हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 59 – कुटीरों में भूख का अध्याय है …. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “कुटीरों में भूख का अध्याय है ….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 59 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ कुटीरों में भूख का अध्याय है …. ☆

बुरे से हालात

हैं दृग के

तैरते डोरे

दिखे ड्रग के

 

उबरते तक नहीं

इस दृश्य से

अजनबी सन्दर्भ

हैं अदृश्य से

 

विप्लवी नशे

की मरीचिका –

में, पड़े छौने

किसी मृग के

 

कुटीरों में भूख

का अध्याय है

विवशता बैठी

जहाँ निरुपाय है

 

बहुत चिंतित

क्षुब्ध शुभ चिन्तक

कुयें में औंधे

पड़े नृग के

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

24-09-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विदेह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – विदेह ?

रतौंध की मारी

निकली पीड़ाएँ,

मुझे देह समझ

निशाना बनाती रहीं,

देह के आर-पार बसी

मेरी जिजीविषा

इस नादानी पर

मुस्कराती रही

©  संजय भारद्वाज

(बुधवार 20 सितम्बर 2017, प्रातः 6:37 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #49 ☆ नवरात्रि पर्व विशेष – माता रानी ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता “# माता रानी #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 49 ☆

☆ # नवरात्रि पर्व विशेष – माता रानी # ☆ 

अंधकार ही अंधकार है

दुःख दर्द तो अपार है

त्राहि त्राहि है जनमानस

व्याकुल सारा संसार है

पोंछने आंखों का पानी

आजा आजा माता रानी

 

भूख बेकारी गले पड़ गई

गरीबी जन्म से अड़ गई

अधनंगी काया लेकर घूमे

शर्म, हया

 कफन के साथ गड़ गई

छाया दे दे, तू हे दानी

आजा आजा माता रानी

 

न्याय तो अधमरा हो गया

सत्य तो डरा डरा सो गया

दुष्ट कर रहे हैं तांडव

कानून लाचार जार जार हो गया

तू चूर करदे इनकी अभिमानी

आजा आजा माता रानी

 

माता, पूजा पर तेरे पहरे है

मन पर घाव गहरे हैं

सच्चे है जो तेरे साधक

दूर कोने में ठहरे हैं

दर्शन देकर,

दूर कर इनकी ग्लानि

आजा आजा माता रानी

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (26-30) ॥ ☆

 

यह बात सुन ब्राहम्ण कौत्स्य ने, राजइच्छा ‘तथा हो ‘ कह स्वीकार कर ली

रघु ने भी पृथ्वी को निस्तार सा पा, कौबेर धन की ही बस कामना की ॥ 26॥

 

वशिष्ठ मत्रावेशित रघुरथ आकाश – सागर और पर्वतों पर

भी वायुगति से बढ़ता जल्द सा, था बढ़ रहा अपने पथ पर बिना डर ॥ 27॥

 

फिर रात्रि होते एक सामान्य सामन्त सा शयन रथ में किया धीरता से

था शस्त्र सज्जित अतः लिया निर्णय विजय पाने धनपति पै निज वीरता से । 28।

 

सविस्मय कहा कोषगृह सेवकों ने -ये प्रस्थान हित प्राप्त तैयार रघु से

हुई कोष के बीच वर्षा अकस्मात सोना गिरा बहुत सा सहज नभ से ॥ 29॥

 

बिना आक्रमण किये ही स्वर्ण पाने की सुन बात रघुको हुआ हर्ष अति तब

कुबेर से पाये सुमेरू के खण्ड सा दीप्त सोना दिया कौत्स्य को सब ॥ 30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 61 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 61 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 61) ☆

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 61 ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

गिले -शिकवे  तो  सिर्फ़

साँस लेने तक ही चलते हैं

बाद में तो पछतावे  तक की

गुंजाइश  नहीं   रह  जाती..!

