हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – युद्ध ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – युद्ध ??

किसीका अहंकार

युद्ध का कारण बना,

अहंकार तोड़ने किसीने

युद्ध का चक्रव्यूह रचा,

 

हथियारों की मंडी

कोई खोल रहा,

विनाश की विभीषिका

कोई बेच रहा,

 

मानवता के समर्थन में,

या मानवता के विरुद्ध,

अपराध से अधिक, अब

व्यापार हो चला है युद्ध..!

©  संजय भारद्वाज

(अपराह्न 1:59 बजे, 15 अप्रैल 2022)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सृजन शब्द – कविता ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 150 से अधिक पुरस्कारों / सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ सृजन शब्द – कविता ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(विधा-कुण्डलिया)

कविता रचती जब चलूँ, शब्द पिरोती माल ।

भावों को संचित करू, शारद शोभित भाल ।।

शारद शोभित भाल, कृपा बरसा माँ दानी ।

कलम लिखे शुचि सार, बनूँ तब ही संज्ञानी ।।

कहती प्रेमा आज, काव्य रस बनकर सरिता ।

मन में जागे भाव, सृजित होती तब कविता ।।1!!

 

कविता लेखन तब सरल, छंदों का हो ज्ञान ।

नियम सूत्र सब हो पता, लिखे तभी रख ध्यान ।।

लिखे तभी रख ध्यान, जगत की प्यारी बेटी ।

दिखलाती है मर्म, जहाँ में सबसे भेटी ।।

कहती प्रेमा आज, गढ़े जब कोई नविता ।

रहते भाव  प्रधान, सजे तब प्रेमिल कविता ।।2!!

 

कविता मेरी तब सजी, अविरल धार प्रवाह ।

सुंदर मुखड़ा कृष्ण का, काव्य सजाती चाह ।।

काव्य सजाती चाह, योगिता होती  मोहित ।

मोर मुकुट जो शीश, अधर में बंसी शोभित ।।

कहती प्रेमा आज, रहे अंतस जो सविता ।

कर ऊर्जा  निर्माण, लिखूँ शृंगारित कविता ।।3!!

 

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

मंडला, मध्यप्रदेश 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#76 ☆ गजल – ’’झुलसती सी जा रही है…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “झुलसती सी जा रही है…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 76 ☆ गजल – झुलसती सी जा रही है…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

विश्वका परिदृश्य तेजी से बदलता जा रहा है

समझ पाना कठिन है कि क्या जमाना आ रहा है।

दुनियाँ के हर देश में है त्रस्त जन, शासक निरंकुश

बढ़ रहे संघर्ष दुःखों का अंधेरा छा रहा है।

प्रेम औ’ सद्भाव की दिखती नहीं छाया कहीं भी

तपन के नये तेज से हर एक पथिक घबरा रहा है।

झुलसती सी जा रही है शांति-सुख की कामनायें

बढ़ रहा आतंक का खतरा, सत्त मंडरा रहा है।

भूख प्यास की मार से घुट सा रहा है दम सबों का

लगता है नई आपदाओं का बवण्डर आ रहा है।

तरसते है नयन लखने हरित् सरिता के किनारे

दृश्य पर मरूभूमि का ही देखने में आ रहा है।

बढ़ रहीं है आदमी में राक्षसी नई वृत्तियाँ नित

अपने आप विनाश का सामान मनुज जुटा रहा है।

सूखती दिखती निरन्तर प्रेम की पावन मधुरता

नित ’विदग्ध’ नया प्रबल संदेह बढ़ता जा रहा हैं।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 15 (96-103)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #15 (96 – 103) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -15

लक्ष्मण बिन रह राम गये सिर्फ तीन चतुरांश।

विकल रहे ज्यों धर्म हो एक पाद विकलांग।।96।।

 

कुश लव थे अंकुश सदृश जहाँ शत्रु गजराज।

अतः कुश और शरावती का दिया उन्हीं को राज।।97।।

 

उत्तर प्रति फिर चल पड़े सब अनुजों के साथ।

चले राम जहाँ, त्याग गृह थी अयोध्या भी साथ।।98।।

 

अश्रु सिक्त था मार्ग वह चले जहाँ रघुनाथ।

वानर असुरों ने किया वहाँ भी उनका साथ।।99।।

 

भक्तों पर कर के कृपा भगत-वछल-श्रीराम।

स्वर्गारोहण हित किया सरयू को सोपान।।100अ।।

 

जो सरयू में नहाता जाता सीधे स्वर्ग।

हो उसका संसार में चाहे कोई भी वर्ग।।100ब।।

 

सरयू में मेला लगा पुण्य प्राप्ति की बात।

गोप्रतीर्थ के नाम से जग में हुई विख्यात।।101।।

 

वानर-भालू ने किया देव रूप जब प्राप्त।

किया राम ने अयोध्या स्वर्ग रूप संज्ञात।।102।।

 

रावण का वध, विष्णु ने राम के रूप में धर, जगभार मिटाया,

भेज विभीषण को दक्षिण हनुमान को उत्तर ओर पठाया।

 

कर जग का कल्याण जरूरी अपना प्रण संपूर्ण निभाया।

होकर अन्तर्धान, स्वरूप को राम ने विष्णु के रूप मिलाया।।103।।

 

पन्द्रहवां  सर्ग समाप्त

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 98 – दूर कोठेतरी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 98 – दूर कोठेतरी ☆

दूर कोठेतरी, साद घाली कुणी ।

नाद का जाणवे , या आठवातुनी ।।धृ।।

 

सांग का शोधिशी, प्रेम शब्दाविना ।

भाव तू जाणले , आज अर्थाविना।

प्रितीची आस ही, दाटे डोळ्यातुनी ।।१।

 

भाव वेडी मने, गुंतली ही अशी।

प्रेमवेडी तने,दोन होती कशी।

मार्ग हा कंटकी, चाले काट्यातुनी ।।२।।

 

बंध हे रेशमी, वीण नात्यातली ।

ओढ ही मन्मनी, चाल शब्दातली ।

आर्त ही भावना, बोले काव्यातुनी ।।3।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – विचार☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – विचार ??

विचारों का उत्सव मनुज,

विचारों का विप्लव मनुज,

विचारों का वारिधि मनुज,

विचारों की परिधि मनुज,

विचारों की अकुलाहट मनुज,

विचारों की टकराहट मनुज,

विचार हैं तो ही आचार है,

आचार मनुजता का आधार है,

विचार-विनिमय बनाये रहना,

तुम मनुजता बचाये रखना..!

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 9:31 बजे, 21 जनवरी 2022)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #127 ☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के मुक्तक। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 127 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक ☆

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

लहर उठती है सागर में किनारों से वो मिल जाए।

असर दिल पे जो होता है इशारों में वो कह जाए।

दिलवालों से पूछो तो लगन दिल की ये कैसी है।

मिलन दिल का जो होता है वो चेहरा बता जाए।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

कहानी ये मैं कहता हूँ तुझे मैं ये सुनाता हूँ ।

तेरे गीतों में जादू है उसे मैं गुनगुनाता हूँ ।

तेरी धड़कन जो कहती है उसे मैंने ही समझा है।

नहीं शिकवा कोई तुझसे शिकायत मैं बताता हूं।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

प्रेम है लाजमी जिंदगी के लिए।

तुम समर्पण करो बंदगी के लिए।

जिंदगी तो अकेले  ही निभती नहीं

हमसफ़र चाहिए जिंदगी के लिए।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #117 ☆ साधौ जीवन के दिन चार… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “साधौ जीवन के दिन चार…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 117 ☆

☆ साधौ जीवन के दिन चार… 

राह ताकती मृत्यु हर पल, करिए तनिक  विचार

स्वारथ से अब बाहर निकलो, बदलो अब आचार

समय चूकि पछिताना होगा, तब होगे लाचार

दर्द बांट लो इक दूजे का, जिसमें जीवन सार

राजा हो या रंक वहाँ पर, सबकी एक कतार

हरि चरण”संतोष”चाहता, केशव सुनो पुकार

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 15 (91-95)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #15 (91 – 95) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -15

 

यों उन चारों बंधु ने पुत्रों को दे राज।

किया दिवंगत जननियों के तर्पण और श्राद्ध।।91।।

 

तब आ मुनि के वेश में राम निकट यमराज।

कहा जो देखे हमें कोई, उसे आप दें त्याग।।92।।

 

कहा राम ने ‘‘हो तथा’’। प्रकट हुये यमराज।

ब्रह्मा का आदेश है चलें स्वर्ग महराज।।93।।

 

लक्ष्मण ने सुन बात यह दुर्वासा भय त्रस्त।

जो दर्शन हितराम के की सब बात निरस्त।।94।।

 

योगी लक्ष्मण ने किया सरयू तट तन त्याग।

राम प्रतिज्ञा को किया मन से खुद चरितार्थ।।95।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #113 – अपनों को भी क्या पड़ी है? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – “अपनों को भी क्या पड़ी है ?।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 113 ☆

☆ कविता – अपनों को भी क्या पड़ी है ? ☆ 

वह भूख से मर रहा है।

दर्द से भी कराह रहा है।

हम चुपचाप जा रहे हैं

देखती- चुप सी भीड़ अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

सटसट कर चल रहे हैं ।

संक्रमण में पल रहे हैं।

भूल गए सब दूरियां भी

आदत यह सिमट अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

वह कल मरता है मरे।

हम भी क्यों कर उससे डरें।

आया है तो जाएगा ही

यही तो जीवन की लड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

हम सब चीजें दबाए हैं।

दूजे भी आस लगाए हैं।

मदद को क्यों आगे आए

अपनों में दिलचस्पी अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

हम क्यों पाले ? यह नियम है।

क्या सब घूमते हुए यम हैं ?

यह आदत हमारी ही

हमारे ही आगे खड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

नकली मरीज लिटाए हैं।

कोस कर पैसे भी खाएं हैं।

मर रहे तो मरे यह बला से

लाशें लाइन में खड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

कुछ यमदूत भी आए हैं ।

वे परियों के  ही साए हैं।

बुझती हुई रोशनी में वे

जलते दीपक की कड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

कैसे इन यादों को सहेजोगे ?

मदद के बिना ही क्या भजोगे ?

दो हाथ मदद के तुम बढ़ा लो

तन-मन  लगाने की घड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

20/05/2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares