हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 50 ☆ छह मुक्तक ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं    “छह मुक्तक.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 50 ☆

☆ छह मुक्तक ☆ 

बाग- बाग मन रहे।

जिंदगी सुमन रहे।

छोड़िए उदासियाँ,

हर तरफ अमन रहे।।1

 

प्राण के भी अर्थ हों।

हम कभी न व्यर्थ हों।

जिंदगी है आइना,

दिखा सकें समर्थ हों। 2

 

शिष्ट है अशिष्ट है।

आदमी क्लिष्ट है।

अब सभी बदल रहा,

आज सब विशिष्ट है।। 3

 

उमंग हों, तरंग हो।

लय कभी न भंग हो।

प्राण पुष्प से खिलें

सुगंध ही सुगंध हो।। 4

 

सोचता अमन रहे।

जेब में कफ़न रहे।

जुड़ रहा मैं टूटकर

सच कोई सपन रहे।।5

 

वक्त एक- सा नहीं,

क्या गलत है क्या सही।

रोज ही सुकाम की

लिख रहे हम बही।।

आप स्वयं  जानिए

कुछ समय निकालिए।

सोच योग से बढ़ी

हो रही कुछ अनकही।। 6

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मैं और मेरा घर ☆ सुश्री अंजली श्रीवास्तव

सुश्री अंजली श्रीवास्तव

(सुश्री अंजली श्रीवास्तव जी का ई – अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – मैं और मेरा घर।)

☆ कविता ☆ मैं और मेरा घर ☆ सुश्री अंजली श्रीवास्तव☆

जब मायके की ड्योढ़ी छोड़ कर,

कुछ दाने चावल के फेंके थे मैंने,

नैनों में एक प्यारे से अपने घर के,

तभी मधुर स्वप्न भी देखे थे मैंने!

 

पति गृह आ कर फिर मैंने अपने ,

नए घर को हृदय से अपनाया,

किन्तु मेरे इस हठी नए घर ने,

मुझको सदा ही समझा पराया!

 

जब दो हठी जन टकराते रहे,

तो आनंद बहुत ही आता रहा,

मैं घर पर अधिकार जताती रही,

वह हरदम मुझे ठुकराता रहा!

 

अब त्रियाहठ के आगे आखिर,

इस घर की जीत कहाँ संभव भला,

इस घर को हृदय बड़ा करके,

फिर मुझको भी अपनाना पड़ा!

 

© सुश्री अंजली श्रीवास्तव

मकान नम्बर-सी-767सेक्टर-सी, महानगर, लखनऊ – 226006

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 72 – फिर कुछ दिन से…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  “फिर कुछ दिन से… । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 72 ☆ फिर कुछ दिन से… ☆  

फिर कुछ दिन से घर जैसा

है, लगने लगा मकान

खिड़की दरवाजों के चेहरों

पर लौटी मुस्कान।

मुस्कानें कुछ अलग तरह की

आशंकित तन मन से

मिला सुयोग साथ रहने का

किंतु दूर जन-जन से,

दिनचर्या लेने देने की

जैसे खड़े दुकान।

फिर कुछ दिन से घर जैसा

है लगने लगा मकान।।

बिन मांगा बिन सोचा सुख

यह साथ साथ रहने का

बाहर के भय को भीतर

हंसते – हंसते, सहने का,

अरसे बाद हुई घर में

इक दूजे से पहचान।

फिर कुछ दिन से घर जैसा

है लगने लगा मकान।।

चहकी उधर चिरैया

गुटर-गुटरगू करे कबूतर

पेड़ों पर हरियल तोतों के

टिटियाते मधुरिम स्वर,

दूर कहीं अमराई से

गूंजी कोयल की तान।

फिर कुछ दिन से घर जैसा

है लगने लगा मकान।।

इस वैश्विक संकट में हम

अपना कर्तव्य निभाएं

सेवाएं दे तन मन धन से

देश को सबल बनाएं,

मांग रहा है हमसे देश

अलग ही कुछ बलिदान

फिर कुछ दिन से घर जैसा

है लगने लगा मकान

खिड़की दरवाजों के चेहरों

पर लौटी मुस्कान।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ सौहार्द्र बढ़ाने की बातें ! ☆ श्री अमरेन्द्र नारायण

श्री अमरेन्द्र नारायण

(हम ई-अभिव्यक्ति पर एक अभियान की तरह समय-समय पर  “संदर्भ: एकता शक्ति” के अंतर्गत चुनिंदा रचनाएँ पाठकों से साझा करते रहते हैं। हमारा आग्रह  है कि इस विषय पर अपनी सकारात्मक एवं सार्थक रचनाएँ प्रेषित करें। आज प्रस्तुत है श्री अमरेन्द्र नारायण जी की  एक विचारणीय कविता “सौहार्द्र बढ़ाने की बातें !”।)

☆  सन्दर्भ: एकता शक्ति ☆ सौहार्द्र बढ़ाने की बातें ! 