 

Complaints and grouses last only till one is alive

Later only memories and painful repentance remain

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

वक़्त  सा

था  वो…

कभी  मिला

ही  नहीं…

 

He was

like time

Could never

find  him…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

अपनी आदतों में

तुम्हें शुमार करके

हमने  खुद  को

बहुत बिगाड़ा है…

 

By including you

in my habits

I have spoiled

myself a lot..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

दिलकश मुस्कुराहट पर तो

हजारों फिदा होते ही हैं….

बात तो तब बने जब कोई

आंसुओं का भी हिस्सेदार हो

 

Thousands are smitten

by a bewitching smile….

Creditable is when someone

shares the tears too….!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 61 ☆ मुक्तिका …. ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित भावप्रवण कविता ‘मुक्तिका ….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 61 ☆ 

☆ मुक्तिका …. ☆ 

*

तेवर बिन तेवरी नहीं, ज्यों बिन धार प्रपात

शब्द-शब्द आघात कर, दे दर्दों को मात

*

तेवरीकार न मौन हो, करे चोट पर चोट

पत्थर को भी तोड़ दे, मार लात पर लात

*

निज पीड़ा सहकर हँसे, लगा ठहाके खूब

तम का सीना फाड़ कर, ज्यों नित उगे प्रभात

*

हाथ न युग के जोड़ना, हाथ मिला दे तोड़

दिग्दिगंत तक गुँजा दे, क्रांति भरे नग्मात

*

कंकर को शंकर करे, तेरा दृढ़ संकल्प

बूँद पसीने के बने, यादों की बारात

*

चाह न मन में रमा की, सरस्वती है इष्ट

फिर भी हमीं रमेश हैं, राज न चाहा तात

*

ब्रम्ह देव शर्मा रहे, क्यों बतलाये कौन?

पांसे फेंकें कर्म के, जीवन हुआ बिसात

*

लोहा सब जग मान ले, ऐसी ठोकर मार

आडम्बर से मिल सके, सबको ‘सलिल’ निजात

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #91 ☆ बाल कविता # संबंधों का मोल # ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावप्रवण बाल कविता  “#संबंधों का मोल#। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# #91 ☆ बाल कविता # संबंधों का मोल # ☆

किसी समय में एक गांव में,

                       रहते थे दो भाई।

प्रेम न था उनमें आपस में ,

           बढ़ी दूरियां दिल की खाई।

अलगाव हुआ था उन दोनो में,

                      आपस में बंटवारा।

झगडे़ की जड़ थी एक अंगूठी,

            उनमें हुआ विवाद करारा।

 अपना झगड़ा लेकर वे,

               पहुंचे एक संत के पास।

संत ने उनकी सुनी समस्या,

          रखी अंगूठी खुद के पास।

बोले संत आज घर जाओ,

            तुम सब कल फिर आना।

आकर सुबह सबेरे तुम सब,

       अपनी अंगूठी लेकर जाना।।

 

जाते ही घर अपने उनके,

       संत ने सुनार बुलवाया।

वैसी दूसरी अंगूठी,

      उनने सुनार से बनवाया।

  क्यों? मोल चुकाया पास से अपने,

       ये भेद कीसी की समझ न आया।

 

