हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 80 ☆ गीत – जीते जी मर जाना क्या ? ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण गीत जीते जी मर जाना क्या ?”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 80 ☆

☆ जीते जी मर जाना क्या ? ☆ 

जीते जी चमको सूरज से

      जीते जी मर जाना क्या?

कितना पाया, कितना खोया

     इसका गणित भिड़ाना क्या?

 

पढ़ें किताबें, करें यात्रा

      सुन लें जीवन की ध्वनियाँ।

बच्चों से भी हँसें – हँसाएं

      दुलाराएं मुन्ना – मुनियाँ।।

 

कर दें कुछ तारीफ गैर की

       इसमें मोल चुकाना क्या ?

 

जीवित रखना स्वाभिमान को

      कुछ हितकारी भी बनना।

सत्य, प्रेम के आभूषण से

      दुख गैरों के तुम सुनना।।

 

मत गुलाम आदत के होना

        खुद को रोज रुलाना क्या ?

 

जो मिथ्या है और दिखावा

       उसको जल्दी छोड़ो जी।

जीवन की सच्चाई जानो

       सच से मुख मत मोड़ो जी।।

 

आवेगों और संवेगों की

       नमता से शर्माना क्या ?

 

बदलें खुद को शांत चित्त से

          जानें भी परिणामों को।

संशय, भ्रम में भटक न जाना

        करें सुनिश्चित कामों को।।

 

मानें उचित सलाह सभी की

      बातें और बढ़ाना क्या ?

 

पढ़ें पूर्वजों के शास्त्रों को

      जिनने जीवन दान किया।

नहीं भुलाया है संस्कृति को

      सबका ही सम्मान किया।।

 

चेहरों पर दे दें मुस्कानें

         अपना दर्द सुनाना क्या ?

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (41-45) ॥ ☆

 

उचित व्यवस्था सुचारू भोजन जगह जगह लोक उपहार पैसे

युवराज अज को निवास भग के लगे हों उद्यान – बिहार जैसे ॥ 41॥

 

तो धूल -धूसर ध्वजा थकी सेना देख आज ने पड़ाव डाले

उस नर्मदा तट जहाँ पै श्शीतल पवन मुदित तरू थे विल्व बाले ॥ 42॥

 

डूबकी लगाये कोई वन्य गज है उमड़ते भ्रमरदल को लख समझ आया

लिये धुला मस्तक कोई मस्त हाथी, तभी नर्मदा से निकलता दिखाया ॥ 43॥

 

छुले दातों से थी धुली लाल मिट्टी मगर नील मिट्टी का था शेष लेखा

ऋतुवान पर्वत पै की वप्र क्रीड़ा का संकेत देती थी कुछ लग्न रेखा ॥ 44॥

 

सिकोड़ – फैलाती सूँड़ से शब्द कर जल तरंगो को चीरता सा

तट ओर आता गयंद लगता था श्रंखला अपनी तोड़ता सा ॥ 45॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #103 – कैसे मैं खुद को, गहरे तल में उतार दूँ ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक भावप्रवण गीतिका  “कैसे मैं खुद को, गहरे तल में उतार दूँ”। )

☆  तन्मय साहित्य  #103 ☆

☆ कैसे मैं खुद को, गहरे तल में उतार दूँ

(गीतिका)

बने रहो आँखों में ही, मैं तुम्हें प्यार दूँ

नजर, मिरच-राईं से, पहले तो उतार दूँ ।

 

दूर रहोगे तो, उजड़े-उजड़े पतझड़ से

अगर रहोगे साथ मेरे, तो मैं बहार दूँ।

 

जलती रही चिताएँ, निष्ठुर बने रहे तुम

कैसे नेह भरे जीवन का, ह्रदय हार दूँ।

 

प्रेम रोग में जुड़े, ताप से कम्पित तन-मन

मिला आँख से आँख, तुम्हें कैसे बुखार दूँ।

 

सुख वैभव में रमें,रसिक श्री कृष्ण कन्हाई

जीर्ण पोटली के चावल, मैं किस प्रकार दूँ।

 

चुका नहीं पाया जो, पिछला कर्ज बकाया

मांग रहा वह फिर, उसको कैसे उधार दूँ।

 

पानी में फेंका सिक्का, फिर हाथ न आया

कैसे मैं खुद को, गहरे तल में उतार दूँ ।

 

दायित्वों का भारी बोझ लिए काँधों पर

चाह यही हँसते-हँसते, जीवन गुजार दूँ।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नारी सशक्तिकरण ☆ डॉ निशा अग्रवाल

डॉ निशा अग्रवाल

(ई- अभिव्यक्ति में प्रसिद्ध शिक्षाविद एवं साहित्यकार डॉ निशा अग्रवाल जी का हार्दिक स्वागत है।  प्रस्तुत है आपका संक्षिप्त परिचय एवं एक भावप्रवण कविता “नारी सशक्तिकरण”।)  

