हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 66 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 66 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

संकल्पों की साधना,

देती है विश्वास।

शांत भाव की कामना,

हृदय  जगाती आस।

 

रचते रचते रच गये,

मेरे मन के गीत

मन की सारी वेदना,

मन का है संगीत।

 

अंतर्मन की वेदना,

 समझ सका है कौन।

जीवन में जो खास है,

वही आज है मौन।

 

कोरोना के काल में,

घर-घर कारावास।

है स्वतंत्र तन-मन-लगन

देखो सबके पास ।।

 

स्वप्न हवाई हो रहे,

चितवन भरे उड़ान।

मन उमंग में बावरा,

हर पल से अनजान।।

 

गौतम जिनका नाम है,

कहलाए वे बुद्ध।

गूढ़ ज्ञान के पारखी,

करते नमन प्रबुद्ध।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एहसास… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(ई-अभिव्यक्ति में सुविख्यात साहित्यकार श्री जयेश कुमार वर्मा जी का हार्दिक स्वागत है। आप बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता एहसास…  ।)

☆ कविता  ☆ एहसास… ☆

अब….जब भी…..

तुम्हारे, वजूद के,

इर्द गिर्द….

अपने एहसासों का,

ताना बाना बुनता हूँ,  मैं,

तो लगता है ये,

तुम्हारा, होना, ही,

मायने हैं…मेरी.जिंदगी के..,

सोचा भी नहीँ….

कभी,देखा भी नहीँ,

अपने में ही मशरूफ़ रहा,

एक, सरसरी तौर पर,

जीता रहा,

तुम्हारे…..साथ…साथ,

यूँ, ही गुजरता, वक़्त, गुजर गया,

अब जब हैं, नहीँ…खत्म सी हैं,

मेरी जरूरतें,

जब, वक्त ही वक़्त है मेरे पास,

देखा है तुम्हें, करीब से, इतने दिनों बाद,

समय ने खेंच दी हैं, तुम्हारे चेहरे पर,

कुछ लकीरें, यहां वहां,

छीन नहीं पाया है, अब भी,

आँखों की वो जीवंत चमक,

अधर धरे अब भी मुस्कान,

अब, सोचता हूँ,

कैसे, निभा लिए तुमने,

दायित्व इतने सारे, कि,

घोंसले में, अब हम तुम ही हैं,

एक दूजे को देखते, मुस्काते, समझाते,

कि, एक दूजे बिन अब, नहीं गुजारा,

बना रहे यूँ ही साथ हमारा…

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सुरभि तुम्हारी यादों की ☆ डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया

डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया

( ई – अभिव्यक्ति में डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया जी का हार्दिक स्वागत है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया जी ने चिकित्सा सेवाओं के अतिरिक्त साहित्यिक सेवाओं में विशिष्ट योगदान दिया है। अब तक आपकी नौ काव्य  कृतियां  प्रकाशित हो चुकी हैं एवं तीन  प्रकाशनाधीन हैं। चिकित्सा एवं साहित्य के क्षेत्र में कई विशिष्ट पदों पर सुशोभित तथा  शताधिक पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया जी  से हम अपने प्रबुद्ध पाठकों के लिए उनके साहित्य की अपेक्षा करते हैं। आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर भावप्रवण गीत  सुरभि तुम्हारी यादों की । )

☆ सुरभि तुम्हारी यादों की ☆

इक किरण नेह की इस मन के, आँगन में सदा चमकती है।

इक सुरभि तुम्हारी यादों की, तन-मन में सदा महकती है।।

 

यह विरह मिला जबसे हमको, तब से हम और अधीर हुये।

हो गयीं कामनाएँ जोगन, सब सपने संत कबीर हुये।

यह पीर हमारी गूँगी सी, मन ही मन सदा सिसकती है।।

 

ये गीत प्रेम की पूजा के, अभिशापित रोली चन्दन हैं।

मन के मंदिर की चौखट पर, ये अनदेखे से वंदन हैं।

यह चोट नहीं दिखती लेकिन, रह-रह कर सदा कसकती है।।

 