जब सुबह को आये दोनों भाई,

      उनको अलग अलग बुलवाया।

 पा कर  एक एक  अंगूठी ,

                      दोनों संतुष्ट हुए थे।

थे प्रसन्न दोनों भाई,

    अब आपस में मिलजुल रहते थे।

 इक दिन बातों बातों में ,

       इस रहस्य की बात खुल गई।

जब एक अंगूठी झगडे़ की जड़ थी,

        फिर कैसे दो हमें मिल गई।

 जब इस सच का चला पता,

      फिर दोनों पहुंचे संत के पास।

क्यों दो  अंगूठी दिया हमें,

      सच सच बतलाएं समझ के दास।

 उनकी बातें सुन कर के,

             बाबा जी ने बतलाया।

 #संबंधों के मोल# की बातें,

               बाबा जी ने समझाया।

सोना तो है तुच्छ चीज,

        संबंधों के मोल बहुत है।

सोने से भी बढ़ करके,

          भाई में प्रेम अधिक है।

यही बताने की खातिर,

     दो अंगूठी तुम्हें दिया था।

 जीवन में संबंधों का मतलब,

          तुम सबको बता दिया था।

सुनकर बाबा की बातें,

                दोनों संतुष्ट हुए थे।

सदा सुखी रहने का मंतर,

                  दोनों समझ गये थे।

संबंधों के मोल बहुत हैं,

      नानाजी से सुनों कहानी।

सोने-चांदी का मोल न कोई,

         ये बतलाती बुढ़िया नानी।

 क्यों लड़ते तुम गहनों खातिर,

       सब बातें संत ने समझाया।

संबंधों की कीमत उनने ,

      अपनी युक्ति से बतलाया।।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

18-8-2021

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (21-25) ॥ ☆

 

पर मेरे फिर फिर दुराग्रह से क्रोधित हो, मेरी गरीबी को बिन ध्यान लाये –

दी चौदह विद्याओं को ध्यान रख मुझसे चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्रा मँगाये ॥ 21॥

 

ऐसा मैं अर्ध्य हेतु मृदपात्र लख आपको सिर्फ प्रभुशब्द युत मानता हूँ

अतः आपसे चौदह कोटि मुद्रायें पाने का साहस नही बाँधता हूँ ॥ 22॥

 

तब चंद्रशोभी, उस अनुराग त्यागी नरपति ने सुन कौत्स्य का यह निवेदन

उस वेदज्ञाता, विद्वान ब्राहम्ण के प्रति किया अपने मन का प्रदर्शन ॥ 23॥

 

वेदांत पारंगत ऋषिवर को देने गुरूदक्षिणा हेतु आ कोई याचक

‘रघु से मनोरथ पूरा न पाया ‘ ऐसा न हो कोई अपवाद भ्रामक ॥ 24॥

 

अतः उचित यह आप दो – तीन दिन रूक मेरे अतिथिगृह में ही विश्राम पायें

जिससे कि गुरूदक्षिणा हेतु है श्रेष्ठ ! धन के लिये यत्न कुछ किये जायें ॥ 25॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सिक्का ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – सिक्का ?

मेरा शून्य,

मेरा संतृप्त,

समानांतर चलते हैं,

शून्य संभावनाओं को
खंगालता है..,

संतृप्त आशंकाओं को
नकारता है..,

सिक्के की विपरीत सतहें

किसने निर्धारित की ?

संभावना और आशंका

किसने परिभाषित की?

शिकारी की संभावना

शिकार के लिए आशंका है,

संतृप्त की आशंका

शून्य के लिए संभावना है,

जीवन परिस्थिति सापेक्ष होता है,

बस काल है जो निरपेक्ष होता है..!

©  संजय भारद्वाज

(विजयादशमी, 8.10.2019, प्रात: 9:27 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 49 ☆ बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 49 ☆ बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा ☆

अपनों से जा दूर बसने में कई मजबूरियां हैं

समय के संग मन को कई बदलाव देती दूरियां है

कब क्या  बदलाव होगा बता पाना तो कठिन है

पर नए परिवेश में बदलाव की कमजोरियां हैं

 

शुरू में बदलाव तो लगता सभी को है सुहाना

जानता कोई नहीं कल आयेगा कैसा जमाना

खुद के भी बदलाव को कोई समझ पाता कहां है

समय की धारा में मिल बहना जगत ने धर्म माना

 

दूरदर्शी सोच कि संसार में कीमत बड़ी है

क्योंकि नियमित समय से बदलाव की आती घड़ी है

आज जो दिखता जहां है कल कभी मिलता कहां वह

इसलिये नए निर्णयों में उचित नहीं कोई हड़बड़ी है

 

परिस्थितियों साथ नित बनता बिगड़ता विश्व सारा

जरूरी इससे बहुत सद्बुद्धि का शाश्वत सहारा

सदा रहते हरे ऊंचे वृक्ष जिनकी जड़ें गहरी

बहा ले जाती समय की नदी अपना ही किनारा

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares