हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#121 ☆ बैठे-ठाले – चुनावी चहलकदमी…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर आधारित विचारणीय कविता  “बैठे-ठाले – चुनावी चहलकदमी….”)

☆  तन्मय साहित्य  #121 ☆

☆ बैठे-ठाले – चुनावी चहलकदमी…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

प्रेम की गंगा बहाने आ गए

पंचवर्षीय पुण्य पाने आ गए।

 

डोर से अब तक बँधे थे

गाँठ उसकी खुल गई

जुड़े थे पूरब से कल तक

हो गए अब पश्चिमी,

डुबकियाँ उस तट लगा

इस तट नहाने आ गए

पंचवर्षीय पुण्य पाने आ गए….।

 

सगे बन कल तक जहाँ

जमकर उड़ाई रसमलाई

हो गई जब बंद आवक

दिव्य दृष्टि तभी पाई,

साफगोई के कुतर्की

सौ बहाने आ गए

पंचवर्षीय पुण्य पाने आ गए….।

 

 तत्वदर्शी चिर युवा

 हिंदुत्व बूढ़ों को सिखाए 

 इधर कुछ श्रीराम के

 नारे लगा उनको भुनाए,

 साथ भेड़ों को लिए फिर

 खेत खाने आ गए

 पंचवर्षीय पुण्य पाने आ गए

 प्रेम की गंगा बहाने आ गए।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से#14 ☆ नज़्म – नफ़रत के बीज –☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। ) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  नज़्म “नफ़रत के बीज–”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 14 ✒️

?  नज़्म – नफ़रत के बीज– —  डॉ. सलमा जमाल ?

नफ़रत के बीज कैसे ,

मोहब्बत उगाऐंगे ।

काँटे बोके फूल कहाँ से ,

हम पाएंगे ।।

 

ज़िदगी का क्या भरोसा ,

हो जाए कब फ़ना ,

नेकी का बहे दरिया ,

रब की हम्दो सना ,

इंसानियत का हक़ हम ,

अदा करके जाएंगे ।

काँटे ———————- ।।

 

पत्ते हैं हम ख़िज़ां के ,

हमको ढकेगी ख़ाक ,

मिट्टी में मिल जाएंगे या ,

एक मुट्ठी राख ,

ज़मीन में दफ़न होंगे या ,

हवा में उड़ जाएंगे ।

काँटे  ———————- ।।

 

इंसाफ़े जहांगीरी का अब ,

वक़्त आ गया ,

दहशतगर्दी से व़तन में ,

अंधेरा छा गया ,

नाकाम हुए तो क्या ,

हिम्मत जुटाऐंगे ।

काँटे ———————- ।।

 

दुनिया को छोड़कर फ़िक्रे ,

मेहशर की कीजिए ,

फ़िरका परस्ती को हवा ,

ना और दीजिए ,

ख़ाली हाथ ख़ुदा को क्या ,

मुँह दिखाएंगे ।

काँटे ———————- ।।

 

आठ सौ साल हम पर रहा ,

मुग़लों का शासन ,

तब भी ना बन सका यहाँ ,

इस्लामी प्रशासन ,

लोकतंत्र से भारत को ,

‘ सलमा ‘ सजाएंगे ।

काँटे ———————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (11-15)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (11 – 15) ॥ ☆

सर्गः-13

 

देखो उछल विभाजते जल को ये गज-ग्राह।

फेन कि जिनके कान पै दिखता चमर-प्रवाह।।11।।

 

सर्प तरंगों दीर्घ सम वायुपान हित तीर।

आये दिखते चमकते मणि से वृहद् शरीर।।12।।

 

तव अधरों सी शोभती मूँगों की चट्टान।

पर तरंगहत दीखते कम हैं शंख महान।।13।।

 

भँवरवेग से भ्रमित धन करते से जलपान।

देख है आता मंदराचल से मन्थन का ध्यान।।14।।

 

ताल वृक्ष की छाँव से नीलउदधि तट हार।

दिखता दूर है, चक्र के तट ज्यों जंग प्रसार।।15।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 22 – सजल – मौन खड़ी है अब तरुणाई… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत  “मौन खड़ी है अब तरुणाई… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 22 – सजल – मौन खड़ी है अब तरुणाई … 

समांत- आई

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 16

 

नैतिकता की हुई धुनाई।

मौन खड़ी है अब तरुणाई

 

गली मुहल्ले घूम रहे हैं,

जिनने सबकी नींद उड़ाई।

 

जीवन जीना नर्क बन गया,

शैतानों ने खोदी खाई।

 

सज्जनता दुबकी है बैठी,

दुर्जनता के बीच लड़ाई।

 

आताताई हैं मुट्ठी भर

बहुसंख्यक की नहीं सुनाई।

 

डंडा लिए खड़े रखवाले,

पता नहीं किसकी परछाई।

 

कष्टों की पहनाई माला,

नेताओं ने खूब निभाई ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

11 जुलाई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 13 (6-10)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #13 (6 – 10) ॥ ☆

सर्गः-13

 

युग समाप्ति पर विष्णु जी कर जग का संहार।

सोते इसमें होता तब ब्रह्मा का अवतार।।6।।

               

शत्रु त्रस्त ज्यों भीत नृप, महाबली नृप पास।

जाते वैसे, विवश नगर कई का यह आवास।।7।।

 

जब वछाह बन विष्णु ने किया धरा-उद्धार।

तब पृथ्वी-घूंघट बना इस का जल विस्तार।।8।।

 

अधर दान में पान हित कुशल नदी ज्यों नारि।

को चुंबन हित तरंगित यह उलटा व्यवहार।।9।।

 

पी जीवों संग सरित-जल जलचर विविध प्रकार।

कर मुखमीलित छोड़ते शीशछिद्र से धार।।10।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 78 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 78 –  दोहे ✍

असहायों को लूट कर, बनते श्री संपन्न ।

आँसू  उन्हें गरीब के, पल में करें विपन्न।

 

 आँसू निकले हर्ष में, आँसू  कहे विषाद ।

आँसू  का मतलब कभी अपने प्रिय की याद ।।

 

आँसू का क्या उत्स है, या पीड़ा या प्यार।

आँसू में ही भीग कर, चलता है संसार ।।

 

आँसू क्यों जन्मा भला, क्या कुछ थी दरकार।

 आँसू  निकलें जीत के, बतलाते हैं हार।।

 

जतलाता है अश्रु ही, परमात्मा का प्यार।

जड़ जीवन को सौंपता, सत्य शील, श्रृंगार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 78 – “एक पहेली माँ…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “एक पहेली माँ  …।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 78 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “एक पहेली माँ  …”|| ☆

कैसे भी दिन हों,  सिरहाने-

रखे हथेली माँ ।

संतति की रक्षा का संबल

एक अकेली माँ ।।

 

ठंड पड़े  तो रात देखती

क्या उघडा है तन-

बेटे का, सूखा रखती है

किसी तरह सावन

 

मौसम की हर उठा-पटक

से उसे बचाती है,

बरसों से ही सर्द-गर्म की

रही सहेली माँ ।।

 

जीवन की कठिनाई की

कितनी ही तलवारें

या कि  रोज-मर्रा की

टेढ़ी-मेढ़ी दरकारें

 

जो भी होनी-अनहोनी

सब उसकी छाती पर

अचल-अडिग झेला

करती है बनी नवेली माँ ।।

 

झुका कमर बिन थके

लगी रहती है कामों में

उसकी गिनती भाग्यवान

कितने ही नामों में

 

घूमा करती है पहिये सी

बिना रुके, शायद

पुरातत्व के लिये अनौखी

एक पहेली माँ ।।

 

शहर-दर-शहर पीड़ाओं का

समाहार करती

लोग-कई उपमाएँ देते

कहते हैं धरती

 

है उदाहरण भारी-भरकम

ममता के ऋण का

फिर लखनऊ में,काशी में

या रहे बरेली माँ  ।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

09-02-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ यज्ञ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत।sअब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  ‘यज्ञ ’।)

☆ कविता – यज्ञ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

अग्नि है

मंत्र हैं

आहुतियाँ हैं

पुरोहित हैं

यजमान हैं

परन्तु यह यज्ञ नहीं है मित्रो !

देखते नहीं

अग्नि हवनकुंड में नहीं

खेतों, खलिहानों, बस्तियों में जल रही है

मंत्रों को ध्यान से सुनो

इनमें विश्रांति नहीं, प्रलय की लय है

पुरोहितों को देखो

इनके चेहरे कापालिकों जैसे हैं

इनके गले में नरमुण्ड लटके हैं

 

यह यज्ञ नहीं है मित्रो !

कापालिकों का भयावह अनुष्ठान है

यजमान को कपाल बनाने में ही

अनुष्ठान की सिद्धि है

आहुतियों के लिए हुलस-हुलसकर

जन-जन का आह्वान करते हुए

क्या तुम्हें अपने आसपास

क़ब्रों से निकाल कर लाये गये

मुर्दे नहीं दिखाई देते?

क्या तुमने अपने चारों ओर

वशीभूत प्रेतात्माओं का घेरा नहीं देखा?

आश्चर्य!

कि तुम्हें रक्तपिपासु पिशाचों के

रक्तपात्र नहीं दीखते, न उनका हिंस्र नृत्य

 

मित्रो !

यज्ञ में विनम्र समर्पण होता है, उन्माद नहीं

सृष्टि को श्मशान और क़ब्रिस्तान में बदलना

इस उन्मादक अनुष्ठान का लक्ष्य है

यदि इस अनुष्ठान को यज्ञ मानने का

तुम्हारा दृढ़ निश्चय है

तो फिर इस ‘यज्ञ’ में

तुम्हारी संतानों का हविष्य होना तय है ।

 

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 125 ☆ “अन्तर्मन” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है बैंकर्स के जीवन पर आधारित एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “अन्तर्मन”।)  

☆ कविता # 125 ☆ “अन्तर्मन” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

तुम्हारा इस तरह से 

पलकों पे आके बैठ जाना 

फिर पलकों पे बैठकर 

दिन रात आंसू बहाना 

तुम्हारा यूं उठना बैठना 

और आंखों को झील बनाना 

छुप के चुपके से यहां बैठना 

फिर बेवजह जमीन कुरेदना

हर बात पर बहाना बनाना 

दिन रात यादों में खो जाना 

वायदा करके फिर भूल जाना 

पर हरदम तुम ये याद रखना 

अन्तर्मन में संघर्ष न पालना

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 69 ☆ # संत रविदास की बात # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# संत रविदास की बात  #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 69 ☆

☆ # संत रविदास की बात # ☆ 

दुनिया के कैसे कैसे रंग है

सम्मोहन के अनोखे ढंग है

देख के यह जादूगरी

हम तो भाई दंग है

 

जिसको जीवन भर दुत्कारा

ना कभी आंसू पोंछे, ना पुचकारा

जिसको किया सदा प्रताड़ित

लगा रहे उसके नाम का जयकारा

 

तोड़ा था जिसका कभी मंदिर

अहंकार की भेंट चढ़ा था मंदिर

फल, फूल, मिठाइयां चढ़ा रहे है

सजा रहे है आज उसी का मंदिर

 

आज तो हद ही हो गई

मानवता धरती पर आ गई

सारे माथा टेक रहे हैं

कटुता जाने कहां खो गई

 

कल तक छूना भी पाप था

साया पड़ जाए तो अभिशाप था

तिरस्कृत थे सब “वाल्मीकि”

‘रैदास’ उनका ही तो बाप था

 

क्या पक्ष या विपक्ष हो भाई

सभी नेताओं ने माला चढ़ाईं

“झांझ” बजाते देश के मुखिया की

मीडिया में खूब फोटो है छाई

 

क्या चुनाव का यह आकर्षण है

दिखावे का बस यह दर्शन है

मुंह में राम बगल में छुरी

क्या वोटरों को लुभाने

झूठ मूठ का अर्पण है

 

अंत:करण में बिठाइये

“रैदास” की यह बात

“कर्म” ही जाते हैं

मृत देह के साथ

 

संत रैदास कह गए-

जाति जाति में जाति है,

जो केतन के पात

रैदास” मनुष ना जुड़ सके

जब तक जाति न जात /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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