हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 30 ☆ गीत – शांति दे माँ नर्मदे !☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  माँ नर्मदा जयंती पर्व पर रचित “गीत – शांति दे माँ नर्मदे !“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

यूट्यूब लिंक >> गीत – शांति दे माँ नर्मदे!

गीत – प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव “विदग्ध”

स्वर-संगीत – सोहन सलिल & दिव्या सेठ

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 30 ☆

☆ गीत – शांति दे माँ नर्मदे! ☆

सदा नीरा मधुर तोया पुण्य सलिले सुखप्रदे

सतत वाहिनी तीव्र धाविनि मनो हारिणि हर्षदे

सुरम्या वनवासिनी सन्यासिनी मेकलसुते

कलकलनिनादिनि दुखनिवारिणि शांति दे माँ नर्मदे ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

हुआ रेवाखण्ड पावन माँ तुम्हारी धार से

जहाँ की महिमा अमित अनुपम सकल संसार से

सीचतीं इसको तुम्ही माँ स्नेहमय रसधार से

जी रहे हैं लोग लाखों बस तुम्हारे प्यार से ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

पर्वतो की घाटियो से सघन वन स्थान से

काले कड़े पाषाण की अधिकांशतः चट्टान से

तुम बनाती मार्ग अपना सुगम विविध प्रकार से

संकीर्ण या विस्तीर्ण या कि प्रपात या बहुधार से ! शांति दे माँ नर्मदे !

तट तुम्हारे वन सघन सागौन के या साल के

जो कि हैं भण्डार वन सम्पत्ति विविध विशाल के

वन्य कोल किरात पशु पक्षी तपस्वी संयमी

सभी रहते साथ हिलमिल ऋषि मुनि व परिश्रमी  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

हरे खेत कछार वन माँ तुम्हारे वरदान से

यह तपस्या भूमि चर्चित फलद गुणप्रद ज्ञान से

पूज्य शिव सा तट तुम्हारे पड़ा हर पाषाण है

माँ तुम्हारी तरंगो में तरंगित कल्याण है  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

सतपुड़ा की शक्ति तुम माँ विन्ध्य की तुम स्वामिनी

प्राण इस भूभाग की अन्नपूर्णा सन्मानिनी

पापहर दर्शन तुम्हारे पुण्य तव जलपान से

पावनी गंगा भी पावन माँ तेरे स्नान से  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

हर व्रती जो करे मन से माँ तुम्हारी आरती

संरक्षिका उसकी तुम्ही तुम उसे पार उतारती

तुम हो एक वरदान रेवाखण्ड को हे शर्मदे

शुभदायिनी पथदर्शिके युग वंदिते माँ नर्मदे  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

तुम हो सनातन माँ पुरातन तुम्हारी पावन कथा

जिसने दिया युगबोध जीवन को नया एक सर्वथा

सतत पूज्या हरितसलिले मकरवाहिनी नर्मदे

कल्याणदायिनि वत्सले ! माँ नर्मदे ! माँ नर्मदे !  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनुवादक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि –  अनुवादक ☆

हर बार परिश्रम किया है

मूल के निकट पहुँचा है

मेरी रचनाओं का अनुवादक,

इस बार जीवट का परिचय दिया है

मेरे मौन का उसने अनुवाद किया है,

पाठक ने जितनी बार पढ़ा है

उतनी बार नया अर्थ मिला है,

पता नहीं

उसका अनुवाद बहुआयामी है

या मेरा मौन सर्वव्यापी है…!

 

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 10.40 बजे, 19.01.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आईने में सूरत तेरी नजर आती है ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव 

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक भावप्रवण रचना आईने में सूरत तेरी नजर आती है 

☆ आईने में सूरत तेरी नजर आती है ☆

 

सोच रही हूँ खुद को देख कर

जब भी देखती हूँ आईना सूरत तेरी नजर आती है

लगता है आईने की नजर सीधे दिल की तरफ जाती है

 

तुझे देखा नहीं बरसो से पर जहां भी देखूं

तेरी तस्वीर नजर आती है लगता है

आईने की नजर सीधे दिल की तरफ जाती है

 

तू है तो नहीं है वीरान, नहीं है पतझड़

हर तरफ बहार ही बहार नजर आती है

लगता है आईने की नजर सीधे दिल की तरफ जाती है

 

जब भी छिड़ता है जिक्र तेरा

होठों ही होठों में एक मुस्कान उतर आती है

लगता है आईने की नजर सीधे दिल की तरफ जाती है

 

जब भी देखती हूं आईना सूरत तेरी नजर आती है

लगता  है आईने की नजर सीधे दिल की तरफ जाती है

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५६॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५६॥ ☆

 

आसीनानां सुरभितशिलं नाभिगन्धैर मृगाणां

तस्या एव प्रभवम अचलं प्राप्य गौरं तुषारैः

वक्ष्यस्य अध्वश्रमविनयेन तस्य शृङ्गे निषण्णः

शोभां शुभ्रां त्रिनयनवृषोत्खातपङ्कोपमेयम॥१.५६॥

आसीन कस्तूरिमृग नाभि की गंध

से रम्य जिसकी शिलायें सुगंधित

उसी जान्हवी के प्रभव स्त्रोत गिरि जो

हिमालय धवल हिम शिखर सतत मंडित

पहँच कर वहाँ मार्ग श्रम को मिटाने

किसी श्रंग पर लग्न लोगे सहारा

तो शिव के धवल वृषभ के श्रंग में लग्न

कर्दम सदृश रूप होगा तुम्हारा

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दृष्टि (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि –  दृष्टि (2) ☆

तुमने देखी उसकी

निर्वसन,अनावृत्त देह?

पुलिया पर खड़ा जनसमूह

नदी में मिले नारी शरीर पर

कुजबुजा रहा था,

मैं पशोपेश में पड़ गया,

निर्वसन देह होती है या दृष्टि !

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 82 ☆ अंतर्मन ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  किशोर मनोविज्ञान पर आधारित एक  भावप्रवण  “अंतर्मन। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 82 – साहित्य निकुंज ☆

 अंतर्मन

मन के झरोखे

में झाँका

मन को आँका।

हुई कुछ आहट

कैसी है फड़फड़ाहट।

 

वे थे ……

अंतर्मन के पृष्ठ

जिनमें थी यादें

जिनमे है प्यार-अपार

मनाते थे ख़ुशी से हर त्यौहार

माँ खूँट कर देती थी कजलियां

साथ थी सहेलियां…..

रहता था शाम का इन्तजार

हाथ में देते थे सब ममत्वरूपी धन

खुश हो जाता था मन

घर-घर मिलता था प्यार

वो पल था कितना यादगार

मन में रहेगी सदा चाहत

न होगी उन पलों की कभी आहट।

 

इसलिये

उन पलों को सहेजकर रख देते है

जब मन हुआ खोलकर चख लेते है।

काश अंतर्मन के झरोखे खुले रहे

खुली आँखों से सब सदा देखते रहे।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 72 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 72 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

धनवानों को क्या पता, भूख-प्यास का पाठ

दर्द कभी देखा नहीं, उनके ऊँचे ठाठ

 

मोबाइल के दौर में, सिमट गए अब लोग

लेते खुद की सेल्फी, लगा नया इक रोग

 

राजनीति से बुझ रहे, जलते हुए चिराग

मधुर मोहक मधुबन में, कौन लगाता आग

 

कुत्ते ने जब भौंक कर,दी चमचे को सीख

दोनों तलवे चाटते, होकर के निर्भीक

 

बचपन में ही हो गये, बच्चे सभी जवान

मोबाइल के दौर में, कहाँ  रहे  नादान

 

रामायण का पाठ कर, खूब किया अभिमान

प्रेम, समर्पण, शीलता, पर इनसे अनजान

 

बातन हाथी पाइए, बातन हाथी पाँव

वाणी ही पहिचान बन, देती सबको छाँव

 

सुख-दुख अपने कर्म से, कोउ न देवनहार

जो बोया वह ही मिले, खुद ही तारणहार

 

सद्गुण जीवन में मिलें, होता जब सत्संग

आगे जिसके सभी सुख, हो जाते हैं तंग

 

काशी,मथुरा,द्वारका, सभी प्रेम के धाम

प्रेम कभी मरता नहीं, प्रेम ईश का नाम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५५॥ ☆

 

तस्याः पातुं सुरगज इव व्योम्नि पश्चार्धलम्बी

त्वं चेद अच्चस्फटिकविशदं तर्कयेस तिर्यग अम्भः

संसर्पन्त्या सपदि भवतः स्रोतसि च्चाययासौ

स्याद अस्थानोपगतयमुनासंगमेवाभिरामा॥१.५५॥

 

सुरगज सदृश अर्द्ध अवनत गगनगंग

अति स्वच्छ जलपान उपक्रम करो जो

चपल नीर की धार में बिम्ब तो तब

दिखेगा कि अस्थान यमुना मिलन हो

 

शब्दार्थ .. गगनगंग..आकाशगंगा

अस्थान यमुना मिलन .. गंगा यमुना मिलन स्थल तो प्रयाग है , पर अस्थान  अमिलन अर्थात  प्रयाग के अतिरिक्त कही अंयत्र मिलना

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मंथन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि –  लघुकथा – मंथन ☆

हलाहल निरखता हूँ

अचर हो जाता हूँ,

अमृत देखता हूँ

गोचर हो जाता हूँ,

जगत में विचरती देह

देह की असीम अभीप्सा,

जीवन-मरण, भय-मोह से

मुक्त जिज्ञासु अनिच्छा,

दृश्य और अदृश्य का

विपरीतगामी अंतर्प्रवाह हूँ,

स्थूल और सूक्ष्म के बीच

सोचता हूँ, मैं कहाँ हूँ..!

©  संजय भारद्वाज

3:33 रात्रि, 23.3.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 62 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – प्रथम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है प्रथम अध्याय।

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 62 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – प्रथम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए प्रथम अध्याय का सार। आनन्द उठाइए।

डॉ राकेश चक्र

ईश्वर प्रार्थना

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

अथ श्रीमद्भगवतगीता

अथ प्रथम अध्याय

कोटि-कोटि वंदन करूँ, वीणावादिनि तोय।

ज्ञान, बुद्धि वरदायिनी, पूर्ण काम सब होय।।

परमपिता श्रीकृष्ण हैं, उनको कोटि प्रणाम।

ओम नाम में विश्व सब, अनगिन तेरे नाम।।

हे गणपति! होकर सखा, करना चिर कल्याण।

नितप्रति ही हरते रहो, जीवन के सब त्राण।।

 

कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्य निरीक्षण

धृतराष्ट्र उवाच

संजय से हैं पूछते ,धृतराष्ट्र कुरुराज।

कुरुक्षेत्र रण भूमि में, क्या गतिबिधियां आज।।1

 

संजय उवाच

राजन सुनिए आप तो, सेनाएँ तैयार।

दुर्योधन अब कह रहा, सुगुरु द्रोण से सार।। 2

 

पाण्डव सेना है बली, नायक धृष्टद्युम्न।

व्यूह- सृजन है अति विषम, दुर्योधन  अवसन्न ।। 3

 

बलशाली हैं भीम-से, अर्जुन से अतिवीर।

महारथी युयुधान हैं, द्रुपद, विराट सुवीर।। 4

 

धृष्टकेतु चेकितान हैं, पुरजित, कुंतीभोज।

शैव्य सबल से अतिरथी, बढ़ा रहे हैं ओज।। 5

 

उत्तमौजा सुवीर है, अभिमन्यु महावीर।

युधामन्यु सुपराक्रमी, पुत्र द्रोपदी वीर।।6

 

मेरी सेना इस तरह, सुनिए गुरुवर आप।

महाबली गुरु आप हैं, भीष्म पितामह नाथ।। 7

 

कर्ण-विकर्ण पराक्रमी, गुरुवर कृपाचार्य।

भूरिश्रवा महारथी, कभी न माने हार।। 8

 

अनगिन ऐसे वीर हैं, लिए हथेली जान।

अस्त्र-शस्त्र से लैस हैं, करते हैं संधान।। 9

 

शक्ति अपरिमित स्वयं की, भीष्म पिता हैं साथ।

पांडव सेना है निबल, दुर्योधन की बात।। 10

 

सेनानायक भीष्म के, बनें  सहायक आप।

महावीर हैं सब रथी , सेना व्यूह प्रताप।। 11

 

दुर्योधन ने भीष्म का, किया बहुत गुणगान।

बजा शंख जब भीष्म का, कौरव मुख मुस्कान।। 12

 

शंख, नगाड़े बज गए, औ’ तुरही, सिंग साथ।

कोलाहल इतना बढ़ा, खिले कौरवी गात।। 13

 

पांडव सेना ने सुना, भीष्म पितामह घोष।

अर्जुन, केशव ने किए , दिव्य शंख उद्घोष।। 14

 

कृष्ण ईश का शंख है, पाञ्चजन्य विकराल।

पार्थ का  है देवदत्त , भीम पौंड्र भूचाल।। 15

 

विजयी शंख अनन्त है, राज युधिष्ठिर धर्म।

नकुल शंख सुघोष है, सहदेव मणी पुष्प।। 16

 

परम् वीर धृष्टद्युम्न , जेय सात्यकि वीर।

शंखनाद सुन वीर के , कौरव हुए अधीर।। 17

 

शंखों की घन विजय-ध्वनि, गूँजी भू, आकाश।

दुर्योधन सेना हुई, उर में गहन हताश।। 18

 

शंखों की जब ध्वनि बजी, कोलाहल है पूर्ण।

दुर्योधन के भ्रात सब, उर में हुए विदीर्ण।।19

 

कपि-ध्वज- सज्जित रथ चढ़े, अर्जुन हुए प्रचेत।

धनुष बाण कर ले लिए, कहा कृष्ण समवेत। 20

 

अर्जुन उवाच

अर्जुन बोले कृष्ण प्रिय, तुम हो कृपानिधान।

सेनाओं के मध्य में, रथ को लें श्रीमान।। 21

 

अभिलाषी जो युद्ध के, कौरव सेना साथ।

लूँ उनको संज्ञान में, करने दो-दो हाथ।। 22

 

देखूँ सेना कौरवी, धृत के देखूँ पुत्र।

कौन- कौन दुर्बुद्धि हैं, कौन-कौन हैं शत्रु।। 23

 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा

संजय ने धृतराष्ट्र से, कहा सैन्य आख्यान।

माधव ने रथ को दिया,सैन्य मध्य स्थान ।। 24

 

पृथा पुत्र अर्जुन सुनें, ईश कृष्ण उपदेश।

योद्धा जग के देख लो, बचा न कोई शेष।। 25

 

सेनाओं के मध्य में, अर्जुन डाले दृष्टि।

संबंधी हैं सब खड़े , खड़े मित्र और शत्रु।। 26

 

सब अपनों को देखकर, अर्जुन है हैरान।

करुणा से अभिभूत है, कोमल हो गए प्राण।। 27

 

अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से भावविभोर होकर इस तरह अपने भाव प्रकट किए

अर्जुन बोला हे सखे, सब ही मेरे प्राण।

अंग-अंग है कांपता,  मुख है मेरा म्लान ।। 28

 

रोम-रोम कम्पित हुआ, विचलित ह्रदय शरीर।

गाण्डीव भी हो रहा, कर में विकल अधीर।। 29

 

सिर मेरा चकरा रहा, तन भी छोड़े साथ।

सखे कृष्ण सब देखकर, हुआ अमंगल ताप।। 30

 

कृष्ण सुनो मेरी व्यथा, मुझे न भाए युद्ध।

राज्य विजय न चाहिए, जीवन बने अशुद्ध।। 31

 

गोविंदा मेरी सुनो, क्या सुख है,क्या लाभ।

सब ही मेरे मीत हैं, सब ही मेरे भ्रात।। 32

 

हे मधुसूदन आप ही, मुझे बताएँ बात।

गुरुजन, मामा, पौत्रगण, सब ही मेरे तात।। 33

 

कभी न वध इनका करूँ, सब ही अपने मीत।

मुझको चाहे मार दें, या लें मुझको जीत।। 34

 

तुम ही कृपानिधान हो,ना चाहूँ मैं लोक।

धरा- गगन नहिं चाहिए, भोगूँगा मैं शोक।। 35

 

धृतराष्ट्र के पुत्र सब, यद्यपि सारे दुष्ट।

फिर भी पाप न सिर मढूं, जीवन हो जो क्लिष्ट।। 36

 

हे अच्युत!मेरी सुनो, यद्यपि सब ये मूढ़।

लोभ, पाप से ग्रस्त हैं, प्रश्न बड़ा ये गूढ़।। 37

 

हम पापी क्योंकर बनें, हम तो हैं निष्पाप।

वध करके भी क्या मिले, भोगें हम संताप।। 38

 

नाश हुआ कुल का अगर, दिखे न कोई लाभ।

धर्म लोप हो जाएगा, बढ़ें अधर्मी पाप।। 39

 

कृष्ण सखे सच है यही, कुल में बढ़ें अधर्म।

धर्म नाश हो जगत में, पाप दबाए धर्म।। 40

 

पाप बढ़ें कुल में अगर, नारी करें कुकर्म।

वर्णसंकरित कुल बने , क्षरित मान औ’ धर्म।। 41

 

कुलाघात यदि हम करें, हो जीवन नरकीय।

पितरों को भी कष्ट हो, पिंडदान दुखनीय।। 42

 

कुल परम्परा नष्ट हो, मिटें धर्म सदकर्म।

मनमानी सब ही करें, रहे लाज ना शर्म।। 43

 

कुलाघात यदि हम करें, मिट जाते कुल धर्म।

वर्णसंकरी दोष से, नष्ट जाति औ’ धर्म।। 43

 

गुरु परम्परा ये कहे, सुनो कृष्ण तुम बात।

जिसने छोड़ा धर्म है, मिले नरक- सौगात।। 44

 

घोर अचम्भा हो रहा, मुझको कृपानिधान।

राजभोग के वास्ते, क्या है युद्ध निदान।। 45

 

धृतराष्ट्र के पुत्र सब, चाहे दें ये मार।

नहीं करूँ प्रतिरोध मैं, मानूँ अपनी हार।। 46

 

 महाराजा धृतराष्ट्र से ये सब वर्णन संजय सारथी ने कहकर सुनाया

बाण-धनुष अर्जुन तजे, शोकमना है चित्त।

केशव सम्मुख हो रहा, विकल भाव- अनुरक्त ।। 47

 

इति श्रीमद्भागवतरूपी उपनिषद एवं ब्रह्माविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में ” अर्जुन विषादयोग ” नामक अध्याय 1 समाप्त

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