संक्षिप्त परिचय 

सम्प्रति – शिक्षाविद, लेखिका, कवयित्री, गायिका, स्क्रिप्ट राइटर

प्रकाशन / प्रसारण – 

  • संपादक – राजस ऑनलाइन मैगज़ीन
  • साहित्य सृजन- मेरी कलम, मेरी पहचान
  • संचालक – शिक्षा/संगीत/साहित्यिक मंच
  • समाज सेविका- गरीब एवं असहाय बच्चों को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करना।
  • विभिन्न रचनाओं का अखबार, जन प्रखर पत्रिका, सच की दस्तक पत्रिका, वैश्य चित्रण, ड्रीम ऑफ फ्यू बुक, मैगज़ीन ऑफ इंडिया, ई मैगज़ीन, एवं अन्य पत्रिकाओं में…सतत् प्रकाशन
  • रेडियो एवं आकाशवाणी पर रचनाओं का प्रसारण।

सम्मान –

  • उत्कृष्ट लेखन सम्मान (वाराणसी-सच की दस्तक प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार)
  • राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक मंच व अन्य संस्था द्वारा सम्मान प्राप्त।

लेखनी का उद्देश्य – नारी सशक्तिकरण पर विशेष, समाज की व्यथा को उजागर करना व समाज में चेतना का संचार करना ।

☆  कविता – नारी सशक्तिकरण डॉ निशा अग्रवाल ☆  

अबला नही हो तुम,कायर नही हो तुम

जगत जननी हो तुम, जगत का अभिमान हो तुम।

करुणा का सागर हो तुम, ममता की सरिता हो तुम

मां ,बहन ,बेटी, पत्नी के ,जीवन का आधार हो तुम।

सागर की लहरों की ,हूंकार हो तुम

पर्वत की ऊंचाई जैसा ,देश का गौरव हो तुम।

सदियों से कोमल तन को ,लिपटी साड़ी में ढके हो तुम

झुकी हुई नज़रों से तानों की बौछार सुनती आयी हो तुम।

बहुत हुए है जुल्म तुम पर ,बहुत हुआ मन को आघात

मत सहो तुम अत्याचार को, मत दावो तुम मन में बात।

छोड़ो सदियों की नारी को,आज की नारी बन जाओ

थाम लो हिम्मत का हाथ अब,हर मंजिल को फतह करो।

उठो,जागो ,तलवार उठाओ, झांसी की मनु बन जाओ

तेज़ धार और वीरता से,आगे -आगे बढ़ते जाओ।

याद करो उस नारी को ,जो लायी थी देश में आंधी

बनी देश की पहली मुखिया, वो थी इंदिरा गांधी।

मान बढ़ाया जिसने देश का ,देकर के अपना स्वर

कहते जिसको ‘स्वरकोकिला’, नाम लता मंगेशकर।

भारी उड़ान पहुँची अंतरिक्ष में ,सच कर दिखाया सपना

उस नारी को नमन करें हम, वो थी कल्पना चावला।

आया समय उठो तुम नारी,युग निर्माण तुम्हें करना है

आज़ादी की खुली नींव पर,प्रगति के पत्थर भरना है।

कमज़ोर ना समझो खुद को तुम, सम्पूर्ण जगत की जननीं हो

स्वर्णिम आगत की आहट से, नया इतिहास तुम्हें रचना है।

©  डॉ निशा अग्रवाल

जयपुर, राजस्थान

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (36-40) ॥ ☆

 

‘कुमार’ सम पुत्र को राजरानी ने ब्रह्यवेला में क्यों कि जाया

अतः परब्रह्य के नाम पर ही ‘अज’ उसका भी नाम गया रखाया ॥ 36॥

 

सब रूप, रंग, वीरता और काठी सुपुत्र अज ने पिता की पाई

ज्यों दीप से ज्वालित दीप कोई अलग न देता कभी दिखाई ॥ 37॥

 

सुशील शिक्षित सुरूप अज की थी राजलक्ष्मी को चाह ऐसी

सुयोग्य वर देख सुधीर कन्या को पिता -सहमति की चाह जैसी ॥ 38॥

 

तब इंदुमति भगिनी के स्वयंवर में अज को सादर विदर्भ लाने

विदर्भ – नृप भोज ने रघु को न्यौता सुयोग्य चर भेज दिया, बुलाने ॥ 39॥

 

सुयोग्य अज को वयस्क लखकर सुयोग्य संबंध की कामना से

विशाल सेना के साथ रघु ने विदर्भ भेजा नृप प्रार्थना पै ॥ 40॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 92 ☆ सुकून ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “सुकून। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 92 ☆

☆ सुकून ☆

जाने कहाँ खो गया सुकून है?

 

यह कैसी ख़ामोशी है

जो माहौल में अमावस बन छायी है?

