शान

आओ मिलकर  बात करो

 

सदियों से

धरा तुम्हारी गगन तुम्हारा है

खेत खलिहान तुम्हारा है

पसीना बहाता है मजदूर

पर फसल और धान तुम्हारा है

इन मेहनतकश धरती पुत्रों का सम्मान करो

इनके बेहतर हालात करो

आओ मिलकर बात करो

 

तुमने बंद कर दिए हैं

आगे बढ़ने के हर रास्ते

हमने भी खाए हैं

जख्म हंसते-हंसते

शिक्षा महंगी हो गई

जीवन मूल्य हो गए सस्ते

शिक्षा व्यापार हो गई

प्रतिभा बेकार हो गई

यह खेल बंद करो

तुम ईश्वर से डरो

तुम पश्चाताप करो

आओ मिलकर बात करो

 

तुमने हमारे हर सपने को तोड़ा है

लालच देकर अपने तरफ मोड़ा है

उपभोग कर निर्जीव छोड़ा है

इन मुर्दों में अभी जान बाकी है

वक्त आने पर इन्होंने पाषाणों को फोड़ा है

तुम इंसाफ करो

अपने मन को साफ करो

अपने पापोंका प्रायश्चित

अब दिन रात करो

छोड़ो झूठी शान

आओ मिलकर बात करो /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 273 – किमाश्चर्यमतः परम् ! ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 273 ☆ किमाश्चर्यमतः परम् ! ?

देख रहा हूँ कि एक चिड़िया दाना चुग रही है। एक दाना चोंच में लेने से पहले चारों तरफ चौकन्ना होकर देखती है, कहीं किसी शिकारी के वेश में काल तो घात लगाये नहीं बैठा। हर दाना चुगने से पहले, हर बार न्यूनाधिक यही प्रक्रिया अपनाती है।

माना जाता है कि पशु-पक्षी बुद्धि तत्व में विपन्न हैं पर जीवन के सत्य को सरलता से स्वीकार करने की दृष्टि से वे सम्पन्न हैं। मनुष्य में बुद्धितत्व विपुल है पर  सरल को  जटिल करना, भ्रम में रहना, मनुष्य के स्वभाव में प्रचुर है।

मनुष्य की इसी असंगति को लेकर यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया था,

दिने दिने हि भूतनि प्रविशन्ति यमालयम्।शेषास्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।

अर्थात प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, तब भी शेष प्राणी अनन्त काल तक यहाँ बने रहने की इच्छा करते हैं। क्या इससे बड़ा कोई आश्चर्य है?

युधिष्ठिर ने प्रश्न में ही उत्तर ढूँढ़कर कहा था,

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥

अर्थात प्रतिदिन ही प्राणी यम के घर में प्रवेश करते हैं, तब भी शेष प्राणी अनन्त काल तक यहीं बने रहने की इच्छा करते हैं। क्या इससे बड़ा कोई आश्चर्य हो सकता है?

सचमुच इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है कि लोग रोज़ मरते हैं पर ऐसे जीते हैं जैसे कभी मरेंगे ही नहीं। हास्यास्पद है कि पर मनुष्य चोर-डाकू से डरता है, खिड़की-दरवाज़े मज़बूत रखता है पर किसी अवरोध के बिना कहीं से किसी भी समय आ सकनेवाली मृत्यु को भूला रहता है।

संभवत: इसका कारण ज़ंग लगना है। जैसे लम्बे समय एक स्थान पर पड़े लोहे में वातावरण की नमी से ज़ंग लग जाती है, वैसे ही जगत में रहते हुए मनुष्य की बुद्धि पर अहंकार की परत चढ़ जाती है। सामान्य मनुष्य की तो छोड़िए, अपने उत्तर से यक्ष को निरुत्तर करनेवाले धर्मराज युधिष्ठिर भी इसी ज़ंग का शिकार बने।

हुआ यूँ कि महाराज युधिष्ठिर राज्य के विषयों पर मंत्री से गहन विचार- विमर्श कर रहे थे। तभी अपनी शिकायत लेकर एक निर्धन ब्राह्मण वहाँ पहुँचा। कुछ असामाजिक तत्वों ने उसकी गाय छीन ली थी। यह गाय उसके परिवार की उदरपूर्ति का मुख्य स्रोत थी।

महाराज ने उससे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। अभी मंत्री से चर्चा पूरी हुई भी नहीं थी कि किसी देश का दूत आ पहुँचा। फिर नागरी समस्याओं को लेकर एक प्रतिनिधिमंडल आ गया। तत्पश्चात सेना से सम्बंधित किसी नीतिविषयक निर्णय के लिए राज्य के सेनापति, महाराज से मिलने आ गए। दरबार के काम पूरे कर महाराज विश्राम के लिए निकले तो निर्धन को प्रतीक्षारत पाया।

उसे देखकर धर्मराज बोले, “आपको न्याय मिलेगा पर आज मैं थक चुका हूँ। आप कल सुबह आइएगा।”

निराश ब्राह्मण लौट पड़ा। अभी वापसी के लिए चरण उठाये ही थे कि सामने से भीम आते दिखाई दिए। सारा प्रसंग जानने के बाद भीम ने ब्राह्मण से प्रतीक्षा करने के लिए कहा। तदुपरांत भीम ने सैनिकों से युद्ध में विजयी होने पर बजाये जानेवाले नगाड़े बजाने के लिए कहा।