संकरी गलियों, चौराहों पर

भटकाने के दोराहों पर

रह-रह कर सुनने को मिलतीं

कुछ उकसाने वाली बातें

कुछ भड़काने वाली बातें

कुछ बिखराने वाली बातें!

 

हम शांति, अहिंसा के प्रेमी

शांति की अपेक्षा रखते थे

बर्बर मानस में क्रूर कुटिल

कुछ और इरादे पलते थे

 

स्वागत, सत्कार अतिथियों का

करते थे सहज सरलता से

पर कुटिल लुटेरों ने छीनी

शांति, सुविधा बर्बरता से

 

दुर्भाग्य हमारा, अंधकार ने

ज्योति को ही लील लिया

अपनों का भी तो दोष रहा

सुख चैन हमारा छीन लिया

 

विश्वासघात, छल, निर्ममता

को देश ने झेला है अब तक

अब अहित करेगा देश का जो

उसे याद रहेगा खूब सबक

 

नापाक इरादे वालों की

अब दाल न गलने पायेगी

इस देश की जनता जी भर कर

भर पेट सबक सिखलायेगी!

 

जो द्वेष की बातें कहते हैं

उकसाने और भड़काने की

उन लोगों की है खैर नहीं

कीमत देंगे बहकाने की!

 

इसलिये न कोई बात करे

लोगों को मूर्ख बनाने की

उल्लू सीधा अपना करके

अपनी दुकान चलवाने की!

 

बंद उन्हें करनी होगी

ये फुसलानेवाली बातें

ये लड़वाने वाली बातें

ये भड़काने वाली बातें!

 

जो नहीं मानते, उन सब की

जल्दी ही शामत आयेगी

यह सारी शेखी,चालाकी

कहीं धरी-धरी रह जायेगी!

 

हर गली, गांव चौपालों पर

हों प्रेम शांति की ही बातें

इस देश की प्रगति में मिल कर

हों हाथ बटाने की बातें

मिलजुल कर चलने की बातें!

सौहार्द्र बढ़ाने की बातें!

 

©  श्री अमरेन्द्र नारायण 

जबलपुर २४ नवम्बर २०२०

शुभा आशर्वाद, १०५५ रिज़ रोड, साउथ सिविल लाइन्स,जबलपुर ४८२००१ मध्य प्रदेश

दूरभाष ९४२५८०७२००,ई मेल [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ तोहमत ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ तोहमत ☆

नदी का प्रवाह

सीने पर रोककर

मैं खड़ा रहा बाँध बनकर

प्यासों की प्यास बुझाने,

इस बार बरसात

क्या बेरंग हुई,

लोग आ गये

मुझ पर तोहमत लगाने!

 

©  संजय भारद्वाज 

12.19 बजे, 15.11.2020
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 23 ☆ मंजर शहीद के घर का ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मंजर शहीद के घर का। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 23 ☆मंजर शहीद के घर का

कैसा मंजर होगा उस शहीद के घर का,

जिस घर से माँ का आशीर्वाद लेकर वो सरहद पर गया था ||

 

टिकट था मगर रिजर्वेशन नही मिला,

सरहद पर तत्काल पहुंचो कैप्टन का पैगाम आया था ||

 

अफ़सोस किसी ने उसकी एक ना सुनी,

रिज़र्वेशन कोच से बेइज्जत कर उसे नीचे उतार दिया ||

 

लोग तमाशाबीन बने देख रहे थे,

उन्होने भी उसे ही दोषी ठहरा कर अपमानित किया ||

 

जनरल डिब्बा ठसाठस भरा हुआ था,

किसी ने भी उसे बैठने क्या खड़ा भी नहीं होने दिया ||

 

सामान की गठरी बना गैलरी में बैठ गया,

पैर समेटता रहा, आते-जाते लोगों की ठोकरे खाता रहा ||

 

सरहद पर दुश्मन गोले बरसा रहा था,

उसे जल्दी पहुंचना जरूरी था इसलिए हर जिलालत सहता रहा ||

 

पत्नी की याद में थोड़ा असहज हो रहा था,

उसका मेहंदी भरा हाथ आँखों के सामने बार-बार आ रहा था ||

 

माँ का नम आँखों से उसे विदा करना,

माँ का कांपता हाथ उसे सिर पर फिरता महसूस हो रहा था ||

-2-

पिता के बूढ़े हाथों में लाठी दिख रही थी,

सिर टटोलकर आशीर्वाद देता कांपता हाथ उसे दिख  रहा था ||

 

पत्नी चौखट पर घूंघट की आड़ में उसे देख रही थी,

उसकी आँखों से बहता सैलाब वह नम आँखों से महसूस कर रहा था ||

 

दुश्मन के कई सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया,

दुश्मन ने उसे पकड़ लिया और निर्दयता से सिर धड़ से अलग कर दिया ||

 

इतना जल्दी वापिस लौटने का पैगाम आ जाएगा,

विश्वास ना हुआ, बाहर भीड़ देखकर घर में सब का दिल बैठ गया ||

 

नई नवेली दुल्हन अपने मेहँदी के हाथ देखने लगी,

किसी ने खबर सुनाई उसका जांबाज पति देश के काम आ गया ||

 

कांपते हाथों से माँ ने बेटे के सिर पर हाथ फेरना चाहा,

देखा सिर ही गायब था, माँ-बहू का हाल देख पिता भी घायल  हो  गया ||

 

पिता ने खुद को संभाला फिर माँ-बहू को संभाला,

कांपते हाथों से सलामी दी, कहा फक्र है मुझे मेरा बेटा देश के काम आया ||

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 59 ☆ साँचा ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साbharatiinझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “साँचा”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 59 ☆

साँचा ☆

उसकी नीली आँखों को

उसके गोरे हाथों को

उसके झूमते पांवों को

डाल दिया गया सांचे में

और फिर उन सांचों को

कई दिनों तक जकड़कर रख दिया

ताकि

वो वही देखे जहां उसकी आँखों की दिशा तय की गयी थी,

वो वही काम करे जहां उसके हाथों को ढाला गया था,

वो वहीँ कदम रखे जिस ओर उसके पाँव को दिशा दी गयी थी…

 

इन सांचों में ढालते वक़्त

समाज यह भूल गया

कि उसकी नाक को, उसके दिमाग को

किसी सांचे में नहीं ढाला जा सकता था

वो तो स्वच्छंद थे…

 

वो आँगन में खड़ी-खड़ी

ख़्वाबों की वो सुगंध सूँघती

जो उसे देती एक नया अनुभव

और जिसकी ओर वो खिंची चली जाती…

 

वो ऐसी कथाएँ वाचती

जो उसको दे देते पर

और वो

कभी आसमान को चूमती

कभी धनक के झूलों में बैठती

और परिंदों सी फिरती रहती!

 

समाज को जब मालूम हुआ

कि वो इस तरह उड़ने लगी है,

उन्होंने पूरी की पूरी कोशिश की

कि उसे समूचा ही सांचे में ढाल दिया जाए-

पर तब तक उसके परों में

इतनी जान आ गयी थी

कि वो तोड़कर साँचा उड़ गयी

और देखने वाले,

देखते ही रह गए!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सुनो वॉट्सएप! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ सुनो वॉट्सएप! ☆

 

कई बार की-बोर्ड पर गई

दोनों की अंगुलियाँ

पर कुछ टाइप नहीं किया,

टाइप कर भी लिया

तो कभी सेंड नहीं किया,

ख़ास बात रही

बिना टाइप किये,

बिना सेंड किये भी

दोनों ने अक्षर-अक्षर पढ़ ली

एक-दूसरे की  चैट ..,

चर्चा है,

बिना बोले,

बिना लिखे,

पढ़ लेनेवाला

नया फीचर

वॉट्सएप की जान है,

ताज्जुब है

खुद वॉट्सएप भी

इससे अनजान है…!

 

©  संजय भारद्वाज 

12.19 बजे, 15.11.2020
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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English Literature – Poetry ☆ Inseparable ..…☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poem “अभिन्न..”.  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

☆ संजय दृष्टि  ☆ अभिन्न 

अलग करने की

कल्पनाभर से अस्तित्व

धुआँ-धुआँ हो चला,

लेखन मुझमें है

या मैं लेखन में हूँ,

अबतक पता नहीं चला…!

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 5:58 बजे, 18.11.2020

 

☆ Inseparable.. ☆

My existence got

Shattered with just the

Thought of separation,

Writing is in me

Or I’m in writing

Don’t know as yet …!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हम तुम ☆ सुश्री सुलक्षणा मिश्रा

सुश्री सुलक्षणा मिश्रा 

( ई- अभिव्यक्ति में युवा साहित्यकार सुश्री सुलक्षणा मिश्रा जी का हार्दिक स्वागत है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “हम तुम”। )

☆ कविता – हम तुम ☆

तुम सपनों के सौदागर

मैं शब्दों की बाजीगर।

तुम सजाते मेले

सपनों के

मैं दिखलाती करतब

शब्दों के।

जो हृदय चुभे

कोई शूल तुम्हें

मैं शब्दों से मरहम देती हूँ।

राह हो तुम्हारी

जब कंटक भरी

मैं शब्दों से

मखमल कर देती हूँ।

दिख जाए बस

एक मुस्कान तुम्हारी

तो सब कुछ मैं

न्यौछावर कर देती हूँ।

जो छलक उठे

एक अश्क तुम्हारा

मीन बिन नीर सी

तड़प उठती हूँ।

मैं नियत से हूँ

तुम्हारी ही

नियति से मैं हारी हूँ।

तुम कृष्ण हो मेरे

पूरे से

मैं राधिका तुम्हारी

अधूरी सी।

 

© सुश्री सुलक्षणा मिश्रा 

संपर्क 5/241, विराम खंड, गोमतीनगर, लखनऊ – 226010 ( उप्र)

मो -9984634777

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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