वक़्त ने भी जाने क्यों

ले ली अंगडाई है?

कहाँ गया वो दिल का जुनून है?

जाने कहाँ खो गया सुकून है?

 

आँखों में जाने कैसे अब्र हैं

जो झूमते भी नहीं और बरसते भी नहीं?

ज़हन में जाने कैसी हलचल है

कोई भी मंज़र इसे जंचते ही नहीं…

यह डूबता हुआ सूरज जाने कैसा शगुन है?

जाने कहाँ खो गया सुकून है?

 

ऐ उड़ते हुए परिंदे

तुमने न जाने क्या ठानी है?

यह उड़ना तुम्हारा…यही तो…

हमारी मौजूदगी की निशानी है…

बजने लगी तुमको देख मेरे भी दिल में गुनगुन है…

बस करीब आने ही वाला सुकून है…

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 3 – सजल – कोई रहा नहीं हमदम है… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ ” मनोज साहित्य“ में आज प्रस्तुत है सजल “कोई रहा नहीं हमदम है…”। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 3 – सजल – कोई रहा नहीं हमदम है … ☆ 

सजल

समांत-अम

पदांत-है

मात्राभार- १६

 

रोती आँखें सबको गम है।

लूट रहे उनमें दमखम है।।

 

अट्टहास वायरस है करता,

सबकी आँखों में डर-सम है।

 

आक्सीजन की नहीं व्यवस्था,

देख सिलेंडर में अब बम है।

 

धूम मची है नक्कालों की,

उखड़ी साँसें निकला दम है।

 

बन सौदागर खड़े हुए अब,

कोई रहा नहीं हमदम है ।

 

लाशों का अंबार लग रहा,

आँख हो रही सबकी नम है ।1

 

लोग अधिक हैं लगे पंक्ति में ।

वैक्सीन की डोजें कम है।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल ” मनोज “

18 मई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 117 ☆ एक शब्द चित्र ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता ‘एक शब्द चित्र’। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 117 ☆

? कविता – एक शब्द चित्र  ?

 

मरीचिका मृग छौने की ,

प्रस्तर युग से कर रही ,

विभ्रमित उसे।

 

मकरन्द की,

अभिनव चाह,

संवेदन दे रही भ्रमर को नये नये ।

 

घरौंदे की तलाश में,

कीर्ति, यश की चाह में,

आकर्षण अमरत्व का,

पदचिन्ह खूबसूरत सा,

कोई बना पाने को,

मानव है भटक रहा ।

शुबहा शक नहीं,

इसमें कहीं,

भटकतों को मंजिल है,

मिलती नहीं ,

कामना है यही इसलिये,

मझधार में कोई न छूटे,

नाव खेने में जिंदगी की,

न साहस किसी का टूटे ।

 

ये विपदाओं से खेलने की शक्ति,

हर किसी को मिले,

कि जिससे हर कली,

फूल बन खिले ।।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (31-35) ॥ ☆

 

गुरू दक्षिणा हेतु ही सिर्फ लेता औं याचक की इच्छा से अति दान दाता

कौत्स्य और रघु हुये दोनो सुविख्यात, अयोध्या के इतिहास से जिनका नाता। 31।

 

प्रसन्न मन हर्षित कौत्स्य ने तब अनेक उष्ट्राश्वों पै लदा धन

विनम्रता में झुके नृपति से कहा, बढ़ा हाथ औं छूते तन – मन ॥ 32॥

 

हे राजवृत रघु जो यह यह धरा तव हे कामदा तो विचित्र क्या है ?

प्रभाव ही है यह आपका जो सभीत नभ ने भी धन दिया हैं ॥ 33॥

 

समस्त कल्याण से युक्त है आप, कोई अन्य आशीष पुनरूक्ति होगी

वही खुशी पायें गुणी तनय पा, पिता ने जो पा तुम्हें है भोगी ॥ 34॥

 

आशीष दे कौत्स्य गुरू पास लौटे, रघु ने भी आशीष पा पुत्र पाया

सुत ऐसा जो सूर्य सा दीप्ति चमका, गुणों से जन जन के मन को भाया ॥ 35॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की#59 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #59 –  दोहे 

संताने हैं नयन की, रखना अश्रु संभाल ।

पढ़ना चाहो तो पढ़ो, भूत, भविष्यत काल।।

 

किसने कब कैसे किया, युद्ध का आव्हान।

युद्ध कथा का मूल है, आशु का अपमान।।

 

आंसू टपका आंख से, कहे हृदय का हाल ।

समझदार तो है वही, जो समझे तत्काल ।

 

आंसू बहे प्रसाद के,   रहे निराला मौन ।

बच्चन के मन की व्यथा, बांच सका है कौन ।

 

तुलसी सूर कबीर के, अश्रु बने इतिहास।

कौन कहे मीरा कथा, आंसू का उपवास।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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