इक प्रश्न सहज अपनेपन का, रिश्तों की क्या परिभाषा है।

जो नाम मिला तो सफल हुये, बाकी संत्रास निराशा है।

इक सौन चिरैया पीड़ा की, बेमौसम सदा चहकती है।।

 

मिल सकता नही कहीं पर भी, जो मन के भीतर नही मिला।

जीवन के पनघट पर मन को, चाहत का रीता कलश मिला।

इक प्यास आग सी बनकर के, अधरों पर सदा दहकती है।।

 

इक किरण नेह की इस मन के, आँगन में सदा चमकती है।

इक सुरभि तुम्हारी यादों की, तन-मन में सदा महकती है।।

 

© डॉ श्याम मनोहर सीरोठिया

“श्री रघु गंगा” सदन,  जिया माँ पुरम फेस 2,  मेडिकल कालेज रोड सागर (म. प्र.)470002

मोबाईल:  9425635686,  8319605362

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विसंगति ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ विसंगति

आनंद बाँटने का

मुझ पर

अभियोग चला,

पीड़ा बेचने वाले ने

मेरा मुकदमा सुना।

©  संजय भारद्वाज 

दोपहर 12:19 बजे, 26.10.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #78 ☆ कविता – अनुस्वार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक भावप्रवण कविता अनुस्वार  ।  इस विचारणीय  कविता  के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 78 ☆

☆ कविता अनुस्वार ☆

चंचला हो

नाक से उच्चारी जाती

मेरी नाक ही तो

हो तुम .

माथे पर सजी तुम्हारी

बिंदी बना देती है

तुम्हें धीर गंभीर .

पंचाक्षरो के

नियमों में बंधी

मेरी गंगा हो तुम

अनुस्वार सी .

लगाकर तुममें डुबकी

पवित्रता का बोध

होता है मुझे .

और

मैं उत्श्रंखल

मूँछ मरोड़ू

ताँक झाँक करता

नाक से कम

ज्यादा मुँह से

बकबक

बोला जाने वाला

ढ़ीठ अनुनासिक सा.

हंसिनी हो तुम

मैं हँसी में

उड़ा दिया गया

काँव काँव करता

कौए सा .

पर तुमने ही

माँ बनकर

मुझे दी है

पुरुषत्व की पूर्णता .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 46 ☆ राष्ट्र अस्मिता ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  “राष्ट्र अस्मिता .)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 46 ☆

☆ राष्ट्र अस्मिता  ☆ 

भारतवासी भूल न जाना

राष्ट्र अस्मिता के हमले

घायल ये इतिहास पड़ा है

बन्द करो घातक जुमले।।

 

ऊँच- नीच और भेदभाव में

लुटे-पिटे हो तुम सारे

गलती पर गलती करते हो

जागो- जागो अब प्यारे

भूल न जाना क्रूर सिकंदर

भूल न जाना गजनी को

भूल न जाना तुगलक, गौरी

भूल न जाना मदनी को

 

ऐक्य बनाकर चलो सँभलकर

याद करो घाती पिछले।।

 

बाबर को तुम भूल न जाना

उसके रौरव जुल्मों को

मंदिर ढाए, बुर्ज बनाए

देखो सारे उल्मों को

भूल ना जाना नादिरशाह के

खूनी  रक्तापातों को

जुल्म न भूलें औरँगजेबी

शाहजहाँ की घातों को

 

अकबर के भी जुल्म न भूलो

फिर बन जाओगे पुतले।।

 

आसफ खां को भूल न जाना

मत भूलो शाह सूरी को

नहीं बाजबा खान को भूलो

मत भूलो अजमूरी को

देश को लूटा सब मुगलों ने

जमकर ही विनाश किया

अहंकार और जातिवाद ने

भारत सत्यानास किया

 

माटी की सब लाज बचाओ

याद करो कैसे कुचले।।

 

भूल न जाना तुम गोरों को

कैसे कत्लेआम किए

भाई- भाई खूब लड़ाए

सत्ता अपने नाम किए

भूल न जाना डलहौजी को

जिसने गोली प्रहार किए

नहीं भूलना डायर को भी

मानव नरसंहार किए

 