उस समय राज्य की सेना कहीं किसी तरह का कोई युद्ध नहीं लड़ रही थी। अत: नगाड़ों की आवाज़ से आश्चर्यचकित महाराज युधिष्ठिर ने भीम से इसका कारण जानना चाहा। भीम ने उत्तर दिया, ” महाराज युधिष्ठिर ने एक नागरिक को उसकी समस्या के समाधान के लिए कल आने के लिए कहा है। इससे सिद्ध होता है कि महाराज ने जीवन की क्षणभंगुरता को परास्त कर दिया है तथा काल पर विजय प्राप्त कर ली है।”

महाराज युधिष्ठिर को अपनी भूल का ज्ञान हुआ। ब्राह्मण को तुरंत न्याय मिला।

हर क्षण मृत्यु का भान रखने का अर्थ जीवन से विमुखता नहीं अपितु हर क्षण में जीवन जीने की समग्रता है। अपनी कविता ‘चौकन्ना’ स्मरण हो आती है-

सीने की / ठक-ठक / के बीच

कभी-कभार / सुनता हूँ

मृत्यु की भी / खट-खट,

ठक-ठक.. / खट-खट..,

कान अब / चौकन्ना हुए हैं

अन्यथा / ठक-ठक और /

खट-खट तो / जन्म से ही /

चल रही हैं साथ / और अनवरत..,

आदमी यदि / निरंतर /सुनता रहे /

ठक-ठक / खट-खट / साथ-साथ,

बहुत संभव है / उसकी सोच / निखर जाए,

खट-खट तक / पहुँचने से पहले

ठक-ठक / सँवर जाए..!

मनुष्य यदि ठक-ठक और खट-खट में समुचित संतुलन बैठा ले तो संभव है कि भविष्य के किसी यक्ष को भविष्य के किसी युधिष्ठिर से यह पूछना ही न पड़े कि किमाश्चर्यमतः परम् !

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of social media # 219 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

 

? Anonymous Litterateur of social media # 219 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 219) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..! 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 219 ?

☆☆☆☆☆

माना कि दूरियाँ

कुछ बढ़ सी गई हैं

लेकिन तेरे हिस्से का वक्त

आज भी तनहा ही गुजरता है…

☆☆

Agreed, distance between us

Has   somewhat  increased…

But the time assigned for you

Still  passes  in  aloofness only…

☆☆☆☆☆

दिल पे कुछ और गुज़रती है

मग़र क्या कीजै

लफ्ज़ कुछ और ही इज़हार 

किये जाते हैं

☆☆

Heart suffers something,

But what to do…

The words express

something else only …!

☆☆☆☆☆

कौन कैसा है

ये ही फ़िक्र रही तमाम उम्र

हम कैसे हैं…

ये कभी भूल कर भी नही सोचा…

☆☆

Life long kept judging others

by solely focussing outwards.

Never paused to assess myself

For introspection looking inwards

☆☆☆☆☆

मेरा ज़मीर बहुत है

मुझे सज़ा के लिए

तू दोस्त है तो नसीहत

न कर ख़ुदा के लिए…

☆☆

My conscience as such is

Good enough to punish me

If you’re my friend; then for

God sake stop counselling!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “पिता को याद करते हुए…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कविता – पिता को याद करते हुए☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

आज की ही तरह

धुंध में लिपटा और सर्दी में

कंपकपाता एक दिन था

बस्ता लेकर मैं स्कूल में था

जब कोई मुझे बुलाने आया ।

घर पहुंचा तब तक आप विदा हो चुके थे

मुझे जीवन की पाठशाला

और संबंधों के जंगल में

अकेले छोड़ कर , ,

जंगल में रास्ता तलाशता

एक बेटा इतनी दूर निकल आया कि

वह सारा बचपन खो बैठा

आप हर सुबह पहले गीता बांचते

फिर गांव जाने की तैयारी में

साइकिल , जूते खूब चमकाते

यानी मन की सफाई  करते

और बाहर की भी ,,,,,,

फिर आप तैयार होते

एक अच्छा दिन बिताने के लिए

बरसों बीत गए

आप गांव से लौटे नहीं

और न किसी ने दीपावली पर

हाथ पकड़कर मिठाई पटाखे दिलवाए

मेरी पढ़ाई की फिक्र में आप स्कूल आते

पर फिर नहीं पूछा कि  किस हाल में हूं ?

सच

मेरे सपने में जब भी आप आते हो

मैं यही विनती करता हूं

लौट आओ न पिता ,,,

मुझे मेरा बचपन दे दो

आप थे तो बचपन था

आप थे तो किसी चीज़ के लिए

रूठना और मचलना अच्छा लगता था

कितने मेलों में कितनी बार

दिलाए थे खिलौने

अब जीवन ही खिलौना

बन कर रह गया

अब आप नहीं हो

तो बचपन कहां ?

खो गया

जीवन की पाठशाला

और संबंधों के जंगल में

आज की तरह वह एक

धुंध में लिपटा दिन

बहुत याद आता है

पिता आप भी ,,

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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