निर्दोषों का खून न भूलें

भूलों से भी ना पिघले।।

 

लूटा जमकर सभी खजाना

देश मेरा कंगाल किया

छोटे से इंग्लैंड ने खुद को

जमकर मालामाल किया

देश बाँटकर, लूटपाट कर

वैभव अपना बढ़ा लिया

मैकाले शिक्षा पद्धति से

नया बवंडर खड़ा किया

 

काले अंग्रेजो जागो

करो न नहले पर दहले।।

 

आजादी के बाद देखता

भारत की तस्वीर को

क्या सपने थे बलिदानी के

भूल गए सब पीर को

स्वारथ में सब लीन हो गए

छोड़ें अपने तीर को

श्रद्धांजलियाँ अर्पित कर दो

अनगिन भगत सुवीर को

 

भूल न जाओ शहादतों को

कुछ बन जाओ तुम उजले।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 68 – पहले खुद को पाठ पढ़ायें  ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  पहले खुद को पाठ पढ़ायें .। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 68 ☆

☆ पहले खुद को पाठ पढ़ायें ☆  

 

पर्व दशहरा तमस दहन का

करें सुधार, स्वयं के मन का।

 

पहले खुद को पाठ पढ़ाएं

फिर हम दूजों को समझायें।

 

पर्वोत्सव ये परम्पराएं

यही सीख तो हमें सिखाए।

 

खूब ज्ञान की, बातें कर ली

लिख-लिख कई पोथियाँ भर ली।

 

प्रवचन और उपदेश चले हैं

पर खुद स्वारथ के पुतले हैं।

 

“पर उपदेश कुशल बहुतेरे”

नहीं काम के हैं, ये मेरे।

 

रावण आज, जलेंगे काले

मन में व्यर्थ, भरम ये पाले।

 

कल से वही कृत्य फिर सारे

मिटे नहीं, मन के अंधियारे।।

 

शब्दों की कर रहे जुगाली

कल से फिर खाली के खाली।

 

चलो स्वयं को, पाठ पढ़ायें

रावण मन का आज जलाएं।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Legislations… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi Poem  “विधान…”We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

विधान…

चाँदनी के आँचल से

चाँद को निरखते हैं,

इतने विधानों के साथ

कैसे लिखते हैं..?

सीधी-सादी कहन है मेरी

बिम्ब, प्रतीक,

उपमेय, उपमान

तुमको दिखते हैं..!

☆ Legislations… ☆ 

From Aanchal* of moonlight

You keep viewing the moon…

 

How d’you manage to write

despite so many dogmatic doctrines…

 

Oh! My stories are always simply straightforward…

 

But, the images,

reflections and symbols,

tenors and analogies

are only seen by you..!

 

 *Aanchal… the lap of saree or dupatta

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ कमाल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ कमाल ☆

नाराज़ हो मुझसे,

उसने पूछा…,

मैं हँस पड़ा,

कमाल देखिए,

वह नाराज़ हो गई मुझसे!

 

# हँसी-खुशी बीते आपका दिन।

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 9.06 बजे, 27.10.20

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 19 ☆ जीवन तो कुछ ऐसे बह गया ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता जीवन तो कुछ ऐसे बह गया) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 19 ☆ जीवन तो कुछ ऐसे बह गया 

 

जीवन तो कुछ ऐसे बह गया,

जैसे झरने से बेतहाशा बहता पानी ||

 

कल-कल का शोर ऐसा हुआ,

कभी समझ में नही आयी जिंदगानी ||

 

बारिश का दौर भी अब थम गया,

बहते झरने का जोश भी कुछ कम कम होने लगा ||

 

सरद मौसम भी आ गया,

झरना भी अब बर्फ की मोटी चादर सा जमने लगा ||

 

फिर गर्म हवा कुछ ऐसी चली ,

कल-कल बहता झरना अब बूंद-बूंद को तरसने लगा ||

 

समझ नही पाया तुझे ए जिंदगी,

बचपन और जवानी के बाद अब बुढापा सामने दिखने लगा ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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